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निरयावलका ]
टीका- राजा कोणिक रानी पद्मावती की बातों को लोभ-युक्त, असन्तुष्ट वृत्ति की तथा निरर्थक-सी जान कर उनको कोई महत्व नहीं देता और न ही उन बातों को अच्छा समझता है, अतः वह मुस्करा कर चुप रह जाता है । भाखिर कूणिक राजा था, वह राजनीति को अच्छी तरह समझता था, अत: वह उसे कुछ कहने की अपेक्षा मौन धारण कर लेना ही उचित मानता है ।
किन्तु 'तिरिया हठ' प्रसिद्ध ही है, अतः रानी हट-पूर्वक बार-बार अपनी बात को दोहराती
है ।
( १०५ )
बर्ग - प्रथम
अनुसार आखिर कूणिक
" अन्नया कयाइ" शब्दों
"सरी आवत जात ते सिल पर परत निशान" की कहावत के उसकी बातों को मान लेता है, फिर भी उसे टालने का यत्न करता है । द्वारा यह बात व्यक्त होती है कि वह यह समझता रहा कि सम्भवतः समय पाकर पद्मावती शायद हाथी और हार के लोभ को छोड़ दे, किन्तु उसके हठ के सामने आखिरकार उसे झुक जाना पड़ा और उसने वेहल्ल कुमार को बुलवा कर उसके समक्ष हाथी और हार की मांग रख ही दी
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स्त्री के सामने पुरुष झुक ही जाता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है ।। ६१ ।।
मूल - तणं से, वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी - "एवं खलु सामी ! सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चैव सेयणए गन्धहत्थी अट्ठारसबंके य हारे दिन्ने, तं जइ णं सामी ! तुब्भे ममं रज्जस्स य जणवयस्सय अद्धं दलइ तो णं अहं तब्भं सेयणगं गन्धहृत्थ अट्ठार सबंकं च हारं य दलयामि ।
तएण से कूणिए राया वे हल्लस्स कुमारस्स एयमट्ठ नो आढाइ, नो परिजाण, अभिक्खणं- अभिवखणं सेयणगं गन्धहत्थ अट्ठार सबंक चहारं जाइ ॥ ६२ ॥
छाया - ततः खलु स बेहल्लः कुमारः कूणिकं राजनमेवमवादीत् — एवं खलु स्वामिन्! श्र ेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशचक्रश्च हारो दत्तः, तद् यदि खल स्वामिन्! यूयं मह्यं राज्यस्य च यावत् जनपदस्य च अर्धं दत्तं तदा खल्वई युष्मभ्यं सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्र चहारं ददामि ।
ततः खलु स कूणिको राजा वैहल्लस्य कुमारस्य एतमर्थं नो आद्रियने, नो परिजानाति; अभीक्ष्णंअभीक्ष्णं गन्धहस्तिनम् अष्टावश्यक' च हारं याचते ।। ६६ ।।