________________
वग - तृतीय ]
( २१६ )
[ कल्पावत सिका
अब उन्हें रखता है । इन सात अङ्गों को स्थापित करने के पश्चात्, महुणा य घएण य-मधु और घृत से, तंदुलेहि य अरिंग हुणइ - तंदुलों से अग्नि में होम करता है, चरु साहेइ - चरु से बलि देता है, साहित्ता - बलि देकर, बलिवइस्सदेवं करेइ 'करिता - बलि से वैश्वदेव की पूजा करता है और पूजा करके, अतिहिपूयं करेइ, करिता - अतिथि पूजन करता है और करके, तओ पच्छा अपणा जाहारं आहारेइ - तत्पश्चात् स्वयं भोजन करता है ||६||
मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरता है उतर कर बल्कल वस्त्र धारण करता है, धारण करके जहां उसकी अपनी झोंपड़ी थी वहां आता है. आकर बांस की कांबड़ ( वंहगी ) को ग्रहण करता है ग्रहण करके पूर्व दिशा की ओर जल छिड़कता है । पूर्व दिशा में जो सोम महाराज है वह सोम नामक दिक्पाल मार्ग में चलते हुए लोमिल ब्राह्मण ऋषि की रक्षा करें, इस प्रकार की प्रार्थना करता है. प्रार्थना करक वह जो पूर्व दिशा में कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, बीज, हरित घास है उनको ग्रहण करने की आज्ञा लेता है, आज्ञा लेकर वह पूर्व दिशा के तृणादि पदार्थ अपनी बांस की कांबड़ में भरता हैं। भरकर दाभ कुश, पत्रामोड़ समिधा रूप काष्ठ ग्रहण करके जहां उसकी झोंपड़ी थी वहां आता है आकर बांस की कांबड़ यथास्थान रख देता है, फिर बेदिका बनाता है बना कर उसको गोबर आदि से लीपता है और संमार्जन करता है । फिर यह जल छिड़कता है जस छिड़क कर हाथ में कुशा और कलश लेकर जहां गंगा महानदी थी, वहां आया । आकर उससे गंगा नदी में स्नान के लिए प्रवेश किया । (स्नान के समय वह) जल-क्रीड़ा करता है, जलाभिषेक करता है, आचमन करता है फिर परम शुचिभूत अर्थात् पवित्र हो कर देवों और पितरों के निमित्त तर्पण आदि करता है, हाथ में कलश और दूब रखता हुआ गंगा नदी से बाहर आया । बाहर आकर वह अपनी झोंपड़ी के पास पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने दर्भ कुशा व बालु वेदिका का निर्माण किया । सरक लिया, अरणि ली, सरक और अरणि का मंथन किया । मंथन करके उसमें से आग उत्पन्न करता है, फिर अग्नि को जलाता है जला कर उसमें समिधा रूप काष्ठादि का प्रक्षेप किया, अग्नि के देदीप्यमान होने पर अग्नि की दक्षिण दिशा की ओर सात वस्तुएं स्थापित कर दीं। ये सात वस्तुयें इस प्रकार हैं