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वर्ग-प्रथम]
[निरयावलिका
हैं, तं जइ णं-वह यदि, ताओ हे तात, अहं एयमट्ठस्स-इस अर्थ को अर्थात् मापके दुखित होने के कारण को, अरिहे सवणयाए-सुनने के योग्य हूं, तो णं-तब, तुम्भे-आप, ममं-मुझे, एयमलैं-इन नमस्त कारणों को, जहाभूयं-यथाभूत अर्थात् ज्यों का त्यों, अवितह-बिलकुल सत्य, असंदिद्धं-सन्देह-रहित, परिकहेह-कह दीजिए, जा गं अहं-जिससे कि मैं, तस्स अठ्ठस्स--उस अर्थ अर्थात् कार्य के, अंत-गमणं करोमि-अन्त तक पहुंच कर-मर्म तक जाकर उसे दूर कर सकू ॥३४॥
मूलार्थ-उस समय अभय कुमार स्नान करके और शरीर को अलंकारों से सुसज्जित करके अपने राज-भवन से बाहर निकला और बाहर निकल कर जहां पर राज-सभामण्डप था और जहां राजा श्रेणिक अपने मन को मारकर अर्थात् चिन्ता में डूबा हुआ आर्तध्यान कर रहा था वहां आकर उसे देखा और देखकर इस प्रकार बोला-"तात! अन्यदा अर्थात् पहले तो आप सदैव मुझे देखते ही हर्षित हृदय हो जाया करते थे, तात ! तो आज फिर क्यों अपने मन को मारे हुए आर्तध्यान में डूबे हुए हैं, अर्थात् चिन्तातुर हो रहे हैं ? तात ! यदि आप मुझे उस चिन्ता के कारण को सुनने के योग्य समझते हैं तो
आप मुझ से वह कारण ज्यों का त्यों यथार्थ रूप से सन्देह रहित होकर कहें, जिससे कि मैं उस कारण के अन्त तक-मर्म तक पहुंच कर उसे दूर कर सकू ॥३४॥
टीका-प्रस्तुत सूत्र में अभय कुमार द्वारा पिता के पास आकर चिन्ता के कारण को पूछने का वर्णन किया गया है और साथ ही यह मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रकट किया गया है कि पिता को पुत्रों से हर्षित हृदय से मिलना चाहिये । पुत्रों का यह कर्तव्य है कि वे पिता को यह विश्वास दिलायें कि हम आपकी चिन्ताओं को जान कर उन्हें हर सम्भव उपाय करके दूर करेंगे।
सूत्र द्वारा यह भी ध्वनित होता है कि-पुत्रों को अपने पिता से जो भी बात पूछनी हो वह बड़े प्रेम से पूछनी चाहिये ॥३४।
.. मूल-तए णं से सेपिए राया अभयं कुमारं एवं क्यासी-त्यि गं पत्ता ! से केइ अछे जस्स णं तुम अणरिहे सवणाए एवं खल पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपरिपुन्नागं नाव अयमेवारूवे बोहले पाउन्भूए "धन्नाओ