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________________ निरयावलिका) (३३०) [वर्ग-चतुर्थ वहीं पर आ पहुंचा, (वहां पर सुदर्शन ने) तीर्थङ्कर भगवान के छत्रादि अतिशयों के दर्शन करते ही शिविका ठहरवाई और ठहरवा कर उसने अपनी पुत्री भूता को शिविका से नीचे उतारा । तदनन्तर अपनी उस पुत्री भूता को माता-पिता ने अपने आगे करके जहां पर पुरुष-श्रेष्ठ भगवान श्री पार्श्वनाथ जी थे वहां पर आ गए (वहां पर आकर) उनकी प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना-नमस्कार करके सुदर्शन गाथापति ने इस प्रकार निवेदन किया-हे देवानुप्रिय भगवन् ! यह भूता नाम की हमारी एक ही पुत्री है, जो हमें अत्यन्त प्रिय है। हे देवानुप्रिय प्रभो! यह निश्चय ही सांसारिक भय से उद्विग्न होकर अत्यन्त भयभीत हो गई है, इसलिये यह आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती है, इसलिये हे देवानप्रिय प्रभो ! हम आपको यह शिष्या रूप भिक्षा देते हैं; आप इसे भिक्षा रूप में स्वीकार करें । (तब पार्श्व प्रभु बोले) हे देवानु प्रियो ! जैसे आप लोगों की आत्मा को सुख हो वैसा करें। ___ तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या अरिहन्त श्री पार्श्व प्रभु के ऐसा कहने पर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर उत्तर-पूर्व दिशाओं के बीच ईशान कोण में जाकर स्वयं ही (अपने हाथों मे) वस्त्र-आभूषण आदि उतार देती है। तदनन्तर देवानन्दा के समान आर्या पुष्पचूला के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर गुप्त ब्रह्मचारिणी बन जातो है ॥५॥ ___टीका-समस्त वर्णन अत्यन्त स्पष्ट है । यहां "गुप्त ब्रह्मचारिणी'' का अर्थ है आन्तरिक विकारों को त्याग कर मनो-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति का पालन करते हुए-वासनाओं का सर्वथा त्याग करने वाला साधक)। शेष विषय स्पष्ट है ।। ५ । मूल-तएणं सा भूया अज्जा अण्णया कयाई सरीरबाओसिया जाया यावि होत्था, हत्थे धोवइ, पाये धोवइ एवं सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणगंतराइं धोवइ, कक्खंतराइं धोवइ, गज्झंतराइं धोवइ, जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिज्ज वा निसोहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य मं पुत्वामेव
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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