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________________ - संस्कृत भाषा में निरावलिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूला और वृष्णि दशा पर संक्षिप्त और शब्दार्थ स्पर्शी वृत्ति लिखी है । 1 श्री चन्द्रसूरि का ही अपर नाम पार्श्वदेव गणि था, जो शीलभद्र सूरि के शिष्य थे । उन्होंने विक्रम संवत् १९७४ में निशीथ चूर्णि पर दुर्गपद व्याख्या लिखी थी और श्रमणोपासक प्रतिक्रमण, नन्दी, जीत-कल्प, बृहच्चूर्णि आदि पर भी टीकाएं लिखी हैं । प्रस्तुत आगम के प्रारम्भ में आचार्य ने भगवान श्री पार्श्व को नमस्कार किया है। पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थस्थिता । निरावति-स्कन्ध व्याख्या काचित् प्रकाश्यते || वृत्ति के अन्त में वृत्तिकार ने न तो अपना नाम दिया है और न गुरु का निर्देश किया है। ग्रन्थ की जो मुद्रित प्रति है उसमें "इतिश्री चन्द्र सूरि विरचित निरयावलिका श्रुत स्कन्ध विवरण समाप्तेति, केवल" इतना ही उल्लेख है । वृत्ति का ग्रन्थ मान ६०० श्लोक प्रमाण है। बड़े लम्बे अन्तराल के पश्चात् आचार्य श्री घासी लाल जी महाराज ने इस पर संस्कृत टीका लिखी है। इस शास्त्र का आगमोदय समिति द्वारा संवत् १६२८ में चन्द्रसूरि की वृत्ति सहित प्रथम - प्रकाशन हुआ। इससे पूर्व सन् १८८४ में आगम संग्रह बनारस से इसका गुजराती विवेचन छपा । १९३२ में श्री पी. एल. वैद्य पूना द्वारा, सन् १६३० में ए. ए. एस. गोपानी और बी. जे. चौकसी का अंग्रेजी अनुवाद छपा था । १९३४ में इसका गुर्जर ग्रन्थ कार्यालय अहमदाबाद से भावानुवाद निकला । वि. सं० १९४५ में आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया । आचार्य श्री आत्माराम जो महाराज ने शुद्ध पाठ के लिये अंग्रेजी अनुवाद व अमोलक ऋषि जी वाले अनुवाद का अनुकरण किया है। ऐसा प्रापने अपनी भूमिका में लिखा है । श्री पुप्फभिक्खु ने १६५४ में ३२ आगमों का शुद्ध पाठ छपवाया । वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी जी ने इसका शुद्ध पाठ छपवाया था । अन्य कई स्थानों से इसके हिन्दी अनुवाद व गुजराती अनुवाद छप चुके हैं । इस उपांग का पंजाबी अनुवाद हमारे द्वारा हो चुका है, जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है । विदेशों में इस उपांग पर काफी कार्य हुआ है। इसकी सूचना हमें फ्रांस की प्रसिद्ध जैन विदुषी डा० नलिनी बलवीर ने अपने अभिनन्दन ग्रन्थ में दी है। डा० वारेन ने १८७८ में एक हस्तलिखित प्रति के आधार पर इस आगम का सम्पादन किया था। इसके सौ साल बाद बेल्जियम ..के प्रोफेसर दलो ने इसका पुनः प्रकाशन किया। इसमें चाहे मूल अनुवाद न हो पर उपांग की विस्तृत भूमिका है, जो डच भाषा में लिखी गई हैं। अब श्री मधुकर मुनि जी महाराज के निर्देशन में डा० देव कुमार का हिन्दी अनुवाद छपा है । इस उपांग का प्रथम उपांग भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी है। इस उपांग की नई ( इक्यावन )
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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