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वर्ग-प्रथम]
' (७८)
[निरयावलिका
से पीड़ित होकर, महया-महया-सद्देणं-ऊंची-ऊंची आवाज से, आरसइ--रोता है, ताहे वि य गं सेणिए-तब-तब वह राजा श्रेणिक, जेणेव से दारए-जहां पर भी वह बालक होता, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाता, उवागच्छित्ता और वहां आकर, तं दारगं-उस बालक को, करतलपुडेणं-अपने हाथों से, गिण्हइ-उठा लेता, तं चेव जाव निव्वेयणे-और वह जब तक पीड़ा रहित होकर, तुसिणोए संचिट्ठइ-मौन न हो जाता (तब तक वह वहीं) ठहरता ॥४४॥
मूलार्थ-निर्जन स्थान में कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंके जाने के कारण बच्चे की अंगुली का अग्रभाग किसी मुर्गे की चोंच से छिल गया था, उसकी अंगुली के घाव से बार-बार खून और पीव बहती रहती थी, इस कारण से वह बालक पीड़ा के कारण बार-बार चीख-चीख कर रोता था। उस बालक के रुदन को सुनकर और समझ कर राजा श्रेणिक बालक के पास आता और उसे अपने हाथों से उठा लेता और उठाकर उसकी घायल अंगुली को मुख में डालकर उससे बहती पोव और खून को चूस कर थूक देता। ऐसा करने पर बालक शान्त एवं पीड़ा से मुक्त होकर बैठ जाता। इस तरह वह बालक जब भी वेदना के कारण चीखता और रोता. तो राजा श्रेणिक उसके पास पहुंच जाता और उसे हाथों में उठाकर उसकी अंगुली को मुंह में डाल लेता और उससे पीव और खून को चूसता (और थूक देता), इस प्रकार वह बालक पीड़ा-मुक्त, शान्त और चुप होकर बैठ जाता ।।४४॥
टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक के वात्सल्य का चित्रण करते हुए उसके द्वारा सन्तान की पीड़ा को दूर करने के लिये पीव और खून तक को चूसने और उसके थूक देने का वर्णन करते हुए सांसारिक जनों के मोह की अतिशयता का वर्णन किया गया है।
पीव और खून को चूसने जैसे घणित कार्य के द्वारा संकेत किया गया है कि माता-पिता को मोह के नाते नहीं कर्तव्य के नाते सन्तान के प्रत्येक कष्ट को दूर करने का प्रयास करना चाहिये ॥४४॥
मूल-तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदसणियं करेंति, जाव संपत्ते बारसाहे विवसे सयमेयारूवं गुणनिप्पन्नं नामधिज्ज करेंति, जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स एगते उक्कुलडिवाए पज्झिज्जमाषस्स