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साध्वियों के चले जाने के बाद श्री भद्रबाहु ने कहा - "आर्य ! जो तुमने अब तक पढ़ा है बस वही काफी है, अब आगे पढ़ने की तुम्हें आवश्यकता नहीं है ।"
स्थूलभद्र को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने भद्रबाहु के चरणों में गिर कर क्षमा मांगी और आगे वाचना देने की प्रार्थना की। स्थूलिभद्र की बात सुन कर भद्रबाहु बोले - " वत्स ! मुझे श्री संघ का पूरा सम्मान है, पर वाचना न देने का मेरा एक कारण है वह यह कि जब स्थूलभद्र जैसा आचार्य अपने वचन को भंग कर सकता है और विद्या का दुरुपयोग कर सकता है, तो दूसरों की बात क्या है ? श्रमण श्रेष्ठ ! यह पंचम काल है, अब आध्यात्मिक व मानसिक शक्तियों का ह्रास हो रहा है। ऐसे में विद्या का दुरुपयोग अनर्थ को जन्म देकर श्री - संघ को कष्ट में डाल सकता है।
स्थूलभद्र के विनीत स्वभाव से प्रभावित होकर भद्रबाहु ने कहा - "आर्य ! १० पूर्वों का ज्ञान तुम्हें प्राप्त हो चुका है। मैं तुम्हें ४ पूर्वो का ज्ञान अवश्य दूंगा, पर यह ज्ञान तुम्हें आगे न देने का प्रण करना होगा ।
इस प्रकार यह वाचना का कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ। वीर निर्वाण सम्वत् १९१ में आर्य सुहस्त के समय पुन: अकाल पड़ा और श्रुत ज्ञान विस्मृत होने लगा ।
माथुरी वाचना
जैन आगमों की दूसरी वाचना वीर निर्वाण संवत् ८२७ ओर ८४० मथुरा में हुई । उस समय मथुरा जनपद में जैन धर्म जन-धर्म बन चुका था। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त पुरातत्व सम्बन्धी अवशेष इस बात की साक्षी देते हैं ।
इस वाचना के संयोजक आचार्य स्कन्दिल थे । वे पादलिप्त सूरि के कुल में विद्याधर गच्छ के आचार्य थे । इनकी परम्परा का वर्णन युग-प्रधान पट्टावली में इस प्रकार मिलता है।
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वज्र आयं रक्षित, पुष्पमित्र, वज्रसेन नागहस्ती, रेवती मित्र, ब्रह्मदीपक सिंह और स्कन्दिल | जैसे कि पहले बताया गया है कि भद्रबाहु स्वामी के बाद अकाल के कारण श्रुत-ज्ञान विच्छिन्न हो गया था । बहुत से श्रुत ज्ञानी समाधि मरण को प्राप्त हो गये थे । अतः उस समय मथुरा में श्रमण संघ एकत्रित हुआ ।
आगमों के संकलन का कार्य पुनः शुरू हुआ जिसको जितना पाठ याद था उतना लिखा गया। फिर प्राचार्य स्कदिल ने उसकी वाचना दी। यह वह समय था जब जैन धर्मं मगध की धरती को छोड़ कर मध्य देश में फैल चुका था। मथुरा ईस्वी पूर्व २०० शताब्दी से ग्यारवीं शताब्दी तक जैन संस्कृति का केन्द्र ही है । उस समय जैनों को उस ब्राह्मण राजा पुष्य मित्र के अत्याचारों का 'सामना करना पड़ रहा था जिसने अन्तिम मौर्य सम्राट से सिंहासन छीन लिया था । उस समय जैन व बौद्ध धर्म के लिये काला युग था, उस समय इन दोनों धर्मों को अपने मूल स्थान से हाथ धोना पड़ा ।
[ चौतीस ]