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________________ घटनाएं भारतीय इतिहास की टूटी कड़ियां जोड़ती हैं। यह उपांग युद्ध के भयंकर खतरों से हमें सावधान करता है । प्रस्तुत अनुवाद के कर्ता व मुख्य सम्पादिका प्रस्तुत अनुवाद कैसा बन पड़ा है? इसका निर्णय विद्वद्वर्ग ही करेगा स्थानकवासी श्रमणसंघ के प्रथम शास्ता आचार्य श्री आत्माराम जो महाराज ने इस ग्रागम का अनुवाद आज से ४७ वर्ष पहले किया था । प्राचार्य श्री जी ने अपने जीवन में २० आगमों पर टीकायें लिखीं । आप हिन्दी भाषा के प्रथम आगमों के टीकाकार थे। राहों के एक क्षत्रिय परिवार में उत्पन्न हो उन्होंने अपने जीवन का अधिक भाग शास्त्रों की शोध में लगा दिया। उनकी बाहर की नेत्र ज्योति चली गई थी। पर आत्म-ज्योति का दीपक निरन्तर जलता रहा । हमारी गुरुणी जैन ज्योति, उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज के हम पर बहुत उपकार हैं । उनका प्रत्येक कार्य अद्वितीय होता है। कार्य निर्वाण शताब्दी का हो, चाहे किसी अवार्ड का आप हर कार्य में आगे हैं। हर समय तप, स्वाध्याय के लिये उनका जीवन समर्पित है। आप पंजाबी जैन साहित्य की प्रेरिका व लेखिका । उनकी प्रेरणा से ४० से ज्यादा पुस्तकें पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हुआ है । भगवान महावीर नामक पुस्तक इस समय पटियाला विश्वविद्यालय के बी.ए. की पाठ्यक्रम में लगी हुई है। उनकी शिष्यानुशिष्या भी उनका अनुकरण करती हुई तप-स्वाध्याय में लगी रहती हैं। उनकी बलवती इच्छा थी कि आचार्य श्री के किसी आगम का प्रकाशन हमारी संस्था के माध्यम से हो। इस शुभ कार्य में प्रमुख सहयोग रहा आत्म-कुल- कमल दिवाकर श्री रत्न मुनि जी महाराज का जिन्होंने साध्वी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने गुरु की धरोहर हमें देने में कोई संकोच नहीं किया । पांच साल साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज के सान्निध्य में सम्पादक मण्डल कार्य करता रहा। हम जहां इस कार्य में साध्वी जी का उपकार मानते हैं वहां अनन्त उपकार श्री रल मुनि जी महाराज का मानते हैं। उनके इस उपकार का हम ऋण कभी नहीं चुका सकते । वर्तमान आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज के आशीर्वाद एवं उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की असीम अनुकम्पा से हमने यह प्रकाशन- कार्य आरम्भ कर दिया। शुभ कार्य में देरी तो होनी सहज है । हमारे परम श्रद्धेय श्री तिलकवर जो शास्त्री इस अन्तराल में काफी बीमार रहे, कुछ प्रेस की गड़बड़ी के कारण प्रकाशन में विलम्ब हुआ । सब कुछ 40001 ( वावन )
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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