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________________ निरयावलिका] (३५८) [वर्ग-पंचम . - -- छाया-ततः खलु तस्य वीरंगतस्य कुमारस्य उपरिप्रासादवरगतस्य तं महाजनशब्दं च, यथा जमालिनिर्गतो धर्म श्रुत्वा यद् नवरं देवानुप्रियाः ? अम्बापितरौ आपृच्छामि यथा जमालिस्तथैव निष्क्रान्तो, यावद् अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु सः वीरंगतोऽनगारः सिद्धार्थनामाचार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीत्य बहूनि यावत् चतुर्थ० यावत् आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि पञ्चचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा द्वमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा सविशति भक्तशतमनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिकान्तः समाधिप्राप्त. कालमासे कालं कृत्वा ब्रह्मलोके कल्पे मनोरमे विमाने देवतया उपपन्नः । तत्र खल अस्त्येकेषां देवामां दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र खलु वीरंगतस्य देवस्यापि दशसागरोपमा स्थिति प्रज्ञप्ता । स खलु वीर्रगतो देवस्तस्माद् देवलोकात् आयु-क्षयेण यावद् अनन्तरं चयं च्युत्वा इहैव द्वाराव यां नगर्या बलदेवस्य राज्ञो रेवत्या देव्याः कुक्षौ पुवतयोपपन्नः । ततः खलु सा रेवती देवो तस्मिन् तादृशे शयनोये स्वप्न- . वर्शनं यावद् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । तदेवं खलु वरदत्त ! निषधेन कुमारेण इयमेतद्र पा उदारा मनुष्य ऋद्धिलब्धा ३। प्रभो खलु भदन्त ! निषधः कुमारो देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रवजितुम् ? हन्त प्रभुः, स एवं भदन्त ! २ इति वरदत्तोऽनगारो यावदात्मानं भावयन् विहरति ।।१०।। पदार्थान्वयः-तएणं तस्स वीरंगतस्स कुमारस्स-तदनन्तर उस वीरंगत कुमार ने, उप्पि पासाय-वरगतस्स-अपने राजमहल के ऊपर ही बैठे हुए, महया जणसइंच-जनता के महान् जय-घोषों आदि के शब्दों को सुना, जहा जमाली निग्गओ, धम्म सोच्चा णं नवरं-जमाली के समान वह वीरंगत कुमार भी प्राचार्य श्री सिद्धार्थ जी के दर्शनार्थ गया और उनसे धर्मोपदेश सुन कर, उन्हें वन्दना-नमस्कार कर निवेदन करने लगा, देवाणप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामिभगवन् ! मैं माता-पिता से पूछ कर आता हूं, जहा जमाली तहेव-जैसे जमाली प्रवजित हुआ था वैसे ही, निक्खंतो जाव अणगारे जाए-वह भी घर बार छोड़ कर और माता-पिता की अज्ञा लेकर उनके साथ आचार्य देव के पास आया और प्रवजित होकर अणगार (साधु), नाव गृत्तबंभयारी-और गुप्त ब्रह्मचारी बन गया, सिद्धस्थाणं आयरियाण तिए-और सिद्धार्थ आचार्य श्री के पावन सान्निध्य में रह कर, समाइयमाइयाइं इक्कारस अंगाई अहिज्जइ-वह सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है, महिजित्ता-(और) अध्ययन करके बहिं जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे-और अनेक वर्षों तक, चौला अठाई. दस बारह आदि व्रतों के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहुपरिपुण्णाई-परिपूर्ण, पणयालीस वासाईपैंतालीस वर्षों तक, सामण्ण परियागं पाउणिशा-श्रामण्य (साधुत्व) पर्याय का पालन करके, दोमासिए संलेहणाए-दो महीनों की संलेखना द्वारा, अत्ताणं झूसिता-अपनी आत्मा को शुद्ध करके. सीसं भास-एक सौ बीस भोजनों का, अणसणाए छहशा-अनशन (उपवास) तपस्या . द्वारा छेदन करके, आलोइयपडिक्कते-आलोचना एवं प्रतिक्रमण पूर्वक, समाहिपत्ते-समाधि पूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु समय आने पर प्राणों का त्याग कर, बम्भलोए कप्पे-ब्रह्मलोक
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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