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बर्ग-प्रथम ]
[ निरयाव लि का सूत्रम्
इसी प्रकार- 'आसुरत्ते' इस पद का भाव यह है कि शीघ्र ही रोष से भर गया। तथा जैसे कि
आशु शीघ्र रुष्टः-क्रोधेन विमोहितो यः सः आशुरुष्टः, आसुरं वा आसुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः, रुष्टो रोषवान् ।
'एगाहच्चं' इस पद का भाव यह है कि एक हो बाण से जैसे यंत्र द्वारा कूट पर्वत-शिखर उड़ जाता है, उसी प्रकार काल कुमार का सिर धड़ से पृथक् हो गया।
एगाहच्चं 'कूडाहच्चं' कूटस्येव पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या आहननं यत्र तत्कूटाहत्यं' इसका यह भाव है कि जिस प्रकार यन्त्र द्वारा (मशीन द्वारा) पर्वत का शिखर उड़ जाता है ठीक उसी प्रकार एक ही बाण से काल कुमार का सिर धड़ से पृथक् हो गया।
सूत्र कर्ता ने जो 'वइसाहं ठाणं ठाइ' पद दिए हैं अर्थात् "विशाख स्थानेन तिष्ठति' धनुष के चलाने के आसन पर ठहरता है अर्थात् जिस मुद्रा में बैठ कर धनुष चलाया जाता है उसी मुद्रा में बैठ कर धनुष चलाया गया।
कुछ हस्त लिखित प्रतियों में निम्नलिखित पाठ अधिक है
'तिहिं दंतिसहस्सेहि, तिहिं आस-सहस्सेहि तिहि रहसहस्सेहि तिहि मणुयकोडीहि, तथा कि जियसत्ति नो जियसत्ति जीवेस्सइ नो जोवेस्सइ, पराजिणस्सइ नो पराजिणस्सई"।
इसी प्रकार भगवान के प्रतिवचन में तिहि दतिसहस्सेंहि इत्यादि सर्व पाठ दिया गया है।
"निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे'; इसका भाव यह है, चारों दिशाओं को निरालोक करता हना अर्थात् अन्धकारमय करता हुआ, राजा चेटक के रथ के सम्मुख अपना रथ लेकर आ गया भगवान महावीर ने तं काल गते णं काली ! काले कमारे नो चेव णं तमं कालं कमारं जीवमाणं पासिहिसि” जो यह कहा था उसका भाव यह है, भगवान महावीर ने यह कथन किया है कि हे काली ! तेरा पुत्र काल कुमार काल गत हो चुका है, अतः तू उसको जीते हुए को नहीं देख सकेगी।
यह (आगम-विहारी) सर्वज्ञ का कथन है, इसलिए इसमें कोई भी दोषापत्ति नहीं है, क्योंकि आगम-विहारी जिस प्रकार अपने ज्ञान में देखते हैं, जिस प्रकार उस प्राणी का कल्या देखते हैं, उसी प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखकर वर्णन करते हैं। कालो देवी दीक्षा लेकर (अन्त समय) केवली हुई है, अत: भगवान महावीर ने इसी कारण से उक्त प्रकार का कथन किया है, क्योंकि दीक्षा का कारण यही था।
उत्थानिका-तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं
मूल-तए णं सा कालीदेवी समणस्स भगवओ अन्तियं एयमढे सोच्चा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ताविव चम्पगलया धस त्ति धरणीयलंसि सव्वङ्गेहि संनिवडिया ॥१७॥