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प्रथम उपाङ्ग निरयावलिका सूत्र है। यह सभी उपाङ्गों से बड़ा है। पर इसमें एक ही अध्ययन है। कुल १० अध्ययन हैं।
प्रस्तुत आगम का नाम निरयावलिका है । निरय का अर्थ नरक और आवलिका का अर्थ है पंक्तियां, अर्थात् नरक-पंक्तियों में गये प्राणियों का विवरण । परन्तु निरयावलिका अपने आप में स्वतन्त्र उपाङ्ग नहीं है, न ही इसमें वणित उपांगों के सभी प्राणो नरक में गये हैं। यह बात शोध का विषय है कि पांचों उपाङ्गों को निरयाकलिका के अन्तर्गत क्यों रखा गया? हो सकता है कि यह उपाङ्ग आकार में छोटे हों। किन्तु ये सभी स्वतंत्र ग्रन्य हैं, पर प्राचीन काल से इन्हें इकट्ठा लिखा जाता रहा है । निरयावलिका सूत्र के आरम्भ में जिन पाँच वर्गों के नाम आये हैं वह चिन्तनीय है।
आचार्य सुधर्मा के शिष्य जंबू स्वामी जब निरयावलिका सूत्र का अर्थ पूछते हैं तो उन्हें उत्तर मिलता है कि निरयावलिका सूत्र में पांच वग हैं, प्रथम १० अध्ययनों में कोणिक और उसके भाइयों का वर्णन है।
मगध-सम्राट श्रेणिक बिम्बसार का पुत्र अजात शत्रु कोणिक था जो, बहुत लालची वृत्ति का था। उसकी माता चेलना भगवान महावीर की श्राविका थी। प्रस्तुत सूत्र में कोणिक व उसके नाना राजा चेटक के मध्य वैशाली में हुए युद्ध का वर्णन है। भगवान महावीर चम्पा पधारते हैं तो श्रेणिक की रानी काली अपने पुत्र काल कुमार के विषय में पूछती है - "भगवन ! रथ मूसल संग्राम में मेरा पुत्र विजयी होगा या नहीं? वह जीवित लौटेगा या मर जाएगा?"
सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने उत्तर दिया ' 'महारानी ! तरा पुत्र अपने नाना चेटक से लड़ता हुआ उन्हीं के वाण से वीर-गति को प्राप्त हो चुका है।" .प्रभु के मुखारविंद से पुत्र की मृत्यु का वर्णन सुनकर रानी काली को घोर आघात पहुंचा। वह मूर्छित हुई और कुछ देर बाद वापिस लौट गई। - गौतम स्वामी ने काल कुमार आदि सभी राज कुमारों का भविष्य पूछा। भगवान महावीर ने उत्तर दिया कि वे काल कुमार आदि सभी राजकुमार मर कर चतुर्थ पंकप्रभा नरक में पैदा हुए हैं।
प्रभु ने कोणिक के जन्म के बारे में और युद्ध का कारण बताते हुए कहा- "हे गौतम ! इसी राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक राज्य करते थे। उनकी रानी नन्दा के यहां एक अभय कुमार नाम का राज कुमार था जो बुद्धिमान और राजा का प्रधान मन्त्री भी था।
श्रेणिक की दूसरी रानी चेलना ने एक रात्रि गर्भ अवस्था में सिंह का स्वप्न देखा । स्वप्न पाठकों ने उसका फल पुत्र की प्राप्ति बताया। गर्भ के तीन मास व्यतीत होते ही रानी चेलना को दोहला (गर्भस्थ काल की इच्छा) उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं और भाग्यशाली हैं जो अपने पति के कलेजे का मांस खाती हैं और साथ में मदिरा पान करती है । दोहला जैन साहित्य का परिभाषिक शब्द है जिसे 'दोहद' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि गर्भवती स्त्री को तीसरे मास में जो इच्छा उत्पन्न
(वयालीस)