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निरयावलिका)
(२३१)
(वर्ग-तृतीय
- बड़गद के पेड़ के नीचे, किढिणसंकाइयं ठवेइ-अपनी कांवड़ रख देता है, ठवित्ता-और रख कर, वेई वड्डइ-वेदी बनाता है, उवलेवण-संमज्जणं करेइ-गोबर आदि से लीपता है मौर जलादि छिड़क कर स्थान को शुद्ध करता है, जाव०-अन्य धार्मिक कृत्य करके, कट्ठमुहाए-काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध कर मौन होकर बैठ जाता है, तएणं तस्स सोमिलस्स -तदनन्तर उस सोमिल के, अंतियं-समक्ष, पुन्वरत्तावरत्त काले - अर्ध रात्रि के समय, एगे देवे-एक देवता, पाउन्भए- प्रकट हुआ, तं चेव भणइ-उसने फिर पहले की तरह ही कहा, जाव-कि तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है, पडिगए-और यह कह कर वह वापिस लौट गया, तएणं से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, जाव जलते-प्रातःकाल सूर्योदय होते हो, वागलवत्थ-नियत्थे-वल्कल वस्त्र धारण करके, किढिणसंकाइयं जाव०-कांवड़ उठा कर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ की मुद्रा से मुंह बांध लेता है और बांध कर, उत्तराभिमुहे-उत्तर की ओर मुख करके, उत्तराए दिसाए-पुनः उत्तरदिशा में हो, संपत्थिए-प्रस्थान कर देता है ॥१५॥
मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सोमिल चौथे दिन सायंकाल के समय जहां पर एक बड़गद का वृक्ष था वहीं पर आ पहुंचा, और बड़गद वृक्ष के नीचे अपनी कांवड़ रख देता है और रखकर वेदी बनाता है, वेदी के स्थान को गोबर आदि से लीप कर सिंचित करता है और अपनी पूर्व आस्था के अनुरूप धर्म-कृत्य करता है, फिर काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांध कर मौन धारण करके बैठ जाता है तदनन्तर उस सोमिल के समक्ष अर्धरात्रि के समक्ष एक देवता आकर प्रकट होता है और पहले की तरह "तेरी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है" कह कर जहां से आता है वहीं लौट जाता है। उसके बाद सोमिल-प्रात:काल सूर्योदय होते ही बल्कल वस्त्र धारण कर अपनी कांवड़ उठाता है और काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में ही पुनः प्रस्थान कर देता है ॥१५॥
टीका-सोमिल उत्तरदिशा में ही निरन्तर बढ़ रहा है। चौथे दिन वह बड़गद के वृक्ष के नीचे विश्राम करता है।
ज्ञात होता है वेदि वड्डई-का भाव वेदिका का स्थान निश्चित कर उसे लेपन आदि द्वारा शुद्ध बनाता है और "वेदि रएइ" से ज्ञात होता है कि वह स्नानादि से निवृत्त होकर वेदिका को विश्राम के योग्य बना लेता है।
काष्ठमुद्रा से मुख बांधने का भाव पहले स्पष्ट किया जा चुका है ॥१५॥