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________________ वर्ग-पंचम] (३५९) (निरयावलिका नामक लोक के, मनोरमे विमाणे-मनोरम नाम के विमान में, देवताए उवागन्ने-देवता के रूप में उत्पन्न ह', तत्थ णं अत्थंगइयाणं देवाण-अनेक देवों की, दस सागरोनमाई ठिई पण्णत्तादस सागरोपम की स्थिति कही गई है, तत्थ णं नोरंगतस्स देवस्स गि-वहां पर वीरंगत नाम के देव की, भी दस सागरोन । ठिई पण्णत्ता-दस सागरोपम की स्थिति हुई। से णं वीरंगए देवे -जम्बू ! वह वीरंगत देव, ताओ देन लोगाओ-उस ब्रह्मलोक नामक देवलोक से, आउक्खए णं-देव-आयु के पूर्ण होने पर, जान अनन्तरं चय चइत्ता-वहां से च्यवन करके, बारमईए नयरीए-द्वारका नाम की नगरी में. बलदेवस्य रन्मो-राजा बलदेव को, रेनईए देवीए-महारानी रेवती की, कुच्छिसि-कोख से, पुत्तताए उननन्ने-पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है, तएणं सा रेगती देवी-(उसकी उत्पत्ति से पूर्व) वह रेवती देवी, तंसि तारिसगं से सयणिज्जसि-राजरानी के योग्य सुखद शय्या पर (सोती हुई), सुमिणदसणं-स्वप्न में सिंह को देखती है, जान उप्पि पासायगर गए मिहरइ-यथा समय बालक का जन्म हुआ, क्रमशः उसने यौवन अवस्था प्राप्त की और बत्तीस राज-कन्याओं स उसका विवाह हुआ, तदनन्तर वह एक उत्तम राज-पहल के ऊपर रहने लगा और सुखद जीवन व्यतीत करता रहा। एनं खल वारदत्ता ! निसढेणं कुमारेणं-हे वरदत्त ! इस प्रकार उस निषध कुमार ने, अयमेयारूना ओराला मण य-इड्ढी लद्धा- इस प्रकार की अत्युत्तम मानवीय जीवन के योग्य समृद्धियां प्राप्त की थीं। पभू णं भते-(वरदत्त मुनि ने पुनः प्रश्न किया-) भगवन ! निसढे कमारे देवाण प्पियाणं अंतिए जान० पन्नाइत्तए-वह निषध कुमार क्या आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रवजित होने के लिये समर्थ है योग्य ? हं पभू-भगवान ने कहा-हां वरदत्त वह समर्थ है प्रवजित होगा ही से एवं भन्ते | इय वरदत्ते अणगारे जाग अप्पाणं भावेमाणे विहरइ-भगवन् ! (आप जो कहते हैं वह सत्य ही है) ऐसा कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को तप-संयम से भावित करते हुए विचरने लगे॥१०।। मूलार्थ - तदनन्तर उस वीरंगत कुमार (वीरांगद) ने अपने राजमहल के ऊपर ही बैठे हुएजनता के महान् जयघोषों आदि के शब्दों को सुना, जमाली के समान वह वीरंगत कुमार भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ गया और उनसे धर्मोपदेश सुनकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर निवेदन करने लगा, भगवन् ! मैं माता-पिता से पूछ कर आता हूं, जैसे जमाली प्रवजित हुआ था वैसे ही वह भी घर-बार छोड़कर और माता-पिता की आज्ञा लेकर उनके साथ आचार्य देव के पास आया और प्रवजित होकर अणगार (साधु) और गुप्त ब्रह्मचारी बन गया तथा सिद्धार्थ आचार्य श्री के पावन सान्निध्य में रहकर वह सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है (और) अध्ययन करके अनेक
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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