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वर्ग-तृतीय ]
( २२६)
। निरयावलिका
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रात्रि के समय, एगे देवे-एक देवता, अन्तियं-उसके समक्ष, पाउम्भूए-प्रकट हुआ। तएणं से देवे-तब उस देवता ने, सोमिलं माहणं-सोमिल नामक ब्राह्मण से, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, हं भो सोमिल माहणा ! पव्वइया- हे प्रवजित सोमिल ब्राह्मण, दुष्पव्वइयं ते-तेरी प्रव्रज्या दष्प्रव्रज्या है। तएणं से सोमिले-तब वह सोमिल ब्राह्मण, तस्स देवस्स- उस देवता के द्वारा, दोच्चपि तच्चंपि-दो तीन बार कहे जाने पर भी, एयम-उसकी बान का, नो आढाइनो परिजाणइ-न तो उसकी बात का प्रादर करता है और न ही उसकी बात पर कोई ध्यान देता है, जाव०-यावत्, तुसिणीए संचिट्ठा-अपितु मौन धारण करके अपने स्थान पर ही बैठा रहता है। तएणं से देवे-तब वह देवता, माहणरिसिणा-ब्राह्मण ऋषि द्वारा, अणाढाइज्जमाणे-तिरस्कृत होकर, जामेवदिसि पाउन्भूए-जिस दिशा में प्रकट हुआ था, तामेव दिसि पडिगए- उसी दिशा मैं लौट गया।
तएणं से सोमिले-तदनन्तर वह सोमिल, कल्लं जाव जलते-दूसरे दिन प्रात:काल सूर्योदय होते ही, वागलवत्थ-नियन्थे-बल्कलवस्त्र धारण किए हुए, किढिणसंकाइयं गहाय-अपनी बंहगी को उठा कर, गहियभंडोवगरणे-और अपने भाण्डोपकरण लेकर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधई-काष्ठ मुद्रा से अपना मुख बांध लेता है, (ोर) बांध कर, उत्तराभिमुहे संपत्थिए - उत्तर की तरफ मुंह करके चल देता है, तएणं से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, विइयविसम्मि-दूसरे दिन, पच्छावरहकाल समयंसि-अपराह्नकाल के अन्तिम प्रहर में, जेणेव सत्तवन्ने-जहां सप्तपर्ण नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-वहां पर आ जाता है, (और), उवागच्छित्ता , वहां भाकर, सत्त. बस अडे-उस सप्तपर्ण वृक्ष के नोचे, किढिणसंकाइयं ठवेइ-अपनी बंहगी को रख देता है. ठवित्ता-और रख कर, वेइंद-वेदी की रचना करता है. वड़िता-और वेदिका की रचना करके, जहा असोगवरपायवे-जैसे पहले अशोक वृक्ष के नीचे, जाव-यावत् अर्थात् पूर्ववत् स्नानाबि करके, अगि हुणइ-अग्नि में हवन करता है, कठुमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, तुसिणीए संचिट्ठइ-और मौन होकर वहीं बैठ जाता है ॥१६॥
मूलायं-तत्पश्चात् उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के सामने अर्धरात्रि एक देव प्रकट हुआ और उस देवता ने उस सोमिल नामक ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-हे प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरे द्वारा धारण को गई प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है। किन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देवता के द्वारा दो-तीन बार कहने पर भी उसकी बात का कोई सम्मान नहीं किया और न ही उसकी ओर कोई ध्यान दिया, अपितु चुपचाप अपने ही स्थान पर बैठा रहा। तत्पश्चात् वह देवता सोमिल ब्राह्मण ऋषि द्वारा तिरस्कृत होकर जिस दिशा में प्रकट हुआ था उसी दिशा में लोट गया।