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बर्ग-तृतीय ]
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[ निरयावलिका
तए णं-तत्पश्चात्, से चंदे-वह चन्द्रमा, जोइसराया ज्योतिष देवों का राजा, अहुणोववन्ने समाणे-बर्तमान में ही उत्पन हुआ, पंच विहारे-पांच प्रकार की, पज्जत्तीए-पर्याप्तियों की, पंज्जत्तिभाव गच्छइ-पांच प्रकार की पर्याप्ति भाव को प्राप्त हुप्रा तं तहा-जैसे कि, आहार पज्जत्तीए-आहार पर्याप्ति, सरीर पज्जत्तीए-करीर पर्याप्ति, इंदिय पज्जत्तीए-इन्द्रिय पर्याप्ति, सासोसासपज्जत्तीए-श्वासोश्वास पर्याप्ति, भासा मणपज्जत्तीए - भाषा मन पर्याप्ति इन से. पर्याप्त हुआ।
___चंदस्स गंभंते-भगवन ! चन्द्र की, जोइसिदस्स ज्योतिषइन्द्र की, जोइसरन्नो-ज्योतिराज, केवइयं कालं ठिई पन्नता-कितने काल की स्थिति कही गई है, गोयमा-हे गौतम !, पलिओवमं वाससयसहस्स-मन्भहियं-एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम को, एवं खलु गोयमा- इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम, चंदस्स-चन्द्रमा, जाव-यावत्, जोइसरन्नो ज्योतिष राज ने, सा दिव्या देविडो०-यह दिव्य देवऋद्धि प्राप्त की है, चदेणं भंते-हे भगवन् चन्द्र, जोइसिदे जोइसरायाज्योतिष इन्द्र, ज्योतिष राजा, ताओ देव लोगाओ आउक्खएणं-उस देवलोक की आयु क्षय करके, चइत्ता कहि गच्छिहिइ गच्छइत्ता-च्यवन होकर कहां जाएगा कहां उत्पन्न होगा और उत्पन्न होकर, गोयमा-हे गौतम, महाविदेहेवासे सिज्जिहिइ महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध गति को जाएगा, एवं खलु जंबू-इस प्रकार हे जंबू निश्चय हो, समणेण० - श्रमण भगवान यावत् संप्राप्त ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन यह अर्थ प्रतिपादन किया है, निक्खेवओ-सम्पूर्ण हुमा, पढमं अज्झयणं समत्तंप्रथम अध्ययन समाप्त हुभा ॥३॥
मूलार्थ-उस काल उस समय में श्री पार्श्व अर्हत् पुरुषों में आदरणीय अपने समय के चारों तीर्थों के व्यवस्थापक थे, जैसे भगवान महावीर हैं (सर्व वर्णन उसी तरह है) इतना विशेष है कि उनका शरीर नव हाथ ऊंचा था। उनके सोलह हजार साधु और अट्ठत्तीस हजार साध्वियां का धर्म-परिवार था यावत् वह कोष्ठक उद्यान से समवसृत (हुए) पधारे, परिषद् दर्शनार्थ आई । धर्म उपदेश सुना ।
तत्पश्चात् वह अंगती गाथापति, इस कथा के लब्धार्थ होने पर अति प्रसन्न हुआ। जैसे कार्तिक सेठ का वर्णन है वैसे ही वह भी प्रभु के दर्शनार्थ आया । यावत् प!पासाणा की। धर्म उपदेश सुनकर उस पर विचार किया, विचार करने के पश्चात् साधु बनने की इच्छा व्यक्त करने लगा। इतना विशेष है । देवानुप्रिय ! बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सम्भाला । तत्पश्चात् हे देवानुप्रिय ! (भगवान पार्श्वनाथ के) सान्निध्य में यावत् दीक्षा ग्रहण करूंगा और दीक्षा ग्रहण की जैसे गंगदत्त का वर्णन है उस प्रकार अंगती का भी समझ लेना चाहिए।