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________________ निरयावलिका] (३६२) [वर्ग-पंचम खल स निधः कुपारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव पौषधशाला तवैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् दर्भसंस्तारोपगतो विहरति । ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्र पः आध्यात्मिकः- धन्याः खलु ते गामार यावत् सन्निवेशाः, यत्र खल अर्हन अरिष्टनेपिहिरति, धन्याः खल ते राजेश्वर यावत सार्थवाहप्रभतिकाः, ये खल अरिष्टनेमि वन्दन्ते नमस्यन्ति यावत्० पर्युपासते, यदि खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः पूर्वानुपूर्वी० नन्दनवने विहरेत् ततः खलु अहमहन्तमरिष्टनेमि वन्देय नमस्येयं यावत् पर्युपास य । ततः खलु अहन् अरिष्टनेमिः निषधस्य कुमारस्य इममेतद्र पमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय अष्टादशभिः श्रमणसहस्रयावद् नन्दनवने उद्याने समवसृत , परिषद् निर्गता । ततः खलु निषधः कुमारः अस्या कथाया लब्धाथः सन् हृष्ट० चातुघण्टेन अश्वरथेन यावद् निर्गतः यया जमालिः यावद् अम्बापितरौ अपृच्छय प्रवजितः, अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु स निषधोऽनगार. अहंतोरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधोते, अधीय बहूनि चतुर्थ षष्ठ यावद् तपःकर्मभिरात्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, चत्वारिंशद् भक्तानि अनशनन छिनत्ति, आलोचितप्रतिक्रान्त: समाधिप्राप्तः आनपूा कालगतः ।।११।। पदार्थान्वयः-तएण अरहा अरिटूनेमी-तदनन्तर किसी समय अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी, अण्णया कयाइं-एक बार. वारवईओ नयरीओ जाव बहिया-द्वारका नगरी से बाहर, जणवयविहारं विहरइ-अनेक प्रदेशों में विचरण करने लगे। निसढे कुमारे समणावासए जाएनिषध कुमार श्रमणोपासक बन कर, अभिगयजीवावीवे- जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान कर, जाव विहरई-विचरते रहते थे, सएण से निसढे कुमारे-तदनन्तर श्रमणोपासक निषध कुमार, अण्णया कयाई-एक समय, जेणेव पोसहसाला-जहां पर पौषधशाला थी, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आता है, उवागच्छित्ता-और वहां प्राकर, जव दम्भसंथारोवगए विहरइ-कुशा के आसन पर बैठकर (धर्मध्यान करते हुए) समय व्यतीत करने लगे, तएणं निसढस्स कुमारस्स-तदनन्तर निषध कुमार, पुवरत्तावरत्त० धम्म-जागग्यिं जागरमाणस्स-रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्मजागरण करके जागते हुए, इमेयारूवे अज्झस्थिए-इस प्रकार का धार्मिक संकल्प (उसके मन में) उत्पन्न हुआ कि, धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा-वे ग्रामों, आकरों एवं संनिवेशों के निवासी धन्य हैं, जत्थणं अरहा अरिट्ठनेमी विहर इ- जहां पर अरिहन्त प्रभु अरिष्टनेमी विचरण कर रहे हैं, धन्ना ण ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभईओ जे णं अरिठ्ठनेमि वंदति नमसंति-धन्य हैं वे राजा ईश्वर एवं सार्थवाह आदि जो भगवान् श्री अरिष्टनेमी जी को वन्दना नमस्कार करते हैं, जाव पज्जुवासंति-और उनकी सेवा-भक्ति करते हैं, जइ गं अरहा अरिठ्ठनेमी पुव्वाणपुवि० नंदणवंणे विहरेज्जा-यदि अरिहन्त प्रभु अरिष्टनेमी जी ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए द्वारका नगरी के नन्दन वन में आकर विहरण करें, तएणं अहं अरहं अरिठ्नेमि वंविज्जा जाव पज्जुवासिज्जा-तब
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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