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वर्ग-चतुर्थ ।
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[निरयावलिका
डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकश्च यावद् अप्येककत्रयद्भिः दुर्जातः दुर्जन्मभिः हतविप्रहतभाग्यश्च एकप्रहारपतितः या खलु मूत्रपुरीषवमितसुलिप्तोपलिप्ता यावत् परमदुरभिगन्धा नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन सार्ध यावद् भुजाना विहर्तुम् । तद् धन्याः खलु ता अम्बिका यावद् जीवितफलं याः खलु वन्ध्या अविजननशीला जानुकूपरमातरः सुरभिसुगन्धगन्धिका विपुलान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुज्जाना विहरन्ति, अहं खलु अधन्या अपुण्या नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन साद्ध विपुलान् यावड़ विहर्तुम् ।।१९।।
पदार्थान्बयः-तएणं तोसे सोमाए माहणीए-तत्पश्चात् उस सोमा नामक ब्राह्मणी के, अण्णया कयाइं-किसी समय (कुछ समय बीत जाने के बाद), पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-अर्धरात्रि के समय, कुडुबजागरियं जागरमाणीए-पारिवारिक चिन्ताओं में निमग्न होकर जागते हुए, अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था इस प्रकार के (सांसारिक उदासीनता सम्बन्धी) विचार उत्पन्न हुए, एवं खलु अहं-मैं निश्चित ही, इमेहि बहूहि वारगेहि-इन बहुत से वालक-बालिकाओं, य जाव डिभियाहिं य-और इन छोटे-छोटे से बच्चों के कारण (जिन में से), अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य जाव-कोई बालक चित (आकाश की तरफ मुंह किए हुए) सोया हुआ है, अप्पेगहि मुत्तमाणेहि-कोई मूत्र कर रहा है, दुज्जाएहि-जो जन्म से ही दुःखदायी हैं, दुज्जम्मएहिजो थोड़े-थोड़े महीनों के अन्तर से ही उत्पन्न हुए हैं, हय-विप्पहय-भग्गेहि-जो सर्वथा भाग्यहीन हैं, एगप्पहारपडिएहि-जो थोड़े-थोड़े समय के अनन्तर मेरी कोख से जन्मे हैं, जाणं मुत्त-पुरीस-वमियसुलितोवलित्ता-इनके मल-मूत्र और वमन आदि से हर वक्त मैं लिपटी सी रहती हूं, जाव परमदुभिगंधा-और दुर्गन्धि से भर कर, नो संचाएमि रट्ठकूडेण सद्धि - राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोग सुख प्राप्त नहीं कर पाती हूं, जाव भुजमाणी विहरत्तए-और न ही भोगों-उपभोगों को आनन्द
लेते हुए जोवन-यापन ही कर पाती हूं, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ- इसलिये वे मातायें धन्य • हैं, जाव जीवियफले-वे ही मानव-जीवन का फल प्राप्त कर रही हैं, जाओणं बंझाओ-जो कि
वन्ध्या हैं, अवियाउरीओ-सन्तानोत्पत्ति नहीं कर पाती हैं, जाणुकोप्परमायाओ-जो जानुकूर्पर मातायें हैं (अर्थात् शयन करते हुए टांगें ही जिनके हृदय के साथ लगी होती हैं, बच्चा नहीं), सरभि-सुगन्ध-गन्धियाओ-जो सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित होकर, विउलाई माणुस्सगाइंभोगभोगाई -जो अनेक-विध मानवीय भोगों को, भुजमाणीओ विहरंति-भोगती हुई जीवन-यापन करती हैं, अहं णं अधन्ना-मैं तो अधन्य हूं, अपुण्णा-पुण्य-हीन हूं, अकयपृण्णा-मैंने मानो किसी जन्म में भी कोई पुण्य कार्य नहीं किया है, नो संवाएमि रट्ठकूडेणं सद्धि विउसाइं जाव विहरित्तएमैं राष्ट्रकूट के साध अनेकविध भोग भोग नहीं पाती हूं ॥१६॥
मूलार्थ-तत्पश्चात् उस सोमा नामक ब्राह्मणी के मन में एक वार अर्धरात्रि के समय पारिवारिक चिन्ताओं में निमग्न होकर जागते हुए ये विचार उत्पन्न होंगे कि मैं