SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ग-चतुर्थ]. (३२६) निरयावलिका HAM पहुंचा, छत्ताइए तित्थयराइसए पासइ-(वहां पर सुदर्शन ने) तीर्थङ्कर भगवान के छत्रादि अतिशयों के दर्शन करते ही, सोयं ठावेइ -शिविका ठहरवाई, ठावित्ता-और ठहरवा कर, भूयं बारियं सोयाओ पच्चोरुहेइ-उसने अपनी पुत्री भूता को शिविका से नीचे उतारा। तएणं-नदनन्तर, तं भूपं दारियं-अपनी उस पुत्री भूता को, अम्मापियरो पुरओ काउंमाता-पिता ने अपने आगे किया और, जेणेव पासे अरहा पुरुसादाणीये-जहां पर पुरुष - श्रेष्ठ भगवान पार्श्वनाथ थे, तेणेव उवागया-वहीं पर आ गए, तिक्खुत्तो वंदति नमसति-(वहाँ पर आकर) उनकी प्रदक्षिणा करके वंदना नमस्कार करते हैं, वंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-वन्दना नमस्कार करके सुदर्शन गाथापति ने इस प्रकार निवेदन किया, एवं खलु देवाणुप्पिया!--हे देवानुप्रिय भगवन् !, भूता दारिया अम्हं एगा धूता-यह भूता नाम की हमारी एक ही पुत्री है, इट्ठा०जो हमें अत्यन्त प्रिय है, एस णं देवाणप्पिया! हे देवानुप्रिय प्रभो! यह निश्चय ही, संसारभउविग्गा-सांसारिक भय से उद्विग्न होकर, भीया- अत्यन्त भयभीत हो गई है, जाव देवाणप्पिया णं आतिए-इसलिये यह आपके समीप, मडा जाव पवइए-मुण्डित होकर प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, तं एयं णं देवाणुप्पिया-इसलिये हे देवानुप्रिय प्रभो ! हम आपको यह. सिस्सिणिभिक्खं दलयामो-शिष्या रूप भिक्षा देते हैं, पडिच्छ न्तु ण देवाणुप्पिया-इसलिये आप इसे भिक्षा रूप में स्वीकार करें। (तब पार्श्व प्रभु बोले-) अहासुहं देवाणप्पिए०-हे देवानुप्रियों ! जैसे आप लोगों को आत्मा को सुख हो वैसा करें। तएणं सा भया दारिया-तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या, पासेणं अरहया० एवं वुत्ता समाणी-अरिहन्त श्री पार्श्व प्रभु के ऐसा कहने पर, हट्ठतुहा०—अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर, उत्तरपुरस्थिम-उत्तर-पूर्व दिशाओं के बीच ईशान कोण में जाकर, सयमेव आभरणमल्लालंकारं-स्वयं ही (अपने हाथों से) वस्त्र-आभूषण आदि, ओमुयइ-उतार देती है, जहा देवानंदा पुष्फचूलाणं तिए-तदनन्तर देवानन्दा के समान आर्या पुष्पचूला के पास, जाव गुत्तबभयारिणी-प्रव्रज्या ग्रहण कर गुप्त ब्रह्मचारिणी बन जाती है ॥ ५॥ मूलार्थ- तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने स्नान करके आई हुई और वस्त्रालंकारों से विभूषित अपनी पुत्री भूता को हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका पर बिठलाया और बिठना कर वह अपने मित्रों एवं जाति बन्धुओं के साथ विविध वाद्ययन्त्रों की ध्वनियों से वातावरण को गुंजायमान करता हुआ राजगृह वगर के बीचोंबीच से निकलते हुए राजमार्ग से जहां पर गुणशील नामक उद्यान था
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy