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________________ निरयावलिका (२६६) [वर्ग-चतुथ दीक्षा को आज्ञा यहाँ पति से ली गई है, जब पत्नी को वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाए, तब पति की आज्ञा से स्त्री को दीक्षा धारण करनी चाहिये । इस सूत्र में सुभद्रा सार्थवाही की वैराग्यभावना का वर्णन किया गया है और शिष्य को भिक्षा रूप कहा गया है । पत्नी को अन्य धार्मिक कार्यों में भी पति की आज्ञा लेनी चाहिये। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह पत्नी को हर प्रकार से समझा-बुझा कर अच्छे काम की आज्ञा प्रदान करे। इस सत्र में पति-पत्नी के कर्तव्यों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । भद्र सार्थवाह के शब्द उसके कर्तव्य की साक्षी हैं : एवं खलु देवाणुप्पिया - सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्ठा, कंता, जाव मा णं वातिया, पित्तिया, सिभिया, सन्निवाइया, विविहा रोगातका फुसंतु-अर्थात् हे देवानुप्रिये ! मुझे अपनी पत्नी प्यारी है मैंने इसकी वात, पित्त, कफ, सन्निपात के विभिन्न रोगों से रक्षा की है। इस बात से भद्र सेठ का पवित्र स्नेह व कर्तव्य - परायणता झलकती है। सारा समारोह साध्वी सुव्रता के उपाश्नय में सम्पन्न हमा। प्राचीन काल में भी साधू साध्वियों के ठहरने के स्थान को "उपाश्रय' कहा जाता था। भगवती सूत्र के आठवें शतक में लिखा है। समणोवस्सए-अर्थात् श्रमणों का उपाश्रय यह संज्ञा स्वयं समझ लेनी चाहिये ॥१०॥ उत्थानिका :-सुभद्रा सार्थवाही ने सुव्रता आर्या के सम्मुख दीक्षा से पूर्व जो कार्य किया, __उसका वर्णन सूत्रकार ने किया हैमूल-तएणं सा सुभद्दा सत्थवाही तुट्ठा सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणणं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्तेणं ! भन्ते ! जहा देवाणंदा तहा पव्वइया जाव अज्जा जाया जाव गत्त बंभयारिणी ॥११॥ छाया-ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही सुव्रताभिरार्याभिरेवमुक्ता सती स्वयमेव आमरणमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्या तत्रवोपागच्छति, उपागत्य सुवता आस्त्रिकृत्वा आदक्षिणप्रदणिणेन वदन्ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, एवमवादोत्-आदीप्तः खलु भदन्त ! यथा देवानन्दा तथा प्रवजिता यावत् आर्या जाता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ॥११॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, सा सुभद्दा सस्थवाही-उस सुभद्रा सार्थवाही.ने, तुट्टाप्रसन्न होकर, सुव्वयाहिं अज्जाहि-सुव्रता आर्या द्वारा, एगं वृत्ता समाणी-इस प्रकार कहने पर,
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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