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वर्ग - चतुर्थ ]
( २४७ )
[ निरयाथलिका
श्रमण भगवान महावीर को, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार करके पूछा, भंते त्ति - हे भगवन् वह नाट्य-रचना कहां समा गई ? भगवान ने कूडागारसाला - कूटागार शाला का दृष्टांत सुनाया, उन्होंने पुनः प्रश्न किया, भंते - हे भगवन, बहुपुत्तियाए ं देवीए - बहुपुत्रिका देवी ने सा- वह, दिव्या - दिव्य, बेबिड्ढी – देव ऋद्धि, जाव अभिसमण्णागया- किस प्रकार प्राप्त की ? || २ ||
मूलार्थ - तत्पश्चात् बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाईं भुजा को लम्बा किया और उस पर एक सौ आठ देव कुमारों की विकुर्वणा करके दिखाई। इस प्रकार बाई भुजा पर एक सौ आठ देव कुमारियों की विकुवर्णा करके दिखाई । फिर बहुत से आठ वर्ष के बालक एवं बालिकाओं की विकुर्वणा करके दिखाई । इस प्रकार बहुत से डिम्भों डिभिकाओं की विकुर्वणा करके दिखाई सूर्याभ देव की तरह नाट्य-विधि सम्पन्न करके वह चली गई।
श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके प्रश्न किया "हे भगवन् ! वह नाट्य-विधि रचना कहां समा गई ?" भगवान् कूटागार शाला का दृष्टान्त सुनाया। उन्होंने पुनः प्रश्न किया कि उस बहुपुत्रिकादेवी ने वह ऋद्धि किस प्रकार प्राप्त की ? ॥२॥
टीका - प्रस्तुत सूत्र में वहुपुत्रिका द्वारा भगवान महावीर के समवसरण में नाट्य-विधि दिखाने का विस्तृत वर्णन है । बहुपुत्रिका द्वारा अपनी देव-शक्ति से अपने हाथ पर एक सौ आठ देवकुमारों और एक सौ आठ देव कुमारियां के निर्माण करने का वर्णन है । डिभ्भए व दारगाए ये दोनों शब्द बालक के वाचक हैं। श्री गौतम स्वामी जी ने बहुपुत्रिका को देव ऋद्धियां प्राप्त होने का कारण पूछा है ॥२॥
उत्थानिका
- गणधर गौतम के प्रश्न का श्रमण भगवान महावीर जो समाधान करते हैं उसी का उल्लेख शास्त्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में किया है :
मूल एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं, तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी, अंबसालवणे' चेइए । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए भद्दे नामं सत्यवा होत्या, अड्ढे अपरिभूए । तस्स णं भद्दस् य सुभद्दा नामं मारिया सुकुमाला० बंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाता यावि होत्या । तए णं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाई पुव्वत्तावरत्तकाले