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________________ निरयावलिका] (३३६ ) [वर्ग-चतथं. (गौतम स्वामी पूछते हैं-) भगवन् ! वह श्री देवी देवायु पूर्ण करके कहां जाकर उत्पन्न होगी ?, (श्री पार्श्व प्रभु ने बतलाया कि) वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सभी जन्म-मरणादि के दु:खों का अन्त करेगो। सुधर्मा स्वामी कहते हैं, श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पचूलिका के प्रथम अध्ययन के पूर्वोक्त भाव प्रकट किये थे। इसी प्रकार ह्री देवी आदि नवों आर्याओं के जीवन वृत्तादि को जान लेना चाहिये। इन नवों देवियों के सौधर्म कल्प में देव विमानों के नाम इनके नामों के समान समझ लेने चाहिए । इन सब के पूर्व भव में नगर उद्यान, माता-पिता आदि के नाम संग्रहणी गाथा के समान जान लेने चाहिये । ये सभी गृहत्याग कर पार्श्व प्रभु के सान्निध्य में आर्या पुष्पचूला की शिष्यायें बनीं, सभी शरीर-विभूषा-प्रिय बनीं और सभी देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में सब दुःखों का अन्त कर सिद्ध होंगी ।।७।। ॥ पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग समाप्त.॥
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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