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________________ वग-तृतीय ] ( २०६ ) [कल्पावतसिका टोका-प्रस्तुत सूत्र में सोमिल ब्राह्मण के मिथ्यात्वी होने का वर्णन है, साथ में यह भी बताया गया है कि मिथ्यात्व के अशुभ परिणाम से वह सम्यक् आचरण वाले साधु पुरुषों से दूर भागने लगा। असंयमियों द्वारा प्ररूपित देव, गरु व धर्म के स्वरूप में श्रद्धा करने लगा। ज्ञाताधर्म कथाङ्क सूत्र के १३वें अध्ययन में नन्दन मणियार के वर्णन की तरह सोमिल का वर्णन भी जानना चाहिये जिसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है एक बार श्रमण भगवान महावीर राजगृही नगरी में पधारे । राजा श्रेणिक शाही ठाटवाट के साथ प्रभु के दर्शन करने आ रहा था उसके हाथी के पैर के नीचे आकर एक मेंढक मर गया। श्रेणिक को इस बात का बहुत खेद हुमा ! भगवान महावीर ने कहा कि श्रेणिक ! वह मेंढक जो तम्हारे हाथी के पैर के नीचे चला गया है वह मेरे दर्शन करने आ रहा था क्योंकि उस तिर्यच को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया था। पिछले जन्म में यह एक धनाड्य गाथापति व श्रमणोपासक था। एक बार वह पौषधोपवास कर रहा था। भयानक गर्मी के कारण रात्रि में उसे प्यास सताने लगी। नंदन मणियार ने निश्चय किया कि सूर्योदय होते ही मैं ऐसे सुन्दर बावड़ी व बाग वनाऊंगा ताकि स्वच्छ ठण्डा पानी मुझे हमेशा मिले । वह सुबह उठा, बाग व बावड़ियां तैयार करवाने लगा। सारी जिंदगी धर्म को छोड़कर बाग बावड़ियों के प्रति आसक्त हो गया। इसी कारण मर कर वह बावड़ी में मेंढक के रूप में पैदा हुआ, किन्तु मर कर वह शुभ भावों के कारण देव बना। सोमिल ने भी इस तरह सम्यक्त्व छोड़ा और मिथ्यात्व ग्रहण किया। वृत्तिकार का इस संदर्भ में कथन है असाधुओं के दर्शन, साधुओं के न मिलने, असाधुओं से मिलाप, कदाग्रह एवं साधुओं के दर्शन न होने के कारण मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। इसके आगे एक रात्रि सोमिल ब्राह्मण अपने भूतकाल के जीवन, अपने उत्तम वंश, मर्यादाओं आदि का चिंतन करते हुए सोचने लगा कि मैं वाराणसी में वेद-पाठी ब्राह्मण-कुल में पैदा हुमा हूं। मैंने शादी की, बच्चे पैदा किये। शौच, तप स्वाध्याय आदि ग्रहण किया। यज्ञों में पशु बलि दी। दान दक्षिणा दी और अतिथियों की सेवा की । अब मुझे सांसारिक धर्म की साधना हेतु बहुत से फल, फूलों के बाग लगवाने उचित हैं। प्रस्तुत सूत्र से सिद्ध होता है कि यज्ञ में पशुबलि के लिए यूप स्थापित करने की परम्परा काफी प्राचीन है। 'अजास्थिए जाव' इस सूत्र के बारे में वृत्तिकार का कथन है। 'सथिए जाव' ति आध्यात्मिकः आत्मविषयः चिन्तित:- स्मरण रूपः प्राथितः मनोगतो, मनत्येव वर्तते, यो न बहिः प्रकाशितः सङ्कल्पो विकल्पः समुत्पन्न प्रादुर्भूतः ॥७॥ मूल-तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्ता. वरत्तकालवयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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