________________
वर्ग - चतुर्थ ]
पर, विण्णय- परिणमित्रो - समझदार होकर, जोव्वणगमणुपपत्ते - युवावस्था को प्राप्त होकर तहारूवाणं थेराणं अन्तिए - तथा रूप स्थविरों द्वारा, केवलबोहि बुज्झिहिह - केवल बोधि अर्थात् सम्यक् ज्ञान का ज्ञाता बनेगा, बुज्झित्ता - ज्ञान प्राप्त करके, अगाराओ अणगारयं पव्वज्जहिगृहस्थ जीवन को छोड़कर अनगार जीवन स्वीकार करेगा, से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ - जब वह अनगार बन जाएगा तो, इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी - ईर्यासमिति आदि का पालन करते हुए पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाएगा, से ण तत्थ बहूइं चउत्थ छट्ठट्ठम-दसमवदालसेहि- -तब वह वहां पर चतुर्थ, षष्ठम, दशम द्वादश आदि उपवासों द्वारा मासद्धमासख मह - मासार्थं एवं मासखमण रूप, विचितहि तवो कम्मेहि-विचित्र (अद्वितीय) तपस्याओं द्वारा, अप्पानं भावेमाणेअपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहूई वासाई -बहुत वर्षों तक, सामण्ण-परियाग पाउस्सिइ - श्रमण - पर्याय का पालन करेगा, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं - श्रमण-पर्याय का पालन करके वह एक मास की संलेखना द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करेगा, झूसिहिइ झूसित्ता सठि भत्ताइं अणसणाए छेदिहिइ - अपनी आत्म-शुद्धि करके ( साठ समयों के ) भोजनों का उपवास तपस्या द्वारा छेदन करेगा, जस्सट्ठाए कीरइ - वह जिस मोक्ष रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये अनगार साधु, जग्गभावे - नग्न भाव (नग्नता), मुंडभावे - द्रव्य भाव से मुण्डित होगा, अण्हाणए - स्नान न करना, जाव अदंतवणाए - अंगुली अथवा दातुन आदि सेदान्तों को साफ करना, अच्छराए - छत्र धारण न करना, अणोवाहणए – जूते चप्पल आदि का त्याग करना, फलहसेज्जा-पाट पर सोना, कट्ठसेज्जा - काष्ठ-तृण आदि पर शयन करना, केसलोए - केशलोच, बंभचेरवासे - ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना, परधरपवेसे- दूसरों के घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करना, पिंडवाओ - यथा प्राप्त भिक्षा से निर्वाह करना, लद्धावलद्धेलाभ-लाभ में समता रखना, उच्चावया य गामकंटया अहिया सिज्जइ - ऊंच नीच अर्थात् अच्छे या. बुरे शब्दों द्वारा होनेवाले ग्राम कंटकों अर्थात् अनजान ग्रामीणों के द्वारा दिये जानेवाले कष्टों को सहन करना, तमट्ठे आराहिइ - इत्यादि नियमों की आराधना करेगा, आराहित्ता - आराधना करके, चरिमेहि उस्सास - निस्सासहि- अन्तिम श्वास-प्रश्वासों में अर्थात् जीवन के अन्तिम क्षणों में वह, सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ - सिद्ध-बुद्ध हो जाएगा, जाव सव्वक्खाणं अतं काहिइ-जीवनमरण सम्बन्धी सभी दुःखों का वह अन्त कर देगा ।
( ३६ )
[ निरयावलिका
-
एवं खलु जम्बू - ( सुधर्मा स्वामी कहते हैं) वत्स जम्बू !, समणेण भगवया महावीरेणंश्रमण भगवान महावीर स्वामी जी ने, जव संपत्तेणं - जो मुक्त हो चुके हैं उन्होंने, जाव निक्लेव ओ० - वृष्णिदशा नामक इस प्रथम अध्ययन का उपर्युक्त भाव फरमाया है || १३||
मूलार्थ - तदनन्तर अनगार वरदत्त ने पुन: प्रश्न किया कि भगवन् ! वह निषेध देव उस देवलोक से आयुक्षय, भवक्षय और स्थिति-क्षय होने के पश्चात्