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वर्ग - तृतीय ]
( २३२ )
[कल्पातंसिका
मूल - तणं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छाव रहकाल समयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उबागच्छइ, उंबरपायवस्स अहे किठिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढेइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ ।
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छाया - ततः खलु स सोमिलः पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्न कालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवपागच्छति, उदुम्बरपादस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, वेदि वर्धयहि यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते ।। १६ ।।
पदार्थान्वयः -- तएणं से सोमिले - तदनन्तर वह सोमिल, पंचम दिवसम्मि- यात्रा करते हुए पांचवें दिन, पच्छावरह कालसमयंसि - दिन के चतुर्थं प्रहर अर्थात् सायंकाल के समय, जेणेव उंबर- पायवे - जहां पर उदुम्बर अर्थात् एक गूलर का वृक्ष था, तेणेव उवागच्छ वहीं पर आता है, उंबर पायवस्त- और उस गूलर के वृक्ष के नीचे अपनी कांवड़ रख देता है और रखकर, वेदि वड इवेदिका का निर्माण करता है, जाव और पूर्ववत् स्नानादि से निवृत्त होकर, कट्ठमुद्द ए मुह बंधन - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुख बाँधकर पूर्ववत् मौन धारण करके बैठ जाता है ।। १६ ।।
मूलार्थं - अपनी यात्रा के पांचवें दिन सायंकाल के समय सोमिल जहां पर एक गूलर का वृक्ष था वहां पहुंच जाता है और पहुंच कर गूलर के नीचे अपनी कांवड़ रखकर एक वेदिका का निर्माण करता है और फिर अपने समस्त धार्मिक कृत्यों से निवृत्त होकर काष्ठ- मुद्रा से अपना मुंह बांधकर मौन धारण करके बैठ जाता है ॥ १६ ॥
टीका - इस सूत्र में संक्षेप शैली का प्रयोग करते हुए सूत्रकार ने कुछ शब्दों में ही वह सब कुछ कह दिया है जो वे कहना चाहते हैं ।
पांचवें दिन उसका विश्राम स्थल गूलर का वृक्ष रहा, यही विशेष है ॥ १६ ॥
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मूल-तएणं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एंगे देवे जाव एवं वयासी-हं भो सोमिला ! पव्बइया । दुप्पठवइयं ते पढमं भणड़ तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ । देवो दोच्चपि तच्चपि वदइ सोमिला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते । तएणं से सौमिलें तरणं देवेण दोच्चपि तच्चपि एवं