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वर्ग-प्रथम]
( १५६)
[निरयावलिका
इस प्रकार सब मिलकर अकर्मभूमि के ३० क्षेत्र होते हैं ।
अन्तरद्वीप-कर्मभूमि और अकर्मभूमि के अतिरिक्त जो समुद्र के मध्यवर्ती द्वीप बच जाते हैं, वे अन्तरद्वीप कहलाते हैं । जम्बूद्वीप के चारों ओर विस्तृत लवणसमुद्र में हिमवान् पर्वत की दाढ़ाओं (पाश्र्व भागों में निकले हुए लम्बे भू-भाग) पर अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं, जो सात चतुष्कों में विद्यमान हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार है
प्रथम चतुष्क-एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक, वैमानिक । द्वितीय चतुष्क-हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण । तृतीय चतुष्क –आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख और गजमुख । चतुर्थ चतुष्क-अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख । पंचम चतुष्क--अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण और कर्णप्रावरण । षष्ठ चतुष्क-उल्कामुख, विद्युन्मुख, जिह्वामुख और मेघमुख । सप्तम चतुष्क–धनदन्त, गूढ़दन्त, श्रेष्ठदन्त और शुद्धदन्त ।
इसी प्रकार शिखरी पर्वत की दाढ़ाओं पर भी इन्हीं नामों के २८ अन्तर द्वीप हैं । इस तरह : सब मिलाकर ५६ अन्तरद्वीप होते हैं । इन अन्तरद्वीपों में मनुष्यों का निवास है।
आधुनिक विज्ञान ने जितने भूखण्ड का अन्वेषण किया है, वह तो केवल कर्मभूमि के जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र का छोटा-सा ही भाग है । मध्यलोक तो प्रकर्मभूमिक और अन्तरद्वीप के क्षेत्रों को मिलाने पर बहुत ही विशाल है, फिर भी ऊर्वलोक और अधोलोक की अपेक्षा इसका क्षेत्रफल अत्यल्प ही माना जायेगा।
- ज्योतिष्क देवलोक-मध्यलोकवर्ती जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु के समीप समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर तारामण्डल है, जहां प्राधा कोस लम्बे-चौड़े और चौथाई कोस ऊंचे तारा विमान हैं।
तारामण्डल से १० योजन पर ऊपर एक योजन के ६१वें भाग में से ४८ भाग लम्बा-चौड़ा और २४ भाग ऊंचा, अंकरत्नमय सूर्यदेव का विमान है।
सर्यदेव के विमान से ८० योजन ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा-चौड़ा और २८ भाग ऊंचा; स्फटिकरत्नमय चन्द्रमा का विमान है ।
चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्र माला है। इनके रत्नमय पंचरंगे विमान एक-एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे-आधे कोस के ऊंचे हैं।
नक्षत्रमाला से ४ योजन ऊपर ग्रहमाला है। ग्रहों के विमान पंचवर्णी रत्नमय हैं । ये दो-दो कोस लम्बे-चौड़े और एक कोस ऊंचे हैं।