________________
निरयावलिका]
(७१)
[वर्ग-प्रथम
सद्दावेइ-बुलाती है, सद्दावित्ता एवं वयासी- और बुलाकर उसे कहती है, गच्छणं तुम देवाणुप्पिएहे देवानुप्रिये तुम जाओ और, एवं दारगं-इस बालक को, एगते-एकान्त स्थान में (ले जाकर), उक्कुरुडियाए-कूड़े-कचरे के ढेर पर, उज्झाहि-फैक दो ॥४१।।
मूलार्थ-तत्पश्चात् उस चेलना देवी के (मन में) इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ, क्योंकि गर्भ में रहते हुए ही इस बालक ने निश्चय ही अपने पिता के कलेजे के मांस को खाया है, क्या इससे यह आभास नहीं हो रहा कि यह बालक बड़ा होने पर हमारे कुल का अन्त करने वाला अर्थात् कुलघाती होगा, अत: हमारा इसी में श्रेय है कि हम इस बालक को किसी एकान्त स्थान में कूड़े - करकट के ढेर पर फेंक दें। वह इस प्रकार का विचार करने लगी और (खूब) विचार कर वह अपनी चाकर दासी को बुलाती है और बुलाकर उसे कहती है-“हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को किसी एकान्त स्थान में (लेजाकर), किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फैंक दो॥४१॥
टोका-इस सूत्र में "पूत के पैर पालने से ही पहचान लिये जाते हैं," इस उक्ति के आशय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने यह बतलाया है कि चेलना देवो को गर्भगत बालक के दुष्ट स्वभाव का पूर्ण रूप से पूर्वाभास हो गया था।
मांसासार की प्रवृत्ति ही बुरी होती है, इस बालक ने तो पिता के कलेजे का मांस खाने की इच्छा की जिसके परिणाम स्वरूप मुझे इस प्रकार का निकृष्ट दोहद उत्पन्न हुआ, अतः यह बालक निश्चय ही कुलघाती होगा, अतः इसे अभी से कूड़े - करकट के ढेर पर फिकवा दूं इसी में हमारे कुल का श्रेय है।
क्योंकि राजा के कलेजे का मांस न होते हुए भी उसने पति के कलेजे का मांस समझ कर ही खाया था अत: उसमें बालघात की महापापमयी प्रवृत्ति उदित हो गई, अत: मांस-भक्षण साधारण पाप ही नहीं वह तो अनेक प्रकार की पापमयी प्रवृत्तियों को भी जन्म देता है।
कड़े-करकट के ढेर के लिये “उक्कुरुडिया" शब्द तत्कालीन लोकभाषा का (देशी प्राकृत) का शब्द है ॥४१॥
मूल-तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वुत्ता समाणी करयल० जाव कटु चेल्लणाए देवीए एमठें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता, जेणेव असोगवणिया