Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Author(s): Jethalal Haribhai
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S .. ॐ अहँ । श्री समवायाङ्ग सूत्र (चतुर्थ अंग) मूळ तथा मूळ अने टीकानुं गुजराती भाषान्तर ..भाषान्तरकर्ता-शास्त्री जेठालाल हरिभाई. सहायक-जैनशास्त्रशैली अनुसार यथामति संशोधन करनार कुंवर जी आ णं द जी. छपावी प्रसिद्ध करनार श्री जैन धर्म प्रसारक सभा [ विक्रम सं. १९९५ .. . वीर सं. २४६५.] .. .किंमत रु. ३-०-० म ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रकशा. गुलाबचंद लल्लुभाई महोदय प्रेस-भावनगर. प्रत १००० किंमत रुपिया त्रण Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉદારદિલ કેળવણીપ્રિય શેઠ કાંતિલાલભાઈ ઈશ્વરદાસ અહીં જેમના પ્રતિષિમ આપવામાં આવ્યા છે તે દ'પતી ઉદારદિલના હેાવા સાથે સદાચરણી અને અનેકગુણુસ'પન્ન છે. તેઓ રાધનપુર નામથી એળખાતી જૈનપુરીના વતની ને વ્યાપારાર્થે મુંબઈનિવાસી થયેલા છે. એમના કેળવણી પ્રત્યેના પ્રેમ જાણીતા છે. છેલ્લાં બે વરસની અંદર એમણે કેળવણી ખાતાને અંગે એકી સાથે એવી સારી સખાવત કરી છે કે જેને માટે જૈન સમુદાયમાં તેમની ઉદારતા વખણાય છે. પતિસદા ગુણધારક સા. અેન શકુંતલા કાંતિલાલ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना हे एकांत सुखाभिलाषी भव्य मुमुक्षुजनो ! आ वृत्तांत सुप्रसिद्ध ज छे के-आ अनाद्यनंत चतुर्गतिरूप संसारचक्रमा भ्रमण करता प्राणीओने मोक्षसुख मेळ्ववानी अभिलाषा छतां पण शुभाशुभ कर्मनो सर्वथा क्षय करी, केवळज्ञाननी प्राप्ति करी मोक्षसुखने आपवामां एकांत कारणरूप ज्ञान, दर्शन अने चारित्रमय सन्मार्गमा प्रवृत्त थया नथी, अने तेथी करीने ज | तेओ अद्यापि भवांत करी शक्या नथी. ते भवांत करवानो उपाय ए ज छे के-वीतराग देव, पंच महाव्रतधारी गुरु अने आप्तपुरुषप्ररूपित धर्म आ वणर्नु सेवन करवं. तेम करवाथी ज मोक्षसुख प्राप्त करी शकाय छे. जो के आ देव, गुरु अने धर्म त्रणे परस्पर सापेक्ष होवाथी एक ज स्वरूप छे एटले के-वीतराग देवना ज शिष्यो पंच महाव्रतधारी गुरु छे अने धर्म पण वीतरागेज कह्यो छे तथा तेनु पालन पण सद्गुरु ज करे छे, तेथी ज्यां एकनो विषय चालतो होय त्यां बीजा वेनो विषय पण अवांतरपणे | आवी ज जाय छे, तोपण अहीं वीतरागप्ररूपित धमनो. मुख्य विषय होवाथी ते संबंधमां कांइक लखवु उचित धायें छे... .. दुर्गतिमां पडता जीवोने जे धारण करे-अटकावे ते धर्म कहेवाय छे. आ धर्मना मुख्य चार भेद छे-दान, शील, तप अने भाव. आवा धर्मनी प्ररूपणा करनार एक वीतराग देव ज छे. तेओ प्रथम गणधरोनी पासे मात्र " उपन्ने वा, विगमे वा, धुवे | वा" ए त्रिपदीने ज कहे छे. ते उपरथी ते गणधरो द्वादशांगी रचे छे, तेमा मुख्यत्वे करीने ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए त्रण, जः। मोक्षना उपाय तरीके होवाथी तेनुं ज वर्णन करवामां आवे छे अने तेनी ज प्राप्तिने माटे द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधु अंग नुयोग अने धर्मकथानुयोग ए चार अनुयोग कहेवामां आवे छे. तेमां कोइ अंगमा द्रव्यानुयोग कहेवामां आवे छे, कोइमां गणितानुयोग कहेवामां आवे छे एम जुदा जुदा अनुयोग जुदा जुदा अंगमा कहेवामां आवे छे. तेम ज कोइ कोइ अंगमां बे, त्रण के चारे अनुयोग पण कहेवामां आवे छे. आ प्रमाणे मोक्षमार्ग देखाडवा माटे श्रीवीतराग देवे समवसरणमा उपदेशद्वारा सर्व प्रकारनो धर्म कयो छे, तेने गणधरोए सूत्र (द्वादशांगी ) तरीके रच्यो छे. त्यारपछी तेमना शिष्योए प्रकीर्णको रच्या छे, त्यारपछी उत्तरोत्तर तेमना शिष्य-प्रशिष्यादिके प्रकरणो, चरित्रो विगेरे आगमानुसार रची भव्य जीवोनो उपकार कर्यो छे. तेम ज आगमना अर्थ पण दुर्गम होवाथी समयानुसार महात्मा आचार्योए तेनी टीका करी शासननी प्रभावना करी छे. तोपण आ जिनागमनु यथार्थ रहस्य जाणनार आ समये तो विरला.ज महात्माओ छे, तेथी अल्पज्ञानवाळा साधु-साध्वीओ पोताने आत्मज्ञान थवा साथे साथे. उपदेशद्वारा अन्य भव्य प्राणीओनो उपकार करी शके तथा धर्मानुरागी स्व-पर दर्शनीओ के जेओ फरजीयात सांसारिक कार्योमां गुंचवायेला होवाथी संस्कृत, प्राकृत के तेवा प्रकारनो उच्च धर्मशास्त्राभ्यास करी शकता नथी, तेओ तथाप्रकारना गुर्वादिकना संयोगने अभावे स्वतंत्रपणे धर्मतत्त्व समजी शके अने पोतानो सामायिकादिक विगेरेमा जतो समय धर्मध्यानमा व्यतीत करी शके तेटला माटे केटलाक वर्पोथी केटलीक संस्थाओ पूज्य गुरुमहाराजना उपदेशथी तथा केटलाक धर्मिष्ठ गृहस्थोनी प्रेरणा अने सहायथी केटलाक ग्रंथोना भाषांतरो छपावी प्रसिद्ध करवा उत्साहित थयेली छे. तेमां आ श्री जैन धर्म प्रसारक सभाए नवकार अने प्रतिक्रमण सूत्रथी आरंभीने आगम पर्यंत घणा ग्रंथो, मूळ सूत्रो अने टीका तथा भाषांतर पण छपाव्या छे. तेमां छेल्ला १५ वर्षथी गुरुणीजी श्री लाभश्रीजीना उपदेशथी सूत्रोना भाषांतरो छपाववा शरु कर्या छे अने उत्तराध्ययन विगेरे दश सूत्रो कथानकद्वारा धर्मतत्त्वने Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जणावनारा होवाथी दरेक बाळजीवोना उपकारक छे तेम जाणी तेना भाषांतर छपाव्या छे, हालमां आ समवायांगसूत्र के जेमां कथानुयोग अति अल्प छे, द्रव्यानुयोग घणो मोटो छे अने गणितानुयोग तथा चरणकरणानुयोग थोडा विस्तारथी कहेल छे, ते प्रकरणादिक ग्रंथो जाणनारने बहु उपयोगी छे. तेने माटे प्रयास कर्यो छे. आ सूत्रनी रचना जोइने एंवो तर्क थइ शके छे के गुरुमहाराजा सुबोध शिष्योनी परीक्षा लेवा माटे प्रश्न करे के आ चौद राजप्रमाण समग्र लोकमां एक संख्यावाळा पदार्थ कया कया छे ? वे संख्यावाळा कया कया छे ? ए ज प्रमाणे त्रण, चार, पांच विगेरे सो संख्यावाळा कया कया छे? पछी दोढसो, बसो, अढीसो विगेरे पांच सो सुधी पछी छसो, सात सो विगेरे हजार सुधी कया कया छे ? ( आ सर्व विषयानुक्रममांथी जाणी लेवुं ). आ प्रश्नोना उत्तरो सूत्रोना अभ्यासी शिष्योए आप्या होय अथवा तो शिष्योने शीखववा माटे गुरुमहाराजाए ज तेमनी पासे आ सर्व स्थानो कह्यां होय एम. पण मानी शकाय छे. आवां स्थानोवालुं त्रीजुं स्थानांग सूत्र पणः छे. तेमां मात्र एकथी दशसुधीना स्थानो ज आप्यां छे, परंतु तेना मूळमां अने टीकामां घणो विस्तार छे अने आ सूत्र करतां ते सूत्र वधारे गंभीर होवाथी अति कठण छे. तेथी करीने ज अमे आ सूत्रर्नु भाषांतर. आ सूत्रनुं माहात्म्य के टूंक रहस्य कही शकाय तेम नथी, तोपण जिज्ञासुजनो आनो विषयानुक्रम वांचवाथी कांइक समंजी शकशे. खरी रीते तो आ आखुं सूत्र ज साद्यंत वांचवा, भणवा, भणाववा अने मनन करवा लायक छे. आ सूत्रनं एकाग्रचित्ते. • पठनपाठनादिक करतो जिज्ञासु जन केवळ धर्मध्यानमां ज तन्मय बनी सर्व शारीरिक अने मानसिक आधि, व्याधि अने उपा घिथी मुक्त थइ आनंदामृतरसना आस्वादनी वानकीने पामे छे एम कहेवुं अतिशयोक्तिवालुं नथी. उपर का प्रमाणे आ ग्रंथना भाषांतरनी अने छपाववानी शरुआत गुरुणीजी लाभश्रीजीना उपदेशथी ज करी हती अने Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रस्तावना समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोधू अंग छापवानुं काम पण लगभग पूर्ण थवा आव्यु हतुं, तेवा समयमां श्रीराधनपुरनिवासी उदारदिल गृहस्थ कांतिलालभाइ ईश्वरलालन भावनगर आवq थता मात्र सूचना करवा मात्रथी ज आ सूत्र छपाववाना संबंधमां सारी रकम मदद तरीके आपवा इच्छा दर्शावी. आ गृहस्थ हालमां श्रीराधनपुर जैन बोडौंग, श्रीमांगरोळ जैन कन्याशाळा, श्रीअंबाला जैन कॉलेज, श्रीराधनपुर हाइस्कूल विगेरे संस्थाओमां बहु सारी रकमनी सहाय आपवाथी विशेष प्रसिद्धिमा आव्या छे. श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्सना रेसीडेन्ट जनरल सेक्रेटरी छे अने कोइपण शुभ कार्यमा उदारदिलथी सहाय आप्या ज करे छे, तेमने तेमज तेमना पवित्र धर्मपत्नीने आ प्रसंगे धन्यवाद आपवो योग्य जणाय छे. - आ सूत्र तैयार करवामां ने छपाववामां बनतो प्रयास कर्या छतां तेमां कोइ कोइ विषय वधारे गहन होवाथी अमे संतोष- | कारक कार्य करी शक्या हइए एवो अमने निर्णय थयेलो नथी तोपण यथाशक्ति प्रयास कयों छे अने तेमा रही गएली स्खलना माटे विद्वज्जनोने प्रार्थना करीए छीए के तेओ उपकार बुद्धिथी अमने जणावशे तो अमे जरूर तेने प्रसिद्ध करशु. .. आ सूत्रनी अर्थसाथेनी प्रेसकॉपी करवान तेम ज तैयार करवातुं काम सभाना बहु वर्षना अनुभवी शास्त्री जेठालाल हरिभाइने सोपेलु तेमणे पूरी खंतथी आ कार्य कयुं छे. शास्त्रशैली अनुसार काइ सुधारोवधारो करवा जेवू मारी बुद्धि अनुसार मने लाग्यु ते में करेल छे छतां छद्मस्थपणाथी, अल्पमतिपणाथी तेमज प्रेसदोषथी जे काइ क्षति रही गइ होय तेने माटे क्षमायाचना करी विरमुं छु. चैत्र शुदि १५ कुंवरजी आणंदजी भावनगर. । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायांग सूत्रांतर्गत विषयानुक्रम. श्रमण भगवान महावीरस्वामीए प्राणीओना हितने माटे गणधरोनी समक्ष द्वादशांगी कही छे, तेनां नाम आ प्रमाणे - आचारांग १, सुकृतांग २, स्थानांग ३, समवायांग ४, विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती ) ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, अंतकृतदशा ८, अनुत्तरोपपातिकदशा ९, प्रश्नव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११ अने दृष्टिवाद १२. आमांना चोथा समवायांग सूत्रमां स्थानांगनी जेम एक, वे, त्रण विगेरे स्थानो आपेला छे. स्थानांगमां मात्र दश ज स्थानो सविस्तर आप्यां छे, अने आ सूत्रमां तो एकथी सो सुधी, पछी दोढसो, बसो, अढीसो विगेरे पांचसो सुधी, पछी छ सो, सात सो विगेरे एक हजार सुधी, पछी अग्यार सो, पछी वे हजार, त्रण हजार विगेरे दश हजार सुधी, पछी लाख, वे लाख विगेरे दश लाख सुधी, (तेमां नव लाखने ठेकाणे नव हजारनुं स्थान आप्युं छे ), पछी एक करोड, कोटाकोटि विगेरे अति विस्तारथी स्थानो आपला छे. त्यारपछी द्वादशांगीनुं स्वरूप तथा ते बारे अंगनो सविस्तर परिचय, दृष्टिवादना परिचयमां चौद पूर्वनुं स्वरूप पण विस्तारथी आप्युं छे. त्यारपछी जीव अने अजीव एम वे राशि, देव, नारकी विगेरेनुं स्वरूप, शरीर, ज्ञान, वेदना, आहार, आयु, विरहकाळ, संघयण, संस्थान विगेरे, त्रिकाळ संबंधी तीर्थंकरो, चक्रवर्त्ती, वासुदेव, बळदेव, प्रतिवासुदेव विगेरे घणी हकीकत आ सूत्रमां आपी छे. दरेक स्थानमां नीचे प्रमाणेना पदार्थोंनुं स्वरूप आप्युं छे ( १ ) प्रथम समवायमां आत्मा, अनात्मा, दंड, अदंड, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी विषयानु क्रम॥ समवायाङ्ग सूत्र । पोएं अंग क्रिया,अक्रिया, लोक, अलोक, धर्म, अधर्म,पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष, | कया छे, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद अने उत्तरा- | आश्रव, संवर, वेदना अने निर्जरा आ अढार पदार्थो एक एक कया भाद्रपदए चार नक्षत्रो बवे तारावाळा कह्या छे, केटलाक देवो, छे. त्यारपछी जंबूद्वीप एक लाख योजननो, एज प्रमाणे नारकी जीवोअने मनुष्य तथा तिर्यंचो वे पल्योपमनी स्थितिवाळा अप्रतिष्ठान नामनो नरकावास, पालक विमान अने सर्वार्थ- ने देवो तथा नारकी जीवो जे वे सागरोपमनी स्थितिवाना सिद्ध विमान ए सर्वे एक एक लाख योजनना कह्या छ, होय छे ते कह्या छे. वे सागरोपमनी स्थितिवाळा देवो वे त्यारपछी आर्द्रा, चित्रा अने स्वाति आ त्रण नक्षत्रो एक एक पखवाडीए श्वास ले छे अने वे हजार वर्षे आहार इच्छे छे, . तारावाळा कह्या छे, त्यारपछी स्थितिने आश्रीने एक पल्यो- केटलाक भव्य जीवो बे भववडे सिद्ध थवाना होय छे. पम ने एक सागरोपम स्थिति देवमां ने नारकीमा कोनी (३)त्रीजामांत्रण दंड, त्रण गुप्ति,त्रण शल्य,त्रण गौरव कोनी छे ? ते जणाव्यु छे, तेम ज एक पल्योपमनी स्थिति- अने प्रण विराधना कही छे, मृगशीर्ष, पुष्य, ज्येष्ठा, अभिवाळा मनुष्य तिर्यंचोनी हकीकत कही छे. एक सागरोपमनी जित्, श्रवण, अश्विनी अने भरणी ए सात नक्षत्रो त्रण त्रण स्थितिबाळा देवो एक पखवाडीए श्वास ले छे अने एक तारावाळा कह्या छे, केटलाक देवो, नारकी जीवो, मनुष्यो हजार वर्षे आहार इच्छे छे, तथा केटलाक भव्य जीवो ने तिर्यंचोनी स्थिति त्रण पल्योपमनी होय छे ने केटलाक एक ज भववडे सिद्ध थवाना होय छे. देवो ने नारकीओनी स्थिति त्रण सागरोपमनी होय छे (२) बीजा समवायमांवे दंड, वे राशि अने वे बंधन ते कहेल छे. जे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति व्रण सागरोपमनी छे Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ON ते देवो त्रण पखवाडीए श्वास ले छे अने त्रण हजार वर्षे । समिति अने पांच अस्तिकाय कह्या छे. रोहिणी, पुनर्वसु, आहार इच्छे छे, केटलाक भव्य जीवो त्रण भववडे सिद्ध हस्त, विशाखा अने धनिष्ठा ए पांच नक्षत्रो पांच पांच ताराथवाना होय छे. आ प्रमाणे दरेक समवायमां समज. वाळा कह्या छे. केटलाक नारकीओ ने देवो पांच पल्योप' (४) चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथा, चार | मनी ने पांच सागरोपमनी स्थितिवाळा होय छे ते कहेल छे. संज्ञा, अने चार प्रकारे बंध कह्या छे, एक योजनना चार गाउ जे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपमनी छे, ते देवो पांच कह्या छे, अनुराधा, पूर्वाषाढा अने उत्तराषाढा ए त्रण नक्षत्रो पखवाडीए श्वास ले छे अने पांच हजार वर्षे आहार इच्छे चार चार तारावाळा कह्या छे. केटलाक देवो ने नारकी जीवो छे, केटलाक भव्य जीवो पांच भववडे सिद्ध थवाना होय छे. चार पल्योपम ने चार सागरोपमनी स्थितिवाळा होय छे (६) छ लेश्या, छ जीवनिकाय, छ प्रकारनो बाह्य ते कहेल छे. जे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपमनी तप, छ प्रकारनो आभ्यंतर तप, छ छामस्थिक समुद्घात कही छे, ते देवो चार पखवाडीए श्वास ले छे अने चार अने छ प्रकारनो अर्थावग्रह कह्यो छे. कृत्तिका अने अश्लेषा हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो चार नक्षत्रना छ छ ताराओ कह्या छे, केटलाक देवो ने नारकी भवबडे सिद्ध थवाना होय छे. जीवो छ पल्योपम ने छ सागरोपमनी स्थितिवाळा होय छे (५) पांच क्रिया, पांच महाव्रत, पांच कामगुण, ते कहेल छे. जे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छ सागरोपमनी कही पांच आश्रवद्वार, पांच संवरद्वार, पांच निर्जरास्थान, पांच | छे, ते देवो छ पखवाडीए श्वास ले छे अने छ हजार वर्षे Hal Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपयानुक्रम ॥ समवायाङ्ग सत्र॥ चोथु अंग PA आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो छ भववडे सिद्ध | जीवो सात भववडे सिद्ध थवाना होय छे. थवाना होय छे. (८) आठ मदस्थानो अने आठ प्रवचन माताओ (७) सात भयस्थान, सात समुद्घात, महावीर- | छे. वाणव्यंतर देवोना चैत्यवृक्षो, सुदर्शन नामनो जंबूस्वामी सात हाथ ऊंचा, आ जंबूद्वीपमा सात वर्षधर पर्वत वृक्ष, गरुड देवनो कूटशाल्मली वृक्ष अने जंबूद्वीपनी जगती अने सात क्षेत्र, क्षीणमोही भगवान मोहनीय सिवायनी सात आ सर्वे आठ योजन ऊंचा छे. केवळीसमुद्घात आठ समकर्मप्रकृतिओने वेदे छे, मघा नक्षत्रना सात ताराओ छे, यनो छे, पार्श्वनाथ प्रभुने आठ गण तथा आठ गणधरो हता, कृत्तिका ( पाठांतरे अभिजित् ) विगेरे सात नक्षत्रो पूर्व आठ नक्षत्रो चंद्रनी साथे प्रमर्द योगने पामे छे, केटलाक दिशाना द्वारवाला छे, मघा विगेरे सात नक्षत्रो दक्षिण द्वार- देवो ने नारकी जीवो आठ पल्योपम ने आठ सागरोपमना वाळा, अनुराधा विगेरे सात नक्षत्रो पश्चिम द्वारवाळा 'अने आयुवाळा होय छे ते कहेल छे. जे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति धनिष्ठा विगेरे सात नक्षत्रो उत्तर द्वारवाळा. कह्या छे. केट- आठ सागरोपमनी छे ते दवो आठ पखवाडीए श्वास ले छे 'लाक देवो ने नारकीओ सात पल्योपम ने सात सागरोप- अने आठ हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो मनी स्थितिवाळा होय छे ते कहेल छे. जे देवोनी उत्कृष्ट आठ भवे मोक्ष पामवाना होय छे. स्थिति सात सागरोपमनी छे ते देवो सात पखवाडीए श्वास (९) नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, नव ब्रह्मचर्य अगुप्ति अने | ले छे अने सात हजार वर्षे आहार इच्छे छे, केटलाक भव्य | नव ब्रह्मचर्य अध्ययनो कया छे. पार्श्वनाथ प्रभु नव हाथ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊंचा हता. अभिजित् नक्षत्र साधिक नव मुहूर्त सुधी चंद्रनो | समाधिना स्थानो कह्या छे. मेरुपर्वतनो मूळमां (पृथ्वीतळ योग पामे छे, अभिजित् विगेरे नव नक्षत्रो चंद्रनी साथे उपर ) विष्कम दश हजार योजननो छे, अरिष्टनेमि प्रभु उत्तर दिशामा योगने पामे छे, आ रत्नप्रभा पृथ्वीथी तिर्यो- दश धनुष ऊंचा हता, कृष्ण वासुदेव अने राम बळदेव दश लोक नवसो योजन ऊंचो छे. ज्योतिष्चक्र ९०० योज- | धनुष ऊंचा हता. दश नक्षत्रो ज्ञाननी वृद्धि करनारा छे, दश |ननी अंदर छे, लवण समुद्रमांथी नव योजन सुधीना मत्स्यो प्रकारना कल्पवृक्षो छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमा जघन्य स्थिति जंबूद्वीपमा प्रवेश करे छे. विजयद्वारनी एक एक बाहाने दश हजार वर्षनी छे, रत्नप्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकोनी दश विषे नव नव भूमिगृहो रहेला छे, वानव्यंतर देवोनी सुधर्मा पल्योपमनी स्थिति कही छे, चोथी पृथ्वीमा दश लाख नरसभाओ नव योजन ऊंची छे, दर्शनावरणीय कर्मनी नव उत्तर- कावासा छे, चोथी पृथ्वीमा उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी प्रकृतिओ कही छे. केटलाक देवो अने नारकी जीवो नव छे, पांचमी पृथ्वीमा जघन्य स्थिति दश सागरोपमनी छे, पल्योपमनी अने नव सागरोपमनी स्थितिवाळा छे. जे देवोनी | असुरकुमार देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्पनी छे, उत्कृष्ट स्थिति नव सागरोपमनी छे ते देवो नव पखवाडीए असुरेंद्र सिवायना नव निकायना भवनपति देवोनी जघन्य श्वास ले छे अने नव हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक स्थिति पण दश हजार वर्षनी छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी भव्य जीवो नव भववडे सिद्धिपदने पामवाना होय छे. दश पल्योपमनी स्थिति छ, प्रत्येक वनस्पतिकायनी उत्कृष्ट (१०) दश प्रकारनो साधुधर्म अने दश चित्तनी | स्थिति दश हजार वर्षनी छे, वाणव्यंतर देवोनी जघन्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानु श्री समवायाङ्ग पोषू अंग स्थिति दश हजार वर्पनी छे, सौधर्म अने ईशान कल्पमां । मेरुपर्वत पृथ्वीतळथी ऊंचे जतां अग्यारमे भागे ओछा विष्ककेटलाक देवोनी दश पल्योपमनी स्थिति छ, ब्रह्मालोकमां भवाळो थतो जाय छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकीदेवोनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी छे, लांतकमां जघन्य ओनी अग्यार पल्योपमनी स्थिति कही छे, पांचमी पृथ्वीमां स्थिति दश सागरोपमनी छे. घोष विगैरे विमानमा उत्पन्न केटलाक नारकीओनी अग्यार सागरोपमनी स्थिति छ, केटथयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपमनी छे, ते देवो लाक असुरकुमार देवोनी अग्यार पल्योपमनी स्थिति छे, दश पखवाडीए श्वास ले छे अने दश हजार वर्षे आहार सौधर्म अने ईशान कल्पमा केटलाक देवोनी अग्यार पल्योइच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो दश भवे मोक्ष पाम- पमनी स्थिति छ, लांतक कल्पमा केटलाक देवोनी अग्यार वाना होय छे. सागरोपमनी स्थिति कही छे. ब्रह्म विगेरे विमानमां उत्पन्न (११) अग्यार श्रावकनी प्रतिमाओ छे, लोकांतथी थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अग्यार सागरोपमनी छे, ते अग्यार सो ने अग्यार योजन अंदर आवीए त्यांथी देवो अग्यार पखवाडीए श्वास ले छे अने अग्यार हजार वर्षे ज्योतिपनी शरूआत थाय छे. आ जंबूद्वीपना मेरुथी अग्यार आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो अग्यार भवे मोक्षमा सो ने एकवीश योजन दूर ज्योतिपचक्र रहेलं छे. महावीर- जवाना होय छे. स्वामीने अग्यार गणधरो हता. मूळ नक्षत्रना अग्यार ताराओ (१२) वार भिक्षुप्रतिमा, बार प्रकारनो संभोग छे. नीचेना त्रण प्रैवेयकमां एक सो ने अग्यार विमानो छे. अने बार आवर्त्तवालु कृतिकर्म कहुं छे. विजया राजधानीनो ॥ ३ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्कंभ बार लाख योजननो छे, राम नामना वळदेवतुं | सागरोपमनी कही छे, ते देवो बार पखवाडीए श्वास. ले छे IN बार सो वर्षतुं आयुष्य तुं, मेरुपर्वतनी चूलिकानो मूळनो | अने बार हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो | विष्कंभ बार योजननो छे, आ जंबूद्वीपनी जगती मूळमां बार भवे मोक्ष पामनारा होय छे. बार योजनना विष्कंभवाळी छे, दर वर्षे नानामां नानी रात्रि (१३) तेर क्रियाना स्थानो छे, सौधर्म अने ईशान अने नानामां नानो दिवस बार बार मुहूर्त्तवाला थाय छे, कल्पमा तेर तेर प्रस्तट छे, सौधर्मावतंसक अने ईशानावतंसक सर्वार्थसिद्ध विमानथी बार योजन ऊंचे ईषत्प्रागभार नामनी विमाननो विष्कंभ साडाबार लाख योजननो छे, (वे मळीने २५ पृथ्वी छे, ते पृथ्वीना बार नामो छे. आ रत्नप्रभा पृथ्वीमा | लाख थाय छे) जळचर पंचेंद्रिय तिथंच जीवोनी कुळकोटि साडाकेटलाक नारकीओनी बार पल्योपमनी स्थिति कही छे, बार लाख कही छे, प्राणायु नामना पूर्वमां तेर वस्तु छे, गर्भज पंचेंपांचमी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी वार सागरोपमनी द्रिय तिर्यंचना मन, वचन, कायाना योग तेर प्रकारना कह्या छे, स्थिति कही छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी बार पल्योप- सूर्यन मंडळ एक योजनमाथी योजनना एकसठीया तेर भाग मनी स्थिति कही छे, सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केट ओछु करीए तेटलुं छे ( एकसठीया ४८ भागर्नु छ ), रत्नलाक देवोनी बार पल्योपमनी स्थिति कही छे, लांतककल्पमां । प्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी तेर पल्योपमनी स्थिति केटलाक देवोनी बार सागरोपमनी स्थिति कही छे, महेंद्र । छे, पांचमी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी तेर सागरोपमनी विगेरे विमानोमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वार | स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी तेर पल्योपमनी DOOOOOOOOO 6 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री र विषयानुक्रम । चोj अंग ॥४ ॥ स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान कल्पमा केटलाक देवोनी तेर | देवोनी चौद पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान समवायाङ्गा पल्योपमनी स्थिति छे, लांतक कल्पमा केटलाक देवोनी तेर | कल्पमा केटलाक देवोनी चौद पल्योपमनी स्थिति छे, लांतक सागरोपमनी स्थिति छ, वन विगेरे विमानोमा उत्पन्न थयेला कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चौद सागरोपमनी छे, महादेवोनी उत्कृष्ट स्थिति तेर सागरोपमनी छे, ते देवो तेर शुक्र कल्पमा जघन्य स्थिति चौद सागरोपमनी छे, श्रीकांत पखवाडीए श्वास ले छे अने तेर हजार वर्षे आहार इच्छे . विगेरे विमानोमा उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चौद छे. केटलाक भव्य जीवो तेर भवे मोक्ष पामवाना होय छे. | सागरोपमनी छे, ते देवो चौद पखवाडीए श्वास ले छे अने (१४) चौद प्रकारना जीवो, चौद पूर्व, अग्रायणी | चौद हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो नामना पूर्वमा चौद वस्तु छे, महावीरस्वामीने चौद हजार चौद भवे मोक्षमा जवाना होय छे. मुनिनी संपदा हती, गुणस्थानो चौद छे, भरत अने ऐरवत (१५) पंदर जातिना परमाधार्मिक देवो छे, श्री क्षेत्रनी जीवा साधिक चौद हजार योजननी छे, दरेक चक्र- नमिनाथ पंदर धनुष ऊंचा हता, ध्रुवराहु कृष्णपक्षमा दरेक वर्तीने चौद रत्नो होय छे, आ जंबूद्वीपमा चौद महा नदीओ दिवसे चंद्रनी कळानो पंदरमो भाग दबावे छे अने शुक्लप| छे, रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी चौद क्षमां पंदरमो भाग उघाडे छे, शतभिषक विगेरे छ नक्षत्रो | पल्योपमनी स्थिति छ, पांचमी पृथ्वीमा केटलाक नारकी- पंदर मुहूर्त्तवाला छे, चैत्र अने आश्विन मासमां रात्रि ओनी, चौद सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार | अने दिवस पंदर पंदर मुहूर्त्तवाळा होय छे, विद्यानुप्रवाद 14. , विधानवाद ॥४ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामना पूर्वमा पंदर वस्तु छे, मनुष्यने पंदरे प्रकारना योग | हजार साधुओ हता, आत्मप्रवाद नामना पूर्वमा सोळ वस्तु । होय छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी पंदर पल्यो- छे, चमरेंद्र अने बलींद्रना प्रासाद मध्येनी पीठिकानो विष्कंभ 10 पमनी स्थिति छे, पांचमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकोनी सोळ हजार योजननो छे, लवणसमुद्रना मध्य भागे वेळानी पंदर सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी | वृद्धि सोळ हजार योजननी छे, रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक पंदर पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान कल्पने विपे नारकीओनी सोळ पल्योपमनी स्थिति छे, पांचमी पृथ्वीमां केटलाक देवोनी पंदर पल्योपमनी स्थिति छे, महाशुक्र कल्पमां केटलाक नारकीओनी सोळ सागरोपमनी स्थिति छे, केटकेटलाक देवोनी पंदर सागरोपमनी स्थिति छे, नंद विगेरे विमा- लाक असुरकुमार देवोनी सोळ पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म नोमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पंदर सागरोप- अने ईशान कल्पमा केटलाक देवोनी सोळ पल्योपमनी मनी छे, ते देवो पंदर पखवाडीए श्वास ले छे अने पंदर स्थिति छे, महाशुक्र कल्पमा केटलाक देवोनी सोळ सागरोहजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो पंदर भव- पमनी स्थिति छे. आवर्त विगेरे विमानोमां उत्पन्न थयेला वडे मोक्षमा जनारा होय छे. देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सोळ सागरोपमनी छे, ते देवो सोळ (१६) सूत्रकृतांगमां सोळ अध्ययनमा छेल्लु पखवाडीए श्वास ले छे अने सोळ हजार वर्षे आहार इच्छे गाथाषोडषक नामर्नु अध्ययन छे, सोळ प्रकारना कषायो छे. केटलाक भव्य जीवो सोळ भवे मोक्षे जवाना होय छे. । छे, मेरु पर्वतना सोळ नाम छे, श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने सोळ (१७) सत्तर प्रकारनो असंयम छे, सत्तर प्रकारनो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम । श्री संयम छे, मानुपोत्तर पर्वत सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊंचो । अने ईशान कल्पमा केटलाक देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति समवायाङ्ग छे, सर्व वेलंधर अने अनुवेलंधर नागराजना आवास पर्वतो । छे, महाशुक्र कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरो सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊंचा छे, लवणसमुद्र मध्यना दश पमनी छे, सहस्रार कल्पमा जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपचोपं अंग 2 हजार योजनमा तळीयाथी शिखाना उपरना भाग सुधी सत्तर | मनी छे, सामान विगेरे विमानोमा उत्पन्न थयेला देवोनी हजार योजन ऊंचो छे, रत्नप्रभा पृथ्वीना समभूभागथी साधिक उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी छे, ते देवो सत्तर पखवासत्तर हजार योजन ऊंचे गया पछी जंघाचारण अने विद्याचारण डीए श्वास ले छे अने सत्तर हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटमुनि तिरछी गति करे छे, चमरेंद्रनो तिगिंछ कूट सत्तर सो लाक भव्य जीवो सत्तरमे भवे मोक्षे जशे. ने एकवीश योजन ऊंचो छे, ते ज प्रमाणे बलींद्रनो रुचकेंद्र- (१८) अढार प्रकारचें ब्रह्मचर्य छे, अरिष्टनेमिने कूट पण छे. मरणना सत्तर प्रकार छ, सूक्ष्मसंपराय गुण अढार हजार साधुओनी उत्कृष्ट संपदा हती, महावीरस्वामीए स्थाने रहेला भगवान सत्तर कर्मप्रकृतिने बांधे छे, रत्नप्रभा साध्वाचारना अढार स्थानो कह्या छे, आचारांग सूत्रना पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति छे, अढार हजार पदो छे, ब्राह्मी लिपि अढार प्रकारनी छे, अस्तिपांचमी पृथ्वीमा उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी छे, छठ्ठी नास्तिप्रवाद पूर्वमा अढार वस्तु छे, पांचमी पृथ्वीनो विस्तार पृथ्वीमा सत्तर सागरोपमनी जघन्य स्थिति छ, केटलाक (पिंड ) एक लाख ने अढार हजार योजननो छे, अपाढ असुरकुमार देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म । मासमा एक वखत अढार मुहूर्तनो दिवस अने पोप मासमां एक ॥५॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वखत अढार मुहूर्त्तनी रात्रि थाय छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमा केट- | यने अंगे छे ) शुक्र नामनो ग्रह ओगणीश नक्षत्रो साथे चाले लाक नारकीओनी अढार पल्योपमनी स्थिति छे, छठ्ठी पृथ्वीमा छे, जंबूद्वीपना गणितमा योजनना ओगणीशमा भागने कळा केटलाक नारकीओनी अढार सागरोपमनी स्थिति छे, केट- कही छे, ओगणीश तीर्थंकरोए राज्य भोगव्या पछी दीक्षा । लाक असुरकुमार देवोनी अढार पल्योपमनी स्थिति छ, सौधर्म लीधी हती, रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीनी ओगणीश अने ईशान कल्पमां केटलाक देवोनी अढार पल्योपमनी स्थिति पल्योपमनी स्थिति छे, छठ्ठी पृथ्वीमां केटलाक नारकोनी ओगणीश छे, सहस्रार कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अढार साग- सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमारोनी ओगणीश रोपमनी छे, प्राणतकल्पमा जघन्य स्थिति अढार सागरोप- पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान कल्पमा केटलामनी छे. काळ विगेरे विमानोमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट क देवोनी ओगणीश पल्योपमनी स्थिति छ, आनत कल्पमा स्थिति अढार सागरोपमनी छे, ते देवो अढार पखवाडीए उत्कृष्ट स्थिति ओगणीश सागरोपमनी छे, प्राणत कल्पमा श्वास ले छे अने अढार हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केट. जघन्य स्थिति ओगणीश सागरोपमनी छे, आनत विगेरे लाक भव्य जीवो अढार भवे मोक्ष पामशे. विमानमा उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति ओगणीश (१९) ज्ञातासूत्रना प्रथमश्रुतस्कंधमां ओगणीश | सागरोपमनी छे, ते देवो ओगणीश पखवाडीए श्वास ले छे अध्ययनो छे, जंबूद्वीपना बन्ने सूर्यो नीचे अने ऊंचे मळीने ओग- अने ओगणीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे, केटलाक भव्यो णीश सो योजन ताप (प्रकाश) आपे छे, (आ प्रमाण कुबडीविज- | ओगणीश भवे मोक्षे जशे. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ६ ॥ ( २० ) असमाधिना वीश स्थानो छे, मुनिसुव्रत प्रभु वीश धनुष ऊंचा हता, सात नरकनीचेना सर्वे घनोदधिओ वीश हजार योजन जाडा छे, प्राणत कल्पना देवेंद्रने वीश हजार सामानिक देवो छे, नपुंसक वेदरूप वेदनीय कर्मनी बंधस्थिति वीश सागरोपम कोटाकोटिनी छे, प्रत्याख्यान नामना पूर्वमां वीश वस्तु छे, अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीनुं प्रमाण नेनुं मळीने वीश कोटाकोटि सागरोपमनुं छे, ते एक काळचक्र काय छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी स्थिति वीश पल्योपमनी छे, छठ्ठी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी वीश सागरोपनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी वीश पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान कल्पमा केटलाक देवोनी वीश पल्योपमनी स्थिति छे, प्राणत कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वीश सागरोपमनी छे, आरण कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति वीश सागरोपमनी छे. सात, विसात विगेरे विमानमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वीश सागरोपमनी छे, ते देवो वीश पखवाडीए श्वास ले छे अने वीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो वीश भवे करीने मोक्ष पामवाना होय छे. (२१) एकवीश शक्ल नामना दोष कहा छे, मोहनीयनी सात प्रकृतिओ क्षय पामी होय एवा निवृत्तिबादर नामना आठमा गुणस्थाने रहेला साधुने मोहनीय कर्मनी एकवीश प्रकृतिओ सत्तामां होय छे, अवसर्पिणीनो पांचमो अने छठ्ठो आरो एकवीश एकवीस हजार वर्षनो छे, ते ज रीते उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो आरो एकवीश एकवीरा हजार वर्षनो छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी एकवीश पल्योपमनी स्थिति छे, छठ्ठी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकवीश सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार देवोनी एकवीश पल्योपमनी स्थिति छे, सौधर्म अने ईशान देवलोकमा केट विषयानु क्रम ॥ ॥ ६ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाकनी एकवीश पल्योपमनी स्थिति छे, आरण कल्पने विषे । केटलाक असुरकुमार देवोनी बावीश पल्योपमनी स्थिति छ, देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एकवीश सागरोपमनी छे, अच्युत सौधर्म अने ईशान कल्पमां केटलाक देवोनी बावीश पल्योकल्पने विपे जघन्य स्थिति एकवीश सागरोपमनी छे, श्रीवत्स पमनी स्थिति छ, अच्युत कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश विगेरे विमानमा उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एक- सागरोपमनी छे, नव अवेयकमा प्रथमना हेछिमहेछिम नामना वीश सागरोपमनी छे, ते देवो एकवीश पखवाडीए श्वास ले ग्रैवेयकमां देवोनी जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी छे. छे, अने एकवीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य महित विगेरे विमानोमा उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति जीवो एकवीश भवे मोक्ष पामवाना होय छे. बावीश सागरोपमनी छे, ते देवो बावीश पखवाडीए श्वास . (२२) परीपहो बावीश छे, दृष्टिवादमां बावीश ले छे अने बावीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक सूत्रो छिन्नछेद नयवाळा छे, बावीश सूत्रो अच्छिन्नेछद नय- भव्य जीवो बावीश भवे करीने मोक्ष पामवाना होय छे. वाला छे, बावीश सूत्रो त्रिक नयवाळा अने बावीश सूत्रो चार (२३) सुयगडांगमां त्रेवीश अध्ययनो छ, आ नयवाळा छे. पुद्गळोनो परिणाम बावीश प्रकारे कह्यो छे. भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां त्रेवीश जिनेश्वरोने सूर्योदय रत्नप्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी बावीश पल्योपमनी समये केवळज्ञान प्राप्त थयु हतुं, आ भरतक्षेत्रमा आ अवसस्थिति छे छठ्ठी पृथ्वीमा उत्कृष्ट स्थिति वावीश सागरोपमनी | पिणीना ऋषभदेव विना बाकीना नेवीश तीर्थंकरो पूर्वभवमां छे, सातमी पृथ्वीमा जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी छे, | अग्यार अंग जाणनारा हता, आ भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jio विषयानुक्रम ॥ समवायाङ्ग घोअंग णीमां त्रेवीश तीर्थकरो पूर्वभवे मांडलिक राजाओ हता. रत्न- | छे, उत्तरायणमां चोवीश अंगुलनी छायाप्रमाण पोरसी प्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी नेवीश पल्योपमनी करीने सूर्य पाछो फरे छे. गंगा अने सिंधु नामनी महानदी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी नेवीश प्रवाहने स्थाने साधिक चोवीश कोश विस्तारवाळी छे, ते ज सागरोपमनी स्थिति छे. केटलाक असुरकुमार देवोनी तथा प्रमाणे रक्ता अने रक्तवती नदीओ पण जाणवी. रत्नप्रभा सौधर्म अने ईशान कल्पना केटलाक देवोनी त्रेवीश पल्यो- पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी चोवीश पल्योपमनी स्थिति पमनी स्थिति छ, हेछिममध्यम नामना बीजा अवेयकमां छे, सातमी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी चोवीश सागरोदेवोनी जघन्य स्थिति त्रेवीश सागरोपमनी छे, तथा हेछिम- पमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशाहेछिम नामना पहेला अवेयकमा उत्कृष्ट स्थिति त्रेवीश साग- नना देवोनी चोवीश पल्योपमनी स्थिति छे, त्रीजा हेछिमरोपमनी छे, ते देवो त्रेवीश पखवाडीए श्वास ले छे अने उवरिम अवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति चोवीश सागरोपमनी त्रेवीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो छे, हेछिममध्यम नामना बीजा प्रैवेयकना देवोनी उत्कृष्ट । नेवीश भवे करीने मोक्षे जवाना होय छे. स्थिति चोवीश सागरोपमनी छे, ते देवो चोवीश पखवाडीए (२४) दरेक चोवीशीमां चोवीश तीर्थकरो होय छे, श्वास ले छे अने चोवीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटक्षुल्लहिमवंत अने शिखरी पर्वतनी जीवा चोवीश हजार योज- | लाक भव्य जीवो चोवीश भवे मोक्ष पामशे. पासो . ... .. नथी अधिक लांबी कही छे, इंद्र सहित देवोना चोवीश स्थानो - (२५) पांच महाव्रतोनी पचीश भावनाओ छे, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .श्रीमल्लिनाथ प्रभु पचीश धनुष ऊंचा हता, सर्वे दीर्घवैताढ्य । नामना चोथा अवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति पचीश साग़पर्वतो पचीश योजन ऊंचा तथा पचीश गाउ पृथ्वीमां ऊंडा रोपमनी छे, हेठिमउवरिम नामना त्रीजा अवेयकमा उत्पन्न छे, बीजी नरक पृथ्वीमां पचीश लाख नरकावासा छे, आचा- थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पचीश सागरोपमनी छे, ते रांग सूत्रमा चूलिका सहित पचीश अध्ययनो छे, अपर्याप्त देवो पचीश पखवाडीए श्वास ले छे अने पचीश हजार वर्षे | अवस्थावाळो अने संक्लिष्ट परिणामवाळो विकलेंद्रिय मिथ्या- आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो पचीश भवे सिद्ध थशे. दृष्टि जीव नामकर्मनी पचीश उत्तरप्रकृतिओ बांधे छे, गंगा (२६) दशाश्रुत, कल्पश्रुत अने व्यवहारश्रुतना अने सिंधु नामनी तथा रक्ता अने रक्तवती नामनी महा- मळीने छवीश उद्देशन काळ कह्या छे, अभव्य जीवोने मोहनदीओ पचीश गाउना पहोळा प्रवाहवडे पूर्व पश्चिम दिशामा । नीय कर्मनी छवीश प्रकृतिओ सत्तामां होय छे, रत्नप्रभा पोतपोताना प्रपातकुंडमां पड़े छे, लोकबिंदुसार नामना | पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी छवीश पल्योपमनी स्थिति छे, चौदमा पूर्वमा पचीश वस्तुओ कही छे. रत्नप्रभा नामनी सातमी पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी छवीश सागरोपमनी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी पचीश पल्योपमनी स्थिति स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशानना देवोनी का छे, सातमी पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी पचीश सागरो छवीश पल्योपमनी स्थिति छ, पांचमा ग्रैवेयकमां जघन्य पमनी स्थिति छ, केटलाक असुरकुमार तथा सौधर्म अने । स्थिति छवीश सागरोपमनी छे, चोथा ग्रैवेयकमां उत्पन्न थयेला ईशानना देवोनी पचीश पल्योपमनी स्थिति छे, मज्झिमहेट्रिम | देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छवीश सागरोपमनी छे, ते देवो छवीश Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ ८ ॥ पखवाडी श्वास ले छे अने छवीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो छवीश भवे सिद्ध थशे. (२७) साधुना सत्तावीश गुणो छे, आ जंबूद्वीपमां अभिजित् सिवाय बाकीना सत्तावीश नक्षत्रोवडे व्यवहार चाले छे, एक एक नक्षत्रमासना सत्तावीश सत्तावीश दिवसो 'होय छे, सौधर्म अने ईशान कल्पनी पृथ्वी सत्तावीश सो योजन जाडी छे, वेदक समकितना बंधथी विराम पामेला ( उद्वलनावाळा ) जीवने मोहनीय कर्मनी सत्तावीश उत्तरप्रकृतिओ सत्तामां होय छे, श्रावण शुदि सातमने दिवसे सत्तावीश अंगुल सूर्यनी छाया थाय त्यारे पोरसी थाय छे, रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी सत्तावीश पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी सत्तावीश सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशानना देवोनी सत्तावीश पल्योपमनी स्थिति छे, छठ्ठा मैवेयकमां जघन्य स्थिति सत्तावीश सागरोपमनी छे, पांचमा मैवेयकमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तावीश सागरोपमनी छे, ते देवो सत्तावीश पखवाडीए श्वास ले छे अने सत्तावीस हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो सत्तावीश भवे सिद्ध थशे. ( २८ ) साधुनो आचारप्रकल्प अठ्ठावीस प्रकारनो कह्यो छे, केटलाक भव्यजीवोने मोहनीयकर्मनी अठ्ठावीश प्रकृतिओ सत्तामां होय छे, मतिज्ञानना अठ्ठावीश प्रकार छे, ईशान कल्पमां अठ्ठावीस लाख विमानो छे, देवगतिने बांधतो जीव नामकर्मनी अठ्ठावीश उत्तरप्रकृतिओने बांधे छे, रत्नप्रभा पृथ्वीमा केटलाक नारकी ओनी अठ्ठावीश पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी अठ्ठावीश सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशानना देवोनी अठ्ठावीश पल्योपमनी स्थिति छे, सातमा मैवेयक विषयानु क्रम ॥ ७ ॥ ८ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोनी जघन्य स्थिति अठ्ठावीश सागरोपमनी छे, छठ्ठा अवे- रोपमनी स्थिति छ, केटलाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशान यकमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अठ्ठावीश साग- कल्पना देवोनी ओगणत्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, आठमा रोपमनी छे, ते देवो अठ्ठावीश पखवाडीए श्वास ले छे अने प्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति ओगणत्रीश सागरोपमनी अठ्ठावीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य जीवो छे, सातमा अवेयकमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अठ्ठावीश भवे सिद्ध थशे.. ओगणत्रीश सागरोपमनी छे, ते देवो ओगणत्रीश पखवाडीए (२९) पापश्रुतनो प्रसंग ओगणत्रीश प्रकारे कह्यो श्वास ले छे अने ओगणत्रीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. छ, अर्थात् २९ प्रकारना पापश्रुत कह्या छे, आषाढ, भाद्र- केटलाक भव्य जीवो ओगणत्रीश भवे मोक्षे जशे. पद, कार्तिक, पोष, फाल्गुन अने वैशाख मासमां ओगण- (३०) मोहनीय कर्म बांधवाना त्रीश स्थानो छ, । त्रीश रात्रिदिवस होय छे, चांद्र मासनो दिवस साधिक ओग- मंडितपुत्र नामना छठ्ठा गणधर त्रीश वर्ष सुधी चारित्रपर्याय णत्रीश मुहर्तनो होय छे, शुभ अध्यवसायवाळो सम्यग्दृष्टि पाळीने सिद्धिपद पाम्या, एक रात्रिदिवसना कुल त्रीश मुहूर्त जीव नामकर्मनी तीर्थकरनाम सहित ओगणत्रीश उत्तरप्रकृ- होय छे, श्रीअरनाथ प्रभु त्रीश धनुष ऊंचा हता, सहस्रार तिओने बांधी अवश्य वैमानिक देव थाय छे. रत्नप्रभा देवेंद्रने त्रीश हजार सामानिक देवो छे, श्रीपार्श्वनाथ प्रभु त्रीश पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी ओगणत्रीश पल्योपमनी स्थिति वर्ष गृहवासमां रहीने प्रव्रजित थया हता, श्रीमहावीरस्वामी छे, सातमी पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी ओगणत्रीश साग- | पण त्रीश वर्ष गहवास पाळीने प्रव्रजित थया हता, रत्नप्रभा पृथ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A विषयानुक्रम ॥ समवायाङ्ग चोy अंग पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावास छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमा केट- | साधिक एकत्रीश रात्रिदिवस होय छे, सूर्यमास कांइक न्यून | लाक नारकीओनी त्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी एकत्रीश रात्रिदिवसनो होय छे, रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक पृथ्वीमा केटलाक नारकीओनी त्रीश सागरोपमनी स्थिति छे, नारकीओनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमा केटलाक असुरकुमार देवोनी त्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, केटलाक नारकीओनी एकत्रीश सागरोपमनी स्थिति छ, केट( सौधर्म ईशानना कोइ देवोनी स्थिति पण उपलक्षणथी लाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशान कल्पना देवोनी एकसमजी लेवी ) नवमा अवेयकमां जघन्य स्थिति त्रीश साग- त्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, विजय, वैजयंत, जयंत अने रोपमनी छे, आठमा अवेयकमां उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट अपराजित विमानना देवोनी जघन्य स्थिति एकत्रीश सागस्थिति त्रीश सागरोपमनी छे, ते देवो त्रीश पखवाडीए श्वास रोपमनी छे, नवमा अवेयकमा उत्पन्न थयेला देवोनी उत्कृष्ट ले छे अने त्रीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी छे, ते देवो एकत्रीश पखवाडीए जीवो त्रीश भवे सिद्धिपद पामवाना होय छे. श्वास ले छे अने एकत्रीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केट. (३१) सिद्धोना एकत्रीश गुणो पण कह्या छ, मेरु- लाक भव्य जीवो एकत्रीश भववडे मोक्ष पामशे.. पर्वतनो पृथ्वीतळ उपरनो परिधि साधिक एकत्रीश हजार (३२) बत्रीश योगसंग्रह छे ते खास जाणवा योग्य योजननो कह्यो छे, बाह्यमंडळे वर्ततो सूर्य साधिक एकत्रीश | छे, देवेंद्रो वत्रीश छे, ( आमां व्यतरना ३२ इंद्रो गण्या हजार योजन दूरथी जोवामां आवे छे, अधिक मासमां । नथी) कुंथुनाथ प्रभुने बत्रीश सो ने बत्रीश केवळीओ हता, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O सौधर्म कल्पमां बत्रीश लाख विमानो छे, रेवती नक्षत्र । विदेह क्षेत्रनो विष्कंभ साधिक तेत्रीश हजार योजननो छे, बत्रीश तारावाळु छे ( मूलार्थमां बावीश भूलथी थया छे) - ज्यारे सूर्य छेल्लानी पहेलाना त्रीजा मंडळे वर्ते छे त्यारे अहीं बत्रीश प्रकारचें नाट्य छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नार- | रहेला मनुष्यो कांइक न्यून तेत्रीश हजार योजन दूरथी तेने | कीओनी बत्रीश. पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमां जोई शके छे. रत्नप्रभा पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी तेत्रीश केटलाक नारकीओनी बत्रीश सागरोपमनी स्थिति छ, केट- | पल्योपमनी स्थिति छे, सातमी पृथ्वीमां काळ, महाकाळ, लाक असुरकुमार, सौधर्म अने ईशान कल्पना देवोनी बत्रीश रोर अने महारोर ए चार नरकावासामा उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश पल्योपमनी स्थिति छे, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपरा- सागरोपमनी छे, अने अप्रतिष्ठान नामना नरकावासमां एक । जित विमानमा उत्पन्न थयेला केटलाक देवोनी बत्रीश साग- सरखी सर्वेनी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति छे, केटलाक असुरोपमनी स्थिति छे, ते देवो बत्रीश पखवाडीए श्वास ले छे रकुमार, सौधर्म अने ईशान कल्पना देवोनी तेत्रीश पल्योप- 1G अने बत्रीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य मनी स्थिति छे, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित ए जीवो बत्रीश भववडे सिद्ध थवाना होय छे. चार विमानमा उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपमनी छे. सर्वा__(३३) गुरुनी तेत्रीश आशातनाओ वर्जवानी छे, र्थसिद्ध विमानमा उत्पन्न थयेला देवोनी एक सरखी तेत्रीश चमरेंद्र नामना असुरेंद्रनी चमरचंचा नामनी राजधानीना सागरोपमनी स्थिति छे, ते देवो तेत्रीश पखवाडीए श्वास ले दरेक द्वारनी बहार तेत्रीश तेत्रीश भौमनगरो रहेला छे, महा- | छे अने तेत्रीश हजार वर्षे आहार इच्छे छे. केटलाक भव्य Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम॥ समवायाङ्ग घोषू अंग ॥१०॥ जीवो तेत्रीश भवे सिद्ध थशे. (३६) उत्तराध्ययन सूत्रना छत्रीश अध्ययनो छे, (३४) तीर्थकरने चोत्रीश अतिशयो होय छे, आ | चमर नामना असुरेंद्रनी सुधर्मा नामनी सभा छत्रीश योजन जंबूद्वीपमा चक्रवर्तीना चोत्रीश विजयो छे, तेमां चोत्रीश ऊंची छे, महावीरस्वामीने छत्रीश हजार साध्वीओनी संपदा दीर्घवैताढ्य पर्वतो छ, अने ते द्वीपमा उत्कृष्टथी चोत्रीश तीर्थ- हती, चैत्र अने आश्विन मासमा पोरसीनी छाया छत्रीश करो उत्पन्न थाय छे, चमर नामना असुरेंद्रना चोत्रीश लाख अंगुलनी होय छे. भवनो छे, पहेली, पांचमी, छठ्ठी अने सातमी ए चारे (३७) कुंथुनाथ प्रभुने साडतीश गणधरो हता, हैमपृथ्वीना मळीने कुल चोत्रीश लाख नरकावासा छे. वत अने औरण्यवतनी जीवा साधिक साडत्रीश हजार योज. (३५) सत्य वचनना (तीर्थकरनी वाणीना ) ननी छे, विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित नामना अतिशयो पांत्रीश छे, कुंथुनाथ प्रभु पांत्रीश धनुष ऊंचा | द्वारपाळनी राजधानीओना किल्ला साडत्रीश साडनीश योजन हता, दत्त नामना वासुदेव तथा नंदन नामना बळदेव पांत्रीश ऊंचा छे, क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति नामना कालिकश्रुतना धनुप ऊंचा हता, सौधर्म कल्पमा सुधर्मा नामनी सभामां माण- पहेला वर्गमां साडनीश उद्देशन काळ कह्या छे, कार्तिक वदि वक नामनो चैत्यस्तंभ छे तेना मध्यना पांत्रीश योजनमा रहेला । सातमने दिवसे पोरसीनी छाया साडत्रीश अंगुलनी होय छे. वज्रमय गोल दाभडाने विपे जिनेश्वरोनी दाढाओ छे, बीजी | (३८) पार्श्वनाथ प्रभुने आडनीश हजार साध्वीअने चोथी पृथ्वीना मळीने पांत्रीश लाख नरकावासा छे. | ओनी संपदा हती, हैमवंत अने अरण्यवंत क्षेत्रनी जीवाचें ॥१०॥ - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनुःपृष्ठ साधिक आडत्रीश हजार योजननु छ, आ मेरुपर्व- | नामना नागराजना चाळीश लाख भवनो छे, क्षुल्लिकाविमानतनो बीजो कांड आडत्रीश हजार (मतांतरे ६३०००) । प्रविभक्तिना त्रीजा वर्गमां चाळीश उद्देशन काळ कह्या छे, योजन ऊंचो छे, क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिना बीजा वर्गमा फाल्गुन तथा कार्तिक मासनी पूर्णिमाने दिवसे पोरिसीनी आडत्रीश उद्देशनकाळ कह्या छे. छाया चाळीश अंगुलप्रमाण थाय छे, महाशुक्र नामना सातमा (३९) नमिनाथ प्रभुने ओगणचाळीश सो अव- कल्पमा चाळीश हजार विमानो छे, विज्ञानी हता, अढीद्वीपने विषे ( पांच मेरु ने चार इषुकार (४१) नमिनाथ प्रभुने एकताळीश हजार साध्वीसहित) ओगणचाळीश कुळपर्वतो छे, बीजी, चोथी, पांचमी, ओनी संपदा हती, रत्नप्रभा, पंकप्रभा, तमा अने तमतमा छठ्ठी अने सातमी ए चारे पृथ्वीना मळीने कुल ओगणचा- | ए चार पृथ्वीना मळीने एकताळीश लाख नरकावासा छ, लीश लाख नरकावासा छे. ज्ञानावरणीय (५), मोहनीय महलियाविमानप्रविभक्तिना पहेला वर्गमां एकताळीश उद्दे(२८), गोत्र (२) अने आयु (४) आ चारे कर्मनी शन काळ कह्या छे. मळीने ओगणचाळीश उत्तरप्रकृतिओ कहेली छे. (४२) महावीरस्वामी साधिक बेताळीश वर्ष चा(४०) अरिष्टनेमि प्रभुने चाळीश हजार साध्वी- रित्र पाळी सिद्ध थया, जंबूद्वीपनी पूर्वदिशाना छेडाथी ओनी संपदा हती, मेरुपर्वतनी चूलिका चाळीश योजन गोस्तूभ नामना आवास पर्वतनी पश्चिम दिशाना छेडा सुधी । ऊंची छे, शांतिनाथ प्रभु चाळीश धनुष ऊंचा हता, भूतानंद , बेताळीश हजार योजन- आंतरुं छे, (अर्थात् जगतीथी ४२००० A Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम॥ समवायाङ्ग । घोडुं अंग ॥११॥ योजन दूर छे ) एज प्रमाणे वीजी त्रण दिशामां दकभास, | शाना छेडा सुधीमा ( जगतीथी ४२००० योजन दूर अने शंख अने दकसीम पर्वतर्नु पण आंतरं समजबू, कालोद १०२२ योजननो उपर विष्कंभ होवाथी) तेंताळीश हजार नामना समुद्रमां बेंताळीश चंद्र अने बेंताळीश सूर्य छ, संमू- योजननु आंतरुं छे, ए ज प्रमाणे बीजी त्रण दिशामां दकछिम भुजपरिसर्पनी उत्कृष्ट स्थिति बेंताळीश हजार वर्षनी भास, शंख अने दकसीम पर्वतर्नु पण आंतरं छे, महालिकाविछे, नामकर्म बेताळीश प्रकारचें छे, लवणसमुद्रमां घेताळीश मानप्रविभक्तिना वीजा वर्गना तेंताळीश उद्देशन काळ कया छे. हजार नागदेवता आभ्यंतर वेळाने धारण करे छे, महलियावि- (४४) ऋपिभापितना चुमाळीश अध्ययनो छे, मानप्रविभक्तिना बीजा वर्गमां बेताळीश उद्देशन काळ कह्या विमळनाथ प्रभुना चुमाळीश पुरुषयुग अनुक्रमे सिद्ध थया छ, छे, दरेक अवसर्पिणीनो पांचमो अने छठ्ठो आरो मळीने तथा । धरणेंद्र नागराजना चुमाळीश लाख भवनो छे, महालिकाविदरेक उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो आरो मळीने बेंताळीश | मानप्रविभक्तिना चोथा वर्गमा चुमाळीश उद्देशन काळ छे. हजार वर्षना होय छे. (४५) अढीद्वीपनो आयामविष्कंभ पीस्ताळीश .. (४३) पुण्यपापरूप कर्मविपाकने दर्शावनारा तेंता- । लाख योजननो छे, सीमंतक नामना नरकावासनो आयाम ळीश अध्ययनो कह्या छे, पहेली, चोथी अने पांचमी विष्कंभ पीस्ताळीश लाख योजननो छे, एज प्रमाणे पहेला पृथ्वीना मळीने तेंताळीश लाख नरकावासा छे, आ जंबू- देवलोकनुं उडु नामर्नु मध्य विमान तथा ईपत्प्राग्भार नामनी द्वीपनी पूर्वदिशाना छेडाथी गोस्तूभ नामना पर्वतनी पूर्वदि- | पृथ्वी पण ४५ लाख योजन प्रमाण जाणवी. धर्मनाथ प्रभु Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीस्ताळीश धनुष ऊंचा हता, जंबूद्वीपनी जगती ने मेरुपर्व• तनी बच्चे चारे दिशाए पीस्ताळीश पीस्ताळीश हजार योजछे, दो क्षेत्रवाळा सर्व नक्षत्रो पीस्ताळीश मुहूर्त्त सुधी चंद्रनी साथै रहे छे, महालिका विमानप्रविभक्तिना पांचमा वर्गमां पीस्ताळीश उद्देशन काळ कह्या छे. (४६) दृष्टिवादमां छेताळीश मातृकापदो छे, वालिपिना छैताळीश मातृकाक्षरो छे, प्रभंजन नामना वायुकुमारेंद्रना छैताळीस लाख भवनो छे. (४७) आभ्यंतर मंडळमां रहेलो सूर्य साधिक सुड• ताळीस हजार योजन दूर होय त्यारे अहींना मनुष्य तेने • जोइ शके छे, स्थविर भगवान अग्निभूति सुडताळीश वर्ष गृहवासमा रही प्रब्रजित थया हता. (४८) दरेक चक्रवर्तीने अडताळीश हजार पट्टणो होय छे, धर्मनाथ प्रभुने अडताळीश गणो तथा अडताळीश गणधरो हता, सूर्यमंडळनो विष्कंभ एक योजनना एकसठीया - अडताळीश भागप्रमाण छे. (४९) सातसप्तमिका नामनी भिक्षुप्रतिमाना ओगपचास दिवसो थाय छे, देवकुरु अने उत्तरकुरुना मनुष्यो गणपचास दिवसे यौवनावस्थाने पामे छे, त्रींद्रिय जीवोनी स्थिति उत्कृष्टथी ओगणपचास दिवसनी छे.. (५०) मुनिसुव्रतस्वामीने पचास हजार साध्वीओ हती, अनंतस्वामी अरिहंत पचास धनुष ऊंचा हता, पुरुषोत्तम नामना वासुदेव पचास धनुष ऊंचा हता ( उपलक्षणथी बलदेव पण समजवा ), सर्व दीर्घवेताढ्य पर्वतोनो विष्कंभ पचास पचास योजननो छे, लांतक कल्पमां पचास हजार विमानो छे, सर्वे तमिस्रा अने खंडप्रपात नामनी गुहाओ पचास पचास योजन लांबी छे, सर्वे कांचन पर्वतो शिखर उपर पचास पचास योजन विष्कंभवाळा छे. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ १२ ॥ (५१) नव ब्रह्मचर्य अध्ययनना एकावन उद्देशन काळ छे, चमर नामना असुरेंद्रनी सुधर्मा नामनी सभामां एकावन सो स्तंभो छे, ए ज प्रमाणे बलींद्रनी पण जाणवी, सुप्रभ नामना बळदेव एकावन लाख वर्षेनुं कुल आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, दर्शनावरण (९) अने नामकर्मनी (४२) मळीने एकावन उत्तरप्रकृतिओ छे. (५२) मोहनीय कर्मना बावन नाम छे, गोस्तूभ नाना आवास पर्वतनी पूर्वदिशाना अंतथी वडवामुख नामना महापाताळकळशनी पश्चिम दिशाना अंत सुधीमां अर्थात् ते वेनी बच्चे बावन हजार योजननुं आंतरुं छे. ए ज प्रमाणे दकभास पर्वतना पूर्व छेडाथी केतुक नामना पाताळकळ. शनुं तथा शेख नामना पर्वतना पूर्व छेडाथी यूप नामना पाताळकळशनं अने दकसीम नामना पर्वतना पूर्व छेडाथी ईश्वर नामना पाताळकलशनुं आंतरुं बावन बावन हजार योजननं जाणवुं, ज्ञानावरणीय (५), नाम ( ४२ ) अने अंतराय ( ५ ) एत्रणे कर्मनी मळीने उत्तरप्रकृतिओ बावन थाय छे, सौधर्म ( ३२ ), सनत्कुमार ( १२ ) अने महेंद्र ( ८ ) कल्पना मळीने कुल बावन लाख विमानावास छे. (५३) देवकुरु अने उत्तरकुरुनी जीवानो आयाम साधिक त्रेपन हजार योजन छे, महाहिमवान अने रुक्मी पर्वतनी जीवानो आयाम साधिक त्रेपन हजार योजन छे, महावीरस्वामीना त्रेपन साधुओ एक वर्षनो दीक्षापर्याय पाळीने अनुत्तर नामना महाविमानमां उत्पन्न थया छे, संमूच्छिम उरपरिसर्पनी उत्कृष्ट स्थिति त्रेपन हजार वर्षनी छे. ( ५४ ) भरत अने अरवत क्षेत्रमां दरेक उत्सर्पिणीमां अने अवसर्पिणीमां ( प्रतिवासुदेव न गणतां ) चोपन चोपन उत्तम पुरुषो थाय छे, अरिष्टनेमि भगवान चोपन रात्रिदिवस छद्मस्थ पर्याय पाळी केवळी थया हता, विषयानुक्रम ॥ ॥ १२ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरस्वामीए एक जं दिवसे एक ज आसने बेसीने चोपन प्रश्नोत्तरो कह्या हता, अनंतनाथ प्रभुने चोपन गणधरो हता. (५५) श्रीमल्लिनाथस्वामी पंचावन हजार वर्षनुं संपूर्ण आयुष्य पाळीने सिद्धथया, मेरु पर्वतना पश्चिम छेडाथी विजयद्वारना पश्चिम छेडा सुधी ( ४५००० नुं अंतर ने दश हजारो मेरू गणतां ) पंचावन हजार योजननं आंतर छे, एज प्रमाणे बाकीनी त्रण दिशामां वैजयंत, जयंत अने अपराजित एत्रण द्वारनं आंतरुं जाणवुं. श्रीमहावीरस्वामी छेल्ली रात्रिए पंचावन अध्ययन पुण्यफळना विपाकवाळा अने पंचावन अध्ययन पापफळना विपाकवाळा कहीने सिद्ध थया, पहेली अने बीजी नरकपृथ्वीना मळीने पंचावन लाख नरकावासा छे, दर्शनावरणीय ( ९ ), नाम ( ४२ ) अने आयु ( ४ ) कर्मनी मळीने पंचावन उत्तरप्रकृतिओ कही छे. ( ५६ ) आ जंबूद्वीपमां छप्पन नक्षत्रो (बे) चंद्रनी साथै योगने पामे छे, श्रीविमळनाथ प्रभुने छप्पन गणो अने छप्पन गणधरो हता. (५७) आचारांगसूत्रनी चूलिका सिवाय त्रण गणिपिटकना कुल सत्तावन अध्ययनो छे, गोस्तूभ नामना आवास पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी वडवामुख नामना महा पाताळकळशना बरावर मध्य भाग सुधीमां सत्तावन हजार योजननं आंतरुं छे, एज प्रमाणे दक्षिणना दकभास पर्वत अने केतुक नामना महापाताळकळशनुं, पश्चिमना शेख पर्वत अने यूप नामना महापाताळकळशनुं तथा उत्तरना दकसीम पर्वत अने ईश्वर नामना महापाताळकळशनुं आंत रु तेलुं ज जाणवुं. मल्लिनाथ प्रभुने सत्तावन सो साधुओ मन:पर्यवज्ञानवाळा हता, महाहिमवान अने रुक्मी पर्वतनी जीवाना धनुः पृष्ठनी बाइ साधिक सत्तावन हजार योजननी छे... ( ५८ ) पहेली, बीजी अने पांचमी नरक पृथ्वीना Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम। समवायाङ्ग सूत्र॥ चोधुं अंग ॥१३॥ मळीने अठ्ठावन लाख नरकावासा छे, ज्ञानावरणीय (५), । ऊंचा हता, बलि नामना असुरकुमारेंद्रने साठ हजार सामावेदनीय (२), आयु (४), नाम (४२) अने अंतराय - निक देवो होय छे, ब्रह्म नामना देवेंद्रने साठ हजार सामा(५) ए पांच मूळकर्मनी मळीने अठ्ठावन उत्तरप्रकृतिओ कही निक देवो होय छे, सौधर्म ( ३२ ) अने ईशान (२८) छे. गोस्तुभ नामना आवास पर्वतनी पश्चिम दिशाना छेडाथी कल्पना मळीने साठ लाख विमानावास छे. वडवामुख नामना महापाताळकळशना मध्यभाग सुधी अठ्ठा- (६१) पांच वर्ष प्रमाण एक युगमा एकसठ ऋतु वन हजार योजन प्रमाण आंतरं छे, एज प्रमाणे वाकीनी मास आवे छे, मेरु पर्वतनो पहेलो कांड एकसठ हजार त्रणे दिशामां जाणवू. ( मतांतरे ६३०००) योजन ऊंचो छे, चंद्रनुं विमान एक (५९) चंद्र वर्पनी एक एक ऋतु ओगणसाठ योजनना एकसठीया छप्पन भागर्नु छे, एज प्रमाणे सूर्यन दिवसनी छे, श्रीसंभवनाथ प्रभुए ओगणसाठ लाख पूर्व विमान पण एकसठीया अडताळीश भागनुं छे. गृहवासमां रहीने दीक्षा ग्रहण करी हती, श्रीमल्लिनाथ प्रभुने | (६२) एक युगने विपे बासठ पूर्णिमा अने बासठ ओगणसाठ सो अवधिज्ञानी हता. अमावास्या आवे छे, श्रीवासुपूज्यस्वामीने बासठ गण अने (६०) दरेक सूर्य साठ साठ मुहर्ने एक एक मंडळ | बासठ वणधरो हता, शुक्लपक्षमां चंद्र हमेशां बासठ बासठ | पूर्ण करे छे, लवणसमुद्रनी शिखाना जळने साठ हजार - भाग वधे छे अने कृष्णपक्षमा बासठ बासठ भाग हानि पामे नागदेवताओ धारण करे छे, श्रीविमळनाथ प्रभु साठ धनुष । छे ( आ भाग समजवा ), सौधर्म अने ईशान कल्पना ॥१३॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहेला पाथडामां पहली आवलिकामां दरेक दिशाए बासठ । (६५) आ जंबूद्वीपमा सूर्यना पांसठ मंडळो रहेला | बासठ विमानो रहेला छे, सर्व विमानना मळीने कुल | छे, मौर्यपुत्र नामना गणधर पांसठ वर्ष सुधी गृहवासमा रही । बासठ पाथडा छे.. प्रव्रजित थया हता, सौधर्मावतंसक नामना विमाननी दरेक (६३) श्रीऋषभदेवस्वामी त्रेसठ लाख पूर्व सुधी दिशाए पांसठ पांसठ भौम नगरो छे. महाराज्यमा रहीने प्रवजित थया हता, हरिवर्ष अने (६६) दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्रमा छासठ चंद्र अने रम्यक क्षेत्रना युगलिक मनुष्य त्रेसठ दिवसे यौवन पामे छे, छासठ सूर्य प्रकाशे छे, ते ज प्रमाणे उत्तरार्धमां पण छासठ निषध अने नीलवंत पर्वत उपर त्रेसठ वेसठ सूर्यमंडळ छे.. चंद्र सूर्य प्रकाशे छे, श्रीश्रेयांस प्रभुने छासठ गणो अने । (६४) आठ अष्टमिका नामनी भिक्षुप्रतिमा चोसठ छासठ गणधरो हता, मतिज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति छासठ दिवसे पूर्ण थाय छे, असुरकुमारना चोसठ लाख भवनो सागरोपमनी छे. छे,चमरेंद्र नामना असुरकुमारेंद्रने चोसठ हजार सामा- (६७) एक युगमां सडसठ नक्षत्र मासो आवे छे, निक देवो छे, पालाना आकारे रहेला सर्वे दधिमुख हैमवत अने औरण्यवत क्षेत्रनी बाहा साधिक सडसठ सो पर्वतोनी ऊंचाइ चोसठ हजार योजननी छे, सौधर्म, ईशान योजन छे, मेरु पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी गौतमद्वीपनी अने ब्रह्मलोकना मळीने चोसठ लाख विमानो छे, सर्वे चक्र. पूर्व दिशाना छेडा सुधी सडसठ हजार योजन- आंतरं छे, वर्तीओने चोसठ सेरवाळो मुक्तामणिनो हार होय छे. सर्व नक्षत्रोनी सीमानो विष्कम सडसठमे भागे करीने समान Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ १४ ॥ अंशवाळो थाय छे. . (६८) धातकीखंड द्वीपमां अडसठ चक्रवर्तीना विजयो अने अडसठ राजधानीओ छे, उत्कृष्टपणे अडसठ तीर्थकरो उत्पन्न थाय छे, ए ज प्रमाणे चक्रवर्ती, बळदेव अने वासुदेव पण जाणवा, पुष्करार्धद्वीपने विषे पण ते ज प्रमाणे सर्व जाणवुं. श्रीविमळनाथस्वामीने अडसठ हजार साधुओ हता. ( ६९ ) अढी द्वीपमां मेरु पर्वत विना बाकी सर्व मळीने ओगणोतेर क्षेत्र अने वर्षधर पर्वती छे ( ३५ क्षेत्रो ३० वर्षधर पर्वतो ने ४ इपुकार समजवा ), मेरु पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी गौतम द्वीपना पश्चिम छेडा सुधी ओगजोतेर हजार योजननुं आंतरुं छे, मोहनीय कर्म सिवाय बीजा सात कर्मनी मळीने ओगणोतेर उत्तरप्रकृतिओ छे. ( ७० ) महावीरस्वामी वर्षाऋतुना वीश दिवस सहित एक मास व्यतीत थये सते अने सीतेर दिवस बाकी रहे सते चोमासु रह्या (पर्युषणा करी एटले रहेवानो निर्णय कर्यो ), श्रीपार्श्वनाथ प्रभु परिपूर्ण सीतेर वर्ष साधुपर्याय पाळीने सिद्ध थया, श्रीवासुपूज्यस्वामी सीतेर धनुष ऊंचा हता, मोहनीय कर्मनी स्थिति सीतेर कोडाफोडी सागरोपमनी छे, महेंद्र कल्पना इंद्रने सीतेर हजार सामानिक देवो छे. (७१) चोथा चंद्र संवत्सरना हेमंत ऋतुना एकोतेर दिवस जाय त्यारे सूर्य सर्व बाह्य मंडळथी पाछो फरे छे, वीर्यप्रवाद नामना पूर्वमां एकोतेर प्राभूत छे, श्री अजित. नाथ प्रभु एकोतेर लाख 'गृहवास मध्ये रहीने प्रव्रजित थया हुता, सगर नामना चक्रवर्ती पण एकोतेर लाख पूर्व राज्य भोगवीने प्रब्रजित थया हता. ( ७२ ) सुवर्णकुमारना वोंतेर लाख भवनो छे, लवण समुद्रनी बहारनी वेळाने बोंतेर हजार नागकुमार देवो धारण करे छे, श्रीमहावीरस्वामी यतेर वर्षनुं कुल आयुष्य विषयानु क्रम ॥ ॥ १४ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाळी सिद्ध थया, अचळभ्राता नामना गणधर बोतेर वर्षनं । प्रपातकुंडमां पडे छे, चोथी पृथ्वी सिवाय बाकीनी छ नरककुल आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, पुष्कराध द्वीपमा बोतेर पृथ्वीने विषे कुल चुमोतेर लाख नरकावासा रहेला छे..., चंद्र अने बोतेर सूर्य प्रकाशे छे, दरेक चक्रवर्तीने बोंतेर हजार (७५) सुविधिनाथ प्रभुने पंचोतेर सो सामान्य 'पुर होय छे, पुरुषनी बोंतेर कळाओ होय छे, संमूछिम केवळी हता, श्रीशीतळनाथ प्रभु पंचोतेर हजार पूर्व सुधी खेचर पंचेंद्रिय तिर्यचनी उत्कृष्ट स्थिति वोंतेर हजार वर्षनी छे. गृहवासमा रहीने प्रव्रजित थया हता, श्रीशांतिनाथ प्रभु पंचोI. (७३) हरिवर्ष अने रम्यक क्षेत्रनी जीवा साधिक तेर हजार वर्ष सुधी गृहवासमा रहीने प्रव्रजित थया हता. तोतेर हजार योजननी छे, विजय नामना बीजा बळदेव .. (७६) विद्युत्कुमारना आवासो छोतेर लाख छे, तोतेर हजार वर्षतुं आयुष्य पाळीने सिद्ध थया. ए ज प्रमाणे द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कु(७४ ) अग्निभूति नामना गणधर चुमोतेर वर्ष, मोरेंद्र, स्तनितकुमार अने अग्निकुमार ए छए युगलना एटले आयुष्य पाळीने सिद्ध थया. निषध नामना वर्षधर पर्वत दक्षिण उत्तर दिशाना मळीने छोतेर छोतेर लाख भवनो छे. उपर रहेला तिगिच्छ नामना महाद्रहथकी सीतोदा नामनी (७७) भरत चक्रवर्ती सत्तोतेर लाख पूर्व कुमार महानदी साधिक चुमोतेर सो योजन उत्तरदिशा सन्मुख अवस्थामा रहीने पछी महाराजाना अभिपेकने पाम्या वहन करीने सीतोदाप्रपातकुंडमां पडे छे, ते ज रीते सीता हता, अंगवंशना सत्तोतेर राजा प्रव्रजित थया हता, गर्दतोय नामनी महानदी दक्षिण दिशा तरफ वहेती सती सीता- अने तुषित नामना वे लोकांतिक देवोने सत्तोतेर हजार देवोनो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विषयानु समवायाङ्ग गोधु अंग .. . / ఆకులు परिवार छे, एक एक मुहूर्त सत्तोतेर लवप्रमाण कह्यो छे. । पृथ्वीना मध्यभागथी छठ्ठा घनोदधिना नीचला छेडा सुधीमां ' (७८) शकेंद्रनो वैश्रमण नामनो लोकपाळ सुवर्ण- ओगणएंशी हजार योजन- आंतरं छे, आ जंबूद्वीपना दरेक कुमार अने द्वीपकुमारना अठोतेर लाख आवासनो अधि- द्वारन आंतरूं साधिक ओगणाएंशी हजार योजननुं छे ( आनी पति छ अर्थात् ते वे निकाय तेना ताबानी छे, अकंपित स्पष्टता टीकाकारे करेली छे ). नामना स्थविर अठोतेर वर्पनुं आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, (८०) श्रीश्रेयांस प्रभु एंशी धनुप ऊंचा हता, उत्तरायणथी पाछो फरेलो सूर्य पहेला मंडळथी ओगणचाळी- त्रिपृष्ठ वासुदेव अने अचळ नामना बळदेव पण पंशी धनुप शमा मंडळ सुधीमा एक मुहूर्त्तना अठ्ठोतेर भाग प्रमाण दिव- ऊंचा हता, त्रिपृष्ठ वासुदेव एंशी लाख वर्ष सुधी महाराजासने हानि पमाडीने तथा तेटली ज रात्रिमा वृद्धि करीने पणे रहा हता, रत्नप्रभा पृथ्वीनो अब्बहुल कांड एंशी हजार चाले छे, ए ज प्रमाणे दक्षिणायनथी पाछो फरेलो सूर्य तेटलो योजन जाडो छे, ईशानेंद्रने एंशी हजार सामानिक देवो छे, ज दिवसने घटाडे छे अने रात्रिने वृद्धि पमाडे छे. आ जंबूद्वीपनी अंदर एक सो ने एंशी योजन आवीने उत्तर (७९) वडवामुख नामना पाताळकळशना नीचेना दिशामां सूर्य प्रथम उदय पामे छे. छेडाथी रत्नप्रभा पृथ्वीना नीचेना छेडा सुधी ओगण- | (८१) नव नवमिका नामनी भिक्षुप्रतिमा एकाशी ऐंशी हजार योजन- आंतरं छे, एज प्रमाणे केतु, यूप दिवसे पूर्ण थाय छे, श्रीकुंथुनाथ प्रभुने एकाशी सो मन:अने ईश्वर नामना पातालकळशनुं आंतरं जाणवू, छठ्ठी नरक । पर्यवज्ञानी हता, विवाहप्रज्ञप्तिमा एकाशी अध्ययनो कयां छे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का (८२) आ जंबूद्वीपमा सूर्यने बे वार जवा आव- । एज प्रमाणे भरतचक्री, बाहुबलि, ब्राह्मी अने सुंदरी विषे | वाना मंडळो एक सो ने वाशी छे, श्रीमहावीरस्वामी | पण जाणवू, श्रीश्रेयांस प्रभ चोराशी लाख वर्षनुं कुल आयुष्य बाशी दिवस गया त्यारे एक गर्भमाथी बीजा गर्भमां लइ पाळीने सिद्ध थया, त्रिपृष्ठ वासुदेव चोराशी लाख वर्षर्नु जवाया हता, महाहिमवान तथा रुक्मी पर्वतना उपरना कुल आयुष्य पाळीने अप्रतिष्ठान नामना नरकावासमा नारकी छेडाथी सौगंधिक कांडना नीचेना छेडा सुधी बाशी सो थया, शकेंद्रने चोराशी हजार सामानिक देवो छे, बहारना योजन थाय छे. सर्व मेरुपर्वतो चोराशी चोराशी हजार योजन ऊंचा छे, । (८३) श्रीमहावीरस्वामी त्राशीमे दिवसे एक सर्व अंजनगिरिओ चोराशी चोराशी हजार योजन ऊंचा छे, गर्भथी वीजा गर्भमां लइ जवाया हता, श्रीशीतळनाथ हरिवास अने रम्यक क्षेत्रनी जीवाना धनुःपृष्ठनी लंबाइ प्रभुने त्राशी गणो अने त्राशी गणधरो हता, मंडितपुत्र नामना साधिक चोराशी हजार योजननी छे, पंकबहुल नामना प्रथम गणधर त्राशी वर्षनुं आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, श्रीऋषभ- पृथ्वीकांडना उपरना छेडाथी नीचेना छेडा सुधी चोराशी लाख स्वामी त्राशी लाख पूर्व गृहवासमा रही प्रव्रजित थया हता, भरत योजन- आंतरुं छे, भगवती सूत्रमा कुल चोराशी हजार चक्रवर्ती त्राशी लाख पूर्व गृहवासमा रही केवळी थया हता. पदो कहेला छे, नागकुमारना आवासो चोराशी लाख छे, (८४) चोराशी लाख नरकावासा छे, श्रीऋषभ- चोराशी हजार प्रकीर्णको छे ( ऋषभदेवना मुनिओने आश्रीने स्वामी चोराशी लाख पूर्वनुं कुल आयुष्य पाळी सिद्ध थया, संभवे छे), चोराशी लाख जीवायोनि छे, पूर्वथी आरंभीने - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री 171 विषयानुक्रम॥ . समवायाज मत्र ॥ . चोधु अंग TU दरेक अंकने चोराशी चोराशी लाखे गुणतां छेवटनो शीर्षः | बीजी पृथ्वीना मध्यभागथी बीजा घनोदधिना नीचेना छेडा प्रहेलिका अंक आवे छे, श्रीऋषभदेव स्वामीने चोराशी हजार सुधी छाशी हजार योजननु आंतरूं छे. (बीजी नरकना साधुओनी संपदा हती, सर्व वैमानिकना विमानो साधिक पृथ्वीपिंडर्नु अर्ध ६६००० अने घनोदधि २०००० मळीने चोराशी लाखनी संख्यावाला छे. ८६००० जाणवा. ) (८५) आचारांग सूत्रना चूलिका सहित पंचाशी (८७ ) मेरु पर्वतना पूर्वना छेडाथी गोस्तूभ नामना उद्देशन काळ कह्या छे, धातकी खंडना ने पुष्कराध द्वीपना आवास पर्वतना पश्चिम छेडा सुधी सत्ताशी हजार योजबे मेरु जमीनमा एक हजार योजन ऊंडा छे ते सुधा कुल ननु आंतरुं छे, मेरु पर्वतना दक्षिण छेडाथी दकभास नामना पंचाशी हजार योजन ऊंचा छे, रुचक द्वीपनो मंडलिक आवास पर्वतना उत्तर छेडा सुधी सत्ताशी हजार योजननु ( गोळाकार रुचक ) पर्वत जमीनमा एक हजार ऊंडो छे ते आंतरुं छे, ए ज प्रमाणे मेरु पर्वतना पश्चिम छेडाथी शंख सुधां पंचाशी हजार योजन ऊंचो छ, नंदनवनना नीचेना नामना आवास पर्वतना पूर्व छेडा सुधी सत्ताशी हजार छेडाथी सौगंधिक कांडना नीचेना छेडा सुधी पंचाशी सो योजन आंतरुं छे, ए ज प्रमाणे मेरु पर्वतना उत्तर छेडाथी योजन- आंतरं छे. दकसीम नामना आवास पर्वतना दक्षिण छेडा सुधी सत्ताशी (८६) श्रीसुविधिनाथने छाशी गणो अने छाशी हजार योजन- आंतरं छे, महाहिमवानपरना कूटना उपरना गणधरो हता, श्रीसुपार्श्वनाथ प्रभुने छाशी सो वादी हता, | छेडाथी सौगंधिक कांडना नीचेना छेडा सुधी सत्ताशी सो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजननं आंतरुं छे, एज प्रमाणे रुक्मीना कूटनुं पण जाणवुं. ( ८८ ) दरेक चंद्र-सूर्यने अठ्ठाशी अठ्ठाशी महा ग्रहोरूप परिवार छे, दृष्टिवादना अठ्ठाशी सूत्रो छे, मेरु पर्व - • तना पूर्व छेडाथी गोस्तूभ नामना आवास पर्वतना पूर्व छेडा • सुधी अठ्ठाशी हजार योजननं आंतरुं छे, एज प्रमाणे बाकीनी त्रणे दिशामां जाणवुं, सर्व आभ्यंतर मंडळरूप बहारनी उत्तर दिशाथी दक्षिणायन तरफ आवतो सूर्य चुमाळीशमा मंडळे आवे त्यारे मुहूर्त्तना एकसठीया अठ्ठाशी भाग जेटली दिवसनी हानि करीने अने तेटली ज रात्रिनी वृद्धि करीने चाले छे, तथा दक्षिण दिशाथी उत्तरायण तरफ आवतो सूर्य चुमालीशमा मंडळे आवे त्यारे मुहूर्त्तना एकसठीया अठ्ठाशी भाग जेटली रात्रिनी हानि करीने अने तेटली ज दिवसनी वृद्धि करीने चाले छे. ( ८९ ) श्री ऋषभदेव भगवान आ अवसर्पिणीना 'त्रीजा आराने छेडे नेवाशी पखवाडीया बाकी रह्या त्यारे निर्वाण पाम्या, श्रीमहावीरस्वामी आ अवसर्पिणीना चोथा आराना नेवाशी पखवाडीया बाकी हता त्यारे निर्वाण पाम्या, हरिषेण नामना चक्रवर्तीए नेवाशी सो वर्ष सुधी राज्य भोगव्युं, श्रीशांतिनाथ प्रभुने नेवाशी हजार साध्वीओनी संपदा हती. ( ९० ) श्रीशीतळनाथ प्रभु नेवु धनुष ऊंचा हता, श्री अजितनाथ प्रभुने नेवुं गण अने नेवुं गणधरो हता, स्वयंभू वासुदेवे ने वर्ष दिग्विजय कर्यो हतो, सर्वे वृत्तवैताढ्य पर्वतोना उपरना छेडाथी सौगंधिक कांडना हेठला छेडा सुधी नेवं सो योजननुं आंतरुं छे. ( ९१ ) बीजानुं वैयावृत्त्यकर्म करवानी प्रतिमाओ 1. एकाणु छे, कालोदधिनी परिधि साधिक एकाणु लाख योजननी छे, श्रीकुंथुनाथ प्रभुने एकाणु सो अवधिज्ञानीओ हता, आयु ने गोत्र ए वे कर्म विना बाकीना छ कर्मनी एकाणु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम।। समवाया सूत्र॥ घो\ अंग उत्तरप्रकृतिओ छे. ( एमां नामकर्मनी ४२ गणेल छे.) । राणु सो अवधिज्ञानी हता. (९२) वाणु प्रतिमाओ विशेष प्रकारना अभिग्रह- (९५) श्रीसुपार्श्वस्वामीने पंचाणु गणो अने पंचाणु रूप कहेल छे, इंद्रभूति गणधर बाणु वर्पर्नु कुल आयुष्य गणधरो हता, जंबूद्वीपना छेडाथी चारे दिशामा लवणसमुपाळी सिद्ध थया, मेरु पर्वतना मध्यभागथी गोस्तूभ नामना द्रने विप पंचाणु पंचाणु हजार योजन जइए त्यारे चार आवास पर्वतना पश्चिम छेडा सुधीमां बाणु हजार योजन पाताळकळशो आवे छे, लवणसमुद्रनी बन्ने बाजुए पंचाणु आंतरं छे, ए ज प्रमाणे बाकीना त्रणेनुं जाणवू. पंचाणु प्रदेशो ऊंडाइ अने ऊंचाइनी हानिना विषयमा कहेला - (९३) श्रीचंद्रप्रभ प्रभुने त्राणु गण अने त्राणु छे, श्रीकुंथुनाथ प्रभु पंचाणु हजार वर्षतुं कुल आयुष्य पाळीने गणधरो हता, श्रीशांतिनाथ प्रभुने त्राणु सो चौदपूर्वी हता, सिद्ध थया, स्थविर मौर्यपुत्र पंचाणु वर्षनुं कुल आयुष्य त्राणुमा मंडळे रहेलो सूर्य आभ्यंतर मंडळ तरफ जतो अथवा पाळीने सिद्ध थया. बाह्य मंडळ तरफ जतो सरखा अहोरात्रने विषम करे छे (९६) दरेक चक्रवर्ती राजाने छन्नु करोड गाम अर्थात् त्राणुमा मंडळमां आवे छे, त्यारे समपणुं अहो- होय छे, वायुकुमार देवना भवनावासा छन्नु लाख छ, राजनुं मटीने विषमपणुं थाय छे. व्यावहारिक दंड छन्नु आंगळ लांबो होय छे, एज प्रमाणे (९४) निपध अने नीलवंत पर्वतनी जीवा साधिक धनुष, नालिका, धोंसरु, धरी अने सांबेल पण छन्नु छन्नु चोराणु हजार योजननी छे, श्रीअजितनाथस्वामीने चो- | आंगळना होय छे, सूर्य आभ्यंतर मंडळमां होय त्यारे पहेलु १७॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त छन्नु अंगुली छायावाळु होय छे. (९७) मेरु पर्वतना पश्चिमना छेडाथी गोस्तूभ पर्वतना पश्चिम छेडा सुधी सत्ताणु हजार योजननुं आंतरं छे, एज प्रमाणे वाकीनी त्रणे दिशामां जाणवु, आठे कर्मनी मळीने सत्ता उत्तरप्रकृतिओ थाय छे ( एमां नामकर्मनी ४२ गणेली छे ), हरिषेण नामना चक्रवर्ती कांइक ओछा सत्ताणु सो वर्ष सुधी गृहवासमा रही प्रव्रजित थया हता. ( ९८ ) नंदनवनना उपरना छेडाथी पांडुक वनना नीला छेडा सुधी अठ्ठाणु हजार योजननुं आंतरुं छे, पर्वत पश्चिम छेडाथी गोस्तूभ पर्वतना पूर्व छेडा सुधी अठ्ठाणु हजार योजननुं आंतरुं छे, ए ज प्रमाणे शेष त्रण - दिशामां जाणवु, दक्षिण भरतार्धनुं धनुःपृष्ठ कांइक अठ्ठा सो योजन लांबु छे, उत्तर दिशामा प्रथम छ मास सुधी चालतो सूर्य ओगणपचासमे मंडळे रहीने एक मुहूर्त्तना एकसठीया अठ्ठाणु भाग दिवसनी हानि करी अने रात्री वृद्धि करीने चाले छे, तथा दक्षिण दिशामां बीजा छ मास सुधी चालतो सूर्य ओगणपचासमे मंडळे रद्दीने मुहू ना एकसठीया अठ्ठाणु भाग रात्रिनी हानि अने दिवसनी वृद्धि करतो चाले छे, रेवति नक्षत्रथी ज्येष्ठा नक्षत्र सुधीना ओगणीश नक्षत्रोनी कुल अठ्ठाणु ताराओ . (९९) मेरु पर्वत नवाणु हजार योजन ऊंचो छे, नंदन वनना पूर्व छेडाथी पश्चिम छेडा सुधी नवाणु सो योजननुं आंतरुं छे, एज प्रमाणे दक्षिण छेडाथी उत्तर छेडा सुधी जाणवु, उत्तरनुं सर्व आभ्यंतर पहेलुं सूर्यमंडळ आयाम विष्कंभवडे साधिक नवाणु हजार योजनप्रमाण छे, ए ज प्रमाणे बीजुं अने त्रीजुं मंडळ पण जाणवु, रत्नप्रभा पृथ्वीना अंजन नामना कांडनी नीचेना छेडाथी वाणत्र्यंतरना भूमिगृहना उपरना छेडा सुधी नवाणु सो योजन आंतरुं छे. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपयानुक्रम॥ समवायाङ्ग N लोग ॥१८॥ (१००) दश दशमिका नामनी भिक्षुप्रतिमाना | हता, सर्वे महाहिमवंत अने रूपी नामना वर्षधर पर्वतो सो दिवस थाय छे, शतभिषक नामना नक्षत्रने सो ताराओ बसो बसो योजन ऊंचा अने बसो बसो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा छे, श्रीसुविधिनाथ सो धनुप ऊंचा हता, श्रीपार्श्वनाथ प्रमु छे, आ जंबूद्वीपमा बसो कंचनगिरिओ छे. सो वर्षनुं कुल आयुष्य पाळी सिद्ध थथा, ए ज प्रमाणे । (२५०) पद्मप्रभस्वामी अढी सो धनुष ऊंचा हता, सुधर्मास्वामी पण सो वर्षनुं आयुष्य पाळी सिद्ध थया, सर्वे असुरकुमार देवोना प्रासादावतंसक अढी सो योजन उंचा छे. दीर्घवैताब्य पर्वतो सो सो गाउ ऊंचा छे, सर्वे क्षुल्लहिमवंत (३००) श्रीसुमतिस्वामी त्रण सो धनुष ऊंचा हता, अने शिखरी पर्वतो सो सो योजन ऊंचा छे, अने सो सो श्रीअरिष्टनेमि प्रभु त्रण सो वर्ष कुमारपणे रहीने प्रबजित गाउ पृथ्वीमा ऊडा छे, सर्वे कंचनगिरिओ सो सो योजन थया. वैमानिक देवोना विमानना किल्ला त्रण सो ऋण सो ऊंचा, सो सो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा अने सो सो योजन योजन ऊंचा छे, श्रीमहावीरस्वामीने त्रण सो चौदपूर्वी हता, मूळमां विष्कंभवान छे. पांच सो धनुप प्रमाणवाळा चरमशरीरी सिद्धिपदने पाम्या होय . - (१५०) चंद्रप्रभ अरिहंत दोढसो धनुष ऊंचा हता, तेना जीवप्रदेशनी अवगाहना साधिक त्रण सो धनुषनी होय छे. ' आरण तथा अच्युत कल्पमा दोढसो विमानो छे. (बे मळीने (३५०) श्रीपार्श्वनाथ स्वामीने साडा त्रण सो त्रण सो छे. इंद्र बेनो एक छे.) चौदपूर्वी हता, श्रीअभिनंदनस्वामी साडात्रण सो धनुष (२००) श्रीसुपार्श्वनाथ स्वामी बसो धनुष ऊंचा | ऊंचा हता, शा | ॥१८॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०० ) श्री संभवनाथस्वामी चार सो धनुष "उंचा हता, सर्वे निषध अने नीलवंत पर्वतो चार सो चार सो योजन ऊंचा तथा चार सो चार सो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा छे. सर्वे वक्षस्कार पर्वतो निषध अने नीलवंत पर्वतोनी पासे चार सो चार सो योजन ऊंचा अने चार सो चार सो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा छे, आनत अने प्राणत कल्पने विषे चार सो विमानो छे, श्रीमहावीरस्वामीने चार सो वादीओ हता. ( ४५० ) श्री अजितनाथस्वामी साडा चार सो धनुष ऊंचा हता, सगर चक्रवर्ती पण साडाचार सो धनुष ऊंचा हता. ( ५०० ) सर्वे वक्षस्कार पर्वतो सीता अने सीतोदा महानदी पासे तथा गजदंताओ मेरुपर्वतनी पासे पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने पांच सो पांच सो गाउ अंडा छे, वक्षस्कारो पांच सो योजन एक सरखा पहोळा छे. सर्वे वर्षधर उपरना कूटो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन विष्कंभवाळा छे, श्रीऋषभदेवस्वामी पांच सो धनुष ऊंचा हता, भरतचक्री पण पांच सो धनुष ऊंचा हता, सौमनस, गंधमादन, विद्युत्प्रभ अने मालवंत नामना गजदंता पर्वतो मेरुपर्वतनी पासे पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने पांच सो पांच सो गाउ ऊंडा छे, सर्वे वक्षस्कार उपरना कूटो हरि अने हरिस्सह ए वे कूटने वर्जीने पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन लांबा पोळा छे, एक बळकूटने वर्जीने बाकीना नंदनवनना कूटो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन लांबा पहोळा छे, सौधर्म अने ईशान कल्पमांना विमानो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा छे. ( ६०० ) सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पना विमानो छ सो योजन ऊंचा छे, क्षुल्लहिमवंतना कूटनी उपरना छेडाथी क्षुल्लहिमवंत पर्वतना समभूमितळ सुधी छ सो योजननुं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानु क्रम ॥ आंतरं छे, ( सो योजन ऊंचो पर्वत ने पांच सो योजन ऊचा । हजार योजनना कांडमां मध्यना आठ सो योजनने विष समवायाजा कूट-बे मळीने छसो जाणवा ) एज प्रमाणे शिखरी कूटनु वाणव्यंतर देवोना भूमिनगरो रहेला छे, श्रीमहावीरस्वामीना सूत्र॥ पण जाणवू, श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने छ सो वादीओ हता, अभि- आठ सो साधुओ अनुत्तर विमानमा उत्पन्न थया, रत्नप्रभा चोघु अंग चंद्र नामना कुलकर छ सो धनुष ऊंचा हता, श्रीवासुपूज्य- पृथ्वीना समभूमिभागथी आठ सो योजन ऊंचे सूर्य गति करे स्वामी छ सो पुरुपोनी साथे प्रबजित थया हता. छे, श्रीअरिष्टनेमि प्रभुने आठ सो वादीओ हता. ॥१९॥ (७००) ब्रह्म अने लांतक कल्पना विमानो सात (९००) आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत सो योजन ऊंचा छे, श्रीमहावीरस्वामीने सात सो केवळी कल्पना विमानो नव सो योजन ऊंचा छ, निषधकूटना अने सात सो वैक्रिय लब्धिवाळा हता, श्रीअरिष्टनेमि भग- उपरना छेडाथी निषध पर्वतना समान भूमितळ सुधी नव सो वान कांइक न्यून सात सो वर्ष केवळी पर्यायने पाळी सिद्ध योजन- आंतरं छे, ए ज प्रमाणे नीलवंत पर्वत ने तेना थया, महाहिमवान कूटना उपरना छेडाथी महाहिमवान वर्ष- कूटनुं पण जाणवू, विमलवाहन नामना कुलकर नव सो धनुष धर पर्वतना सममूमितळ सुधी सात सो योजननु आंतरं छे, ऊंचा हता, रत्नप्रभा पृथ्वीना समान भूमिभागथी नव सो एज प्रमाणे रूपी पर्वत ने तेना कूटनुं पण जाणवू. योजन ऊंचे उपरना तारा चाले छे, निषध पर्वतना उपला (८००.) महाशुक्र अने सहस्रार कल्पना विमानो शिखर तळथी रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला कांडना मध्य भाग आठ सो योजन उंचा छ, आ रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला एक | सुधी नव सो योजन- आंतरुं छे, ए ज प्रमाणे नीलवंतनुं - : : Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण जाणवू. (१०००) नवे ग्रैवेयक विमानो हजार हजार योजन ऊंचा छे, सर्वे यमक पर्वतो हजार हजार योजन ऊंचा, हजार हजार गाउ ऊंडा अने मूळमां हजार हजार योजन आयामविष्कंभवाला छे, ए ज प्रमाणे चित्रकूट अने विचित्रकूट जाणवा, सर्वे वृत्तवैताढ्य पर्वतो पण एज प्रमाणे छे, विशेष ए के आ पर्वतो सर्वत्र सरखा पालाना आकारे 10 रहेला छे, वक्षस्कार परना बीजा कूटोने वर्जीने हरिकट अने हरिस्सह कूट एक एक हजार योजन ऊंचा छे अने मूळमां हजार योजन विष्कंभवाळा छे, एज प्रमाणे नंदनवनना . बीजा कूटोने वर्जीने बळकूट पण हजार योजन ऊंचो छे, श्रीअरिष्टनेमि भगवान एक हजार वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने एक हजार केवळी हता अने तेटला ज मुनि सिद्ध थया हता, पद्मद्रह अने पुंडरीकद्रह हजार हजार योजन लांबा छे. . . (११००) अनुत्तरोपपातिक देवोना विमानो अग्यार सो योजन ऊंचा छे, श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने अग्यार सो वैक्रियलब्धिवाळा साधुओ हता. (२०००) महापद्म अने महापुंडरीक द्रहो बवे । हजार योजन लांबा छे. . (३०००) रत्नप्रभा पृथ्वीना बज्रकांडना उपरना छेडाथी लोहिताक्ष कांडना नीचेना छेडा सुधी त्रण हजार योजननु आंतरं छे. (४०००) तिगिच्छ अने केसरी द्रह चार चार हजार योजन लांवा छे. (५०००) पृथ्वीतळमां मेरुपर्वतना मध्यभागे रहेला । रुचकप्रदेशना मध्यभागथी चारे दिशामां मेरुपर्वतना छेडा सुधी पांच पांच हजार योजन- आंतरं छे. ཛ་ཛཛདངཛ་ཛར་ཛ་ཛ་ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानु क्रम॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ चोधुं अंग ॥२०॥ (६०००) सहस्रार कल्पमा छ हजार विमानो छे.. (७०००) रत्नप्रभा पृथ्वीना रत्नकांडना उपरना छेडाथी पुलककांडना नीचला छेडासुधी सात हजार योजननु आंतकै छे. (८०००) हरिवर्प अने रम्यक क्षेत्रनो विस्तार साधिक आठ हजार योजननो छे. - (९०००) दक्षिणार्ध भरतक्षेत्रनी जीवा नव हजार योजन झाझेरी लांबी छे. (१०००० ) मेरुपर्वत पृथ्वीतळमा दश हजार योजन विष्कंभवाळो छे. . (१०००००) आ जंबूद्वीपनो आयाम विष्कंभ एक लाख योजननो छे. (२०००००) लवण समुद्र गोळ विष्कंभवडे वे लाख योजननो छे. (३०००००) श्रीपार्श्वनाथ प्रभुने त्रण लाख ने सत्तावीश हजार श्राविकाओ हती. (४०००००) धातकीखंड द्वीपनो गोळ विष्कंभ चार लाख योजननो छे. (५०००००) लवण समुद्रना पूर्व छेडाथी पश्चिम छेडा सुधी पांच लाख योजन- आंतरं छे. ( वच्चे एक लाख योजननो जंबूद्वीप ने बे बाजु वे बे लाख योजन लवण समुद्र एम कुल पांच लाख जाणवा.) (६०००००) भरत चक्रवर्तीए छ लाख पूर्व राज्य कयुं हतुं. (७०००००) आ जंबूद्वीपनी पूर्व वेदिकाना अंतथी धातकीखंडना चक्रवालना पश्चिम छेडा सुधी सात लाख योजननु आंतरुं छे. .. (८००००० ) माहेंद्र कल्पमा आठ लाख विमानो छे. ॥२०॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... (९०००) श्रीअजितनाथ प्रभुने साधिक नव हजार अवधिज्ञानी हता. ( अहीं लाखना स्थानकमां हजारवें स्थानक लख्युं छे ते सूत्ररचनानुं विचित्रपणुं जाणवू ). .... (१००००००) पुरुषसिंह वासुदेवनुं कुल आयुष्य दश लाख वर्षनुं हतुं. (१०००००००) श्रीमहावीरस्वामी पूर्वना छठ्ठा पोटिल मुनिना भवमा एक करोड वर्ष साधुपर्याय पाळीने सहस्रार देवलोकमां उत्पन्न थया हता. (सागरोपम कोटाकोटिमुं स्थान ) श्रीऋषभदेव भगवानना निर्वाणथी छेल्ला श्रीमहावीरस्वामीना निर्वाण सुधी (४२००० वर्षे न्यून) एक कोटाकोटि सागरोपमर्नु आंतरं छे. आ ग्रंथमा प्रथम स्थानथी आरंभीने कोटाकोटि सागरोपमना स्थान सुधीमा जे जे विषयो कह्या छे, ते सर्वे द्वादशांगीमा यथास्थाने बतावेला छे एटले के आ सर्व विषयोनुं मूळ द्वादशांगी ज छे, तेथी हवे द्वादशांगीतुं स्वरूप बताव्यु छे. तेमां प्रथम बार अंगना आचारांग विगेरे नाम आपी पछी अनुक्रमे दरेक अंगमा केटला केटला श्रुतस्कंध, अध्ययनो, विषयो, वाचना, अनुयोगद्वार, प्रतिपत्तिओ, वेष्टक, श्लोकसंख्या, उद्देश, समुद्देश, कुलपदो, अक्षरो, गमा, पर्यवो, त्रस, स्थावर विगेरे कहेला छे. ते संबंधी संक्षेप आप्यो छे. छेवट बारमा दृष्टिवाद अंगमां सर्व पदार्थों कह्या छे. तेमां परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग अने चूलिका ए पांच भेदो आपी ते दरेकना भेदो विगेरे आप्या छे तथा चौदे पूर्वनां नाम अने ते दरेकमां जे विषयो कहेला छे ते संक्षेपथी देखाड्या छे. त्यारपछी (१४९ मा सूत्रमा) द्वादशांगीमां मुख्य विषय जीव अने अजीव ए वे होवाथी जीवराशि अने अजीवराशि एवा बे भेद कही प्रथम अजीवराशिना रूपी अने अरूपी एवा बे भेद देखाड्या छे. पछी अरूपी अजीवरा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम॥ समवायाङ्ग स्त्र ॥ चोधु अंग ॥२१॥ शिना धर्मास्तिकाय विगेरे दश प्रकारो कया छे. पछी रूपी | तथा सर्वार्थसिद्ध पर्यंतना देवोनी स्थितिनो जघन्य अने। अजीवराशि विषे कयुं छे. पछी जीवराशिना संबंधमां प्रथम उत्कृष्ट काळ कह्यो छे. - पांच अनुत्तरोपपातिक कहीने पछी अनुक्रमे वे प्रकारना त्यारपछी ( १५२ मा सूत्रमा ) नारकी विगेरे चारे नारकी, साते नरक पृथ्वीनुं स्वरूप, असुरकुमार, नागकुमार, गतिना जीवोना औदारिक विगेरे पांच प्रकारना शरीरनी सुवर्णकुमार, वायुकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्- अवगाहना विगेरे कह्यु छे. कुमार, स्तनितकुमार अने अग्निकुमारना भवनो विगेरे तथा त्यारपछी ( १५३ मा सूत्रमा ) अवधिज्ञानना भेद, सुधर्मादिक बारे देवलोक, नव अवेयक, पांच अनुत्तर विमान विषय विगेरे नव द्वार, अवधिज्ञानना बे प्रकार, नरकमां ए सर्वना विमानो विगेरेनुं वर्णन संक्षेपथी कार्यु छे (ज्यां शीतादिक वेदना, लेश्या, आहार विगेरे कह्यु छे.. संक्षेप कह्यो छे त्यां टीकाकारे तेनो काइक विस्तार पण कर्यो छे.) त्यारपछी ( १५४ मा सत्रमा) छ प्रकारनो आयुष्य... त्यारपछी ( १५० मा सूत्रमा ) असुरकुमारना आवासो, बंध तथा विरहकाळ विगेरे कह्यो छे. पृथ्वीकायना आवासो( स्वस्थानो)थी आरंभी मनुष्य सुधीना त्यारपछी ( १५५ मा सत्रमा ) छ प्रकारना संहनन स्थानो, वानव्यतरना आवासो, ज्योतिषीना विमानो अने अने छ प्रकारना संस्थान का छे. वैमानिक देवोना आवासो कह्या छे.... . त्यारपछी ( १५६ मा सत्रमा ) पुरुषवेद विगेरे त्रण त्यारपछी ( १५१ मा 'सूत्रमा) नारकीओनी स्थिति | वेद कह्या छे.... ॥२१॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारपछी (१५७ मा सत्रमा ) आ सर्व प्ररूपणा अरि- नाम, नव बळदेव तथा नव वासुदेवना पितानां नाम, मातानां हंत भगवाने समवसरणमां कहेल होवाथी समवसरणनी रचना नाम, बळदेव तथा वासुदेवना गुणर्नु विस्तृत वर्णन, तेमनां • कही छे, पछी महावीरस्वामी कुलकरना वंशमा उत्पन्न थयेला नाम, तेमना पूर्वभवनां नाम, तेमना पूर्वभवना धर्माचार्योनां होवाथी आ अवसर्पिणीमां थयेला सात कुलकर तथा तेमनी नाम, वासुदेवोने नियाणा करवानी भूमिनां नाम, नियाणा पत्नीओनां नामो, चोवीशे तीर्थकरना पिताओनां नाम, माता- करवानां कारणो, नव प्रतिवासुदेवोनां नाम, नव वासुदेवनी ओनां नाम, चोवीश तीर्थंकरोनां नाम, तेमना पूर्व भवनां | गति, नव बळदेवनी गति विगेरेन वर्णन कयु छे. नाम, तेमनी दीक्षा लेवा जती वखते करेली शिबिकाओनां नाम, ____त्यारपछी ( १५९ मा सूत्रमा ) आ अवसर्पिणीमा आ तेमने प्रथम भिक्षा आपनारनां नाम, तेमने भिक्षा मळवानो जंबूद्वीपना ऐरवतक्षेत्रमा थयेला चोवीश तीर्थकरोनां नाम, समय, भिक्षाना पदार्थ, भिक्षादातारने घेर थयेल सुवर्णवृष्टि, तथा आवती उत्सर्पिणीमां भरतखंडमां अने अरवतक्षेत्रमा चोवीश तीर्थकरोना चोवीश चैत्यवृक्षोना नाम, तेमना पहेला थनारा कुलकरोना नाम, भरतक्षेत्रमा थवाना चोवीश तीर्थशिष्यनां नाम, पहेली शिष्यानां नाम, विगेरे कयुं छे. करोनां नाम, तेमना पूर्वभवनां नाम विगेरे, बार चक्रवर्ती- त्यारपछी ( १५८.मा सूत्रमां) आ अवसर्पिणीमां आ | ओनां नाम, नव वासुदेव तथा वळदेवनां नाम, तेमना धर्माजंबूद्वीपना भरतक्षेत्रमा थयेला बार चक्रवर्तीओनां पिताओनां | चार्यों, नियाणानी भूमि अने तेनां कारणो, नव प्रतिवासुदेनाम, माताओनां नाम, चक्रवर्ताओनां नाम, तेमना स्त्रीरत्ननां | वनां नाम विगेरे. तथा ऐरवतक्षेत्रमा थनारा चोवीश तीर्थ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥ २२ ॥ करनां नाम, तथा चक्रवर्ती, वासुदेव, बळदेव, प्रतिवासुदेव विगेरे संबंधी संक्षिप्त हकीकत आपी छे. छेवट ( १६० मा सूत्रमां ) उपसंहार करता सता ' समवाय ' शब्दना यथार्थ नामो बतावी ग्रंथनी समाप्ति करी छे. त्यारपछी टीकाकारे आठ लोकनी प्रशस्ति करी छे. तेमां टीकाकार श्री अभयदेवसूरिए तीर्थंकरादिकने नमस्कार करी प्रथम आ अंगनुं प्रमाण घणुं हतुं, ते काळादिकना दोषथी अल्प थयेलुं होवाथी मारा जेवानी बुद्धिनी अल्पताने लीधे आ टीका रचवानी मारी शक्ति नथी, तो पण गुरुकृपाथी कांक करी छे. तेमां मतिमांद्यतादिकने कारणे कांइ स्खलना थइ होय ते परोपकारी विद्वानोए सुधारखं विगेरे लखीने पोताना गुरुविगेरेनी संक्षिप्त परंपरा आपी छे. ईति शम् स्वस्ति मंगलम. श्रीसमवायांग चतुर्थ अंगनो विषयानुक्रम समाप्त. 'विषयानु क्रम ॥ ॥ २२ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमवायाङ्ग सूत्र ( चोथुं अंग ) मूळ अने मूळ तथा टीकाना अर्थ साथै टीकाकारनुं मंगलादिक श्रीवर्धमानमानम्य, समवायागवृत्तिका । विधीयतेऽन्यशास्त्राणां प्रायः समुपजीवनात् ॥ १ ॥ श्री वर्धमानस्वामीने नमस्कार करीने समवायांग सूत्रनी वृत्ति ( टीका ) प्राये करीने अन्य शास्त्रोनो आश्रय - आधार लइने मारावडे करायछे (हुं करूं छं. ). दुः संप्रदायादसदूहनाद्वा, भणिष्यते यद्वितथं मयेह | तद्धीधनैर्मामनुकम्पयद्भिः, शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैवम् ॥ २ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ पर, एवी सख्या ) पानो विचार वाले सम्यकप्रकाना समूह कराय छे. तेमाप्रमाणे छेवाजीवादिक चिटिले विविध प्रकार दुष्ट (खोटा) संप्रदायथी अथवा खोटा तर्क करवाथी आ शास्त्रमा माराथी जे कांइ खोटुं कहेवाय, ते मारा पर अनु-समवायाङ्गकंपा करनारा बुद्धिमानीए शोध-शुद्ध करचुं, एवी रीते करवाथी मत (शास्त्रसंमत ) अर्थनी क्षति न थाओ. ... अहीं स्थानांग नामना वीजा अंगना अनुयोग (व्याख्या) पछी आ समवाय नामना चोथा अंगनो अनुयोग अनुक्रमे प्राप्त थयेलो छे, तेथी हवे तेनो आरंभ कराय छे. तेमां फळे विगेरे द्वारोनो विचार स्थानांगना अनुयोग प्रमाणे अनुक्रमे जाणी लेवो. विशेषमा आ (समवाय) नो समुदाय अर्थ आ प्रमाणे छे–'सम् ' एटले सम्यकप्रकारे, 'अव' एटले अधिकपणाए करीने 'अय (अयनं)' एटले परिच्छेद-अवधारण अर्थात् जीवाजीवादिक विविध पदार्थना समूहनुं ज्ञान जेमा छे ते 'समवाय' कहेवाय छे. अथवा 'समवयन्ति'-'समवतरन्ति-संमिलन्ति' एटले विविध प्रकारना जीवादिक पदार्थो जेने विपे अभिधेय( वाच्य )पणाए करीने अवतरे छ-एकठा थाय छ ( मळे छे-जाणवामां आवे छे) ते 'समवाय' कहेवाय छे. ते समवाय प्रवचनरूपी पुरुप, अंग होवाथी 'समवायांग' कहेवाय छे. श्री श्रमण भगवंत महावीर-वर्धमानस्वामीना पांचमा गणधर आर्य सुधर्मास्वामी जंबू नामना पोताना शिष्यने समवायांगनो अर्थ कहेवाने इच्छता सता ते वखते पोताना धर्माचार्य भगवानने विषे बहुमानने प्रगट करता तथा पोताना वचनने विषे समग्र १. तस्स फलजोगसंगल-समुदायत्था तहेव दाराई । तब्भेयनिरुत्तिकमपयोयणाई च वच्चाई ॥१॥ फळ ( प्रयोजन ), योग ( संबंध ), मंगळ, समुदायार्थ, द्वारो, तेना भेद, निरुक्ति, क्रमप्रयोजन एटली बाबत ग्रंथना प्रारंभमां प्राये कहेली होय छे. ( स्थानांगनी टीकामाथी आ गाथा लखी छे.) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वस्तुना विस्तार ( समूह ) ना स्वभाव ( स्वरूप ) ने प्रगट करनार केवळज्ञाने करीने सहित श्रीमहावीरस्वामीना वचननो ॥ आश्रय ( आधार ) होवाथी आ मारुं वचन निर्विवादपणे प्रमाणभूत छ एम शिष्यनी बुद्धिने विष आरोपण करता सुधर्मास्वामी प्रथम आ संबंधना सूत्रने कहे छे.-- मू०-सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं' अर्थ:-हे आयुष्मान ( जंबू )! में सांभळ्यु छ के-ते भगवाने आ प्रमाणे कयुं छे- टीकार्थः-ते एटले जे आ रागद्वेषादिक विषम भावशत्रुना सैन्यने मूळ सहित उखेडी नांखवाथी तथा त्रण भुवनना | समग्र पदार्थोने प्रकाश करनार केवळज्ञानवडे पोताना अनुभवपूर्वक विसंवाद रहित वचनवाळा होवाथी त्रणभुवनरूपी धरना आंगणामां जेनो अमृत जेवो उज्ज्वळ यशसमूह प्रसरेलो छ तेवा आ भगवान-समग्र ऐश्वर्यादिक समृद्धिए करीने सहित महावीरस्वामीए आ प्रमाणे एटले आगळ कहेवामां आवशे ते प्रमाणे आत्मादिक वस्तुतत्त्वने कह्यु छे. अथवा 'आउसंतेणं' ए, आखं पद भगवाननुं विशेषण तरीके कर. एटले आयुष्यवाळा-चिरकाळना जीवितवाळा एवा भगवाने अथवा पाठांतरवडे 'आवसता ' ए, पद करीने 'मया' नुं विशेषण कर, एटले के गुरुकुळने विषे वसता अथवा विनयने निमित्ते वे करतलवडे गुरुना वे चरणकमळने 'आमृशता' एटले स्पर्श करता एवा में, अथवा 'आउसंतेणं' एटले प्रीतियुक्त मनवडे सेवा करता एवा में ( आ प्रमाणे सांभळधुं छे.) । भगवाने जे का छे ते हवे कहेवाय छ–'एगे आया' इत्यादि. अन्य कोइ वाचनामां बीजी रीते संबंधनुं सूत्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग। ', 'समवायाङ्ग सूत्र॥ जोवामां आवे छे. ते प्रथम कहे छे.| मू०-[ इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपजोअगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचकवहिणा अप्पडिहयवरनाणदंसणधरेणं वियदृच्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिन्नेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सबन्नुणा सबदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमबाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा-आयारे १ सूयगडे २ ठाणे ३ समवाए ४ विवाहपन्नत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसाओ ८ अणुत्तरोववाइदसाओ ९ पण्हावागरणं १० विवागसुए ११ दिविवाए १२ । तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिते तस्स णं अयमढे पन्नत्ते-तं जहा-] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थः-आ जगतमां श्रमण भगवान महावीरस्वामी के जे श्रुतधर्मनी आदिने करनारा, तीर्थने करनारा, पोतानी मेळे बोध पामेला, पुरुषोने विषे उत्तम, पुरुष छतां सिंह जेवा, पुरुष छतां श्रेष्ठ पुंडरीक जेवा, पुरुष छतां श्रेष्ठ गंधहस्ती जेवा, लोकने विषे उत्तम, लोकना नाथ, लोकने हितकारक, लोकने प्रदीप समान, लोकने विपे प्रद्योत करनारा, अभयने आपनार, चक्षु ( श्रुतज्ञान ) ने आपनार, सम्यग्दर्शनादिक मार्गने आपनार, शरणने आपनार, जीवनने आपनार अथवा जीवोने विषे दयावाळा, धर्मने आपनार, धर्मनो उपदेश करनार, धर्मना नायक, धर्मना सारथि, धर्मनाला विषयमा चारे दिशाना श्रेष्ठ चक्रवर्ती समान, अस्खलित अने श्रेष्ठ एवा ज्ञान तथा दर्शनने धारण करनार, छद्मस्थपणाथी रहित थयेला, राग-द्वेषादिकने जीतनार, जीताडनार, संसारसमुद्रने तरनार, बीजाने तारनार, जीवादिक तत्त्वने जाणनार, वीजा जीवोने तत्व जणावनार, पोते मुक्त थयेला, बीजाने मुक्त करनार, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी तथा सुखकारक, अचलित, रोग रहित, अंत रहित, क्षय रहित, व्याबाधा रहित अने फरीथी भवमा आवq न पडे तेवा सिद्धिगति नामना स्थानने प्राप्त करवानी इच्छावाळा ते भगवाने आ द्वादशांगीरूप गणिपिटक प्ररूप्यु छे. तेना नाम आ प्रमाणे.--आचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवायांग ४, विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती) ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, अंतकृत-! दशा ८, अनुत्तरोपपातिक दशा ९, प्रश्नव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११ अने दृष्टिवाद १२. तेमां जे ते (प्रसिद्ध) चोथु अंग समवाय नामर्नु कयुं छे, तेनो आ अर्थ कह्यो छे, ते आ प्रमाणे टीकार्थ:--आ वाचना मोटी होवाथी तेनी व्याख्या करीए छीए. आ बीजुं सूत्र संग्रहरूप प्रथम सूत्रना ज विस्तार - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथं अंग समवायाङ्ग रूपे जाणवू. आनी व्याख्या आ प्रमाणे छे.--'इह' आ लोकमां अथवा निग्रंथना तीर्थमां (जिनशासनमां ). " खलु' शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे, अथवा निश्चय अर्थमां छे, तेथी आ ज जिनशासनमां, पण शाक्यादिक अन्य शासनमां नहीं. 'श्रमण' एटले तपस्या करनार. आ चरमजिनेश्वरनु साथे ज उत्पन्न थयेलं बीजु नाम छे. ते विषे का छे के-- "सहसंमतिए करीने एटले साथे ज संमतिपणाए करीने 'श्रमण' एबुं नाम थयुं छे." भगवाननो अर्थ प्रथम (सूत्रमां) कह्या प्रमाणे जाणवो. मोटा एवा वीर ते महावीर कहेवाय छे. आ नाम मोटा साविकपणाए करीने प्राणनो नाश करवामां समर्थ एवा परीपहो अने उपसर्गोप्राप्त थया छतां पण कंपायमान नहीं थवाथी देवेंद्रोए प्रसिद्ध कर्यु छे. ते विपे कमु छ के-- "भयंकर भयथी पण अचलित, परीपहो अने उपसर्गो प्राप्त थया छतां पण क्षमागुण धारण करवामां समर्थ अने प्रतिज्ञाना पार पामनार होवाथी देवोए तेमनुं 'महावीर' एg नाम कयु छे." ते भगवान केवा छे ? ते उपर तेमनां विशेषणो आपे छे--'आदौ करोति इत्येवं शीलः 'प्रथम आचारादिक ग्रंथरूप श्रुतधर्म ने तेनो अर्थ कहेनार होवाथी रचवाना स्वभाववाळा, तथा प्राणीओ जेना वडे संसारसागरने तरे छे ते तीर्थ एटले प्रवचन कहेवाय छे. ते प्रवचनथी भिन्न नहीं होवाथी, अहीं चतुर्विध संघज तीर्थ छे, ते तीर्थने करवाना स्वभाववाळा होवाथी भगवान तीर्थंकर कहेवाय छे. ते तीर्थंकर वीजाना उपदेशथी वोध पाम्या छे एम नथी, तेथी कहे छे के-'स्वयंसंवुद्ध' बीजाना उपदेश विना पोतानी मेळे ज हेय-उपादेय वस्तुतत्त्चने सम्यक् प्रकारे जाणनारा आ भगवाननुं पुरुषोत्तमपणुं होवाथी सामान्य मनुष्यनी जेवू स्वयंसंबुद्धपणुं संभवतुं नथी, तेथी कहे छ के-पुरुषोना मध्ये ते ते प्रकारना अतिशय रूपादिकवडे सर्वथी उपर वर्तनार ॥३ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्रेष्ट) होवाथी उत्तम छे तेथी पुरुषोत्तम छे. हवे सिंहादिक त्रण उपमानवडे आ भगवाननुं पुरुषोत्तमपणुं सिद्ध करता सता कहे छे के-सिंहनी जेवा शूरवीर होवाथी सिंह, पुरुषरूपे सिंह ते पुरुषसिंह कहेवाय छे. लोकोए सिंहने विषे अत्यंत प्रकृष्ट शौर्य मान्युं छे, तेथी शूरवीरपणाने आश्रीने सिंहनी उपमा आपी छे. भगवानने बाल्यावस्थामा प्रत्यनीक (मिथ्यात्वी) देव अत्यंत वीवराववा आव्यो हतो-बीवराववानो प्रयत्न कर्यो हतो तो पण ते भय पाम्या नहोता, तथा क्रीडा समये। वृद्धि पामता देवना शरीरने वज्र जेवी मुष्ठिना प्रहारवडे हणीने कुब्ज करी नांख्युं हतुं, तेथी भगवाननुं शूरवीरपणुं प्रसिद्ध ज छे. तथा श्रेष्ठ एवं जे पुंडरीक एटले धोडं कमळ ते वरपुंडरीक कहेवाय छे, अने पुरुषरूप ज जे वरपुंडरीक ते पुरुषवर पुंडरीक कहेवाय छे. अहीं भगवान सर्व अशुभ एवा मलिनपणाथी रहित छे अने सर्व शुभ अनुभावोवडे शुद्ध छे तेथी तेनुं PA श्वेतपणुं कर्तुं छे. तथा श्रेष्ठ एवो जे गंधहस्ती ते वरगंधहस्ती कहेवाय छे अने पुरुषरूप जे वरगंधहस्ती ते पुरुषवरगंधहस्ती कहेवाय छे. जेम गंधहस्तीना गधथी ज सर्व हस्तीओ भागी (नाशी) जाय छ, तेमना मद गळी जाय छे, तेम भगवानना ते ते देशना विहारवडे ज सात प्रकारनी ईतिओ-स्वसैन्य, परसैन्य, दुकाळ अने डमर-मरकी विगेरे उपद्रवो सो योजन सुधीमां नाश IM पामे छे. ' तेथी भगवान पुरुषरूपी श्रेष्ठ गंधहस्ती समान छे. हवे भगवान केवळ पुरुषोनी मध्ये ज उत्तम छे एटलं ज नहीं, IN परंतु समग्र जीवलोकमां पण उत्तम छे, तेथी कहे छे के-'लोकोत्तम' तिर्यंच, मनुष्य, नारकी अने देवरूप चार प्रकारना समग्र जीवलोकने विपे 'उत्तम' एटले ज्ञानीना (केवळज्ञान थवाथी उत्पन्न थनारा) चोत्रीश अतिशयो विगेरे असाधारणगुणोना १. अहीं चारे दिशामा सो सो योजन समजवा. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ समूहवडे युक्त होवाथी तथा समग्र सुर, असुर, विद्याधर अने मनुष्योना समूहने नमवा लायक होवाथी प्रधान छे. भगवाननु - समवायाङ्ग लोकोत्तमपणुं देखाडता सता कहे छे के–'लोकनाथ' लोकना एटले संज्ञी भव्य जीवोना जे नाथ एटले प्रभु, ते लोकनाथ सूत्र ॥ कहेवाय छे. अहीं 'योगक्षेमकृन्नाथः' (जे योग अने क्षेमने करनार होय ते नाथ कहेवाय छे) एवू शास्त्रनुं वचन छ तथी नहीं प्राप्त थयेला सम्यग्दर्शनादिकनो योग करवाथी अने प्राप्त थयेला एवा ते गुणोनुं पालन-रक्षण करवाथी आ भगवाननुं नाथपणुं सिद्ध थाय छे. वळी लोकनुं हित करनार होय तो ज तेनुं ताचिक (साचुं) नाथपणुं संभवे छे, तेथी कहे छे केलोकना एटले एकेन्द्रियादिक सर्व प्राणीसमूहना हितकर एटले तेमनी अत्यंत रक्षानो प्रकर्ष थाय तेवी प्ररूपणा करवावडे अनुकूळ वर्तनार होवाथी भगवान लोकहित कहेवाय छे. वळी आ भगवाननुं नाथपणुं अने हितकरपणुं कहां, ते भव्य ।। प्राणीओने यथास्थित समग्र वस्तुसमूहने दीपाववाथी-ओळखाववाथी ज संभवे छे, अन्यथा संभवतुं नथी, तेथी कहे छे के-विशेष प्रकारना (भव्य ) तिर्यंच, नर अने देवरूप लोकना आभ्यंतर ( अज्ञानरूपी) अंधकारना समूहने नाश करवा ! पूर्वक उत्कृष्ट पदार्थोंने प्रकाश करनार होवाथी भगवान प्रदीपनी जेवा प्रदीप होवाथी लोकप्रदीप कहेवाय छे. आ । IN (लोकप्रदीप ) विशेषण द्रष्टलोक (प्राणीओ) ने आश्रीने कां छे तेथी हवे दृश्य ( देखवा लायक ) लोकने आश्रीने विशेषण कहे छे के-जे जोवामां आवे ते लोक, एवी व्युत्पत्ति करवाथी संपूर्ण सूर्यमंडळनी जेवा समग्र पदार्थोना खभावने प्रगट करवामां समर्थ एवा केवळज्ञानपूर्वक प्रवचन (सिद्धांत ) रूपी प्रभाना सम्रहने प्रवर्ताववावडे लोकालोकरूप सर्व वस्तुसमूहना स्वभावने जे प्रद्योत-प्रकाश करवाना खभाववाळा ते लोकप्रद्योतकर कहेवाय छे. अहीं कोई शंका करे के ॥४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकनाथपणुं विगेरे विशेषणोना योग (संबंध ) वाळा विष्णु, शंकर अने ब्रह्मा विगेरे देवो पण ते ते तीर्थिकोना मत प्रमाणे संभवे छे, तेथी आ भगवानना संबंधमां विशेष शुं आव्युं ? आवी शंका थवाथी तेनुं विशेषपणुं कहेवा माटे कहे छे के प्राणनो नाश करवामां रसिक एवा उपसर्गो करनारा प्राणीने पण जे भय आपनारा नथी ते अभयदय कहेवाय छे, अथवा जेने सर्व प्राणीओना भयने दूर करनारी दया होय ते अभयदय कहेवाय छे, तेवा तो आ भगवान ज छे, पण हरि-हरादिक देवो तेवा नथी. वळी आ भगवान अपकार करनारानो पण अनर्थ दूर करे छे एटलं ज नहीं, परंतु अर्थनी प्राप्तिने पण करे छे, ते देखाडे छे, - शुभाशुभ पदार्थनो विभाग (विवेचन ) करनार होवाथी चक्षुनी जेवा चक्षुरूप श्रुतज्ञानने जे आपे छे, ते चक्षुर्दय कहेवाय छे. वळी जेम लोकमां चक्षु आपीने इच्छित स्थाने जवानो मार्ग देखाडनार पुरुष महाउपकारी होय छेकहेवाय छे, तेम अहीं पण जाणवुं, ते ज बाबत देखाडता सता कहे छे के सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप मुक्तिपदना मार्ग जे आपेछे-देखाडे छे ते मार्गदय कहेवाय छे. वळी जेम लोकमां चक्षुनुं उघाडवं अने मार्गनुं देखाडवुं करीने चौरादिकथी उपद्रव पामता प्राणीओने उपद्रव रहित एवा स्थानने पमाडनार पुरुष परम उपकारी थाय छे- कहेवाय छे, तेम अहीं पण जाणवुं. ते ज बाबत देखाडता सता कहे छे के शरण एटले अज्ञानरूपी उपद्रवोथी हणायेला प्राणीओने रक्षण करवानुं स्थान अर्थात् आवुं स्थान परमार्थथी निर्वाण - मोक्षस्थान छे, तेने जे आपनारा ते शरणदय कहेवाय छे. वळी जेम लोकमां चक्षु, मार्ग अने शरण आपवाथी दुःखी प्राणीओने जीवित आप्युं कहेवाय छे, तेम अहीं पण जाणवुं. ते बाबत देखाडता सता कहे छे के जीव एटले भावप्राणनुं धारण करतुं ते अर्थात् अमरणधर्मपणुं (कोइ पण वखत मरण न थाय ते) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग " सूत्र ॥ ॥५॥ • आवा जीवनने जे आपे ते जीवदय कहेवाय छे. आ हमणां कहेल विशेषणोनो समूह भगवाननी धर्ममय मूर्ति होवाथी प्राप्त थाय छे - लागु पडे छे. तेथी बीजा पांच विशेषणोवडे भगवानना धर्ममयपणाने कहे छे बतावे छे. - दुर्गतिमां . पडता जंतुओने धारण करवाना स्वभाववाळो जे होय ते धर्म कहेवाय छे. ते धर्म श्रुत अने चारित्र एम वे प्रकार नो . धर्म पे ते धर्मदय कहेवाय छे. अहीं धर्मनुं जे देवं ते तेना कहेवावडे ज थइ शके छे, तेथी कहे छे केउपर कहेला धर्मने जे देखाडे एटले कहे ते धर्मदेशक कहेवाय छे. आ भगवाननुं धर्मदेशकपणुं धर्मना स्वामीपणाने लइने छे, पण नटनी जेवुं नथी. ते बाबत देखाडता सता कहे छे के क्षायिक ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप धर्मना नायक - एटले यथार्थ रीते पालन करनार होवाथी ने स्वामी, ते धर्मनायक कहेवाय छे. तथा भगवान धर्मना सारथि छे, जेम रथनो सारथि रथनुं, रथिकनुं (रथमां बेसनारनुं) अने अश्वोनुं रक्षण करे छे, तेम भगवान चारित्र धर्मना अंगभूत एवा संयम, आत्मा अने प्रवचन ( सिद्धांत ) नुं रक्षण करवानो उपदेश आपे छे, तेथी ते धर्मसारथि कहेवाय छे. तथा ऋण दिशाए समुद्र अने उत्तर दिशा तरफ हिमवान पर्वत ए चारेना पर्यंतने विषे एटले ते चारे दिशा सुधी जेनुं स्वामीपणुं होय ते चातुरंत कचाय छे, एवा चातुरंत जे चक्रवर्ती ते चातुरंत चक्रवर्ती कहेवाय छे' अने 'वर' एटले श्रेष्ठ एवा जे पृथ्वीना चातुरंतचक्रवर्ती तेवरचातुरंत चक्रवर्ती एटले राजांना अमुक प्रकारना विशिष्ट अतिशयवाळा कहेवाय छे. हवे धर्मना विषयमा जे वरचातुरंतचक्रवर्ती ते धर्मवरचातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे. जेम पृथ्वी उपर सर्व राजाओथी चडीयाता वरचातुरंतचक्रवर्ती होय छे, १. आ हकीकत जंबूद्दीपना भरतक्षेत्रने आश्रयीने समजवी. . चोथुं अंग ॥ ॥५॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेम भगवान धर्मना विषयमां बीजा धर्मना रचनाराओने विष अतिशयवाळा (चडीयाता ) होवाथी धर्मवरचातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे. (चार गतिनो अंत करनार होवाथी पण चातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे.) आ धर्मदायक विगेरे पांच विशेषणो प्रकृष्ट ज्ञानादिकनो योग सते ज संभवे छे, तेथी करीने कहे छे के-अप्रतिहत एटले टाटुं, भींत के पर्वत विगेरे वडे स्खलना | न पामे तेवा अथवा विसंवाद रहित एवा अथवा क्षायिकभावना होवाथी 'वर' प्रधान एवा केवळज्ञान अने केवलदर्शनने जे धारण करे छे ते अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधर कहेवाय छे. वळी आवा प्रकारनी ज्ञानसंपदावडे सहित छतां पण जो ते छद्मवान एटले मिथ्या उपदेश करनार होय तो ते उपकारी थता नथी, तेथी छद्मरहितपणुं जणाववाने माटे व्यावृत्तछम कहे छे अथवा तो आ भगवानने अप्रतिहत ए, संवेदन (ज्ञान-दर्शन ) शी रीते प्राप्त थयुं ? तेना जवाबमां कहे छे के-आवरणनो सर्वथा अभाव थवाथी, ए ज बावत कहे छे के-व्यावृत्त एटले सर्वथा नाश पाम्युं छे छद्म एटले अज्ञानीपणुं अथवा ज्ञानावरण जेनुं ते व्यावृत्तछद्म कहेवाय छे. वळी आ भगवानने माया अने आवरणनो अभाव रागादिकनो जय करवाथी थयो छे, तेथी कहे छ के-रागद्वेषादिक आभ्यंतर शत्रुओने जे जीते छे-दूर करे छे, ते जिन कहेवाय छे तेमने. वळी आ भगवाने रागादिक शत्रुओने जीत्या छे ते रागादिकना स्वरूपने अने तेना जयना उपायने जाणवापूर्वक ज जीत्या छे तेथी कहे छे के-छाद्मस्थिक चार ज्ञानवडे जे जाणे छे ते ज्ञापक कहेवाय छे. आ विशेषणोबडे आ भगवाननी स्वार्थसंपत्तिनो उपाय कह्यो (एटले के पोताना आत्माने ज गुण करनार कह्या), हवे स्वार्थसंपत्तिपूर्वक परार्थसंपत्तिपणाने छ विशेषणोवडे Ki कहे छ.-'तीर्ण' संसाररूपी सागरने तरी गयानी जेवाजे तरी गयेला, ते तीर्ण कहेवाय छे. तथा 'तारक' पोताना उपदेश Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ ॥६॥ प्रमाणे वर्तनारा बीजा जीवोने पण जे तारे छे ते तारक कहेवाय छे. तथा 'बुद्ध' जीवादिक तत्त्वो जेणे जाण्या छे ते वुद्ध कहेवाय छे. तथा बीजा प्राणीओने पण जीवादिक तत्त्वोने (उपदेश द्वारा) जणावनारा होवाथी बोधक कहेवाय छे. तथा 'मुक्त'-बाह्य अने आभ्यंतर ग्रंथिना बंधनमाथी मुक्त-रहित थयेला. तथा तेज ग्रंथिबंधनथी बीजा प्राणीओने मूकावनारा होवाथी मोचक कहेवाय छे. तथा मुक्तपणुंछतां पण 'सर्वज्ञ' अने 'सर्वदर्शी (सर्व पदार्थोंने जाणनार अने सर्व पदार्थोंने जोनार) एवा परंतु अन्य दर्शनीओए मुक्तावस्थामा पुरुष (आत्मा) ने जड थवा रूप मान्यो छे, एवा आ भगवान नथी. तथा सिद्धिगति नामनुं स्थान के जे सर्व प्रकारनी बाधा-पीडा रहित होवाथी 'शिव' सुखकारक छे, स्वाभाविक अथवा बीजाना प्रयोगथी (प्रेरणाथी) चालवाना हेतुनो अभाव होवाथी 'अचल' अचळ छे, शरीर अने मन नहीं होवाथी 'अरुज' रोग रहित छ, अनंत अर्थना विपयवाळा ज्ञानस्वरूप होवाथी 'अनंत'छे, सादिअनंतस्थितिपणुं होवाथी 'अक्षय' नाश रहित छ, अथवा पूर्णिमाना चंद्रमंडळनी जेम परिपूर्ण होवाथी 'अक्षत' छ, पीडा करनार नहीं होवाथी 'अव्यावाध , तथा संसारमा अवतरवाना कारणभूत कर्मनो अभाव होवाथी ' अपुनरावर्तक' फरीथी कोइ वार पण ज्यांथी संसारमा आववापणुं नथी, ए, सिद्धिगति नामर्नु जे 'स्थान' एटले जेने विपे जीव कमें करेला विकारना रहितपणे निरंतर अवस्थित रहे ते स्थान अर्थात् क्षीण कर्मवाळा जीवनुं स्वरूप अथवा लोकाग्र नामर्नु स्थान. अहीं सर्व विशेषणो आत्मस्वरूपनां छे, ते लोकायनां विशेषणो तरीके कयां छे, ते आधेय (जीव ) ना धर्मों (गुणो) नो आधारमा ( लोकाग्रमां) आरोप कयों छे एम जाणवू. आवा प्रकारना स्थानने पामवानी इच्छावाळा भगवान छे, पण हजु तेने पामेला नथी; कारण के ते स्थानने जो पामेला होय तो तेने इंद्रियो नहीं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवाथी प्ररूपणा करी शके नहीं. अहीं 'पामवानी इच्छावाळा' एम जे कयुं ते उपचारथी का छे, कारण के केवळी भगवान इच्छा रहित ज होय छे. ते विषे का छे के-" उत्तम मुनि मोक्षने विषे अने संसारने विपे सर्वत्र निःस्पृह-इच्छा रहित ज होय छे." आ प्रमाणे असंख्य गुणसमूहरूपी संपदाए करीने सहित एवा भगवाने 'इमं आ एटले हमणां ज कहेवातुं होवाथी प्रत्यक्ष, समीपे रहेलं अने 'द्वादशांग' जेमां बार अंग रहेला छे एवं 'गणिपिटक' आचार्य- पिटक जेवू पिटक (पेटी)। एटले के जेम वालंजुक वणिकनी पेटी सर्वस्वना आधारभूत होय छे, तेम आचार्यने द्वादशांगरूपी पेटी ज्ञानादिक गुणरत्नरूप, सर्वस्वना आधारभूत छे. आबु गणिपिटक भगवाने 'प्रज्ञप्तं' कहुं छे एटले के तीर्थकरनामकर्म उदयमां वर्ततुं होवाथी पाये कृतार्थ होवा छतां पण परोपकारने माटे प्रकाश्युं छे. 'तद्यथा' ए शब्द उदाहरण देखाडवा म अर्थ सुगम छे, तेमनी व्युत्पत्ति विगेरे शब्दार्थ आगळ कहेवामां आवशे. 'तत्थ णं' ते बार अंगने विष ('ण' शब्द वाक्यना अलंकार माटे लख्यो छे) जे चोथु अंग समवाय एवा नामर्नु कयुं छे तेनो आ अर्थ छे. आत्मा विगेरे शब्दो आ समवायना | अभिधेय छे एम अध्याहार जाणवो. 'तद्यथा' ए शब्द वाचनांतरना बीजा संबंधना सूत्रनी व्याख्या जणाववा माटे छे. अहीं पदार्थना समूहने कहेनारा विद्वान पुरुषे अनुक्रमे ज आ ( समवाय ) कहेवो जोइए एवो न्याय छे, तेथी तेमां आचार्यमहाराज एकत्व विगेरे संख्याना क्रमना संबंधवाळा अर्थों कहेवानी इच्छावाळा होवाथी प्रथम एकत्व सहित एवा पदार्थोंने अने तेमां पण सर्व पदार्थोनो भोगी आत्मा होवाथी-तेनुं प्रधानपणुं होवाथी आत्मादिक पदार्थोने, तेम ज सर्व वस्तु १ आ शब्द संज्ञावाचक छे के विशेषण छे ते समजातुं नथी. कोषमा ए शब्द नथी. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ श्री समवायाङ्ग -सूत्र ॥७॥ प्रतिपक्ष सहित होय छे तेथी प्रतिपक्ष सहित एवा आत्मादिक पदार्थोने 'एगे आया' इत्यादिक अढार सूत्रोवडे कहे छे. आ पदार्थों प्राये स्थानांगमां कहेला छे, तो पण अहीं कांइक कहेवाय छे.'.: मू०-एगे आया, एगे अणाया, एगे दंडे, एगे अदंडे, एगा किरिआ, एगा अकिरिआ, एगे लोए, एगे अलोए, एगे धम्म, एगे अधम्मे, एगे पुण्णे, एगे पावे, एगे बंधे, एगे मोक्खे, एगे आसवे, एगे संवरे, एगा वेयणा, एगा णिजरा ॥ १८॥१॥ मूलार्थः-आत्मा एक छ, अनात्मा एक छ, दंड एक छे, अदंड एक छ, क्रिया एक छे, अक्रिया एक छे, लोका एक छ, अलोक एक छे, धर्म एक छे, अधर्म एक छे, पुण्य एक छ, पाप एक छे, बंध एक छे, मोक्ष एक छ, आश्रव एक छ, संवर एक छे, वेदना एक छे, निर्जरा एक छे. १८. टीकार्थ:-अहीं ' कथंचित् ' कोइ पण प्रकारे एटले कोइ पण अपेक्षाए ए शब्दनो अध्याहार समजवो. आ अध्याहार सर्व सूत्रोने विषे लेवानो छे. तेमां जीव प्रदेशार्थपणाए करीने असंख्यात प्रदेशवाळो छे, तो पण द्रव्यार्थपणाए करीने (द्रव्यनी अपेक्षाए) एक छे. अथवा क्षणे क्षणे पूर्वना स्वभावनो त्याग अने अपर (उत्तर-पछीना) स्वरूपनी उत्पत्तिना योगे करीने अनंत भेदवाळो (जीव ) छे, तो पण भूत, भविष्य अने वर्तमान ए त्रणे काळमां अनुगामी ( रहेला) एक चैतन्य माननी १. स्थानांगमा विस्तारथी कह्यां छे, अहीं संक्षेपथी कहेवाय छे. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थ अपेक्षाए एक ज आत्मा छ, अथवा संतान संतान प्रत्ये चैतन्यनो भेद (जुदा जुदा चैतन्य ) होवाथी अनंत आत्माओ छतां पण संग्रह नयने आश्रीने रहेला सामान्य रूपनी अपेक्षाए आत्मा एक ज कहेवाय छे. १. . . तथा आत्मा नहीं ते अनात्मा एटले घट विगेरे कोइ पण पदार्थ. ते पदार्थ पण प्रदेशार्थपणाए करीने संख्याता, असंख्याता JAYIL अने अनंता प्रदेशवाळो छ तो पण तेवा प्रकारना एक परिणामरूप द्रव्यार्थनी अपेक्षाए एक ज छे. ए ज प्रमाणे संताननी अपेक्षाए पण जाणवू. तुल्यरूपनी अपेक्षाए कहीए तो जो के धर्मास्तिकायादिक अनात्मा कथंचित भिन्न स्वरूपवाळा छे तो पण तेमनुं अनुपयोगरूप लक्षण एक सरखं ज होवाथी एकण्णा जाणवू. २. ____ तथा दंड एक छे. अहीं दंड एटले मन, वचन अने कायाने खोटे मार्गे प्रवर्ताववा ते. ( मनोदंड, वाग्दंड, कायदंड) अथवा हिंसा मात्र (केवळ हिंसा) पण दंड कहेवाय छे. आनुं एकपणुं सामान्य नयनी अपेक्षाए जाणवं. एज प्रमाणे सर्वत्र एकपणुं जाणवू. ३. तथा अदंड एक छे. एटले के प्रशस्त मन, वचन अने कायाना योग अथवा केवळ अहिंसा पण अदंड कहेवाय छे.४. तथा क्रिया एक छे. एटले कायिकी विगेरे ( काया, वचन अने मन संबंधी)क्रिया अथवा केवळ आस्तिक्य (आस्तिकपणुं ) ए क्रिया कहेवाय छे. ते एक छे. ५. तथा अक्रिया एटले योगनो निरोध अथवा नास्तिकपणुं, ते पण एक ज छे. ६. तथा लोक एटले स्वर्ग, मृत्यु अने पाताल एम त्रण प्रकारनो अथवा असंख्याता (आकाश) प्रदेशवाळो (चौद राजप्रमाण लोक) १. उत्तरोत्तर परंपरा अर्थात् क्षणे क्षणे चैतन्यमा फेरफार थाय ते. జాతుల - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग ।। छतां पण द्रव्यार्थनी अपेक्षाए एक ज लोक छे. ७. तथा अलोक अनंत (आकाश) प्रदेशवाळो छतां द्रव्यार्थनी अपेक्षाए एक ज समवायाङ्ग छे. ८. अथवा आ वे सूत्रो लोक अने अलोक घणापणुं दूर करवा माटे कह्या छे, केमके केटलाक अन्य दर्शनीओ घणा लोक माने छे अने तेनाथी विलक्षण अलोक. पण तेटला ज माने छे. आ प्रमाणे सर्वत्र एटले धर्म अधर्म विगेरेने विषे पण गमनिका करवी-भावार्थ कहेवो. विशेष आ प्रमाणे-धर्म एटले धर्मास्तिकाय ९, अधर्म एटले अधर्मास्तिकाय १०, पुण्य एटले शुभ कर्म ११, पाप एटले अशुभ कर्म १२, बंध एटले जीवने कर्म पुद्गलनो संयोग थवो ते. आ बंध सामान्यपणे एक ज छे अथवा सर्व कर्मना बंधनो व्यवच्छेद (नाश) थाय त्यारे फरीथी बंध थतो नथी तेथी एक ज बंध छे. १३. आ रीते जल मोक्ष १४, आश्रव १५, संवर १६, वेदना १७ अने निर्जरा १८ ए सर्वनु एकपणुं जाणवू. अहीं प्रथम अनात्म शब्दनुं ग्रहण करी सर्वे उपयोग रहित ( अचेतन ) पदार्थोनुं (लोक-अलोक विगेरेनु) एकपणुं कहीने फरीथी लोकादिकनु एकपणुं जे No कह्यु ते सामान्य अने विशेषनी अपेक्षाए कयुं छे एम जाणवू. (एटले के प्रथम अनात्मानुं एकत्व कयुं ते आत्मा सिवाय सर्व पदार्थोनु सामान्यपणे एकत्व कडं अने पछी लोक अलोक विगेरेनुं एकत्व कह्यं ते विशेषपणानी अपेक्षाए कडं छे.) १. Me...आ प्रमाणे सर्व शास्त्रोमां विस्तारथी कहेला आत्मादिक दरेक पदार्थोनुं एकत्व कहीने हवे पोतानी मेळे परिणाम पामेला पदार्थोर्नु एकत्व कहे छे. मू०-जंबुद्दीवे दीवे एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते १ । अप्पइट्ठाणे नरए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते २ । पालए जाणविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते ३ । सबढसिद्धे महाविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते ४ । अदानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते ५। चित्तानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते ६। सातिनक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते ७। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता १ । Nइमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइआणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता २। दोच्चाए पुढवीएम | नेरइयाणं जहन्नेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एग पलि ओवमं ठिई पन्नत्ता ४ । असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता ५। असुरकुमारिंदवज्जियाणं भोमिज्जाणं देवाणं अत्थेगइआणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता ६ । असंखिज्जवासाउयसनिपचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगइआणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता ७। असंखिजवासाउयगब्भवतियसंणिमणुयाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता ८। वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता ९ । जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एगं Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चो) समवायाङ्ग सूत्र। all पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई पन्नत्ता १० । सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं एगं पलि अंग॥ ओवमं ठिई पन्नत्ता ११ । सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्थेगइआणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता १२ । ईसाणे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता १३ । ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता १४ । जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता १५। आटमासस्स आणमंति वा पाणमांत वा उस्ससंति वा नीससंति वा १६ । IN तेसि णं देवाणं एगस्त वाससहस्सस्स आहारट्रे समुपज्जा १७। संतेगइया भवसिद्धिया जे जीवाला ते एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सबदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ १८॥ सूत्रम् ॥१॥ - मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामनो द्वीप आयाम अने विष्कंभ (लंबाइ अने पहोळाइ ) वडे एक लाख योजननो कह्यो छे. १। सातमी नरकपृथ्वीनो मध्यनो अप्रतिष्ठान नामनो नरकावास आयाम अने विष्कंभवडे एक लाख योजननो कह्यो छे. २। सौधर्मेंद्रनुं पालक नामर्नु यानविमान आयाम अने विष्कंभवडे एक लाख योजननुं कर्तुं छे.३। तथा सर्वार्थसिद्ध नामर्नु IN ॥९॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाविमान आयाम-विष्कंभवडे एक लाख योजननुं कडं छे. ४। आर्द्रा नक्षत्र एक तारावालं कहुं छे. ५ । चित्रा नक्षत्र एक तारावालं कडं छे. ६। तथा स्वातिनक्षत्र एक तारावालं कडं छे. ७ आ रत्नप्रभा नामनी नरकपृथ्वीना केटलाएक नारकीओनी एक पल्योपमनी स्थिति कही छे.१।आ रत्नप्रभा नामनी नरकपृथ्वीना नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपमनी कही छे. २ । बीजी नरकपृथ्वीना नारकीओनी जघन्य स्थिति एक सागरोपमनी कही छे. ३ । केटलाएक असुरकुमार देवोनी स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. ४ । असुरकुमार देवोनी उत्कृष्ट स्थिति साधिक (कांइक अधिक) एक सागरोपमनी कही छे. ५ । असुरकुमारेंद्रने वर्जीने (असुरकुमारेंद्र सिवायना) बीजा केटलाक भवनपति देवोनी स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. ६ । असंख्याता वर्पना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यच योनिवाळा केटलाक (युगलिक) जीवोनी स्थिति एक पल्योपमनी कही छे.७ असंख्याता वर्षना आयुष्यवाळा गर्भव्युत्क्रांतिक (गर्भज ) संज्ञी केटलाक (युगलिक) मनुष्योनी स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. ८. । वानव्यंतर देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. ९ । ज्योतिषी देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम अने एक लाख वर्ष अधिक कही छे. १०। सौधर्म कल्पना देवोनी जघन्य स्थिति एक पल्योपमनी कही छे. ११ । सौधर्म कल्पना केटलाक देवोनी स्थिति एक सागरोपमनी कही छे. १२ । ईशान कल्पना देवोनी जघन्य स्थिति साधिक (काइक अधिक ) एक पल्योपमनी कही छे. १३ । ईशान कल्पना केटलाक देवोनी स्थिति एक सागरोपमनी कही छे. १४ । जे देवो सागर, सुसागर, सागरकांत, भव, मनु, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ १० ॥ मानुषोत्तर अने लोकहित नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपमनी कही छे. १५ | ते देवो एक अर्धमासे एटले एक एक पखवाडीए आणप्राण ले छे एटले के उच्छ्वास निःश्वास ले छे. १६ । ते देवोने एक हजार वर्षे आहारनो अर्थ ( इच्छा ) उत्पन्न थाय छे. १७ । जेनी सिद्धि थवानी छे एवा (भव्य ) जे केटलाक देवो छे, तेओ एक ( मनुष्यना ) भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, एटले के सर्व दुःखोनो अंत करशे. १८ ॥ सूत्र ॥ १ ॥ टीकार्थ:-- अहीं 'जंबुद्दीवे ' विगेरे प्रथमनां सात सूत्रो आश्रयविशेषनां छे ( एटले के जंबूद्वीप, अप्रतिष्ठान नरक, 'पालक विमान अने सर्वार्थसिद्ध विमान ए चार तथा आर्द्रा, चित्रा अने स्वाति ए त्रण नक्षत्र मळी कुल सात सूत्रो स्थान - पृथ्वीने सूचन करनारा छे ) अने 'इमीसे णं रयण०' विगेरे अढार सूत्रो स्थित्यादिक धर्मवाळा ( स्थिति - आयुष्य विगेरेने एटले स्थिति, उच्छ्वास, निःश्वास, आहार अने मोक्षनी प्राप्तिने देखाडनारा ) छे ( एटले ते ते स्थाने रहेला जीवोनी स्थित्यादिक देखाडनारा छे.) ए सर्व सूत्रोनो अर्थ सुगम छे. तेमां जे विशेष कहेवा लायक छे, ते कहे छे. -- जंबूद्वीपना सूत्रमां ' आयाम - विष्कंभवडे ' एवो कोइ ठेकाणे पाठ देखाय छे, अने कोइ ठेकाणे चक्रवाल विष्कंभवडे एवो पाठ छे. मां प्रथम पाठ ठीक संभवे छे, केमके अन्य स्थळे पण तेवो पाठ सांभळवामां छे. तेनो अर्थ सुगम छे. अने बीजा पाठनो अर्थ आ प्रमाणे छे. चक्रवाल विष्कंभवडे एटले गोळ विस्तारवडे. अहीं लाख योजननुं जे प्रमाण कयुं छे ते प्रमाणांगुळना योजन समजवा. ते विषे कयुं छे के - " वस्तु ( पदार्थों ) नुं मान आत्मांगुले करवानुं छे, शरीरनुं मान उत्सेधांगुले चो अंग ॥ ॥ १० ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवानुं छे अने ( शाश्वत ) पर्वत, पृथ्वी तथा विमानतुं मान प्रमाणांगुले करवानुं छे.” (१) पालक नामनुं यानविमान एटले सौधर्मेंद्रना आभियोगिक पालक नामना देवे करेलं एटले विकुर्वेलु यान एटले गमन, तेने माटे जे विमान ते यानविमान, अथवा जेनावडे जवाय ते यान, अने यानरूपी जे विमान ते यानविमान, तेनुंबीजुं नाम पारियानिक कहेवाय छे. (३)। | . 'अत्थीत्यादि' अस्ति एटले छ, केटलाक नारकीओनी एक पल्योपमनी स्थिति, ए प्रमाणे करीने (ज्ञानवडे जाणीने) में तथा वीजा जिनेश्वरोए कहेली छे. आ चोथा पाथडामा रहेला नारकीओनी मध्यम स्थिति जाणवी. (१), एज प्रमाणे एक सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति तेरमा पाथडामा रहेला नारकीओनी जाणवी. (२) असुरेंद्रने वर्जीने एटले चमरेंद्र अने वलींद्रने वर्जीने बाकीना दश नीकायना'भोमेज्जाणं'भूमि एटले रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विपे थवापणुं (होवापणुं) होवाथी भवनपति देवोनी एक पल्योपमनी मध्यम स्थिति जाणवी. केमके तेमनी (नव नीकायनी) उत्कृष्ट स्थिति तो कांइक ओछी वे पल्योपमनी कही छे. ते विषे का छे के-" नव नीकायमां दक्षिण तरफना भवनपतिनी उत्कृष्ट स्थिति दोढ पल्योपमनी छे अने उत्तर तरफना भवनपतिनी उत्कृष्ट स्थिति कांइक ओछी वे पल्योपमनी छे." (६). जेमनुं आयुष्य असंख्याता वपर्नु छ तेवा जे संज्ञी एटले मनवाळा पंचेंद्रिय तियंच योनि एटले तिर्यंचो छ तेओमांना केटलाक एटले जेओ हैमवंत अने ऐरण्यवंत क्षेत्रमा उत्पन्न थयेला युगलिक होय छे, तेओनी एक पल्योपमनी स्थिति छे. (७). एज प्रमाणे मनुष्य संबंधी सूत्र पण जाणवू. तेमा विशेष ए के-गर्भाशयने विषे जेमनी उत्पत्ति होय ते गर्भव्युत्क्रांतिक कहेवाय छ, अर्थात् संमृर्छिम मनुष्य नहीं. (८). वानमंतर देवो एटले देवीओ नहीं पण देवो ज जाणवा, केमके देवीओनी अर्ध पल्योपमनी स्थिति कहेली छे. (९). ज्यो Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ ११ ॥ तिपी देवो एटले चंद्र विमानना देवो, पण सूर्यादिक देवो न जाणवा. तेम ज चंद्रादिकनी देवीओ पण न जाणवी; केमके " चंद्र विमानना देवोनुं ज आयुष्य एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपमनुं जाणवुं एवं वचन छे. " (१०) सौधर्म कल्पना देवो एटले देव अने देवीओ बन्ने ग्रहण करवा, केमके सौधर्म कल्पमां एक पल्योपमथी ओछी स्थिति जघन्यथी पण नथी. आ स्थिति पहेला प्रस्तर ( पाथडा ) मां जाणवी. (११). सौधर्म कल्पमा रहेला केटलाक देवोनी एक सागरोपमनी स्थिति छे एम कयुं, त्यां देवोनुं ज ग्रहण जाणवुं, देवीओनुं ग्रहण जाणवुं नहीं; केमके त्यांनी देवीओनी उत्कृष्ट स्थिति पण पचास पल्योपमनी छे. तथा अहीं देवोनी जे एक सागरोपमनी स्थिति कही ते मध्यम स्थितिनी अपेक्षाए "जाणवी, केमके त्यां उत्कर्षथी वे सागरोपमनी स्थितिनुं होवापणुं छे. प्रस्तरनी अपेक्षाए कहीए तो आ मध्यम स्थिति सातमा प्रस्तरमां जाणवी. (१२). ईशान कल्पमा रहेला देवोनी जघन्य स्थिति जे कांइक अधिक एक पल्योपमनी कही, ते देव अने देवी बन्नेनी जाणवी; कारण के ते ईशान देवलोकमां साधिक एक पल्योपम विना बीजी जघन्य स्थिति छेज नहीं. (१३). ईशानकल्पमां केटलाक देवोनी एक सागरोपमनी स्थिति कही छे ते देवोनी ज स्थिति ग्रहण करवी. पण देवीओनी न जाणवी, केमके ते ईशानकल्पमां देवीओनी उत्कृष्ट स्थिति पण पंचावन पल्योपमनी ज छे. (१४). तथा जे देवो सागर-सागर नामना, ए ज प्रमाणे सुसागर, सागरकांत, भव, मनु, मानुषोत्तर अने लोकहित, अहीं समुच्चयनुं जणाववापं होवाथी 'च' शब्द अध्याहारथी जाणवो, आ नामना विमानने एटले देवोने निवास करवाना स्थानने पामीने, अहीं 'आसाद्य' - पामीने ए अध्याहार जाणवो, आ विमानाने पामीने जेओ देवपणे ( उत्पन्न थया छे.) पण चोथुं अंग ॥ . ॥ ११ ॥ 1 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवीपणे नहीं, केमके देवीओनी सागरोपमनी स्थिति संभवती नथी. ते देवोनी सागरोपमनी स्थिति छे. आ सर्व विमानो सातमा प्रस्तरमा रहेला छे, एम जाणवुं. (१५). स्थितिने अनुसारे देवोने उच्छ्वासादिक होय छे, तेथी तेने बतावे जे. - ' ते णं' इत्यादि, जे देवोनी एक सागरोपमनी स्थिति छे. ते देवो ( ' णं ' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे ) अर्ध मासने अंते (अहीं ' अन्ते ' शब्दनो अध्याहार छे ) आणप्राण ले छे. आ शब्दोनुं ज अनुक्रमे व्याख्यान (अर्थ) करता सता कहे छे के - उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे. अहीं 'वा' शब्दो विकल्पना अर्थवाळा छे. (१६) तथा ते ज देवोने एक हजार वर्ष अंते ( अहीं पण 'अन्ते' शब्दनो अध्याहार छे ) आहारार्थ - आहारनुं प्रयोजन एटले के आभोगथी (उपयोगपूर्वक- इच्छापूर्वक) आहारना पुद्गलोनुं ग्रहण थाय छे. परंतु अनाभोगथी तो विग्रहगति सिवाय बीजे ठेकाणे दरेक समये ( समये समये ) आहारनुं ग्रहण थाय छे. ते विषे कह्युं छे के " जेनी (जे देवनी) जेटला सागरोपमनी स्थिति होय छे, तेने तेटला पखवाडीआए उच्छ्वास होय छे अने तेटला हजार वर्षे आहार होय छे. " (१७). जेमनी सिद्धि-मुक्ति थवानी .छे एवा भवसिद्धिक ( भव्य ) प्राणीओ केटलाएक छे के जेओ एक भवना एटले मनुष्यजन्मना ग्रहण करवा वडे आठ प्रकारनी समृद्धिं पामवावडे करीने सिद्ध थशे, केवळज्ञानवडे तत्त्वने जाणशे, कर्मराशिथकी मुक्त थशे अने कर्मे करेला • विकार रहित थवाथी शीतळ थशे अर्थात् सर्व दुःखोनो अंत करशे. (१८). सामान्य नयनो आश्रय करीने वस्तुनुं एकपणुं कहीने हवे विशेष नयनो आश्रय करीने वस्तुओनुं वेपणुं कहे छे. १. आठ कर्मना क्षयथी थयेला क्षायिक भावना आठ गुण - तद्रूप समृद्धि. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ --॥१२॥ . मू०-दो दंडा पन्नत्ता, तं जहा-अट्ठादंडे चेव, अणट्ठादंडे चेव १ । दुवे रासी पन्नत्ता, तं जहा-जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव २ । दुविहे बंधणे पन्नत्ते, तं जहा-रागबंधणे चेव, दोसवंधणे व ३ ॥ पुवाफग्गुणी नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते १ । उत्तराफग्गुणी नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते २ । पुवाभद्दवया नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते ३ । उत्तराभद्दवया नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते ४॥ - इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दो पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १ । दुच्चाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं a अत्थेगइयाणं दोपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । असुरकुमारिंदवजियाणं भोमिज्जाणं देवाणं उक्को सेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । असंखिज्जवासाउयसंनिपंचेंदियतिरिक्खजोणिआणं अत्थेगइयाणं दोपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ५। असंखिज्जवासाउयगब्भवक्कंतियसन्निपंचेंदियमाणुस्साणं अत्थेगइयाणं दोपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ६। सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ७ । ईसाणे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओ- l ॥ १२ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वमाइं ठिई पन्नत्ता ८।सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ९। ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियाइं दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता १० । सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ११ । माहिदे कप्पे देवाणं जहपणेणं साहियाइं IN दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता १२ । जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता १३ ॥ ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ ।। तेसि णं देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २। अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्सति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३॥ सूत्रम्-२॥ - मूलार्थः-दंड वे कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अर्थदंड अने अनर्थदंड (१). राशि वे कहेली छे, ते आ प्रमाणे-जीवराशि अने अजीवराशि (२). बंधन वे प्रकारना कह्या छे, ते आ. प्रमाणे-रागबंधन अने द्वेषबंधन (३). Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रना ये तारा कह्या छ (१). उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रना बे तारा कया छे (२). पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रना समवायाग वे तारा कह्या छे. (३). उत्तराभाद्रपद नक्षत्रना वे तारा कया छे. (४) . आरत्नप्रभा पृथ्वीमा रहेला केटलाक नारकीनी वे पल्योपमनी स्थिति कही छे (१). बीजी पृथ्वीमा रहेला केटलाक ॥१३॥ नारकीओनी वे सागरोपमनी स्थिति कही छे (२). केटलाक असुरकुमार देवोनी वे पल्योपमनी स्थिति कही छे (३). केट लाक असुरकुमारेंद्र(नीकाय)ने वर्जीने वीजा (नव नीकायना) भवनवासी देवोनी उत्कृष्ट स्थिति कांइक ओछा वे पल्योपमनी IN कही छे (४). असंख्याता वर्पना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळा केटलाक (युगलिक) तिर्यंचोनी बे पल्यो पमनी स्थिति कही छे (५). असंख्याता वर्षना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय गर्भज केटलाक (युगलिक) मनुष्योनी वे पल्योपमनी स्थिति कही छे (६). सौधर्म कल्पमा केटलाक देवोनी वे पल्योपमनी स्थिति कही छे (७). ईशान कल्पमा रहेला केटलाक देवोनी ने पल्योपमनी स्थिति कही छे (८). सौधर्म कल्पमा रहेला केटलाक देवोनी उत्कृष्ट स्थिति के सागरोपमनी कही छे (९). ईशान कल्पमा रहेला देवोनी उत्कृष्ट स्थिति साधिक वे सागरोपमनी कही छे (१०). सनत्कुमार देवलोकमां रहेला देवोनी जघन्य बे सागरोपमनी स्थिति कही छे (११). माहेंद्र कल्पमा रहेला देवोनी जघन्य साधिक वे सागरोपमनी स्थिति कही छे (१२). जे देवो शुभ, शुभकांत, शुभवर्ण, शुभगंध, शुभलेश्य, शुभस्पर्श अने सौधवितंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय छे ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वे सागरोपमनी कही छे (१३). . ते देवो चे अर्धमासे ('बे पखवाडीयाने अंते) आन-प्राण ले छे एटले के उच्चास ले छे अने निःश्वास ले छ (१).. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते देवाने वे हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२). केटलाक भवसिद्धिक (जेमनी सिद्धि थवानी छे एवा भव्य ) atra छे के ओ वे भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे अने परिनिर्वाण पामशे, एटले के सर्व दुःखनो अंत करशे (३). सूत्र -२ ॥ कार्थ :- दो दंडे ' इत्यादि सूत्र द्विस्थानकनी समाप्तिपर्यंत सुगम छे. विशेष ए के दंड, राशि अने बंधनना अर्थवाला त्रण सूत्रोछे, नक्षत्रना अर्थवाळा चार सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा तेर सूत्रो छे अने उच्छ्वासादिकना त्रण सूत्रो छे. मां अर्थवडे एटले स्व-परना उपकार करनार प्रयोजनवडे जे दंड - हिंसा ते अर्थदंड कहेवाय छे अने तेनाथी जे विपरीत ते अनर्थदंड कहेवाय छे (१). तथा रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे जे वे पल्योपमनी स्थिति कही, ते चोथा प्रस्तटने विषे रहेला नारकोनी मध्यम स्थिति • जाणवी (१), अने बीजी पृथ्वीने विषे जे वे सागरोपमनी स्थिति कही, ते छट्ठा प्रस्तटने विपे रहेला नारकोनी मध्यम स्थिति जाणवी, (२) तथा असुरेंद्रने वर्जीने वीजा भवनवासी देवोनी जे कांइक न्यून वे पल्योपमनी (उत्कृष्ट) स्थिति कही ते उत्तर तरफना नागकुमारादिक नव नीकायने आश्रीने जाणवी. ते विपे कधुं छे के उत्तर तरफना ( नागकुमारादिक ) असुरोनी स्थिति कiss न्यून वे पल्योपमनी छे (४). तथा असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचो अने मनुष्योनी जे वे पल्योपमनी स्थिति कही ते हरिवर्ष अने रम्यकवर्षमां जन्मेला तिर्यंच - मनुष्यो (युगलिक ) नी जाणवी (५-६). ॥ सूत्र-२ ॥ हवे त्रण स्थानक कहे छे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ PPT मू-तओ दंडा पन्नत्ता, तं जहा-मणदंडे, वयदंडे, कायदंडे १ । तओ गुत्तीओ पन्नत्ताओ, मवायाङ्ग नातं जहा-मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती २ । तओ सल्ला पन्नत्ता, तं जहा-मायासल्ले णं, नियाण सल्ले णं, मिच्छादसणसल्ले णं ३ । तओ गारवा पन्नत्ता, तं जहा-इड्ढीगारवे णं, रसगारवे णं, सायागारवे णं ४ । तओ विराहणा पन्नत्ता, तं जहा-नाणविराहणा, दंसणविराहणा, चरित्तविराहणा ५ ॥ मिगसिरनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते १ । पुस्सनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते २ । जेहानक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ३ । अभीइनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ४ । सवणनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ५। अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ६ । भरणीनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ७॥ ... इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तिन्नि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १ । दोच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णेणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिणि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ ।असंखिज्जवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं - ॥ १४ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिणि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ५। असंखिजवासाउयसन्निगब्भवक्रांतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ । सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तिण्णि पलिओवमाइं | ठिई पन्नत्ता ७। सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ८ । जे देवा आभंकरं पभकरं आभंकरपभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्परं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंगं चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तरवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि Fall णं देवाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ९ ॥ H. ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ । | तेसि णं देवाणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्सति सबदुक्खाणमंतं करिस्सति ३ ॥ सूत्रम्-३॥ मूलार्थः-त्रण दंड कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मनदंड, वचनदंड, कायदंड (१). त्रण गुप्ति कही छे, ते आ प्रमाणे-- Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति (२). त्रण शल्य कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य (३). त्रण गारव कह्या छे, ते आ प्रमाणे--ऋद्धिगारव, रसगारव, सातागारव (४). त्रण विराधना कही छे, ते आ प्रमाणेज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चारित्रविराधना (५). - मृगशीर्ष नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छ (१). पुष्य नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छे (२). ज्येष्ठा नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छे (३), अभिजित् नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छ (४), श्रवण नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छे (५). अश्विनी नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छे (६). भरणी नक्षत्रना त्रण तारा कह्या छे (७). आ रत्नप्रभा पृथ्वीना केटलाक नारकीओनी त्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे (१). बीजी पृथ्वीना नारकीनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण सागरोपमनी कही छे (२). त्रीजी पृथ्वीना नारकीनी जघन्य स्थिति त्रण सागरोपमनी कही छे (३). केटलाक असुरकुमार देवोनी त्रण पल्योपमनी स्थिति कही छे (४). असंख्य वर्षना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळा (युगलिक)नी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी कही छे (५). असंख्य वर्पना आयुष्यवाळा संज्ञी गर्भज मनुष्यो(युगलिक)नी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी कही छे (६). सौधर्म अने ईशान देवलोकमां रहेला केटलाक देवोनी स्थिति त्रण पल्योपमनी कही छे (७). सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पना केटलाक देवोनी त्रण सागरोपमनी स्थिति कही छे. (८) जे देवो आभंकर, प्रभंकर, आभंकरप्रभंकर, चंद्र, चंद्रावर्त, चंद्रप्रभ, चंद्रकांत, चंद्रवर्ण, चंद्रलेश्य, चंद्रध्वज, चंद्रशृंग, चंद्रसृष्ट, चंद्रकूट अने चंद्रोत्तरावतंसक नामनाः विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण सागरोपमनी कही छे (९).. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ते देवोत्रण अर्धमासे (त्रण पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले के उच्छास ले छे, निःश्वास ले छ (१). ते देवोने त्रण हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२). केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो एवा छे के जेओत्रण भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अथ दुःखोनो अंत करशे (३). टीकार्थः-'तओ' इत्यादि सर्व सूत्र सुगम छे. विशेष एके-अहीं (आ सूत्रमां) दंड, गुप्ति, शल्य, गारव अने विरा-1 धना आ अर्थवाळा पांच सूत्रो छे. नक्षत्रना अर्थवाळा सात सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा नव सूत्रो छे अने उच्छ्वासादिक अर्थवाळा त्रण सूत्रो छे. तेमां जेनावडे आत्मा चारित्ररूपी ऐश्वर्यनो विनाश करी असार (सार रहित) करे, ते दंड एटले कुमार्गे प्रवर्तावेला मन विगेरे. मनरूपी जे दंड ते मनोदंड, अथवा कुमार्गे प्रवर्तावेला मनवडे जे आत्माने दंडवो ते मनोदंड कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे बीजा बे (वचनदंड अने कायदंड ) पण जाणवा (१). तथा गोपवq ते गुप्ति कहेवाय छे. एटले के मन विगेरेनी अशुभ प्रवृत्तिनो निरोध अने शुभ प्रवृत्तिनुं करवू ते (२). तथा तोमर ( भाला ) विगेरे शल्यनी जेवा शल्य एटले दुःखदायक होवाथी मायादिक शल्य कहेवाय छे. तेमां माया एटले निकृति (कपट) रूपी जे शल्य ते मायाशल्य कहेवाय छे. अहीं सूत्रमा 'ण' शब्द लख्यो छे ते अलंकारने माटे छे. ए ज प्रमाणे बीजा वे शल्यो पण जाणवा. विशेष ए | के निदान एटले देवादिकनी समृद्धि देखवाथी के सांभळवाथी जीव पोते विचार करे के-'आ ब्रह्मचर्यादिकन अनुष्ठान करवाथी मने आवी समृद्धि हो ( प्राप्त थाओ)' ए प्रमाणे मननो अध्यवसाय करवो ते, अने मिथ्यादर्शन एटले तत्त्वार्थने Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग॥ BE व विषे श्रद्धा न करता अतवने विषे श्रद्धा करवी ते (३). तथा गाव एटले अभिमान अने लोभवडे जीवने अशुभ भावनी मोटाइ समवायाङ्ग प्राप्त थाय ते. आ मोटाइ संसारचक्रमां भटकवाना हेतुरूप कर्मबंधना कारणभूत छे. तेमां राजादिकनी तथा पूज्य आचार्या दिकनी समृद्धिवडे गौरव (मोटाइ) एटले के ऋद्धिनी प्राप्ति थइ होय तो तेना अभिमानद्वाराए अने ऋद्धिनी प्राप्ति न थइ होय G तो तेनी प्राप्तिनी प्रार्थनाद्वाराए आत्माने जे अशुभ भावनी मोटाइ प्राप्त थाय ते ऋद्धिगारव. एज प्रमाणे रसवडे जे गौरव ते रसगौरव अने साता (सुख) वडे ते गौरव ते सातागौरव कहेवाय छे (४). तथा विराधना एटले खंडना. तेमां ज्ञाननी No जे विराधना ते ज्ञानविराधना एटले ज्ञाननी शत्रुता अने निवव-छुपावq विगेरे कर ते. ए जरीते वीजी वे विराधना पण जाणवी. विशेष ए के दर्शन एटले क्षायिकादिक सम्यक्त्व अने चारित्र एटले सामायिकचारित्र विगेरे (५). व तथा असंख्यात वर्षना आयुष्यवाळा संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यचो अने मनुष्योनी उत्कृष्ट स्थिति त्रण पल्योपमनी कही छे, ते । देवकुरु अने उत्तरकुरुमां जन्मेला (युगलिक) तियंच-मनुष्योनी जाणवी (५-६). तथा आभंकर, प्रभंकर, आभंकरप्रभंकर, चंद्र, चंद्रावर्त, चंद्रप्रभ, चंद्रकांत, चंद्रवर्ण, चंद्रलेश्य, चंद्रध्वज, चंद्रशृंग, चंद्रसृष्ट, चंद्रकूट अने चंद्रावतंसक, ए नामनां विमानो छे.||३॥ - हवे चार स्थानक कहे छे. मू०-चत्तारि कसाया पन्नत्ता, तं जहा-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए १।चत्तारि झाणा पन्नत्ता, तंजहा-अदृज्झाणे रुद्दज्झाणेधम्मज्झाणे सुकज्झाणे २। चत्तारि विगहाओ पन्नत्ता, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं जहा - इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा ३। चत्तारि सण्णा पन्नत्ता, तं जहा - आहारसण्णा भण्णा मेणसण्णा परिग्गहसण्णा ४ । चउविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा - पगड़बंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे पर बंधे ५ । चउगाउए जोयणे पन्नत्ते ६ ॥ अरहानक्खते उतारे पन्नत्ते १ । पुव्वासाढानक्खते चउतारे पन्नत्ते २। उत्तरासाढानक्खत्ते चउतारे पन्नत्ते ३ ॥ इसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता १ । तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चत्तारि पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ३ | सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ | सणकुमारमा हिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा किट्ठि सुकिट्ठि किट्टियावत्तं किट्टिप्पभं किट्टित्तं किट्टिवण्णं किट्टिलेसं किट्टिज्झयं किट्ठिीसिंगं किट्टिसिद्धं किटिकूडं किट्टुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग। सूत्र॥ उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ ॥ समवायाज ... ते णं देवा चउण्हऽद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ । तेसिं देवाणं चउहि वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पज्जइ २। अत्थेगइया भवसिद्धियाजीवा जे चउहिं ॥१७॥ भवग्गहणहिं सिज्झिस्संति जाव सबदुक्खाणं अंतं करिस्संति ३॥ सूत्रम् ४ ॥ ... मूलार्थ:-चार कषाय कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्रोधकषाय, मानकपाय, मायाकपाय, लोभकपाय (१)। चार । ध्यान कया छे, ते आप्रमाणे-आध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान (२)। चार विकथा कही छे, ते आ प्रमाणे स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा (३)। चार संज्ञा कही छे, ते आ प्रमाणे-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा (४)। चार प्रकारनो बंध कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभावबंध, प्रदेशबंध (५)। चार गाउनो एक योजन कह्यो छे (६)॥ - अनुराधा नक्षत्रना चार तारा कह्या छे (१)। पूर्वापाढा नक्षत्रना चार तारा कह्या छे (२)। उत्तरापाढा नक्षत्रना चार तारा कह्या छे (३)। - आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीओनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। त्रीजी पृथ्वीने विपे केटलाक १७॥ प Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकीओनी चार सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)।। सौधर्म अने ईशान कल्पने विपे केटलाक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। सनत्कुमार अने माहेंद्रकल्पने विपकेटलाक देवोनी चार सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टिकावर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, । कटिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिशृंग, कृष्टिशिष्ट, कृष्टिकूट अने कृष्टयत्तरावतंसक नामना विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपमनी कही छे (६)॥ ते देवो चार अर्ध मासे (चार पखवाडीयाने छेडे) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छ (१ ते देयोने चार हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छ के चार भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) सूत्र-४ ॥ टीकार्थ:-आ चार स्थान- सूत्र पण सुगम छे. विशेष ए के-कषाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बंध अने योजनने माटे छ सूत्र कह्यां छे, नक्षत्रने माटे त्रण कयां छे, स्थितिने माटे छ कयां छे, अने शेष त्रण सूत्र पूर्वनी जेम जाणवां.. ____एक अंतर्मुहर्त सुधी चित्तनी एकाग्रता अने मन, वचन, कायाना योगनो जे निरोध करवो, ते ध्यान कहेवाय छे. तेमां मनोज्ञ अने अमनोज्ञ वस्तुने विषे वियोग अने संयोगादिकने कारणे चित्तनो जे व्याक्षेप ते आर्तध्यान कहेवाय छे. चोरी अने धनना रक्षण माटे जे चित्तनी व्याकुळता ते रौद्रध्यान कहेवाय छे, आज्ञा विगेरे पदना (शब्दना) अर्थना स्वरूपनो विचार करवामां जे चित्तनी एकाग्रता ते धर्मध्यान कहेवाय छे. तथा चौद पूर्वमा रहेला श्रुतनुं अवलंबन । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चो, अंग॥ श्री:समवायाग सूत्र॥ ॥१८॥ करी मनने जे अति स्थिर राख अने योगनो जे निरोध करवो, ते शुक्लध्यान कहेवाय छे' (२)। तथा चारित्रने विरोध करनारी स्त्री विगेरे संबंधी जे कथा ते विकथा कहेवाय छे (३) । तथा असातवेदनीय अने मोहनीय कर्मना उदयथी प्राप्त थयेल आहारनी इच्छादि रूप जे चेतनाविशेप ते संज्ञा कहेवाय छे (४)। तथा जीव कपाय सहित होवाथी कर्मने योग्य एवा पुद्गलोने जे ग्रहण करे ते बंध कहेवाय छे. (ते बंध चार प्रकारनो छे) तेमां प्रकृति एटले कर्मना अंशो-भेदो जे ज्ञानावरणीयादिक आठ, तेनो जे बंध ते प्रकृतिबंध कहेवाय छ, तथा ते प्रकृतिओनी ज स्थिति एटले जघन्यादिकपणे रहेवू, तेनो जे बंध ते स्थितिबंध कहेवाय छे, तथा तीवादिक भेदवाळो जे विपाक ते अनुभाव एटले रस कहेवाय छे, तेनो जे बंध ते अनुभावबंध कहेवाय छे. तथा जीवना असंख्याता प्रदेशोने विषे कर्मना अनंतानंत प्रदेशो के जे दरेक कर्मप्रकृतिए नियत परिमाणवाळा छे तेनो जे बंध एटले संबंध ते प्रदेशबंध कहेवाय छ (५) । तथा कृष्टि, सुकृष्टि विगेरे वार विमानो पूर्वे कहेला विमानना नामने अनुसारे जाणवा. (६). सूत्र ४ ॥ - मू०-पंच किरिया पन्नत्ता, तं जहा-काइया अहिगरणिया पाउसिया पारितावणिया पाणाइ १ आर्तध्यान-इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोगचिंता, अग्रशौच. रौद्रध्यान-हिंसानुबंधी, मृपानुबंधी, स्तेयानुबंधी, संरक्षणानुबंधी. धर्मध्यान-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय. शुक्लध्यान-अन्यत्व पृथकत्व सविचार, एकत्व पृथक्त्व अविचार, सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति, समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति. ॥१८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायकिरिया १ । पंचमहत्वया पन्नत्ता, तं जहा-सवाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सबाओ मुसावायाओ वेरमणं, सबाओ अदत्तादाणाओ वेरमणं, सवाओ मेहूणाओ वेरमणं, सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं २ । पंच कामगुणा पन्नत्ता, तं जहा-सदा रूवा रसा गंधा फासा ३ । पंच आसवदारा पन्नत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा ४। पंच संवरदारा पन्नत्ता, तं जहासम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया ५। पंच निजरवाणा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं ६ । पंच समिईओ पन्नत्ताओ, तं जहा-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिई ७।पंच अस्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए ८॥ ___ रोहिणी नक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते १ । पुणवसुनक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते २ । हत्थनक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते ३ । विसाहानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते ४ । धणिद्वानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते ५॥ - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ समवायाङ्ग ॥१९॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १।। - तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरझ्याणं पंचसागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पंचपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंचपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वायप्पभं वायकंतं वायवण्णं वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिटुं वायकूडं वाउत्तरवडिंसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंगं सूरसिटुं सूरकूडं सूरुत्तरवडिंसर्ग विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ ॥ ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं आणमति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १।। तेसि णं देवाणं पंचहि वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजइ २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति जाव अंतं करिस्सति ॥ सूत्रम्-५ ॥ -- Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मूलार्थः-पांच क्रिया कहेली छे, ते आ प्रमाणे-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी क्रिया (१)। पांच महाव्रत कह्या छे, ते आप्रमाणे-सर्वथा प्राणातिपातथकी विरम, सर्वथा मृषावादथी विरम, सर्वथा अदत्तादानथी विरम, सर्वथा मैथुनथकी विरम, सर्वथा परिग्रहथकी विरमवू (२)। पांच कामगुण कह्या छे,ते आ प्रमाणे-शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श (३)। पांच आश्रवद्वार कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग (४)। पांच संवरद्वार कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग (५)। पांच निर्जराना स्थान कह्या छे, ते आ प्रमाणे-प्राणातिपातथी विरम, मृषावादथी विरमवू, अदत्तादानथी विरम, मैथुनथी विरम, परिग्रहथी विर6 मg (६)। पांच समिति कही छे, ते आ प्रमाणे-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एपणासमिति, आदानभांडमात्रनिक्षेपणा समिति, उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल पारिष्ठापनिका समिति (७)। पांच अस्तिकाय कह्या छे, ते आ प्रमाणेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय (८)॥ रोहिणी नक्षत्रना पांच तारा कह्या छ (१)। पुनर्वसु नक्षत्रना पांच तारा कह्या छे (२)। हस्त नक्षत्रना पांच तारा कह्या छ (३) । विशाखा नक्षत्रना पांच तारा कह्या छे (४) । धनिष्ठा नक्षत्रना पांच तारा कह्या छे (५)॥ ..आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पांच पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। त्रीजी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पांच सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी पांच पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी पांच पल्योपमनी स्थिति कही छ (४) । सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पमां Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ US KAR अंग॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ E केटलाक देवोनी पांच सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकांत, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृंग, वातशिष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सुसूर, सूरावर्त, सूरप्रभ, सूरकांत, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृंग, सूरशिष्ट, सूरकूट अने सूरोतरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपमनी कही छे (६)॥ ते देवो पांच अर्ध मासे (पांच पखवाडीयाने छेडे) आन ले छे, प्राण ले छे,एटले उच्छासले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने पांच हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे. (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ पांच भव ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे यावत सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ .. टीकार्थ-पांच स्थानतुं सूत्र पण सुगम छे. विशेप ए के-क्रिया, महाव्रत, कामगुण, आश्रव, संवर, निर्जरास्थान, समिति अने अस्तिकायना अर्थवाळा आठ सूत्रो छे, नक्षत्रना अर्थवाळा पांच सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा छ सूत्रो छे अने उकासादिकना अर्थवाळा त्रण सूत्रो छे. तेमा क्रिया एटले विशेष प्रकारना व्यापार, तेमां कायावडे जे क्रिया नीपजे ते कायिकी एटले कायनी चेष्टा कहेवाय छे. जेनावडे आत्मा नरकादिकने विष अधिकार कराय (नरकादिमां जाय) ते अधिकरण कहेवाय छे. ते अधिकरणबडे जे क्रिया नीपजे ते आधिकरणिकी एटले खङ्गादिक बनाववा विगेरेनी क्रिया. प्रद्वेष एटले मत्सर, तेनावडे जे क्रिया नीपजे ते प्राद्वेषिकी कहेवाय छे. परितापन एटले ताडनादिक विशेष प्रकारनुं दुःख, तेनावडे जे नीपजेली क्रिया ते पारितापनिकी कहेवाय छे, अने पांचमी प्राणातिपातिकी क्रिया प्रसिद्ध K ॥२०॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुगम छे. (१) । तथा जे कामना कराय एटले इच्छाय ते काम कहेवाय छे. एवा (इच्छाता एवा जे) गुणो एटले शब्दादिक पुद्गलना धर्मो, ते कामगुण कहेवाय छे. अथवा तो कामने एटले मदनने (कामदेवने) उद्दीपन करनारा जे गुणो, ते कामगुण एटले शब्दादिक कहेवाय छे (३) । तथा आश्रवद्वार एटले कर्मने ग्रहण करवाना मिथ्यात्वादिक उपायो (४)। संवर एटले कर्मने नहीं ग्रहण करवाना ( रोकवाना) जे द्वार एटले उपायो ते संवरद्वार एटले मिथ्यात्वादिक आश्रवना द्वारथी विपरीत एवा सम्यक्त्वादिक कहेवाय छे (५)। निर्जरा एटले देशथी कर्मनो क्षय, तेना जे स्थान एटले आश्रयो अर्थात् कारणो, ते निर्जरास्थान एटले प्राणातिपातविरमणादिक कहेवाय छे. आ प्राणातिपातविरमणादिक स्थानोने ज 'सर्व' शब्दवडे विशेषित करीए त्यारे ते महाव्रतो थाय छे ते पूर्वे (बीजा) सूत्रमा कह्यां छे, अने ते स्थानोने ज स्थूल | शब्दवडे विशेषित करीए त्यारे ते अणुव्रतो थाय छे. आ पांचेने निर्जराना स्थान कह्या ते साधारण छे, तेथी तेओनुं अहीं का निर्जरास्थान कह्यु छ ( ६ ) । तथा समिति एटले सारी प्रवृत्ति. तेमां ईर्यासमिति एटले गमन करती वखते सम्यक् प्रकारे एटले जीवहिंसा न थाय ते प्रकारे प्रवृत्ति करवी ते, भाषासमिति एटले दोष रहित वचननी प्रवृत्ति करवी ते, एषणा| समिति एटले बेंतालीश दोषने वर्जीने भात-पाणी ग्रहण करवामां प्रवृत्ति करवी ते, आदान एटले भांड, पात्रना अने वस्त्रादिक उपगरणना समूहने ग्रहण करती वखते तथा निक्षेपण एटले स्थापन करती वखते समिति एटले सारी रीते जोवापूर्वक (तथा पडिलेहण करवापूर्वक) सारी रीते प्रवृत्ति करवी ते चोथी समिति, तथा उच्चार एटले विष्ठा, प्रस्रवण एटले मूत्र, खेल एटले थुक, सिंघाण एटले नासिकानो श्लेष्म अने जल्ल एटले शरीरनो मेल-आ सर्वने परठववा (त्याग करवा)ने Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथं; अंग॥ समषाया ||२१ ॥ वखते जे समिति एटले स्थंडिलादिकना दोप दूर करवापूर्वक प्रवृत्ति करवी ते पांचमी समिति. आ प्रमाणे पांच समिति कहेवाय छे (७) तथा अस्तिकाय एटले प्रदेशोनी राशि (समूह), ते धर्मास्तिकायादिक पांच छे, तेमनुं लक्षण (विपय) अनुक्रमे गति, स्थिति, अवगाह, उपयोग अने स्पर्शादिक छे. (एटले के गति करवामां सहाय आपे ते धर्मास्तिकाय, स्थिर रहेवामां सहाय आपे ते अधर्मास्तिकाय, अवकाश आपे ते आकाशास्तिकाय, उपयोगवाळा होय ते जीवास्तिकाय अने । वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाळा होय ते पुद्गलास्तिकाय जाणवा.) ८. स्थितिनां सूत्रोने विप स्थिति( आयुष्य )नो उत्कृष्टादिक विभाग आ प्रमाणे जाणवो-साते नरकपृथ्वीमां अनुक्रमे आ प्रमाणे स्थिति (उत्कृष्ट) जाणवी-एक सागरोपम १, त्रण सागरोपम २, सात सागरोपम ३, दश सागरोपम ४, सतर सागरोपम ५, बावीश सागरोपम ६ अने सातमीमां तेत्रीश सागरोपम ७॥१॥ पहेली पृथ्वीमांजे उत्कृष्ट स्थिति कही छे ते बीजी पृथ्वीमां जघन्य स्थिति जाणवी. (एम उत्तरोत्तर जाणी लेवू). आ तरतम योग सर्वत्र जाणवो, पहेली रत्नप्रभा पृथ्वीने विप दश हजार वर्पनी जघन्य स्थिति कही छे ॥२॥" तथा--" पहेला देवलोकमां उत्कृष्ट बे सागरोपम १, बीजामां साधिक वे सागरोपम २, त्रीजामां सात सागरोपम ३, चोथामां साधिक सात सागरोपम ४, पांचमामां दश सागरोपम ५, छठामां चौद सागरोपम ६, सातमामां सतर सागरोपम ७, आ प्रमाणे सौधर्मथी सातमा शुक्र देवलोक सुधी समजवं. त्यारपछी दरेक देवलोके तथा दरेक ग्रैवेयके एक एक सागरोपमनी वृद्धि करवी. (हवे जघन्य स्थिति कहे छे) पहेले देवलोके एक पल्योपम १, बीजे देवलोके साधिक पल्योपम २, बीजे वे सागरोपम ३, चोथे साधिक वे सागरोपम न Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, पांचमे सात सागरोपम ५, छठे दश सागरोपम ६, सातमे चौद सागरोपम ७, आठमे सहस्रार देवलोके सतर सागरोपम ८ अने त्यारपछी दरेक देवलोके अने दरेक ग्रैवेयके एक एक सागरोपमनी वृद्धि करवी. . . तथा वात, सुवात इत्यादिक विमानना बार नामो वात शब्दना अभिलापवडे अने तेटला ज नामो सूर शब्दना अभिलापवडे जाणवा (६) ॥ सू०५॥ हवे छ स्थानक कहे छे. मू०-छ लेसाओ पण्णत्ता, तं जहा-कण्हलेसानीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुकलेसा १।छ जीवनिकाया पन्नत्ता, तं जहा-पुढवीकाए आऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए २। छबिहे बाहिरे तवोकम्मे पन्नत्ते, तं जहा-अणसणे ऊणोयरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलसो संलीणया ३। छविहे अभितरे तवोकम्मे पन्नत्ते, तं जहा-पायच्छित्तं विणओ वेयावञ्च सज्झाओ झाणं उस्सग्गो ४ । छ छाउमत्थिया समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतिअसमुग्घाए वेउब्वियसमुग्घाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए ५। छविहे अत्थुग्गहे पन्नत्ते, तं जहा- सोइंदियअत्थुग्गहे चक्खुइंदियअत्थुग्गहे घाणिदिअअत्थुग्गहे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिभिदियअत्थुग्गहे फासिंदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्थुग्गहे ६ ॥ समवाया था कत्तियानक्खत्ते छतारे पन्नत्ते १ । असिलेसानक्खत्ते छतारे पन्नत्ते २॥ सूत्र॥ __ इमीसे णं रयणप्पभाएं पुढवीए अत्थेगइयाणं छ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १ । तच्चाए णं ॥ २२॥ पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । सणंकुमारमाहिदेसु अत्थगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५। जे देवा सयंभुं सयंभूरमणं घोसं सुघोस महाघोसं किद्विघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वरिकतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंगं वीरसिटुं वीरकूडं वीरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६॥ - ते णं देवा छपहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे ॥२२॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IA छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम्-६ ॥ - मूलार्थः-छ लेश्याओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या, शुक्ल-1 लेश्या (१)। छ जीवनिकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय (२)। छ प्रकारनो बाह्य तप कह्यो छे ते आ प्रमाणे-अनशन, ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता (३)।छ प्रकारे आभ्यंतर तप कह्यो छे, ते आप्रमाणे-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, उत्सर्ग (कायोत्सर्ग) (४)। छाझस्थिक-छ समुद्घातो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, ला वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात (५) छ प्रकारनो अर्थावग्रह कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-श्रोत्रंद्रियअर्थावग्रह, चक्षुइंद्रियअर्थावग्रह, घ्राणेंद्रियअर्थावग्रह, जिवेंद्रियअर्थावग्रह, स्पर्शेद्रियअर्थावग्रह, नोइंद्रियअर्थावग्रह (६) कृत्तिका नक्षत्रना छ तारा कह्या छ (१)। अश्लेषा नक्षत्रना छ तारा कह्या छे (२)। आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)त्रीजी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छ सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) केटलाक असुरकुमार देवोनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पने विषे केटलाक देवानी छ सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) त्यां जे देवो स्वयंभू, स्वयंभूरमण, घोष, सुघोप, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावत, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरशृंग, वीरशिष्ट, वीरकूड अने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग ॥ ॥ २३ ॥ वीरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छ सागरोपमनी कही छे ( ६ ) ॥ ते देवो छ अर्धमासे ( छ पखवाडियाने अंते ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उक्लास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने छ हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा कोइक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ छ भने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥ टीकार्थ:- हवे छ स्थाननुं सूत्र कहे छे, ते सुगम छे. विशेष ए के अहीं लेश्या, जीवनिकाय, बाह्य तप, आभ्यंतर तप, | समुद्घात अने अवग्रह्ना अर्थवाळा छ सूत्रो, नक्षत्रने अर्थ वे सूत्रो, स्थितिने अर्थ छ अने उच्छ्वासादिकने अर्थे त्रण सूत्रो छे. मां लेश्यानुं स्वरूप आ प्रमाणे कहे छे-" कृष्णादिक द्रव्यना समीपपणाथी ( काळा विगेरे पुद्गळो आत्मानी पासे रहेला होवाथी ) स्फटिकनी जेवा निर्मळ आत्मानो जे परिणाम - अध्यवसाय थाय ते परिणामने विषे आ लेश्या शब्द प्रवर्त छे ॥ १ ॥ " इति (१) । तथा वाह्य शरीरना शोषण वडे जे कर्मना क्षयनुं कारण थाय छे ते बाह्य तप कहेवाय छे (३) । चित्तनिरोधनी मुख्यतावडे जे कर्मना क्षयनुं कारण थाय ते आभ्यंतर तप कहेवाय छे (४) । तथा छाद्मस्थिक एटले केवळीपणा विनानी अवस्थामा जे थाय ते समुद्धात छ छे. समुद्घात शब्दनो अर्थ कहे छे-' सम् ' - ऐक्यपणाए करीने तथा उत् ' - प्रवळपणाए करीने ( अत्यंत ) जे 'घात' - निर्जरण एटले खेवी नांखनुं ते समुद्घात कहेवाय छे; कारण के वेदनादिक परिणामवाळो जीव वेदनीयादिक कर्मना घणा प्रदेशो के जे काळांतरे अनुभव करवा लायक होय तेने उदीरणा वडे खेंचीने उदयमां नांखी तेनो अनुभव करीने निर्जरण (क्षय) करे छे अर्थात् आत्मप्रदेशो साथै C चोथुं अंग ॥ ॥ २३ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधायेला ते कर्मप्रदेशोने खेरवी नांखे छे. आ समुद्घातो अहीं वेदनादिकना भेदवडे छ कह्या छे. तेमा पहेलो जे वेदना समुद्घात छे ते असातावेदनीय कर्मना आश्रयवाळो छ, बीजो कषायसमुद्घात छे ते कषायनामना चारित्रमोहनीय कर्मना यवाळो छेत्रीजो मारणांतिक समुद्घात छे ते अंतमहत्तं शेष रहेला आयुष्यकमेंना आश्रयवाळो छ, बाकीना वैक्रिय. तैजस अने आहारक ए नामना त्रण समुद्घात छे ते शरीरनामकर्मना आश्रयवाळा छे, तेमां वेदनासमुद्घातवडे व्याप्त (सहित) थयेलो जीव वेदनीयकर्मना पुद्गलोर्नु शाटन (खेरवq ) करे छे, कषायसमुद्धातवडे व्याप्त थयेलो जीव कषायना पुद्गलोनुं शाटन करे छे, मारणांतिक समुद्धातवडे व्याप्त थयेलो जीव आयुष्यकर्मना पुद्गलोनो घात करे छे, वैक्रियसमुद्घातथी व्याप्त थयेलो जीव आत्मप्रदेशोने शरीरमांथी बहार काढीने ( ते प्रदेशोनो) शरीरनी जेटली उंचाइ अने जाडाइ होय तेटला प्रमाणवाळो अने लंबाइमां संख्याता योजन प्रमाणवाळो दंड बनावे छे, बनावीने पूर्वे बांधेला वैक्रियशरीरनामकर्मना पुद्गलोने स्थूळना अनुक्रमे ( एटले प्रथम घणा मोटा होय तेने, पछी तेनाथी नाना, पछी तेनाथी नाना ए रीते) शाटन करे छे-खेरवे छे. ए ज प्रमाणे तैजस अने आहारकनामना समुद्घातनुं पण व्याख्यान कर. (५) । तथा ' अर्थावग्रह '-अर्थन एटले सामान्य रीते जेर्नु स्वरूप कही न शकाय एवा शब्दादिकनुं 'अव'-प्रथम एटले व्यंजनावग्रहनी पछी तरत ज जे ग्रहण करवू एटले जाणवू ते अर्थावग्रह कहेवाय छे. ते अर्थावग्रह निश्चय नयनी अपेक्षाए एक समयनो अने | व्यवहारनयनी अपेक्षाए असंख्य समयनो होय छे. ते अर्थावग्रह श्रोत्रादिक पांच इंद्रियोवडे अने नोइंद्रिय(मन)वडे उत्पन्न (प्राप्त) थतो होवाथी छ प्रकारनो कह्यो छे (६)॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. Ko अंग॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ स्थितिना सूत्रमा स्वयंभू विगेरे वीश विमानोनां नाम कह्यां छे ( ६ ) ॥ (सूत्र-६) हवे सातमुं स्थान कहे छे मू-सत्त भयट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा-इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए १। सत्त समुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए केवलिसमुग्याए २ । समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीओ उ8 उच्चत्तेणं होत्था ३। इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वया पन्नत्ता, तं जहा-चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी मंदरे ४। इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पन्नत्ता, तं जहा-भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए एरण्णवए एरवए ५ । खीणमोहेणं भगवया मोहणिज्जवजाओ सत्त कम्मपयडीओ वेए(ज)ई ६। __ महानक्खत्ते सत्ततारे पन्नत्ते १। कत्तिआइआ सत्त नक्खत्ता पुत्वदारिआ पन्नत्ता (पाठांतरअभियाइया सत्त नक्खत्ता) २। महाइआ सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिआ पन्नत्ता ३। अणुरा-- हाइआ सत्त नक्खत्ता अवरदारिआ पन्नत्ता ४। धणिट्ठाइआ सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिआ पन्नत्ता ५॥ ॥२४॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ன் इमीसे णं रयणप्पभाएं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्त पलिओ माई ठिई पन्नत्ता १ | तच्चाए णं पुढवी नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । चउत्थीए णं पुढवीए नेरइयाणं जहपणेणं सत्त सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्त पलिओ माई ठिई पत्ता ४ | सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्त पलिओ माई ठिई पन्ना ५ । सकुमारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ । माहिंदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ७ । बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं सत्त साहिया सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ८ । जे देवा समं समप्पभ्रं महापभ्रं प्रभासं भासुरं विमलं कं चणकूडं सणकुमारवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ९ ॥ ते णं देवा सतहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ । तेसि णं देवाणं सत्तहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ २ | संतेगइया भवसिद्धिया जीवा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग स्त्र॥ ॥२५॥ जेणं सत्तहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ३॥ (सूत्रम्-७)॥ IN INचो, मलार्थ:-भयना स्थानो सात कया छे, ते आ प्रमाणे- लोक संबंधी भय, परलोक संबंधी भय, आदान भय, अंग ॥ अकस्मात् भय, आजीविका भय, मरण भय, अश्लोक (अकीर्ति) भय (१)। सात समुद्घात कया छे, ते आ प्रमाणेवेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणांतिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहार समुद्घात, केवळी समुद्घात (२)। श्रमण भगवान महावीरस्वामी सात रत्लि (हाथ ) ऊंचा हता (३)। आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमा सात वर्षधर पर्वतो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्षुल्लहिमवान, महाहिमवान, निषध, नीलवंत, रूपी, शिखरी अने मेरु (४)। आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमा सात वर्षो (क्षेत्रो) कह्या छे, ते आ प्रमाणे--भरत, हैमवत, हरिवर्प, महाविदेह, रम्यक, ऐरण्यवत अने ऐवत (५)। जेनु मोहनीय कर्म क्षीण थयु छे एवा भगवान एक मोहनीय कर्मने वर्जीने बाकीनी सात कर्मप्रकृतिओने वेदे छे (६)॥ मघा नक्षत्रना सात तारा कह्या छे (१)। कृत्तिका विगेरे सात नक्षत्रो पूर्व दिशाना द्वारवाळा कह्या छे ( पाठांतरना मते अभिजित् विगेरे सात नक्षत्रो पूर्व द्वारवाळा कह्या छे) (२)। मघा विगेरे सात नक्षत्रो दक्षिण द्वारवाळा कया छे (३) । अनुराधा विगेरे सात नक्षत्रो पश्चिम द्वारवाळा कह्या छे (४)। धनिष्ठा विगेरे सात नक्षत्रो उत्तरद्वारवाळा कया छे (५)। आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीओनी सात पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)।त्रीजी पृथ्वीने विपे नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमनी कही छे (२)। चोथी पृथ्वीने विपे नारकीओनी जघन्य स्थिति सात सागरो- ॥२५॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमनी कही छे (३)। केटलाक असुरकुमार देवोनी सात पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी सात पल्योपमनी स्थिति कही छे (५)। सनत्कुमार कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमनी कही छे (६)। माहेंद्र कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सात सागरोपमनी कही छे (७) । ब्रह्मलोक कल्पमां देवोनी साधिक सात पल्योपमनी जघन्य स्थिति कही छे (८)। जे देवो सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमला, कंचनकूट अने सनत्कुमारावतंसक नामना विमानमा देवपणे उत्पन्न थाय छे ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपमनी कही छे (९)॥ ते देवो सात अर्धमासे (सात पखवाडीयाने अंते) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उचास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने सात हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छ के जेओ सात भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३) । टीकार्थः-आ सूत्र पण सुगम छे. विशेष ए के-अहीं भय, समुद्घात, महावीरनुं शरीर, पर्वतो, क्षेत्रो अने क्षीणमोहनीयना अर्थवाळा छ सूत्रो छ, नक्षत्रना अर्थवाळा पांच सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा नव सूत्रो छे अने उच्छ्वासादिकना. अर्थवाळा त्रण ज सूत्रो छे, तेमां जे सजातीय जीवथी भय उत्पन्न थाय ते इहलोक भय कहेवाय छे, विजातीय जीवथी जे भय थाय ते परलोक भय कहेवाय छे, द्रव्यने आश्रीने जे भय थाय ते आदान भय कहेवाय छे, बाह्य निमित्त विना जे पोताना मनना संकल्पविकल्पवडे उत्पन्न थाय ते अकस्मात भय कहेवाय छे, बाकीना (आजीविका भय, मरण भय अने अश्लोक भय) प्रसिद्ध (सुगम) छे. विशेषमा ए के-अश्लोक एटले अपकीर्ति (१)। समुद्घातो पूर्वे कह्या प्रमाणे (६ ": Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ २६ ॥ छे, विशेषमां ए के सातमो केवळीसमुद्धात वेदनीय, नाम अने गोत्र कर्मना आश्रयवाळो छे. ( अर्थात् ते ३६ कर्मोनी स्थितिने आयुष्यकर्मनी सरखी करनारो छे ) ( २ ) । तथा रति एटले लांबी आंगळीओवाळो हाथ. आवा सात हाथ महावीरस्वामी ऊर्ध्व ऊंचाइवडे कहेला छे अर्थात् तिर्यक् पोळावडे नहीं ( ३ ) || तथा [ अभिजित् विगेरे सात नक्षत्रो पूर्व द्वारवाळा छे एटले के आ नक्षत्रो जे दिवसे होय ते दिवसे पूर्व दिशा तरफ • प्रयाण करनार मनुष्यने शुभ थाय छे. ए ज प्रमाणे अश्विनी विगेरे सात नक्षत्रो दक्षिणद्वारवाळा छे, पुष्य विगेरे सात नक्षत्रो पश्चिम द्वारवाळा छे अने स्वाति विगेरे सात नक्षत्रो उत्तरद्वारखाळा छे एम सिद्धांतनो मत छे. ] परंतु अहीं तो मतांतरने आश्रीने कृत्तिका विगेरे सात सात नक्षत्रो पूर्वादिक द्वारवाळा का छे. तथा चंद्रप्रज्ञप्तिमां तो आ बाबतमां घणा घणा मतो देखाडया छे. (२-५ ) । स्थितिना सूत्रमां सम विगेरे आठ विमानना नामो आपेला छे. ( ९ ) ॥ ( सूत्र - ७ ) ॥ हवे आठ स्थानक कहे छे. मू० - अट्ठ मयट्ठाणापन्नत्ता, तं जहा - जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए • लाभ इस्सरियम १ । अट्ठ पवयणमायाओ पन्नत्ता, तं जहा - ईरियासमिई भासासमिई सामईआयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपा रिट्ठावणियासमिई चोथुं अंग ॥ ॥ २६ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती २ । वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ३ । जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ४ । कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ५ । जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ६ । अट्ठसामइए केवलिसमुग्घाए पन्नत्ते, तं जहा-पढने समए दंडं करेइ, बीए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेइ, पंचमे समए मंथंतराइ | पडिसाहरइ, छटे समए मंथं पडिसाहरइ, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे लमए दंडं पडिसाहरइ, ततो पच्छा सरीरत्थे भवइ ७ । पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणिअस्स अट्ट गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं जहा-“सुभे य सुभघोसे य, वसिट्रे बंभयारि य । सोमे सिरिधरे चेव, वीरभद्दे जसे इय ॥१॥” ८ । अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमई जोगं जोएंति, तं जहाकत्तिया १, रोहिणी २, पुणबसू ३, महा ४, चित्ता ५, विसाहा ६, अणुराहा ७, जेट्ठा ८ । ९॥ - इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POS चोथु । अंग ॥ ॥२७॥ । चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । असुरसमवायाङ्ग / कुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु म सत्र ॥ अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा अचिं अच्चिमालिं वइरोयणं पभंकरं चंदाभं सूराभं सुपइट्ठाभं अग्गिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ६॥ ते णं देवा अटण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १।। तेसि णं देवाणं अट्ठहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजइ २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्टहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ३॥ सूत्रं-८। मूलार्थ-आठ मदना स्थानो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद (१)। आठ प्रवचन माताओ कही छे, ते आ प्रमाणे-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एपणासमिति, आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चारप्रस्रवणखेलजल्लसिंघाणपारिष्ठापनिकासमिति, मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति (२)। वाणव्यंतर ॥२७॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवोना चैत्यवृक्षो आठ योजन ऊर्ध्व ऊंचा कह्या छे (३) । सुदर्शना नामनो जंबूवृक्ष आठ योजन ऊर्ध्व ऊंचो को छे (४) । गरुडदेवना आवासरूप कूटशाल्मली वृक्ष आठ योजन ऊर्ध्व ऊंचो कह्यो छे (५) । जंबूद्वीपनी जगती आठ योजन ऊर्ध्व ऊंची कही छे (६) । केवळीसमुद्घात आठ समयनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- पहेले समये दंड करे, बीजे समये कपाट करे, बीजे समये मंथ करे, चोथे समये मंथना आंतराओ पूरे, पांचमे समये मंथना आंतरानुं संहरण करे ( काढी नांखे), छठे समये मंथनुं संहरण करे, सातमे समये कपाटनुं संहरण करे अने आठमे समये दंडनुं संहरण करे. त्यारपछी आत्मा शरीरमां रहेलो थाय ( आत्माना प्रदेशो शरीरमां ज समाइ जाय ) ( ७ ) । पुरुषोने मध्ये आदेय नामकर्मवाळा ( मान्य करवा लायक ) पार्श्वनाथ अरिहंतने आठ गणो अने आठ गणधरो हता, तेना नाम आ प्रमाणे- " शुभ, शुभघोष, वसिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र अने यश ॥१॥ ( ८ ) । आठ नक्षत्रो चंद्रनी साथै प्रमर्द ( बच्चे थड़ने गमन करवा ) ना •योगने पामे छे, ते नक्षत्रो आ छे – कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा अने ज्येष्ठा ( ९ ) । आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी आठ पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । चोथी पृथ्वीमां केटलाक नारकीओनी आठ सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी आठ पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी आठ पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) | ब्रह्मलोक कल्पनेविषे केटलाक देवोनी आठ सागरोपमनी स्थिति कही छे ( ५ ) । जे देवो अर्चि, अर्चिमालि, वैरोचन, प्रभंकर, चंद्राभ, सूर्याभ, सुप्रतिष्ठाभ, अगिचाभ, रिष्टाभ, अरुणाभ अने अरुणोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ २८ ॥ होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपमनी कही छे ( ६ ) ॥ ते देवो आठ अर्धमास( पखवाडीया ) ने अंते आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवाने आठ हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा कोड़ भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ आठ भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे ( ३ ) ॥ टीकार्थ:- हवे आठमा स्थाननी व्याख्या करे छे, ते पण सुगम छे. विशेषमां ए के अहीं मदनां स्थानो, प्रवचन माता, चैत्यवृक्ष, जंबूवृक्ष, शाल्मली वृक्ष, जगती, केवळीसमुद्घात, गणधर अने नक्षत्रना अर्थवाळा नव सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा छ अने उच्छ्रासादिकना अर्थवाळा त्रण सूत्रो छे || तेमां मदना एटले अभिमानना जे स्थानो एटले आश्रयो ते ..मदस्थान कहेवाय छे, ते मदना स्थानो जाति विगेरे छे, तेथी तेने ज मदना प्रधानपणा तरिके बतावता सता कहे छे-८ जाइए' इत्यादि, जातिवडे जे मद करवो ते जातिमद कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे बीजा पण स्थानो जाणवा. अथवा मदना जे स्थानो एटले भेदो ते मदस्थान कहेवाय छे. ते ज कहे छे' जाइए ' इत्यादि. ए ज प्रमाणे वीजा स्थानो पण जाणवा. (१) । तथा प्रवचन एटले द्वादशांगी अथवा तेना आधारभूत संघ, तेनी माता जेवी माता एटले प्रवचनने उत्पन्न करनारी, ते प्रवचन माताओ ईर्यासमिति विगेरे आठ छे; केमके तेमने आश्रीने ज द्वादशांगी साक्षातपणे अथवा प्रसंगोपात प्रवर्त छे, अर्थात् जेनाथी जे प्रवर्ते तेने आश्रीने मातानी कल्पना करी शकाय छे. ( ईर्यासमित्यादिकथी द्वादशांगी प्रवर्ते छे, तेथी ईर्यासमित्यादिक तेनी माता कही शकाय छे ) तथा संघना पक्षमां जेम बाळक माताने छोडघा विना ज ( तेने चोथुं अंग !! ॥ २८ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीने ज ) पोतानो लाभ पामी शके छे, तेम संघ पण माताने नहीं मूकतो सतो ज संघपणाने पामे छे, अन्यथा पामतो नथी, तेथी ईर्यासमिति विगेरे प्रवचन माताओ कहेवाय छे. (२) । तथा व्यंतर देवोना चैत्यवृक्षो तेमना नगरोमां सुधर्मादिक सभानी पासे रहेली मणिपीठिकानी उपर सर्व रत्नमय तथा छत्र, चामर अने ध्वजादिकथी अलंकृत ( सुशोभित ) होय छे. वृक्षो वे श्लोकोडे आ प्रमाणे जाणवा - " पिशाचोना चैत्यवृक्ष कलंब नामना छे, यक्षोना वट नामना छे, भूतोना तुलसी नाना छे, राक्षसोना कंडक नामना छे, किन्नरोना अशोक नामना छे, किंपुरुषना चंपक नामना छे, भुजंगोना नाग नामे छे अने धना चैत्यवृक्ष व नामना छे." (३) । जंबू एटले उत्तरकुरुमां पृथ्वीना परिणामवाळो जंबूवृक्ष छे तेनुं नाम सुदर्शना छे (तेनी उपर सुस्थितदेवनो आवास छे) (४) । एज प्रमाणे कूटशाल्मली पण वृक्षविशेष छे, ते देवकुरुने विषे रहेलो छे, तेनी उपर गरुडी जातिवाळा वेणुदेव नामना देवनो आवास छे (५) । जगती एटले जंबूद्वी परूपी नगरना किल्ला जेवी फरती पाळ बांधी होय ते (६) । तथा पुरुपोना मध्यमां आदेय नामकर्मवाळा (सर्व पुरुषोने मानवा लायक) देवीशमा तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ अर्हतने आठ गणो एटले सरखी वाचना अने क्रियावाळा साधुसमुदाय हता, अने आठ गणधरो एटले तेमना नायक सूरिओ हता. तेमनुं आ आठ संख्यानुं प्रमाण स्थानांग सूत्रमां अने पर्युषणाकल्पमां संभळाय छे; परंतु आवश्यकसूत्रमां अन्यथा संभळाय छे, तेमां कहुं छे के — " दस नवगं गणाण साणं जिणिदाणं " अर्थात् “पार्श्वनाथने दश गणो अने दश गणधरो हता. ' ( महावीरस्वामीने नव गण ने अग्यार गणधरो जाणवा. ) आ प्रमाणे कां छे ते अहीं ( आ सूत्रमां ) वे गणधरोनुं अल्प आयुष्य हशे इत्यादिक कारणने लीधे बेनी विवक्षा करी नथी एम जाणवु, अहीं मूळ सूत्रमां ' सुभे ' इत्यादि श्लोक कही " Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ St चो, . अंग॥ . Illl श्रीपातेमां ते आठेना नाम बताव्या छे (८)। तथा आठ नक्षत्री चंद्रनी साथे प्रमर्दने एटले चंद्र तेओनी मध्ये थइने गति करे समवायाङ्गछे एवा प्रकारना योगने-संबंधने करे छे. आ चिपे लोकश्री नामना ग्रंथमां कयुं छे के-"पुनर्वसु, रोहिणी, चित्रा, मघा, सत्र ज्येष्ठा, अनुराधा, कृत्तिका अने विशाखा-आ आठ नक्षत्रो चंद्रना उभय योगवाळा छे." वळी जे नक्षत्रो दक्षिण अने उत्तर ए बन्ने दिशाना योग( संबंध )वाळा होय ते नक्षत्रो कोइक वखत प्रमर्द योगवाळा पण होय छे. ते बाबतमा लोकश्रीनी ॥२९॥ टीका करनारे का छे के-"आ नक्षत्रो उभय योगवाळा एटले चंद्रनी उत्तर अने दक्षिण दिशाए जोडाय छे-संबंध पामे छे. अने कदाचित चंद्रवडे करीने भेदने पण पामे छे (९)॥ तथा अचि विगेरे अग्यारविमाननां नामो छे. (६) ।। सूत्र-८॥ a . हवे नव स्थानक कहे छे मू-नव बंभचेरगुत्तीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सिज्जासणाणि सेवित्ता भवइ १, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ २, नो इत्थीणं गणाइं सेवित्ता भवइ ३, नो इत्थीणं इंदियाणि मणोहराई मणोरमाइं आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ ४, नो पणीयरसभोई ५, नो पाणभोयणस्स अइमायाए आहारइत्ता ६, नो इत्थीणं पुश्वरयाई पुव्वकीलिआइं समरइत्ता भवइ ७, नो सद्दाणुवाई नो रूवाणुवाई नो गंधाणुवाई नो रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई ८, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ ९।१। नव बंभचेर अगुत्तीओ पन्नत्ताओ तं ॥२९॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहा-इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणं सिज्जासणाणं सेवणया जाव सायासुक्खपडिबद्धे यावि भवइ ।२।। नव बंभचेरा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिण्णा लोगविजओ सीओसणिज्ज सम्मत्तं । आवंति धुत विमोहा [यणं] उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥१॥३। पासे णं अरहा पुरिसादाणीए नव रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं होत्था ४॥ | अभीजी नक्खत्ते साइरेगे नव मुहत्ते चंदेणं सद्धिं जोगं जोएइ १ । अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगंजोएंति, तं जहा-अभीजि सवणो जाव भरणी २ । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नव जोयणसए उद्धं आबाहाए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ ३। .. जंबुद्दीवे णं दीवे नवजोयणिआ मच्छा पविसिंसु वा ३।१। विजयस्स णं दारस्स एगमे- गाए बाहाए नव नव भोमा पन्नत्ता। २ । वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्माओ नव जोयणाई M उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । ३ । दसणावरणिजस्स णं कम्मस्स नव उत्तरपगडीओ पन्नता, तं जहा निदा पयला निद्दानिद्दा पयलापयला थीणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदसणावरणे ओहिंदसणा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ सूत्र ॥ श्री वरणे केवलदसणावरणे । ४ । समवायाङ्ग इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता १। चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २। असुरकुमाराणं ॥३०॥ देवाणं अत्थेगइयाणं नव पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं नव पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं पम्हज्झयं । पम्हसिंगं पम्हसिटुं पम्हकूडं पम्हुत्तरवडिंसगं सुजं सुसुजं सुजवित्तं सुजपभं सुज्जकंतं सुज्जवणं AN सुजलेसं सुज्जज्झयं सुजसिंगं सुजसिटुं सुजकूडं सुज्जुत्तरवडिंसगं रुइल्लं रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइ ल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुइल्लज्झयं रुइल्लसिंगं रुइल्लसिटुं रुइल्लकूडं रुइल्लुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६॥ ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवा व वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २ | संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति जाव सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रं - ९ ॥ मूलार्थ - ब्रह्मचर्यनी गुप्तिओ नव कही छे, ते आ प्रमाणे- स्त्री, पशु अने नपुंसकना संबंधवाळा शय्या अने आसनने सेवनार न था - सेवे नहीं १, स्त्रीओनी कथा कहेनार थाय नहीं कहे नहीं २, स्त्रीओना समूहने सेवनार थाय नहीं ३, ओना मनोहर अने मनोरम इंद्रियोने ( अंगोपांगोने ) जोनार अने ध्यान करनार थाय नहीं ४, प्रणीत ( घी-दूधवाळा ) रसनुं भोजन करनार थाय नहीं ५, प्रमाणथी अधिक पान - भोजननो आहार करनार थाय नहीं ६, पूर्वे स्त्रीनी साथे करेला मैथुन के बीज क्रीडाने स्मरण करनार थाय नहीं ७, शब्दानुपाती ( कामने उद्दीपन करनारा शब्दने अनुसरनारो ) न था, एज रीते रूपानुपाती न थाय, गंधानुपाती न थाय, रसानुपाती न थाय, स्पर्शानुपाती न थाय अने श्लोकानुपाती ( पोतानी कोई श्लाघा करे तेने अनुसरनार अथवा पोते पोतानी श्लाघाने अनुसरनार ) न थाय ८, तथा साता - सुखना प्रतिबंधवाळो न थाय ९ ( १ ) । ब्रह्मचर्यनी अगुप्तिओ पण नव कही छे, ते आ प्रमाणे—स्त्री, पशु अने नपुंसकना संबंधवाळा शय्या अने आसनने सेवनार थाय, यावत् साता - सुखना प्रतिबंधवाळो थाय ( २ ) | नव ब्रह्मचर्य (ना अध्ययनो) कला छे, ते आ प्रमाणे –“ शास्त्रपरिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, यावंती, धुत, विमोहायण, उपधानश्रुत अने महापरिज्ञा ॥ १ ॥ ” (३) । पुरुषोना मध्यमां आदेयनामकर्मवाळा ( मानवा लायक ) श्रीपार्श्वनाथ अरिहंत नव रत्न (हाथ) ऊर्ध्व ऊंचाइपणे हता ( ४ ) ॥ ६ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ ३१ ॥ अभिजित नक्षत्र साधक व मुहूर्त्त सुधी चंद्रनी साथे योग (संबंध ) ने पामे छे ( १ ) | अभिजित् विगेरे नव नक्षत्रो चंद्रन साथै उत्तर दिशामां योगने पामे छे, ते नक्षत्रो आ छे - अभिजित्, श्रवण, यावत् भरणी ( २ ) । आ रत्नप्रभा पृथ्वीना अति सरखा अने रमणीय भूमिभागथकी नव सो योजन ऊर्ध्वलोकमां एटले उपला भागमां (नेत्र सो योजन ऊंचे जइए त्यांसुधी ) ताराओ चारने चरे छे ( चाले छे-गति करे छे रहेला छे ) ( ३ ) ॥ जंबूद्वीप नामना द्वीपमा ( लवणसमुद्रमांथी ) नव योजन प्रमाणवाळा मत्स्यो प्रवेश करता हता, ( प्रवेश करे छे प्रवेश कर ) ( १ ) | विजयद्वारनी एक एक बाहाने विषे ( वे पडखे ) नव नव भौम एटले नगरो ( भूमिगृहो ) कला छे ( २ ) । वानव्यंतर देवोनी सुधर्मा नामनी सभाओ नव योजन ऊर्ध्व ऊंची कही छे ( ३ ) । दर्शनावरणीय कर्म व उत्तरप्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणे- निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धिं चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण अने केवळदर्शनावरण (४) ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । चोथी पृथ्वीने विषे केटलाक नारीओनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म ने ईशान कल्पमां केटलाक देवोनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । ब्रह्मलोक कल्पने विषे केटलाक देवोनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) । जे देवो पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकांत, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्म११. ज्योतिषचक्र समभूतलाथी सात सो नेवुथी नव सो योजन सुधीमां ज छे. चोथुं अंग ॥ ॥ ३१ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I ध्वज, पक्ष्मशृंग, पक्ष्मशिष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक, सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकांत, सूर्यवर्ण, सूर्यIN लेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृंग, सूर्यशिष्ट, सूर्यकूट, सूर्योत्तरावतंसक, रुचिर, रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकांत, रुचिरवर्ण, रुचिर -लेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृंग, रुचिरशिष्ट, रुचिरकूट, रुचिरोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (६)॥ ते देवो नव अर्धमासने अंते ( नव पखवाडिये ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने नव हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छ के जेओ | नव भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ ___टीकार्थ-आ नव स्थानकनुं सूत्र पण सुगम छे. विशेष ए के-अहीं ब्रह्मगुप्ति, ते( ब्रह्म )नी अगुप्ति, ब्रह्मचर्य अध्ययन अने पार्श्वनाथ संबंधी चार सूत्रो छे, ज्योतिष्कने माटे त्रण सूत्रो छे, मत्स्य, नगर, सभा अने दर्शनावरणने माटे चार सूत्रो छे, तथा स्थित्यादिकने अंगे ते ज प्रमाणे एटले स्थितिना संबंधमा छ अने उच्छ्वासादिकना त्रण सूत्रो छे।। तेमां ब्रह्मचर्यनी गुप्तिओ एटले मैथुननी विरतिने रक्षण करवाना उपायो (ते नव गुप्तिओ आ प्रमाणे)-स्त्री, पशु अने नपुंसकवडे संसक्त एटले व्याप्त-सहित एवा शय्या आसनने एटले शयन अने आसनने अथवा वसति ( उपाश्रय ) अने आसनने सेवनार न थाय ( सेवे नहीं) ए पहेली गुप्ति १, स्त्रीनी कथा कहेनार न थाय. ए बीजी २. स्वीओना समहने सेवनार एटले उपासक (निरंतर परिचयवाळो ) न थाय, ए त्रीजी ३, स्त्रीओना नेत्र नासिका विगेरे चित्तनुं आकर्षण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनार होवाथी तेमां मनोहर अने रमणीयपणुं होवाथी मनोरम एवा इंद्रियोने जोनार अने ध्यान करनार एटले एकाग्र चित्त समवायाङ्ग पणाए करीने जोनार न होय, ते चोथी ४, प्रणीतरसभोजी एटले घी विगेरे रसना टीपा पडता होय तेवा भोजनने करनार न सूत्र॥ होय, ए पांचमी ५, पान-भोजन- अतिमात्र एटले अतिप्रमाण जेम होय तेम सदा आहार करनार न होय ए छठी ६, पूर्वनी क्रीडाने स्मरण करनार न होय, तेमां रत एटले मैथुन अने क्रीडित एटले स्त्रीओनी साथे बीजी क्रीडा, ते करनार न होय ए सातमी ७, शब्दानुपाती न होय, रूपानुपाती न होय, गंधानुपाती न होय, रसानुपाती न होय, स्पर्शानुपाती न होय. अने श्लोकानुपाती न होय, एटले कामने उद्दीपन करनार शब्द, रूप विगेरेने तथा पोतानी कीर्तिने अनुसरनार न होय, ते आठमी ८ तथा सातसौख्यप्रतिबद्ध-उदयमा आवेला सातवेदनीय कर्मथकी (प्राप्त थयेल) जे सुख, तेना प्रतिबंधवाळो न होय. आ कहेवाथी प्रशमसुखनो नाश न कह्यो, ते नवमी गुप्ति छे ९. आ व्याख्यान वे वाचनाने अनुसारे कयुं छे, केमके दरेक (बन्ने) वाचनाना सूत्रो एवा ज ( सरखा ज) छे (१)। तथा जे कुशळ अनुष्ठान ते ब्रह्मचर्य कहेवाय छे, तेने कहेनारा अध्ययनो पण ब्रह्मचर्य ज कहेवाय छे. ते ( अध्ययनो) आचारांग सूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधमां कहेला छे (३)॥ । तथा अभिजित् नक्षत्र साधिक नव मुहूर्तो सुधी चंद्रनी साथे योगने-संबंधने करे छे. अहीं जे अधिकपणुं कर्तुं ते एक | मुहूर्त्तना बासठीया २४ भाग (२३) तथा एक बासठीया भागना ६७ भाग करीए तेमाथी ६६ भाग (६६) जेटलुं । अधिक जाणवू (१)। तथा अभिजित् विगेरे नव नक्षत्री चंद्रनी उत्तरदिशाए संबंधने करे छे एटले के उत्तरदिशामा रहेला al ते नक्षत्रो दक्षिणदिशा तरफ रहेला चंद्रनी साथे संबंध करे छे (२)। (आ रत्नप्रभा पृथ्वीना ) अत्यंत समान भाग जे ॥३२॥ १ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय ते बहुसम कहेवाय छे, तेथी करीने ज रमणीय-मनोहर एवा भूमिभागथकी एटले पर्वतनी अपेक्षाए नहीं, तेम ज नरकनी अपेक्षाए पण नहीं, परंतु आठ रुचकनी अपेक्षाए (आ भूमिभाग) जाणवो ए तात्पर्यार्थ छे. (आवा भूमिभाग थकी नव सो योजन ऊंचे) 'आवाहाए' एटले वच्चे करीने 'उवरिल्ले एटले उपर रहेला 'तारारूप' एटले तारानी जाति 'चार' एटले भ्रमणने करे छे (३) ॥ अर्थात् आ संमभूतळा पृथ्वीथी ९०० योजन सुधीमां-तेनी अंदर ज्योतिष्चक्र भ्रमण करे छे. 'नवजोयणिया' एटले नव योजन लांबा ज मत्स्यो जंबूद्वीपमा प्रवेश करे छे. जो के लवणसमुद्रमां पांच सो योजन लांबा मत्स्यो संभवे छे, तो पण नदीओना मुखने विषे जगतीना रंध्र(बांका)नी योग्यता प्रमाणे आवा (नव योजनना) ज प्रवेश करी शके छ एम जाणवू. अथवा लोकस्वभाव ज आवो छे, एम जाणवू (१)। जंबूद्वीपमा पूर्व दिशाए रहेला विजयद्वारनी एक एक बाहाए एटले पडखे भौम एटले भूमिमां रहेला नगरो अथवा अन्यना मते विशिष्ट स्थानो रहेला छे (२)। तथा व्यंतरोनी सुधर्मा सभा नव योजन ऊर्ध्वपणे ऊंची छे (३)॥ तथा पक्ष्म विगेरे बार, सूर्य विगेरे पण चार अने रुचिर विगेरे अग्यार विमानना नामो छ (६)॥ सूत्र ९ ॥ हवे दश स्थानक कहे छे. मू०-दसविहे समणधम्मे पन्नत्ते, तं जहा-खंती १ मुत्ती २ अज्जवे ३ मद्दवे ४ लाघवे ५सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए ९ बंभचेरवासे १०।१। दस चित्तसमाहिट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा-धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुवा समुप्पजिजा सवं धम्मं जाणित्तए १, सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णपुवे - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथु अंग ॥ समवायाङ्ग समुप्पजिजा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए २, सपिणनाणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुप्पजिज्जा पुत्वभवे सुमरित्तए ३, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुप्पजिज्जा दिवं देविद्धिं दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणु- भावं पासित्तए ४, ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिज्जा ओहिणा लोगं जाणित्तए ५, ओहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा ओहिणा लोगं पासित्तए ६, मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा जाव मणोगए भावे जाणित्तए ७, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुप्पजिज्जा केवलं लोग जाणित्तए ८, केवलदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिज्जा केवलं लोयं पासित्तए ९, केवलिमरणं वा मरिजा सम्बदुक्खप्पहीणाए १० । २। मंदरे णं पवए मूले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पन्नत्ता । ३ । अरिहा णं अरिट्ठनेमी दस धणूइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । ४ । कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । ५ । रामे णं बलदेवे दस धणूइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था ।६। दस नक्खत्ता नाणबुड्डिकरा पन्नत्ता, तं जहा-" मिगसिर अद्दा पुस्सो, तिषिण अ पुव्वा य मूलमस्सेसा । हत्थो चित्तो य तहा, दस ॥३३॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वुड्डिकराइ नाणस्स ॥१॥”।७। अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवत्थिया पन्नत्ता, तं जहा-“ मत्तंगया य भिंगा, तुडिअंगा दीवजोइ चित्तंगा । चित्तरसा मणिअंगा, गेहागारा अनिगिणा य ॥१॥" ॥ ८॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए [ अत्थेगइयाणं ] नेरइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता । १ । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । २ । चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससयसहस्साइ पन्नत्ता । ३ । चउत्थीए पुढवीए [ अत्थेगइयाणं] उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ४ । पंचमीए पुढवीए [ अत्थेगइयाणं ] नेरइयाणं जहणणेणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ५। असुरकुमाराणं देवाणं [अत्थेगइयाणं] जहण्णेणं दस वाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता । ६ । असुरिंदवजाणं भोमिजाणं देवाणं [ अत्थेगइआणं ] जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता । ७ । असुर १ काटखूण काउंसमां लखेल पाठ लखेली प्रतमां नथी. ते पाठनी जरूरीआत पण जणाती नथी. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दस पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ।८। बायरवणस्सइकाइयाणं उक्कोसमवायाङ्ग सेणं दस वाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता । ९ । वाणमंतराणं देवाणं [अत्थेगइयाणं] जहणणेणं दस सूत्र ॥ वाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता । १० । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं दस पलिओव॥३४॥ माइं ठिई पन्नत्ता । ११ । बंभलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । १२ । लांतए कप्पे देवाणं [ अत्थेगइयाणं ] जहणणेणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । १३ । जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिज्जं मंगलाव बंभलोगवडिं* सगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उकोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । १४ । - ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा।१। तेसि णं देवाणं दसहि वाससहस्सहिं आहारटे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सांत बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ३॥ सूत्रम्-१०॥ ॥३४॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलार्थ-दश प्रकारनो साधुधर्म कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-शांति १, मुक्ति (निर्लोभता )२, आर्जव ३, मार्दव ४, लाघव (अकिंचन) ५, सत्य ६, संयम ७, तप ८, त्याग (दान) ९, ब्रह्मचर्यवास १० (१) । दश चित्तनी समाधिना स्थानो कह्या छे, ते आ प्रमाणे--ते(साधु)ने सर्व धर्म जाणवाने माटे कोइ वखत पूर्वे ( जन्मांतरोमां) उत्पन्न नहीं थयेली एवी IMI धर्मचिंता ( धर्म संबंधी विचार ) उत्पन्न थाय ते १, स्वप्ननु साचेसाचुं फळ जोवाने-जाणवाने माटे तेने कोइ वखत पूर्व IA उत्पन्न नहीं थयेलं स्वप्नदर्शन उत्पन्न थाय ते २, पूर्वभवन स्मरण करवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलुं एवं संज्ञीज्ञान ( जातिस्मरण ज्ञान ) उत्पन्न थाय ते ३, दिव्य देवनी समृद्धिने, दिव्य देवनी कांतिने अने दिव्य देवना अनुभावने जोवा माटे तेने कोइ वखते पूर्व उत्पन्न नहीं थयेलं एवं देवनुं दर्शन थाय ते ४, जवधि(मर्यादा )वडे लोकने जाणवा माटे तेने पूर्वे कोइ वखत उत्पन्न नहीं थयेलं एवं अवधिज्ञान उत्पन्न थाय ते ५, अवधिवडे लोकने जोवा माटे तेने कोइ वखत पूर्व उत्पन्न नहीं थयेलु एयु अवधिदर्शन उत्पन्न थाय ते ६, यावत् एटले अढीद्वीप अने वे समुद्रमा रहेला. संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तकना मनमा रहेला भाव(विचार)ने जाणवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे उत्पन्न नहीं थयेलु एवं मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय ते ७, सर्व लोकने ( तथा अलोकने पण ) जाणवा माटे तेने कोइ वखत पूर्व उत्पन्न नहीं थयेळं एवं केवळज्ञान उत्पन्न थाय ते ८, समग्र लोकने (तथा अलोकने पण) जोवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे उत्पन्न नहीं थयेलु केवळदर्शन उत्पन्न थाय ते ९, सर्व दुःखोनो क्षय करवा माटे ते (पूर्वे कोइ वखत नहीं थयेला) केवळी मरणवडे मरण पामे (सिद्ध थाय ) ते १० । (२) । मंदर (मेरु)पर्वतनो विष्कंभ (विस्तार) मूळने विषे (समभूतळा पृथ्वी उपर) दश हजार योजन कह्यो Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री समवायाङ्ग सूत्र॥ ॥३५॥ छे (३)। श्री अरिष्टनेमि अरिहंत भगवान ऊर्ध्व ऊंचाइमां दश धनुष हता (४) कृष्ण वासुदेव ऊर्ध्व ऊंचाइमां दश धनुष हताला चोथं (५)। राम बळदेव ऊर्ध्व ऊंचाइमां दश धनुष हता (६) दश नक्षत्रो ज्ञाननी वृद्धि करनार कह्या छे, ते आ प्रमाणे-"मृगशीर्प, अंग आर्द्रा, पुष्य, त्रण पूर्वा, मूळ, अश्लेषा, हस्त अने चित्रा आ दश नक्षत्रो ज्ञाननी वृद्धि करनारा छे १." (७) । अकर्मभूमिमा रहेला मनुष्योने उपभोगने माटे दश प्रकारना कल्पवृक्षो प्राप्त थयेला कह्या छे, ते आ प्रमाणे-“मत्तांगक, भंगांग, त्रुटितांग, दीपशिख, ज्योति, चित्रांग, चित्ररस, मण्यंग, गेहाकार अने अनग्न ॥१॥" (८) आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे [ केटलाक] नारकीओनी जघन्य दश हजार वर्षनी स्थिति कही छे (१)। आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीनी दश पल्योपमनी स्थिति कही छे (२)। चोथी पृथ्वीमा दश लाख नरकावासा कह्या छ (३)। चोथी पृथ्वीमा केटलाक] नारकीओनी उत्कृष्टथी दश सागरोपमनी स्थिति कही छे (४)। पांचमी पृथ्वीने विपे [ केटलाक ] नारकीओनी जघन्यथी दश सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। [केटलाक ] असुरकुमार देवोनी जघन्यथी दश हजार वर्पनी स्थिति कही छे (६)। असुरेंद्रने वर्जीने [ केटलाक] भवनपति देवोनी जघन्यथी दश हजार वर्षनी स्थिति कही छे (७)। केटलाक असुरकुमार देवोनी दश पल्योपमनी स्थिति कही छे (८)। बादर (प्रत्येक). वनस्पतिकायनी उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्षनी कही छे (९)। [ केटलाक ] वाणव्यंतर देवोनी जघन्य स्थिति दश हजार वर्षनी कही छे (१०) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी दश पल्योपमनी स्थिति कही छे (११)। ब्रह्मलोक कल्पमां देवोनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपनी कही छे (१२) । लांतक कल्पमां [ केटलाक ] देवोनी जघन्य ३५॥ 16 ... Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिति दश सागरोपमनी कही छे (१३) । जे देवो घोष, सुघोष, महाघोष, नंदिघोप, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मंगलावर्त अने ब्रह्मलोकावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोप मनी कही छे (१४)॥ - ते देवो दश अर्धमासे ( दश पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने दश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) एवा केटलाक भवसिद्धिया जीवो छे के जेओ दश भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण (परम शीतळता ) पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३) टीकार्थ--आ दश स्थानकनुं सूत्र सुवोध छे, तो पण काइक लखाय छे-अहीं सर्व मळीने पचीश सूत्रो छे. तेमां लाघव एटले द्रव्यथी अल्प उपधि राखवी ते अने भावथी गौरव( ऋद्धि, रस अने साता गौरव )नो त्याग करवो ते. तथा त्याग एटले सर्व संगनुं वर्जq अथवा संविग्न अने मनोज्ञ साधुने दान आपq ते, तथा ब्रह्मचर्यवडे जे रहे, ते ब्रह्मचर्यवास कहेवाय छे (१)। तथा चित्त एटले मननी समाधि एटले समाधान अर्थात् प्रशांतता, तेना स्थानो एटले आश्रय अथवा भेदो ते चित्तसमाधिस्थानो कहेवाय छे, तेमां धर्मों एटले जीवादिक पदार्थोना उपयोग, उत्पत्ति विगेरे स्वभावो, तेमनी चिंता एटले विचार, अथवा तो सर्वज्ञे कहेलो श्रुतचारित्ररूप धर्म हरिहरादिकना कहेला धर्मथकी प्रधान-उत्तम छे एम जे विचार ते धर्मचिंता कहेवाय छे. अहीं 'वा' शब्द लख्यो छे ते आगळ कहेवाशे एवा बीजा समाधिस्थाननी अपेक्षाए विकल्प ( अथवा )ना अर्थवाळो छ (एज प्रमाणे सर्व 'वा' शब्दो जाणवा). ' से ' एटले जे कल्याणने भजनार ( उत्तम) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SPE चो) -समवाया सूत्र॥ -||३६ ॥ साधु होय तेने ( ते साधुने ) " असमुत्पन्नपूर्वा"-पूर्व अनादि अतीत( भूत )काळने विषे नहीं उत्पन्न थयेली (धर्म- चिंता)उत्पन्न थाय छे. जो कदाच पूर्वे उत्पन्न थइ होय तो अपार्ध पुद्गलपरावर्त सुधीमां ते (साधु )नुं अवश्य कल्याण (मोक्षगमन) थयु होय. तेथी पूर्वे उत्पन्न नहीं थयेली धर्मचिंता उत्पन्न थाय छे, एम कॉ. शा माटे आ (धर्मचिंता) उत्पन्न थाय ? ते उपर कहे छे के-सर्व एटले समग्र धर्म एटले जीवादिक पदार्थोनो स्वभाव, उपयोग, उत्पत्ति विगेरे अथवा श्रुतादिरूप धर्मने 'जाणित्तए-ज्ञपरिज्ञावडे जाणवाने माटे तथा जाणीने प्रत्याख्यानपरिज्ञावडे त्याग करवा लायक कर्मनो त्याग करवा माटे. अर्थात् धर्मना ज्ञाननी कारणभूत एवी धर्मचिंता उत्पन्न थाय छे. आ (धर्मचिंता) उपर । कहेली समाधिनुं उपर कहेल लक्षणवाळु स्थानक थाय छे. आ प्रथम स्थान जाणवू १। तथा स्वप्ननुं एटले निद्राने आधीन थयेला संकल्प-विकल्पना ज्ञाननुं दर्शन एटले अनुभवq ते स्वमदर्शन कहेवाय छे. आईं कल्याण (मोक्ष)नी प्राप्तिने सूचन करनारुं पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलं स्वप्नदर्शन उत्पन्न थाय छे, ते जेम भगवान महावीरस्वामीए अस्थिक गाममां शूलपाणि यक्षे करेला उपसर्गने छेडे (कांइक नेत्र वींचाता) जोयुं हतुं. शा माटे आधुं स्वप्नदर्शन थाय? ते उपर कहे छे-जे प्रकारे सत्य होय ते प्रकारे एटले सर्वथा व्यभिचार दोष रहित एवा ते स्वप्नना फळने जोवा-जाणवा माटे एटले के अवश्य थनार मुक्ति विगेरे शुभ स्वप्नना फळने जोवा माटे साधुने ते, स्वप्नदर्शन थाय छे. कोइ पुस्तकमां 'सुमिणं'ने ठेकाणे 'सुजाणं' एवो पाठ छे. त्यां आवो अर्थ करवो--सत्य अने अवश्य थनार 'सुयानं'-सुगतिने जोवा माटे-जाणवा माटे, अथवा 'सुज्ञानं'-थनार शुभ अर्थना ज्ञाननो अनुभव करवा माटे आईं स्वप्न आवे छे. वळी कल्याणने सूचवनार सत्य Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न जोवाथी (साधुने ) चित्तनी समाधि थाय छे, तेथी आ चित्तसमाधिनुं बीजुं स्थानक जाणवू २ । तथा संज्ञान एटले संज्ञा, ते संज्ञा जो के हेतुवादोपदेशिकी, दृष्टिवादोपदेशिकी अने दीर्घकालिकोपदेशिकी एवा मेदवडे अनुक्रमे विकलेंद्रियने, सम्यग्दृष्टिने अने समनस्क( मनवाळा)ने होवाथी त्रण प्रकारनी छे, तो पण अहीं दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा ग्रहण करवानी छे, ते संज्ञा जेने होय ते संज्ञी एटले समनस्क (मन सहित ) कहेवाय छे. ते संज्ञीनुं जे ज्ञान ते संज्ञीज्ञान कहेवाय छे. आ संज्ञीज्ञान आ अधिकार करेला (चालता) सूत्रमा बीजी रीते घटी शकतुंः नथी, तेथी जातिस्मरण ज्ञान ज लेवार्नु | छे. आधुं ज्ञान पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलं ते साधुने उत्पन्न थाय छे. शा माटे उत्पन्न थाय छ १ ते उपर कहे छे के-पूर्वना भवोने स्मरण करवा माटे. जेने पूर्व भवनुं स्मरण थयु होय तेने संवेग उत्पन्न थवाथी चित्तनी समाधि उत्पन्न थाय छे तेथी आ त्रीजुं समाधिस्थान जाणवू ३ । तथा ते साधुने पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलं एबुं देवनुं दर्शन थाय छे; कारण के ते | देवो ते साधुना गुणो जोवाथी तेने दर्शन आपे छे. शा माटे दर्शन आपे छे एटले ते दर्शन- फळ १ ते उपर कहे छे के| दिव्य-श्रेष्ठ: देवर्द्धि-उत्तम परिवारादिक समृद्धिने, दिव्य देवद्युति-विशेष प्रकारनी (उत्तम) शरीर अने आभरणादिकनी कांति तथा दिव्य देवानुभाव-उत्तम वैक्रिय शरीर करवु ए विगेरे प्रभावने जोवा माटे एटले आ सर्व देखाडवा माटे (देवो दर्शनः आपे छे). देवना दर्शनथी आगमना अर्थने विषे दृढ श्रद्धा अने धर्मने विष बहुमान थाय छे अने तेथी चित्तनी समाधि थाय | छे. आ प्रमाणे देवचं दर्शन चित्तसमाधिनुं चोथु स्थान जाणवू ४। तथा ते साधुने पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलु अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे. शा माटे उत्पन्न थाय छे ? ते उपर कहे छ के-नियमित (अमुक) द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावरूप अवधिवडे-मर्यादावडे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ ३७ ॥ लोक जाणा माटे एटले लोकना ज्ञान माटे. वळी विशिष्ट ज्ञानथकी चित्तनी समाधि थाय ज छे, तेथी आ पांचमुं स्थान जाण ५ । एज प्रमाणे अवधिदर्शननुं सूत्र पण जाणवुं, आ छहुं स्थान जाणवुं ६ । तथा ते साधुने पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलुं • एवं मनपर्यव ज्ञान उत्पन्न थाय छे, शा माटे ? ते कहे छे-अढी द्वीप, वे समुद्रने विषे रहेला पर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रिय जीवोना मनमा रहेला भाव (पदार्थ) ने जाणवा माटे एटले मनना ज्ञान माटे, आ सातमुं स्थान जाणवुं ७ । तथा ते साधुने पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलं केवलज्ञान उत्पन्न थाय छे. शा माटे ? ते कहे छे - केवळ ज्ञानवडे जे केवळ एटले परिपूर्ण जोवाय ते लोक (अने अलोक ) एटले लोकालोकस्वरूप तेने जाणवा माटे. वळी केवळज्ञान चित्तसमाधिनो भेद छे तेथी ते चित्तसमाधिनुं स्थान कहेवाय छे. अहीं केवळीने मन होतुं नथी तेथी चित्तनो अर्थ चैतन्य लेवो. आ आठमुं स्थान थयुं ८ । ए ज प्रमाणे केवळदर्शननुं सूत्र पण जाणं. विशेष ए के अहीं 'जोवाने माटे' एम कहेनुं. ए नवसुं स्थान थयुं ९ । तथा केवळीमरणवडे मरे hatarण करे. शा माटे ? ते कहे छे सर्व दुःखनो नाश करवा माटे. आ केवळीमरण सर्व स्थानोने विषे उत्तम • समाधिस्थान छे. ए दशसुं स्थान थयुं १० । (२) । तथा अकर्मभूमिना एटले भोगभूमिमां उत्पन्न थयेला मनुष्योने दश प्रकारना कल्पवृक्षो उपभोगपणाने माटे प्राप्त थयेला छे तेमां मत्तांग वृक्ष मदिराना कारणभूत छे. भृंगांग वृक्ष भाजन ( वासण) ने आपनार छे. त्रुटितांग वृक्ष सूर्य ( वाजित्र ) ना अंगने प्राप्त करनार छे, दीपशिख वृक्ष प्रदीपनुं कार्य करनार छे, ज्योति एटले अग्नि, तेनुं काम करनार ज्योतिवृक्ष छे, चित्रांग वृक्ष पुष्प आपनार छे, चित्ररस वृक्ष भोजन आपनार छे, यंग वृक्ष आभरण आपनार छे, गेहाकार वृक्ष भवन ( गृह ) पणाए करीने उपकार करनार छे, अनग्नत्व एटले वस्त्र सहित चोथुं अंग ॥ ॥ ३७ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पणुं, तेनुं कारण होवाथी अनग्न वृक्ष कहेवाय छे (८)। घोष विगेरे अग्यार विमाननां नामो छे (१४) ॥ (सूत्र--१०॥) - हवे अग्यार स्थानक कहे छ मू-एकारस उवासगपडिमाओ पन्नत्ता, तं जहा-दंसणसावए १, कयव्वयकम्मे २, सामाइअकडे ३, पोसहोववासनिरए ४, दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे ५, दिआ विराओ विबंभयारी असिणाई विअडभोई मोलिकडे ६, सचित्तपरिणाए ७,आरंभपरिणाए ८, पेसपरिणाए ९, उद्दिट्ठभत्तपरिणाए १०, समणभूए ११ आवि भवइ समणाउसो १ । लोगंताओ इक्कारसएहिं एकारेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसंते पण्णत्ते २। जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स एकारसहिं एकवीसहि जोयणसएहिं अबाहाए जोइसे चारं चरइ ३ । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस गणहरा होत्था, तं जहा-इंदभूई अग्गिभूई वायुभूई विअत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अयलभाए मेअज्जे पभासे ४ । मूले नक्खत्ते एकारसतारे पन्नत्ते ५ । हेडिमगेविज्जयाणं देवाणं एकारसयमुत्तरं गेविजविमाणसतं भवइ ति मक्खायं ६ । मंदरे णं पवए धरणितलाओ सिहरतले एकारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पन्नत्ते ७॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ 11:36 11 इसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता १। पंचमी पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवानं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेइयाणं देवाण एक्कारस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ । लंत कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पभ्रं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंगं बंभसि बंभकूडं बंभुत्तरवर्डिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं (उक्कोसेणं) एक्कारस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ६ ॥ ते णं देवा एक्कारसहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ | तेसि णं देवाणं एक्कारसहं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ २ । संतेगइआ भवसिद्धि जीवा जे एक्कारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति दुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम् - ११ ॥ चोथुं अंग ॥ ॥ ३८ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलार्थ:-श्रावकनी अग्यार प्रतिमाओ कही छे, ते आ प्रमाणे--समकितधारी श्रावक (समकित नामनी प्रतिमा) १, जेणे व्रतकर्म ग्रहण कर्यु होय ते २, जे हमेशा सामायिक करतो होय ते ३, पौषधोपवासमां आसक्त-तत्पर ४, दिवसे ब्रह्मचारी अने रात्रे जेणे (भोगर्नु) परिमाण कयुं होय ते ५, दिवसे अने रात्रे पण ब्रह्मचारी, स्नान रहित, प्रकाशमां भोजन करनार INI अने धोतीआनो कळोटो (काळडी ) न मारे ते ६. सचित्त आहारनो त्यागी ७, स्वयं (जाते-पोते) आरंभनो त्यागी ८. प्रेष्यनो त्यागी ९, पोताने उद्देशीने करेला आहारनो त्यागी १० तथा श्रमणभूत (साधु जेवो) थाय ते ११. हे आयुष्मान | श्रमण (जंबू)! आ अग्यार प्रतिमाधारी श्रावक जाणवो (१) तथा लोकांतथी अबाधावडे-व्यवधानवडे अर्थात् अग्यार सो ने अग्यार योजन अंदर आवीए त्यांथी ज्योतिषनी शरुआत थाय छे (२)। जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे मेरुपर्वतथकी अग्यार सो ने एकवीश योजन चारे बाजु जइए त्यांथी ज्योतिपचक्र चार चरे छे (३)। श्रमण भगवान् महावीरस्वामीने | अग्यार गणधरो हता, ते आ प्रमाणे-इंद्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडित, मौर्यपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य अने प्रभास (४)। मूळ नक्षत्रना अग्यार ताराओ कह्या छे (५)। नीचेना त्रण ग्रेवेयकमां वसता देवोना एक सो अग्यार विमानो छ एम में कां छे (६)। मेरुपर्वत शिखर उपर पृथ्वीतळथी ऊंचाइना प्रमाणथी अग्यारमा भागे ओछा विष्कंभवाळो कह्यो छे, अर्थात् ९९ हजार योजन उंचो छे तेना अग्यारमे भागे ९००० आवे तेटलो ओछो एटले समभूतला उपर दश हजार योजन विष्कंभवाळो छे ते उपर एक हजार योजन रहे छे. (७) आ रत्नप्रभा पृथ्वीमा रहेला केटलाक नारकीओनी अग्यार पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। पांचमी पृथ्वीने विषे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग पुत्र ॥ ॥३९॥ hore नारकीओनी अग्यार सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी अग्यार पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ३ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी अग्यार पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) । लांतक कल्पमा केटलाक देवोनी अग्यार सागरोपमनी स्थिति कही छे ( ५ ) । जे देवो ब्रह्म, सुब्रह्म, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मप्रभ, rain, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्मसृष्ट, ब्रह्मकूट अने ब्रह्मोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अग्यार सागरोपमनी कही छे. ( ६ ) ॥ ते देवो अग्यार अर्धमासने छेडे आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे ( १ ) । ते देवोने . अग्यार हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा केटलाएक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ अग्यार भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण ( शीतळता ) पामशे, अर्थात् सर्व दुःखना अंतने करशे ( ३ ) ॥ टीकार्थ:-- हवे अग्यार स्थानक कहे छे, तेनो अर्थ पण सुगम छे. विशेष ए के - अहीं प्रतिमा विगेरेना अर्थवाळा सात सूत्रोछे, अने स्थिति विगेरेना नव सूत्रो छे । तेमां साधुओनी जेओ उपासना करे एटले सेवा करे ते उपासको एटले श्रावको कहेवाय छे, तेमनी प्रतिमा एटले अभिग्रहरूप जे प्रतिज्ञा ते उपासकप्रतिमा कहेवाय छे. तेमां दर्शन एटले समकित, तेने अंगीकार करनार श्रावक ते दर्शन श्रावक कहेवाय छे. अहीं प्रतिमानो प्रस्ताव छतां पण प्रतिमा अने प्रतिमावा - कानो अभेद उपचार करवाथी प्रतिमाचाळा ( श्रावक )नो निर्देश कर्यो छे. ए रीते उत्तरना ( पछीना) दरेक पदोमां जाण. आनो भावार्थ ए छे के - ( एक मास सुधी ) अणुव्रतादिक गुण ( व्रतो ) विना ज मात्र शंकादिक शल्य रहित चोथुं अंग ॥ ॥ ३९ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lal :// एवा एकला सम्यग्दर्शननो जे स्वीकार करवो ते पहेली प्रतिमा कहेवाय छे १ । तथा (वे मास सुधी) कयु छ अणुव्रतादिकनुं श्रवण, ज्ञान, इच्छा अने स्वीकाररूप कर्म जेणे एटले समकित पामेला जे श्रावके (बहुव्रीहि समास ) ते 'कृतव्रतकर्मा' एटले अणुव्रतादिकने धारण करनार कहेवाय छे. ए बीजी प्रतिमा २। तथा सामायिक एटले सावध योगनो त्याग अने निरवद्य योगर्नु सेवन जेणे देशथी कर्यु होय ते 'सामायिककृत' कहेवाय छे. अहीं व्याकरणना 'आहिताग्नि०' ए सूत्रे करीने 'क्त' प्रत्ययवाळा ( कर्मणि भूतकृदंत) 'कृत ' शब्दने समासमां पहेलो न मूकतां पाछळ मूक्यो छे. आ प्रमाणे पौषध व्रत ग्रहण कर्या विना समकित अने अणुव्रतादिक सहित एवो श्रावक त्रण मास सुधी हमेशां सांज सवार बन्ने संध्यासमये सामायिक करे ते त्रीजी प्रतिमा ३ । तथा पोषने एटले कुशळ धर्मनी पुष्टिने आहारत्यागादिक अनुष्ठानने धारण करे ते पौषध कहेवाय छे, आवा पौषधवडे जे उपवसन एटले एक रात्रिदिवस सुधी ! रहे ते पौषधोपवास कहेवाय छे. अथवा पौषध एटले अष्टमी विगेरे पर्वतिथि. तेने विषे उपवास-अभक्तार्थ धोपवास कहेवाय छे. आ तो मात्र व्युत्पत्ति ज करी एटले समास प्रमाणे शब्दार्थ कर्यो, पण आ शब्दनी प्रवृत्ति तो आहार, शरीरसत्कार, अब्रह्मचर्य (मैथुन) अने व्यापारनो त्याग करवो ते ज छे. आवा पौषधोपवासने विषे जे निरत-आसक्त होय ते 'पौषधोपवासनिरत' कहेवाय छे. श्रावकनी आ चोथी प्रतिमा कहेवाय ए प्रस्तुत छे. आनो भावार्थ ए छे के-पहेली त्रणे प्रतिमा सहित श्रावक चार मास सुधी अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या अने पूर्णिमा ए चार पर्वतिथिए आहारपौषधादिक चार प्रकारना पौषधनो स्वीकार करे, ते चोथी प्रतिमा कहेवाय छे ४।तथा पांचमी प्रतिमाने विषे अष्टम्यादिक पर्वतिथिए एक रात्रिनी वास-अभक्तार्थ करवो ते पौष Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्री चोथं अंग। समवायाङ्ग सत्र ॥ ॥४०॥ प्रतिमा धारण करे. आ अर्थवाढं सूत्र अधिकार करेला आ सूत्र अने पुस्तकोने विषे देखातुं नथी. परंतु उपासकदशांग विगेरेमां प्राप्त थाय छे-देखाय छे. तेथी तेने आधारे आ अर्थ देखाडयो छे. तथा पर्व सिवायनी बीजी तिथिओमां दिवसे ब्रह्मचारी रहे अने' रत्ति' रात्रिने विषे, शुं करे ? ते विषे कहे छे के--रात्रिए स्त्रीओर्नु अथवा तेमना भोगोनुं प्रमाण जेणे कयु होय ते 'परिमाणकृत' कहेवाय छे. आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे--दर्शन, व्रत, सामायिक अने अष्टम्यादिक पर्वतिथिना पौषधोपवास ए चारे प्रतिमा सहित श्रावक पांच मास सुधी पर्वतिथिने विपे एक रात्रिनी प्रतिमा धारण करे (कायोत्सर्ग करे) अने शेष तिथिओमां दिवसे ब्रह्मचारी रहे अने रात्रिए मैथुनर्नु परिमाण करे, स्नान न करे, तथा धोतीयानो कछोटो (काछडी) न बांधे. आ रीते करवाथी आ पांचमी प्रतिमा थाय छे. ते विषे अन्य शास्त्रमा कयुं छे के-" अष्टमी अने चतुर्दशीने विषे एक रात्रिनी प्रतिमा धारण करे, स्नान न करे, दिवसे भोजन करे, धोतीयानो कछोटो छूटो राखे, तथा प्रतिमा सिवायनी तिथिओमां दिवसे ब्रह्मचारी अने रात्रे मैथुन- परिमाण करनार थाय."५।तथा दिवसे अने रात्रीए पण ब्रह्मचारी, अस्नायीस्नान रहित, अहीं कोइ ठेकाणे आ प्रमाणे का छे-'अनिसाइ'-अनिशादी एटले रात्रिए भोजन न करे ते, 'वियडभोई' प्रगट प्रकाशमां एटले दिवसेज पण रात्रिए नहीं, दिवसे पण प्रकाश विनाना स्थानने विपे भोजन न करे, ते विकटभोजी कहेवाय छे, तथा मोलिकडे-'धोतीयानो कच्छ बांधे नहीं ते. आ छठी प्रतिमा कहेवाय छे. अहीं भावार्थ ए छे के--पांचे प्रतिमाने विषे कहेला अनुष्ठान सहित छ मास सुधी ब्रह्मचारी रहे, तेने आ छठी प्रतिमार्नु आराधन थाय छे ६ । तथा सचित्त आहार जेणे परिज्ञात एटले ते( सचित्त आहार )ना स्वरूपादिक जाणवाथकी त्याग Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORG को होय, ते श्रावक 'सचित्ताहारपरिज्ञात' कहेवाय छे. आ सातमी प्रतिमा छे. अहीं भावार्थ ए छे के-पूर्व कहेली छए प्रतिमाना अनुष्ठान सहित सात मास सुधी जे श्रावक प्रासुक आहार करे तेने आ सातमी प्रतिमानुं आराधन थाय छे.७। तथा आरंभ एटले पृथ्वीविगेरेनुं मर्दन कर ते, परिज्ञात एटले पूर्वनी ज जेम जाणीने जेणे निषेध कयों होय, ते श्रावक 'आरंभपरिज्ञात' कहेवाय छे, आ आठमी प्रतिमा छे. अहीं भावार्थ ए छे के पूर्वे कहेला समग्र अनुष्ठान सहित आठ मास सुधी पृथ्व्यादिक आरंभर्नु जे वर्जq ते आठमी प्रतिमा कहेवाय छे ८ । तथा प्रेष्य एटले आरंभना कार्यमा प्रेरणा करवा लायक चाकरो जेणे परिज्ञात एटले निषेध कर्या होय ते श्रावक 'प्रेष्यपरिज्ञात' कहेवाय छे ते नवमी प्रतिमा. आनो भावार्थ ए छे के-पूर्वे कहेला समग्र अनुष्ठान सहित श्रावक नव मास सुधी बीजानी पासे आरंभ करावे नहीं ते नवमी प्रतिमा छे ९ । तथा उद्दिष्ट एटले ते ज (प्रतिमा वहन करनार ) श्रावकने उद्देशीने करेलु जे ओदनादिक भक्त ते उद्दिष्टभक्त कहेवाय छे, ते जेणे परिज्ञात एटले जाणीने निषिद्ध कयु होय ते श्रावक 'उद्दिष्टभक्तपरिज्ञात' प्रतिमा धारक कहेवाय छे. अहीं भावार्थ ए छ के-पूर्वे कहेला समग्र गुण सहित श्रावक दश मास सुधी आधार्मिक भोजननो त्याग करे, सजायावडे मस्तकने मुंडावे अथवा शिखावाळो रहे, तथा कोइकाइ पण घरनो वृत्तांत पूछे त्यारे पोते ते वात जाणतो होय तो 'हुं जाणुं छु' एम कहे अने न जाणतो होय तो 'हुँ जाणतो नथी' एम कहे, आ प्रमाणे जे उत्कृष्टपणे विचरे ते श्रावकने दशमी प्रतिमा कहेवाय छे १० । तथा श्रमण एटले निग्रंथ, तेनुं अनुष्ठान (क्रिया.) करवाथी जे तेना जेवो होय ते 'श्रमणभूत' एटले साधुतुल्य कहेवाय छे. अहीं सूत्रमा जे च' शब्द छे ते समुच्चय ( अने RECEMBEDEOS SUPS Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग। समवायाङ्ग सत्र॥ ॥४१॥ एवा ) अर्थमां छे, अने 'अपि' शब्द छे ते संभावनाना अर्थमां छे. आवो साधुतुल्य जे श्रावक होय ते हे श्रमण ! हे आयुष्मान! अग्यारमी प्रतिमा धारक कहेवाय छ एम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने संबोधन करवापूर्वक कां. आनो भावार्थ एछे के-पूर्वे कहेला सर्व गुणे करीने सहित जे श्रावक क्षुरवडे मस्तक मुंडावे अथवा मस्तके लोच करे, साधुनो वेष धारण करे, ईर्यासमिति विगेरे साधुना धर्मर्नु पालन करे, भिक्षाने माटे गृहस्थना कुळमां प्रवेश करे त्यारे 'प्रतिमा वहन करनारा मने-श्रमणोपासकने भिक्षा आपो'ए प्रमाणे बोले तथा 'तुं कोण छे ?' एम तेने कोइ पूछे त्यारे 'हुं प्रतिमा वहन करनार श्रमणोपासक छु,' ए प्रमाणे जवाव आपे. आ प्रमाणे अग्यार मास सुधी करे, ते अग्यारमी प्रतिमा कहेवाय छे ११ । वळी अन्य पुस्तकमां आ प्रमाणे वाचना (पाठ) छे-दर्शनश्रावक ए पहेली प्रतिमा, कतव्रतकर्मा ए बीजी, कृतसामायिक ए त्रीजी, पौषधोपवासनिरत ए चोथी, रात्रिभक्तपरिज्ञात ए पांचमी, सचित्तपरिज्ञात ए छट्ठी, दिवा ब्रह्मचारी रात्रे परिमाणकृत ए सातमी, दिवसे अने रात्रिए पण ब्रह्मचारी तथा स्नान रहित होय तथा केश, रोम अने नखने उतारे नहीं ए आठमी, आरंभपरिज्ञात अने प्रेषणपरिज्ञात ए नवमी, उद्दिष्टभक्तवर्जक ए दशमी अने श्रमणभृत एवो पण होय ते हे श्रमण ! हे आयुष्मान! अग्यारमी प्रतिमा कहेवाय छे. वळी कोइ ग्रंथमां आ प्रमाणे छे-आरंभपरिज्ञात ए नवमी, प्रेष्यारंभपरिज्ञात ए दशमी तथा उद्दिष्टभक्तवर्जक अने श्रमणभूत ए अग्यारमी. आवो पण पाठांतर छे (१)। तथा जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे मेरुपर्वतथी अग्यार सो अने एकवीश अधिक एटला योजननी अवाधाए एटले व्यवधाने करीने (आंतरे) ज्योतिपर्नु चक्र चार चरे छे-भ्रमण करे छे (३)। तथाणं' ए शब्द वाक्यना अलंकार - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माटे छे. लोकांतथकी अग्यार सो ने अग्यार योजननी अबाधाए करीने एटले बच्चे व्यवधान ( आंतरूं) करीने लोकांतनी अंदर ११११ योजने ज्योतिषचक्रनो पर्यंत-छेडो कह्यो छे. आ वाचनांतरनी व्याख्या छे, ते विपे का छे के"अग्यारसो ने एकवीश तथा अग्यार सो ने अग्यार योजन प्रमाण मेरु अने अलोकनी अबाधाए ज्योतिषचक्र चार चरे अने रहेढं छे." । परंतु आ चालती वाचनाने विषे तो आ हमणां व्याख्यान करेला वे आलावा उलटा पण देखाय छे' (२)। KML एकारसयमुत्तरं विमाणसयं भवति त्ति अक्खायं ति' अहीं 'म' अक्षर आगम संबंधी होवाथी आवो अर्थ करवोल अग्यार सहित सो विमान (अर्थात् १११) विमान होय छे एम करीने (जाणीने) 'आख्यातं' एटले भगवाने तथा बीजा NI.केवळीओए का छे एवं सुधर्मास्वामीनु वचन छ (६)। मेरुपर्वत पृथ्वीतळथकी शिखरतळने विपे ऊंचाइना प्रमाणथी अग्यारमे भागे ओछो कह्यो छे. आनो भावार्थ आ प्रमाणे छ-मेरुपर्वत भूमितळथी आरंभीने शिखरतळना उपला भाग सुधी विष्कभनी अपेक्षाए अंगुल विगेरेना अग्यारमा अग्यारमा भागे करीने हानि पामतो सतो उपर उपर कहेलो छे. आनी भावना आ प्रमाणे छे-मेरुपर्वतनो विष्कम भूमितळमां दश हजार योजन छे, त्यांथी एक अंगुल ऊंचा जइए त्यारे तेनो विष्कंभ अंगुलनो अग्यारमो भाग ओछो थाय छे. ए प्रमाणे गणतां अग्यार अंगुल ऊंचे जइए त्यारे एक आंगळ घटे छे. al एज न्यायवडे अग्यार योजन जइए त्यारे एक योजन घटे छे, एज रीते अग्यार हजार योजने एक हजार योजन घटे छे, तेथी नवाणु हजार योजने नव हजार योजन घटे छे. तेथी शिखर उपर एक हजारनो विष्कंभ रहे. छे. अथवा तो पृथ्वीतळना . १ अहीं टीकामां जीजा सूत्रनी व्याख्या प्रथम करी छे अने बीजा सूत्रनी व्याख्या पछी करी छे. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग ॥ विष्कभथकी शिखरना विष्कभने आधीने मेरुपर्वत अग्यारमा भागे ओछो छे. कोना अग्यारमा भागे? ते कहे छे-उच्चसमवायाङ्ग त्वना अग्यारमा भागे. एटले के-मेरुनु ऊंचपणुं नवाणु हजार योजननुं छे. तेनो अग्यारमो भाग नव छे, ते नव हजारे करीने हीन एवो विष्कंभ पृथ्वीतळना विष्कभनी अपेक्षाए शिखरतळने विषे छे; केमके शिखर उपर एक हजार योजननो विष्कंभ छे अने मूळमां दश हजार योजननो विष्कम छ (७)॥ ब्रह्म विगेरे बार विमाननां नामो छे. (६) सूत्र (११) हवे बार स्थानक कहे छे... मू०-बारस भिक्खुपडिमाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-मासिआ भिक्खुपडिमा, दोमासिआ भिक्खुपडिमा, तिमासिआ भिक्खुपडिमा, चउमासिआ भिक्खुपडिमा, पंचमासिआ भिक्खुपडिमा, छमासिआ भिक्खुपडिमा, सत्तमासिआ भिक्खुपडिमा, पढमा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा, दोच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा, तच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा, अहोराइआ भिक्खुपडिमा, एग१. राइआ भिक्खुपडिमा १ । दुवालसविहे संभोगे पन्नत्ते, तं जहा-" उवहीसुअभत्तपाणे, अंजलीपग्गहे त्ति य । दायणे य निकाएआ अब्भुट्ठाणेति आवरे ॥१॥ कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्च १ आ आठमीथी बारमी सुधीनी पांच समजवी. ॥४२॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करणे इअ । समोसरणं सनिसिज्जा य, कहाए अ पबंधणे ॥२॥" २ । दुवालसावत्ते कितिकम्मे ! पन्नत्ते, तं जहा-“दुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ १॥" ३ । विजया णं रायहाणी दुवालस जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता ४ । रामे णं बलदेवे दुवालस वाससयाइं सवाउयं पालित्ता देवत्तं गए ५। मंदरस्स णं पवयस्स चूलिआ मूले दुवालस जोयणाइं विक्खंभेणं पण्णत्ता ६ । जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइआ मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता ७ । सवजहणिया राई दुवालसमुहुत्तिआ पण्णत्ता ८। एवं दिवसोऽवि नायवो ९। सवट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लाओथूभिअग्गाओ दुवालस जोयणाई उद्धं उप्पइआ ईसिपब्भारनामपुढवी पण्णत्ता १० । ईसिपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-ईसित्ति वा इसिपब्भाराति वा तणूइ वा तणूयतरि त्ति वा सिद्धित्ति वा सिद्धालए त्ति वा मुत्तीति वा मुत्तालए त्ति वा बंभे त्ति वा बंभवडिसए त्ति वा लोकपरिपूरणे त्ति वा लोगग्गचूलिआइ वा ११ ॥ . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ie चोथु अंग॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं बारस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता मवाया। १। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वारस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वारस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं वारस पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ४ । लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा मंहिंद महिंदज्झयं कंबुं कंबुग्गीवं पुखं सुपुंखं महापुंखं पुडं सुपुंडं महापुंडं नरिंदं नरिंदकंतं नरिंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वारस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ ॥ __ ते णं देवा वारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं बारसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ २ । संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३॥ सूत्रम् ॥-१२॥ ॥४३॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थः-चार भिक्षुप्रतिमाओ कही छे, ते आ प्रमाणे-एक मासनी भिक्षुप्रतिमा १, वे मासनी भिक्षुप्रतिमा २, ॥ त्रण मासनी भिक्षुप्रतिमा ३, चार मासनी भिक्षुप्रतिमा ४, पांच मासनी भिक्षुप्रतिमा ५, छ मासनी भिक्षुप्रतिमा ६, सात मासनी भिक्षुप्रतिमा ७, (त्यार पछी) पहेली सात रात्रिदिवसनी भिक्षुप्रतिमा ८, बीजी सात रात्रिदिवसनी भिक्षुप्रतिमा ९, त्रीजी सात रात्रिदिवसनी भिक्षुप्रतिमा १०, एक रात्रिदिवसनी प्रतिमा ११, एक रात्रिनी भिक्षुप्रतिमा १२ । १ । बार प्रकारनो संभोग कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-उपधि, श्रुत, भक्तपान, अंजलिप्रग्रह, दान, निकाच (निमंत्रण), वळी वीजुं ' अभ्युत्थान, कृतिकर्मनुं करवू, वैयावच्चनुं करवू, समवसरण ( साधुओर्नु एकत्र संमीलन थर्बु ), संनिषद्या (आसन) अने कथाप्रबंध । २ । बार आवर्तवालं कृतिकर्म (वंदन) कर्तुं छे, तेमां २५ आवश्यक छे ते आ प्रमाणे-द्विअवनत (जेमां वे वार अर्ध नमबु पडे ते), यथाजात (प्रव्रज्या तथा प्रसूतिना जन्मनो देखाव जेमां होय ते), वार आवर्तवालं कृतिकर्म (अहो, कार्य विगेरे), चउसिर (जे वंदनमा चार वार मस्तक नमाववानुं होय ते), त्रिगुप्त (त्रण गुप्तिवडे गुप्त), दुपवेस । (जेमां वे वार प्रवेश होय ते), एग निख्खमण (जेमां एक बार बहार नीकळवार्नु होय ते) ३ विजया नामनी राजधानी आयामविष्कंभवडे (लंबाइ-पहोळाइवडे ) बार हजार योजन कहेली छे (बीजा जंबूद्वीपमां जगतीथी बार हजार योजन जइए त्यारे आवे छे.) ४ । राम नामना नवमा बळदेव बार सो वर्ष प्रमाण पोतानुं सर्व (आ) आयुष्य पाळीने देवपणुं पाम्या छे ५। मेरुपर्वतनी चूलिका विष्कम( पहोळाइ )वडे मुळमां वार योजन प्रमाण कही छे ६। जंबूद्वीप नामना द्वीपनी वेदिका (जगती) मूळमां विष्कंभवडे बार योजननी कही छे ७ । (आखा वर्षमां) सर्व जघन्य ( नानामां नानी) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ ॥ ४४ ॥ - रात्रि बार मुहूर्त्तनी कही छे ८ । ए ज प्रमाणे दिवस पण ( सर्व जघन्य बार मुहूर्त्तनो ) जाणवो ९ । सर्वार्थसिद्ध नामना विमाननी उपली स्तूपना अग्रभागथकी बार योजन उपर ऊंचे जइए त्यां ईपत्प्राग्भार नामनी पृथ्वी कही छे ( त्यांथी - उत्सेधांगुलना एक योजने लोकांत आवे छे ) १० । ईषत्प्राग्भार नामनी पृथ्वीना वार नाम कहेलां छे, ते आ प्रमाणे - ईषत् १, ईषत्प्राग्भार २, तनु ३, तनुकतर ४, सिद्धि ५, सिद्धालय ६, मुक्ति ७, मुक्तालय ८, ब्रह्म ९, ब्रह्मावतंसक १०, लोकप्रतिपूरणा ११ अने लोकाग्रचूलिका १२ ॥ ११ ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी बार पल्योपमनी स्थिति कही छे १ । पांचमी पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीओनी वार सागरोपमनी स्थिति कही छे २ । केटलाक असुरकुमार देवोनी बार पल्योपमनी स्थिति कही छे ३ । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी बार पल्योपमनी स्थिति कही छे ४ । लांतक कल्पमां केटलाक देवोनी बार सागरोपमनी स्थिति कही छे ५ । जे देवो महेंद्र, माहेंद्रध्वज, कंबु, कंबुग्रीव, पुंख, सुपुंख, महापुंख, पुंड, सुपुंड, महापुंड, नरेंद्र, नरेंद्रकांत अने नरेंद्रावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बार सागरोपमनी कही छे ॥ ६ ॥ ते देवो चार अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे १ । ते देवोने चार हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे २ । एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ बार भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण ( शीतळता ) पामशे अर्थात् सर्व दुःखना अंतने करशे ॥ ३ ॥ चो अंग ॥ ॥ ४४ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थः-हवे चार स्थानक कहे छे, ते सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-स्थितिना सूत्रोनी पहेला अग्यार सूत्रो कह्यां छे. JANM तेमां विशेष प्रकारना (सारा) संहननवाळा अने श्रुत(आगम )वाळा भिक्षु( साधु )ओनी जे प्रतिमा एटले विशेष प्रकारना अभिग्रहो ते भिक्षुप्रतिमा कहेवाय छे । तेमां एक मासनी (वे मासनी) त्यांथी आरंभीने सात मासनी प्रतिमा सुधी सात प्रतिमाओ उत्तरोत्तर एक एक मासनी वृद्धिवाळी अने एक एक भात-पाणीनी दत्तिवडे वृद्धिवाळी जाणवी (एटले के एक मासनी पहेली प्रतिमा, तेमां एक मास सुधी हमेशां भात-पाणीनी एक एक दत्ति लेवानी होय छे. ए जरीते बीजी वे मासनी, तेमां हमेशां भात-पाणीनी बेबे दत्ति, ए जरीते वृद्धि करतां सातमी सात मासनी, तेमां हमेशा भातपाणीनी सात सात दात्त लवानी होय छ. एम सात प्रतिमाओ थइ ). तथा जे प्रतिमाने विष सात रात्रिदिवस होय छे ते एटले सात सात रात्रिदिवसनी त्रण प्रतिमाओ होय छे, अर्थात् सात प्रतिमानी पछी आठमी प्रतिमा सात रात्रिदिवसनी, ए ज प्रमाणे (सात रात्रिदिवसनी) नवमी बीजी अने दशमी त्रीजी प्रतिमा जाणवी. आ त्रण प्रतिमाओमा क्रियाए करीने विशेष छ ( वधारे तफावत छे ). ते आ प्रमाणे-आठमी प्रतिमाने विषे चतुर्थभक्त तप, ग्रामादिकनी बहार रहेQ अने उत्तान (चिता सूg ) विगेरे आसने रहेवार्नु छ, नवमी प्रतिमाने विष उत्कटुक विगेरे आसनवडे विशेषे रहेवानुं छे, | अने दशमीने विपे वीरासनादिकवडे विशेष रहेवानुं छे तथा एक अहोरात्रना (रात्रिदिवसना) प्रमाणवाळी अग्यारमी प्रतिमा छे, तेमां छठभक्त तप करवानो छे एटलं विशेष छे अने एक रात्रिना प्रमाणवाळी बारमी प्रतिमा छे, ते अठमभक्त तपनी छे. तेमां छेल्ली रात्रिए हाथ लांचा राखी वे पग मेळा राखी, काइक कायाने नम्र राखी (नमावी) नेत्रना RREEITAware Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S श्री समवायाङ्ग ॥४५॥ निमेषोन्मेष कर्या विना स्थिर रहीने कायोत्सर्ग करवानो छ (१) तथा सम् एटले एकपणाए करीने ( साथे रहीने) सरखा आचारवाळा साधुओर्नु जे भोजन (भोगवटो) ते संभोग कहेवाय छे. ते संभोग उपधि विगेरे स्वरूपवाळा विषयना भेदथी बार प्रकारनो छे.-तेमां 'उवही.' इत्यादि बे गाथाओ मूळमां आपी छे, तेमां उपधि एटले वस्त्र-पात्र विगेरे, ते उपधिने संभोगिक साधु बीजा संभोगिक साधुनी साथे रहीने उद्गम, उत्पादना अने एषणाना दोष रहित विशुद्धने ग्रहण करे तो ते शुद्ध जाणवो अने अशुद्धने ग्रहण करे तेम ज तेने बीजो प्रेरणा करे त्यारे ते प्रायश्चित्त ग्रहण करे. आ रीते त्रण वार अशुद्ध ग्रहण करी त्रणे वार प्रायश्चित्त ले तो ते त्यां सुधी ज संभोगने लायक छ, अने चोथी वखते प्रायश्चित्त अंगीकार करे तो पण ते विसंभोगने ज लायक छे, एम जाणवू. वळी ( संभोगिक साधु ) विसंभोगिकनी साथे अथवा पासत्थादिकनी साथे अथवा साध्वीनी साथे रहीने कारण विना शुद्ध अथवा अशुद्ध उपधिने ग्रहण करे अने बीजानी प्रेरणाथी प्रायश्चित्त ग्रहण करे तो पण ते त्रण वार पछी चोथी वारे असंभोग्य थाय छे. ए ज प्रमाणे उपधिनुं परिकर्म (साफसुफ) अने परिभोग ( भोगवटो) करनार साधु संभोग्य अने असंभोग्य थाय छे. ते विषे कयु छ के-" एक बार, वे वार के त्रण वार आलोचना करनारने प्रायश्चित्त होइ शके छे. त्यारपछी-त्रण वार प्रायश्चित्त लीधा पछी आलोचना करे तो पण ते असंभोग्य थाय छ।१।" (१) तथा 'सुय'संभोगिक साधु के अन्य सांभोगिक साधु पोतानी पासे श्रुत भणवा आव्यो होय, तेनी पासे पोते विधिपूर्वक वाचना, पृच्छना विगेरे करे तो ते शुद्ध छे. परंतु ते आवनार (साधु ) अविधिथी प्राप्त थयेल होय, अथवा ( भणवाना इरादाथी) प्राप्त ॥४५॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थयेल न होय, अथवा ते पार्श्वस्थादिक होय, अथवा तो स्त्री होय, तेने (आ सर्वने अथवा तेमांथी कोइने पण ) पोते वाचनादिक करे (आपे) तो ते ते ज प्रमाणे त्रण वार (प्रायश्चित्त लीधा) पछी असंभोग्य थाय छे (२). तथा भक्तपानना विषयमां उपधि प्रमाणे जाणवु. विशेष ए के त्यां (उपधि द्वारमा) परिकर्म अने परिभोग कह्या हता तेने बदले अहीं भोजन (जमवू) अने दान (आप) ए वे कहेवा (३). तथा 'अंजलीपग्गहे त्ति य'-अहीं ज्या ज्यां इति शब्द लख्या छ ते सर्व उपदर्शनना अर्थवाळा अने च शब्द लख्या छे ते सर्वे समुच्चयना अर्थवाळा छे एम जाणवू. अहीं अंजलिप्रग्रह-हाथ जोडवा एम लख्यु छे, तेना उपलक्षणथकी वंदनादिक पण जाणी लेवा. ते आ प्रमाणे सांभोगिक के अन्य सांभोगिक संविग्न( साधु )ने पोते वंदन करे, हाथ जोडे, क्षमाश्रमणने नमस्कार छ एम बोले, तथा आलोचनाने माटे, सूत्रने माटे अने अर्थने माटे आसन पाथरे, आ सर्वने करनार पोते शुद्ध छे, पण आ सर्व पार्श्वस्थादिकने करे तो उपर प्रमाणे (त्रण वार प्रायश्चित्त ग्रहण करतो सतो ) संभोग्य अने ( त्यारपछी ) असंभोग्य जाणवा (४). तथा 'दायणे य' दान (शिष्यगण बीजाने सोपवो ते ) तेमां एक सांभोगिक पोते पोताना ज सांभोगिकने शिष्यनो गण सोंपे अथवा तो ते सांभोगिक ते शिष्यगणने वस्त्रादिक उपग्रह आपवामां असमर्थ होय तो अन्य सांभोगिकने पोतानो शिष्यगण सोंपे, तो ते शुद्ध छे; परंतु कारण विना विसंभोगिकने के पार्श्वस्थादिकने के साध्वीने ते शिष्यगण सोंपे तो ते पूर्वनी जेम ज संभोग्य अने असंभोग्य थाय छे. (५). तथा 'निकाए अ' निकाचन एटले छंदन अर्थात् निमंत्रण करवू ते. तेमांशय्या, उपधि अने आहारवडे तथा शिष्यगण सोंपवावडे तथा स्वाध्यायवडे सांभोगिक साधु पोताना सांभोगिक साधुने निमंत्रण करे तो ते शुद्ध छे. शेष Is - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग॥ ...श्री सर्व पूर्वनी जेम जाणवु (६). तथा 'अब्भुटाणे त्ति यावरे'-अभ्युत्थान एटले पोते आसननो त्याग करे, ते अपर समवायाङ्ग एटले बीजूं संभोग के असंभोग स्थान जाणवू. तेमां पावस्थादिकनी सामे जो पोते अभ्युत्थान करे तो ते ते ज प्रमाणे असं | भोग्य जाणवो. आ अभ्युत्थाननुं उपलक्षण होवाथी (आ बीजी त्रण बाबत पण जाणवी)-पाहुणो (परोणो) के ग्लानादिक अवस्थावाळो होय तेनी पासे 'हुँ तमारी विश्रामणादिक (सेवादिक ) शुं करूं?' ए प्रमाणे प्रश्नना स्वरूपवाळु किंकरपणुं करे, तथा न्यासकरण एटले पार्श्वस्थादिकनो धर्म जोइ संविग्नधर्मथी भ्रष्ट थयेल साधुने फरीथी त्यां ज (साधुधर्ममांज) स्थापन करवो ते, तथा अविभक्ति एटले अपृथकपणुं अर्थात अभेदपणुं तेने करतो एवो साधु अशुद्ध अने असंभोग्य थाय छे. आ सर्व बावतोने आगममां कह्या प्रमाणे करे तो ते शुद्ध अने संभोग्य जाणवो (७). तथा 'किकम्मरस य करणे' कृतिकर्म एटले वंदन, तेनुं करवू. आ वंदन विधि प्रमाणे करे तो ते शुद्ध छे अने अन्यथा तेज प्रमाणे असं. | भोग्य छ एम जाणवू. आनो विधि आ प्रमाणे-जे साधु वायुवडे स्तब्ध शरीरवाळा होवाथी उठवू विगेरे क्रिया करवामां | - अशक्त होय, ते अस्खलितादिक गुणे करीने सहित एवा सूत्रनोज मात्र उच्चार करे, ए ज प्रमाणे आवर्त अने मस्तक नमा वधु विगेरे जेवी शक्ति होय ते प्रमाणे अवश्य करे, आ प्रमाणे अशठ (शठता रहित ) प्रवृत्ति करवी ए ज बंदनविधि छ (८). तथा 'वेयावच्चकरणे इय' वैयावृत्त्यनुं कर एटले आहार अने उपधि आपवादिकवडे, मुत्रादिकनी कुंडी (पान) N आपवादिकवडे, अधिकरण दोषने शमाववावडे तथा सहाय आपवावडे उपष्टंभ (टेको) आपवो ते. आ विपयमां संभोग अने असंभोग थाय छे. (९). तथा 'समोसरणं' जिनेश्वरनी स्नात्रपूजा, तेना रथनी पाछळ चालवू तथा पट्टयात्रा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिकने विषे जे ठेकाणे घणा साधुओ एकठा मळे ते समवसरण कहेवाय छे. अहीं क्षेत्रने आश्रीने सर्व साधुओनो साधारण A अवग्रह होय छे अने वसति( उपाश्रय )ने आश्रीने साधारण अने असाधारण बन्ने प्रकारनो अवग्रह होय छे. आ कहेवाजावडे बीजा पण अवग्रहो उपलक्षणथी जाणी लेवा. ते अनेक प्रकारना छे, ते आ प्रमाणे-वर्षावग्रह, ऋतुबद्धावग्रह अने वृद्धवासावग्रह, आ दरेकना साधारणावग्रह अने प्रत्येकावग्रह एम बब्बे भेद छे. तेमां जे क्षेत्र वर्पाकल्प विगेरेने माटे एकी साथे भिन्न गच्छवाळा वे विगेरे साधुओए अनुज्ञा लइने ग्रहण कर्यु होय, ते साधारण अवग्रह कहेवाय छे. परंतु जे क्षेत्रनो केटलाक ( एक समुदायना) साधुओए अनुज्ञा लइ आश्रय कर्यो होय, ते प्रत्येक अवग्रह कहेवाय छे. आ प्रमाणे होवाथी आ अवग्रहोने विषे आकुट्टीने लीधे ( हिंसाने लीधे ) अनाभाव्य (अकल्प्य ) एवा शिष्यरूप सचित्तने के वस्त्रादिक अचित्तने ग्रहण करनारा तथा अनाभोगवडे ग्रहण करेली वस्तुने पाछी नहीं आपनारा साधुओ समनोज्ञ अने अमनोज्ञ कहेवाय छे, तथा तेओ प्रायश्चित्तवाळा थाय छ अने छेवट असंभोग्य थाय छे. तथा पार्श्वस्थादिकने अवग्रह ज होतो नथी, तो पण जो ते क्षेत्र नानुं होय अने पोते संवेगी साधुओ अन्यत्र निर्वाह करी शके तेम होय तो ते क्षेत्रनो त्याग ज करे अने जो ते पार्श्वस्थादिकनुं क्षेत्र मोटुं होय अने संवेगी साधुओ अन्यत्र निर्वाह करी शके तेम न होय तो तेना क्षेत्रमा पण प्रवेश करे | अने सचित्त शिष्यादिकने ग्रहण करे, तेथी प्रायश्चित्तवाळा पण थता नथी. ते विषे कह्यु छ के-" अदत्त अने अकल्प्यने ग्रहण करवाथी समनोज्ञ अने अमनोज्ञ थाय छे. तेमां अमनोज्ञने संभोगथी जुदा करवा. तथा निर्वाहने अभावे पार्थस्थादि: कनी अनुज्ञा लइने रही शके छे. (१)" (१०) तथा सन्निसिज्जा य' संनिषद्या एटले आसनविशेष. ते संनिषद्या संभोग Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समवायाङ्ग सूत्र॥ ॥४७॥ अने असंभोगर्नु कारण थाय छे, ते आ प्रमाणे-अक्षनिषद्या (स्थापनाचार्य) विना (सूत्रार्थनी) व्याख्या करनार अने सांभळनारने प्रायश्चित्त लागे छे. तथा निपद्या (आसन) उपर बेसीने (शिष्य) सूत्रार्थने (गुरु पासे) पूछे, तथा जो आलोचनाने आलोवे तो ते ज प्रमाणे तेने प्रायश्चित्त लागे छ (१). तथा' कहाए य पवंधणे-वादादिक पांच प्रकारनी कथानु जे करवू ते कथाप्रबंधन कहेवाय छे. तेमां संभोग अने असंभोग थइ शके छे. (पांच प्रकार आ प्रमाणे-) तेमां ला कोइ मतनो स्वीकार करीने पांच अवयवचाळा अथवा त्रण अवयववाळा ( अनुमान प्रमाणना) वाक्यवडे जे ते मतने सिद्ध करवो, ते छळजाति रहित सत्यार्थर्नु अन्वेषण करनार वाद कहेवाय छे, तेज वाद जो छळजातिवडे पराभवना स्थानरूप होय तो ते जल्प कहेवाय छे, जे ठेकाणे वाद करनारा वेमांथी एकना पक्षने ग्रहण करनार हाजर होय अने बीजाना पक्षने ग्रहण करनार कोइ न होय तो ते मात्र दूपण आपवामां ज प्रवृत्त होवाथी वितंडा कहेवाय छे, तथा चोथी प्रकीर्णकथा छे, ते उत्सर्ग मार्गनी कथा अथवा तो द्रव्यास्तिक नयनी कथा कहेवाय छे, तथा पांचमी निश्चय कथा छे, ते अपवाद मार्गनी कथा अथवा पयार्यास्तिक नयनी कथा कहेवाय छे. तेमां पहेली त्रण कथाओ साध्वी विना बीजानी साथे करवा लायक छे, परंतु जो साध्वी साथे करे तो तेने प्रायश्चित्त लागे छे. (ते त्रण वार प्रायश्चित्त ले त्यां सुधी संभोगने लायक छ अने) चोथी वार प्रायश्चित्त ले तो पण ते विसंभोगने लायक छ (असांभोगिक छे), आ प्रमाणे वे गाथानो संक्षेपथी अर्थ कह्यो. तेनो विस्तरार्थ तो निशीथ सूत्रना पांचमा उद्देशकना भाष्यमाथी जाणी लेवो (२) तथा 'दुवालसवत्ते किड़कम्मे-द्वादशावर्त कृतिकर्म-वंदनक कहेलं छे, आ द्वादशावर्तनो ज अनुवाद करता Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सता अने वीजा तेनी समान धर्मवाळा वंदनोने कहेवानी इच्छावाळा सता (ग्रंथकार) एक गाथा कहे छ.-'दुओणए'N: अवनति एटले अवनत अर्थात् मस्तकनुं नमावq ते. जे चंदनमां बे वार अवनत होय ते व्यवनत कहेवाय छे. तेमां एक ज्यारे प्रथम ज " इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए" ए प्रमाणे बोली अवग्रहनी अनुज्ञा लेवा माटे नमन करे ते. तथा बीजुं ज्यारे बीजी वार अवग्रहनी अनुज्ञापनाने माटे नमन करे ते. तथा 'यथाजात' 16 -साध थवारूप जन्मने आश्रीने तथा योनिमार्ग बहार नीकळवारूप जन्मने आश्रीने एम वे प्रकारे यथाजात कहेवाय छे.. तेमां मात्र रजोहरण, मुखवस्त्रिका अने चोलपट्टवडे ज साधु थयो हतो, अने वे हाथ जोडीने ज योनिमाथी नीकळ्यो हतो, तेथी आवा प्रकारनो थइने ज वांदे, अथवा (बन्ने प्रकारना जन्म वखते) आटली वस्तु विना (जन्म) होय नहीं तेथी (ते वंदन) यथाजात कहेवाय छे तथा 'कृतिकर्म (कितिकम्म) -एटले वंदनक, ते 'बारसावयं' द्वादशावर्त एटले चार IN आवर्तवाल्लु अर्थात् जेमां सूत्रना नाम अंतर्गत रहेला होय एवी विशेष प्रकारनी कायचेष्टा के जे साधुजनमा प्रसिद्ध छे ते (अहोकायं काय इत्यादि) द्वादशावर्त कहेवाय छे. तथा 'चउसिरं' जे वंदनमा चार (वार) मस्तक (नमाववानु) होय ते । चतु:शिरः वंदनक कहेवाय छे. एटले के प्रथम प्रवेश करे त्यारे.शिष्यना क्षामणासमये शिष्य अने आचार्य संबंधी वे मस्तक तथा फरीथी नीकळीने प्रवेश करे त्यारे पण ते जबे मस्तक, एम चार मस्तक जाणवा. तथा 'तिगुत्तं'-त्रण गुप्तिवडे गुप्त, अथवा (तिसुद्धं ) पाठांतरनी अपेक्षाए पण त्रण गुप्तिवडे ज शुद्ध (एबुं वंदनक). तथा 'दुपवेसं' जे वंदनकने विषे वे (वार) प्रवेश होय ते. तेमां अवग्रहनी अनुज्ञा लइने प्रवेश करनारने पहेलो अने पछी फरीथी नीकळीने प्रवेश करनारने बीजो Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समवायाङ्ग सूत्र॥ ॥४८॥ एम के प्रवेश थाय छे. तथा एगनिक्खमणं 'जे वंदनमा एक निष्क्रमण (बहार नीकळवू) होय ते. एटले के-आवश्यिकी भणीने अवग्रहथकी ( एक ज वार ) बहार नीकळे छे, केम के बीजी वार अवग्रहथकी बहार नीकळवार्नु ज नथी. पण पगमां पडीने ज सूत्र समाप्त करवानुं छे (आ सूत्र भणी जवानुं छे) (३)। तथा 'विजया राजधानी' विजया नामनी राजधानी एटले के-आ जंबूद्वीपने विषे विजय नामना पूर्वद्वारनो अधिपति विजय नामनो देव एक पल्योपमनी स्थितिवाळो छे, तेनी विजया नामनी राजधानी असंख्याता द्वीप समुद्रो पछी आवता जंबूद्वीपमा छे (४)। तथा राम एटले नवमा बळदेव ( बार हजार वर्षनुं कुल आयुष्य पाळीने) पांचमा देवलोकमां देवपणुं पाम्या (५)। तथा सर्व जघन्य रात्रि एटले उत्तरायणना छेल्ला अहोरात्रनी रात्रि बार मुहर्तनी एटले चोवीश घडीनी छ (८)। एज प्रमाणे दिवस पण सर्व जघन्य बार मुहूर्त्तनो होय छे, ते दक्षिणायननो छेल्लो दिवस होय छे (९)॥ माहेंद्र, माहेंद्रध्वज, कंचु, कंबुग्रीव, विगेरे तेर नाम विमानना छे (६) सूत्र-१२ ॥ हवे तेर स्थानक कहे छे. मू-तेरस किरियाठाणा पन्नत्ता, तं जहा-अट्टादंडे अणट्ठादंडे हिंसादंडे अकम्हादंडे दिद्विविपरिआसिआदंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झथिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरिआवहिए नाम तेरसमे १ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणप o Fold ॥४८॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्थडा पन्नत्ता २ । सोहम्मवाडेंसगे णं विमाणे णं अद्धतेरसजोयणसय सहस्साइं आयामविक्खभेणं पन्नत्ता ३ । एवं ईसाणवडिंसगे वि ४ । जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं अतेरसजाइकुलकोडीजोणीपमुहसय सहस्साई पन्नत्ता ५ । पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्थू पन्नत्ता ६ । गब्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे पन्नत्ता, तं जहा - सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चामोसमणपओगे असच्चामोसमणपओगे सच्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीस सरीरकायपओगे वेविअसरीरकायपओगे वेउव्विअमीससरीरकायपओगे कम्मसरीरकायपओगे ७ । सूरमंडलं जोअणं तेरसे (स) हिं एगसट्टिभाग (गे) हिं जोयणस्स ऊणं पन्नत्तं ८ । इसे णं रणप्पा पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता १९ । पंचमी पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेरस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ३ | सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवानं Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥ ४९ ॥ तेरस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ । लंतए कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाई ठिई पन्ना ५ । जे देवा वज्रं सुवज्जं वज्जावत्तं वज्जप्पभं वज्जकंतं वज्जवण्णं वजलेसं वज्जरुवं वज्जसिंग वज्जसिटुं वज्जकूडं वज्जुत्तरवडिंसगं वइरं वइरावत्तं वइप्पभं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिद्धं वइरकूडं वइरुत्तरवडिंसगं लोगं लोगावत्तं लोगप्पभ्रं लोगकतं लोगवण्णं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंगं लोगसिदूं लोगकूडं लोगुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा सि णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ । ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १ । सिणं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ २ | संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंत करिस्संति ३ ॥ सूत्रं - १३ ॥ मूलार्थः – तेर क्रियानां स्थानो कहां छे, ते आ प्रमाणे- अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्मात् दंड, दृष्टिना समवाय १३ ॥ ॥ ४९ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपर्यासने लीधे दंड, मृषावादना कारणवाळो दंड, अदत्तादानना निमित्तवाळो दंड, आध्यात्मिक ( मनना निमित्तवाळो ) दंड, मानना निमित्तवाळो दंड, मित्र परना द्वेषने आश्रीने दंड, मायाने आश्रीने दंड, लोभ निमित्तवाळो दंड, तथा तेरमो पथना हेतुवाको दंड (१) । सौधर्म अने ईशान देवलोकने विषे विमानना तेर पाथडा कला छे (२) । सौधर्मावतंसक नामनुं विमान र अर्ध एटले साडाचार लाख योजन आयाम अने विष्कंभवाळु (लांबुं - पहोळं ) कर्तुं छे (३) । एज प्रमाणे शासक विमान पण जाणवुं ( ४ ) । जळचर पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळा जीवोनी जाति कुळकोटिनां उत्पत्ति स्थानो अर्ध त्रयोदश (साडाचार) लाख कहां छे (५) । प्राणायु नामना पूर्वमां तेर वस्तु कहेली छे (६) । गर्भव्युत्क्रांतिक पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळा जीवोनो प्रयोग (मन, वचन, कायानो योग ) तेर प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे - सत्य मनप्रयोग, मृषा मनप्रयोग, सत्यमृषा मनप्रयोग, असत्यामृषा मनप्रयोग, सत्य वचनप्रयोग, मृषा वचनप्रयोग, सत्यमृपावचनप्रयोग, असत्या - मृपा वचनप्रयोग, औदारिकशरीरकायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग, कार्मणशरीरकायप्रयोग ( ७ ) । सूर्यनुं मंडळ एक योजनमांथी योजनना एकसठीया तेर भाग ओछु करीए तेटलं (योजन ) कहेलं छे (८) ॥ आ रत्नप्रभा नामनी नरकपृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी तेर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( १ ) | पांचमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी तेर सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी तेर पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी तेर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) । लांतक कल्पने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपे केटलाक देवोनी तेर सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) जे देवो वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त, वज्रप्रभ, वज्रकांत, वज्रवर्ण, समवाय वजलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृंग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वीतरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकांत, वइरवर्ण, चइरलेश्य, समवायाङ्ग १३॥ वहररूप, वइरशृंग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक, लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककांत, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, चोधू अंगालोकशृंग, लोकसृष्ट, लोककूट, लोकोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट तेर all सागरोपमनी स्थिति कही छे (६)॥ ... ते देवो तेर अर्धमासे (तेर पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने तेर हजार वर्षे आहार करवानी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य) जीवो छे के जेओ तेर भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थ:-आ तेर स्थानकना सूत्रमा कांइक लखे छे-अहीं स्थितिना (६) सूत्रोनी पहेलां आठ सूत्रो छे. तेमां करवू ते क्रिया एटले कर्मबंधना कारणभूत चेष्टा, ते( क्रिया )नां जे स्थानो एटले भेदो अर्थात् पर्यायो, ते क्रियास्थानो कहेवाय छे. तेमां अर्थने माटे एटले पोताना शरीर, स्वजन अने धर्मादिकना प्रयोजन माटे जे दंड करवो एटले त्रस-स्थावर जीवोनी हिंसा करवी, ते अर्थदंड कहेवाय छ, आ पहेलु क्रियास्थान थयुं १, आनाथी जे विलक्षण एटले प्रयोजन विना जे दंड करवो ( हिंसा करवी) ते अनर्थदड कहेवाय छे २, तथा हिंसाने आश्रीने एटले आ शत्रु विगेरेए मारी हिंसा करी हती, हिंसा करे छे अथवा हिंसा करशे एम धारीने जे तेनो दंड एटले विनाश करवो ते हिंसादंडा ॥५०॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेवाय छे ३, तथा अकस्मात् एटले धार्या विना अन्यना वध माटे प्रवृत्ति करी अने वीजानो ( अन्यनो) वध थइ जाय | ते अकस्मात्दंड कहेवाय छे ४, तथा दृष्टिनी एटले बुद्धिनी जे विपर्यासिका अथवा विपर्यासिता (विपर्यासपणुं), ते दृष्टि| विषयोंसिका अथवा दृष्टिविपयोंसिता कहेवाय छे एटले के मतिनो भ्रम, ते वडे जे दंड एटले प्राणीनो वध, ते दृष्टिविपर्यासिकादंड अथवा दृष्टिविपर्यासितादंड कहेवाय छे, अर्थात् मित्रादिकने जे अमित्रादिकनी बुद्धिथी हणवो ते ५, तथा मृषावाद एटले पोताने माटे अथवा अन्यने माटे अथवा बन्नेने माटे जे असत्य बोलवू, ते असत्य ज जे हिंसानु कारण थाय ते मृषावादप्रत्ययदंड कहेबाय छे ६, एज प्रमाणे अदत्तादानने आश्रीने दंड पण जाणवो ७, तथा मनने विपे जे थयेलो ते आध्यात्मिक दंड एटले बाह्य निमित्तनी अपेक्षा विना शोकादिकथी उत्पन्न थतो दंड ते आध्यात्मिक दंड कहेवाय छे ८, तथा मानप्रत्यय एटले जात्यादिक मदना हेतुवाळो दंड ९, तथा मित्रद्वेषप्रत्यय एटले माता-पितादिकनो अल्प अपराध छतां पण मोटो दंड करवो ते १०, मायाप्रत्यय एटले मायाने आश्रीने जे दंड करवो ते ११, एज प्रमाणे लोभप्रत्यय दंड पण जाणवो १२, तथा ऐर्यापथिक एटले केवळ योगने ज आश्रीने जे कर्मबंध एटले उपशांतमोह विगेरे गुणस्थानकवाळाने सातवेदनीयनो बंध थाय ते १३. (१)। .. तथा 'विमानपत्थडत्ति'-विमानना उपर-नीचे रहेला पाथडा (तेर) छे (२) । तथा 'सोहम्मवडिसए'-सौधर्म देव १. मृपावादने आश्रीने जे पोताना आत्माने दंड एटले कर्मबंधन थाय, एवो अर्थ पण अन्यत्र करवामां आव्यो छे ते पण अहीं घटी शके छे. ए ज प्रमाणे सर्वत्र उत्तरोत्तर जाणवू. जेथी आत्मा दंडाय--कर्मबंध करे तेनुं नाम दंड जाणवो । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥ ५१ ॥ 'लोक अर्धचंद्रने आकारे रहेलो छे, ते पूर्व-पश्चिम लांबो अने दक्षिण-उत्तर पहोलो छे, तेना मध्य भागे तेरमा पाथडामां शक्रना निवासभूत विमान छे, ते सौधर्मदेवलोकनो अवतंसक एटले मुकुटनी जेम प्रधान मुख्य होवाथी सौधर्मावतंसक एवा सार्थक नामवालुं छे. अहीं ' णं ' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे. ते विमान जेने विषे तेरमुं अर्ध छे ते अर्धत्रयोदश कहेवाय छे एटला लाख योजन एटले साडाबार लाख योजन आयाम - विष्कंभवाळं कहेलुं छे ( तेवुं ज तेनी सामेनी बाजुए ईशानावतंसक विमान साडा चार लाख योजननुं छे. ) ( ३ ) । तथा जातिने विषे एटले जळचर पंचेंद्रिय तिर्यग्गतिने विषे कुल कोटिना योनिप्रमुख एटले उत्पत्तिस्थानमां थयेला जे शतसहस्र ( लाख ) ते अर्धत्रयोदश छे एटले के साडा चार लाख कुळकोटि कही छे ( ५ ) । तथा 'पाणाउस्स' – जेमां प्राणीओना आयुष्यनुं विधान भेद सहित 'कहेवामां आवेल छे, ते प्राणायु नामनुं वारमुं पूर्व छे, तेमां तेर वस्तु एटले अध्ययननी जेवा तेर विभागो कहेला छे ( ६ ) । तथा गर्भमां एटले गर्भाशयमां जेमनी उत्पत्ति होय ते गर्भव्युत्क्रांतिक कहेवाय छे. आवा जे पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळा जीवो, तेमनो प्रयोग एटले मन, वचन, कायानो व्यापार तेर प्रकारनो कह्यो छे. एटले के कुल पंदर प्रयोगो ( योगो) छे तेमांथी आहारक अने आहारकमित्र ए वे कायप्रयोग तिर्यंचोने होता नथी, केम के ते संयमीने ज होइ शके छे, अने संयम तो संयत मनुष्योने ज होय छे, तिर्यचने होतो नथी, तेथी तेर योग होय छे. तेमां मनना प्रयोग चार छे - सत्य, असत्य (मृषा ), बन्ने (सत्यमृषा ) अने बने नहीं ( असत्यामृषा ), ए ज रीते चार वचनना प्रयोग मळी आठ था. तथा औदारिक विगेरे पांच कायप्रयोग जाणवा. ए रीते तेर थाय छे, (७) । तथा सूर्यमंडळ एटले सूर्यमंडळनो वृत्त समवाय १३ ॥ ॥ ५१ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग ( गोळाकार ) तेनुं एक योजन, ते सूर्यमंडळ-योजन कहेवाय छे. 'णं' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे. जेना एकसठ N, भागे करीने एक योजन थाय अर्थात एक योजनना अडसठ भाग करवा, तेमांथी तेर भाग ओछा करीए तेटलं एटले all एकसठीया अडताळीश भाग जेटलुं ते सूर्यमंडळ छे (८)॥ वज्रना नामथी बार, वइरना नामथी अग्यार अने लोकना नामथी पण अग्यार एम चोत्रीश विमानना नामो कयां छे (६)॥ सूत्र-१३॥ A हवे चौद स्थानक कहे छ - मू०-चउद्दस भूअग्गामा पन्नत्ता, तं जहा-सुहुमा अपज्जत्तआ सुहमा पज्जत्तया बादरा अपजत्तया बादरा पजत्तया बेइंदिया अपजत्तया बेइंदिया पजत्तया दिया अपजत्तया तेंदिया पजत्तया चउरिंदिआ अपज्जत्तया चउरिंदिया पजत्तया पंचिंदिआ असन्निअपज्जत्तया पंचिंदिया असन्निपजत्तया पंचिंदिआ सन्निअपजत्तया पंचिंदिया सन्निपज्जत्तया १ । चउदस पुवा पन्नत्ता, तं जहा-उप्पायपुव्वमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । अत्थीनस्थि पवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥ १॥ सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च । कम्मप्पवायपुव्वं पञ्चक्खाणं भवे नवमं ॥ २ ॥ विज्जाअणुप्पवायं अवंझ पाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं पुत्वं तह बिंदुसारं च ॥३॥२॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥ ५२ ॥ अग्गेणीअस्स णं पुवस्स चउदस वत्थू पन्नत्ता ३ । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चउदस समण साहसीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्था ४ । कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणापन्नत्ता, तं जहा - मिच्छदिट्ठी सासायणसम्मद्दिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी अविरयसम्म ट्ठिी विरयाविरए पमत्त संजए अप्पमत्त संजय निअट्टिवायरे अनियट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए वा खव वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगीकेवली अयोगी केवली ५ । भरहेरखयाओ णं जीवाओ चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगूणवीसे भागे atra आयाणं पन्नत्ता ६ । एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवहिस्स चउद्दस रयणा पन्नत्ता, - इरावइरयणे गाहावइरयणे पुरोहियरयणे वड्डइरयणे आसरयणे हत्थरयणे असिरयणे दंडरयणे चक्करयणे छत्तरयणे चम्मरयणे मणिरयणे कागिणिरयणे ७ | जंबुद्दीवे णं दीवे चउद्दस महानईओ पुब्वावरेण लवणसमुद्दं समप्पेंति, तं जहा - गंगा सिंधू रोहिआ रोहिअंसा, हरी हरिकंता सीआ सीओदा नरकंता नारिकांता सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवई ८ ॥ समवाय १४ ॥ ॥ ५२ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउदस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १। पंचमीए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चउद्दस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४। लंतए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५। महासुके कप्पे देवाणं जहण्णणं चउद्दस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता६ । जे देवा सिरिकंतं सिरिमहि सिरिसोमनसं लंतयं काविटुं महिंदं महिंदकंतं महिंदुत्तरव| डिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाइंठिई पन्नत्ता ७॥ ते णं देवा चउद्दसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमति वा उस्ससंति वा नीससंति IN वा १ । तेसि णं देवाणं चउद्दसहि वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ २ । संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे चउद्दसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३॥ सूत्रम्-१४ ॥ . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A मूलार्थः-चौद प्रकारना भूतग्राम (जीवना समूह ) कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सूक्ष्म अपर्याप्ता, सूक्ष्म पर्याप्ता, वादर समवाय समवायाङ्ग NI अपर्याप्ता, बादर पर्याप्ता, द्वींद्रिय अपर्याप्ता, द्वींद्रिय पर्याप्ता, त्रींद्रिय अपर्याप्ता, त्रींद्रिय पर्याप्ता, चतुरिंद्रिय अपर्याप्ता, ना १४॥ सूत्र॥ चतुरिंद्रिय पर्याप्ता, पंचेंद्रिय असंज्ञी अपर्याप्ता, पंचेंद्रिय असंज्ञी पर्याप्ता, पंचेंद्रिय संज्ञी अपर्याप्ता, पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्ता (१)। जोधु अंग चौद पूर्व कह्या छे, ते आ प्रमाणे-उत्पाद पूर्व, अग्राणीय, त्रीजुं वीर्यप्रवाद पूर्व, अस्तिनास्तिप्रवाद, त्यार पछी ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद पूर्व, त्यार पछी आत्मप्रवाद पूर्व, कर्मप्रवाद पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद नवमुं छे, विद्यानुप्रवाद पूर्व, अवंध्यप्रवाद ॥५३॥ पूर्व, बारमुं प्राणायु पूर्व, त्यारपछी क्रियाविशाल पूर्व, तथा विंदुसार पूर्व (२) । अग्राणीय पूर्वने विषे चौद वस्तु (अध्ययन जेवा विभागो) कहेल छे (३)। श्रमण भगवान महावीरस्वामीने उत्कृष्ट चौद हजार श्रमणसंपदा हती (४)। कर्मविशोधि | मार्गणाने आश्रीने चौद जीवस्थानो (गुणस्थानको) कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मिथ्यादृष्टि, सास्वादन सम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्या दृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, विरताविरत (देशविरत), प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, निवृत्ति बादर, अनिवृत्ति वादर, सूक्ष्म| संपराय उपशामक अथवा क्षपक, उपशांत मोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवळी अने अयोगीकेवळी (५)। भरत अने ऐरवत क्षेत्रनी जीवानो आयाम (लंबाइ) चौद चौद हजार चार सो ने एकोतेर योजन तथा एक योजनना ओगणीशीया छ भाग छे (६)। एक एक चातुरंत (चारे दिशाना अंत सुधी) चक्रवर्ती राजाना चौद रत्नो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-स्त्री रत्न, सेनापति रत्न, गाथापति रत्न, पुरोहित रत्न, वार्धकि (इजनेर) रत्न, अश्व रत्न, हस्ती रत्न, खड्ग रत्न, दंड रत्न, चक्र रत्न, छत्र रत्न, चर्म रत्न, मणि रत्न, काकिणी रत्न (७)। जबूद्वीप नामना द्वीपने विषे चौद मोटी नदीओ पूर्व-पश्चिम लवण- ND॥५३॥ उपशांत परत), प्रमाप्रमाणे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रने मळे छे, ते आ प्रमाणे-गंगा, सिंधु, रोहिता, रोहितांशा, हरी, हरिकांता, सीता, सीतोदा, नरकांता, नारीकांता, सुवर्णकूला, रुप्यकूला, रक्ता, रक्तवती (८)। आ रत्नप्रभा नामनी नरकपृथ्वीनेविषे केटलाक नारकीओनी चौद पल्योपमनी स्थिति कही छ (१)। पांचमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी चौद सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी चौद पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ३ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी चौद पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) लांतक कल्पने विष देवोनी चौद सागरोपमनी उत्कृष्ट स्थिति कही छे (५)। महाशुक्र कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति चौद सागरोपमनी कही छे (६)। जे देवो श्रीकांत, श्रीमहित, श्रीसौमनस, लांतक, कापिठ, महेंद्र, महेंद्रकांत, महेंद्रो-IN त्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चौद सागरोपमनी कही छे (७)॥ ते देवो चौद अधमासे ( पखवाडीए ) आन ले छे प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने चौद हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) एवा केटलाएक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ चौद भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ द स्थानक सूत्र सुगम छे. विशेष एके अहीं स्थितिना सूत्रोनी पहेलां प्रथम आठ सूत्रो छे. तेमां चौद 'भूतग्राम'-भूतो एटले जीवो, तेना ग्राम एटले समूहो, ते भूतग्राम कहेवाय छे. तेमां सूक्ष्म एटले सूक्ष्म नामकर्मना उदयमां वर्तवाप' होवाथी पृथ्व्यादि एकेंद्रियो, ते केवा के अपर्याप्ता एटले के अपर्याप्त नामकर्मना उदयने लीधे पोतानी पर्याप्ति S Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय १४॥ समवायाङ्ग पत्र॥ चोधू अंग परिपूर्ण न थइ होय तेवा, आ एक ग्राम-समूह थयो. एज प्रमाणे आ सूक्ष्म पर्याप्ता एटले ते ज प्रमाणे (पर्याप्त नाम कर्मना उदयने लीधे) पोतानी पर्याप्ति परिपूर्ण थइ होय तेवा, आ बीजो ग्राम थयो. ए ज प्रमाणे बादर एटले बादर नामकर्मना उदयने लीधे बादर एवा पृथ्व्यादि एकेंद्रियो, ते पण पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदने लीधे वे प्रकारना जाणवा. एज प्रमाणे द्वींद्रियादिक पण जाणवा. विशेष ए के-पंचेंद्रिय वे प्रकारना छे, एक संज्ञी एटले मनपर्याप्ति सहित अने बीजा असंज्ञी एटले | मनपर्याप्ति रहित (१) तथा 'उप्पायपुवे' इत्यादिक त्रण गाथा छे. तेमां प्रथम उत्पादपूर्व एटले जेमां उत्पत्तिने आश्रीने द्रव्यो तथा पर्यायोनी प्ररूपणा करी छे ते उत्पाद पूर्व कहेवाय छे, जेमां ते द्रव्यादिकना ज अग्र एटले परिमाणने आश्रीने में तेनी प्ररूपणा करी छे ते अग्राणीय पूर्व कहेवाय छे, 'तइयं च वीरियं पुव्वं'-जेमां जीवादिकनुं वीर्य कहेवामां आवेल छ ते वीर्यप्रवाद नामनुं त्रीशुं पूर्व छ, 'अत्थीनत्थिपवायं'-जे (वस्तु) जे प्रकारे लोकमां छे अने जे वस्तु जे प्रकारे लोकमां नथी, ते ( वस्तु ) ते प्रमाणे जेमां कही छे ते अस्तिनास्तिप्रवाद नामर्नु (४) पूर्व छे, 'तत्तो नाणप्पवायं च'-जेमां मत्यादिक ज्ञान तेना स्वरूप अने भेदो विगेरे सहित कहेवामां आवेल छे ते ज्ञानप्रवाद (५)पूर्व छ, 'सचप्पवायपुव्वं' जेमां सत्य एटले संयम अथवा सत्य वचन भेद सहित अने प्रतिपक्ष सहित कहेवामां आवेल छे ते सत्यप्रवाद (६) पूर्व छ, त्यारपछी 'आयप्पवायपुव्वं '-जेमां आत्मा एटले जीव अनेक नयोबडे कहेवामां आवेल छे ते आत्मप्रवाद (७) पूर्व छे, जेमा ज्ञानावरणादिक कर्मोनु स्वरूप कहेवामां आवेल छे ते कर्मप्रवाद (८) पूर्व छे, 'पचक्खाणं भवे नवमं' जेमा प्रत्याख्याननुं स्वरूप वर्णन करेल छे ते प्रत्याख्यानप्रवाद नामर्नु नवमुं (९) पूर्व छे, 'विजाअणुप्पवायं' ॥५४॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेमा अनेक प्रकारनी विद्याना अतिशयो वर्णन करायेल छे ते विद्यानुप्रवाद (१०) पूर्व छ, 'अवंझ पाणाउ वारसं पुव्वं ' जेमां सम्यग् ज्ञानादिक अवंध्य-सफळ, एवा वर्णन करायेल छे ते अवंध्य नामर्नु अग्यारमुं. (११) पूर्व छ, जेमां प्राण एटले जीव अने, तेना आयुष्य अनेक प्रकारे वर्णन करायेल छे ते प्राणायु नामर्नु बारमुं (१२) पूर्व छे, 'तत्तो किरियविसालं'-त्यारपछी जेमा विशाळ एटले विस्तीर्ण एवी कायिकी विगेरे २५ क्रियाओ भेद सहित कहेवामां आवेल छे ते क्रियाविशाळ नामर्नु तेरK (१३) पूर्व छ, तथा 'पुव्वं तह बिंदुसारं च'-अहीं 'लोक' ए शब्दनो लोप कर्यो छे एम जाणवू. तेथी अक्षरना बिंदुनी जेम (अनुस्वार जेम अक्षरने माथे होय छे तेम) लोकना सारभूत एटले सर्वोत्तम जे छे ते लोकबिंदुसार नामर्नु चौदU (१४) पूर्व छे. (२)। तथा 'चोद्दस वत्थूणि त्ति'-बीजा पूर्वने विषे जे वस्तु एटले विभाग विशेष छे ते चौद मूळ वस्तु छे, परंतु चूलावस्तु तो बार छे (३)। तथा 'साहस्सिओ'-सहस्रो जे तेज साहस्य एटले हजार कहेवाय छे (४)। तथा'कम्मविसोही-कर्मविशोधि मार्गणाने एटले ज्ञानावरणादि कर्मविशुद्धिनी गवेषणाने आश्रीने जीवना (गुण )स्थानको चौद कहेला छे, ते आ प्रमाणे-जेनी दृष्टि मिथ्या एटले विपरीत होय ते मिथ्यादृष्टि कहेवाय छे एटले के जेने उदयमा आवेलुं अमुक प्रकारचें मिथ्यात्व मोहनीय कर्म उदयमां होय ते १, तथा 'सासायणसम्मदिहि त्ति' काइक ( जराक) तत्त्वश्रद्धाना रसना आस्वाद सहित जे होय छे ते सास्वादन कहेवाय छे. अहीं घंटालोलाना न्याये करीने उपशम सम्यक्त्वनो त्याग करेलो होय छे, ते त्याग कर्या पछी छ आवलिका सुधी १. अनंतानुबंधी कषायना उदयथी उपशम समकितने वमी नाखवू, एटले खाधेल वस्तु वमतां तेनो स्वाद प्रथम खातां आवेलो TEL तेवो फरीने गळामां आवे ते. घंटालाला न्याय समजवो. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तेनो स्वाद रहे छे, ते विषे शास्त्रमा का छे के-"कोइ जीव उपशम सम्यक्त्वथकी पडयो अने हजु मिथ्यात्वने पाम्यो समवाय मवायाजा नथी, तेनी वच्चेना भागमा छ आवलिका सुधी सास्वादन सम्यक्त्व होय छे." आवा आस्वाद सहित जे सम्यग्दृष्टि ते १४॥ सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहेवाय छे एम ( कर्मधारय समासनो) विग्रह करवो २, 'सम्मामिच्छदिहि त्ति' जेनी दृष्टि अंग सम्यक् अने मिथ्या छे ते सम्यमिथ्यादृष्टि कहेवाय छे एटले के जेने अमुक प्रकारचें दर्शनमोहनीय कर्म उदयमां आव्यु होय ते ३, तथा अविरत सम्यग्दृष्टि एटले देशविरति रहित (एकलो सम्यग्दृष्टि) ४, तथा विरताविरत एटले देशविरतिवाळो अर्थात् श्रावक ५, तथा प्रमत्तसंयत एटले कांइक प्रमादी सर्वविरतिवाळो (साधु)६, तथा अप्रमत्तसंयत एटले सर्वथा प्रमाद रहित एवो तेज (सर्वविरतिवाळो साधु), तथानियही' अहीं क्षपकणिने के उपशमश्रेणिने पामेलो जीव के जेना दर्शनसप्तक क्षीण थया होय अथवा जेना दर्शनसप्तक उपशांत थया होय ते निवृत्तिवादर कहेवाय छे. तेमां निवृत्ति एटले जे गुणस्थानकने समकाळे ( एकी साथे) पामेला जीवोना अध्यवसायनो भेद (विशेष प्रकारनो अध्यवसाय) जेमा प्रधान (मुख्य ) होय एवो जे बादर एटले वादर संपरायवाळो ते निवृत्तिवादर कहेवाय छे ८, तथा 'अणियविबायरे त्ति' अनिवृत्तिवादर, आ (गुणस्थानवाळो) आठ कषाय खपाववानो के उपशमाववानो आरंभ करे त्यारथी अने नपुंसकवेदना क्षयनो के उपशमनो आरंभ करे त्यारथी आरंभीने (लइने) चादर लोभना खंडने खपावे अथवा उपशमावे ला त्या सुधी होय छे ९, तथा 'सुहुम संपराए त्ति' सूक्ष्म एटले संज्वलन लोभनो असंख्यातमो अंश, तेवो सूक्ष्मसंपरायला १. दर्शन मोहनीयनी सात प्रकृति. - a Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले कषाय जेने होय ते सूक्ष्मसंपराय एटले लोभना छेल्ला परमाणुओने वेदनार कहेवाय छे. आ (सूक्ष्मसंपराय ) वे प्रकारनो छे, ते कहे छे-उपशमक एटले उपशमश्रेणिने पामेलो अथवा क्षपक एटले क्षपकश्रेणिने पामेलो. आ दशमुं जीवस्थान कह्यु १०, तथा जेने मोह एटले मोहनीय कर्म उपशांत छे एटले सर्वथा उदयावस्थाने पामेल नथी ते उपशांतमोह एटले उपशमवीतराग कहेवाय छे. आ उपशमश्रेणिनी समाप्तिने वखते ११ मे गुणठाणे जीव एक अंतर्मुहर्त सुधी होय छे. त्यारपछी अवश्य त्यांथी पडे ज छे ११, तथा जेनो मोह सर्वथा क्षीण थयो छे एटले सत्तामा पण रह्यो नथी ते क्षीणमोह एटले क्षीणमोहवीतराग कहेवाय छे, आ गुणस्थान पण एक अंतर्मुहूर्त सुधीज होय छे (त्यारपछी तरत उपरना गुणस्थानके चडे छे ) १२, तथा सयोगी केवळी एटले मन विगेरेना व्यापारवाळा केवळज्ञानी १३, तथा अयोगी केवळी एटले मन विगेरे योगना व्यापार जेणे रुंध्या छे एवा शैलेशीकरणने पामेला मात्र पांच इस्व अक्षरना उच्चार जेटला काळ सुधी ज रहेनार, ए चौदमुं जीव (गुण)स्थान छे. १४. (५)। 'भरहे'-भरत अने ऐवतनी जीवा. अहीं भरत अने ऐरवत-ए बे क्षेत्र प्रत्यंचा चडावेला धनुषने आकारे रहेला छे, तेथी तेमनी जीवा (प्रत्यंचा ) होइ शके छे. तेमां हिमवान पर्वतनी आ फनी) आंतरा रहित (छेल्ली) प्रदेशनी जे श्रेणि ते भरतनी जीवा कहेवाय छे, अने शिखरी पर्वतनी पेली बाजुनी जे आंतरा रहित प्रदेशनी श्रेणि ते ऐरवतक्षेत्रनी जीवा कहेवाय छे. (६)।' चाउरंतचक्कवहिस्स त्ति' चार अंत एटले विभाग छे जे पृथ्वीने विषे ते चतुरंत भूमि कहेवाय छे. तेने विषे जे स्वामीपणे थयेला ते चातुरंत कहेवाय छे. १. चार दिशाना अंत सुधीना ते क्षेत्रना स्वामी. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवायाङ्ग सूत्र !! चो अंग ॥ ५६ ॥ आवा चातुरंत जे चक्रवर्ती ते चातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे एवो समासनो विग्रह करवो. तेना रत्नो एटले पोतपोतानी जातिमां उत्कृष्टपणाने पामेली वस्तु, कयुं छे के " जाति जातिने विषे जे उत्कृष्ट वस्तु होय ते रत्न कहेवाय छे. " " गाहावर त्ति' गृहपति एटले कोठारी, 'पुरोहिय त्ति - पुरोहित एटले शांतिकर्म विगेरे क्रियाने करनार, 'बडुइ त्ति ' वर्धकि एटले रथ, मकान, छावणी विगेरे बनावनार, मणि एटले पृथ्वीनो विकार विशेष, काकिणी एटले सुवर्णमय अधिकरणी ( एरण ) ना संस्थानवाळी होय छे. ( बाकीना रत्नोना अर्थ स्वयमेव जाणी लेवा ) आ चौद रत्नमा पहेला सात पंचेंद्रिय अने बीजा सात एकेंद्रिय छे ( ७ ) ॥ श्रीकांत विगेरे आठ विमानोनां नाम छे ( ७ ) ॥ इति सूत्र - १४ ॥ . हवे पंदर स्थानक कहे छेः मू० - पन्नरस परमाहम्मिआ पन्नत्ता, तं जहा - अंबे अंबरिसी चेव, सामे सबले ति आवरे । रुद्दोवरुद्द काले अ, महाकाले त्ति आवरे ॥ १ ॥ असिपत्ते धणु कुंभे, वालुए वेअरणीति अ । खरस्सरे महाघासे, एते पन्नरसाहिआ ॥ २ ॥ १ । णमी णं अरहा पन्नरस धणूइं उ उच्चत्तेनं २ | वराहू णं बहुपक्खस्स पडिवए पन्नरसभागं पन्नरसभागेणं चंदस्स लेसं आवरेत्ताणं चिट्ठति, तं जहा- पढमाए पढमं भागं बीआए दुभागं तइआए तिभागं चउत्थीए चउभागं समवाय १५ ।। 1148 11 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पंचमीए पंचभागं छट्ठीए छभागं सत्तमीए सत्तभागं अट्ठमीए अट्ठभागं नवमीए नवभागं दसमीए दसभागं एक्कारसीए एक्कारसभागं बारसीए वारसभागं तेरसीए तेरसभागं चउदसीए चउदसभागं पन्नरसेसु पन्नरसभागं ३ । तं चैव सुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे चिट्ठति, तं जहा- पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसभागं ४ । छ णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता पन्नत्ता, तं जहा - सताभसय भरणि अद्दा असलेसा साई तहा जेट्ठा । एते छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥ १ ॥ ५ ॥ चेत्तासोएसु णं मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति, एवं चेत्तासोएसु णं मासेसु पन्नरसमुहुत्ता राई भवति ६ । विज्जाअणुप्पवायस्स णं पुवस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता ७ । मणुसाणं पण्णरसविहे पओगे पन्नत्ता, तं जहा - सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चमोसमणपओगे असच्चामोसम पओगे सच्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीससरीरकायपओगे वेउब्वियसरीरकायपओगे वेउब्वियमीससरीरकायपओगे आहार यसरीरकायपओगे आहारयमीससरीरकायप्पओगे कम्मयसरीरकायपओगे ॥ ८ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AVT समवाय १५॥ समषायाङ्ग सूत्र ॥ चोधु अंग ॥ ५७॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइआणं पण्णरस पलिओवमाइंठिई पन्नत्ता १। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु । अत्थेगइआणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । महासुक्के कप्पे अत्थगइआणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । जे देवा गंदं सुणदं गंदावत्तं गंदप्पभं णंदकंतं गंदवण्णं णंदलेसं णंदज्झयं णंदसिंगं णंदसिटुं गंदकूडं णंदुत्तरवसिगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ ॥ ते णं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १। तेसि णं देवाणं पण्णरसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजइ २ । संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ । सूत्रं-१५॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ - पंदर परमाधार्मिक कथा छे, ते आ प्रमाणे - अंब, अंबरिषी, श्याम, शबल, वळी बीजा रौद्र, उपरौद्र, काल, तथा बीजो महाकाल, असिपत्र, धनु, कुंभ, वालुक, वैतरणी, खरस्वर अने महाघोप ए पंदर कला छे ( १ ) । श्रीनमि नामना अर्हन् पंदर धनुष प्रमाण ऊंचा हता (२) । ध्रुव राहु कृष्णपक्षनी प्रतिपदाने आरंभीने दररोज चंद्रनी लेश्या ( कळा ) नो पंदरमो पंदरमो भाग आवरीने ( दबावीने) रहे छे, ते आ प्रमाणे - एकमनी तिथिए एक पंदरमा भागने ( आवरे छे ), दिवसे वे भाग, त्रीजने दिवसे त्रण भाग, चोथने दिवसे चार भाग, पांचमे पांच भाग, छहने रोज छ भाग, सातमे 'सात भाग, आठ आठ भाग, नवमीए नव भाग, दशमीए दश भाग, अग्यारशे अग्यार भाग, चारशे बार भाग, तेरशे तेर भाग, चौदशे चौद भाग अने पंदरसीए एटले अमावास्याए पंदर भागने आवरीने रहे छे ( ३ ) । तथा शुक्लपक्षमां ते जपंदरीया एक एक भागने देखाडतो देखाडतो (आवरण रहित करतो ) रहे छे, ते आ प्रमाणे -- प्रतिपदाए पंदरीया एक भागने देखाडे छे (बीजने दिवसे वे भाग देखाडे छे ) यावत् पूर्णिमाने रोज पंदरे भागने देखाडे छे (खुल्ला करे छे ) (४) । छ नक्षत्रो पंदर मुहूर्त्तवाळा कला छे, ते आ प्रमाणे -- शतभिषक, भरणि, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति तथा ज्येष्ठा, आ छ नक्षत्र पंदर मुहूर्त्तवडे संयुक्त होय छे ( एटले चंद्र साथै पंदर मुहूर्त्त योगवाळा रहे छे ) ( ५ ) । चैत्र अने आश्विन मासमा पंदर मुहूर्त्त ( ३० घडी )वाळो दिवस होय छे, अने ए ज प्रमाणे चैत्र अने आश्विन मासमां पंदर मुहूर्त्तवाळी रात्रि होय छे (६) । विद्यानुप्रवाद नामना पूर्वमां पंदर वस्तु ( अध्ययननी जेवा विभाग ) कहेल छे ( ७ ) । मनुष्यने पंदर कारना प्रयोग (योग-व्यापार ) कहेला छे, ते आ प्रमाणे -- सत्य मनप्रयोग, मृषा मनप्रयोग, सत्यमृषा मनप्रयोग, अस Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ---श्री समवाय . मायाह मन्त्र चोधु अंग ॥५८॥ त्यामृषा मनप्रयोग, सत्य वचनप्रयोग, मृषा वचनप्रयोग, सत्यमृपा वचनप्रयोग, असत्यामृपा वचनप्रयोग, औदारिक शरीर कायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग, वैक्रियशरीर कायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग, आहारकशरीर कायप्रयोग, आहारकमिश्रशरीर कायप्रयोग, कार्मणशरीर कायप्रयोग (८)॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पंदर पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। पांचमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पंदर सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी पंदर पल्योपमनी स्थिति कहेली छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी पंदर पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। महाशुक्र कल्पने विपे केटलाक देवोनी पंदर सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो नंद, सुनंद, नंदावर्त, नंदप्रभ, नंदाकांत, नंदवर्ण, नंदलेश्य, नंदध्वज, नंदशृंग, नंदसृष्ट, नंदकूट, नंदोत्तरावतंसक विमानने विपे देवपणे उत्पन्न थया होय छे ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पंदर सागरोपमनी कही छे (६)। ... ते देवो पंदर अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छवास ले छे, निश्वास ले छे (१)। ते देवोने पंदर हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीयो छे के जेओ पंदर भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थ--आ पंदरमुं स्थान सुगम छे तो पण ते विपे काइक लखाय छे.--अहीं स्थितिना सूत्रोनी पहेलां सात सूत्रोछे. तेमां परम-मोटा एवा अधार्मिक, ते संक्लिष्ट परिणामवाळा होवाथी परमाधार्मिक कहेवाय छे, ते एक जातना असुर छ, के रा रक्ष Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैओ पहली त्रण नारक पृथ्वीने विषे नारकीओनी कदर्थना करे छे. तेमना नाम कहेवा माटे वे गाथाओ मूळमां आपी छे. आ परमाधार्मिको जुदा जुदा व्यापारने लीघे पंदर जातिना होय छे. तेमां ' अंबे त्ति - जे परमाधार्मिक देव नारकीओने हणे छे, पाडी दे छे, बांधे छे अने उपाडीने आकाशमां फेंके छे ते अंब नामनो कहेवाय छे १, 'अंबरिसी चेव त्ति ' जे परमाधार्मिक ( अंबे ) हणेला नारकीओने शस्त्रवडे ककडा करीने कडाइमां भुंजवा (शेकवा) योग्य करे छे, ते अंबरिषी नामनो छे २, 'सामेत्ति - जे दोरडा अने हस्तना प्रहारादिकवडे शातन, पातन विगेरे करे छे अने जे वर्णथी पण काळो छे ते श्याम नामनो छे ३, ' सबले त्ति यावरे त्ति --वळी बीजो शवल नामनो परमाधार्मिक छे, ते आंतरडा, चरबी, हृदय, काळजुं विगेरेने उखेडी नांखे छे, तथा वर्णवडे पण शक्ल - कर्बुर एटले काचरचितरो छे ४, 'रुदोवरुद्देत्ति जे शक्ति अने भाला विगेरे शस्त्रोने विषे नारकीओने परोवे छे ते रौद्र-भयंकर होवाथी रौद्र नामनो छे ५, वळी जे तेओना (नारकीओना ) अंगोपांगने भांगी नांखे छे ते अत्यंत रौद्र होवाथी उपरौद्र एवा नामनो छे ६, 'काले त्ति ' -- जे कडाइ विगेरेमां (नारकीओने ) रांधे छे तथा जे वर्णवडे पण काळो छे ते काल नामनो छे ७, वळी त्यारपछी बीजो महाकाळ नामनो परमधार्मिक छे, ते ( तेना ) चीकणा मांसना ककडा करीने ( तेने ज ) खवरावे छे, तथा ते वर्णथी पण अति काळो छे ८, ' असिपत्ते त्ति - असि एटले खड्ग, तेना आकारवाळा पांदडांओवाळु वन विकुर्वीने ते वनमां आवेला arratओना असिपत्रोने पाडवावडे तल तल जेटला ककडा करे छे, ते असिपत्र नामनो छे ९, ' धणु त्ति' - जे धनुषथी मूकेला अर्धचंद्रादिक बाणोवडे तेमना कर्णादिक अंगोनुं छेदन - भेदन विगेरे करे छे ते धनु नामे छे १०, ( कुंभे त्ति' " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाङ्ग घोषू अंग ॥ ५९॥ जे कंभादिकने विषे तेओने पकावे छे ते कुंभ नामनो छे ११, 'वालु त्ति'--जे कदवना पुष्प सरखा लालचोल आकारवाळी अने वजना जेवी तथा तपावेली वैक्रिय वाल्लकाने विषे चणानी जेम तेओने पकावे ( शेके) छे ते वालुका नामनो छ १२, 'वेयरणी इय त्ति'--वैतरणी एवा नामनो परमाधार्मिक छ, ते अत्यंत तपाववाथी उकळता एवा परु, रुधिर, सीसु, तांबु विगेरेना रसवडे भरेली तथा जेनुं प्रयोजन सामे पूरे तरवार्नु छे एवी यथार्थ नामवाळी चैतरणी नदीने विकुर्वीने तेमां ते नारकीओने तराववावडे कदर्थना पमाडे छ १३, 'खर स्सरे त्ति'-जे वज्रना कांटावाळा शाल्मली वृक्ष उपर नारकीने चडावीने पछी कठोर शब्द करता एवा तेने अथवा पोते कठोर शब्द करतो सतो तेने खेंचे छे ते खरस्वर नामनो छे १४, 'महाघोस त्ति'-जे भय पामेला अने नाशी जता एवा नारकीओने पशुनी जेम मोटो घोप करवा पूर्वक वाडामा रुंधे छे ते महाघोप नामनो छे १५, 'एवमेव (एते ) पन्नरसाहिय त्ति'-' एवं ' एटले अंब विगेरे क्रमवडे आ परमाधार्मिको जिनेश्वरे पंदर कह्या छे (१)। 'धुवराह णं'-राहु वे प्रकारनो होय छ-एक पर्वराहु अने बीजो ध्रुवराहु. तेमां जे पर्वने विपे एटले पूर्णिमा के अमावास्याने विष चंद्र के सूर्यनो उपराग (ग्रहण) करे ते पर्वराहु कहेवाय छे, अने जे हमेशां चंद्रनी समीपे चाले छे ते ध्रुवराहु कहेवाय छे. ते विषे का छे के-"काळं राहुनुं विमान हमेशां चंद्रनी साथे (नीचे) रहेलुं होय छे, ते चंद्रनी नीचे चार अंगुल छेटुं चाले छे." तेथी आ ध्रुवराहु कहेवाय छे. 'णं' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे. बहुलपक्ष(कृष्णपक्ष ) नो अर्थ प्रसिद्ध छे, तेना 'पाडिवयं ति'-प्रतिपदा एटले एकमनी तिथिने आदि करीने '-आरंभीने । ।। ५९।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटलो अध्याहार राखवानो छे. 'पंदरमो पंदरमो भाग ' ए ठेकाणे वीप्सा( वारंवार )ना अर्थमां बे वार चोलाय छे, जेमके 'ते पगले पगले जाय छे' इत्यादि. एटले के हमेशां पंदरमो पंदरमो भाग चंद्रनी लेश्या (प्रकाश ) एटले कांति अर्थात् ते कांतिनुं कारण होवाथी लेश्या एटले मंडळ पण कहेवाय छे, ते चंद्रमंडळने आच्छादन करीने हकिकत देखाडता सता कहे छे के-'तद्यथा-ते आ प्रमाणे-पहेली (एकमनी) तिथिने विषे चंद्रनी लेश्याना पहेला पंदरमा भागने आवरीने रहे छे, आ ज क्रमे करीने पंदरमे दिवसे (अमावास्याए) पंदरीया पंदर भागने आवरीने रहे छे । तथा 'तं चेव त्ति'-शुक्लपक्षमा प्रतिपदादिक तिथिने विषे चंद्रलेश्यानो ते ज पंदरमो भाग देखाडतो देखाडतो एटले पंदरमा भाग जेटलो पोते दर जवाथी प्रगट करतो प्रगट करतो ध्रवराह रहे छे. अहीं आ भावार्थ छ-चंद्रना मंडळना सोळ भाग करवा, तेमां एक सोळमो भाग कायम उघाडो ज रहे छे. बाकी जे पंदर भाग रह्या तेमाथी राहु हमेशां एक एक भागने कृष्णपक्षमा आवरे छे अने शुक्लपक्षमा एक एक भागने मुके छे-छोडे छे. ते विष ज्योतिष्करंडक नामना प्रकीर्णक ग्रंथमा का छे-"सोळ भाग करीने तेमांथी पंदर भागजेटलो चंद्र (कृष्णपक्षमा)हानि पामे छे, (शुक्लपक्षमा) तेनी ज्योत्स्ना (कांति) तेटला(पंदर) भाग जेटली वृद्धि पामे छे." अहीं कोइ शंका करे के-चंद्रनुं विमान एक योजनमांथी एकसठीया पांच भाग ओछा करीए तेटला (१६) प्रमाणवालं छे, अने राहुनु विमान ग्रहविमान होवाथी अर्ध योजनना प्रमाणवाल्लं छे, तेथी पंदर दिवसे करीने मोटा चंद्रविमानने नानुं राहुविमान शी रीते सर्व आवरण करी शके ? आ शंकानो जवाब आपे के-जे आ ग्रहविमानोन अर्ध योजनप्रमाण कयुं छे ते प्राये करीने कर्तुं छे, तेथी राहुग्रहनुं विमान योजनप्रमाणवाल्लं पण संभवे छे. अथवा राहुनुं विमान Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥ ६० ॥ नानुं छे तो पण तेना अंधकार ( श्यामता ) ना किरणोनो समूह घणो मोटो छे तेथी तेनुं आवरण करवामां कांइ दोष आवतो नथी (३) । तथा पंदर मुहूर्त्त सुधी चंद्रनी साथे जेमनो संयोग रहे छे एवा छ नक्षत्रो पंदर मुहूर्त्तना संयोगवाळा कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे- शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा-आ छ नक्षत्रो पंदर मुहूर्त्तना संयोगवाळा छे. (४) । तथा 'चेत्तासो मासु त्ति '--स्थूळ न्यायने आश्रीने कहीए तो चैत्र अने आश्विन मासने विषे पंदर मुहूर्त्तनो दिवस अने पंदर मुहूर्त्तनी रात्रि होय छे, अने निश्चयथी कहीए तो चैत्र मासमां जे दिवसे मेष संक्रांति बेसे तेज एक दिवसरात्रि अने आश्विन मासमा जे दिवसे तुला संक्रांति वेसे ते ज एक दिवसरात्रि पंदर पंदर मुहर्त्तवाळी होय छे ( ५ ) ॥ 'पओगे त्ति ' - प्रकर्षे करीने जे योजन- जोडनुं ते प्रयोग कहेवाय छे एटले के निश्चळपणे आत्मानो क्रिया करवाना परिणामवाळो व्यापार. अथवा तो क्रिया करवाना परिणामवाळा कर्मनी साथे आत्मा प्रकर्षे करीने जोडाय ते प्रयोग कहेवाय छे. तेमां सत्य वस्तुना विचारनुं कारणभूत जे मन ते सत्य मन, अने तेनो जे प्रयोग एटले व्यापार ते सत्य मनप्रयोग कवाय छे.. एज प्रमाणे बाकीना सर्वने विषे जाणवुं. विशेष ए के - ' औदारिकशरीरकायप्रयोग ' आ ठेकाणे औदारिक शरीर जे ते ज पुद्गल स्कंधना समुदायरूपपणाए करीने उपनीयमान वृद्धि पामतुं होवार्थी काय कहेवाय छे, ते कायनो जे प्रयोग ते औदारिकशरीरका प्रयोग कहेवाय छे एम (समासनो ) विग्रह करवो. आ प्रयोग पर्याप्ता जीवनो ज जाणवो. तथा औदा- रिकमिश्र का प्रयोग अपर्याप्तकनो जाणवो. अहीं उत्पत्तिने आश्रीने एटले जीवनी उत्पत्ति समये प्रारंभ करेला औदारिकशरीरनुं प्रधानप होवाथी औदारिक ( योग ) कार्मण ( शरीरयोग )नी साथै मिश्र थाय छे, तथा ज्यारे मनुष्य के पंचेंद्रिय समवाय १५ ॥ ॥ ६० ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तिर्यंच के बादर वायुकाय वैक्रियने करे छे, त्यारे ( ते वैक्रियना ) प्रारंभ करनार औदारिकर्नु प्रधानपणुं होवाथी ज्यांसुधी ते वैक्रियपर्याप्तिवडे पर्याप्तपणाने न पामे (पर्याप्तो न थाय) त्यांसुधी औदारिक वैक्रियनी साथे मिश्र कहेवाय छे. एज प्रमाणे | आहारकनी साथे पण औदारिकनी मिश्रता जाणवी. तथा क्रियशरीरकायप्रयोग वैक्रियपर्याप्तिवाळाने एटले पर्याप्त थयेलाने होय छे. तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग (वैक्रिय पर्याप्ति) जेनी पूरी न थइ होय एवा देवने अथवा नारकीने कार्मणनी साथे मिश्रता जाणवी, अथवा (ते मनुष्य अने तियंचने) लब्धिवैक्रियनो त्याग करती वखते औदारिकमां प्रवेश करवाने समये औदारिकने ग्रहण करवा माटे (वैक्रियनी) प्रवृत्ति होवाथी वैक्रियना प्रधानपणाने लीधे औदारिकनी साथे पण (वैक्रियनी) मिश्रता थइ शके छ एम केटलाक आचार्यों कहे छे. तथा आहारकशरीरकायप्रयोग ते आहारक शरीरनी निष्पत्ति थाय ! त्यारे तेनुं ज प्रधानपणुं होवाथी थाय छे. तथा आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग, आहारकनो त्याग करवापूर्वक अन्य(औदारिक )ने ग्रहण करवा माटे उद्यमवंत थयेलाने औदारिकनी साथे मिश्रता थाय छे. आनो भावार्थ ए छे के-ज्यारे आहारक शरीरवाळो थइने कार्य कर्या पछी फरीथी औदारिकने ग्रहण करे छे त्यारे आहारकनुं प्रधानपणुं होवाथी औदा. रिकमां प्रवेश करवानो व्यापार होवाथी ज्यां सुधी सर्वथा (संपूर्ण) आहारकनो त्याग न करे त्यां सुधी औदारिकनी साथे मिश्रता होय छे. अहीं कोई शंका करे के-ते आहारक शरीर करनार जीवे पोतानुं ते औदारिक शरीर सर्वथा (बिलकुल) N|| मूक्युं नथी परंतु पूर्वे जेवू बनावेलुं हतुं तेवु रहेढुंज होय छे, तो ते औदारिक शरीरने ग्रहण करवानुंज क्या छ ? उत्तरहा तारूं कहेवू सत्य छे, तो पण औदारिक शरीरने पाछं ग्रहण करवाने माटे प्रवृत्त थाय छे तेथी ग्रहण करे छ ज (एम कही - - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय १६॥ समवायाङ्ग स्त्र॥ बोधुं अंग शकाय). तथा कार्मणशरीरकायप्रयोग विग्रहगतिने विषे ( सर्व जीवोने), अने समुद्घात अवस्थामा रहेला केवळीने त्रीजा, चोथा अने पांचमा समयने विषे होय छे (७)॥ हवे सोळ स्थानक कहे छ: मू०-सोलस य गाहा सोलसगा पन्नत्ता, तं जहा-समए वेयालिए उवसग्गपरिन्ना इत्थीपरिण्णा निरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासिए वीरिओ धम्मे समाही मग्गे समोसरणे आहातहिए गंथे जमईए गाहासोलसमे सोलसगे १ । सोलस कसाया पन्नत्ता, तं जहा-अणंताणुबंधी कोहे, अणंताणुबंधी माणे, अणताणुबंधी माया, अणंताणुबंधी लोभे, अपच्चक्खाणकसाए । कोहे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अपच्चक्खाणकसाए माया, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, पच्चक्खाणावरणे माणे, पञ्चक्खाणावरणे माया, पच्चक्खाणावरणे लोभे, संजलणे कोहे, संजलणे माणे, संजलणे माया, संजलणे लोभे २ । मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस नामधेया पन्नत्ता, तं जहा-मंदर मेरु मणोरम, सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। रयणुच्चय पियदंसण, मज्झे लोगस्स नाभी य ॥१॥ अत्थे अ सूरिआवत्ते, सूरिआवरणे त्ति अ । उत्तरे अ दिसाई अ, ॥६॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडिंसे इअ सोलसमे ॥ २॥३॥ पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाह| स्सीओ उक्कोसिआ समणसंपदा होत्था ४। आयप्पवायस्स णं पुव्वस्स णं सोलस वत्थू पन्नत्ता ५। चमरबलीणं उवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता ६ । लवणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए पन्नत्ते ७॥ ... इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमा ठिई पन्नत्ता २। असुरकुमाराणं | देवाणं अत्थगइयाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थगइयाणं सोलस सागथा रोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५। जे देवा आवत्तं विआवत्तं नंदिआवत्तं महाणंदिआवत्तं अंकुसं अंकुसप लंबं भदं सुभदं महाभदं सबओभदं भदुत्तरवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ६२ ॥ देवा सोलसहिं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १ । तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ २ | संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे सोलसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्सति मुश्चिस्सति परिनिवाइस्संति सवदुक्खाणमंत करिस्सति ३॥ सूत्रम् - १६ ॥ मूलार्थः – सुयगडांगसूत्रमां सोळ अध्ययनमां छेल्लुं गाथापोडशक नामनुं अध्ययन कहेलुं छे, ते आ प्रमाणे – समय, वैतालीय, उपसर्गपरिज्ञा, स्त्रीपरिज्ञा, नरकविभक्ति, महावीरस्तुति, कुशीलपरिभाषित, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवसरण, याथातथिक, ग्रंथ, यमकीय (आदानीय) अने सोळमुं गाथाषोडश कहेलं छे (१) । सोळ कपायो कहेला छे, ते आ प्रमाणेअनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया, अनंतानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानकषाय क्रोध, अप्रत्याख्यानपाय मान, अप्रत्याख्यानकपाय माया, अप्रत्याख्यानकपाय लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया, संज्वलन लोभ ( २ ) । मेरुपर्वतना सोळ नाम कहां छे, ते आ प्रमाणे—मंदर, मेरु, मनोरम, सुदर्शन, स्वयंप्रभ, गिरिराज, रत्नोच्चय, प्रियदर्शन, लोकमध्य, लोकनाभि, अर्थ, सूर्यावर्त, सूर्यावरण, उत्तर ( उत्तम ), दिगादि अने सोळमुं नाम अवतंसक ( ३ ) । पुरुषोने मध्ये आदान नामकर्मवाळा पार्श्वनाथ अरिहंतने सोळ हजार साधुओनी उत्कृष्ट श्रमणसंपदा हती ( ४ ) । आत्मप्रवाद नामना समवाय १६ ॥ ॥ ६२ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BY पूर्वमा सोळ वस्तुओ ( अध्ययननी जेवा विभागो) कहेल छे (५)। चमरेंद्र अने बलींद्रना अवतारिकालयन (प्रासाद | मध्ये रहेली पीठिका) आयाम-विष्कमे करीने सोळ हजार योजन प्रमाण कहेल छे (६)। लवणसमुद्रना मध्य भागमां (दश हजार योजनमा) उत्सेधनी ( वेळानी) वृद्धि सोळ हजार योजननी कही छे (७)॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी सोळ पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। पांचमी पृथ्वीने विषे । | केटलाक नारकोनी सोळ सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी सोळ पल्योपमनी स्थिति कही। छ (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी सोळ पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। महाशुक्र कल्पने विषे केटलाक देवोनी सोळ सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो आवर्त, व्यावर्त, नंद्यावर्त, महानंद्यावर्त, अंकुश, | अंकुशप्रलंब, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र अने भद्रोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सोळ सागरोपमनी कही छे (६)॥ ते देवो सोळ अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छ, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने सोळ हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाएक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छ के जेओ सोळ भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ - टीकार्थ:-हवे सोळ स्थानकनुं सूत्र कहे छे, अने ते सुगम छे. विशेष एके-स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां गाथाषोडशक। | विगेरे सात सूत्रो कह्यां छे, तेमां सूत्रकृतांग( सुगडांग )ना पहेला श्रुतस्कंधमां सोळ अध्ययनो छे, तेमां गाथा नामर्नु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाङ्ग चो अंग ॥ ६३॥ सोळमें अध्ययन छे, तेथी करीने गाथा नामर्नु सोळमुं अध्ययन छे जेमनु (जेमनी मध्ये) ते गाथापोडशक कहेवाय छे. ते १६ मा 'समए त्ति'-नास्तिक विगेरेना समय( सिद्धांत )ने प्रतिपादन करनार अध्ययन समय नामे ज कहेवाय छे. वैतालीय नामना छंद( श्लोक )नी जातिवडे रचेलं अध्ययन वैतालीय कहेवाय छे, ए ज प्रमाणे वीजां पण अध्ययननां नामो पोतपोताना अर्थने अनुसारे जाणी लेवा. तेमां 'समोसरणे त्ति'-समवसरण एटले त्रण सो ने वेसठ प्रवादीओना मतनो समूह. 'अहातहिए त्ति'-जेवी वस्तु होय तेवी ज जेने विपे कहेवामां आवे ते यथातथिक नामर्नु अध्ययन, तथा ग्रंथने कहेनारुं अध्ययन ग्रंथ कहेवाय छे. 'जमइए त्ति'-यमकीय एटले यमकनी जेमा रचना करी होय ते सूत्र तथा 'गाहेति' पूर्वना पंदर अध्ययनोनो अर्थ जेमां गायो-कह्यो छे ते गाथा कहेवाय छे अथवा ते पंदर अध्ययनोमां प्रतिष्ठाभूत होवाथी पण गाथा नामर्नु अध्ययन कहेवाय छे (१). मेरुपर्वतना ( सोळ) नामना सूत्रमा एक गाथा अने एक श्लोक लख्यो छे. तेमां'मज्झे लोगस्स नाभी यत्ति'लोकमध्य अने लोकनाभि एम वे नाम लख्या छे. तथा उत्तर एवं नाम कयुं छे ते भरतादिक(सर्व क्षेत्रो)नी उत्तर दिशामां (मेरु) रहेलो छे. तेथी कहेलुं छे. ते विषे कधु छे के'सव्वेसिं उत्तरो मेरु' त्ति-'सर्व क्षेत्रादिकनी उत्तरमा मेरु रहेलो छे.' तथा 'दिसाइ यत्ति'-(सर्व) दिशाओनो आदिभूत ते दिगादि ए, पण मेरुनु नाम छे (केमके मेरुनी मध्ये रहेला आठ रुचक प्रदेशने आधीने पूर्वादिक दिशा-विदिशाओनी उत्पत्ति थाय छे) तथा 'वडिंसे इय त्ति'-अवतंस-शेखरनी जेवो होवाथी अवतंस एवं पण मेरुनु नाम छे) (३)। पुरुषादानीय एटले पुरुषोने मध्ये आदेय नामकर्मवाळा (पार्श्वनाथ.) (४)। तथा आत्मप्रवाद ए सातमु पूर्व ॥६३॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ (५)। तथा चमर अने बळि ए वे दक्षिण अने उत्तर तरफना असुरकुमारना इंद्रो छे, तेमनी ' उवारियालेणे त्ति' चमरचंचा अने बलीचंचा नामनी राजधानीना मध्य भागे रहेला तेमना (बे इंद्रोना ) वे भवनने विषे ( मध्ये ) वे | अवतारिकालयन एटले मध्यभागे ऊंचा अने पछी चोतरफ पार्श्वभागे अनुक्रमे उतरता उतरता वे पीठ रहेला छे, ते गोळ | होवाथी आयाम अने विष्कंभवडे सोळ हजार योजन कहेला छे (६)। तथा लवणसमुद्रने विष मध्यना दश हजार योजनमां नगरना किल्लानी जेम जळ ऊंचु रहेलुं छे, तेना उत्सेध( ऊंचाइ )नु प्रमाण सोळ हजार योजननुं छे. तेथी एम कहेवाय छे के लवणसमुद्र उत्सेधनी वृद्धिवडे सोळ हजार योजन छ (७)॥ आवर्त विगेरे अग्यार विमाननां नामो आपेलां छे (६)॥ हवे सत्तर स्थानक कहे छ: मू-सत्तरसविहे असंजमे पन्नत्ते, तं जहा-पुढविकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे वाउकायअसंजमे वणस्सइकायअसंजमे बेइंदिअअसंजमे तेइंदियअसंजमे चउरिदियअसंजमे पंचिंदियअसंजमे अजीवकायअसंजमे पेहाअसंजमे उबेहाअसंजमे अवहट्टुअसंजमे अप्पमजणा. असंजमे मणअसंजमे वइअसंजमे कायअसंजमे १। सत्तरसविहे संजमे पन्नत्ते, तं जहा-पुढवीकायसंजमे आउकायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वणस्सइकायसंजमे बेइंदिअसंजमे तेइं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय १७॥ समवायाङ्ग मंत्र॥ चोथु अंग ६४॥ दियसंजमे चउरिदिअसंजमे पंचिंदिअसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उवेहासंजमे अवहवसंजमे पमजणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे २ । माणुसत्तरे णं पवए सत्तरस एकवीसे जोयणसए उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ते ३ । सवेसि पि णं वेलंधरअणुवेलंधरणागराईणं आवासपवया सत्तरस एकवीसाइं जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ४ । लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सवग्गेणं पन्नत्ते ५ । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सातिरेगाई सत्तरस जोयणसहस्साइं उढे उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणार्ण तिरिआ गती पवत्तति ६ । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिंछकूडे उप्पायपवए सत्तरस एकवीसाइं जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ते ७ । बलिस्स णं असुरिंदस्स रुअगिंदे उप्पायपवए सत्तरस एकवीसाइं जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ते ८। सत्तरसविहे मरणे पन्नत्ते, तं जहा-आवीईमरणे ओहिमरणे आयंतियमरणे वलायमरणे वसहमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहासमरणे गिद्धपिट्ठमरणे भत्तपञ्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पाओवगमणमरणे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९। सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति, तं जहाआभिणिबहिणाणावरणे सुयणाणावरणे ओहिणाणावरणे मणपज्जवणाणावरणे केवलणाणावरणे चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहीदंसणावरणे केवलदंसणावरणे सायावेयणिज्जं जसो - कित्तिनाम उच्चगोयं दाणंतरायं लाभंतरायं भोगंतरायं उवभोगंतरायं वीरिअअंतरायं १० ॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओ माई टिई पन्नत्ता १ । पंचमीए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । छट्ठी पुढवीए नेरइयाणं जहणणेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ३ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तरस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ | सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेग आणं देवाणं सत्तरस लिओ माई ठिई पन्नत्ता ५ । महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ६ । सहस्सारे कप्पे देवाणं जहपणेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ७ । जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं परमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महापोंडरीअं Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INT समवाय भी सुक्क महासुकं सीहं सीहकंतं सीहवीअं भाविअं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसमवायाज सेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ८॥ RAINE ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १ । यो अंग तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ. २ । संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३॥ सूत्रम्-१७॥ ___ मूला:-सत्तर प्रकारनो असंयम कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकाय असंयम, अप्काय असंयम, तेजस्काय असंयम, वायुकाय असंयम, वेनस्पतिकाय असंयम, द्वींद्रिय असंयम, त्रींद्रिय असंयम, चतुरिंद्रिय असंयम, पंचेंद्रिय असंयम, अंजीवकाय असंयम, प्रेक्षा असंयम, उपेक्षा असंयम, अपहृत्य असंयम, अप्रैमार्जन असंयम, मैने असंयम, वचन असंयम, काय असंयम (१)। सत्तर प्रकारनो संयम कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकाय संयम; अप्काय संयम, तेजस्काय संयम, वायुकाय संयम, वनस्पतिकाय संयम, द्वींद्रिय संयम, त्रींद्रिय संयम, चतुरिंद्रिय संयम, पंचेंद्रिय संयम, अजीवकाय संयम, प्रेक्षा संयम, उपेक्षा संयम, अपहृत्य संयम, प्रमार्जना संयम, मन संयम, वचन संयम, काय संयम (२)। मानुषोत्तर पर्वत सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे ( ऊंचो) कह्यो छे (३)। सर्व वेलंधर अने अनुवेलंधर नागराजाओना आवास पर्वतो। