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वर्ग-प्रथम ]
(२८)
[ निरयालिका सूत्रम्
पदार्थान्वयः-तए णं- तदनन्तर, (णं वाक्यलंकार में), सा काली देवी -उस काली देवी ने, व्हाया-स्नान किया, कयबलिकम्मा-बलिकर्म किया, जाव-यावत्, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा--भार में हल्के किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से अपने को अलंकृत किया, बहूहि-बहुत सी, खुज्जाहि-कुबड़ी दासियों, महत्तरगविन्द-परिक्खित्ता- और महत्तरकवृन्द (अन्तःपुर-रक्षिका दासियों) को साथ लेकर, अन्तेउराओ-अन्तःपुर से, निग्गच्छइ-निकली, निग्गच्छिता-वहां से निकलकर, जेणेव बाहिरिया-जहां बाहरी सभा-मण्डप था, (और) जेणेव-जहां पर, धार्मिक यान-प्रवरं-जहां पर धर्मयात्रा के लिए रथ खड़ा था, दूल्हइ -वहां आकर रथ में बैठ गई। दरूहित्ता-रथ पर बैठ कर, नियग-परियाल-संपरिण्डा-अपने परिवार से घिरी हुई, चंपं नार मझ-मझेणं-चम्पा नगरी के बीचों बोच के रास्ते से, निग्गच्छइ-निकली - आगे बढ़ी, निग्गच्छित्ता-वहां से आगे बढ़कर, जेणेव-जहां, पुण्णभद्दे-पूर्णभद्र, चेइए-चैत्य था, तेणेव उवागच्छइ-वहां आ पहुंची, उवागच्छिता-वहां पहुंच कर, छत्तईए-भगवान् महावीर के छत्रादि अतिशयों को देखकर. (उसने अपने) जाव यावत धम्मिय जाणप्पवर-धम-यात्रा में प्रयुक्त होने
वाले रथ को रुकवा दिया । ठवित्ता-रथ को रुकवा कर, धम्मियाओ जाणप्पवराओ-उस धर्म-यात्रा रथ से, पच्चोल्हइ-नीचे उतर आई । पच्चोरुहिता-रथ से नीचे उतर कर, बहुहि खुज्जाहिसमस्त कुबड़ी दासियों, (और) जाव-यावत, महत्तरग-विद परिविखत्ता-यावत् महत्तरक वृन्द के साथ अर्थात् अन्तःपुर की रक्षिका दासियों के साथ, जेणेव-जहां पर, समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, तेणेव-वहीं पर उवागच्छह-आ पहुंची, उवागच्छित्ता--वहां आ कर, समणं भगवं महावीरं-उसने श्रमण भगवान महावीर को, तिक्खुत्तो-तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदइ-उन्हें वन्दना की, वंदित्ता-वन्दना करने के अनन्तर, ठिया चेव सपरिवारा-परिवार सहित वहां खड़ी हुई, सुस्ससमाणा-सेवा-भक्ति करती हुई, नमसमाणा-नमस्कार करती हुई, अभिमएभगवान के सामने, विणएणं-विनय-पूर्वक, पंजलिउडा-कर-बद्धा होकर, पज्जुवासइ-भगवान की सेवा-भक्ति करने लगी।
मूलार्थ-तदनन्तर उस काली देवी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् बहुत सी कुब्जा दासियों के वृन्द से घिरी हुई वह अन्तःपुर से निकली और निकल कर जहां बाहर की ओर उपस्थान-शाला थी, जहां धार्मिक प्रधान रथ तैयार खड़ा था, वहां आई । आकर धार्मिक प्रधान रथ पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर अपने परिवार से परिवृत हुई और चम्पा नगरी के बीचों-बीच के मार्ग से निकली। निकल कर जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आई। तीर्थङ्कर देव के छत्रादि अतिशयों को देख कर उसने धार्मिक प्रधान रथ को खड़ा किया । रथ खड़ा करके, धार्मिक प्रधान रथ से नीचे उतर आई, उतर कर उन बहुत सी कुब्जा दासियों के वृन्द से परिवृत हुई जहां श्रमण भगवान