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निरयावलिका]
(२५३)
[वर्ग-चतुर्थ
. तएणं-तत्पश्चात्, सुभद्दा सत्थवाही-सुभद्रा सार्थवाही, तओ अज्जाओ-उन साध्वियों (आर्याओं) को, एज्जमाणीओ-आते हुए, पास इ पासित्ता- देखा और देखकर, हट्ट-प्रसन्न किया, जाव-यावत्, खिप्पामेव-शीघ्र ही, असणाओ-आसनों से, अन्भुट्ठइ अन्भुष्ठित्ता-हो उठी और उठ कर, सत्तटुपयाई-सात आठ कदम आगे होकर, अणुगच्छइ लेने पाई और, अणुगच्छित्ता-और अन्दर बुलाकर. वंदइ नमसइ-वन्दन नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्तावन्दन नमस्कार करने के पश्चात्, विउलेणं-विपुल, असणपाणखाइमसाइमेणं- अशन-पान स्वादिम व खादिम चारों प्रकार का भोजन, पडिलाभित्ता-उनको देने का लाभ लेकर, एवं वयासीइस प्रकार कहने लगी, एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही, अहं-मैं, अज्जाओ-साध्वियों, भद्देणं सस्थवाहेणं-भद्रसार्थवाह के, सद्धि-साथ, विउलाई भोगभोगाई-विपुल भोग उपभोग भोगती हुई, विहरामि-विचर रही हूं, नो चेव णं-फिर भो अभी तक, णं अहं-मैं, दारगं दारियं वा-पुत्र या पुत्री, ना पयामि-पैदा नहीं कर सकी, तं-अतः, धन्नाओ-धन्य हैं बे, तओ अम्मगाओ-जो बच्चों की माताएं हैं, जाव-यावत्, एत्तो एगवि-किन्तु मैं एक भी बच्चे को, न पत्ता-पैदा न कर सकी, तं तुब्भे अज्जाओ-हे साध्वियो मैं आप से प्रार्थना करती हूं कि आप, बहुणायाओ-बहुत जान वान हो, बहुपढियाओ-बहुत पढ़ी लिखी हो, बहूणि गामागरनयर०बहुत से ग्राम नगरी में भ्रमण, जाव-यावत्, सण्णिवेसाई-सन्निवेशों, आहिडह-विचरती हो, बहूणं राइसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईण-बहुत से राजाओं, तलवर, सेठों यावत् सार्थवाहों के, गिहाई- घरों में, अणुपविसह-प्रवेश करती हो, अस्थि से केइ-क्या कोई, कहिं चि-किसी भी जगह, विज्जापओए वा-विद्या प्रयोग से, मंतप्पओए वा-मंत्र प्रयोग से, वमणं वा विरेयणं वा वस्थिकम्म वा-वमन, विरेचन, बस्तिकर्म तथा, ओसहे वा भेसज्जे वा-औषधि भेषज, उवलद्धे-उपलब्ध की है, जेणं-जिसके प्रयोग से, अहं-मैं, दारगं वा दारियं वा पयाएज्जालड़का व लड़की उत्पन्न कर सकू ।।४।।
मूलार्थ-उस काल उस समय में आर्या (साध्वी) सुव्रता ईया-भाषा-एषणा, आदान भण्डमात्रनिक्षेप-उच्चार प्रस्रवण श्लेष्मसिंघाण परिष्ठापना आदि समितियों से युक्त, मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति, व काय-गुप्ति से युक्त; इन्द्रियों को वश में रखने वाली गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता; अपनी बहुत सी शिष्याओं के धर्म परिवार के साथ, गांव-गांव में धर्म-प्रचार करती हुई जहां वाराणसी नगरी थी वहां पधारी, आकर विधिपूर्वक स्वामी की आज्ञा से स्थान व शैय्या आदि उपकरण ग्रहण किये। फिर संयम व तप से अपनी आत्मा को पवित्र किया। । तत्पश्चात् बार्या सुनता की साध्वियो का एक संघाड़ा भिक्षा के लिये वाराणसी