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वर्ग - चतुर्थ ]
( ३३३ )
[ निरयावलिका
को धोने लगी, अपनी कांखें धोने लगी, गुप्तांगों के आसपास के भागों को ( बारबार) धोने लगी - अर्थात् साधु- वृत्ति के विपरीत शारीरिक विभूषा में प्रवृत्त हो गई । वह जहां कहीं भी बैठने के लिये, सोने के लिये, स्वाध्याय के लिये कोई स्थान निश्चित करती उस स्थान पर वह पहले ही पानी छिड़क लेती, तब उस बैठने के स्थान का, शयन करने के स्थान का स्वाध्याय-स्थान का प्रयोग करती थी ।
तत्पश्चात् (अर्थात् उसके ऐसे आचरण को देखते हुए ) ( उसकी गुरुणी) पुष्पचूला आर्या ने भूता आर्या को ( प्रतिबोधित करते हुए) इस प्रकार कहा - हे देवानु प्रिये ! हम निश्चित ही श्रमणी हैं ( साध्वी है ) निर्ग्रन्थी हैं; इर्या-समिति आदि पांचों समितियों का पालन करने वाली हैं, हम आन्तरिक विकारों को नियन्त्रित कर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाली हैं, इसलिये यह हमारे लिये सर्वथा त्याज्य है ( कि हम ) शारीरिक विभूषा प्रिय बनें । हे देवानुप्रिये ! तुम शरीर बकुशा ( शारीरिक- विभूषा- प्रिय) ( बनती जा रही हो ), क्योंकि तुम बार-बार अपने हाथों, पैरों और सिर आदि अंगों को धोती रहती हो, सोने बैठने एवं स्वाध्याय करने के स्थान पर पानी छिड़कती हो, इस प्रकार हे देवानुप्रिये, तुम इस पाप स्थान की ( इस पापयुक्त आचरण की ) आलोचना करो, किन्तु उसने अपनी गुरुणी पुष्पचूला की बात अनसुनी कर उसकी उपेक्षा कर दी ], [ वह पुमा आर्या के समान पृथक् उपाश्रय में अकेली ही चली गई और स्वतन्त्रता पूर्वक साध्वाचार के विरुद्ध आचरण करती हुई विचरने लगी ।
तदनन्तर वह आर्या भूता उसी पापाचरण पर स्थिर रह कर बेरोक टोक सर्वथा स्वच्छन्द होकर बारम्बार हाथ पैर आदि अंगों को धोती रही और बैठने आदि के स्थान पर जल छिड़कती रही ॥६॥
टीका - प्रस्तुत प्रकरण में भूता श्रार्या के माध्यम से साध्वाचार विरोधी क्रियाओं पर अच्छा प्रकाश डाला गया है || ६ ||