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वर्ग-द्वितीय]
(१७०)
[निरयावलिका
छाया- स्वामी समवसतः, परिषद् निर्गता, कूणिको निर्गतः, पनोऽपि यथा महाबलो निर्गतस्तथैव अम्बापित-आपृच्छना यावत् प्रवजितोऽनगारो जातो यावत् गुप्तब्रह्मचारी ॥३॥
पदार्थान्वयः- सामी-स्वामी, समोसरिए-पधारे, परिसा निग्गया-परिषद् दर्शनार्थ निकली, कृणिो निग्गए - राजा कोणिक भी राज महल से निकला, पउमेवि जहा महाबले निग्गए तहेव-जैसे महाबल कुमार निकला था वैसे ही पद्मकुमार भी दर्शनार्थ निकला, वैसे ही, अम्-पिइ-माता-पिता से, आपुच्छणा-पूछ कर, जाव पव्व इए-यावत् प्रवजित हुए, अनगारे जाए-अणगार हुए, जाव गुत्तब भय रो-यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हुए ॥३॥
मूलार्थ-उस नगरी में स्वामी (श्रमण भगवान महावीर पधारे) । धर्म परिषद् निकली। राजा कूणिक भो राजमहल से निकला, पद्म कुमार भी महाबल कुमार की तरह दर्शन करने आया (धर्म-उपदेश सुनकर) माता-पिता की आज्ञा से प्रवजित हुए, यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अणगार हुए ॥३।।
टीका-श्रमण भगवान महावीर अपना धर्म-उपदेश करते हुए चम्पा नगरी में पधारे । राजा प्रजा भगवान के दर्शन करने व धर्म-उपदेश सुनने आए। पद्म कुमार भी भगवान के दर्शन करने पाया। धर्म उपदेश सुन कर वह माता-पिता की माज्ञा से महाबल की तरह ही दीक्षित हो गया । अनगार (साधु) के गुणों से युक्त हो गया, यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया ॥३॥
उत्थानिका-सूत्रकार अब पुनः उसी विषय में कहते हैं.... मूल-तएणं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहि चउत्थछट्ठट्ठम जाव विहरइ। तएणं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं आपुच्छिता विउले भाव पाओवगए समाणे ।
छाया-ततः खलु स पद्मोऽनगारा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथा रूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकापसाङ्गानि अघोते। अधीत्य बहुभिः चतुर्थषष्ठाष्टम० यावद् विहरति । ततः स पद्मोऽनगारो तेन उवारेण यथा मेघस्तथैव धर्मजागरिका, चिन्ता, एवं यथैव मेघस्तथैव भ्रमण भगवन्तमापच्छ्य विपुले यावत् पादपोगता सन् ॥४॥