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वर्ग-प्रथम ]
(१५८)
[निरयावलिका
इन सातों नरकभूमियों में रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं । ज्यों-ज्यों नीचे की नरकभूमियों में पापी जीव जाते हैं, त्यों-त्यों नारक जीवों में कुरूपता, भयंकरता, बेडौलपन आदि विकार बढ़ते जाते हैं।
नरकभूमियों में तीन प्रकार की वेदनाएं प्रधानरूप से नारकों को होती है-(१) परमाधार्मिक आसुरों (नरकपालों) द्वारा दी जाने वाली वेदनाएं, (२) क्षेत्रकृत-अर्थात्-नरक की भूमियां खून आदि से लथपथ अत्यन्त कीचड़ वाली, अत्यन्त ठण्डी या अत्यन्त गरम होती हैं, इत्यादि कारणों से होने वाली वेदनाएं। (३) नारकी जीवों द्वारा परस्पर एक दूसरे को पहुंचाई जाने वाली वेदनाएं।
परमाधार्मिक असुर (देव) तीसरे नरक तक ही जाते हैं। उनका स्वभाव अत्यन्त क्रू र होता है। वे सदैव पापकर्मों में रत रहते हैं, दूसरों को कष्ट देने में उन्हें मानन्दानुभव होता है। नारकी जीवों को वे अत्यन्त कष्ट देते हैं। वे उन्हें गरम-गरम शीशा पिलाते हैं, गाड़ियों में जोतते हैं, अतिभार लादते हैं, गर्म लोह-स्तम्भ का स्पर्श करवाते हैं और कांटेदार झाड़ियों पर चढ़ने-उतरने को वाध्य करते हैं।
आगे की चार नरकभूमियों में दो ही प्रकार की वेदनाएं होती हैं, परन्तु पहली से सातवीं नरकभूमि तक उत्तरोत्तर अधिकाधिक वेदनायें होती हैं। वे पापी जीव मन ही मन संक्लेश पाते रहते हैं। एक दूसरे को देखते ही उनमें क्रोधाग्नि भड़क उठती है। पूर्वजीवन के वैर का स्मरण करके एक दूसरे पर क रतापूर्वक झपट पड़ते हैं। वे अपने ही द्वारा बनाये हुए शस्त्रास्त्रों, या हाथपैरों दांतों आदि से एक दसरे को क्षत-विक्षत कर डालते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है जो पारे के समान पूर्ववत् जुड़ जाता है । नरकों में अकाल मृत्यु नहीं होती। जिसका जितना आयुष्य है, उससे पूरा करके ही वे इस शरीर से छुटकारा पा सकते हैं। संक्षेप में क्षेत्र की दृष्टि से इन तीनों लोकों की रचना पूर्वोक्त प्रकार से बतलाई गई है।
महाविदेह विदेह क्षेत्र का ही दूसरा नाम महाविदेह है । मेरु पर्वत से पूर्व और पश्चिम में यह क्षेत्र है। इसके बीचों-बीच मेरुपर्वत के आ जाने से इसके दो विभाग हो जाते हैं—पूर्व महाविदेह और पश्चिम महाविदेह । पूर्व महाविदेह के मध्य में सीता नदी और पश्चिम महाविदेह के मध्य में सीतोदा नाम की नदी के आ जाने से एक-एक के फिर दो विभाग हो जाते हैं । इस प्रकार इस क्षेत्र के चार विभाग बन जाते हैं। इन चारों विभागों में आठ-पाठ विजय (क्षेत्र-विशेष) हैं । ये ८४४=३२ होने से महाविदेह में ३२ विजय प्रदेश-विशेष पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में सदैव चौथे आरे जैसी स्थिति रहती है।