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वर्ग-चतुर्थ]
( २६५ )
[निरयावलिका
कंता- प्रिय है, जाव मा णं-यावत् न, वाइया-वात, पित्तिया-पित्त, सिभिया-कफ, सन्निवाइया-सन्निपात, विविहा-विविध, रोगात का-रोगों की पीड़ा, फुसंतु–सताए, इस बात का ध्यान रखा है कि, एसणं-इस प्रकार, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये, संसारभउम्विग्गा-सांसारिक भय से, भीया-डरी हुई है, जम्मणमरणाणं-जन्म-मरण के दुःखों से, देवाणुप्पियाणहे देवानुप्रिये, अंतिए-यह आपके समीप, मुंडा भवित्ता-मुण्डित होकर, जाव-यावत्, पब्वयाइ-प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, तं एयं-इसलिए, अहं-मैं, देवाणुप्पियाणं-देवानुप्रिये, सोसिणीभिक्खं-शिष्या की भिक्षा, दलयाणि-आपको देता हूं, पडिच्छतु णं-आप इसे स्वीकार करें, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये, सोसिणोभिक्ख-इस शिष्या की भिक्षा के रूप में स्वीकार करें, अहासुहं देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय जैसी आप की आत्मा को सुख हा वैसा करो, मा पडिबंघ-शुभ-काम में विलम्ब नहीं करना चाहिये ।।१०।।
मूलार्थ-पालकी से उतरते ही, भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही को आगे किया। वे (सभी) वहां पहुंचे जहां सुव्रता आर्या विराजमान थी। सुव्रता आर्या को वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् भद्र सार्थवाह इस प्रकार कहने लगा - "हे देवानुप्रिये ! सुभद्रा सार्थवाही मेरी धर्मपत्नी है जो मुझे इष्ट है, प्रिय है यावत् मैंने इसका वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोगों से सुरक्षित रखने का ध्यान रखा है, अर्थात् रोगों से इसकी रक्षा की है । अब यह संसार के भय से जन्म-मरण के दुःखों से डरी हुई है। हे देवानुप्रिये ! इस यह सुभद्रा सार्थवाही आप के समीप मुण्डित होकर प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, अतः हे देवानुप्रिये ! मैं आपको सुभद्रा सार्थवाही को शिष्या के रूप में भिक्षा के रूप में प्रदान करता हूं। हे देवानु पये ! आप इस भिक्षा को स्वीकार करें।
. तब आर्या सुव्रता ने कहा - हे देवानुप्रिय ! जैसे आप की आत्मा को सुख हो वैसे करो, पर शुभ काम में विलम्ब अच्छा नहीं ।। १०॥
___टोका-जब सुभद्रा पालकी से उतरी तो भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा को आगे किया, आप पीछे-पीछे साध्वी जी के चरणों में पहुंचा। वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् भद्र सार्थवाह ने स्वयं साध्वी सुव्रता से प्रार्थना की, कि मेरी प्रिय पत्नी सुभद्रा मुझे बहुत प्रिय है पर यह जन्म-मरण रूपी दुःख की परम्परा का अन्त करने के लिए श्रमणी बनना चाहती है। मैं आपको इसे भिक्षा के रूप में भेंट करता हूं। कृपया इसे शिष्या बना कर अनुग्रहीत करे । “ऐसे वचन सुनकर साध्वी सुव्रता ने कहा" हेदेवानुप्रिय ! जैसे आपकी आत्मा को सुख हो वैसे करो।