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निरयावलिका मूत्रम् ]
(२७)
[बर्ग-प्रथम
अर्हत भगवन्तों के नाम सुनने मात्र से ही महाफल होता है, फिर जो उनके पास जाकर वन्दन नमस्कार करके प्रश्न का पूछना तथा उनकी पर्युपासना करना इतना, ही नहीं उन के मुख से निकले हा आर्योचित धार्मिक वचनों का श्रवण करना और विपुल अर्थों का धारण करना, उसका फल हम क्या कह सकते हैं, अथवा भगवत्-स्तुति इस लोक और परलोक में हित के लिए, सुख के लिए, क्षेन और मोक्ष के लिए होती है । इस सूत्र के आधार पर स्तुति वा स्तोत्रों की रचनाएं हुई हैं ।
जो सूत्र कर्ता ने 'कोडुबिय पुरिसे" पद दिया है इसका भाव सेवक पुरुष है।
उत्थानिका-- तदनन्तर काली देवी ने क्या किया अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं
मूल-तए णं सा काली देवी हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहहिं खुज्लाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता अतेउराओ निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ, दुरुहित्ता नियापरियालसंपरिबुडा चंपं नरि मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुन्नभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुनाइ, पच्चोरुहित्ता बहूहि जाव खुज्जाहिं महत्त रगविंदपरिविकता जेणेव समण भगवं महावीरे तेणेव वागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिख ती वंदइ, वंदित्त । ठिया चेव सपरिवारा सुस्ततमःणा नमसमाणा अभिमहा विणएणं पंजलि उडा पज्जुवासइ ॥१४॥
छाया-ततः खलु सा काली देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीरा वरूभिः यावन्महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता अन्तःपुरान्निर्गच्छति, निर्गत्य यव धार्मिको यानप्रवरस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य धार्मिक यानप्रवरं दुरोहति, दूरुह्य निजक परिवार सपरिवृता चम्पां नगरौं मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रश्चैत्यस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकं यावद धार्मिक यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरा बह्वीभिः पन्जाभिः यावत् -महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं त्रिःकृत्वा वन्दते, वन्दित्वा स्थिता चैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा नम्र यन्ती अभिमुखी विनयेन प्राञ्जलिपुटा पर्युपासते ॥१४॥