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[ वर्ग-तृतीय
. बुत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी - कहण्णं देवाणुप्पिया ! मम दुष्पव्वइयं ? |
॥१७॥ छाया - ततः खलु तस्य सोमिल ब्राह्मणस्य पूर्बरात्रापररात्रकाले एको देवः यावत् एवमवादीत् - हं भो सोमिल ! प्रव्रजित ! दुष्प्रव्रजितं ते, प्रथमं भणति तथैव तूष्णीकः संतिष्ठते ! देवो द्वितीयतृतीयमपि वर्षात सोमिल ! प्रब्रजित ! दुष्प्रव्रजितं ते ततः खलु स सोमिलस्तेन देवेन द्वितीयम प तृतीयमप्येवमुक्तः सन् तं देवमेवमवादीत् - कथं खलु देवानुप्रिय ! मम दुष्प्रव्रजितम् ।। १७ ।।
निरयावलिका ।
( २३३ )
पदार्थान्वयः - तणं - तत्पश्चात्, तस्स सोमिल माहणस्स - उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के समक्ष पुव्वरत्तावरत्तकाले - अर्ध रात्रि के समय, एगे देवे - एक देवता, जाव - प्रकट हुआ और एवं वयासी - इस प्रकार बोला, हं भो सोमिल ! पव्वइया ! - हे प्रव्रजित सोमिल, दुवइयं ते तुम्हारी यह प्रबज्या दुष्प्रव्रज्या है, पढमं भणइ - ऐसा उसने पहली बार कहा ( किन्तु यह सुनकर भी वह सोमिल), तहेव तुसिणीए सचिट्ठइ - पहले की तरह ही मौन धारण करके बैठा रहा, देवो दोच्चंपि तच्चपि वदइ - तब उस देवता ने दूसरी ओर तीसरी बार भी यही कहा, सोमिल ! पव्वइया दुप्पवइयं ते सोमिल तुम्हारी यह प्रवज्या दुष्प्रवज्या है, तएण से सोमिलेतब उस सोमिल ने तेणं देवेणं - उस देवता के द्वारा, दोच्चंपि तच्चपि - दूसरी ओर तीसरी बार मी एवं वृत्ते समराणे- ऐसा कहने पर, तं देवं- उस देवता से एवं वयासी - इस प्रकार कहा, • कहणं देवार्णाप्पा मम दुप्पव्व इयं - यह मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ? ।। १७ ।।
मूलार्थं : तत्पश्चात् उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के समक्ष आधी रात के समय एक देवता प्रकट हुआ और उससे कहने लगा - हे प्रव्रजित सोमिल ! तेरी यह प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है उसके पहली बार ऐसा कहने पर सोमिल पहले की तरह ही मौन धारण करके बैठा रहा, किन्तु उस देवता ने दूसरी और तीसरी बार भी यही कहा- सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है |
तब सोमिल ने उस देवता के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी उसकी प्रव्रज्या को दुष्प्रव्रज्या बतलाने पर उस देवता से कहा - हे देवानुप्रिय यह मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या कैसे है ? क्यों है ? ।।१७॥
मूल-तणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! तुमं मासस्स अरहओ पुरिसावाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्त