________________
आशीर्वचन
श्री निरयावलिका सूत्र का जैन धर्म में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र में वणित तीन तीर्थंकरों के शासन-काल के साधु-साध्वियों, राजा-रानियों के ऐतिहासिक वर्णन भारतीय संस्कृति व सभ्यता की धरोहर हैं। जैसे निरयावलिका सूत्र के नायक कोणिक राजा के जन्म, वैशाली विनाश का वर्णन, गणतन्त्र व राजतन्त्र की व्यवस्थाओं का वर्णन उस समय को सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर सुन्दर प्रकाश डालता है। द्वितीय उपाङ्ग में सोमिल ब्राह्मण का उपाख्यान प्राचीन तापसों व श्रमण-परम्परा का अच्छा परिचय प्रदान कर रहा है। इसी उपांग का बहुपुत्रिका नामक अध्ययन प्राचीन काल की भिक्षुणो-परम्परा का सुन्दर निदर्शन है। इसी प्रकार चतुर्थ उपाङ्ग में भूता साध्वी का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान महावीर ने साधु-साध्वियों को शरीरिक विभूषा का त्याग कर भूता के माध्यम से संयम में स्थिर रहने का वर्णन किया है। पंचम उपाङ्ग में निषध कुमार का वर्णन है जो हमें २२वें तीर्थंकर भगवान श्री अरिष्टनेमि जी के समवसरण में ले जाता है। इस सूत्र ने तीन तीर्थंकरों को संघ-व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डाला है।
श्री नंदी सूत्र में इस उपाङ्ग का भी वर्णन आया है। इस सूत्र पर प्राचीन काल से कम ही व्याख्यायें उपलब्ध होती हैं । संस्कृत को एक मात्र टीका श्रीचन्द्र विजय की है। मध्य काल में इस पर टब्बा भी उपलब्ध है।
इस शास्त्र का मूल पाठ आगमोदय समिति द्वारा छपा, फिर आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया। विदेशी विद्वानों ने भी इस ग्रंय के अनुवाद जर्मन व अंग्रेजी आदि भाषाओं में किये हैं। गुजराती भाषा में भी इस का अनुवाद हो चुका है।
हिन्दी में इस शास्त्र का अनुवाद डा० देवकुमार जी ने किया है जो कि स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी के निर्देशन में छपा है। हिन्दी के प्रथम आगम - टीकाकार पूज्य आचार्य