________________
पधारते हैं । उस द्वारिका के अधिपति श्री कृष्ण वासुदेव थे। उनके भ्राता बलदेव थे । बलदेव की महारानी रेवती के यहां निषध कुमार का जन्म होता है । निषध कुमार को हर प्रकार की शिक्षादीक्षा दी जाती है।
एक बार निषध कुमार भी अपने परिजनों के साथ भगवान श्री अरिष्टनेमिं जो के उपदेश सुनता है । निषध कुमार के पूर्व भव के विषय में भगवान श्री अरिष्टनेमि के शिष्य वरदत्त पूछते हैं । भगवान उत्तर में फरमाते हैं - हे वरदत्त ! पूर्वभव में रोहितक नगर में महावल नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी पद्मावती के वीरांग (वीरांगद) नाम का पुत्र हुआ। वह बहुत सुन्दर था। युवा होने पर वह मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों का सेवन करने लगा ।
एक बार उस नगर में सिद्धार्थ नाम के आचार्य पधारे, उनके उपदेश से वह मुनि बन गया । ४५ वर्षों तक उसने संयम का पालन किया, अन्त समय समाधि-मरण द्वारा मर कर ब्रह्मलोक में देव बना । वहां से आयु पूर्ण करके वह निषध कुमार के रूप में पैदा हुआ है। पूर्व भव में पुण्योपार्जन के कारण वह इस ऋद्धि एवं रूप लावण्य का स्वामी है ।
कुछ समय बाद निषध कुमार भी भगवान अरिष्टनेमि का शिष्य बन गया । अन्तिम समय उसने जीवन का लक्ष्य निर्वाण प्राप्त किया ।
इस प्रकार शेष अध्ययनों का वर्णन भी निषध कुमार की तरह समझना चाहिये । इस प्रकार निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ । उपांग समाप्त हुए। निरयावलिका उपांग का एक श्रुत-स्कन्ध है, इसके पांच वर्ग हैं, यह पांच वर्ग पांच दिनों में उपदिष्ट करने का विधान है। पहले से चौथे तक वर्गों के १०-१० अध्ययन और पांचवें के १२ अध्ययन हैं ।
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री निश्यावलिका की भूमिका में लिखते हैं कि निरयावलिका के उपसंहार में निरयावलिका की समाप्ति की सूचना दी गई है। पुनः वृष्णि दशा के अन्त में भी निरावलिका के समाप्त होने की सूचना प्राप्त होती है। दो बार एक ही बात की सूचना कैसे दी गई ? इस सूचना में उपांग समाप्त हुए यह भी सूचित किया गया है। इससे यह तो स्पष्ट है कि वर्तमान में पृथक्-पृथक् कल्पिता, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णि - दशा ये पांचों उपांग किसी समय एक ही उपांग के रूप में प्रतिष्ठित थे.
।
हमारी दृष्टि में यह विषय अभी शोध का विषय है, क्योंकि नन्दी सूत्र में इन पांच उपांगों को अलग परिगणित किया गया है।
निरयावलिका के अनुवाद
आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी आगे लिखते हैं " कथा प्रधान होने के कारण निरयावलिका पर न नियुक्तियां लिखी गईं, न भाष्य व चूर्णियों का निर्माण हुआ । केवल श्री चन्द्र सूरि* ने # भूमिका श्री निरावलिका पृष्ठ २६ आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री ।
[ पचास )
4