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निरयावसिका]
(२८८)
[वर्ग-चतुर्थ
निश्चित ही अपने बहुत से बालक-बालिकाओं- अल्पवयस्क बच्चे बच्चियों के कारण जिन में से कोई बालक आकाश की ओर मुख करके चित लेटा रहता है, कोई मूत्र कर रहा होता है. ये सब जन्म से ही मेरे लिये दुःखदायी हैं जो सर्वथा भाग्यहीन हैं, और जो थोड़े-थोड़े महीनों के अन्तर से ही मेरी कोख से जन्मे हैं, जिनके मललूत्र और वमन आदि से मैं हर वक्त लिपी ही रहती हूं. और दुर्गन्धमयो होकर मैं राष्ट्र. कूट के साथ भोगोपभोगों का सुख प्राप्त नहीं कर पाती हूं, और न ही भोगोपभोगों के आनन्द का अनुभव करती हुई जीवन व्यतीत कर पाती हूं। इसलिये वे मातायें धन्य हैं और वे मातायें जीवन का फल प्राप्त कर रही हैं - जो वन्ध्या हैं, सन्तानोत्पत्ति.. के योग्य नहीं हैं. सोते समय टांगें ही जिनके हृदय के साथ लगी रहती हैं (सन्तान नहीं), और जो सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित होकर अनेक विध मानव-जीवन सम्बन्धी भोग भोगती रहती हैं । मैं तो अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं; मैंने मानो किसी पूर्व जन्म में कभी कोई पुण्य किया ही नहीं, जिससे मैं राष्ट्रकूट के साथ भोगों को भोग नहीं पाती हूं ॥१६॥
टीका-जब मनुष्य दुखी हो जाता है तब उसे अपनी सन्तान भी सुहाती नहीं है, इसीलिये सोमा अपनी सन्तान के लिये “दुज्जएहि", दुजम्मएहि, हय विप्पहय-भग्गेहि-दुखदायी दुर्जन्मवाले, हतभाग्य आदि विशेषणों का प्रयोग करती है।
भद्रा बहुपुत्रिका देवी बनी, क्योंकि उसके हृदय में प्रबल सन्तानेच्छा थी। प्रबल सन्तानेच्छा के कारण ही सोमा ब्राह्मणी के रूप में जन्म लेने पर उसके गर्भ से सोलह ही सालों में ३२ सन्ताने हई । अत्यधिक वासना का फल ऐसा ही होता है यहां यह दिखलाया गया है।
उसके हृदय में भोग भोगने की कामना आज भी बनी हुई थी, इसीलिये अब वह वन्ध्या नारियों एवं सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य नारियों को सौभाग्यशीला एवं धन्य मानतो हुई अफसोस प्रकट करती है कि अधिक सन्तान के कारण मैं गन्दी एवं बीभत्स होती जा रही हूं, अत: पति-सुख से वंचित रह रही हूं ॥१९॥
मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणपव्वि जेणेव विभेले संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं जाव विहरति ।