SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरयावलिका ( २३६) [वर्ग-तृतीय -- - - उत्पन्न हुआ, तएणं से सुक्के महागहे-तदनन्तर शुक्रमहाग्रह के रूप में उत्पन्न होकर, जाव मण पज्जतीए-भाषा पर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँचों प्रकार की पर्याप्तियों से परिपूर्ण हो गया ।।२१।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्राह्मण बहुत से चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि एवं अर्धमास (१५ दिन) और मास खमण रूप नाना प्रकार के तप उपधानों द्वारा अपने आपको भावित करता हुआ (अर्थात् वेले तेले आदि से लेकर मासख मण आदि की तपस्या में लीन रहते हुए), श्रमणोपासक की जीवन-चर्या का पालन करता रहा और पालन करते हुए उसने अपने आप को तपस्या में लगाए रखा और ऐसा करके तीस समय के भोजन का त्याम करके (आधे महीने तक भोजन छोड़कर) १५ दिन की संलेखना में अपने आपको लगाए रखता है। किन्तु अपने पूर्व कृत पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना हो सम्यक्त्व की विराधना के कारण मृत्यु-समय आने पर मर कर शुक्रावतंसक नाम के देव-विमान की उपपात सभा(देवों के उत्पत्ति-स्थान में) देव-शय्या पर प्रमाणोपेत अवगाहना से शुक्रग्रह के रूप में उत्पन्न हुआ और शुक्रग्रह के रूप में उत्पन्न होते ही भाषा-पर्याप्ति मनः-पर्याप्ति आदि सर्वविध पर्याप्तियों से वह परिपूर्ण हो गया ॥२१॥ टीका-देवों की उत्पत्ति गर्भ से नहीं होती, वे उपपात (जन्म-स्थान) में रखी देवों की शय्या पर उत्पन्न होते हैं, अत: वह शुक्रग्रह के रूप में देव-शय्या पर उत्पन्न हुआ। ' 'अवगाहना' का अर्थ है शरीर का प्रमाण । उत्पत्ति के समय देवों का शरीर प्रमाण अंगुल के आसंख्यत वें भाग से लेकर अधिक से अधिक सात हाथ परिमाण वाला होता है । 'जावतेगाहणाय' का भाव यही है कि वह प्रमाणोपेत शरीर से उत्पन्न हुआ। भासामण-पज्जत्तीए-सभी प्राणी जन्म के समय तक अपर्याप्त दशा (अपूर्ण दशा) में उत्पन्न होते हैं, उत्पत्ति के बाद वह प्राकृतिक रूप से स्वतः ही छहों पर्याप्तियां प्राप्त कर लेता है, जैसे कि-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रयपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा-पर्याप्ति, मनः पर्याप्ति ! आत्मा के संयोग से तैजस और कार्मण शरीर द्वारा ग्रहण किया गया उपर्युक्त छे प्रकार की पौद्गलिक शक्तियों का जो संचय होता है वही पर्याप्ति कहलाता है ॥२१॥ मूल-ए खलु गोयमा ! सुक्केणं महग्गहेणं सा दिव्वा जाव अभिसमन्नागया, एगं पलिओवमं ठिई । सुक्के णं भंते ! महग्गहे तओ देव
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy