________________
A
निरयावलिका ।
(५५)
वर्ग - प्रथम
उपागत्य सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, निषद्य तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च औत्पत्तिकीभिश्च वैनयिकीभिश्च कामिकी ( कर्मजा ) भिश्च पारिणामिकीभिश्च परिणामयन्परिणामयन् तस्य दोहदस्य आयं वा उपायं वा स्थिति वा अविन्दन् अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायति ॥ ३३ ॥
-
पदार्थान्वयः - तणं - तदनन्तर, स सेणिए राया- वह राजा श्रेणिक, चेल्लणं देविमहारानी चेलना से, एवं वयासी- इस प्रकार बोले, माणं तुमं देवाणुपिए - देवानुप्रये ! तुम इस प्रकार, ओहय० जाव० झियायह- उपहत मन होकर अर्थात् श्रपने मन को मार कर आर्त-ध्यान मत करो, अहं णं तहा जइस्सामि – मैं निश्चय ही कोई ऐसा प्रयत्न करूंगा, जहा णं - जिससे कि, तन बोहलस्स - तुम्हारे दोहद की, संपत्ती भविस्सइ - पूर्ति होगी, त्ति कट्टु - इस प्रकार कह कर, चेल्लणं देवि - महारानी चेलना देवी, ताहि उसको, इट्ठाहि- इष्ट- पूर्ति करने वाले, कंताहिअत्यन्त सुन्दर, पियाहि- प्रियकारी, मणुन्नाहि- - मन को भाने वाले, मणाहि--मनोनुकूल, ओराला हिह-उदार भावनाओं से युक्त अर्थात् गर्भ-काल की कामनाओं को पूर्ण करनेवाली, कल्लानाहि - कल्याणकारी, सिवाहि- शुभकारी, धन्नाहि-ध - धन्य कहलाने के योग्य, मंगल्लाहिमंगलकारी, मिय-मधुर-सस्सिरीयाहि-थोड़े से शब्दों द्वारा अत्यन्त मधुर लगने वाली - शोभायमान, वहि-वचनों द्वारा समासासेइ - आश्वासन देता है, समासासित्ता - और फिर आश्वासन देकर, चेल्लगाए देवोए अंतियाओ - चेलना देवी के पास से, पडिनिवखमइ - वापिस लौट जाता है, पडिनिक्खमित्ता - और लौट कर, जेणेव बाहिरिया - अन्तःपुर से बाहर जहां पर, उद्वाणसाला - उपस्थानशाला - अर्थात् सभा मण्डप था, जेणेव सोहासणे- और उसमें जहां पर राज - सिंहासन था, तेणेव उवागच्छइ — वहीं पर आ जाता है, उवागच्छित्ता - और आकर, सीहासनवरंसि— अपने सिंहासन पर पुरत्थाभिमुहे - पूर्व दिशा की ओर मुख करके, निसीयइ-बैठ जाता है, निसीइत्ता- और बैठ कर, तस्स दोहलस्स - उस दोहद के संपत्ति-निमित्तं - पूर्णता के लिये, बहू आएहि उवाएहि - बहुत प्रकार के साधनों और उपायों के सम्बन्ध में, उप्पत्तियाहि-प्रत्पत्ति की बुद्धि द्वारा य वेणइयाहि वैनयिकी बुद्धि द्वारा, य कमिया हि — कार्मिको बुद्धि के द्वारा, य पारिणामियाहि र पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा परिणामेमाणे परिणामेमाणे - अनेक प्रकार के विचार करता हुआ, तस्स दोहलस्स-उस दोहद की पूर्ति का आयं वा उपायं वा - किसी भी साधन या प्रयोग, ठिवा - व्यवस्था के, अविदमाणे - न सूझने पर, मोहयमण-संकप्पे - मानसिक संकल्प की पूर्ति न होने के कारण, जाव झियायइ - अतः वह भी आर्तध्यान करने लगा ||३३||
मूलार्थ - तदनन्तर वह राजा श्रेणिक महारानी चेलना देवी से इस प्रकार बोले देवि! तुम इस प्रकार अपने मन को मार कर आर्तध्यान मत करो, अर्थात् दुःखी मत होओ मैं निश्चित ही कोई ऐसा प्रयत्न करूंगा जिससे कि तुम्हारे दोहद की पूर्ति होगी । इस