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________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (१९) [ बर्ग-प्रथम - पमुहा संति । अभयम्मि गहियव्वए अन्नया कोणिओ कालाइहि दसहि कुमारेहि सम मंतेइ-"सेणियं सेच्छाविग्धकारयं बंधिता एक्क रसभाए रज्जं करेमो ति।" तेहि पडिस्सुयं, सेणिओ बद्वो ।पुरवन्हे अवरन्हें य कससयं दवावेइ सेणियस्य कूणिओ पुव्वभवे वेरियत्तणेण। चेल्लणाए कयाइ भोयं नदेइ, भत्तं वारियं पाणियं न देइ । ताहे चेल्लगा कह वि कुम्मासे वालेहिं बंधित्ता सयवारं सुरंपवेसेइ ।सा फिर घोव्वइ सयवारे सुरापाणियं सव्वं होइ। तीए पहावेग सो अयणं न वेएइ। इस समस्त पाठ का अर्थ ऊपर ही प्रकट कर दिया गया है। राजा कोणिक जब राज-सिंहासन पर स्वयं ही बैठ गया तब वह चेलना देवी माता जी के चरण-वन्दन करने के लिए गया। माता उसे देखकर प्रसन्नता प्रकट न कर सकी। तब उसने कहा-"हे माता ! मुझे राज्य की प्राप्ति हुई है, क्या तूं इस विषय में प्रसन्न नहीं हैं ?" माता ने उत्तर में कहा-'हे पुत्र ! देव-गुरु के समान पिता को तू ने कारागृह में बन्द कर दिया है, मुझे प्रसन्नता किस बात की हो।" तब इसके उत्तर में उसने कहा___माता-"राजा श्रेणिक मुझे मारना चाहता था।" माता ने कहा-"पुत्र ! तेरा यह विचार निराधार है। जब तू बाल्यावस्था में था तब तेरी अंगुलो में पोप और शोणित के कारण अत्यन्त वेदना हो रही थीं, तब आपके पूज्य पिता इस अंगुली को मुख में डाल कर तुम्हें शान्त करते थे।" तब कोणिक ने कहा "हे माता जी यदि मेरे पूज्य पिता जी मुझ से परम स्नेह रखते थे तो मैं अभी उनकी बेड़ी आदि को काट कर लाता हूं। फिर वह परशु हाथ में लेकर कारागृह में गया। महाराज श्रेणिक ने उसे प्राते हुए देखकर भयभीत होकर तालपुट विष के द्वारा प्राण त्याग दिए । जब कोणिक ने उनको मृत पाया तब उसने वियोग-जन्य-दुःख के साथ पिता का अन्त्येष्टि संस्कार किया। कुछ समय के पश्चात् जब उसका शोक दूर होगया तब उसने राजगृही नगरी को छोड़कर चम्पा नगरी को अपनी राजधानी बनाया। उक्त वर्णन निम्नलिखित वृत्ति पाठ से जिज्ञासु जन अवगत करें अन्नया तस्स पउमावईदेवीए पुत्तो एवं पिओ अस्थि । मायाए सो भणिओ-“दुरात्मन् ! तव अंगुली किमिए वसंतो पिया मुहे काऊग अस्थियाओ, इयरहा तुमं रोयंतो चेब चिट्ठसु।” ताहे चित्तं मणःगुवसंतं जायं । मए पिया एवं वसणं पाविओ, तस्स अधिई जाया। भुजंतओ चेव उट्ठाय परसुहत्यगओ, अन्ने भगति लोहदंडं गहाय, 'नियलाणि भंजामि' ति पहाविओ। रक्खवालगो नेहेण भणइएसो सो पावी। लोहदंडं परसु वा गहाय एइ' ति। सेणिएण चितियं 'न नज्जइ केण कुमारेण मारेहि ?" तउ तालपुडगं विसं खइयं । जाव एइ ताव मओ। सुठु यरं अधिई जाया। ताहे यमकिञ्चं काऊण घरमागओ, रज्जधुरामुक्कतत्तीओ तं चेव चितंतो अच्छइ ।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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