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________________ वर्ग-तृतीय] ( १८६) [ निरयावलिका काहित्ति-सब दुःखों का अन्त करेगा, एवं खन जंबू- इस प्रकार निश्चय ही हे जंबू, समणेणश्रमण भगवान ने द्वितीय अध्ययन का अर्थ बताया है. निक्खेवओ-द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ।२।। मूलार्थ-आर्य जंबू प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष संप्राप्त ने पुष्पिका के पहले अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो हे भगवन् ! पुष्पिका के दूसरे अध्ययन का श्रमण भगवन् यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने क्या अर्थ कहा है ? आर्यसुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-हे जंबू ! उस काल उस समय में राजगृही नामक नगरी थी, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक नामक राजा था। वहां भगवान् ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पधारे। समवसरण लगा अर्थात् धर्म-उपदेश हुआ । जैसे चन्द्रदेव दर्शन करने आया था, वैसे ही सूर्य देव भी दर्शन करने आया। उसी तरह नाट्य-विधि दिखाकर चला गया । गणधर गौतम ने सूर्य का पूर्वभव पूछा उस काल, उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी, वहां सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति रहता था, जो ऋद्धिमान था, जैसे अंगती का वर्णन किया जा चुका है 'विचरता था। वहां ग्रामानुग्राम धर्म-प्रचार करते हुए भगवान पार्श्वनाथ धर्म-परिवार से घिरे हुए पधारे, जैसे अंगती मुनि बना था बैसे वह भी मुनि बना। वह सुप्रतिष्ठ मुनि भी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, सिद्ध होगा यावत् सब दुखिों का अंत करेगा। इस प्रकार हे जंबू ! निश्चय ही मोक्ष को संप्राप्त भ्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्ययन का अर्थ बताया है, यह द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ॥२॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में अङ्गति-सूर्यदेव के सपरिवार भगवान महावीर के दर्शन की घटना का संक्षिप्त विवरण है। साथ में सूर्यदेव के पूर्वभव का उल्लेख करते हुए, श्रमण भगवान महावोर कहते हैं यह सूर्य देव अपना देव-आयुष्य पूण करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगा । सब दुखों का अंत करेगा। सूर्यदेव के बारे में पौर विवरण प्रज्ञापना सूत्र से जानना चाहिए। वहां स्पष्ट किया गया है कि पिछले जन्म में श्रावस्तो नगरी में सुप्रतिष्ठ ही संयम ग्रहण करके भगवान पार्श्वनाप के सानिध्य में मुनि बना। संयम पालन करने से यह ज्योतिष्क देवों में सूर्यों का इन्द्र यावत् ऋद्धि का स्वामी बना ॥२॥
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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