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निरयावलिका]
(२३७)
[वर्ग-तृतीय
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देखकर बह देवता सोमिल को वन्दना-नमस्कार करता है, वन्दित्ता नमंसित्ता-वन्दना नमस्कार करके, जामेव दिसि पाउन्भए--जिस दिशा में प्रकट हुआ था, जाव पडिगए-उसी दिशा में लौट गया ।। १६ ।।
मूलार्थ-तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण उस देव से इस प्रछार बो ला-हेदेवानप्रिय (अब आप ही बतलायें कि मेरी प्रव्रज्या सुप्रवज्या कैसे हो सकती है ? तब उस देवता ने उस सोमिल से इस प्रकार कहा- "हे देवानुप्रिय ! यदि तुम अब भी भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से ग्रहण किये हुए पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को ग्रहण करके अपनी जीवन-यात्रा पर चलोगे तो तुम्हारी प्रवज्या अब भी सुप्रव्रज्या हो सकती है। (सोमिल ने देवता के कथनानुसार श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये) तब उस देवता ने सोमिल को वन्दना नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके वह जिस दिशा में प्रकट हुआ था (अर्थात् दिशा से आया था) उसी दिशा में सौट गया ॥१९॥
___टीका-समस्त प्रकरण सरल है। समास शैली के कारण कुछ शब्दों का अध्याहार कर लेना चाहिये ॥१९॥ .. ____ मूल--तएणं से सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पवपडिवन्नाइ पंच अणुव्वयाइ सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥२०॥
छाया-ततः खलु सोमिलो ब्राह्मणः ऋषिस्तेन देवेन एवमुक्तः सन् पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरति ।।२०॥
पदार्थान्वयः-तएणं से सोमिले माहण रिसी-तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्रह्मषि, तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे-उस देव के द्वारा पूर्वोक्त वचन कहने पर, पुम्वपडिवन्नाइ-पहले ग्रहण किये हए, पंच अणव्वयाइ-पांच अणव्रतों (और सात शिक्षा व्रतों को), सयमेव--स्वयं ही (स्वेच्छा से), उवसंपज्जित्ताणं विहरइ-स्वीकार कर जीवन-यात्रा व्यतीत करने लगा ॥१६॥
___ मूलार्थ तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्रह्मर्षि उस देव के द्वारा पूर्वोक्त वचन कहने पर पहले भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से गृहीत पांच अणु-व्रतों का स्वयं ही पालन करते हुए अपनी जीवन-यात्रा पर चलने लगा ॥२०॥
टोका-"पंच अणुब्बयाई" इस शब्द के बाद "सत्त सिक्खा-वयाई" इस शब्द का अध्याहार कर लेना चाहिये, क्योंकि पूर्व सूत्र में 'दुवालविहं" शब्द द्वारा बारह व्रतों का संकेत पहले ही किया जा चुका है ॥२०॥