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचा) कह्या छे (४)। लवणसमुद्र सत्तर हजार योजन सर्वानवडे (तळीयेथी शिखा पर्यंत) ऊंचो कह्यो छे (५)। आरत्नप्रभा नामनी पृथ्वीना अत्यंत सरखा रमणीय भूमिभाग(भूमितळ)थी कांइक अधिक सत्तर हजार योजन ऊंचे ऊडीने-उपडीने त्यारपछी चारणो (जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओ)नी तिरछी गति कही छे (केमके रत्नप्रभा पृथ्वीथी साधिक सोळ हजार योजन प्रमाण ऊंची लवणसमुद्रनाजळनी शिखा छे तेथी तेना करतां पण हजार योजन अधिक। एटले सत्तर हजार योजन ऊंचा गया पछी तिरछी गति थइ शके छे (६) । असुरना राजा चमर नामना असुरेंद्रनो तिगिछिकूट नामनो उत्पात पर्वत सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचो) कह्यो छे (७)। बलि नामना असुरेंद्रनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत पण सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचो) कह्यो छे (८)। सत्तर प्रकारे मरण का छे, ते आ प्रमाणेआवीचि मरण, अवधि मरण, आत्यंतिक मरण, वलाय ( वलन् ) मरण, वैशात मरण, अंतःशल्य मरण, तद्भव मरण, बाल मरण, पंडितं मरण, बोलपंडित मरण, छमस्थ मरण, केलि मरण, वैहायस मरण, गृध्रपृष्ठ मरण, भक्तप्रत्याख्यान मरण, इंगिनी मरण, पादोपैगमन मरण (९)। सूक्ष्मसंपराय भगवान (पूज्य) सूक्ष्मसंपरायना भावमां वर्तता सता (ते गुणस्थानके रह्या होय त्यारे ) सत्तर कर्मप्रकृतिओने बांधे छे, ते आ प्रमाणे-आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यवज्ञानावरण, केवळज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवळदर्शनावरण, सातवेदनीय, यश-कीर्ति नाम, उच्च गोत्र, दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय (१०)॥ - आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। पांचमी पृथ्वीने Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥६६॥ विषे नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे ( २ ) । छठ्ठी पृथ्वीने विषे नारकीओनी जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे (३) । केटलाक असुरकुमार देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पनेविषे केटलाक देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ५ ) । महाशुक्र कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर ..सागरोपमनी कही छे (६) । सहस्रार कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे ( ७ ) । जे देवो सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौंडरीक, महापौंडरीक, शुक्ल, महाशुक्ल, सिंह, सिंहकांत, सिंहवीय अने भाविय नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति . सत्तर सागरोपमनी कही छे ( ८ ) | ते देवो सत्तर अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने सत्तर हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ सत्तर भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३) ॥ टीकार्थ:- हवे सत्तर स्थानक कहे छे, तेनो अर्थ स्पष्ट छे. विशेष ए के स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां दश सूत्रो छे. ( तेमां पहेला असंयमना सूत्रमां ) अंजीवकाय असंयम एटले सुंदर सुवर्ण तथा बहु मूल्यवाळा वस्त्र, पात्र, पुस्तक विगेरे ग्रहण करवाते. प्रेक्षाने विषे जे असंयम ते प्रेक्षा असंयम कहेवाय छे एटले के ( बेसवा विगेरेनुं ) स्थान अने उपकरण विगेरेनुं प्रत्युपेक्षण न कर अथवा विधि प्रमाणे प्रत्युपेक्षण न करवुं ते. उपेक्षा असंयम एटले असंयमना योगोमां व्यापार समवाय १७ ॥ ॥ ६६ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ all करे (प्रवर्ते ) अने संयमना योगोने विषे व्यापार न करे (प्रवर्ते नहीं) ते. तथा अपहृत्य असंयम एटले उच्चारादिकने विधि प्रमाणे न परठवे ते. तथा अप्रमार्जना असंयम एटले पात्रादिकनी प्रमार्जना न करे अथवा विधि प्रमाणे न करे ते. तथा मन, वचन अने कीया संबंधी असंयम एटले अशुभ एवा मन, वचन अने कायानी उदीरणा करे ते. (१)। असंयमथी जे विपरीत ते संयम कहेवाय छे (२)। तथा वेलंधर अने अनुवेलंधर नामना देवोना आवास पर्वतोनुं स्वरूप क्षेत्रसमासनी आ गाथाओवडे जाणवु (बृहत् क्षेत्रसमास गाथा १७ थी). जंबूद्वीपनी जगतीथी पंचाणु हजार योजन जइए अने धातकी खंडनी आ तरफनी जगतीथी पंचाणु हजार योजन आ तरफ आवीए त्यारे ते ठेकाणे (एटले लवणसमुद्रना मध्य भागे पाणीनी शिखा रहेली छे ते ) लवण शिखा चक्रवाळथी एटले रथना चक्रना आकारवडे दश हजार योजन विस्तारवाळी छे, तथा समान जळपट्टथी सोळ हजार योजन ऊंची छे अने एक हजार योजन अवगाढ छे एटले पृथ्वीमां पेठेली छे. आ लवणसमुद्रनी शिखानी उपर अर्ध योजनथी कांइक ओछु एटले वे गाउथी कांइक ओछा प्रमाण जेटलं जळ सांज सवार बन्ने काळ वधे छे अने घटे छे एटले के पाताळकलशमां रहेला वायुनो क्षोभ थवाथी वधे छे अने ते वायु IN शांत थवाथी घटे छे. लवणसमुद्रनी अभ्यंतर एटले जंबूद्वीप तरफनी वेळाने एटले शिखानी उपरना जळनी शिखाने बेताळीश हजार नागकुमारो धारी राखे छे, तथा बाह्य एटले धातकीखंड तरफनी वेळाने बहोतेर हजार नागकुमारो धारी राखे छे (एटले के ते शिखा बेमांथी एके तरफ ढळी न जाय तेम अटकावे छ ). तथा अग्रोदक एटले शिखा उपरतुं अर्ध योजनथी कांइक ओछा प्रमाणवाळु वधतुं जळ, तेने साठ हजार नागकुमारो धारी राखे छे. (आ वेलंधर देवो कुल Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय cामाना १७४००० हजार होय छे.) तेमांना वेलंधर देवोना आवास पर्वतो लवणसमुद्रनी चारे दिशामा एक एक होवाथी कुल चार ___समवायाङ्ग छे. ते पर्वतोना नाम पूर्वादिना अनुक्रमे गोस्तूभ, दकभास, शंख अने दकसीमा छे, तेमना अधिपति देवो अनुक्रमे गोस्तूम, सूत्र ॥ शिव, शंख अने मनःशील नामना नागराज छे. तथा अनुवेलंधरना आवास पर्वतो लवणसमुद्रमां चारे विदिशामा एक एक चो अंग होवाथी कुल चार छे. ते अनुक्रमे कर्कोटक, विद्युत्प्रभ, कैलास अने अरुणप्रभ एवा नामवाळा छे. तथा कर्कोटक, कर्दम, कैलास अने अरुणप्रभ एवा नामवाळा तेमना अधिपति-नागराजाओ छे. आ सर्वे (आठे) आवास पर्वतो (जंबूद्वीपनी ॥ ६७॥ जगतीथी) ताळीश हजार योजन लवणसमुद्रमा जइए त्यां आवेला छे. तथा आ सर्वे ( आठे) पर्वतो चार सो ने त्रीश योजन अने एक कोश भूमिनी अंदर रहेला छे अने सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊंचा छे ( १७ थी २४.) (४)। 'चारJd णाणं त्ति'-जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओने रुचकादिक द्वीपमा जq होय त्यारे सत्तर हजार योजनथी कांइक अधिक ऊंचे गति कर्या पछी तिरछी गति करवानी होय छे (६)। तिगिछि नामनो कूट एटले उत्पात पर्वत, के जे पर्वत उपर - आवीने पछी मनुष्यक्षेत्र तरफ जवाने माटे देवो गति करे छे. ते पर्वत अहींथी असंख्यातमा अरुणोदय नामना समुद्रमां दक्षिण दिशाए बेताळीश हजार योजन जइए त्यां छे (७)। तथा रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत ते ज अरुणोदय नामना समुद्रमा उत्तर दिशाए तेटलो ज दूर रहेलो छ (८)। 'आवीई मरणे त्ति'-'आ-समन्तात् ' एटले चोतरफथी वीचिना जेवी वीचि एटले आयुष्यना दळिया खरी दी जाय तेवी अवस्था में मरणमा होय ते आवीचि मरण कहेवाय छ, अथवा तो वीचि एटले विच्छेद, तेनो जे अभाव ते अवीचि, SN ॥६७॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अहीं प्राकृत होवाथी 'अ' ने बदले : आ' दीर्घ कर्यो छे ( आवीचि ), आवा प्रकारनुं जे मरण एटले के क्षणे क्षणे | आयुष्यना दळीयां खरतां जाय ए रीते सर्व दळीयां खरी जाय त्यारे जे मरण थाय ते आवीचि मरण कहेवाय छे, तथा Man अवधि एटले मर्यादा, ते वडे जे मरण ते अवधि मैरण, एटले के नारकादिक भवना कारणपणाए करीने जे आयुकर्मनां दळियां 0 अनुभवीने हमणां मरे छे ते ज आयुकर्मनां दळियांने फरीथी अनुभवीने ज्यारे मरशे त्यारे ते त्यांसुधीन अवधि मरण कहेवाय छे कारण के ते ( हमणांना) द्रव्यनी (दळीयांनी ) अपेक्षाए फरीथी ते ज द्रव्यनुं ग्रहण थाय त्यांसुधी जीवनुं मरण थाय ते अवधि कहेवाय छे. तथा ' आयंतिय मरणे त्ति'-आत्यंतिक मरण एटले नारकी विगेरे कोइपण गतिना आयुष्यपणे कर्मना दळीयांने अनुभवीने हमणां मरण पाम्यो अने ते प्रमाणे मरण पाम्या पछी फरीथी ते दळियांने अनुभवीने (कोइपण वखत ) मऽवानो नथी, आयु जे मरण ते, ते द्रव्यनी अपेक्षाए अत्यंत होवाथी (घणुं अंते-छेवटे होवाथी) आत्यंतिक कहेवाय छे. 'वलायसरणे त्ति-' संयमना योगथी पाछा फरतां एटले जेना चारित्रपरिणाम भग्न थया होय एवा साधु|| ओर्नु जे मरण ते वलन्मरण कहेवाय छे. तथा वशवडे एटले इंद्रियोना विषयोनी परतंत्रतावडे जे ऋत एटले बाधा पामेला होय ते वशौर्त कहेवाय छे. जेम तेलवाळा दीवानी कलिका( शिखा-ज्योत )ने जोवाथी पतंगीयु वशात कहेवाय छे. (तेवा वशार्तनुं जे मरण ते वशात मरण कहेवाय छे ) तथा अंतः एटले जेना मनने विषे शल्यना जेवू शल्य एटले कोइपण जातनो अपराध होय ते अंतःशल्य एटले लज्जा के गर्व विगेरेना कारणने लीधे अतिचारनी आलोचना करी न होय, तेवानुं जे मरण ते अंतःशल्य मरण कहेवाय छे. तथा तिर्यंच के मनुष्य संबंधी जे कोइ भवने विषे वर्ततो जंतु फरीथी ते ज (तिर्यंच के Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य ) भवने योग्य एवं ( आगला भवनुं ) आयुष्य बांधीने पछी ते (अत्यारना) आयुष्यनो क्षय थवावडे मरनारनुं जे समवाय - समवायाङ्ग मरण ते तद्भव मरण कहेवाय छे. आ मरण तिर्यंच अने मनुष्य एबेने ज होइ शके छे पण देव अने नारकीने आनो संभव ज नथी, केम के तेओ मरीने अनंतर ते ज भवमा उत्पन्न थता नथी. तथा बाळकनी जेवा बाळक एटले विरति चोघु अंग रहित एवा जीवो, तेओर्नु जे मरण ते वाळमरण कहेवाय छे. तथा पंडित एटले सर्वविरतिवाळा, तेओर्नु जे मरण ते पंडित मरण कहेवाय छे, तथा बाळपंडित एटले देशविरतिवाळा, तेओर्नु जे मरण ते बाळंपंडित मरण कहेवाय छे. ६८॥ तथा छद्मस्थ मरण एटले केवळज्ञान रहित एवानुं मरण. तथा केवळी मरण-केवळज्ञानीनुं मरण ए प्रसिद्ध ज छे. तथा वेहायसमरणं त्ति'-आकाशने विषे जे मरण थयुं ते वैहायस मरण कहेवाय छे. अर्थात वृक्षनी शाखा विगेरेमा शरीरने लटकावीने जे मरवु ते वैहायस मरण कहेवाय छे. तथा गृध्र एटले गीधपक्षी तेना उपलक्षणथी बीजा पण पक्षी अने शीयाळ विगेरे वडे स्पर्श करायेलं जे मरण ते गृध्रस्पृष्ट कहेवाय छे, अथवा गृध्र विगेरेने खावा लायक छ पृष्ठ-पीठ अने उपलक्षणथी: उदरादिक अवयवो जे मरणने विषे ते गृध्रपृष्ठ मरण कहेवाय छे, कोइ महासत्त्ववाळो प्राणी (मनुष्य) हाथी के ऊंट विगेरेना : IN (मृतक ) शरीरमां पेशी गृध्रादिकनी पासे पोतानुं भक्षण करावे, ते आ मरण कहेवाय छे. तथा जेने विषे जावजीव सुधी भक्तनु-भोजननुं प्रत्याख्यान होय ते भक्तपरिज्ञा एवा नामे करीने रूढ छे. आ प्रत्याख्यान त्रिविध अथवा चतुर्विध आहारना त्यागपणे थइ शके छे, तेम ज तेमां सप्रतिकर्म एटले शरीरनी सेवा-चाकरी पण करी-करावी शकाय छे. तथा जे अनश-in. ननी क्रियामा अमुक नियमित प्रदेशमा हरवाफरवानी चेष्टा करी शकाय छे ते इंगिनी कहेवाय छे, तेवा इंगिनीवडे जे मरण JER ६८॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते इंर्गिनी मरण कहेवाय छे. आ मरण चतुर्विध आहारनुं प्रत्याख्यान करनार, शरीरनी सार-संभाळ नहीं करनार ( करावनार ) अने नियमित प्रदेशमा ज रहेनाराने होइ शके छे. तथा जेमां पादप - वृक्षनी जेम उपगमनं एटले रहेवुं होय ते पादपोपगमैन मरण कहेवाय छे. जेम कोइ वृक्ष कोइ ठेकाणे कोइपण प्रकारे पड्युं होय ते कांड पण सम के विषम स्थान विगेरेनो विचार कर्या विना निश्चळ ज रहे छे, तेवी रीते जे साधु रहे तेनुं जे मरण ते पादपोपगमन मरण कहेवाय छे. ( ९ ) । सूक्ष्म पराय गुणस्थानवाळो उपशमक अथवा क्षपक एम वे प्रकारनो होय छे, ते सूक्ष्म लोभ कषायनी किट्टिकाने वेदनार भगवान- पूज्य एवा साधु सूक्ष्मसंपरायना भावमां ( परिणाममां ) वर्तता एटले ते ज गुणस्थानकमां रहेला होय ते समजवा. पण अतीत के अनागत सूक्ष्मसंपरायना परिणामवाळा न समजवा. ते एक सो ने वीश प्रकृतिमांथी सतर कर्मप्रकृतिने बांधे छे, बाकीनी (१०३ ) कर्मप्रकृतिओने बांधता नथी; केमके पूर्व पूर्वना गुणस्थानकोमां बंधने आश्रीने ते प्रकृतिओ विच्छेद पामी छे. तथा वळी आ कहेली सत्तर प्रकृतिमांथी पण एक सातवेदनीय प्रकृति उपशांतमोहादिक गुणस्थानको ने विषे बंधने आश्रीने प्राप्त थाय छे अने बाकीनी सोळ प्रकृतिओनो अहीं ज विच्छेद थाय छे. ते विषे कर्तुं छे के ज्ञान अने अंतरायनुं दशक ( ज्ञानावरणनी पांच अने अंतरायनी पांच मळीने दश प्रकृति ) १०, दर्शनावरणनी चार १४, उच्च गोत्र १५ अने यशकीर्ति १६, आ सोळ प्रकृतिओ सूक्ष्म कषाय (संपरायगुणस्थान) ने विषे विच्छेद पामे छे अर्थात् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकथी आगळ तेनो बंध नथी. (१०) ॥ साम विगेरे १७ विमानोनां नामो आपेला छे ( ८ ) ॥ सूत्र- १७ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाया । चोपं अंग ॥६९॥ हवे अढार स्थानक कहे छे: समवाय - मू०-अट्ठारसविहे बंभे पन्नत्ते, तं जहा-ओरालिए कामभोगेणेव सयं मणेणं सेवइ १ नोवा १८॥ वि अन्नं मणेणं सेवावेइ २ मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ३, ओरालिए कामभोगे व सयं वायाए सेवइ ४ नो वि अण्णं वायाए सेवावेइ ५ वायाए सेवंतं पि अपणं न समणुजाणाइ ६, ओरालिए कामभोगे णेव सयं कायेणं सेवइ ७ नो वि यऽपणं काएणं सेवावेइ ८ कारणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ९, दिवे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ १० णो वि अण्णं मणेणं सेवावेइ ११ मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १२, दिव्वे कामभोगे व सयं वायाए सेवइ १३ णो वि अण्णं वायाए सेवावेइ १४ वायाए सेवंतं पि अपणं न समणुजाणाइ १५, दिव्वे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ १६ णो वि अण्णं कारणं सेवावेइ १७ काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १८, १। अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था २। समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डयविअत्ताणं अट्ठारस ठाणा पन्नत्ता, तं जहा-वयछकं ६ कायछक्कं १२, अकप्पो १३ गिहिभायणंद Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ । पलियंक १५ निसिज्जा १६ य, सिणाणं १७ सोभवजणं १८॥१॥३। आयारस्स णं भगवतो सचूलिआगस्स अट्ठारस पयसहस्साइं पयग्गणं पन्नत्ताई ४ । बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेखविहाणे पन्नत्ते, तं जहा--बंभी १ जवणीलिया २ दोसऊरिया ३ ख(व)रोटिया ४ खरसाविया ५ पहाराइआ ६ उच्चत्तरिआ ७ अक्खरपुट्टि(त्थि)या ८ भोगवयता ९ वेणतिया १० णिण्हइया ११ • अंकलिवि १२ गणिअलिवी १३ गंधवलिवी १४ [भूयलिवि ] आदंसलिवी १५ माहेसरीलिवी १६ । | दामिलिवी १७ बोलिंदीलिवी १८-५ । अत्थिनस्थिप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठारस वत्थू पन्नत्ता ६ । धूमप्पभाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पन्नत्ता ७। पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उकासेणं अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ सइ उक्कोसेणं अट्ठारस मुहुत्ता राती भवइ ८॥ . इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस (पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १। छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस ) सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग 1190 11 अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठारस पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ । सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठास सागमा ठई पन्नत्ता ५ । आणते कप्पे देवाणं [ अत्थेगइयाणं ] जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ६ । 'देवा कालं कालं महाकालं अंजणं रिट्ठ सालं समाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं परमं परमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्मं नलिणं नलिणगुम्मं पुंडरीअं पुंडरीमं सहस्सावडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं (उक्को सेणं) अट्ठारस सागरो - माई ठिई पन्नत्ता ७ ॥ देवा [ i ]अट्ठारहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा १ । तोसे णं देवाणं अट्ठारसवाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ २ | संतेगइया भवसिद्धिया (जीवा) जे अट्ठारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सवदुख्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम् - १८ ॥ मूलार्थ:- अढार प्रकारनुं ब्रह्मचर्य कयुं छे, ते आ प्रमाणे- औदारिक ( मनुष्य - तिर्यच ) संबंधी कामभोगने पोते समवाय १८ ॥ ॥ ७० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनवडे सेवे नहीं १, बीजाने मनवडे सेवावे नहीं २, मनवडे सेवता एवा पण बीजाने अनुमोदे नहीं ३, औदारिक संबंधी कामभोगने पोते वचनवडे सेवे नहीं ४, बीजाने वचनवडे सेवावे नहीं ५, वचनवडे सेवता एवा पण बीजाने अनुमोदे नहीं जा ६, औदारिक संबंधी कामभोगने पोते कायवडे सेवे नहीं ७, बीजाने कायवडे सेवावे नहीं ८, कायवडे सेवता एवा पण वीजाने अनुमोदे नहीं ९, दिव्य ( देव संबंधी) कामभोगने पोते मनवडे सेवे नहीं १०, मनवडे वीजाने सेवावे नहीं ११, सेवता एवा पण वीजाने मनवडे अनुमोदे नहीं १२, दिव्य कामभोगने पोते वचनवडे सेवे नहीं १३, वचनवडे बीजाने सेवावे नहीं १४, सेवता एवा पण बीजाने वचनवडे अनुमोदे नहीं १५, दिव्य कामभोगने कायवडे पोते सेवे नहीं १६, कायवडे बीजाने सेवावे नहीं १७, सेवता एवा पण बीजाने कायवडे अनुमोदे नहीं १८.(१)। अरिहंत अरिष्टनेमि भगवानने अढार हजार साधुओनी उत्कृष्ट संपदा हती (२)। श्रमण भगवान महावीरस्वामीए बाळ, स्थविर विगेरे सर्व साधुओना आचारना अढार स्थानो कह्यां छे. ते आ प्रमाणे-छ व्रत पाळवा ६, छकायनी रक्षा करवी १२, अकल्प्य वस्त्र-पात्रादि १३, गृहस्थर्नु पात्र (वासण) १४, पर्यक-पलंग विगेरे १५, निषद्या-स्त्री साथे बेसवु ते १६, स्नान १७ अने शोभा १८ आ सर्व(छ)नुं वर्जवु. (३)। चूलिका सहित पहेला आचारांग सूत्रना पदना परिमाणवडे अढार हजार पदो कयां छे (४)। ब्राह्मी लिपिना लखवाना प्रकार अढार कह्या छे ते आ प्रमाणे-ब्राह्मी १, यावनी लिपि २, दोषउपरिका ३, खरोष्ट्रिका ४, खरशाविका ५, पहारातिका ६, उच्चत्तरिका ७, अक्षरष्टिका ८, भोगवतिका ९, वैणकिया १०, IN निन्हविका ११, अंकलिपि १२, गणितलिपि १३, गंधर्वलिपि १४, आदर्शलिपि १५, माहेश्वरी लिपि १६, दामिलिपि १७ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय चोधू अंग ॥१॥ न तथा बोलिदिलिपि १८. (५)। अस्तिनास्तिप्रवाद नामना पूर्वमा अढार वस्तुओ कही छे (६)। धूमप्रभा नामनी पांचमी नरक पृथ्वीनो विस्तार (पृथ्वीपिंड) एक लाख अने अढार हजार योजन प्रमाण कह्यो छे (७)। पोष अने अपाढ मासमां एक दिवस (वखत) उत्कृष्टपणे अढार मुहूर्त्तनो दिवस थाय छे अने एक दिवस (वखत) उत्कृष्टपणे अढार मुहर्तनी रात्रि थाय छे (एटले के पोप मासमां मकरसंक्रांतिने रोज अढार मुहूर्तनी रात्रि अने अषाढ मासमां कर्कसंक्रात्रिने रोज अढार मुहर्त्तनो दिवस थाय छे) (८)॥ आ रतप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी अढार पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। छठी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी अढार सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी अढार पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी अढार पंल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। सहस्रार कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अढार सागरोपमनी कही छे (५)। प्राणत कल्पमा [केटलाक देवोनी जघन्य स्थिति अढार सागरोपमनी कही छे (६)। जे देवो काळ, सुकाळ, महाकाळ, अंजन, रिष्ट, शाल, समान, दुम, महाद्रुम, विशाळ, सुशाळ, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पौंडरीक, पौंडरीकगुल्म, सहस्रारावतंसक नामना विमानमा उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अढार सागरोपमनी कही छे (७)॥ ते देवो अढार अर्धमासे (पखवाडीये) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने अढार हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ अढार BSF-8-950 camमामा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखना अंतने करशे. (३)॥ टीकार्थः-हवे अढार स्थानक कहे छे-अहीं स्थिति सूत्रोनी पहेलां आठ सूत्रो छे, अने ते सुगम छे. विशेष ए के-बंभ एटले ब्रह्मचर्य, तथा औदारिक कामभोग एटले मनुष्य अने तिर्यंच संबंधी विषयो, तथा दिव्य (वैक्रिय) कामभोग एटले देव संबंधी विषयो (१)। तथा 'सखुड्डगवियत्ताणं ति'-क्षुद्रक अने व्यक्त सहित. तेमां क्षुद्रक एटले वय अने श्रुतवडे नाना तथा व्यक्त एटले वय अने श्रुतवडे परिणमेला-मोटा (नाना मोटा सर्व ) साधुओना स्थानो एटले त्याग करवानी अने सेवा-ग्रहण करवानी वस्तुओरूपी स्थानो अढार आ प्रमाणे छ-छ व्रत एटले पांच महाव्रतो अने छठं रात्रिभोजननी IY विरति, कायषट्रक एटले पृथ्वीकायादिक छनी रक्षा, अकल्प्य एटले न कल्पे तेवो पिंड, शय्या, वस्त्र, पात्र विगेरेरूप पदार्थ, 16 गृहिभाजन एटले थाळी तपेली विगेरे, पर्यंक एटले मांचो विगेरे, निपद्या एटले स्त्रीनी साथे वेसते, स्नान एटले शरीरने | पखाळवू ते, तथा शोभा करवी ते-ए छर्नु वर्जबुं ते (३)। चूलिका सहित आचारांग नामनुं प्रथम अंग एटले के आचारांग नावे श्रुतस्कंध छे, तेमां बीजा श्रुतस्कंधमां पिंडैषणा ( अध्ययन ) विगेरे पांच चूलाओ छे अने पहेला श्रुतस्कंधा नत्र ब्रह्मचर्य नामना अध्ययनो छे, ते पहेला श्रुतस्कंधना ज पदोनी आ अढार हजार प्रमाण संख्या कही छे, परंतु चूलाना पदनी संख्या कही नथी. ते विषे कह्यु छ के-" नव ब्रह्मचर्य अध्ययनरूप वेद( आचारांग)ना अढार हजार पदो कयां छे, अने तेनी पांच चूलिकाने साथे लइए तो घणा पदो थाय छे." अहीं मूळ सूत्रमा “चूलिका सहित आचारांग सूत्रना" एम विशेषण आपीने चूलिका पण साथे गणी छे ते मात्र आ आचारांग सूत्र चूलिका सहित छे, चूलिका रहित नथी, एम चूलिकानी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ७२ ॥ सत्ता ज जणाववा माटे छे, पण पदनुं प्रमाण कहेवा माटे नथी. ते विषे नंदीमंत्रना टीकाकारे कछु छे के " नव ब्रह्मचर्यरूप प्रथम श्रुतस्कंधनुं प्रमाण अढार हजार पदनुं छे. वळी सूत्रोना अर्थ विचित्र प्रकारना होय छे तेथी तेमनो अर्थ गुरुना उपदेशथी जाणवा योग्य छे. " अहीं जे अढार हजार पद का छे ते पद अर्थनी प्राप्तिवाळा ( पूर्ण अर्थवाळा ) समजवा ( परंतु व्याकरणमा विभक्तिवाळा पद कहेवाय छे ते अहीं लेवाना नथी. ) अहीं ' पदाग्रेण ' एवं लख्युं छे तेनो अर्थ ' पदना परिमाणवडे ' एवो करवो. ( ४ ) । ब्राह्मी एटले भगवान आदीश्वरनी पुत्री, अथवा, संस्कृत विगेरे भेदवाळी वाणी, ते ( ब्राह्मी) ने आश्रीने ते आदिदेवे ज जे अक्षर लखवानी पद्धति देखाडी, ते ब्राह्मी लिपि कहेवाय छे, ते ब्राह्मी लिपिमा लेखनुं विधान एटले भेद अढार प्रकारे कहेल छे. ते आ प्रमाणे- ब्राह्मी विगेरे. आ लिपिओनुं स्वरूप विशेष कोइ ठेकाणे जोवामां आव्युं नथी तेथी अहीं अमे देखाडयुं नथी. ( ५ ) । तथा लोकने विषे जे ( वस्तु ) जे प्रकारे • अथवा जे प्रकारे नथी, अथवा स्याद्वादना अभिप्रायथकी जे वस्तु जे प्रकारे छे अथवा जे प्रकारे नथी ए प्रमाणे जेमां कहेलुं छे ते अस्तिनास्तिप्रवाद नामनुं चोथुं पूर्व छे, तेमां अढार वस्तु कहेली छे ( ६ ) । तथा धूमप्रभा नामनी पांचमी नरकपृथ्वी, ते बाल्यवडे करीने एटले पृथ्वीपिंडे करीने अढार हजार योजन अधिक (एक लाख) योजनप्रमाण कही छे (७) । ' पोसासाढे० ' विगेरे जे लख्युं छे तेनी योजना ( घटना ) आ प्रमाणे करवी - आषाढ मासमां ' सइ - सकृत् एटले एक दिवस अर्थात् कर्क संक्रांतिने दिवसे उत्कर्षथी अढार मुहूर्त्तनो एटले छत्रीश घडीनो दिवस होय छे, तथा पोष मासमा एक दिवस एटले मकर संक्रांतिना दिवसनी रात्रि आटला प्रमाणवाळी ( अढार मुहूर्त्तवाळी ) होय छे. ( ८ ) ॥ : समवाय १८ ॥ ॥ ७२ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल, सुकाल विगेरे वीश नामो विमाननां आपेला छे. (७) ॥ सूत्र-१८ ॥ हवे ओगणीश स्थानक कहे छे.- मू-एंगणवीसं णायज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-उक्खित्तणाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे ४ अ सेलए ५। तुंबे ६ अ रोहिणी ७ मल्ली ८, मागंदी ९ चंदिमाति १० अ ॥१॥ दावद्दवे ११ उदगणाए १२, मंडुक्के १३ तेत्तली १४ इअ । नंदिफले १५ अवरकंका १६, आइण्णे १७ सुसमा १८ इअ ॥ २ ॥ अवरे अ पोंडरीए १९, णाए एगूणवीसमे । १ । जंबूद्दीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगूणवीस जोयणसयाइं उड्ढमहो तवयांत २ । सुके णं महग्गहे अवरे णं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताइं समं चारं चरित्ता अवरेणं अत्थमणं उवागच्छइ ३। जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेअणाओ पन्नत्ता ४ । एगूणवीसं तित्थयरा अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पवइआ ५॥ | इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइआणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय १९॥ सूत्र॥ ॥७३॥ पन्नत्ता १ । छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरसमवायाङ्ग कुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु चो अंग अत्थेगइयाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । आणयकप्पे [ अत्थेगइयाणं ] देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ५ । पाणए कप्पे [ अत्थेगइयाणं ] देवाणं जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६ ।जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीसं| सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ७॥ ____ ते णं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमति वा पाणमंति वा उस्ससति वा नीससंति वा | १। तेसि णं देवाणं एगूणवीसाए वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ २ । संतेगइआ भवसिद्धिया 17 जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्सति बुझिस्सति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव दुक्खाणं अंतं करिस्सति ३ ॥ सूत्रम्-१९॥ ॥७३॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ:- ज्ञाता सूत्रना ओगणीश अध्ययनो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे - उत्क्षिप्तज्ञात १, संघाटक २, अंड ३, कूर्म ४, सेलक५, ६, रोहिणी ७, मल्ली ८, माकंदी ९, चंद्रिका १०, दावदव ११, उदकज्ञात १२, मेंडक १३, तेतली १४, नंदीफळ १५, अवरकंका १६, आकीर्ण १७, सुंसमा १८ तथा बीजं - छेल्लुं ओगणीशमं पुंडरीकज्ञात नामनुं अध्ययन १९ (१) । जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे वे सूर्य छे ते उत्कर्षथी ओगणीश सो योजन ऊंचे अने नीचे थइने ताप आपे छे ( २ ) । शुक्र नामनो महा ग्रह पश्चिम दिशामां उदय पामी ओगणीश नक्षत्रोनी साथे चार चरीने ( भ्रमण करीने) पश्चिम दिशामां ज अस्त पामे छे (३) । जंबूद्वीप नामना द्वीपना गणितमां जे कळा आवे छे ते एक योजननो ओगशमो भाग को छे ( ४ ) । ओगणीश तीर्थंकरोए गृहवास मध्ये वसीने पछी मुंड थइने अगार ( घरवास ) थकी अनगारपणे प्रव्रज्या लीधी ( राज्य भोगवीने पछी दीक्षा लीधी ) ( ५ ) ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी ओगणीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( १ ) । छठ्ठी नरकपृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी ओगणीश सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी ओगणीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ३ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी ओगणीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) । आनत कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति ओगणीश सागरोपमनी कही छे ( ५ ) । प्राणत कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति ओगणीश सागरोपमनी कही छे ( ६ ) । जे देवो आनत, प्राणत, नत, विनत, घन, सुषिर, इंद्र, इंद्रकांत, इंद्रोत्तरावतंसक नामना विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय १९॥ समवायाङ्ग चोधू अंग ॥७४॥ ओगणीश सागरोपमनी कही छे (७)॥ .. ते देवो ओगणीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने ओगणीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य) जीवो छे के जेओ ओगणीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखना अंतने करशे (३)॥ टीकार्थः-हवे ओगणीशU स्थानक कहे छे-तेमां स्थितिनां सूत्रनी पहेला पांच सूत्रो कयां छे अने ते सुगम छे. विशेष ए के-ज्ञात एटले दृष्टांत, तेने कहेनासं जे अध्ययनो ते ज्ञाताध्ययन कहेवाय छे. ते छठा अंगना पहेला श्रुतस्कंधमां रहेला छे. ते ओगणीशनां नामो आपवा माटे 'उक्खित्त' इत्यादि अढी गाथा कही छे. आ विषेनी सर्व हकीकत छठा अंगनी व्याख्याथी जाणी लेवी (१), तथा 'जंबूद्दीवेणं' ए सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-जंबूद्वीपना बन्ने सूर्यो पोताना स्थानथी उपर एक सो योजन अने नीचे अढार सो योजन तपे छे-प्रकाश आपे छे. तेमां समभूतलथी आठ सो योजन सूर्य ऊंचो छे ते ८०० अने चाकीना दश सो (१०००) योजन एटले पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा जगतीनी पासेना प्रदेशमा एटलं नीचाण छे; कारण के जंबुद्वीपना पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा शरूआतथी ज नीचे नीचे थतुं (ढाळवाडं थतुं) क्षेत्र छेवटे विजयद्वारनी पासे अधोलोकना प्रदेशमा प्राप्त थयुं छे' (ते नीचाण दश सो योजन जेटलुं छे); परंतु बीजा १. एक हजार पैकी ९०० योजन तिलोकना ने १०० योजन अधोलोकना समजवाना छे. - - ॥ ७४॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वीपोना सूर्यो तो पोताना स्थानथी उपर सो योजन अने नीचे आठ सो योजन कुल ९०० योजन प्रकाश आपे छे, केम के त्यां क्षेत्रनु समानपणुं छे (नीचाण उंचाण नथी) (२)। तथा शुक्रना सूत्रमा 'नक्खत्ताई' ए ठेकाणे विभक्तिनो फेरफार करवानो छे तेथी नक्षत्रोनी साथे चार चरीने एवो अर्थ करवो (३) । तथा 'कलाओ त्ति'-भरतक्षेत्रनो विस्तार पांच सो छवीश योजन अने छ कळा छे' इत्यादिक जंबुद्वीपना गणितमा जे कळाओ कहेवामां आवे छे ते एक योजनना ओगणीशमा भागरूप जाणवी (४)। 'अगारमज्झे वसित्त त्ति'-अगार एटले घरमां अधिक एटले चिरकाळ सुधी राज्यनुं पालन करवाथी अधिकपणावडे 'आ' एटले नीतिनी मर्यादावडे 'वसित्वा (त्ता)'-चसीने एटले घरमां वास करीने (ओगणीश तीर्थकरो) अध्येष्ट्या (अध्योषा-प्रत.) प्रव्रजित थया छे, बाकीना पांच तीर्थंकरो कुमारपणामां ज प्रव्रजित थया छे. कयुं छे के-" महावीर, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ अने वासुपूज्य आ पांच जिनेश्वरोने मूकीने बीजा जिनेश्वरो राजा थया हता-राज्य भोगव्या पछी दीक्षित थया हता. (५) ॥ सूत्र-१९ ॥ हवे वीश स्थानक कहे छे.. मू०-वीसं असमाहिठाणा पन्नत्ता, तं जहा-दवदवचारि यावि भवइ १,अपमज्जियचारि यावि १. अहीं गृहवासमां वसीने एनो अर्थ राजा थइने एवो टीकाकारे कर्यो छे, कारण के अविवाहितपणे तो पांचमांथी बे तीर्थकर ज ( १९ मा ने २२ मा ) दीक्षित थया छे. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग पोएं अंग ॥७५॥ भवइ २, दुप्पमज्जियचारि आवि भवइ ३, अतिरित्तसेज्जासणिए ४, रातिणिअपरिभासी ५, थेरोवघाइए ६, भूओवघाइए ७, संजलणे ८, कोहणे ९, पिढिमंसिए १०, अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारइत्ता भवइ ११, णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवइ १२, पोराणाणं आधिकरणाणं खामिअविउसविआणं पुणोदीरत्ता भवइ १३, ससरक्खपाणिपाए १४, अकालसज्झायकारए यावि भवइ १५, कलहकरे १६, सद्दकरे १७, झंझकरे १८, सूरप्पमाणभाई १९, एसणासमिते २०, यावि भवइ १ । मुणिसुवए णं अरहा वीसं धणूइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था २। सत्वेऽवि अ णं घणोदही वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता ३। पाणयस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वीसं सामाणिअसाहस्सीओ पन्नत्ताओ ४। णपुंसयवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधओ बंधठिई पन्नत्ता ५। पञ्चक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं वत्थू (पन्नत्ता) ६ । उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो पन्नत्तो ७॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं वीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता ४ | पाणते कंप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ५ । आरणे कप्पे देवाणं जहणणेणं वीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ६ । जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं तिगिच्छं दिसासोवत्थियं पलंबं रुइलं पुप्फं सुपुप्फं पुप्फावत्तं पुष्फपभं पुप्फकंतं पुष्फवण्णं पुष्फलेसं पुप्फज्झयं पुप्फसिंगं पुप्फसिद्धं पुप्फुत्तरवडिंसगं विमानं देवता ववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ७ ॥ णं देवा वीसा अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १ । तेसि णं देवाणं वीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २ | संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे वीसा भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सवदुक्खाणमंत करिस्संति ३ ॥ सूत्रम् - २० ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०॥ मूलार्थः-वीश असमाधिना स्थानो कयां छे, ते आ प्रमाणे-शीघ्र शीघ्र ( उतावळो) चाले ते १, पुंज्या समवाय समवाया विना चाले ते २, खराब रीते ( अव्यवस्थितपणे) पुंजीने चाले ते ३, अधिक प्रमाणवाळी वसति अने आसनादिक राखे ते ४, रत्नाधिक साधुओ (आचार्यादिक )नो पराभव-तिरस्कार करे ( मर्यादा रहित बोले ) ते ५, स्थविरनो उपगोपं अंग घात करे ६, भूत( प्राणी )नो उपघात करे ७, क्षणे क्षणे क्रोध करे ८, अत्यंत क्रोध करे ९, पाछळथी अवर्णवाद बोले १०, वारंवार निश्चयवाळी भाषा बोले ११, नहीं उत्पन्न थयेला नवा अधिकरण( क्लेश )ने उत्पन्न करे १२, जूना ॥ ७६ ॥ 0 अधिकरण( क्लेश) खमावीने शांत कर्या होय तेने फरीथी उदीरणा करे १३, रज (धूळ ) सहित हाथ-पगवडे भिक्षा में ग्रहण करे अथवा गमन करे १४, अकाळे स्वाध्यायादिक करे १५, कलह करे १६, रात्रिए मोटो शब्द करे १७, झंझा (खटपट) करनार होय के जेथी गच्छमां भेद. (कुसंप) थाय १८, सूर्य होय त्यां सुधी भोजन करनार होय १९ तथा. एषणा समिति रहित होय २० (१) । मुनिसुव्रत अरिहंत वीश धनुष ऊंचा हता (२) । सर्वे घनोदधिओ जे साते नरक नीचे छे ते वीश हजार योजन विस्तारवाळा (जाडा) कह्या छे (३)। प्राणत कल्पना देवेंद्र देवराजने वीश हजार सामानिक 07 देवो कह्या छे (४)। नपुंसक वेदरूप मोहनीय कर्मनी बंध समयथी आरंभीने वीश सागरोपम कोटाकोटि बंधस्थिति कही छे (५)। प्रत्याख्यान नामना पूर्वमा वीश वस्तुओ कहेली छे (६)। उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी बन्ने मळीने वीश कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण एक काळचक्र कहेवाय छे. (७)॥ . आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी वीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। छठी पृथ्वीने विषे केटलाक. ६ ॥७६ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | नारकीओनी वीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी वीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी वीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ )। प्राणत कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वीश सागरोपमनी कही छे (५)। आरण कल्पने विष देवोनी जघन्य स्थिति वीश सागरोपमनी कही छे ( ६ )। जे देवो सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, भित्तिल, तिगिच्छ, दिशासौवस्तिक, प्रलंब, रुचिर, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ, पुष्पकांत, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृंग, पुष्पसिद्ध अने पुष्पोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति वीश सागरोपमनी कही छे (७)॥ ते देवो वीश अर्धमासे ( पखवाडीये ) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने वीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाएक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ वीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थः-हवे वीशमा स्थानने विषे काइक लखे छे. तेमां स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां सात सूत्रो छे. तेमा समाधि एटले समाधान अर्थात् चित्तनी स्वस्थता एटले मोक्षमार्गमा रहेवू ते. आवा प्रकारनी समाधि जे न होय ते असमाधि का कहेवाय छे, तेना स्थानो एटले आश्रयना मेदो अथवा पर्यायो ते असमाधिस्थानो कहेवाय छे. तेमां'दव जे जल्दी जल्दी चाले ते अनुकरण शब्द करवाथी दवदवचारी कहेवाय छे. 'चापि'च' अने' अपि' शब्द लख्या छे ते आगळ आगळना असमाधिस्थाननी अपेक्षाए समुच्चयना अर्थवाळा एटले अनेना अर्थवाळा छे. 'भवति' क्रियाप Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ७७ ॥ दनो अर्थ प्रसिद्ध छे. ते ( साधु ) शीघ्र शीघ्र संयम ( चारित्र ) अने आत्मा ( पोताना शरीर )नी अपेक्षा राख्या विना चालतो सतो पोताना आत्माने पडवा विगेरेवडे असमाधिमा जोडे छे, अने वीजा प्राणीओने हणतो सतो तेमने असमाधिमां जोडे छे, तथा प्राणीहिंसाथी उत्पन्न थयेला कर्मवडे परलोकमां पण पोताना आत्माने असमाधिने विषे जोडे छे, तेथी शीघ्रगमन असमाधिनुं कारण होवाथी असमाधिनुं स्थान कहेवाय छे, ए ज रीते बीजा स्थानोमां पण जेम घटे तेम जाणी लेवु. १. तथा अप्रमार्जितचारी अने दुष्प्रमार्जितचारी एवो साधु ऊभा रहेवुं, बेसवुं पडखुं फेरववुं विगेरे क्रिया करतां आत्मादिकनी विराधना पामे छे. २-३ तथा शय्या एटले वसति ( उपाश्रय ) अने आसन एटले पीठ - फलकादिक जे (साधु) ने अतिरिक्त एटले अधिक प्रमाणवाळा होय ते अतिरिक्तशयनासनिक कहेवाय छे. आवो साधु धंधशाळा ( धर्मशाळा ) विगेरे स्वरूपवाळी अधिक प्रमाणवाळी वसतिमां बीजा पण कापडी विगेरे भिक्षुको रहे छे, तेथी तेनी साथे अधिकरणनो संभव होवाथी पोताना आत्माने अने वीजाने पण असमाधिमा जोडे छे, एज प्रमाणे अधिक आसनमां पण कहेवुं. ४. तथा ' रात्निकपरीभाषी ' - आचार्यादिक पूज्य पुरुषनो पराभव करनार, आवो साधु पोताने अने बीजाने असमाधिमा जोडे छे. ५. तथा स्थविर एटले आचार्य विगेरे गुरुजनो, तेमने आचारना दोषे करीने अने शीळना दोपे करीने अथवा ज्ञानादि वडे हणवाना - पराभव करवाना स्वभाववाळो जे साधु ते ज स्थविरोपघातिक कहेवाय छे. ६. तथा भूत - एकेंद्रियो, तेमने एटले प्रयोजन (अहीं गमनागमनादि जरूरी प्रयोजन समजवुं ) विना हणे ते भूतोपघातिक कहेवाय छे. ७. तथा संज्वलन एटले क्षणे क्षणे रोप करे ते. ८. तथा क्रोधन एटले एक वखत क्रोध करतो सतो अत्यंत क्रोधवाको थाय ते. ९. समवाय ६.२० ॥ ॥ ७७ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा 'पृष्ठिमांसाशिक'-एटले परोक्षमां अन्यना अवर्णवाद बोले ते. १०. तथा 'अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारयित्त त्ति'-वारंवार अवधारण करनार एटले के शंकावाळी बाबत छतां पण 'आ एम ज छे' एम निःशंकपणे ज बोले, अथवा 'अवहारयिता' एटले परना गुणोने नाश करनार, जेमके सामो मनुष्य दास के चोर न होय छतां तेने कहे के-तुं दास छे, तुं चोर छे विगेरे. ११. तथा अधिकरण एटले कलह अथवा यंत्रादिकने उत्पन्न करनार.१२. तथा 'पोराणाणं ति' पूर्वना जूना अधिकरणने एटले कलहने खमावीने नाश पमाड्या होय एटले क्षमा करवावडे उपशांत कर्या होय तेने फरीथी उदीरणा करनार थाय ते १३. तथा 'सरजस्कपाणिपादः'-सचित्तादिक रजवडे खरडायेला हाथे देवाती भिक्षाने जे (साधु ) ग्रहण करे तथा जे एक स्थंडिलादिकथी बीजी स्थंडिलादिक भूमिमां जतो सतो पगने प्रमार्जे नहीं, अथवा जे साधु तथाप्रकारंतुं कारण सते ( नहीं सते ) सचित्तादिक पृथ्वी उपर कपडादिकनुं आंतकै राख्या विना बेसबुं विगेरे करे ते सरजस्कपाणिपाद कहेवाय छे. १४. तथा अकाळे स्वाध्यायादिक करे ते अर्थ प्रसिद्ध छे. १५. तथा 'कलहकरः'-जेनाथी कलह थाय एवं कार्य करे ते. १६. तथा शब्दकर:'-रात्रिए मोटा शब्दवडे वातचित, स्वाध्याय विगेरे करे ते, अथवा गृहस्थनी भाषा बोले ते. १७. तथा 'झंझाकरः'-जे जे कार्यवडे गच्छमां भेद थाय ते ते कार्य करनारो थाय, अथवा जे वचनथी गच्छना मनने दुःख थाय तेवू वचन बोले ते. १८. तथा 'सूरप्रमाणभोजी' सूर्यनो उदय थाय त्यारथी अस्त थाय त्यां सुधी अशन, पान विगेरेने खानारो होय ते. १९. तथा एषणानी असमितिवाळो लाथाय एटले अनेषणीय वस्तुनो त्याग न करे, अने बीजा साधुओए प्रेरणा को सतो ते तेमनी साथे कलह करवा लागे, .... Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ ७८ ॥ तथा अनेषणीय वस्तुनो त्याग नहीं करतो सतो जीवनो उपरोध ( पीडा ) करवामां प्रवर्ते. आ प्रमाणे पोताने तथा परने aari कारण होवाथी आ वीरामुं असमाधिनुं स्थान थयुं. ( १ ) । तथा घनोदधि साते नरकपृथ्वीना प्रतिष्ठानभूत छे ( तेनो पिंड वीश हजार योजन प्रमाण छे ) (३) । सामानिक एटले इंद्रनी समान ऋद्धिवाळा ( सामानिक देवो ), साहस्य : एटले हजार ( प्राणत कल्पना इंद्रने सामानिक देवो वीश हजार छे ) ( ४ ) । ' बन्धतः ' बंधसमयथी आरंभीने बन्धनी स्थिति एटले स्थितिबंध ( ५ ) । प्रत्याख्यान नामनुं नवमुं पूर्व छे ( ६ ) ॥ सात विगेरे एकवीरा विमाननां नामो आपेलां छे ( ७ ) ॥ सूत्र २० ॥ हवे एकवीस स्थानक कहे छे. मू० - एकवीसं सबला पण्णत्ता, तं जहा - हत्थकम्मं करेमाणे सबले १, मेहुणं पडिसत्रमाणे सबले २, राइभोअणं भुंजमाणे सबले ३, आहाकम्मं भुंजमाणे सवले ४, सागारियं पिंडं भुंज - मासवले ५, उद्देसि कीयं आहहु जाव ( दिजमाणं भुंजमाणे सबले ६, अभिक्खणं अभिक्खणं पडियाइक्खेत्ता णं भुंजमाणे सबले ७, अंतो छण्हं मासाणं गणाओ गणं संकममाणे सबले ८, अंतो मासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबले ९, अंतो मासस्स तओ माईठाणे सेवमाणे सबले १०, रायपिंडं भुंजमाणे सबले ११, आउट्टिआए पाणाइवायं करेमाणे सबले १२, आउहिआए समवाय २१ ॥ 1197 11 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मुसावायं वदमाणे सबले १३, आउहिआए अदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबले १४, आउहिआए अणं| तरहिआए पुढवीए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले १५, एवं आउद्दिआ चित्तमंताए पुढवीए एवं आउहिआ चित्तमंताए सिलाए कोलावासंसि वा दारुए ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले १६, जीवपइट्ठिए सपाणे सबीए सहरिए सउत्तिंगे पणगदगमट्टीमकडासंताणाए | तहप्पगारे ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले १७, आउहिआए मूलभोअणं वा कंदभोअणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा, पुप्फभोयणं वा फलभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले १८, अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले १९, अंतो संवच्छरस्स दस माइठाणाइ सेवमाणे सबले २०,) अभिक्खणं अभिक्खणं सीतोदयवियडवग्धारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे सबले २१ । १॥ णिअहिबादरस्स णं खवित्तसत्तयस्स मोहणिजस्स कम्मस्स एकवीस कम्मंसा संतकम्मा पन्नत्ता, तं जहा-अपच्चक्खाणकसाए कोहे १, अपच्चक्खाणकसाए माणे २, अपञ्चक्खाणकसाए Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २१॥ • समवायाङ्ग --सूत्र ॥ चोयं अंग माया ३, अपञ्चक्खाणकसाए लोभे ४, पञ्चक्खाणावरणकसाए कोहे ५, पञ्चक्खाणावरणकसाए माणे ६, पञ्चक्खाणावरणकसाए माया ७, पञ्चक्खाणावरणकसाए लोभे ८, संजलणकसाए कोहे ९, संजलणकसाए माणे १०, संजलणकसाए माया ११, संजलणकसाए लोभे १२, इत्थिवेदे १३, पुंवेदे १४, णपुंवेदे १५, हासे १६, अराति १७, रति १८, भय १९, सोग २०, दुगुंछा २१ । २ । एकमेकाए णं ओसप्पिणीए पंचमछट्ठाओ समाओ एकवीसं एकवीसं वाससहस्साइंकालेणं पन्नत्ता, तं जहा-दूसमा दूसमदूसमा ।३। एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढमबितिआओ समाओ एकवीसं एकवीसं वाससहस्साइं कालेणं पन्नत्ता, तं जहा-दूसमदूसमाए दूसमाए य । ४ ॥ ___ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थगइयाणं नेरइआणं एकवीसपलिओवमाइंठिई पन्नत्ता १। छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं. नेरइयाणं एकवीससागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगवीसपलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ३। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एकवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ४ । आरणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एकवीसं मागरमशETAI s ॥७९॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ५। अच्चुते कप्पे देवाणं जहण्णेणं एकवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ६। जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मल्लं किटं चावोणतं अरण्णवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उव| वण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ७॥ ते णं देवा एकवीसाए अद्धमासाणं आणमति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा | १। तेसि णं देवाणं एकवीसाए वाससहस्सहिं आहारटे समुप्पज्जइ २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एकवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्सति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम्-२१ ॥ __ मूलार्थ:-एकवीश शवल ( चारित्रना दोष ) कह्या छे, ते आ प्रमाणे-हस्तकर्म करनार ( साधु ) शवल थाय छे १.मैथन सेवनार शबल थाय छे २. रात्रिभोजन करतो शबल थाय छे ३, आधाकर्मने खातो शबल थाय छे ४,सागारिक पिंडने खातो शबल थाय छे ५, उद्देशिक, क्रीत अने आहृत्य आपेल आहारने खातो शबल थाय छे ६, वारंवार प्रत्याख्यान करीने भोजन करतो शवल थाय छे ७, छ मासनी अंदर एक गच्छथी वीजा गच्छमां जतो शवल थाय छे ८, एक मासनी १. साधुने उद्देशीने बनावेल. २ साधुने माटे वेचातो लीघेल: ३ साधुनी सामे लावीने आपेल. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समवाय २१॥ समवायाङ्ग चोधू अंग ॥८ ॥ अंदर त्रण वार उदकलेप करतो शबल थाय छे ९, एक मासमांत्रण वार मायाने सेवन करतो शबल थाय छ १०, राजपिंडर्नु भोजन करतो शबल थाय छ ११, आकुट्टिवडे प्राणातिपातने करतो शवल थाय छे १२, आकुट्टिवडे मृषावादने बोलतो शवल थाय छे १३, आकुट्टिवडे अदत्तादानने ग्रहण करतो शबल थाय छे १४, आकुट्टिवडे आंतरा रहित पृथ्वी उपर स्थान के शयन विगेरे करतो शबल थाय छे १५, ए ज प्रमाणे आकुट्टिवडे सचित्त पृथ्वी उपर एज प्रमाणे आकुट्टिवडे सचित्त शिला उपर अथवा घुणना आवासवाळा काष्ठ उपर स्थान, शय्या के निषद्याने करतो शबल थाय छे १६, जीव सहित, प्राण सहित, बीज सहित, हरित सहित, उत्तिंग सहित तथा पनक, दक ( उदक) माटी अने करोळीआनी जाळवाळी तेवा प्रकारनी भूमि उपर स्थान, शय्या के निषद्याने करतो शबल थाय छे १७, आकुट्टिवडे मूळर्नु भोजन, कंदमुं भोजन, त्वचा (छाल)नु भोजन, प्रवाल, भोजन, पुष्पर्नु भोजन, फळर्नु भोजन के हरितनुं भोजन करतो शबल थाय छे १८, एक वर्षनी अंदर दश वार उदकलेप करतो शबल थाय छे १९, एक वर्षनी अंदर दश वार मायास्थानने सेवतो शबल थाय छे २०, वारंवार शीतोदकवाळा जळथी खरडायेला हाथवडे अशन, पान, खादिम, स्वादिमने ग्रहण करी भोजन करतो साधु शवल थाय छे २१. (१)। जेनी (मोहनीय कमनी) सात प्रकृतिओ क्षय पामी छे एवा निवृत्तिबादर (आठमा) गुणस्थाने रहेला साधुने मोहनीयकर्मनी : १ नाभिसुधी जळमा प्रवेश करवो ते. २ जाणी जोइने, इरादापूर्वक, पासे जइने एवो एवो अर्थ आकुट्टि शब्दनो थाय छे. । ३ पृथ्वी पर वस्त्र विगेरेनुं अंतर राख्या विना. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | एकवीश प्रकृतिओ सत्तामा रहेली होय छे, ते आ प्रमाणे-अप्रत्याख्यान कषायनो क्रोध १, अप्रत्याख्यान कषायनो मान २, अप्रत्याख्यान कषायनी माया ३, अप्रत्याख्यान कषायनो लोभ ४, प्रत्याख्यानावरण कषायनो क्रोध ५, प्रत्याख्यानावरण कपायनो मान ६, प्रत्याख्यानावरण कषायनी माया ७, प्रत्याख्यानावरण कषायनो लोभ ८, संज्वलन कषायनो क्रोध ९, संज्वलन कपायनो मान १०, संज्वलन कषायनी माया ११, संज्वलन कषायनो लोभ १२, स्त्रीवेद १३, पुरुषवेद १४, नपुंसकवेद १५, हास्य १६, अरति १७, रति १८, भय १९, शोक २० अने दुगुंछा २१. (२)। एक एक (दरेक ) अवसर्पिणीनो पांचमो अने छहो आरो काळे करीने एकवीश एकवीश हजार वर्षनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-दुषमा नामनो आरो अने दुषमदुपमा नामनो आरो. (३)। एक एक (दरेक) उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो आरो काळथी एकवीश एकवीश हजार वर्षनी कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-दुषमदुषमा नामनो आरो अने दुषमा नामनो आरो. (४)॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। छठी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकवीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी एकवीश पल्योपमनी | स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी एकवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। आरण कल्पने विपे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एकवीश सागरोपमनी कही छे (५)। अच्युत कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति एकवीश सागरोपमनी कही छे (६)। जे देवो श्रीवत्स, श्रीदामगंड, माल्य, कृष्टि, चापोन्नत अने आरणावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एकवीश सागरोपमनी कही छे (७)॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २१॥ समवायाङ्ग -: चोथु अंग . ते देवो एकवीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने एकवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छे के जेओ एकवीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३)॥ टीकार्थ:-हवे एकवीशम स्थानक कहे छे. तेमां स्थितिसूत्र सिवायना (पहेला) चार सूत्रो सुगम छे. विशेष ए छ के-शवल एटले कावरचित्रु चारित्र जे क्रियाविशेषवडे थाय ते शबल क्रिया कहेवाय छे, तेना योगथी (संबंधथी) साधु पण शवल कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे छे-तेमा हस्तकर्म एटले वेदनो विशेष प्रकारनो विकार, तेने करतो अथवा उपलक्षणथी करावतो एवो साधु शबल थाय छ १, एज प्रमाणे अतिक्रमादिक त्रण प्रकारे मैथुनने सेवतो पण शवल थाय छ २, तथा रात्रिभोजन एटले दिवसे ग्रहण करेलं दिवसे खाई इत्यादिक चार भांगे अथवा अतिक्रमादिकवडे भोजन करनार शवल थाय छे ३, तथा आधाकर्म खानार शबल थाय छे ४, सागारिक एटले स्थान आपनार, तेनो पिंड खानार शवल थाय छ ५, औदेशिक, क्रीत अने आहुत्य आपेल आहारने खानार तथा उपलक्षणथी पामिच्च, आच्छेद्य अने अनिसृष्टनुं ग्रहण पण अहीं जाणवु (अर्थात् आवो आहार खानार शबल थाय छे) ६, अहीं मूळ सूत्रमा 'जाव-यावत् ' लख्यो छे, तेनाथी ग्रहण करेला पदोनो अर्थ आ प्रमाणे जाणवो.-(वारंवार प्रत्याख्यान करीने अशनादिक खानार शवल थाय छे ७, १ अतिक्रम, व्यतिक्रम अने, अतिचार ए त्रणवडे मैथुन सेवतां चारित्र शबल थाय छे अने अनाचार सेवतां चारित्र नष्ट थाय छे.. . ॥८१॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ मासनी अंदर एक गणथी बीजा. गणमां जतो साधु शबल थाय छे ८, एक मासमां त्रण उदकलेप करनार एटले नाभि प्रमाण जळमां अवगाह करनार शबल थाय छे ९, एक मासमांत्रण मायाना स्थान-भेद करनार शबल थाय छ १०, राजपिंड खानार शवल थाय छ ११, आकुट्टिवडे प्राणातिपातने करतो एटले उपेत्य (पासे जइने, इरादापूर्वक, जाणी जोइने) पृथ्व्यादिकनी हिंसा करतो शवल थाय छे १२, आकुट्टिवडे मृषावादने बोलतो १३, अदत्तादानने ग्रहण करतो १४, आकुट्टिवडे ज आंतरा विना एटले आसन पाथर्या विना स्थान के नषेधिकने करतो एटले कायोत्सर्ग के स्वाध्यायमिने करतो १५, ए ज प्रमाणे आकुट्टिवडे स्निग्ध अने सचित्त रजवाळी पृथ्वी उपर, शिला उपर एटले ढेफा उपर अथवा घुणना आवासवाळा काष्ठ उपर १६, तथा तेवा प्रकारना बीजा प्राण सहित, बीज सहित विगेरे ठेकाणे स्थानादिकने करतो शवळ थाय छ १७, तथा आकुट्टिवडे मूळ, कंद विगेरेने खातो १८, एक वर्षमा दश वार उदकलेपने करतो १९, तथा एक वर्षमा दश वार मायास्थानने करतो २०,) तथा वारंवार शीतोदक लक्षणवालं जे विकट एटले जळ तेवडे वापरेला एटले। व्याप्त थयेला हाथवडे अशनने ग्रहण करी खातो साधु शबल थाय छे २१ ए एकवीशम (१)। . तथा निवृत्तिबादर एटले अपूर्वकरण नामना आठमा गुणस्थानकमां वर्तनार, ‘णं' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे, तथा क्षीणसप्तक एटले अनंतानुबंधीनी चोकडी अनेत्रण दर्शन (मोहनीय)ए सात प्रकृति जेनी क्षीण थइ होय तेने मोहनीय कर्मनी एकवीश प्रकृतिओ एटले अप्रत्याख्यानादिक बार कपाय अने नव नोकषायरूप उत्तरप्रकृतिओ सत्कर्म एटले सत्तावस्थावालं कर्म कहेलुं छे अर्थात् सत्तामा रहेली प्रकृतिओ कहेली छे (२)॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय : २२॥ श्री तथा श्रीवत्स, श्रीदामगंड, माल्य, दृष्टि, चापोन्नत, अने आरणावतंसक ए छ विमाननां नामो आपेला छे (७) समवायाङ्ग ॥ सूत्र-२१॥ पत्र हवे बावीश स्थानक कहे छचो' अंग मू-बावीस परीसहा पन्नत्ता, तं जहा-दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरी॥८२॥ al सहे ३, उसिणपरीसह ४, दंसमसगपरीसह ५, अचेलपरीसहे ६, अरइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ८, चरिआपरीसह ९, निसीहिआपरीसहे १०, सिज्जापरीसहे ११, अकोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३, जायणापरीसहे १४, अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे १७, जल्लपरीसहे १८, सकारपुरकारपरीसहे १९, पण्णापरीसहे २०, अण्णाणपरीसहे २१, दंसणपरीसहे २२ ।१। दिट्ठिवायस्स णं बावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए । २। बावीसं सुत्ताइं अछिन्नछेयणइयाइं आजीवियसुत्तपरिवाडीए । ३ । बावीसं सुत्ताई तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए । ४। बावीसं सुत्ताइं चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए । ५। बावीसविहे पोग्गलपरिणामे पन्नत्ते, तं जहा-कालवण्णपरिणामे १, नीलवण्णपरिणामे २, लोहियवण्णप ॥८२॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिणामे ३, हालिद्दवण्णपरिणामे ४, सुकिल्लवण्णपरिणामे ५, सुब्भिगंधपरिणामे ६, दुब्भिगंधपरिणामे ७, तित्तरसपरिणामे ८, कडुयरसपरिणामे ९, कसायरसपरिणामे १०, अंबिलरसपरिणामे ११, महुररसपरिणामे १२, कक्खडफासपरिणामे १३, मउयफासपरिणामे १४, गुरुफासपरिणामे १५, लहुफासपरिणामे १६, सीतफासपरिणामे १७, उसिणफासपरिणामे १८, णिद्धफासपरिणामे | १९, लुक्खफासपरिणामे २०, अगुरुलहुफासपरिणामे २१, गुरुलहुफासपरिणामे २२ । ६ ॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । १ । छट्ठीए पुढवीए (नेरइयाणं) उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। २ । अहेसत्तमाए पुढवीए [अत्थेगइयाणं] नेरइयाणं जहणणेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता।३। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थगइयाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ४ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ५। अच्चुते कप्पे देवाणं ( उक्कोसेणं) बावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६ । हेढिमहद्विमगेवेजगाणं देवाणं जहण्णेणं बावीसं सागरो Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवार २२॥ सूत्र॥ kवमाइं ठिई पन्नत्ता । ७ । जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतवडिंसगं | समवायाङ्ग | विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ८॥ ते णं देवा बावीसाए अद्धमासएणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा चोj अंग व १। तेसि णं देवाणं बावीसवाससहस्सहिं आहारटे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बावीसं( साए ) भवग्गहणोहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ३॥ सूत्रम्-२२॥ . मूलार्थ:-बावीश परीपहो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्षुधा परीपह १, पिपासा परीपह २, शीत परीपह ३, उष्ण परीपह ४, शमशक परीपह ५, अचेल परीपह ६, अरति परीपह ७, स्त्री परीपह ८, चर्या परीपह ९, नैपेधिकी परीपह १०, शय्या परीषह ११, आक्रोश परीपह १२, वध परीपह १३, याचना परीपह १४, अलाभ परीपह १५, रोग परीपह १६, तृणस्पर्श परीपह १७, जल्ल परीपह १८, सत्कारपुरस्कार परीपह १९, प्रज्ञा परीपह २०, अज्ञान परीपह २१, तथा दर्शन परीपह २२ (१) । दृष्टिवाद नामना बारमा अंगमा बावीश सूत्रो छिन्नछेद नयवाळां एटले एक सूत्र तथा तेनो अर्थ वीजा सूत्र तथा तेना अर्थनी अपेक्षा करनार न होय एवा छे, अने ते स्वसमय ( जैनमत) ना आश्रयवाळी सूत्रोनी परिपाटिने विषे रहेला छ। (२)। तथा बावीश सूत्रो अच्छिन्नछेद नयवाळां छे ते आजीविक मतना आश्रयवाळी सूत्रोनी परिपाटिने विषे रहेला छे. 14 . ॥८३॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) । तथा बावीश सूत्रो त्रिक (त्रण) नयवाळां छे ते त्रैराशिक मतना आश्रयवाळी सूत्रोनी परिपाटिने विपे रहेलां छे. ( ४ ) । तथा बावीश सूत्रो चार नयवाळां छे ते स्वसमयना आश्रयवाळी सूत्रोनी परिपाटिने विषे रहेलां छे ( ५ ) । तथा पुद्गलोनो परिणाम बावीश प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- कृष्ण वर्णना परिणामवाळा ( पुद्गलो ) १, नीलवर्णना परिणामवाळा २, लोहित वर्णना परिणामवाळा ३, हालिद्र (हळदर जेवा पीत ) वर्णना परिणामवाळा ४, शुक्लवर्णना परिणामवाळा ५, सुरभिगंधना परिणामवाळा ६, दुरभिगंधना परिणामवाळा ७, तिक्त रसना परिणामवाळा ८, कटुक रसना परिणामवाळा ९, कपाय ( तुरा ) रसना परिणामवाळा १०, अंबिल ( खाटा ) रसना परिणामवाळा ११, मधुर रसना परिणामवाळा १२, कर्कश ( कठण) स्पर्शना परिणामवाळा १३, मृदु ( कोमळ ) स्पर्शना परिणामवाळा १४, गुरु ( भारे) स्पर्शना परिणामवाळा १५, लघु ( हळवा ) स्पर्शना परिणामवाळा १६, शीत स्पर्शना परिणामवाळा १७, उष्ण स्पर्शना परिणामवाळा १८, स्निग्ध स्पर्शना परिणामवाळा १९, रुक्षस्पर्शना परिणामवाळा २०, अगुरुलघु स्पर्शना. परिणामवाळा २१ अने गुरुलघु स्पर्शना परिणामवाळा २२. ( ६ ) ॥ आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी बावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । छठ्ठी नरकपृथ्वीने विषे नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( २ ) । नीचेनी सातमी पृथ्वीने विषे [ केटलाक ] नारकीओनी जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे (३) । केटलाक असुरकुमार देवोनी चावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी बावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ५ ) | अच्युत Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ ८४ ॥ कल्पनेविषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ६ ) | नव ग्रैवेयकमां सौनी नीचेना प्रथम हेहिम हम नामवाळा ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ७ ) । जे देवों महित, विश्रुत, विमल, प्रभास, वनमाल अने अच्युतावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ८ ) ॥ _ते देव बावीश अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे ( १ ) । ते देवोने बावीस हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ बावीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे ( ३ ) ॥ टीकार्थ :- बावीशमा स्थाननो अर्थ प्रसिद्ध ज छे. विशेष ए छे के — स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां छ सूत्रो आपेलां छे. मां मार्गथी भ्रष्ट न थवा माटे अने कर्मनी निर्जरा करवा माटे जे अत्यंत सहन कराय ते परीपह कहेवाय छे, ते परीषहो बावीश छे. तेमां ' दिगिंछ त्ति ' - बुभुक्षा ( क्षुधा ) ते रूपी जे परीपह ते दिगिंछा परीषह कहेवाय छे, तेनी मर्यादा उल्लंघन कर्याविना जे सहन कर ते परीपंह कहेवाय छे, ते रीते वीजे ठेकाणे पण जाणवुं १, तथा पिपासा एटले तृपा २, शीत अने उष्ण ए वे प्रसिद्ध छे ३-४, तथा दंश ( डांस ) अने मंशक ( मच्छर ) ए वे चतुरिंद्रिय छे; तेमां दंश ए मोटा होय छे अने मशक नाना होय छे एटलो ते बन्नेमा विशेष छे, अथवा दंश एटले भक्षण ( करडवु ) ते छे प्रधान - मुख्य जेने एवा जे मशक ते दंशमशक कहेवाय छे. आ कहेवाथी जू, मांकड, मंकोडा, माखी विगेरे उपलक्षणथी जाणवा ५, समवाय २२ ॥ ॥ ८४ ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तथा चेल एटले बहु मूल्यवाळा, नवा, निर्मळ अने सारा प्रमाणवाळा वस्त्र न होय अथवा सर्व वस्त्रनो ज अभाव होय तो पण | ते सहन करवो ते अचेल. परीपह कहेवाय छे ६, अरति एटले मननो विकार ( अप्रीति ) ७, स्त्रीनो अर्थ प्रसिद्ध छे ८, चर्या एटले ग्रामादिकने विषे अनियमित विहार करवो ते ९, नैपेधिकी एटले उपद्रववाळी अथवा उपद्रव रहित स्वाध्यायनी भू १०, शय्या एटले सारी अथवा नरसी वसति ( उपाश्रय ) अथवा संस्तारक ( संथारो) ११, आक्रोश एटले खराब वचन १२, वध एटले लाकडी विगेरे वडे मार ते १३, याचना एटले भिक्षा अथवा तथाप्रकारना प्रयोजन समये मागवू ते १४, अलाभ अने रोग ए वे प्रसिद्ध छे १५-१६, तृणस्पर्श एटले संस्तारक न होय त्यारे तृण उपर शयन करनारने ते तृण(नी अणी) वागे ते १७, जल्ल एटले शरीर अने वस्त्रादिकनो मेल १८, सत्कारपुरस्कार एटले वस्त्रादिकवडे पूजा थवी ते सत्कार अने गृहस्थवडे ऊभा थर्बु विगेरे विनय कराय ते पुरस्कार, अथवा सत्कारवडे सन्मान करवू ते १९, तथा ज्ञान एटले सामान्ये करीने मतिज्ञानादिक, कोइ ठेकाणे अज्ञान एवो पाठ संभळाय छे २०, तथा दर्शन एटले समकित दर्शन, तेनुं सहन कर, एटले क्रियावादी विगेरेना विचित्र मत श्रवण कर्या छतां पण निश्चळ चित्तपणाए करीने समकितने दृढ रीते धारण करी राखg ते २१, तथा प्रज्ञा एटले पोतानी मेळे विचार करवापूर्वक वस्तुने जणावनार मतिज्ञाननो कोइक विशेष प्रकार २२ (१)॥ - - दृष्टिवाद एटले बारमुं अंग. ते-परिकर्म १, सूत्र २, पूर्वगत ३, प्रथमानुयोग ४ अने चूलिका ५ ए भेदोए करीने | पांच प्रकारे छे. तेमां दृष्टिवादना बीजा प्रस्थानमा बावीश सूत्रो छे. तेमां सर्व द्रव्य, पर्याय अने नय विगेरेना अर्थने था १५ . . . . . S Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग .11 64.11 सूचन करनार होवाथी सूत्र कहेवाय छे. 'छिन्नच्छेयणइयाई ति ' - अहीं जे नय छेदवडे करीने छिन्ने सूत्रने इच्छे छे, एटले के जैम " धम्मो मंगलमुक्किहं " इत्यादि ( कोइ एक ) लोक सूत्र अने अर्थथकी छेदनयमां रह्यो सतो बीजा, त्रीजा विगेरे श्लोकनी अपेक्षा करतो न होय, आवी रीतना जे सूत्रो छिन्नच्छेदनयवाळां होय ते छिन्नच्छेदनयिक कहेवाय छे. आवां सूत्रो स्वसमय एटले जिनमतने आश्रय करनारी जे सूत्रोनी परिपाटि एटले पद्धति, तेने विपे अथवा तेणे करीने होय छे ( २ ) तथा ' अच्छिन्नच्छेयनइयाई ति ' - अहीं जे नय अच्छिन्न सूत्रने छेदवडे इच्छे छे; ते अच्छिन्नच्छेदनय कहेवाय छे जेमके' धम्मो मंगलमुकिहं' इत्यादिक श्लोक अर्थथकी वीजा, त्रीजा आदि लोकनी अपेक्षा करतो होय तेवी रीतनां जे सूत्रो अच्छिन्नछेदनयवाळां होय ते अच्छिन्नच्छेदनयिक कहेवाय छे. आवां सूत्रो आजीविक सूत्रनी परिपाटिने विषे एटले गोशालकना मतना कहेलां सूत्रोनी पद्धतिने विपे अथवा ते पद्धतिए करीने होय छे, अर्थात् आ सूत्रो अक्षरनी रचनावडे जुदा रहेला होय छे एटले के अक्षरोनी रचना जुदी जुदी होय छे तो पण अर्थथकी परस्परनी अपेक्षा राखनारां होय छे ( ३ ) तथा ' तिकणइयाई ति - जे सूत्रो त्रण नयना अभिप्रायथी चिंतचाय ते नयत्रिकवंति एटले त्रिकनयिकानि (त्रण नयवाळां) कहेवाय छे. 'चैराशिकसूत्रपरिपाट्या ' - अहीं त्रैराशिक एटले गोशालकना मतने अनुसरनारा कहेवाय छे, केमके तेओ सर्व वस्तु त्रण स्वरूपवाळी इच्छे छे, ते आ प्रमाणे १. छिन्न एटले कोई पण एक छूटुं सूत्र एटले कोइनी साथ संबंध नहीं राखनारुं सूत्र के जे छेद नयने एटले एक ज छूटा नयने इच्छतुं होय ते सूत्र छिन्नच्छेदनयवाळु कद्देवाय छे अर्थात् बीजा कोइनी अपेक्षा नहीं राखनार स्वतंत्र सूत्रो. समवाय २२ ॥ ॥ ८५ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II जीव, अजीव अने जीवाजीव. तथा लोक, अलोक अने लोकालोक विगेरे. नयनो विचार करीए तो पण तेओ त्रण प्रकारना नयने इच्छे छे, ते आ प्रमाणे-द्रव्यास्तिक नय, पर्यायास्तिक नय अने उभयास्तिक नय. आ जत्रण नयने आश्रीने त्रिकनयिक एम का छे (४)। तथा' चउकनइयाइंति'-जे सूत्रो चार नयना अभिप्रायथी चिंतवाय ते चतुष्कनयिक कहेवाय छे. चार नय आ प्रमाणे-नैगमनय वे प्रकारे--सामान्य ग्राही अने विशेपग्राही. तेमां जे सामान्यग्राही छे ते संग्रह (नय)ने विषे अंतर्भाव (समावेश) पामे छे अने जे विशेषग्राही छे ते व्यवहार (नय) ने विपे अंतर्भाव पामे छे. आ प्रमाणे संग्रह, व्यवहार अने ऋजुसूत्र एत्रण अने शब्दादि त्रण मळीने एक ज एम चार नय जाणवा. स्वसमय विगेरेनो अर्थ प्रथमनी जेम जाणवो (५)। तथा पुद्गल एटले परमाणु विगेरेनो जे परिणाम एटले धर्म ते पुद्गलपरिणाम कहेवाय छे. ते पांच वर्ण, वे गंध, पांच रस अने आठ स्पर्शना भेदो मळीने वीश प्रकारे थाय छे तथा Ke तेमां गुरुलघु अने अगुरुलघु ए वे नांखवाथी बावीश थाय छे. तेमां वायु विगेरे जे तिर्छ गमन करनार होय ते द्रव्य गुरुलघु कहेवाय छे.अने जे सिद्धिक्षेत्र तथा घंटाने आकारे रहेल ज्योतिष्कना विमान विगेरे स्थिर द्रव्य छे ते अगुरुलघु कहेवाय छे (६)॥ का तथा महित विगेरे छ विमाननां नामो आपेलां छे (८)। सूत्र-२२॥ हवे त्रेवीश स्थानक कहे छे.-- मू-तेवीसं सुयगडज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-समए १, वेतालिए २, उवसग्गपरिणा ३, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २३॥ समवायाग पत्र॥ चोj अंग ॥८६॥ थीपरिण्णा ४, नरयविभत्ती ५, महावीरथुई ६, कुसीलपरिभासिए ७, विरिए ८, धम्मे ९, समाही १०, मग्गे ११, समोसरणे १२, आहत्तहिए १३, गंथे १४, जमईए १५, गाथा १६, पुंडरीए १७, किरियाठाणा १८, आहारपरिपणा १९, [अ]प्पच्चक्खाणकिरिआ २०, अणगारसुयं २१, अद्दइज्ज । २२, णालंदइज्ज २३ । १ । जंबुद्दीवेणं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहृत्तसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे । २ । जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुवभवे एकारसंगिणो होत्था, तं जहा-अजित संभव अभिणंदण सुमई जाव पासो वद्धमाणो य, उसभेणं अरहा चोदसपुत्री होत्था । ३ । जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थंकरा पुत्वभवे मंडलिरायाणो होत्था, तं जहा-अजित संभव अभिणंदण जाव पासो | वद्धमाणो य, उसमे णं अरहा कोसलिए पुत्वभवे चकवट्टी होत्था । ४॥ इमासे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । १ । अहे सत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । २ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेवीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्मीसाणा देवाणं अत्थेगइयाणं तेवीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ४ । हेट्ठिममज्झिमगोविजाणं देवाणं जहणणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । ५ । जे देवा हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता | ६ ॥ देवा तेवीस अद्धमासाणं (मासेहिं) आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १ । तेसि णं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ । २ | संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ ३ ॥ सूत्रम् - २३ ॥ मूलार्थ:-सूत्रकृतांग ( सुयगडांग ) ना त्रेवीश अध्ययनो कलां छे, ते आ प्रमाणे – समय १, वैतालिक २, उपसर्गपरिज्ञा ३, स्त्रीपरिज्ञा ४, नरकविभक्ति ५, महावीरस्तुति ६, कुशीलपरिभाषित ७, वीर्य ८, धर्म ९, समाधि १०. मार्ग ११, समवसरण १२, याथातथ्य १३, ग्रंथ १४, यमक १५, गाथा १६, पुंडरीक १७, क्रियास्थान १८, आहारपरिज्ञा १९, [अ] प्रत्याख्यान क्रिया २०, अनगारश्रुत २१, आर्द्रकुमार २२ अने नालंदिय २३ (१) । आ जंबूद्वीप Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ ८७ ॥ नामना द्वीपने चिपे भरतक्षेत्रने विषे आ अवसर्पिणीमां त्रेवीश जिनेश्वरोने सूर्योदयने समये श्रेष्ठ केवळज्ञान अने केवळदर्शन उत्पन्न थया हता (२) । आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे ( भरतक्षेत्रने विषे ) आ अवसर्पिणीना त्रेवीश तीर्थकरो पूर्वभवमां अग्यार अंगने जाणनारा हता, ते आ प्रमाणे- अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदनस्वामी, सुमतिस्वामी विगेरेने लड़ने या पार्श्वनाथस्वामी ने वर्धमानस्वामी, मात्र एक कोशल देशमां उत्पन्न थयेला ऋषभदेव अरिहंत चौद पूर्वने जाण - नार हता ( ३ ) | आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे ( भरतक्षेत्रने विषे ) आ अवसर्पिणीमां त्रेवीश तीर्थकरो पूर्वभवे मांडलिक राजाओ हता, ते आ प्रमाणे - अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदन विगेरे यावत् पार्श्वनाथ अने वर्धमानस्वामी, मात्र एक कौलिक ऋषभदेव स्वामी पूर्वभवमां चक्रवर्ती हता ( ४ ) ॥ - रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी जेवीश पल्योपमनी स्थिति कहीं छे ( १ ) नीचे सातमी नरक पृथ्वीने विषे केला नारकीओनी त्रेवीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी देवीश पल्योपनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान देवलोकमां केटलाक देवोनी श्रेवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । . हे हिममज्झिम नामना बीजा ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति त्रेवीश सागरोपमनी कही छे ( ५ ) । जे देवो हेडिम हेहिम नामना पहेला ग्रैवेयक विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति त्रेवीश सागरोपमनी कही छे (६) । ते देवो वीश अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे ( १ ) । ते देवाने त्रेवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ वीश समवाय २३ ॥ ॥ ८७ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ ____टीकार्थः-त्रेवीशमुं स्थानक सुगम ज छे. विशेष ए के-स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां चार सूत्रो आपेला छे. तेमां सूत्रकृतांगना पहेला श्रुतस्कंधमां सोळ अध्ययनो छे अने बीजा श्रुतस्कंधमां सात अध्ययनो छे. (कुल २३ छे.) तेमनो अन्वर्थ (सार्थक अर्थ ) तेमना नाम उपरथी ज जाणी शकाय तेवो छ (१) ॥ इति सूत्र-२३॥ M . हवे चोवीश स्थानक कहे छ मू०-चउव्वीसं देवाहिदेवा पन्नत्ता, तं जहा-उसभ १, अजित २, संभव ३, अभिनंदण ४, : सुमइ ५, पउमप्पह ६, सुपास ७, चंदप्पह ८, सुविधि ९, सीअल १०, सिज्जंस ११, वासुपुज IN|| १२, विमल १३, अणंत १४, धम्म १५, संति १६, कुंथु १७, अर १८, मल्ली १९, मुणिसुवय २०, नमि २१, नेमी २२, पास २३, वद्धमाणा २४।१ । चुल्लहिमवंतसिहरीणं वासहरपवयाणं जीवाओ चउव्वीसं चउव्वीसं जोयणसहस्साइं णवबत्तीसे जोयणसए एगं अट्ठत्तीसइभागं जोयणस्स किंचि । विसेसाहिआओ आयामेणं पन्नत्ता । २। चउवीसं देवठाणा सइंदया पन्नत्ता, सेसा अहमिंदा अनिंदा अपुरोहिआ।३। उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसीछायं णिव्वत्तइत्ता णं Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥ ८८ ॥ णिअति । ४ । गंगासिंधूओ णं महाणंदीओ पवाहे सातिरेगे णं चउवीसं कोसे वित्थारेणं पन्नत्ता । । ५ । रत्तारत्तवतीओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेणं पन्नत्ता । ६ ॥ इसे णं णपभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । १ । अहे सत्तमा पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं चउवीसं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता । ४ । हेट्टिमउवरिमगेविजाणं देवाणं जहणणेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ५ । जे देवा हेट्टिममज्झिमं गेवेज्जयविमासु देवता उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६ ॥ ते णं देवा चवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । १ । तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइआ भवसि - द्विया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्सति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति समवाय २४ ॥ ॥ ८८ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ३॥ सूत्रम्-२४ ॥ . _मूलार्थः-चोवीश देवाधिदेवो ( तीर्थंकरो) कह्या छ, ते आ प्रमाणे--ऋषभ १, अजित २, संभव ३, अभिनंदन ४, सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चंद्रप्रभ ८, सुविधि ९, शीतळ १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्व २३ अने वर्धमान २४ (१)। क्षुल्लहिमवंत अने शिखरी ए वे वर्षधर पर्वतोनी जीवा लंबाइमां चोवीश हजार नव सो ने बत्रीश | योजन तथा एक योजननो आडत्रीशमो भाग काइक अधिक कही छे (२)। देवोना चोवीश स्थानो इंद्र सहित कहेला | छे, बाकीना स्थानो अहमिंद्रवाळा, इंद्र रहित अने पुरोहित (विगेरे) रहित कहेला छ (३)। उत्तरायणमां रहेलो सूर्य चोवीश अंगुल प्रमाण पोरसीनी छायाने करीने पाछो वळे छे (४)। गंगा अने सिंधु नामनी मोटी नदीओ प्रवाहने ना स्थाने काइक अधिक चोवीश कोश (गाउ) विस्तारमा कही छे (५)। रक्ता अने रक्तवती नामनी मोटी नदीओ प्रवाहने | स्थाने काइक अधिक चोवीश कोश (गाउ) विस्तारमा कही छे (६)॥ ___ आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी चोवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचे सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी चोवीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी चोवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान देवलोकमां केटलाक देवोनी चोवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। हेछिमउवरिम नामना त्रीजा ग्रैवेयकमां देवोनी जघन्य स्थिति चोवीश सागरोपमनी कही छे (५)। जे देवो EDI Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी, समवायाङ्ग बोधू अंग मग ॥८९॥ हेडिममज्झिम नामना बीजा ग्रैवेयक विमानमा देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चोवीश सागरोपमनी समवाय N कही छे (६)॥ २४॥ ते देवो चोवीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छ (१)। ते देवोने चोवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छ के जेओ चोवीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थ:-आ चोवीश स्थानकने विषे स्थितिनी पहेलो छ सूत्रो कहेला छे, अने ते सुगम पण छे, विशेष ए छे के इंद्रादिक देवोनी मध्ये जे पूज्यपणाने लीधे अधिक होय ते देवाधिदेव कहेवाय छे (१) । तथा 'जीवाओ ति 'जंबूद्वीपरूपी वृत्त (गोळ) क्षेत्रने मध्ये जे वर्षो (क्षेत्रो) अने वर्षधरो ( पर्वतो) रहेला होय तेनी सीधी सीमानुं नाम जीवा कहेवाय छ. धनुष उपर प्रत्यंचा चडावेली होय ते जीवानी सदृश आ पण होवाथी जीवा कहेवाय छे. तेमां चुल्लहिमवंत अने शिखरी ए वे पर्वतनी जीवातुं प्रमाण २४९३२ योजन अने एक योजननो आडत्रीशमो भाग काइक अधिक छे. आ प्रमाणने माटे गाथा कही छे तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे. “ चोवीश हजार नव सो ने बत्रीश योजन तथा अर्धी कळा एटली लांबी क्षुल्लहिमवंतनी जीवा छे." अहीं अर्थी कळा एटले ओगणीशीया भागनो अर्धभाग, ते आडत्रीशमो भाग ज कहेवाय छे (२)। देवना स्थानो एटले भेदो चोवीश आ प्रमाणे-भवनपतिना दश, व्यंतरना आठ, ज्योतिष्कना पांच अने कल्पोपपन्ना वैमानिक देवोनुं एक स्थान, ए सर्व मळीने चोवीश थया. आ चोवीश स्थानो इंद्र सहित एटले चमरेंद्र विगेरेवडे अधिष्ठित ॥८९ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, बाकीना एटले नव ग्रैवेयक अने पांच अनुत्तर विमानना देवो ते अहमिंद्र कहेवाय छे. तेओ पोते ज इंद्र छे, तेने माथे । इंद्र नथी. तेमना स्थानो ते अहमिंद्र स्थानो छ अर्थात् ते दरेक देवो पोताना आत्माने इंद्र माननारा छे. तेथी करीने ज ते स्थानो इंद्र रहित एटले नायक रहित छ, तथा शांतिकर्मने करनारा पुरोहित रहित छे, उपलक्षणथी सेवकजनो (आभियोगिक देवो) विगेरे काइपण नथी. एम जाणवू (३)। तथा उत्तरायणमा रहेलो एटले कर्क संक्रांतिने दिवसे सर्व आभ्यंतर || मंडळमां रहेलो सूर्य एक हस्तप्रमाण शंकुनी चोवीश अंगुलप्रमाण पोरिसीनी छायाने करीने पाछो फरे छे एटले सर्व आभ्यंतर मंडळथी नीकळीने बीजा मंडळमां आवे छे. ते विपे कमु छ के-" आषाढ मासमां वे पगलानी छाया, (पोरिसी कहेवाय N) छे). " इत्यादि. (४)। 'पवहे '-जे स्थानथी नदी वहेवा लागे छे, ते प्रवाह अहीं पद्मद्रहथकी तेना तोरणवडे करीने तेनी नीचे थइने तेनो निर्गम संभवे छे. परंतु अन्य स्थळे प्रवह शब्दे करीने जे मकरना मुखनी प्रनाळमाथी नीकळवू थाय छै ते अथवा प्रपातकुंडमांथी जे नीकळवू थाय छे, ते प्रवाह कहेल छे ते अहीं कहेवाने इच्छथो नथी. केम के जंबुद्वीपप्रज्ञप्तिमा अने अहींआं पण आगळ पचीश कोशना प्रमाणवाळो गंगादिक नदीओनो प्रवाह कहेलो छे. (५-६)॥ सूत्र-२४ ॥ हवे पचीशमुं स्थानक कहे छ. मूल-पुरिमपच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णत्ता, तं जहाईरियासमिई, मणगुत्ती, वययुत्ती, आलोयभायणभोयणं, आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई ५, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाज पत्र। पोथु अंग ॥९०॥ अणुवीतिभासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे ५, उग्गह अणुण्णवणया, उग्गहसीमजाणणया, सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया, साहम्मियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया, साहारणभत्तपाणं अणुपणविय पडिभुंजणया ५, इत्थीपसुपंडगसंसत्तगसयणासणवजणया, इत्थीकहविवजणया, इत्थीणं इंदियाणमालोयणवजणया, पुवरयपुवकीलिआणं अणणुसरणया, पणीताहारविवजणया ५, सोइंदियरागोवरई, चक्खिदियरागोवरई, घाणिदियरागोवरई, जिभिदियरागोवरई, फासिंदियरागोवरई ५।१। मल्ली णं अरहा पणवीसं धणु उड्ढे उच्चत्तणं होत्था ।२। सवे वि दीहवेयड्डपव्या पणवीसं जोयणाणि उढे उच्चत्तेणं पन्नत्ता पणवीसं पणवीसं गाऊआणि उविद्धणं पन्नत्ता । ३ । दोच्चाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता। ४ । आयारस्स णं भगवओ सचूलिआयस्स पणवीसं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा-सत्थपरिपणा १ लोगविजओ २ सीओसणीअ ३ सम्मत्तं ४ । आवंति ५धुय ६ विमोह ७ उवहाणसुयं ८ महपरिण्णा ९ ॥१॥ पिंडेसण १० सिजि ११ रिआ १२ भासज्झयणा १३ य वत्थ १४ पाएसा १५। उग्गहप Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . GI IRY डिमा १६ सत्तिकसत्तया २३ भावण २४ विमुत्ती २५॥ २॥ निसीहज्झयणं पणवीसइमं । ५। मिच्छादिविविगलिंदिए णं अपजत्तए णं संकिलिटुपरिणामे णामस्स कम्मस्स पणवीसं उत्तरपयडीओ णिबंधति-तिरियगतिनामं १ विगलिंदियजातिनामं २ ओरालियसरीरणामं ३ तेअगसरीरणामं ४ कम्मणसरीरनामं ५ हुंडगसंठाणनामं ६ ओरालिअसरीरंगोवंगणामं, ७ छेवट्ठसंघयणनामं ८ वण्णनामं ९ गंधणामं १० रसणामं ११ फासणामं १२ तिरिआणुपुग्विनामं १३ अगुरुलहुनामं १४ उवघायनामं १५ तसनामं १६ बादरणामं १७ अपजत्तयणाम १८ पत्तेयसरीरणामं १९ अथिरणाम २० असुभणाम २१ दुभगणामं २२ अणादेजनामं २३ अजसोकित्तिनामं २४ निम्माणनाम २५ । ६ । गंगासिंधूओ णं महाणदीओ. पणवीसं गाऊयाणि पुहत्तेणं दुहओ घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति । ७ । रत्तारत्तवईओ णं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं (दुहओ) मकर (घड) मुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति ।।८। लोगबिंदुसारस्स पणवीसं वत्थू पन्नत्ता ॥ ९॥ १६ . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवार २५॥ समवायाङ्ग बत्र॥ चो\ अंग ॥ ९१॥ ASIA इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पणवीसंपलिओवमाइं ठिई पन्नता ।१। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।२। असुरंकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पणवीसं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता।३। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं पणवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। ४ । मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जाणं देवाणं हण्णणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ५। जे देवा हेट्रिमउवरिमगेवेज्जगविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६ ॥ ते णं देवा पणवीसाए अद्धमासहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ।१। तेसि णं देवाणं पणवीसं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ। २ । संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे पणवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ३॥ सूत्रम्-२५॥ . मूलार्थ:-पहेला अने छल्ला तीर्थकरना समयमां पांच महाव्रतोनी पचीश भावनाओ कही छे, ते आ प्रमाणे--ईर्यासमिति, मनगुप्ति, बचनगुप्ति, पात्रने विषे जोइने भोजन कर (एपणासमिति), आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति ५, | ॥९१॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारपूर्वक बोल, क्रोधनो त्याग, लोभनो त्याग, भयनो त्याग, हास्यनो त्याग ५, अवग्रहनी अनुज्ञा लेवी - याचना करवी, अवग्रहनी सीमा ( हद ) नुं जाणवुं, पोते अवग्रहनुं अनुग्रहण करवुं, साधर्मिकना अवग्रहने तेनी आज्ञा लइने परिभोग करो, साधारण भात - पाणीनो परिभोग गुर्वादिकनी अनुज्ञा लइने करवो ५, स्त्री, पशु के नपुंसके अधिष्ठित शयन - आसन वर्जवा, स्त्रीकथा वर्जवी, स्त्रीनी इंद्रियो ( अवयवो ) ने जोवानुं वर्जयुं, पूर्वना रत (मैथुन ) नुं अने पूर्वनी क्रीडानुं स्मरण न कर, प्रणीत ( रसवाळा ) आहारनो त्याग करवो ५, श्रोत्रइंद्रियना रागनो त्याग, चक्षुइंद्रियना रागनो त्याग, घ्राणेंद्रियना रागनो त्याग, जिवेंद्रियना रागनो त्याग, स्पर्शेद्रियना रागनो त्याग ५, ( १ ) । श्री मल्लिनाथ अरिहंत पचीश धनुष ऊंचा हता ( २ ) । सर्वे दीर्घ वैताढ्य पर्वतो पचीरा योजन ऊंचा कह्या छे तथा पचीश गाउ पृथ्वीमां ऊंडा का छे (३) । बीजी नरकपृथ्वीने विषे पचीश लाख नरकावास कह्या छे ( ४ ) । चूलिका सहित आचारांग सूत्रना पचीश अध्ययनो कलां छे, ते आ प्रमाणे - शस्त्रपरिज्ञा १, लोकविजय २, शीतोष्णीय ३, सम्यक्त्व ४, आवंती ५, धूत ६, विमोक्ष ७, उपधानश्रुत ८, महापरिज्ञा ९, पिंडैषणा १०, शय्या ११, ईर्ष्या १२, भाषाध्ययन १३, षणा १४, पाषण १५, अवग्रह प्रतिमा १६, सप्तसप्तैकका २३, भावना २४ अने विमुक्ति २५, आ विमुक्ति अध्ययन निशीथ अध्ययन सहित पचीश जाणवुं ( ५ ) । अपर्याप्त अवस्थावाळो अने संक्लिष्ट परिणामवाळो विकलेंद्रिय मिथ्याष्ट जीव नामकर्मनी पचीश उत्तरप्रकृतिओने बांधे ते आ प्रमाणे- तिर्यग्गति नाम १, विकलेंद्रिय जाति नाम २, औदारिक शरीर नाम ३, तैजस शरीर नाम ४, कार्मण शरीर नाम ५, हुंडक संस्थान नाम ६, औदारिक शरीर अंगोपांग नाम ७, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ९२ ॥ छेबटुं संघयण नाम ८, वर्णनाम ९, गंधनाम १०, रसनाम ११ स्पर्शनाम १२, तिर्यगानुपूर्वी नाम १३, अगुरुलघुनाम १४, उपघातनाम १५, त्रसनाम १६, बादरनाम १७, अपर्याप्तक नाम १८, प्रत्येक शरीरनाम १९, अस्थिर नाम २०, • अशुभ नाम २१, दुर्भग नाम २२, अनादेय नाम २३, अयशःकीर्ति नाम २४, निर्माणनाम २५ ( ६ ) । गंगा अने सिंधु नामनी मोटी नदीओ पचीश गाउना पहोळा प्रवाहवडे बन्ने ( पूर्व - पश्चिम) दिशामां (मकरनी मुखाकृतिवाळा नाळवावडे ) घटना मुखथी पडे तेम मुक्तावळी हारना संस्थानवाळा प्रपाते ( प्रवाहे ) करीने पोतपोताना कुंडमां पडे छे ( ७ ) | रक्ता अने रक्तवती नामनी मोटी नदीओ पचीश गाउना पहोळा प्रवाहवडे बन्ने (पूर्व-पश्चिम ) दिशामां घटना मुखथी पडे तेम मुक्तावळी हारना संस्थानवाळा प्रपाते ( प्रवाहे ) करीने पोतपोताना कुंडमां पडे छे ( ८ ) । लोकबिंदुसार नामना चौदमा पूर्वने विषे पचीश वस्तु कही छे ( ९ ) ॥ आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पचीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( १ ) । नीचे सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी पचीश सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी पचीश • पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान देवलोकने विषे केटलाक देवोनी पचीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) मज्झिमठिम नामना चोथा ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति पचीश सागरोपमनी कही छे ( ५ ) । जे देवो हेट्टिमउवरिम नामना त्रीजा ग्रैवेयक विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पचीश सागरोपमनी कही छे ( ६ ) ॥ समवाय २५ ॥ ॥ ९२ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते देवो पचीश अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे ( १ ) । ते देवाने पचीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ पचीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे ॥ ( ३ ) ॥ टीकार्थ :- पचीश स्थानक पण सुगम छे. विशेष ए के अहीं स्थितिनी पहेलां नव सूत्रो छे. तेमां ' पंचजामस्स त्ति' - पांच यामोनो एटले महाव्रतोनो समुदाय ते पंचयाम कहेवाय छे, ते पांच महाव्रतोनी 'भावणाओ . त्ति ' -- प्राणातिपातादिकनी निवृत्तिरूपं पांच महाव्रतोना रक्षणने माटे जे भावना कराय ते भावनाओ कहेवाय छे, अने ते भावनाओ दरेक महाव्रतनी पांच पांच छे. तेमां ईर्यासमिति विगेरे पांच भावनाओ पहेला महाव्रतनी छे, तेमां चोथी भावना ' आलोकभाजनभोजन ' - एटले जोवापूर्वक भाजनने विषे एटले पात्रने विषे भोजन एटले भात पाणीनो आहार करवोते; केम के जोया विना भाजनने विपे जो भोजन करवामां आवे तो प्राणीनी हिंसा संभवे छे तथा विचारीने वोलं ए विगेरे बीजा व्रतनी पांच भावनाओ छे. तेमां विवेक एटले त्याग एवो अर्थ करवानो छे तथा अवग्रहनी अनुज्ञापना ( जणावj ) विगेरे त्रीजा व्रतनी पांच भावनाओ छे, तेमां पहेली अवग्रहानुज्ञापना एटले अवग्रहनी अनुज्ञा लेवी ( तेना स्वामी पाथी अवग्रह मागी लेवो ते) १, अवग्रहनी अनुज्ञा कर्या पछी तेनी सीमा - हदनुं जाणवुं ते बीजी भावना. २, सीमा जाण्या पछी पोते ज ' उग्गहणं इति ' अवग्रहने ग्रहण करवो अर्थात् पछी स्वीकार करीने तेमां रहेवुं ए त्रीजी भावना ३, साधर्मिक एटले गीतार्थ समुदायमां विचरता संविग्न साधुओनो अवग्रह के जे एक मास विगेरे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ९३ ॥ काळना प्रमाणथी पांच गाउ विगेरे प्रमाणना क्षेत्रवाळो साधर्मिकनो अवग्रह होय ते ज साधर्मिकोनी अनुज्ञा लइने तेनोज भोगवटो करवो एटले त्यां ज रहेवुं, अर्थात् साधर्मिकना क्षेत्रने विषे के वसतिने विषे तेओनी अनुज्ञा लइने ज रहेतुं ते चोथी भावना ४, तथा जे सामान्य भक्तादिक आणेलं होय ते आचार्यादिकनी अनुज्ञा लहने वापर - आहार करवो ते पांचमी भावना ५ । तथा स्त्री विगेरेना संबंधवाळा आसन शयनादिकनुं वर्जवं ते चोथा व्रतनी भावनाओ छे मां जे प्रणीत आहार कह्यो छे ते अति स्नेह ( घी - तेल )वाळो जाणवो । तथा श्रोत्र इंद्रियना रागनो त्याग करवो विगेरे पांच भावनाओं पांचमा महाव्रतनी कही छे. तेनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-जे जीव जे पदार्थने विषे आसक्त थाय ते जीवने तेनो परिग्रह लागे छे. तेथी करीने शब्दादिकने विषे राग करनार जीवे ते शब्दादिकनो परिग्रह करेलो कहेवाय छे तेथी परिग्रहविरतिनी विराधना यह कहेवाय छे अन्यथा एटले शब्दादिकमां राग कर्यो न होय तो ते व्रतनी आराधना थइ कहेवाय छे। आ सर्व भावनाओ वाचनांतरमां आवश्यकसूत्रने अनुसारे देखाय छे एटले के आवश्यकसूत्रमां आ "भावनाओ वाचनांतर तरीके कही छे (१) । ' तथा ' मिच्छदिट्ठीत्यादि ' - मिध्यादृष्टि जीव ज तिर्यग्गति विगेरे कर्मप्रकृतिने बांधे छे पण सम्यग्दृष्टि जीव बांधतो नथी; केम के ते कर्मप्रकृतिओ मिध्यात्वना ज आश्रयवाळी छे, तेथी मिथ्यादृष्टिनुं ग्रहण कर्युं छे. (ते पण) विकलेंद्रिय एटले द्वींद्रिय, त्रींद्रिय के चतुरिंद्रियमांनो कोइ एक बांधे छे. 'णं' शब्द वाक्यनी शोभा माटे लख्यो छे. ( मिथ्यादृष्टि विकलेंद्रिय छतां पण ) पर्याप्तक होय तो ते बीजी कर्मप्रकृतिओने पण बांधे छे तेथी अहीं अपर्याप्तकनुं ग्रहण कयुं छे; समवाय २५ ॥ ॥ ९३ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिद्रिय जाI साथै पचीश, कोइक वखत त्री नियाजाइनाम एम जे लख्यु लाज (कर्म) बांधे छे. तेमा केम के अपर्याप्तक ज आ अप्रशस्त परावर्तमान प्रकृतिओने बांधे छे. आवो जीव पण संक्लिष्ट परिणामवाळो होय ते जांधे छे तेथी संकिष्ट परिणामवाळो एम का छे, तेवा परिणामवाळो पण वींद्रियादिक अपर्याप्तकने योग्य ज (कर्म) बांधे .तेमां एटले पचीश कर्मप्रक्रतिओ जे गणावी छे तेमा 'विगलिंदियजाइनाम एम जे लख्यं छे तेनो अर्थ आप्रमाणे करखो-कोडक वखत द्वींद्रिय जाति साथे पचीश, कोइक वखत त्रींद्रिय जाति साथे पचीश, एज प्रमाणे अन्यथा पण एटले कोइक वखत चतुरिद्रिय जाति साथे पचीश प्रकृतिओ जाणवी. (अर्थात विकलेंद्रिय जातिमांथी बे,त्रण के चार इंद्रियमांथी एकने वांधे के.) (६)। 'गंगा इत्यादि'-पचीश गाउना विस्तारवाळो जे प्रपात (पडवू) ते वडे करीने एटलो अहीं अध्याहार राखचो. | 'दुहओ त्ति'-बन्ने दिशाने विपे एटले पूर्व दिशामां गंगा अने पश्चिम दिशामां सिंधु चाले छे, ते बन्ने पद्मद्रह- मांथी नीकळी पांच सो योजन सुधी पर्वत उपर चाली पछी दक्षिण तरफ वळे छे, त्यां आगळ 'घडमुहपवित्तिएणं ति'-घटना मुखनी जेवा पचीश कोश पहोळी जिह्वायाळा मकरना मुखरूपी परनाळमाथी प्रवर्तला (नीकळेला) मोतीना हारनी जेवा संस्थानवाळा ( आकारवाळा) प्रपातवडे एटले पडता जळना समूहवडे (प्रवाहवडे) सो योजन N/ ऊंचा हिमवंत पर्वतनी नीचे रहेला पोतपोताना प्रपातकुंडने विषे पडे छे (७) । एज प्रमाणे रक्ता अने रक्तवती नामनी नदीओ पण जाणवी. तेमां विशेष ए छ के-शिखरी नामना वर्षधर (पर्वत) उपर रहेला पुंडरीक नामना द्रहमांथी ते बन्ने नदीओ नीकळीने पडे छे (८)। तथा लोकविंदुसार ए नामनुं चौदमुं पूर्व छ । सूत्र-२५॥ हवे छवीस स्थानक कहे छे Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २६ ॥ ॥ ९४ मू०-छवीसं दसकप्पववहाराणं उद्देसणकाला पन्नत्ता, तं जहा-दस दसाणं छ कप्पस्स दस समवायाङ्ग १ ववहारस्स । १ । अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिजस्स कम्मस्स छवीसं कम्मंसा संतकम्मा सूत्र॥ चोधु अंग पन्नत्ता, तं जहा-मिच्छत्तमोहणिज्जं सोलस कसाया इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं अरति रति भयं सोगं दुगंछा । २॥ ____इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छवीसंपलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १ । अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । २। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छवीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं छव्वीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। ४। मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं छव्वीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ।५। जे देवा मजिमहेट्ठिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववन्ना तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छवीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६ ॥ - ते णं देवा छवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा १। ॥९४॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेसि णं देवाणं छव्वीस वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छव्वीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम् - २६ ॥ मूलार्थ:- दशाश्रुत, कल्पत अने व्यवहारश्रुतना मळीने छवीश उद्देशन काळ कला छे, ते आ प्रमाणे दशाश्रुतना दश, कल्पसूत्रना छ अने व्यवहारश्रुतना दश (१) अभवसिद्धिक एटले ( कोइ पण भवमां जेनी सिद्धि थवानी नथी तेवा ) अभव्य जीवोने मोहनीय कर्मनी छवीस कर्मप्रकृतिओ सत्तामा रहेली कही छे, ते आ प्रमाणे - मिथ्यात्वमोहनीय १, सोळ कषाय १७, स्त्रीवेद १८, पुरुषवेद १९, नपुंसकवेद २०, हास्य २१, अरति २२, रति, २३, भय २४, शोक २५ अने दुर्गा (जुगुप्सा) (रूप नव नोकषाय.) २६ ( २ ) ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( १ ) । नीचेनी सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छवीश सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी छवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ३ ) सौधर्म अने ईशान कल्पना केटलाक देवोनी छवीश पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) मज्झिममज्झिम नामना पांचमा ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति छवीश सागरोपमनी कही छे (५) । जे देवो मज्झिमहिम १ दशाश्रुतस्कंध २ बृहत्कल्प । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २७॥ समवाया चोधु अंग ॥ ९५॥ नामना चोथा ग्रैवेयक विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छवीश सागरोपमनी कही छे (६)॥ ... ते देवो छवीश अर्ध मासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)।ते देवोने छवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भव्य जीवो छे के जेओ छवीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थः-छवीशU स्थानक प्रगट ज छ. विशेप ए के-उद्देशन काळ एटले जे श्रुतस्कंधमां अने जे अध्ययनमा जेटला अध्ययनो के उद्देशा कह्या होय तेमां तेटला ज उद्देशन काळ एटले श्रुतना उपचाररूप उद्देशनो काळ-अवसर होय छे (१)। तथा अभव्योने त्रण पुंज करवाना न होवाथी सम्यक्त्वमोहनीय अने मिश्रमोहनीयरूप वे प्रकृति सत्तामां होती नथी तेथी छवीश कर्मप्रकृति होय छे (२)॥ सूत्र २६ ॥ | हवे सत्तावीशमुं स्थानक कहे छे. मू०-सत्तावीसं अणगारगुणा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं १, मुसावायाओ वेरमणं २, अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३, मेहुणाओ वेरमणं ४, परिग्गहाओ वेरमणं ५, सोइंदियनिग्गहे ६, चक्खिदियनिग्गहे ७, घाणिंदियनिग्गहे ८, जिभिदियनिग्गहे ९, फासिंदियनिग्गहे १०, कोहविवेगे ११, माणविवेगे १२, मायाविवेगे १३, लोभविवेगे १४, भावसच्चे १५, करणसच्चे १६, % 3D ॥९५॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोगसच्चे १७, खमा १८, विरागया १९, मणसमाहरणया २०, वयसमाहरणया २१, कायसमाहरणया २२, णाणसंपण्णया २३, दंसणसंपण्णया २४, चरित्तसंपण्णया २५, वेयणअहियासणया २६, मारणंतियअहियासणया २७। १ । जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वद्दति । २ । एगभेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राइंदियग्गेणं पन्नत्ते । ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पन्नत्ता । ४ । वेयगस' म्मत्तबंधोवरयस्स णं मोहणिजस्त कम्मस्त सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतकम्मंसा पन्नत्ता । ५। सावणसुद्धसत्तमीसु णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिवत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं नियटेमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवट्टमाणे चारं चरइ । ६ ॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । २। 0 असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३। सोहम्मीसाणेसु । -3S 8369 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥ ९६ ॥ कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ४ । मज्झिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । ५ । जे देवा मज्झिममज्झिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता | ६ ॥ ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । १ । तेसि णं देवाणं सत्तावीसवास सहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सवदुक्खाणमंतं करिस्सति । ३ ॥ सूत्रम्-२७ ॥ मूलार्थ:- अनगार (साधु) ना सत्तावीश गुणो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- प्राणातिपातथी विरमनुं १, मृषावादथी विरम, २, अदत्तादानथी विरम ३, मैथुनथी विरम ४, परिग्रहथी विरमनुं ५, श्रोत्रेंद्रियनो निग्रह ६, चक्षुइंद्रियनो निग्रह ७, घ्राणेंद्रियनो निग्रह ८, जिह्वाइंद्रियनो निग्रह ९, स्पर्शेद्रियनो निग्रह १०, क्रोधनो त्याग ११, माननो त्याग १२, मायानो त्याग १३, लोभनो त्याग १४, भावसत्य १५, करणसत्य १६, योगसत्य १७, क्षमा १८, विरागता १९, मननी समाहरणता निरोध २०, वचननी समाहरणता २१, कायानी समाहरणता २२, ज्ञान सहितपणुं २३, दर्शन सहितपणं समवाया २७ ॥ ॥ ९६ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, चारित्र सहितपणुं २५, वेदनानुं सहन करवापर्यु २६ तथा मारणांतिक उपसर्गर्नु सहन करवापणुं २७ (१)। जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे अभिजित् नक्षत्र सिवाय बीजा सत्तावीश नक्षत्रोवडे व्यवहार चाले छे (२)। एक एक नक्षत्रमास रात्रिदिवसनी अपेक्षाए सत्तावीश रात्रिदिवसे करीने संपूर्ण थाय छे (३)। सौधर्म अने ईशान देवलोकने विषे विमाननी पृथ्वी सत्तावीश सो योजन जाडी छे (४)। वेदक समकितना बंधथी विराम पामेला जीवने मोहनीय कर्मनी सत्तावीश उत्तरप्रकृतिओ सत्तामा रहेली होय छे (५)। श्रावण शुदि सातमने दिवसे सूर्य सत्तावीश अंगुल प्रमाण पोरिसीनी छायाने नीपजावीने (करीने) त्यारपछी दिवसना क्षेत्र(आकाश)ने प्रकाशनी हानिवडे हानि पमाडतो अने रात्रिक्षेत्रने प्रकाशनी हानिवडे वृद्धि पमाडतो (दिवसने नानो करतो अने रात्रिने मोटी करतो) सतो चारने चरे छे (६)॥ ___ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाफ नारकीओनी सत्तावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचेनी सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी सत्तावीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी सत्तावीश का पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी सत्तावीश पल्योपमनी स्थिति कही | छे (४)। मज्झिमउवरिम नामना छठा ग्रैवेयक देवोनी जघन्य स्थिति सत्तावीश सागरोपमनी कही छे (५)। जे देवो मज्झिममज्झिम नामना पांचमा अवेयकमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तावीश सागरोपमनी कही छे (६)॥ ते देवो सत्तावीश अर्ध मासे आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने सत्ता Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २७॥ Rel वीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छ के जेओ सत्तावीश भवने ग्रहण समवायाङ्ग करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३)॥ पत्र टीकार्थ-सत्तावीशमुं स्थानक पण प्रगट ज छे. विशेष एके-स्थितिना सूत्रोनी पहेला छ सूत्रो कयां छे. तेमां अनचोधू अंग गारना-साधुना चारित्रविशेपरूपी जे गुणो ते अनगार गुणो कहेवाय छे. तेमां पांच महाव्रतो ५, पांच इंद्रियोनो निग्रह १०, क्रोधादिक चारनो त्याग १४, त्रण सत्य, तेमां भावसत्य एटले शुद्ध अंतरात्मापणुं, करणसत्य एटले प्रतिलेखनादिक क्रिया ॥९७॥ जे प्रमाणे शास्त्रमा कही छे ते प्रमाणे सम्यक् प्रकारे उपयोगपूर्वक करवी ते अने योगसत्य एटले मन विगेरेनुं सत्यपणुं KO १७, क्षमा-मां क्रोध अने माननुं प्रगट रीते स्वरूप देखातुं न होय एवा द्वेप नामनी सर्व प्रकारनी अप्रीतिनो जे अभाव ते क्षमा कहेवाय छ, अथवा क्रोध अने मानना उदयनो निरोध एटले क्रोध अने मानने उदयमांज आववा न देवा ते क्षमा कहेवाय छे. पूर्वे (उपर) क्रोधनो त्याग अने माननो त्याग (निरोध) कह्यो छे ते उदय पामेलानो निरोध कह्यो छे, तेथी पुनरुक्त दोष आवतो नथी १८, विरागता एटले दरेक जातनी आसक्तिनो अभाव अथवा माया अने लोभनो अनुदय (तेमने उदयमां आववा न देवा ते). पूर्व मायानो त्याग अने लोभनो त्याग करो छे ते उदय पामेलानो निरोध कह्यो छे तेथी अहीं पण पुनरुक्त दोप आवतो नथी १९, मन, वचन अने कायानी समाहरणता अथवा पाठांतरमा समन्वाहरणता एटले अकुशळ एवा ते त्रणेनो निरोध करवो ते २२, ज्ञानादिक त्रणनी प्राप्ति २५, वेदनातिसहनता-शीतादिकने अत्यंत सहन करवा ते २६ तथा मारणांतिकातिसहनता-कल्याणमित्रनी बुद्धिए Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करीने ( उपसर्ग करनार मारो शत्रु नथी परंतु मारो कल्याणकारक मित्र छे एम धारीने ) मरण पर्यंतना उपसर्गो सहन करवाते २७ (१) । धातकीखंडादिकमां नहीं, मात्र जंबूद्वीपमां ज अभिजितने वर्जीने सत्तावीश नक्षत्रो वडे व्यवहार प्रवर्ते छे, केम के उत्तराषाढा नक्षत्रना चोथा पायामां अभिजित नक्षत्रनो समावेश थड़ जाय छे ( तेथी तेने जुदा गणवानी जरूर थी ) ( २ ) । तथा नक्षत्रमास, चंद्रमास, अभिवर्धितमास ऋतुमास अने सूर्यमास एम पांच प्रकारना मास अन्य स्थळे कहेला छे, तेमां अहीं नक्षत्रमास एटले आखा नक्षत्रमंडळने ( सत्तावीश नक्षत्रोने ) चंद्र जेटले काळे भोगवी ले ते लक्षणवाको काळ सत्तावीश रात्रि-दिवसनो को छे, आ काळ 'रात्रिंदिवाग्रेण ' एटले रात्रिदिवसना परिमाणनी अपेक्षाए छे परंतु सर्वथा आटलो ज छे एम कह्यो नथी; केम के तेथी कांइक अधिक छे एटले के एक रात्रिदिवसना सडसठ भाग करी तेमांथी एकवीश भाग (सडसठीया एकवीश भाग ) अधिक छे (३) । तथा विमाणपुढवी एटले विमानोनी पृथिवी भूमिका ( भूमि ) ( ४ ) । तथा वेदकसम्यक्त्वबंध -- क्षायोपशमिक सम्यक्त्वना कारणभूत शुद्धदलिकना पुंजरूप जे दर्शनमोहनीयनी प्रकृति तेना ( सम्यक्त्वमोहनीयना) उद्वलक एटले वियोग करनार प्राणीने अठ्ठावीश उत्तरप्रकृतिवाळा मोहनीय कर्मनी सत्तावीश उत्तरप्रकृतिओ सत्तामां होय छे, केम के एक प्रकृतिनुं उद्वलन कर्तुं छे (५) । तथा श्रावण मासनी शुक्ल सप्तमीने दिवसे सूर्य जे ते एक हस्तप्रमाण संकुनी सत्तावीश आंगळप्रमाण पोरिसीनी छायाने एटले पोरनी छायाने करीने ( त्यारपछीना दिवसोमां ) दिवसना क्षेत्रने एटले सूर्यना किरणना प्रकाशवाळा आकाशक्षेत्र ने ' निर्वर्धयन् ' एटले प्रकाशनी हानिवडे हानिने पमाडतो ( अर्थात् दिवसने दूंको करतो ) अने रात्रिना क्षेत्रने एटले Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २८॥ श्री अंधकारथी व्याप्त थयेला आकाशक्षेत्रने 'अभिवर्धयन् ' एटले प्रकाशनी हानिवडे वृद्धि पमाडतो (अर्थात् रात्रिने मोटी समवायाङ्ग करतो) सतो चारने चरे छे एटले आकाशमंडळमां भ्रमण करे छे. आनो भावार्थ ए छे के-अहीं स्थळ न्यायने आश्रीने पत्र। आषाढ मासनी पूर्णिमाए चोवीश अंगुलप्रमाण पोरिसीनी छाया होय छे. पछी सात दिवसे एक अंगुलथी कांइक अधिक बोथु अंग एटली छाया वधे छे, तेथी श्रावण शुक्ल सप्तमीने दिवसे कांइक अधिक एकवीश दिवस गया एटले त्रण अंगुल छाया वधे छे. आ प्रमाणे आषाढ पूर्णिमाना चोवीश अंगुलमा आत्रण अंगुल नांखवाथी सत्तावीश अंगुल थाय छे, परंतु निश्च॥ ९८॥ यथी कहीए तो कर्क संक्रातिथी आरंभीने काइक अधिक एवो जे एकवीशमो दिवस आवे ते दिवसे आ कहेली (चोवीश अंगुलरूप) पोरिसीनी छाया थाय छे (६)॥ सूत्र-२७॥ ___ हवे अट्ठावीशमुं स्थानक कहे छे. .. मू०--अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे पन्नत्ते, तं जहा-मासिआ आरोवणा १, सपंचराईमासिया a आरोवणा २, सदसराइमासिया आरोवणा ३, (पण्णरसरायमासिआ आरोवणा ४, सवीसइराए मासिआ आरोवणा ५, सपंचवीसराइमासिआ आरोवणा ६, ) एवं चेव दोमासिआ आरोवणा, सपंचराईदोमासिआ आरोवणा ६, एवं तिमासिआ आरोवणा ६, चउमासिआ आरोवणा ६, उवघाइया आरोवणा २५, अणुवघाइया आरोवणा २६, कसिणा आरोवणा २७, अकसिणा आरो- ॥९८॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणा २८, एतावता (इत्तावता व) आयारपकप्पे एताव ताव (इत्तावता व) आयरिअवे (बो) १। भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेगइयाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मा पन्नत्ता तं जहा-सम्मत्तवेअणिज्ज मिच्छत्तवेयणिजं सम्ममिच्छत्तवेयणिज्जं सोलस कसाया नव णोकसाया । २ । आभिणिबोहियणाणे अट्ठावीसइविहे पन्नत्ते, तं जहा-सोइंदियअत्थावग्गहे १, | चक्खिदियअत्थावग्गहे २, घाणिदियअत्थावग्गहे ३, जिभिदियअत्थावग्गहे ४, फासिंदियअत्थावग्गहे ५, णोइंदियअत्थावग्गहे ६, सोइंदियवंजणोग्गहे ७, घाणिदियवंजणोग्गहे ८, जिभिदियवंजणोग्गहे ९, फासिंदियवंजणोग्गहे १०, सोतिंदियईहा ११, चक्खिदियईहा १२, घाणिदियईहा १३, जिभिदियईहा १४, फासिंदियईहा १५, णोइंदियईहा १६, सोतिंदियावाए १७, चक्खिदियावाए १८, घाणिदियावाए १९, जिभिदियावाए २०, फासिंदियावाए २१, णोइंदियावाए २२, सोइंदियधारणा २३, चक्खिदियधारणा २४, घाणिंदियधारणा २५, जिभिदियधारणा २६, फासिंदियधारणा २७, णोइंदियधारणा २८ । ३। ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसंविमाणवाससयसहस्सा पन्नत्ता - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवा २८। श्री ४। जीवे णं देवगइम्मि बंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ णिबंधति, तं जहासमवायाङ्ग देवगतिनामं १, पंचिंदियजातिनामं २, वेउवियसरीरनामं ३, तेयगसरीरनामं ४, कम्मणसरीरनामं चोथु अंग । ५, समचउरंससंठाणणामं ६, वेउव्वियशरीरंगोवंगणामं ७, वण्णणामंद, गंधणामं ९, रमणामं १०, फासनामं ११, देवाणुपुठिवणामं १२, अगुरुलहुनामं १३, उवधायनामं १४, पराघायनामं १५, उस्सा॥ ९९॥ सनामं १६, पसत्थविहायोगइणामं १७, तसनामं १८, बायरणामं १९, पज्जत्तनामं २०, पत्तेयसरीरनाम २१, थिराथिराणं ( दोण्हं अण्णयरं एगनामं निबंधइ ) २२, सुभासुभाणं (दोण्हमण्णयरं एगनाम निबंधइ) २३, ( सुभगनामं २४, सुस्वरनामं २५,) आएजाणाएजाणं दोण्हं अण्णयरं एगं नामं णिबंधइ २६, जसोकित्तिनामं २७, निम्माणनामं २८ । एवं चेव नेरइया वि, णाणत्तं अप्पसत्थविहायोगइणामं १, हुंडगसंठाणणामं २, अथिरणामं ३, दुब्भगणामं ४, असुभनामं ५, दुस्सरनामं ६, अणादिजणाम ७, अजसोकित्तीणामं ८।५॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १ | अहे सत्तमा पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं टिई पन्नत्ता । २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्म कप्पे देवा अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ४ । उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । ५ । जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेज्ज सु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । ६ ॥ देवा अट्ठावीस अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा | १ | तेसिणं देवाणं अठ्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीस भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्सांत मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सां । ३ ॥ सूत्रम् - २८ ॥ मूलार्थः – साधुनो अठ्ठावीस प्रकारनो आचार प्रकल्प कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- एक मासनी आरोपणा १, एक मास पांच दिवसनी आरोपणा २, एक मास ने दश दिवसनी आरोपणा ३, एक मास ने पंदर दिवसनी आरोपणा ४, एक मास ने वीश दिवसनी आरोपणा ५, एक मास ने पचीश दिवसनी आरोपणा ६, ए ज प्रमाणे वे मासनी आरोपणा १, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१००॥ वे मास ने पांच दिवसनी आरोपणा विगेरे ( उपर प्रमाणे कहेवुं ) ६, ए ज प्रमाणे त्रण मासनी आरोपणा विगेरे ६, ए ज प्रमाणे चार मासनी आरोपणा विगेरे ६ मळी कुल २४, उपघातिका आरोपणा २५, अनुपघातिका आरोपणा २६, कृत्स्न आरोपणा २७ अने अकृत्स्न आरोपणा २८, आटलो आचार प्रकल्प छे, अने आटलं आचरखा लायक छे ( १ ) । केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवोने मोहनीय कर्मनी अठ्ठावीश कर्मप्रकृति सत्तामां कहेली छे, ते आ प्रमाणे - सम्यक्त्ववेदनीय १, मिथ्यात्व वेदनीय २, सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीय ३, सोळ कषाय १९, नव नोकपाय २८ ( २ ) । आभिनिवोधिकज्ञान ( मतिज्ञान ) अठ्ठावीस प्रकारनुं कहुं छे, ते आ प्रमाणे - श्रोत्रंद्रिय अर्थावग्रह १, चक्षुइंद्रिय अर्थावग्रह २, घ्राणेंद्रिय अर्था वग्रह ३, जिवेंद्रिय अर्थावग्रह ४, स्पशेंद्रिय अर्थावग्रह ५, नोइंद्रिय अर्थावग्रह ६, श्रोत्रेंद्रिय व्यंजनावग्रह ७, घ्राणेंद्रिय व्यंजनावग्रह ८, जिवेंद्रिय व्यंजनावग्रह ९, स्पर्शेद्रिय व्यंजनावग्रह १०, श्रोत्रेंद्रिय ईहा ११, चक्षुरिंद्रिय ईहा १२, घ्राणेंद्रिय ईहा १३, जिवेंद्रिय ईहा १४, स्पर्शेद्रिय ईहा १५, नोइंद्रिय ईहा १६, श्रोत्रेंद्रिय अवाय १७, चक्षुरिंद्रिय अवाय १८, घ्राणेंद्रिय अवाय १९, जिवेंद्रीय अवाय २०, स्पर्शेन्द्रिय अवाय २१, नोइंद्रिय अवाय २२, श्रोत्रेंद्रिय धारणा २३, चक्षुरिंद्रिय धारणा २४, घ्राणेंद्रिय धारणा २५, जिवेंद्रिय धारणा २६, स्पशेंद्रिय धारणा २७, नोइंद्रिय धारणा २८ (३) । ईशान देवलोकने विषे अठ्ठावीश लाख विमानना आवासो ( विमानो ) का छे (४) । देवगतिने बांधतो जीव नामकर्मनी अठ्ठावीश उत्तरप्रकृतिओने बांधे छे, ते आ प्रमाणे देवगति नाम १, पंचेंद्रिय जाति नाम २, वैक्रियशरीर नाम ३, तैजस शरीर नाम ४, कार्मण शरीरं नाम ५, समचतुरस्र संस्थान नाम ६, वैक्रिय शरीर अंगोपांग नाम ७, वर्ण नाम ८, गंध समवाय २८ ॥ ॥१००॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम ९, रस नाम १०, स्पर्श नाम ११, देवानुपूर्वी नाम १२, अगुरुलघु नाम १३, उपघातनाम १४, पराघात नाम १५, उच्छ्वासनाम १६, प्रशस्त विहायोगति नाम १७, त्रस नाम १८, चादर नाम १९, पर्याप्त नाम २०, प्रत्येक शरीर नाम २१, स्थिर अने अस्थिर ( ए वेमांना कोइ एक नामकर्मने बांधे ) २२, शुभ अने अशुभ ( ए वेमांना कोइ एक नामकर्मने 'बांधे ) २३, ( सुभग नाम २४, सुस्वर नाम २५ ) आदेय अने अनादेय ए बेमांना कोइ एक नामकर्मने बांधे २६, यश:कीर्ति नाम २७, निर्माण नाम २८ । ए ज प्रमाणे नरकगतिने बांधतो जीव ते ज अठ्ठावीश प्रकृतिने बांधे, तेमां तफावत आ प्रमाणे छे-अप्रशस्त विहायोगति नाम १, हुंडक संस्थान नाम २, अस्थिर नाम ३, दुर्भग नाम ४, अशुभ नाम ५, दु:स्वर नाम ६, अनादेय नाम ७, अयशःकीर्ति नाम ८ ( ५ ) ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी अठ्ठावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । नीचे सातमी पृथ्वीने विषे hore नारीओनी अठ्ठावीश सागरोपमनी स्थिति कही छे ( २ ) । केटलाक असुरकुमार देवोनी अठ्ठावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी अठ्ठावीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । उवरिम मनामना सातमा ग्रैवेयक देवोनी जघन्य स्थिति अठ्ठावीश सागरोपमनी कही छे (५) । जे देवो मज्झिमउवरिम नामना छठा ग्रैवेयक विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति अडावीश सागरोपमनी कही छे (६) ॥ १. नरक गति बांधतो होय ते जीव नरकगति अने नरकानुपूर्वी ज बांधे छे अने देवगति बांधतो होय ते देवगति अने देवानुपूर्वी ज बांधे छे; तेथी अहीं तफावतमां ते हकीकत लीधी नथी, एम टीका उपरथी जणाय छे. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते देवो अहावीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निश्वास ले छे (१)। समवाय २८॥ समवाया। ते देवोने अठ्ठावीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छ के जेओ। अहावीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ चोधं अंग टीकार्थ:-अठावीशमुं स्थानक पण स्पष्ट छे. विशेप ए के-अहीं स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां पांच सूत्रो छे. तेमां आचार एटले पहेलं अंग, तेनो प्रकल्प एटले अमुक अध्ययन के जेनुं वीजु नाम निशीथ छे ते. अथवा तो आचारनो ॥१०॥ प्रकल्प एटले ज्ञानादिक विषयवाळा साधुना आचारनी जे व्यवस्था ते पण आचार प्रकल्प कहेवाय छे. तेमां ज्ञानादिकना कोइक आचारना संबंधमां कोई साधुए अपराध को होय त्यारे तेने अमुक दिवसोनुं प्रायश्चित्त आप्यु होय, त्यारपछी फरीने ते साधुए बीजो कोइ अपराध कर्यो, त्यारे तेने प्रथम आपेला प्रायश्चित्तमां वधारो करीने एक मास सुधी वहन करवा योग्य मासिक प्रायश्चित्त आप्यु, तो ते मासिकी आरोपणा कहेवाय छे १, तथा पांच रात्रिवडे शुद्ध थइ शके तेवा अने एक मासवडे शुद्ध थइ शके तेवा वे अपराधने कोइ साधुए कर्या होय तो तेने पूर्वे आपेला प्रायश्चित्तमां पांच रात्रि सहित एक मासनाने प्रायश्चित्तनुं आरोपण करवाथी एक मास ने पांच रात्रिनी आरोपणा कहेवाय छे २, ए प्रमाणे (५-१०-१५-२०-२५ रात्रिनुं ने छेवट एक मासर्नु प्रायश्चित्त आपवाथी) मासिकी आरोपणा छ प्रकारनी जाणवी ६, एज प्रमाणे वे मासनी छ ६,त्रण मासनी छ ६, चार मासनी छ ६ मळी कुल चोवीश आरोपणा थइ २४, तथा अढी दिवस अने एक पखवाडियाना उप१ एक मास अने पांच दिवस, प्रायश्चित्त हतुं तेनुं अर्ध कर्यु ते उपघात जाणवो. ते उपघातवडे लघु मास थयो. M॥१०॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातवडे लघु मासादिकर्नु पूर्वना प्रायश्चित्तमा आरोपण कर ते उपघातिक आरोपणा कहेवाय छे. ते विषे कह्यु | छे के-" अर्धनो छेद करवाथी जे शेष रहे (मासनुं अर्ध छेदवाथी पंदर दिवस शेप रहे) तेने पूर्वना अर्धनी साथे (पचीशना अर्ध साडाबारनी साथे ) संयोग करीने लघु प्रायश्चित्तनुं दान कहेवाय छे अने तेटलं ज ( पूरेपूरुं) आपq ते गुरु प्रायश्चित्तनुं दान कहेवाय छे ॥१॥" जेम के–मासर्नु अर्ध पंदर दिवस अने पचीशनुं अर्ध साडावार दिवस, सर्व ( बन्ने ) मळीने साडीसत्तावीश दिवस थया ते लघु मास कहेवाय छे, तथा वे मासर्नु अर्ध एक मास अने मासिकनु अर्ध एक पखवाडियुं ए बन्ने मळीने दोढ मास थाय ते लघु द्विमासिक कहेवाय छे २५, तथा उपर कह्या प्रमाणे (मासमांथी) अढी दिवस विगेरे बाद कर्या विना तेना तेज गुरुमासादिकनी आरोपणा करवी ते अनुद्घातिक (अनुपघातिक) आरोपणा कहेवाय छ २६, तथा (जे साधु ) जेटला अपराधने पाम्यो होय (ते साधुने) तेटली ज तेनी शुद्धिनी | आरोपणा करवी ते कृत्स्नारोपणा कहेवाय छे २७, तथा ( कोइ साधु ) घणा अपराधने पाम्यो होय छतां छ मास सुधीनो ज तप अपाय छे एम धारीने छ मासथी वधारे तप आपवानो होय तो पण ते अधिक तपनो ते छ मासमांज अंतर्भाव (समावेश) करान शष तपनु आरोपण कराय ते अकृत्स्नारोपणा कहेवाय छ २८. आ सवे सम्यक प्रकारे निशीथ सूत्रना वीशमा उद्देशामांथी जाणी लेवु. हवे अहीं ज आनुं निगमन ( समाप्तिपणुं ) कहे छे-प्रथम आटलो ज आचारप्रकल्प आ ठेकाणे आरोपणाने आश्रीने कहेवाने इच्छ्योछे अन्यथा तेथी वधारे पण उद्घातिक, अनुद्घातिकरूप आचारप्रकल्प पण छ तेथी अथवा प्रथम तो आटलो ज आचार प्रकल्प छे, केम के शेष आचारप्रकल्पनो आमां ज समावेश थइ जाय छे. तथा Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१०२॥ • आटलं ज ( उपर जे आचारप्रकल्प विपे क ते ज) आचरवा लायक छे एम पण जाणवुं. (१) । ते ज प्रमाणे देवगतिना सूत्रमां स्थिर - अस्थिर, शुभ-अशुभ अने आदेय - अनादेयनुं परस्पर विरोधिपणुं होवाथी एकी समये बन्नेनो बंध न होवाथी 'अन्यतरत् ' - एटले बेमांथी एकने वांधे छे एम कहूं. आ ठेकाणे मूळ सूत्रमां ' एक ' शब्दनुं ग्रहण कर्युं छे ते भाषा मात्र ज जाणवुं ( एटले के ' अन्यतरत् ' ए शब्द आप्यो छे तेनो अर्थ 'बेमांथी एक ' एवो थाय छे तेथी फरीथी 'एक' शब्द लखवानी जरूर नथी छतां ' अन्यतरत् एकं ' एम भाषानी शैलीने लीधे लख्युं छे.) तथा नरकगतिना सूत्रमां वीश प्रकृतिओ तो ते ने ते ज राखवी, अने आउने स्थाने बीजी आठ बांधे छे. ते ज कहे छे -' एवं चेव ' इत्यादि. 'मां' नानात्वं' एटले विशेष. ( जे आठ प्रकृतिमां विशेष छे ते मूळमां ज बतान्युं छे तेथी अहीं टीकामां कांइ लखवानी जरुरीयात नंथी ) ५ ॥ सूत्र- २८ ॥ वे ओगणत्रीश स्थानक कहे छे मू० - एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे णं पन्नत्ते, तं जहा - भोमे १, उप्पाए २, सुमिणे ३, १ अहीं २० प्रकृति देवगति प्रमाणे न बांधवानुं कयुं छे ते बराबर छे. जो के तेमां देवगति देवानुपूर्वीने बदले नरकगति नरकानुपूर्वी बांधे छे ते परावर्तमान गणी छे. बीजुं ८ मां स्थिरास्थिर शुभाशुभ ने आदेयानादेय. ए त्रण द्विकमांथी देवगतिमां एकतरत् (एक) बांधे छे एम समजवुं. समवाय २९ ॥ ॥१०२॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरिक्खे ४, अंगे ५, सरे ६, वंजणे ७, लक्खणे ८, भोमे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-सूत्ते वित्ती वत्तिए, एवं एक तिविहं २४, विकहाणुजोगे २५, विजाणुजोगे २६, मंताणुजोगे २७, जोगाणुजोगे २८, अण्णतित्थयपवत्ताणुजोगे २९ । १। आसाढे णं मासे एगूणतीसराइंदिआइं राइंदियग्गेणं पन्नत्ताइं ।२। (एवं चेव) भद्दवए णं मासे ।३। कत्तिए णं मासे।। पोसे णं मासे।५।। फग्गुणे णं मासे । ६ । वइसाहे णं मासे । ७। चंददिणे णं एगूणतीसं मुहुत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पन्नत्ते । ८ । जीवे णं पसत्थेऽज्झवसाणजुत्ते भविए सम्मदि(दि)ट्ठी तित्थकरनामसाहिआओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबंधित्ता वैमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववज्जइ । ९॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । १ । अहे सत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।४। उवरिममझिमगेवेज्जयाणं HAL A --- - - - - -- Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समवाय २९॥ समवायाङ्ग स्त्र॥ चोयुं अंग १०३ देवाणं जहणणेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। ५। जे देवा उवरिमहेट्टिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६ ॥ ते णं देवा एगूणतीसाए अद्धमासहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ।। तेसि णं देवाणं एगूणतीसं वाससहस्तेहिं आहारटे समुप्पज्जइ । २। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसभवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । ३ ॥ सूत्रम्-२९॥ मूलार्थ:-ओगणत्रीश प्रकारनो पापश्रुतनो प्रसंग कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-भूमि संबंधी (शास्त्र) १, उत्पात संबंधी २, स्वम संबंधी ३, आकाश संबंधी ४, शरीर संबंधी ५, स्वर संबंधी ६, व्यंजन संबंधी ७ अने लक्षण संबंधी ८ आ आठ प्रकारना शास्त्र छे, तेमां भूमि संबंधी शास्त्र त्रण प्रकारचें का छे, ते आ प्रमाणे-सूत्र, वृत्ति अने वार्तिक. एज प्रमाणे दरेकना त्रण त्रण प्रकार होवाथी चोवीश प्रकार थया २४, विकथानुयोग २५, विद्यानुयोग २६, मंत्रानुयोग २७, योगानुयोग २८ अने अन्य तीर्थकोनो प्रबर्तावलो अनुयोग (विचार) २९ (१)। आपाढ मास रात्रिदिवसना.परिमाणे करीने ओगणत्रीश रात्रिदिवसनो कह्यो छे (२)। (एज प्रमाणे) भाद्रपद मास (३)। कार्तिक मास (४)। पोप मास ॥१०३॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BC (५)। फाल्गुन मास (६)। वैशाख मास (७)। चंद्रमासनो दिवस मुहूर्त्तनी अपेक्षाए कहीए तो कांइक अधिक ओगणत्रीश मुहर्तनो कह्यो छे (८)। प्रशस्त अध्यवसायवाळो सम्यग्दृष्टि भव्य जीव नामकर्मनी तीर्थकरनाम सहित का ओगणत्रीश उत्तर प्रकृतिओने बांधीने अवश्य वैमानिक देवोने विपे देवपणे उत्पन्न थाय छे (९)॥ - आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीओनी ओगणत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचे सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी ओगणत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी ओगणत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी ओगणत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छ (४)। उवरिममज्झिम नामना आठमा अवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति ओगणत्रीश सागरोपमनी कही छे (५)। जे देवो उपरिमहेठिम नामना ७ मा गैवेयक विमानोमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति ओगणत्रीश सागरो| पमनी कही छे (६)॥ ते देवो ओगणत्रीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छ, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने ओगणत्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छ के जेओ ओगणत्रीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥ सूत्र-२९॥ टीकार्थः-ओगणत्रीशमुं स्थानक पण प्रगट ज छे. विशेष ए के--अहीं स्थितिनां सूत्रोनी पहेला नव सूत्रो छे. तेमां पापना उपादान कारणरूप जे शास्त्रो ते पापश्रुत कहेवाय छे, ते शास्त्रोनो जे प्रसंग एटले तथाप्रकारनी तेनी सेवा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय २९॥ - श्री (अभ्यास) ते पापश्रुतप्रसंग कहेवाय छे, ते पापश्रुतप्रसंग ओगणत्रीश प्रकारनां पापश्रुत होवाथी तेटला (ओगणत्रीश) समवायाङ्गप्रकारनो कह्यो छे. पापश्रुतनो विषय होवाथी ते पापश्रुत ज कहेवाय छे. आ कारणथी ज कहे छ के-'ओमेत्यादि तेमा भौम एटले भूमिना विकार( कंप विगेरे )ना फळने कहेनारु जे निमित्तशास्त्र १, तथा उत्पात एटले सहज (स्वाभाचोधुं अंग विक रीते आकाशथी) रुधिरनी वृष्टि विगेरे लक्षणवाळा उत्पातना फळने कहेनारुं निमित्तशास्त्र २, एज प्रमाणे स्वप्न । एटले स्वप्नना (शुभाशुभ ) फलने प्रगट करनारुं शास्त्र ३, अंतरिक्ष एटले आकाशमां उत्पन्न थता ग्रहोना युद्धना प्रकार ॥१०४॥ विगेरे फळने जणावनारुं शास्त्र ४, अंग एटले शरीरना अवयवोनुं प्रमाण तथा तेनुं फरकवू विगेरे विकाररूप फळने जणावनालं शास्त्र ५, स्वर एटले जीव अने अजीवने आश्रित स्वर(शब्द)ना स्वरूपने तथा तेना फळने कहेनारुं शास्त्र ६, व्यंजन एटले तिल, मसा विगेरे व्यंजनना फळने जणावनारुं शास्त्र ७ तथा लक्षण एटले लांछन विगेरे अनेक प्रकारना लक्षणने जणावनारं शास्त्र ८, आ प्रमाणे आठ शास्त्रो छे, आ आठ शास्त्रो सूत्र, वृत्ति (टीका) अने वार्तिकना भेदथी चोवीश प्रकारना थाय छे. तेमां एक अंग सिवाय बाकीनां शास्त्रोनुं सूत्र एक हजार(श्लोक)ना प्रमाणवाडं छे, तेनी वृत्तिनुं प्रमाण एक लाख ( श्लोकर्नु) छे, तेनी वृत्तिनुं व्याख्यानरूप वार्तिक एक कोटिश्लोकप्रमाणनुं छे, तथा अंगशास्त्रनुं सूत्र लक्ष प्रमाण छे, वृत्ति कोटि प्रमाण छे अने वार्तिक अपरिमित छे. आ आठेना त्रण त्रण प्रकार मळीने कुल चोवीश प्रकार थया २४, तथा विकथानुयोग एटले अर्थ अने कामना उपायने कहेनारा कामंदक अने वात्स्यायन विगेरे (ग्रंथो) अथवा MI भारत विगेरे शास्त्रो २५, तथा विद्यानुयोग एटले रोहिणी विगेरे विद्याना साधनने कहेनारा शास्रो २६, तथा मंत्रानु ||१०४॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग एटले चेटक विगेरेना मंत्र साधवाना उपायना शास्त्री २७ तथा योगानुयोग एटले वशीकरण विगेरे योगने कहेनारा हरमेखलांदिक शास्त्रो २८, तथा कपिल विगेरे अन्य तीर्थिकथकी प्रवर्तेला पोताना आचार, वस्तु अने तच्चनो जे अनुयोग एटले विचार तेने जणावनार जे शास्त्रानो समूह ते अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग कहेवाय छे २९ ( १ ) ॥ तथा अषाड विगेरे एकांतर छ मास रात्रिदिवसना परिमाणे करीने ओगणत्रीश रात्रिदिवसना स्थूळ न्यायनी अपेक्षाए होय छे, केम के ते दरेक मासमां कृष्णपक्षमां एक रात्रिदिवसनो क्षय थाय छे. ते विषे कह्युं छे के - "आपाढना कृष्णपक्षमां ते जप्रमाणे भाद्रपद, कार्तिक, पोप, फाल्गुन अने वैशाख मासना कृष्णपक्षमां क्षय रात्रिओ जाणवी । १।" अहीं भावार्थ एछे के चांद्र मास ओगणत्रीश दिवस अने एक दिवसना वासठीया वत्रीश भागनो होय छे. तथा ऋतु मास त्रीश दिवसनोज होय छे तेथी चंद्र मासनी अपेक्षाए ऋतु मास एक अहोरात्राना वासठीया त्रीश भाग जेटलो अधिक होय छे, तेथी दरेक अहोरात्र चंद्र दिवस बासठीया एक एक भाग जेटलो हानि पामे छे, एम निश्चय थाय छे. ए प्रमाणे ( गणतरी करतां ) बासठ चंद्रदिवसोए करीने एकसठ अहोरात्र थाय छे तेथी साधिक वे मासे एक क्षयरात्र (क्षयतिथि) आवे छे. आ संबंधी विशेष हकीकत चंद्र प्रज्ञप्तिथकी जाणी लेवी (२-७) । तथा ' चंददिणणं त्ति 'चंद्रदिवस एटले प्रतिपदा विगेरे तिथि, ते कांक अधिक ओगणत्रीश मुहूर्त्तनी होय छे. केवी रोते १ ते कहे छे-जेथी करीने चंद्रमास ओगणत्रीश दिवस अने एक दिवसना बासठीया बत्रीश भाग जेटलो होय छे, तेथी करीने चंद्रमासना दिवसने त्रीशे गुणी मुहूर्त्त करवा, ते मुहूर्त्तनी राशिने त्रीशे भाग देवाथी ओगणत्रीश मुहूर्त्त अने एक मुहूर्त्तना वासठीया चन्रीश भाग आवशे (८) । तथा प्रशस्त अध्यच Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा... समवाय ३०॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ चो अंग ||१०५॥ र साय विगेरे विशेपणवाळो जीव वैमानिक देवने विषे उत्पन्न थवावाळो होय त्यारे ते नामकर्मनी ओगणत्रीश उत्तरप्रकृतिने बांधे छे, ते आ प्रमाणे-देवगति १, पंचेंद्रियजाति २, वैक्रियद्विक ४, तैजस अने कार्मण शरीर ६, समचतुरस्रसंस्थान ७, वर्णादिचतुष्क ११, देवानुपूर्वी १२, अगुरुलघु १३, उपघात १४, पराघात १५, उच्छ्वास १६, प्रशस्तविहायोगति १७, त्रस १८, बादर १९, पर्याप्त २०, प्रत्येक २१, स्थिर अस्थिरमांथी एक २२, शुभाशुभमांथी एक २३, सुभग २४, सुस्वर २५, आदेय अनादेयमांथी एक २६, यश-कीर्ति अयश-कीर्तिमांथी एक २७, निर्माण २८ तथा तीर्थकरनाम २९ (९) ॥ सूत्र २९ ॥ हवे त्रीश स्थान कहे छ मू०-तीसं मोहणीयठाणा पन्नत्ता, तं जहा-जे यावि तसे पाणे, वारिमज्झे विगाहिआ। उदएण कम्मा मारेई, महामोहं पकुवइ ॥ १-१॥ सीसावेढेण जे केई, आवेढेइ अभिक्खणं । तिवासुभसमायारे, महामोहं पकुवइ ॥ २-२ ॥ पाणिणा संपिहित्ता णं, सोयमावरिय पाणिणं । अंतोनदंतं मारेई, महामोहं पकुवइ ॥ ३-३ ॥ जायतेयं समारब्भ, बहुं ओलंभिया जणं । अंतो. धूमेण मारेई (ज्जा), महामाहें पकुवइ ॥ ४-४ ॥ सिस्सम्मि जे पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा। विभज्ज मत्थयं फाले, महामोहं पकुवइ ॥ ५-५॥ पुणो पुणो पणिधिए, हरित्ता उवहसे जणं । फलेणं अहवा दंडेणं, महामोहं पकुवइ ॥ ६-६ ॥ गूढायारी निगूहिज्जा, मायं मायाए छायए। ॥१०५॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असच्चाई णिण्हाई, महामोहं पकुवइ ॥ ७-७ ॥ धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा । अदुवा तुम कासित्ति, महामोहं पकुवइ ॥ ८-८ ॥ जाणमाणो परिसओ, सच्चामोसाणि भासइ । ratiझे पुरिसे, महामोहं पकुवइ ॥ ९९ ॥ अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खो भत्ता णं, किच्चा णं पडिबाहिरं ॥ १० ॥ उवगसंतं पि झंपित्ता, पडिलोमाहिं वग्गुहिं । भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुवइ ॥ ११-१० ॥ अकुमारभूए जे केई, कुमारभूए त्ति हं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए, महामोहं पकुवइ ॥ १२-११ ॥ अभयारी जे केई, बंभयारी त्ति हं वए । गद्दहे व गवां मज्झे, विस्सरं नयई नदं ॥ १३ ॥ अप्पणो अहिए बाले, मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयए, महामोहं as ॥ १४- १२ ॥ जं निस्सिए उव्वहइ, जससाहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुव्व ॥ १५-१३ ॥ ईसरेण अदुवा गामेणं, अणिसरे ईसरीकए । तस्स संपयहीणस्स, सिरी अतुलमागया ॥ १६ ॥ ईसादोसेण आविट्ठे, कलुसाविलचेयसे । जे अंतराअं गाथा पासेना अंकमा प्रथम अंक गाथानो छे ने बीजो अंक मोहनीयना स्थानकनो छे. Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३०॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोयूं अंग ॥१०६॥ चेएइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ १७-१४ ॥ सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिंसइ । सेणावई पसत्थारं, महामोहं पकुव्वइ ॥१८-१५॥ जे नायगं व रटुस्स, नेयारं निगमस्स वा। सेटुिं बहुरवं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ १९-१६ ॥ बहुजणस्स यारं, दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुव्वइ ॥ २०-१७॥ उवट्टियं पाडविरयं, संजयं सुतवस्तियं । वुक्कम्म धम्माओ भंसेइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ २१-१८ ॥ तहेवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं । तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २२-१९ ॥ नेयाइअस्स मग्गस्त, दुढे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावेइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ २३-२०॥ आयरियउवज्झाएहि, सुयं विणयं च गाहिए। ते चेव खिसई बाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २४-२१ ॥ आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पइ । अप्पडिपूयए थद्धे, महामोहं पकुव्वइ ॥ २५-२२ ॥ अबहुस्सुए य जे केई, सुएणं पविकत्थई। भी सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ २६-२३ ॥ अतवस्सीए य जे केई, तवेण पविकत्थइ । सव्वलोयपरे तेणे, महामोहं पकुव्वइ ॥ २७-२४॥ साहारणट्ठा जे केई, गिलाणम्मि उवट्ठिए। ॥१०॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभू ण कुणई किच्छं, मज्झं पि से न कुव्वइ ॥ २८ ॥ सढे नियडीपण्णाणे, कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीय, महामोहं पकुव्व ॥ २९ - २५ ॥ जे कहा हिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो । सवतित्थाणं भेयाणं, महामोहं पकुवइ ॥ ३० - २६ ॥ जे अ आहम्मिए जोए, संपओजे पुणो पुणो । साहाहेउं सहीहेउं, महामोहं पकुवइ ॥ ३१-२७॥ जे अ माणुस्सए भोओ, अदुवा पारलोइए । तेऽतिपयंतो आसयइ, महामोहं पकुव्व ॥ ३२-२८ ॥ इड्डी जुई जसो वण्णो, देवाणं बलवीरियं । तेसिं अवण्णवं बाले, महामोहं पकुव्व ॥ ३३ - २९ ॥ अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी, महामोहं पकुव्वइ ॥ ३४–३० ॥ १ ॥ थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाइं सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्प हीणे । २ । एगमेगे णं अहोरते तीसमुहुत्ते मुहुत्तग्गेणं पन्नत्ते । एएसि णं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामज्जा पन्नत्ता, तं जहा - रोद्दे १, सत्ते २ मित्ते ३, वाऊ ४, सुपीए ५, अभिचंदे ६, माहिंदे ७, पलंबे ८५ बंभे ९. सच्चे १०, आणंदे ११, विजए १२, विस्ससेणे १३, पायावच्चे १४, उसमे १५, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग गोधु अंग ॥१०७॥ ईसाणे १६, तढे १७, भाविअप्पा १८, वेसमणे १९, वरुणे २०, सतरिसभे २१, गंधव्वे २२, अग्गि-all समवाय ३०॥ वेसायणे २३, आतवे २४, आवत्ते २५, तट्ठवे २६, भूमहे २७, रिसभे २८, सव्वट्ठसिद्धे २९, म रक्खसे ३० । ३ । अरे णं अरहा तीसं धणु(णू)इं उई उच्चत्तेणं होत्था । ४ । सहस्सारस्स णं दोविंदस्स देवरन्नो तीसं सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ता । ५। पासे णं अरहा तीसं वासाइं अगारवासमज्झे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। ६ । समणे भगवं महावीरे तीसं वासाइं अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । ७। रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ८॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता।। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ।२। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३ । उवरिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणेणं तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ४ । जे देवा उवरिममज्झिमगेवेजएसु विमाणेसु देवत्ताए उव- ॥१०७॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसणं तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ॥ ५॥ ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहिं आणमति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ।। तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति । ३॥ सूत्रम्-३०॥ ... मूलार्थः-मोहनीय कर्मना त्रीश स्थानो कह्यां छे, ते आ प्रमाणे-जे कोइ ( मनुष्यादिक प्राणी ) जळने विषे प्रवेश करीने स्त्री विगेरे त्रस जीवोने आक्रमण करीने जळरूप शस्त्रवडे मारे छे (डुवावे छे), ते प्राणी महामोहने करे छे ( महा मोहनीय कर्मने बांधे छ)। १-१ । तीव्र अशुभ अध्यवसायवाळो जे कोइ त्रस प्राणीने आई चर्मवडे तेना मस्तकने अत्यंत दृढ बांधे छे (बांधीने मारे छे), ते महामोहने करे छे (बांधे छे)।२-२। जे कोइ पोताना हाथवडे त्रस जीवना मुखने ढांकीने ते जीवने रुंधीने अंदर शब्द करता एवा तेने मारे छे, ते महामोहने करे छ । ३--३ । जे कोइ अग्नि सळगावीने घणा जनोने तेमा रुंधीने अंदरना धूमाडावडे मारे छे (मुंझवे छे ), ते महामोहने करे छे । ४-४ । जे कोइ संक्लिष्ट चित्तवडे जीवने तेना उत्तम अंगरूप मस्तकने विषे शस्त्रादिकवडे मारे छे तथा मस्तकने विभाग करीने फाडे छे, ते महामोहने करे छ । ५-५ । जे कोइ वारंवार लोकने मायावडे, फळवडे अथवा दंडवडे मारीने हसे छे, ते महामोहने करे Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय छ । ६-६ । जे कोइ गुप्त आचरणवाळो पोताना दुष्ट आचारने गोपवे, तथा पोतानी मायावडे वीजानी मायाने ढांक-जीते, समवायाङ्ग तथा असत्य बोलीने पोताना अनाचारने छुपावे, ते महामोहने करे छ । ७--७ । जे कोइ पोते दुष्ट कर्मे करीने दुष्ट कर्म सूत्र ॥ नहीं करनारा बीजानो ध्वंस करे एटले झांखो पाडे, अथवा तो आ कर्म तें कयु छ एम कहे, ते महामोहने करे छ। ८-८। चोथु अंग कलहथी शांत नहीं थयेलो जे कोइ जाणतो छतो सभामां सत्यामृपा एटले अल्प सत्य अने घणा असत्यवाळी भापाने बोले, ते पुरुप महामोहने करे छे ९-९।माथे नायक रहित एवा (स्वतंत्र) राजानो नीतिमान एवो मंत्री तेज राजानी दारानो (स्त्रीनो ॥१०८॥ अथवा धननी प्राप्तिना उपायरूप द्वारनो) नाश करीने तथा सामंतादिक परिवारनो भेद करीने ते राजाने अत्यंत क्षोभ पमाडीने तथा तेने अत्यंत बाह्य करीने तथा पासे आवेला पण ते राजाने प्रतिकूळ वचनोवडे झंपलावीने तेना कामभोगनुं विदारण करे छे, ते मंत्री महामोहने करे छे (बांधे छे)।१०-११-१० । कुमार (कुंवारो) नहीं छतां जे कोइ हुँ कुमार छु एम बोले, अने स्त्रीने विषे आसक्त थइ तेने वश थाय ते महामोहने करे छ। १२--११ । ब्रह्मचारी नहीं छतां जे कोइ हुं ब्रह्मचारी छ एम बोले, ते गायोना मध्यमां गधेडानी जेम विस्वर (खराब) नादने करे छे तथा एवी रीते Ny बोलनारो पोताना आत्मानुं अहित करनार मूढ स्त्रीना विषयनी आसक्तिने लीधे अत्यंत मायामृपाने बोले छे, ते महामोहने करे छ । १३-१४-१२ । जे कोइ यशकीतिए करीने अथवा सेववावडे करीने जे राजादिकना आश्रयने धारण करे छे। 4 (करीने) तेना ज द्रव्यने विषे लोभ करे छे, ते महामोहने करे छ । १५--१३ । जे कोइ धनवान नहोतो तेने कोइ राजाए अथवा गामना लोकोए ईश्वर (धनवान) कों होय, ते धनरहितने घणी लक्ष्मी प्राप्त थइ पछी ईर्ष्याना दोपथी त करनार मूढ स्वाना सेववावडे करीन जनधनवान नहोतो तन ॥१०॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'युक्त अने पापवडे व्याप्त चित्तवाळो ते तेओना अंतरायने करे तो ते महामोहने करे छे । १६-१७ = १४। जेम सापण पोताना बच्चाना 1.समूहने खाइ जाय छे तेमजे कोइ पोतानुं भरणपोषण करनार सेनापति (राजा) ने अथवा मंत्रीने हणे छे, ते महामोहने करे छे । १८ - १५ । जे कोइ राज्यना नायकने अथवा वेपारी जनोना नेता (नायक) मोटा यशवाळा श्रेष्ठीने हणे छे, ते महामोहने करे छे । १९ - १६ । जे कोइ घणा जनोना नायक अथवा द्वीप के दीपकनी जेम प्राणीओनुं रक्षण करनार एवा प्रकारना गणधरादिक पुरुष हणे छे, ते महामोहने करे छे । २०- १७ । जे कोइ दीक्षा माटे प्राप्त थयेलाने, दीक्षा लीघेला साधुने अथवा सारा तपस्वीने अत्यंत दबावीने ( बळात्कारे) चारित्रधर्मथी भ्रष्ट करे छे ते महामोहने करे छे । २१-१८ । ते ज प्रमाणे जे कोइ अनंत ज्ञानवाळा अने श्रेष्ठ (अनंत ) दर्शनवाळा ते ( प्रसिद्ध एवा पण ) जिनेश्वरोनो अवर्णवाद बोले छे ते अज्ञानी महामोहने करे छे । २२ - १९ । न्यायमार्ग ( मोक्षमार्ग ) नो द्वेषी जे कोइ घणो अपकार करे अने ते मार्गने निंदतो सतो पोताना आत्माने अने बीजाने द्वेपवडे वासित करे छे, ते महामोहने करे छे । २३ - २० । जे आचार्य के उपाध्याये श्रुत अने विनय(चारित्र)ने ग्रहण कराव्या होय - शीखव्या होय, तेमनी ज जे कोइ निंदा करे, ते मूढ प्राणी महामोहने करे छे । २४ - २१ । जे कोइ माणस (साधु) उपकारी एवा आचार्य अने उपाध्यायादिकनो विनयादिकवडे प्रत्युपकार न करे, पूजक न थाय अने अभिमानवाळो थाय, ते महामोहने करे छे । २५ - २२ । अबहुश्रुत एवो जे कोइ श्रुतवडे पोतानी श्लाघा करे अने स्वाध्यायनो वाद बोले (करे) ते महामोहने करे छे । २६ - २३ | तपस्वी नहीं छतां जे कोइ तपवडे करीने पोतानी. लाघा करे, ते सर्व लोक की उत्कृष्ट ( मोटामां मोटो ) चोर महामोहने करे छे । २७ - २४ । जे कोइ आचार्यादिक Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र !! चोथुं अंग ॥१०९॥ कोइ ग्लान साधु उपकारने माटे प्राप्त थये सते पोते समर्थ छतां तेनुं ( औपधादिक) कार्य न करे अने मारुं कांइ कार्य 'ते करतो नथी एम माने (कहे) ते शठ, मायावी पापवडे व्याकुळ चित्तवाळो अने पोताने अबोधि करनार ( समकित रहित करनार ) आचार्यादिक महामोहने करे छे । २८ - २९= २५ । जे कोइ आचार्यादिक कथा ( कुशास्त्र ) रूपी अधिकर• वारंवार रूपे, ते सर्व ज्ञानादिक तीर्थना विनाशने माटे प्रवर्तेलो महामोहने करे छे । ३० -- २६ । जे कोइ आचार्यादिक ज्योतिष, वशीकरण विगेरे अधार्मिक योगोने पोतानी श्लाघा माटे के मित्राइने माटे वारंवार प्रयुंजे- करे, ते महामो. हने करे छे । ३१ -२७ । ते ( भोगो ) बडे तृप्त नहीं थयेलो जे कोइ मनुष्य संबंधी के परभव संबंधी भोगोनी अभिलापा करे, ते महामोहने करे छे । ३२-२८ । जे देवोने ऋद्धि, कांति, यश, शुक्लादि वर्ण, वळ अने वीर्य छे, ते देवोनो पण जे अर्णवाद बोले-ओळवे ते मूढ महामोहने करे छे । ३३ - २९ । गोशाळानी जेम जे कोड़ नहीं देखतां छतां पण हुं देवोने, यक्षोने अने गुह्यकोने जोउं कुं एम बोले, अने अज्ञानी छतां जिनेश्वरनी जेवी पोतानी पूजाने इच्छे, ते महामोहने करे छे । ३४--३० । (१) छड़ा गणधर स्थविर श्री मंडितपुत्र त्रीश वर्ष सुधी साधुपर्यायने पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया ( २ ) । एक रात्रिदिवसना कुल मुहूर्त्त त्रीश कथा छे, ते त्रीश मुहूर्त्तना त्रीश नाम कला छे, ते आ प्रमाणे- रौद्र १, शक्त २, मित्र ३, वायु ४, सुपीत ५, अभिचंद्र ६, महेंद्र ७, प्रलंब ८, ९, सत्य १०, आनंद ११, विजय १२, विश्वसेन १३, प्राजापत्य १४, उपशम १५, ईशान १६, तष्ट १७, भावितात्मा १८, वैश्रवण १९, वरुण २०, शतऋपभ समवाय ३० ॥ ॥१०९॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१, गंधर्व २२, अग्निवैश्यायन २३, आतप २४, आवर्त २५, तष्टवान २६, भूमहान, २७, ऋषभ २८, सर्वार्थसिद्ध २९ | अने राक्षस ३० (३)। श्री अरनाथ अरिहंत त्रीश धनुष ऊंचा हता (४)। सहस्रार देवेंद्र देवराजने त्रीश हजार सामानिक देवो कह्या छे (५)। श्री पार्श्वनाथ अरिहंत त्रीश वर्ष गृहवास मध्ये वसीने घरथी नीकळीने अनगार-प्रवजित थया हता (६)। श्रमण भगवान महावीरस्वामी त्रीश वर्षे गृहवास मध्ये वसीने घरथी नीकळीने अनगार-प्रव्रजित थया हता (७)। रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे त्रीश लाख नरकावास कह्या छे (८)॥ - आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे केटलाक नारकीओनी त्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचे सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी त्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी त्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। उवरिमउवरिम ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति त्रीश सागरोपमनी कही छे (४)।जे देवो उवरिममज्झिम गैवेयक विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति त्रीश सागरोपमनी कही छे (५)॥ ते देवो त्रीश अर्धमासे (पखवाडीए ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने त्रीश हजार वर्ष आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ त्रीश भव ग्रहण करवा चडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥.. टीकार्थ:-त्रीशमुं स्थानक सुगम छे. विशेष ए के-स्थितिनी पहेलां आठ सूत्रो छे तेमां मोहनीय एटले सामान्ये करीने आठ प्रकारनां कर्मों, तेमां ते चोथी प्रकृति जाणवी, तेनां जे स्थानो एटले निमित्तो, ते मोहनीय स्थानो कहेवाय - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥११०॥ छे. तथा 'जे आवि तसे ' इत्यादिक श्लोक छे, तेनो अर्थ - जे कोइ प्राणी त्रस प्राणोने एटले स्त्री विगेरेने जळ मध्ये • प्रवेश करीने शस्त्ररूप उदक ( जळ ) वडे मारे छे. केवी रीते ? पग विगेरे वडे आक्रमण करीने - दबावीने ( मारे छे ), 'स' शब्द अध्याहार छे तेथी ते प्राणी मराता जीवने महामोह उत्पन्न करनार होवाथी तथा पोतानुं चित्त संक्लिष्ट होवाथी पोताने सेंकडो भव सुधी दुःख आपे एवा महामोहने ( महामोहनीय कर्मने ) करे छे एटले उत्पन्न करे छे ( बांधे छे ) आ प्रमाणे सने मारवाथी आ एक मोहनीय स्थान थयुं, ए ज प्रमाणे सर्वत्र जाणवुं १, ' सीसा ' श्लोक-शीर्षने वींटवावडे एटले लीला चामडादिकम वेष्टनवडे जे कोइ प्राणी स्त्री विगेरे त्रसोने वींटे छे, 'अभीक्ष्णं ' -- अत्यंत तीव्र अशुभ आचारवालो 'स' शब्दनो अध्याहार होवाथी ते प्राणी मराता जीवने महामोह उत्पन्न करनार होवाथी पोताने पण महामोह करे छे ( बांधे छे ) ए बीजं स्थान २, अहीं कोइक मूळ ग्रंथमां ' यावत् ' शब्द लख्यो छे तेथी कोइक सूचना पुस्तकमां बाकीना मोहनीयस्थाने कहेनारा श्लोको सूचव्या छे, ते केटलाक पुस्तकमां देखाय छे तेथी तेनी अहीं व्याख्या कराय छे- हाथवडे ढांकीने, कोने ' श्रोतोरन्ध्र ' एटले मुखने, तथा प्राणीने रुधीने, तेथी करीने अंदर नाद करता एटले गामाथी शब्द करता अर्थात् गुणगुण शब्दने करता एवा तेने जे मारे छे, ते महामोहने करे छे, ए त्रीजुं स्थान थयुं ३. ' जाततेजसं -- अग्निने सळगावीने घणा लोकने महामंडप अथवा वाडा विगेरेमां रुंधीने एटले नांखीने अंदर - मध्ये रहेला घुमाडावडे अथवा जेनी अंदर घुमाडो रहेलो छे एवा अग्निवडे ( अहीं विभक्तिनो फेरफार एटले द्वितीयाने बदले तृतीया करी छे ) जे मारे छे, ते महामोहने करे छे. ए चोथुं स्थान थयुं ४. जे मस्तक उपर हणे छे एटले खड्ग के मुद्गर समवाय ३० ॥ ॥११०॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे शस्त्रवडे प्राणीने प्रहार करे छे ( अहीं प्राणी शब्द अध्याहार राख्यो छे. ). ते मस्तक स्वभावथी ज केधुं होय छे ? ' उत्तमांग ' – सर्व अवयवाने विषे प्रधान मुख्य अवयव छे, केम के तेना पर वा थवाथी अवश्य मरण थाय छे. हवे ते प्रहार पण संक्लिष्ट चित्तवडे ज करे छे पण यथाकथंचित एटले अजाणता सहसात्कारे करतो नथी. तथा उत्कट प्रहार देवावडे मस्तक भेदीने ग्रीवादिक कायाने पण विदारे छे ए अध्याहार जाणवो. अहीं 'स' शब्दनो अध्याहार होवाथी ते प्राणी महामोहने करे छे, ए पांचमुं स्थान ५ तथा वारंवार प्रणिधिवडे एटले मायावडे जेम वेपारी विगेरेनो वेष धारण करी गलकर्तक - लुटारुओ मार्गमां जता सारा माणसनी साथे चालीने निर्जन स्थानने विषे मारे छे तेम त्रस प्राणीनो विनाश करीने (आ शब्द अध्याहार छे) आनंदना अधिकपणाथकी हणाता एवा मूर्ख लोकने हसे छे, शाथी हणीने ? विपादिकना योगथी वासित करेला वीजोरादिकना फळवडे अथवा दंडवडे ( हणे छे ). 'स' शब्दनो अध्याहार होवाथी ते मनुष्य महामोहने करे छे. ए छठ्ठे स्थान ६. 'गूढाचारी' - गुप्त रीते अनाचारवाळो जे मनुष्य पोताना गुप्त दुराचारने गोपवे छे, तथा बीजानी मायाने पोतानी मायावडे ढांके छे एटले जीते छे. जेम पक्षीओने मारनार पारधिओ पांदडांबडे पोताना शरीरने ढांकीने पक्षीओने ग्रहण करता सता पोतानी मायावडे पक्षीओनी मायाने ढांके छे तेम. ते असत्यवादी अने 'निह्नवी ' एटले पोताना मूलगुण अने उत्तरगुणनी प्रतिसेवा ( विराधना ) करनार अथवा सूत्र अने अर्थनो अपलाप करनार मनुष्य महामोहने करे छे. ए सातमुं स्थान ७. जे पुरुष पोताना खराब कर्मवडे एटले पोते करेला ऋपिधात विगेरे दुष्ट व्यापार'वडे ' अकर्मक ' - तेवा दुष्ट कर्मने नहीं करनारा वीजानो ध्वंस करे- कांतिवडे भ्रष्ट करे ( झांखो पाडी दे ). अथवा जे Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवा समवाया चोथु अंग ॥११॥ दुष्टकर्म वीजाए कयु होय तेने आश्रीने तेथी बीजानी समक्ष 'आ महापाप तें कर्यु छे' एम बोले ( अहीं 'वद' धातुनो अध्याहार छे) तथा 'स' शब्दनो पण अध्याहार होवाथी ते पुरुष महामोहने करे छे. ए आठमुं स्थान ८. क्लेशथी शांत नहीं थयेलो जे पुरुष आ हुं बोलु छु ते खोटुं छे एम जाणतो सतो सभामां एटले घणा लोकोना मध्यमां सत्यामृपा एटले काइक ( अल्प ) सत्य अने घणा असत्य एवा पदार्थोने के वचनोने बोले छे, ते पुरुष महामोहने करे छे. ए नवमुं स्थान ९. अनायक-नायक विनानो (जेने माथे वीजो राजा नायक तरीके न होय तेवो स्वतंत्र) कोइ राजा छे, तेनो नीतिवाळो अमात्य-मंत्री छे, ते मंत्री तेज राजानी 'दारान् '-स्त्रीनो अथवा 'द्वारं'-द्रव्यप्राप्तिना उपायनो नाश करीने तेना भोगोने विदारे छे एम क्रियापदनो संबंध करवो. शुं करीने ? 'विपुल'-अत्यंत 'विक्षोभ्य सामंत विगेरे परिवारना भेदवडे क्षोभ पमाडीने तथा 'णं' शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. ते राजाने दार एटले स्त्रीथकी अथवा द्वार एटले द्रव्यप्राप्तिना उपायथकी बहार करीने एटले अधिकार रहित करीने अथवा तो तेनी स्त्रीने अथवा तेना राज्यने पोते कबजे करीने तथा 'उपकसंतमपि'-पोतानी पासे आवता एवाने पण एटले पोतानुं सर्वस्व हरण करे सते भेटणावडे तथा अनुकूळ अने करुणावाळा वचनोवडे (ते मंत्रीने) अनुकूळ करवा माटे प्राप्त थयेला ते राजाने 'झम्पयित्वा'-वचनना अवकाश रहित करीने (बोलतो बंध करीने ) तेने प्रतिकूळ एवी वाणीवडे एटले 'तुं आवो छ, तेवो छे' इत्यादि वचनोवडे तेंना विशेष प्रकारना शब्दादिक भोगोने जे विदारे छे-हरण करे छे, ते महामोहने करे छे. ए दशमुं स्थान १०-११-१०. तथा 'अकुमारभूत कुमार ब्रह्मचारी नहीं छतो जे कोइ मनुष्य 'हुं कुमारभूत एटले कुमार ॥११॥ I Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ब्रह्मचारी हूं' एम बोले, अने स्त्रीओने विपे गृद्धिवाळो तथा 'वंशकः ' - - स्त्रीओने ज आधीन थाय, अथवा 'वसति'-साथे रहे, ते महामोहने करे छे. ए अग्यारमुं स्थान १२-११. तथा ' अब्रह्मचारी ' - मैथुनथी निवृत्ति नहीं पामेलो जे कोइ मनुष्य ते ज वखते अब्रह्मचर्यनुं सेवन करीने ' हुं हमणां ब्रह्मचारी कुं' एम अति धूर्तपणाए करीने बीजाने छेतरवा माटे बोले, तथा जे आ प्रमाणे सत्पुरुषने अयोग्य एवा वचनने बोलतो सतो गायोनी मध्ये गधेडानी जेम कटुक स्वरे नाद करे, पण वृषभनी जेम सुंदर नाद करे नहीं तथा जे मनुष्य आ प्रमाणे बोलतो आत्मानो अहितकारी अने बाळ - मूढ एवो सतो घणी वार मायामृषाने -असत्यने वोले तथा स्त्रीना विषयनी आसक्तिथी निंदित भाषण करे आवा प्रकारनो मनुष्य छे एटले महामोहने करे छे. ए बारमुं स्थान १३-१४ = १२. जे राजाना अथवा जे प्रधानादिकना आश्रितपणाने वहन आजीविकाना लाभवडे पोताने धारण करे छे. केवी रीते ? यशवडे एटले के ' ते राजादिकना संबंधवाळो आ छे' एवी प्रसिद्धिवडे अथवा सेवावडे ( पोताने धारण करे छे. ) पछी पोताना निर्वाहना कारणभूत ते ज राजादिकना धनने विषे जे कोइ मनुष्य लोभ करे छे, ते महामोहने करे छे. ए तेरमुं स्थान १५ - १३. ईश्वरे एटले राजाए अथवा गामे एटले लोकोए कोइ अनीश्वर ( अधिकारी नहोतो तेने ) ईश्वर (अधिकारी) कर्यो. तेने एटले पूर्व अवस्थामां अनीश्वर हतो तेने राजा विगेरेए 'संप्रगृहीत' - आगळ करेलो होवाथी ( अधिकारी करेलो होवाथी ) ' अतुल ' - असाधारण एटले घणी लक्ष्मी प्राप्त थइ अथवा अतुल जेम होय तेम लक्ष्मी प्राप्त थइ अने लक्ष्मी प्राप्त थवाथी ते राजादिकना उपकारने विपे for दो करीने युक्त थयो, अने तेनुं चित्त कलुषतावडे एटले द्वेष, लोभ विगेरे पापवडे व्याकुळ थयुं, तेथी आवो जे Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥११२॥ . कोइ मनुष्य ते राजादिकना जीवित, धन अने भोगादिकना अंतरायने-विच्छेदने करे छे, ते महामोहने करे छे. ए चौदमुं स्थान. १६-१७ =१४. जेम सर्पण - नागण 'अंडउडं' अंडककूटने एटले पोताना इंडाना (बच्चांना) समूहने अथवा अंडना पुटने एटले बंधायेला ( चोटेला ) वे दळने हणे छे, तेनी जेम जे पोषण करनार भर्तारने, सेनापतिने अथवा राजाने, प्रशास्ताने एटले मंत्रीने अथवा धर्मपाठकने हणे छे, ते महामोह करे छे, केम के तेमनुं मरण थवाथी घणा लोको दुःखी थाय छे. ए पंदरमुं स्थान. १८-१५. जे कोइ मनुष्य नायकने एटले प्रभु ( राजा )ने, राष्ट्रने एटले राज्यना महत्तरादिकने, तथा निगम ने एटले वेपारीजनोने कार्यमा नेता -प्रवर्ताविनार श्रेष्ठीने अथवा जेने श्रीदेवीना चिन्हवाळो पट्टी बांधवामां आव्यो होय एवा नगरशेठने, वळी ते केवा ? बहुरव एटले घणा शब्दवाळा अर्थात् घणा यशवाळा एवा ते सर्वमांथी कोइने पण हछे, ते महामोहने करे छे. ए सोळमुं स्थान. १९-१६. बहुजनना एटले पांच छ विगेरे घणा लोकोना नेता-नायकने तथा द्वीपनी जेवा द्वरूप एटले संसारसागरमा रहेला प्राणीओना आश्वासनना स्थानरूप अथवा दीपनी जेवा दीपरूप एटले अज्ञानरूपी अंधकारवडे जेनी बुद्धिरूपी दृष्टिनो प्रसार रुंधायो होय एवा प्राणीओने त्याग अने ग्रहण करवा लायक वस्तुसमूहने प्रकाश करनारा, ए ज कारण माटे त्राण एटले प्राणीओने आपत्तिथकी रक्षण करनारा ' एतादृशं 'जेवा गणधरादिक होय छे तेवा प्रकारना ' नरं प्रावचनिकादिक पुरुषने जे हणे छे, ते महामोहने करे छे. ए सत्तरमुं स्थान. २०-१७. ' उपस्थित ' - प्रव्रज्या लेवानी इच्छाथी प्राप्त थयेलाने, 'प्रतिचिरतं ' - सावद्य योगथी निवृत्त थयेला अर्थात् • प्रवज्या लीघेलाने, 'सुतपस्विनं '-तपस्या करनार अथवा सारा तपने आश्रित थयेला एवा अथवा कोइ ठेकाणे 'जे समवाय ३० ॥ ॥ ११२ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भिखं जगजीवणं' एवो पाठ छे त्यां आवो अर्थ करवो- जगतने एटले जंगम प्राणीने अहिंसकपणाए करीने जे जीवाडे ते जगजीवन एवा' संयतं ' - साधुने बळात्कारे विविध प्रकारे आक्रमण करीने श्रुत अने चारित्र धर्म थकी जे भ्रष्ट करे छे, ते महामोहने करे छे. ए अढारमुं स्थान. २१-१८. जेम पूर्वे मोहनीय स्थान कह्युं तेम ज आ पण जाणवुं. ज्ञान अनंत विषय होवाथी अथवा ज्ञान अक्षय होवाथी अनंत ज्ञानवाळा तथा क्षायिक दर्शन होवाथी श्रेष्ठ दर्शनवाळा ते एटले के जेओ ज्ञानादिक अनेक अतिशयोनी संपत्ति सहित होवाथी ऋण जगतमां प्रसिद्ध छे एवा जिनेश्वरोनो जे कोइ अवर्णवाद बोले एटले के- ज्ञेयनुं जाणवा लायक वस्तुनुं अनंतपणुं होवाथी जगतमां कोइ पण सर्वज्ञ छे ज नहीं, एम कहे ते विषेक के - " हजु सुधी ज्ञान दोड्या करे छे, हजु सुधी अलोकनो अंत आव्यो नथी, हजु सुधी कोइपण जीव सर्वज्ञपणाने पामतो नथी, जो पामतो होय तो अलोक सांत ( अंतवाळो - परिमित ) थइ जाय, पण ते इष्ट थी. " आ प्रमाणे कोक दोष आपे छे, ते दोष अहीं नथी; केम के केवळज्ञान पोतानी उत्पत्ति समये ज लोकालोकने प्रकाश करतुं ज उत्पन्न थाय छे. जेम कोइ ओरडामा रहेला दीवानी कलिका ते आखा ओरडाने एक ज समये प्रकाशित करे छे तेम. आ प्रमाणे जिनेश्वरना अवर्णवाद बोलनार बाळ - अज्ञानी जीव महामोह करे छे, ए ओगणीशमुं स्थान. २२-१९. जे कोइ ' दुडे ' - दुष्ट अथवा द्वेषी मनुष्य न्यायने उल्लंघन नहीं करनारा सम्यग्दर्शनादिक मोक्षमार्गनी अत्यंत अपकार करे छे अथवा पाठांतरे ' अपहरति ' - घणा जनोने विपरीत ठसावे छे, तथा ते मार्गने निंदतो थको ' भावयति - निंदावडे के द्वेपचडें पोताने अने परने वासित करे छे, ते महामोहने करे छे. ए वीशमं स्थान. २३ - २०. जे आचार्य के. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३०॥ समवायाङ्ग ॥११॥ उपाध्याये श्रुतज्ञान अने विनय-चारित्र ग्रहण करावेल होय-शिखवेल होय, तेमनी जजे निंदा करे एटले आ गुरु अल्पश्रुत छ एम तेना ज्ञाननी निंदा करे, आ अन्य तीथिकोनी साथे संबंध राखनारा छे एम कही तेना दर्शननी निंदा करे, अने पार्श्वस्थादिकना स्थानमा वर्तनार होवाथी मंद धर्मवाळा छ एम कही तेना चारित्रनी निंदा करे, आवा प्रकारनो ते बाळ-मृढ महामोहने करे छे. ए एकवीशम स्थान. २४-२१. आचार्य के उपाध्याय विगेरे के जेओ ज्ञानदानवडे अने ग्लानादिक अवस्थाने विषे सारसंभाळ विगेरे करवावडे सम्यक् प्रकारे उपकार करनारा छे, तेओ प्रत्ये जे कोइ विनय, आहार अने उपधि विगेरे बडे प्रत्युपकार करतो नथी, तथा पूजा करनार थतो नथी, तथा स्तब्ध-मानवाळो थाय छे, ते महामोहने करे छे. ए बावीशमुं स्थान. २५-२२. बहुश्रुत न होय एवो जे कोइ श्रुतवडे पोताना आत्मानी श्लाघा करे के 'हुं श्रुतवान छ, अनुयोगने धारण करनार छु' इत्यादि कहे अथवा 'तमे अनुयोगाचार्य छो के वाचक छो' एम कोइ पूछे त्यारे. 'हा, है तेवो जर्छ' एम स्वाध्यायनो वाद बोले अने 'हुं विशुद्ध पाठक छु' इत्यादि जे बोले, ते श्रुतना अलाभना कारणरूप महामोहने करे छे. ए त्रेवीशमुं स्थान. २६-२३. 'अतवस्सीए-आ श्लोक सुगम छे. पूर्वार्धनो अर्थ पूर्वनी जेम ज छे. विशेष ए के–'सर्वलोकात्-'भावचोर होवाथी आ सर्व जनोथी मोटामां मोटो चोर छे, तेथी ते अतपस्वीपणाना कारणरूप महामोहने करे छे.: ए चोवीशमुं स्थान. २७-२४. साधारण कार्यने माटे कोई ग्लान साधु प्राप्त थये सते जे कोई आचार्यादिक पोते समर्थ छतां उपदेशवडे अने औषधादिक आपवावडे पोते अथवा अन्यद्वारा उपकार न करे अर्थात् तेना कार्यनी उपेक्षा करे. क्या अभिप्रायथी तेनुं कार्य न करे ? ते कहे छे-'आ साधु पोते समर्थ छतां द्वेपने लीधे मारुं पण Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * काइ कार्य करतो नथी, अथवा तो बालत्वादिकने कारणे आ असमर्थ छे तो तेनुं कार्य करवाथी शुं फळ छे ? फरीथी ए मारो उपकार तो करवानो नथी." एवा. कारणथी तेनो उपकार करे. नहीं तथा शठ एटले पोतानी शक्तिनो लोप करवाथी कपटयुक्त तथा मायावालं जेनुं ज्ञान छ अर्थात् “ ग्लाननी सारसंभाळ मारे करवानी न हो, एटला माटे हुँ ग्लानना वेपथी फलं" एवा विकल्पवाळो, अने ए ज कारण माटे पापवडे व्याप्त चित्तवाळो तथा एज कारण माटे पोतानी अबोधिवाळो एटले ग्लाननी सारवार करवी जोइए एवी जिनाज्ञानी विराधना करवाथी जन्मांतरमां जिनध मने नहीं पामनारो तथा मूळमां'च' शब्द होवाथी वीजानो पण अवोधिक एटले नथी विद्यमान बोधि जेनाथी ए - प्रमाणे व्युत्पत्ति (समास) करवाथी बीजानी बोधिनो नाश करनार, कारण केजे वीजा साधु विगेरे ते आचार्यादिक ग्लाननी सारवार करता नथी' एम जाणीने जिनधर्मथी पराङ्मुख थाय छे तेओनी अबोधि ते ज आचार्यादिके करी छे, तेथी आवा प्रकारना आचार्यादिक महामोहने करे छे ए पचीशमुं स्थान २८-२९-२५. तथा कथा एटले वाक्यनी रचना अर्थात् शास्त्र, ते रूप जे अधिकरण, ते कौटिल्य शास्त्रादिक कथाधिकरण कहेवाय छे, केम के प्राणीना उपमर्दमां प्रवर्तवाथकी तेओ (ग्रंथकर्ताओ) पोताना आत्माने दुर्गतिना अधिकारी करे छे. अथवा क्षेत्रोने खेडो, गायोने प्रसवावो इत्यादिक कथावडे तथाप्रकारनी प्रवृत्तिरूप जे अधिकरण ते कथाधिकरण कहेवाय छे. अथवा कथा एटले राजकथादिक अने अधिकरण एटले यंत्रादिक अथवा कलह (कजीयो) ते पण कथाधिकरण कहेवाय छे, आवा कथाधिकरणने जे वारंवार प्रयुंजे-करे, तथा ए.ज प्रमाणे सर्व तीर्थना भेदने माटे संसारसागरने तरवाना कारणरूप ज्ञानादिक तीर्थोना सर्वथा SHA Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायान सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥११४॥ नाशने माटे जे प्रवर्ते, ते महामोहने करे छे, ए छवीशमं स्थान. ३०-२६ ' जे य आहम्मिए ' आ श्लोक सुगम छे. विशेष ए के - अधार्मिक योग एटले निमित्तशास्त्र अने वशीकरण विगेरेना प्रयोग करवा ते. शा माटे १ पोतानी श्लाघाप्रशंसाने माटे तथा मित्रने माटे ( निमित्तादिकनो जे प्रयोग करे तें महामोहने करे छे ). ए सत्तावीशमुं स्थान. ३१-२७. तथा जे कोइ मनुष्य संबंधी अथवा परलोक संबंधी भोगोनी' ते ' - अहीं विभक्तिनो फारफेर होवाथी ते ( भोगो ) वडे 'अथवा तेओने विषे तृप्ति नहीं पाम्यो सतो 'आस्वादते ' - अभिलाषा करे अथवा 'आश्रयति ' - आश्रय करे ते महामोहने करे छे, ए अठ्ठावीशमं स्थान ३२-२८० तथा ' ऋद्धि ' - विमान विगेरेनी संपत्ति, ' द्युति ' - शरीर अने आभूषणोनी कांति, ' यशः ' - कीर्ति ' वर्णः ' - शरीरनो शुक्लादिक वर्ण, ' वलं ' - शरीरनुं पराक्रम, तथा 'वीर्य'सर्व जे वैमानिक विगेरे देवाने विषे विद्यमान छे. 'तेषां ' - अहीं 'अपि ' शब्दनो अध्याहार होवाथी वा अनेक अतिशय गुणवाळा देवोनो पण जे ' अवर्णवान् ' - अश्लाघा करनार होय, अथवा 'अवर्णवान् ' - एटले 'कया उल्लापे करीने देवोने ऋद्धि छे ? देवोनी कांति छे ? " इत्यादिक काकु ( प्रश्न ) वडे व्याख्या करवी. अर्थात् देवोने hi पण ऋद्धि विगेरे नथी एम अवर्णवादना वाक्यनो भावार्थ जाणवो, जे कोइ आवा प्रकारनो देवना अवर्णवाद बोलनार होय ते महामोहने करे छे. ए ओगणत्रीशमं स्थान. ३३ - २९ तथा नहीं जोतो सतो पण जे कोइ बोले के--' हुं देवोने जो छु इत्यादि, आवो गोशालक जेवो अज्ञानी अने जिनेश्वरना जेवी पोतानी पूजाने इच्छनार होय, ते महामोहने करे छे ए त्रीशमं स्थान. ३४-३० ॥ १ ॥ समवाय २० ॥ ॥११४॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूळमां कहेला रौद्र विगेरे त्रीश मुहूर्त्ते सूर्योदयथी आरंभीने अनुक्रमे आवे छे. तेओमांना मध्यम ( वचला ) छ • मुहूर्तो कोइ बखत दिवसे अने कोइ वखत रात्रिए पण आवे छे || ३ || सूत्र - ३० ॥ हवे एकत्रीशमं स्थान कहे छे. . मू० - एकतीसं सिद्धाइगुणा पन्नत्ता, तं जहा - खीणे आभिणिबोहियणाणावरणे १, खीणे सुयणाणावरणे २, खीणे ओहिणाणावरणे ३, खीणे मणपज्जवणाणावरणे ४, खीणे केवलणाणावरणे ५, खी चक्खुदंसणावरणे ६, खीणे अचक्खुदंसणावरणे ७, खीणे ओहिदंसणावरणे ८, खणे केवल सणावरणे ९, खीणे निद्दा १०, खीणे णिद्दाणिद्दा ११, खीणे पयला १२, खीणे पयला. पयला १३, खीणे श्रीणी १४, खीणे सायावेयणिज्जे १५, खीणे असायावेयणिजे १६, खीणे दंस मोहणिजे १७, खीणे चरित्तमोहणिजे १८, खीणे नेरइआउए १९, खीणे तिरिआउए २०, खीणे मणुस्साउए २१, खीणे देवाउएं २२, खीणे उच्चागोए २३, खीणे निच्चागोए २४, खीणे सुभणा मे २५, खीणे असुभणामे २६, खीणे दाणंतराए २७ खीणे लाभंतराए २८, खीणे भोगंतराए २९, खीणे उवभोगंतराए ३०, खीणे वीरिअंतराए ३१ ॥ १ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३१॥ पत्र॥ ॥११५|| मंदरे णं पवए धरणितले एकतीसं जोयणसहस्साइं छच्चेव तेवीसे जोयणसए किंचिदेसूणा समवायाङ्ग y परिक्खेवेणं पन्नत्ता । २ । जया णं सूरिए सबबाहिरियं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं चोथु अंग इहगयस्स मणुस्सस्स एकतीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एकतीसेहिं तीसाए सद्विभागे जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ । ३ । अभिवड्डिए णं मासे एकतीसं सातिरेगाई राइंदियाइं राइंदियग्गेणं पन्नत्ते । ४ । आइच्चे णं मासे एकतीसं राइंदियाई किंचि विसेसूणाई राइंदियग्गेणं पन्नत्ते ॥ ५॥ .... इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकतीसं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ॥ १॥ अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकतीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । २ । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एकतीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एकतीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ४ । विजयवेजयंतजयंतअपराजिआणं देवाणं जहणणेणं एकतीसं सागरावमाई ठिई पन्नत्ता॥५॥जे देवा उवरिमउवरिम-1 ॥११॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइंठिई पन्नत्ता॥६॥ ते णं देवा एकतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससति वा नीससंति वा। १ । तेसि णं देवाणं एकतीसं(स)वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ । २। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ ३॥ सूत्रम्-३१॥ ___मूलार्थ-सिद्धोने प्रथमथी ज एकत्रीश गुणो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-आभिनिवोधिकज्ञानावरण( मतिज्ञानावरण )नो | क्षय १,'श्रुतज्ञानावरणनो क्षय २, अवधिज्ञानावरणनो क्षय ३, मनःपर्यवज्ञानावरणनो क्षय ४, केवळज्ञानावरणनो क्षय ५, चक्षुदर्शनावरणनो क्षय ६, अचक्षुदर्शनावरणनो क्षय ७, अवधिदर्शनावरणनो क्षय ८, केवळदर्शनावरणनो क्षय ९, निद्रानो क्षय १०, निद्रानिद्रानो क्षय ११, प्रचलानो क्षय १२, प्रचलाप्रचलानो क्षय १३, स्त्यानर्द्धिनो क्षय १४, सातावेदनीयनो क्षय १५, असातावेदनीयनो क्षय १६, दर्शनमोहनीयनो क्षय १७, चारित्रमोहनीयनो क्षय १८, नरकायुनो क्षय १९, तिर्यगायुनो क्षय २०, मनुष्यायुनो क्षय २१, देवायुनो क्षय २२, उच्चगोत्रनो क्षय २३, नीचगोत्रनो क्षय २४, शुभनामनो क्षय २५, अशुभ नामनो क्षय २६, दानांतरायनो क्षय २७, लाभांतरायनो क्षय २८, भोगांतरायनो क्षय २९, उपभोगांतरायनो क्षय ३०, वीर्यांतरायनो क्षय ३१ (१)। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUDI ॥११६॥ all समवाय मेरुपर्वतनो पृथ्वीतळ उपर परिक्षेप ( परिधि.) कांइक ओछा एकत्रीश हजार छसो ने त्रेवीश (३१६२३) योजननो समवायाङ्गको छे (२)। ज्यारे सूर्य सर्व वाह्य मंडळने पामीने चार चरे छे (चाले छे) त्यारे अहीं ( भरतक्षेत्रमा) रहेला मनुष्यने - १ पत्र॥ एकत्रीश हजार आठसो ने एकत्रीश योजन तथा एक योजननासाठीया त्रीश भाग (३१८३१३) एटला दूरथी चक्षुना चोधू अंग स्पर्शने शीघ्र पामे छे (जोवामां आवे छे) (३)| अभिवार्धित (अधिक) मास कांइक अधिक एकत्रीश रात्रिदिवसनो रात्रिदिवसना कुलपणाए करीने कहेलो छ (४)। सूर्यमास कांइक विशेष न्युन एवा एकत्रीश रात्रिदिवसनो रात्रिदिवसना कुलपणाए करीने कहेलो छे (५)। आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचेनी सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकत्रीश सांगरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित विमानना देवोनी जघन्य स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी कही छे (५)। जे देवो उपरिमउवरिम ग्रैवेयक विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी कही छे (६)। ते देवो एकत्रीश अर्धमासे ( पखवाडिये) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे निःश्वास ले छे (१)। ते । देवोने एकत्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छे के जेओ एकत्रीश भव ग्रहणवडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥ ला॥१६॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थ-एकत्रीश, स्थानक सुगम छे. विशेष ए के सिद्धोनी आदिमां एटले सिद्धपणाना पहेला समयने विष ज |जे गुणो ते सिद्धादिगुण कहेवाय छे, ते गुणो आभिनिवोधिकावरण ( मतिज्ञानावरण) विगेरेना क्षयरूप छे (१). मंदर एटले मेरु पर्वत. ते पृथ्वीतळने विषे दश हजार योजनना विष्कंभवाळो छ, तेथी करीने पृथ्वीतळ उपर, उपर कहेली परिधिना प्रमाणवाळो छे. (२). "जया णं सूरिए इत्यादि-सूर्यना एक सो ने चोराशी मांडळा होय छे. मंडळ एटले ज्योतिषीने चालवानो मार्ग कहेवाय छे, तेमां जंबूद्वीपनी अंदर एक सो ने एंशी योजनमां पांसठ सूर्यमंडळो छ, तथा लवणसमुद्रमांत्रण सो ने त्रीश योजन अवगाहीने (जइए त्यां सुधीमां) एक सो ने ओगणीश सूर्यमंडळो छे. तेमां सर्ववाह एटले समुद्रने विषे रहेला मंडळोमांनुं जे छेल्लु मंडळ, तेनो आयामविष्कम एक लाख छ सो ने साठ योजननो छे. तेनो गोळ क्षेत्रना गणितने हिसावे परिधि करीए तो त्रण लाख अढार हजार त्रण सो ने पंदर (३१८३१५) योजननो थाय छे. आटलायोजन प्रमाण क्षेत्रने सूर्य के रात्रिदिवसे करीने ओळंगे छे. तेना (ते वे रात्रिदिवसना) साठ मुहूर्तो होय छे, तेथी ते अंकने साठे भागवाथी जे भागभां आवे तेटला योजनवाल्लु क्षेत्र एक मुहूर्त्तमा ओळंगे छे. ते क्षेत्रप्रमाण पांच हजार त्रण सो ने पांच योजन अने एक योजनना साठीया पंदर भाग (५३०५३९ ) जेटलं थाय छे. आ अंकने अर्ध दिवसवडे | एटले अर्ध दिवसना मुहूत्तोंवडे गुणवानो छे. तो ज्यारे सूर्य सर्ववाह्य मंडळमां चाले छे त्यारे दिवस प्रमाण वार मुहूर्त्तनुं | होय छे, तेनुं अर्ध करवाथी छ मुहूर्त आवे छे, तेथी छ मुहूर्त्तवडे उपरना एक मुहूर्त्तनी गतिना प्रमाण (५३०५३७ ) ने गुणीए त्यारे चक्षुस्पर्शवाळी गतिनुं प्रमाण थाय छे.ते रीते गुणवाथी एकत्रीश हजार आठ सो ने एकत्रीश योजन अने Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३२॥ समवाया का चोधु अंग ॥११७॥ एक योजनना साठीया त्रीश भाग आवे छे. ( ३१८३१३० ) (अर्थात् सूर्य आटला योजन दूर होय त्यारे भरतक्षेत्रना मनुष्य तेने जोइ शके छे.)(३)। अमिवर्धित मास एटले त्रण सो ने ज्याशी रात्रिदिवस अने एक रात्रि दिवसना यासठीया चुमाळीश भाग (३८३४३ ) प्रमाणवाळा अभिवधित वर्षनो बारमो भाग. जे वर्षमा अधिक मास होय, ते अभिवर्धित वर्ष कहेवाय छे. केमके तेमां चांद्रमास तेर होय छे, तथा ए मास ओगणत्रीश दिवस अने एक दिवसना बासठीया वत्रीश भाग जेटलो होय छे. 'साइरेगाइं ति'-एक अहोरात्रना एक सो चोवीशीया एक सो एकवीश भाग १२१ एटलं प्रमाण अधिक समजq (४)। आदित्य मास एटले सूर्य जेटला काळे करीने एक राशिने भोगवी ले ते काळ. किंचि विसेसूणाई ति'-अर्ध अहोरात्रवडे न्यून. (वाकी उपर मुळमां कह्या प्रमाणे समजवु.) (५) ॥ सूत्र-३१ ॥ ___ हवे बत्रीशमुं स्थान कहे छे.- मू०-बत्तीसं जोगसंगहा पन्नत्ता, तं जहा-आलोयण १ निरवलावे २, आवईसु दढधम्मया ३ । अणिस्सिओवहाणे ४ य, सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६॥ १॥ अण्णायया, अलोभे ८ य, तितिक्खा ९ अजवे १० सुई ११ । सम्मदिट्ठी १२ समाही १३ य, आयारे १४ विणओवए १५॥ २॥ धिईमई १६ य संवेगे १७, पणिही १८ सुविहि १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सबकामविरत्तया २२ ॥ ३ ॥ पच्चक्खाणे २३-२४ विउस्सग्गे २५, अप्पमादे २६ लवा- ॥११७॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लवे २७ । झाणसंवरजोगे २८ य, उदए मारणंतिए २९ ॥ ४॥ संगाणं च परिणाया ३०, पायच्छित्तकरणे ३१ वि य । आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ५॥१॥ बत्तीसं देविंदा पन्नत्ता, तं जहा- चमरे बली धरणे भूआणंदे जाव घोसे महाघोसे चंदे सूरे सके ईसाणे सणंकुमारे जाव पाणए अच्चुए ।२। कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसहिया बत्तीसं जिण सया होत्था । ३ । सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा णं पन्नत्ता । ४ । रेवइणक्खत्ते । बत्तीसइतारे पन्नत्ते । ५ । बत्तीसतिविहे णत्ते पन्नत्ते ॥६॥ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता १अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ।२। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता । ३ । सोहम्मीसाणे कप्पेसु | देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता ।४। जे देवा विजयवेजयंतजयंतअपराजिय विमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ॥५॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समवायाङ्ग सूत्र ॥ घोषं अंग ॥११८॥ ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा ॥१॥ देवा बत्तीसवाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीस भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्सति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सवदुक्खाणमंत करिस्संति । ३ । सूत्रम् ॥ ३२ ॥ मूलार्थ:- वत्रीश योग संग्रह कला छे. ते आ प्रमाणे- आलोचना १, ते कोइ पासे कहेवी नहीं २, आपत्तिमां पण धर्म विषे दृढता ३, कोइना आश्रय विना उपधान तप करवो ते ४, शिक्षा ५, निष्प्रतिकर्मता - शरीरनी सारवार न करवी ते ६ । १ । पोतानी तपस्या गुप्त राखवी ७, अलोभ ८, तितिक्षा - परीपही सहन करवा ते ९, आर्जव - सरळता १०, शुचिसत्यता ११, सम्यग्दृष्टि १२, समाधि १३, आचार १४, विनय राखवो १५, । २ । धृतिमति - अदीनता १६, संवेग १७, प्रणिधि - माया न करवी १८, सारी विधि करवी १९, संवर २०, पोताना दोषनो निरोध करखो २१, समग्र काम(विषय) मां विरागता २२, । ३ । मूलगुणनुं प्रत्याख्यान २३, उत्तरगुणनुं प्रत्याख्यान २४, कायोत्सर्ग २५, अप्रमाद २६, क्षणे क्षणे सामाचारी पाळवी २७, ध्यानरूपी संवर २८, मारणांतिक वेदनानो उदय थया छतां पण क्षोभ पामवो नहीं ते २९ । ४ । सर्व संगनो त्याग ३०, प्रायश्चित्त ३१, मरणने अंते आराधना करवी ते ३२ । ५ । ( १ ) त्री देवेंद्रो का छे. ते आ प्रमाणे चमर, बलि, धरण, भूतानंद यावत् घोष, महाघोष, (विगेरे भवनपतिना २० ) समवाय ३२ ॥ ॥११८॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य, चंद्र, (ज्योतिषीना २) शक्र, ईशान, सनत्कुमार, यावत् प्राणत, अच्युत (वैमानिकना १०) (२)। कुंथुनाथ अरिहंतने बत्रीश सो बत्रीश केवळीओ हता (३)। सौधर्म कल्पने विपे बत्रीश लाख विमानो कह्या छे (४)। रेवति नक्षत्रना बावीश तारा कह्या छे (५) बत्रीश प्रकारचें नाट्य कयुं छे ॥६॥ . आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी बत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचे सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी बत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी बत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी बत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। जे देवो विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित विमानोमां देवपणे उत्पन्न थया होय, तेमां केटलाक देवोनी बत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)॥ ते देवो बत्रीश अर्धमास ( पखवाडिये ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने बत्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छ के जेओ ना बत्रीश भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे ॥ (३)॥ टीकार्थ-बत्रीशमं स्थानक पण प्रगट छे. विशेष एके-जे जोडाय ते योग कहेवाय छ एटले के मन, वचन, Kel कायाना व्यापार. ते योग अहीं प्रशस्त ज कहेवाने इच्छया छे. ते योगो शिष्य अने आचार्य ए बन्नेने विषे रहेला होय छे.. १ लोकप्रकाशमां ३२०० कह्या छे. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३२॥ तेमनो जे आलोचना, निरपलाप, विगेरे प्रकारे करीने संग्रह करवो ते प्रशस्तयोगसंग्रह कहेवाय छे. अहीं आलोचनादिक - समवाया । प्रशस्तयोगसंग्रहनुं कारण होवाथी ते आलोचनादिक पण प्रशस्तयोगसंग्रह कहेवाय छे. ते संग्रह कुल वत्रीश छे. ते देखाडवा माटे पांच श्लोक कह्या छे—'आलोयणेत्यादि', आनो अर्थ आ प्रमाणे छे-तेमां 'आलोयण त्ति'-मोक्षना साधनचोयं अंगा रूप योगनो संग्रह करवा माटे शिष्ये आचार्यने आलोचना देवी जोइए (पोताना अतिचारादिक दोष निवेदन करवा जोइए)१, 'निरवलावे त्ति'-आचार्य पण मोक्षने साधनारा योगना संग्रहने माटे ज (शिष्ये) आलोचना आपे सते ॥११९॥ अपलाप रहित थर्बु अर्थात् बीजा कोइने कहेवू नहीं २, 'आवईसुधढधम्मय त्ति'-प्रशस्त योगना संग्रहने माटे साधुए द्रव्यादिक आपत्ति प्राप्त थये सते पण धर्ममा दृढता राखवी एटले के आपत्ति आवे सते अत्यंत दृढ धर्मवाला थर्बु ३, ' अणिस्सिओवहाणे यत्ति'--शुभ योगना संग्रहने माटेज अनिश्रित एटले वीजानी अपेक्षा रहित एवं जे उपधान एटले तप, ते अनिश्रितोपधान एटले परनी सहायनी अपेक्षारहित ज तप करवो ४, 'सिक्ख त्ति'-शुभ योगना संग्रहने माटे शिक्षानुं सेवन करवू. ते शिक्षा सूत्र अने अर्थने ग्रहण करवारूप तथा प्रत्युपेक्षादिकने सेववारूप एम वे प्रकारे छे ५, 'निप्पडिकम्म यत्ति'-तेज प्रमाणे शरीरनी निष्प्रतिकर्मता करवी एटले शरीरनी सारवार करवी नहीं ६,।१। 'अण्णायय त्ति'-तपनी अज्ञातता करवी एटले यश, पूजा विगेरेनी इच्छाथी प्रकाश कर्या विना ज तप करवो ७, 'अलोभे यत्ति' सर्व वस्तुने विपे अलोभता राखवी ८, 'तितिक्ख त्ति'-तितिक्षा एटले परीपहादिकनो जय करवो AL (सारी रीते सहन करवा)९, 'अजवे त्ति'-आर्जव एटले सरळता राखवी १०, सुइ त्ति'-शुचि एटले सत्य Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... RY अर्थात् संयम बराबर राखवो ११, 'सम्मदिहि त्ति'-सम्यग्दृष्टि एटले सम्यक् प्रकारे दर्शननी शुद्धि राखवी १२, 'समाही यत्ति'-समाधि एटले चित्तनी स्वस्थता राखवी १३, 'आयारे विणओवए त्ति'-ए वे द्वार छे. तेमां | आचारने पामेलो थाय एटले के मायाने करे नहीं १४, विनयने पामेलो थाय एटले के मानने करे नहीं १५,।२। 'धिइमई यत्ति'-जेमां धृति (धैर्य ) मुख्य छे एवी जे मति, ते धृतिमति एटले अदीनता १६, 'संवेगो त्ति'KE संवेग एटले संसारथकी भय अथवा मोक्षनो अभिलाष १७, 'पणिहि त्ति'-प्रणिधि एटले मायाशल्य न राखq ते १८, 'सुविहि त्ति-सुविधि एटले सारं अनुष्ठान १९, अने संवर एटले आश्रवनो निरोध २०, 'अत्तदोसोवसंहारे त्ति'-पोताना दोषनो निरोध (पोताने दोष-अतिचार लागे तेवु कार्य करवू नहीं) २१, 'सव्वकामविरत्तय त्ति' सर्व विषयोथी विमुखपणुं-रहितपणुं २२, । ३ । 'पञ्चक्खाणे त्ति'-प्रत्याख्यान एटले मूलगुणसंबंधी पचख्खाण २३, व तथा उत्तरगुणसंबंधी पच्चख्खाण २४, 'विउस्सग्गे त्ति'-व्युत्सर्ग एटले द्रव्य अने भाव ए वे भेदे कायोत्सर्ग २५, 'अप्पमाए त्ति'-प्रमादनो त्याग २६, 'लवालवे त्ति'-लव शब्दे करीने काळजें उपलक्षण जाणवू, तेथी करीने क्षणे क्षणे सामाचारीनुं अनुष्ठान करवू २७, 'झाणसंवरजोगे त्ति'-ध्यानरूपी संवरयोग ( मन, वचन, कायाना हा योगनो संवर करवो)२८, 'उदए मारणंतिए त्ति'-मारणांतिक वेदनानो उदय थाय तो पण क्षोभ पामवो नहीं (व्याकुल थर्बु नहीं २९), । ४ । संगाणं, च परिणाय त्ति'-ज्ञपरिज्ञा अने प्रत्याख्यानपरिज्ञा ए वे भेदवाळी संगोनी परिज्ञा करवी ( सर्व संगनो त्याग करवो) ३०, 'पायच्छित्तकरणे त्ति'-प्रायश्चित्त करवू ३१, 'आराहणा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ धुं अंग ॥१२०॥ य मरणते त्ति' - ' तथा मरणरूप अंतने विषे ( मरणसमये) आराधन करवी ( समाधिमरण कर ) ३२ । ५ । (१) ॥ इंद्रना सूत्रमां ' यावत्' शब्द लख्यो छे तथी वेणुदेव, वेणुदाली, हरिकांत, हरिस्सह, अग्निशिख, अग्निमाणव, पूर्ण, वसिष्ठ, जलकांत, जलप्रभ, अमितगति, अमितवाहन, वेलंब अने प्रभंजन ए नाम जाणवा. ( एटले प्रथम कहेला ६ अने आ १४ मळी कुल २० भवनपतिना इंद्रो समजवा ) फरीथी ' यावत् ' शब्द लख्यो छे, तेथी माहेंद्र, ब्रह्म, लांतक, शुक्र अने सहस्रार ए नाम जाणवा. ( प्रथम कहेला ५ ने आ ५ मळी १० समजवा ), अहीं सोळ व्यंतरेंद्री अने सोळ अनपन्नी, पनपन्नी विंगेरे वाणव्यंतरना इंद्रो अल्प ऋद्धिवाळा होवाथी तेमनी विवक्षा करी नथी, तथा चंद्र, सूर्य असंख्याता छे तेमनी जातिने ग्रहण करवाथी मात्र वेनी ज विवक्षा करी छे, तेथी बत्रीश कला छे ( २ ) । कुंथुनाथने वत्रीश सो ने वत्रीश केवलज्ञानीनो परिवार हतो ( ३ ) । चत्री प्रकारनुं नाट्य ए अभिनयना विषयरूप वस्तुना भेदने लीघे जेम राजप्रश्नकृत ( राजप्रश्नीय ) नामना बीजा उपांगमां कहुं छे ते संभवे छे, अने केटलाक एम कहे छे के—चत्रीश पात्र जेमां होय ते नाट्य लेवुं ( ६ ) ॥सूत्र-३२ ॥ हवे तेत्री स्थानक कहे छे- मू० - तेत्तीस आसायणाओ पन्नत्ताओ, तं जहा सेहे राइणियस्स आसन्नं गंता भवइ आसा - या सेहस्स १, सेहे राइणियस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स २, सेहे राइणियस्स सप समवाय ३३ ॥ ॥१२०॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क् ता भवइ आसायणा सेहस्स ३, सेहे राइणियस्स आसन्नं ठिच्चा भवइ आसायणा सेहस्स ४, जाव सेहे राइणियस्स आलवमाणस्स तत्थगए चेव पडिणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ३३ । १ । चमरस्त णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमक्कबाराए तेत्तीसं तेत्तीस भोमा पन्नत्ता । २ । महाविदेहे णं वासे तेत्तीस जोयणसहस्साई साइरेगाई विक्खंभेणं पन्नत्ता । ३ । जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तथा णं इह गयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहिं चक्खुप्फासं हवमागच्छइ ॥ ४ ॥ इमसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता | १ | अहे सत्तमा पुढवीए कालमहाकालरोरूयमहारोरुपसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता।२। अप्पइट्ठाणनरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । ३ । असुरकुमाराणं अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता | ४ | सोहम्मीगाणं देवणं तेत्तीसं पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । ५ । विजयवेजयंत जयंत अपराजि - २१ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग चो) अंग ॥१२॥ एसु विमाणेसु उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता।६। जे देवा सव्वदासिद्धे महाविमाणे समवाय देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अजहण्णमणुक्कोलेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ७॥ ३३ ॥ ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा १। तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ । २ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्सति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति । ३॥ सूत्रम्-३३ ॥ मूलार्थ:-तेत्रीश आशातनाओ कही छे, ते आ प्रमाणे-जे शिष्य (अल्प चारित्रपर्यायवाळो साधु ) रात्निक (अधिक पर्यायवाळा साधु )नी नजीक जाय (चाले) ते शिष्यने आशातना थाय छे (लागे छे) १, जे शिष्य रात्नि- ill कनी आगळ जाय ( चाले) ते शिष्यने आशातना थाय छे २, जे शिष्य रात्निकनी समानपडखेजाय (चाले), ते शिष्यने आशातना थाय छे ३, जे शिष्य रात्निकनी नजीक स्थितिवाळो थाय ते शिष्यने आशातना थाय छे ४, यावत् जे शिष्य रात्निक बोलावता होय त्यारे तेने ज्यां पोते होय त्यां ज रह्यो सतो जवाब आपे ते शिष्यने आशातना थाय छे ३३ (१)। चमरेंद्र नामना असुरना राजा असुरेंद्रनी चमरचंचा नामनी राजधानीना एक एक द्वारे (द्वारनी बहार) तेत्रीश तेत्रीश भौमनगर- (भूमिमा रहेला आवासो) कह्या छे (२)। महाविदेह क्षेत्रनो विष्कंभ काइक अधिक तेत्रीश हजार ॥१२१॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजननो को छे (३) । ज्यारे सूर्य बहार (छेल्ला) नी पहेलाना त्रीजा मंडळने पामीने चार चरे छे (गति करे छे ) त्यारे अहीं रहेला मनुष्योने कांइक ओछा तेत्रीश हजार योजन दूरथी चक्षुना स्पर्शने शीघ्र पामे छे ( जोवामां आवे छे.) (४) ॥ आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी तेत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । नीचे सातमी पृथ्वीने विषे काळ, महाकाळ, शेर अने महारोर ए चार नरकावासाना नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति तेन्रीश सागरोपमनी कही छे (२) अने अप्रतिष्ठान नरकावासाना नारकीओनी जघन्य अने उत्कृष्ट रहितपणे ( एक सरखी रीते सर्वनी ) तेत्रीश सागरोपमनी . स्थिति कही छे (३) । केटलाक असुरकुमार देवोनी तेत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे 'केटलाक देवोनी तेत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (५) । विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित नामना चार विमानने विषे ( देवोनी ) उत्कृष्ट स्थिति तेत्रीश सागरोपमनी कही छे (६) । जे देवो सर्वार्थसिद्ध नामना महाविमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी जघन्य अने उत्कृष्ट रहित ( एक सरखी रीते सर्वनी ) तेत्रीश साग रोपमनी स्थिति कही छे (७) । ते देवो तेत्री अर्ध मासे ( पखवाडीये) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने त्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छे के जेओ तेत्रीश भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥ टीकार्थः - हवे तेत्री शमं स्थानक कहे छे - तेमां ' आय ' एटले सम्यग्दर्शनादिकनी प्राप्ति, तेनी जे ' शातना ' एटले खंडन (विनाश ), ते निरुक्तने आधारे आशातना कहेवाय छे. तेमां शैक्ष एटले अल्प चारित्रपर्यायवाळो शिष्य (साधु) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SG रात्निक एटले घणा पर्यायवाळा साधु ( आचार्यादिक)नी समीपे ए रीते जाय के जे प्रकारे पोतानी रज के अंचला- समवाय समवायाङ्ग दिक तेने लागे, एवी रीते जनार जे शिष्य होय ते शिष्यने आशातना थाय छे (लागे छे), ए प्रमाणे सर्व ठेकाणे ॥ समजवु १, 'पुरओ त्ति'-आगळ चालनारो थाय २, 'सपक्खं त्ति'-जे प्रमाणे समानपक्ष एटले सरखो पार्श्व भाग चोडूं अंग होय तेम समश्रेणिवडे साथे चाले ३, 'ठिच त्ति'-स्थितिवाळो थाय एटले ऊभो रहे. ४, अहीं ' यावत् ' शब्द लख्यो छे, तेथी दशाश्रुतस्कंधने अनुसारे बीजी आशातनाओ जाणवी, ते आ प्रमाणे-रात्निकनी समीपे, आगळ अने पडखेल ॥१२२।। ऊभा रहेवाथी बीजी त्रण आशातना थवाथी कुल छ आशातना थइ ६, तेज प्रमाणे (पासे, आगळ अने पडखे) बेसवावडे करीने पण त्रण आशातना थवाथी कुल नव थइ ९, तथा बन्ने साथे विचारभृमिमां (स्थंडिले) गया होय त्यारे जो शिष्य प्रथम आचमन करे (हाथ-पग धोवे) तो तेने आशातना लागे १०, एज प्रमाणे प्रथम गमनागमननी आलोचना करे तो तेने आशातना लागे ११, तथा रात्रिए ' कोण जागे छे' एम रात्निक पूछे त्यारे तेना वचनने न सांभळतो होय तेम जवाब नहीं आपता शिष्यने आशातना लागे १२, प्रथम रात्निकवडे कोइ बोलाववा (वातचीत करवा ) लायक होय तेवाने तेमनी पूर्व शिष्य बोलावे तो ते शिष्यने आशातना लागे १३, वहोरी लावेला आहारने शिष्य प्रथम गुरु सिवाय बीजानी पासे आलोवे (अने पछी गुरुनी पासे आलोवे) तो तेने आशातना लागे १४, ए ज प्रमाणे प्रथम बीजाने देखाडे तो पण आशातना लागे १५, एज प्रमाणे चीजाने निमंत्रण करे तो पण आशातना लागे १६, रात्निकने पूछया विना ( रजा कालीधा विना.) बीजा साधुन भक्तादिक आपे तो तेने आशातना लागे १७, शिष्य पोते (गुरुने आप्या सिवाय तेमेज तेमनी ॥१२२॥ Sha Girl Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा सिवाय ) सारो आहार वापरे तो तेने आशातना लागे १८, कोइ कामप्रसंगे रात्निक बोलावे (ते सांभळता छतां) तेने जवाब न आपे तो आशातना लागे १९, रात्निक प्रत्ये अथवा तेमनी समक्ष (वीजा प्रत्ये) मोटा शब्दथी घणे प्रकारे बोले, तेने आशातना लागे २०, रात्निक बोलावे त्यारे 'मत्थेण वंदामि' एम बोलq जोइए, तेने बदले 'शुं कहो छो?" एम बोलनारने आशातना लागे २१, रात्निक कोई कार्यमा प्रेरणा करे त्यारे ' प्रेरणा करवामां तमारो शो अधिकार छ ?" एम बोलनारने आशातना लागे २२, " हे आर्य! आ ग्लान साधुनी सारवार केम नथी करतो?" इत्यादिक रात्निक कहे त्यारे ' तमे केम नथी करता ?' इत्यादि बोलनारने आशातना लागे २३, गुरु धर्मकथा कहेता होय त्यारे पोते अन्य चित्तवाळो रहे अथवा तेनी अनुमोदना न करे तो तेने आशातना लागे २४, गुरु धर्मकथा करता होय (तेमां कांइक स्खलना। थइ होय ) त्यारे 'तमने सांभरतुं नथी' इत्यादि बोलनारने आशातना लागे २५, गुरुनी धर्मकथानो विच्छेद करनारने आशातना लागे २६, 'भिक्षानो समय थइ गयो छे' इत्यादिक वचन बोली गुरुनी पर्पदानो भंग करनारने आशातना लागे २७, गुरुनी पर्षदा उठी न होय अने तेज प्रमाणे रहेली (बेठेली) होय, तेनी पासे पोते धर्मकथा कहेवा लागे तेने आशातना लागे २८, गुरुना संथाराने पगवडे स्पर्श करनारने आशातना लागे २९, गुरुना संथारामां बेसनारने आशातना लागे ३०, गुरुथी ऊंचा आसन उपर वेसनारने आशातना लागे ३१, गुरुनी सरखा आसन उपर बेसनारने पण आशातना लागे ३२, तथा तेत्रीशमी आशातना मूळ सूत्रमा कही ज छे, ते ए के-रात्निक बोलावे त्यारे त्यां ज (पोताने स्थाने ज) रह्यो सतो एटले आसनादिकमां रह्यो सतो ज जवाब आपे तो आशातना लागे, केम के गुरुनी पासे आवीने जवाब Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३३॥ आपयो जोइए. आ प्रमाणे शिष्यने तेत्रीश आशातना लागे ३३ (१)। " समवाया तेत्तीसं तेत्तीसं भोम त्ति'भौम एटले नगरना आकारवाळा अथवा बीजा कहे छ के विशेष प्रकारना स्थानो 16(२)। 'जया णं सूरिए इत्यादि-सूर्यना एकंदर १८४ मंडळ छे तेमां वे वे मंडळ बच्चेनुं अंतर बवे योजन अने एक चो) अंग योजनना एकसठीया अडताळीश भाग (२६६) जेटलुं छे. तेने बमणुं करवाथी पांच योजन अने एकसठीया पांत्रीश भाग ५३७ थाय छे. आटला न्यून विष्कंभवालं सर्व बाह्यमंडळथी बीजु मंडळ थाय छे ( एटलुं बहारना मंडळथी आभ्यंतर मंडळे १२३॥ आवतां मंडळे मंडळे विष्कंभमां ओछु अंतर समजQ). त्यारपछी वृत्तक्षेत्रनी परिधिना गणितना न्याय करीने सर्व बाह्य मंडळथी बीजा मंडळनी परिधि सत्तर योजन अने एकसठीया आडत्रीश भागे १७३८ न्यून थाय छे. ए ज प्रमाणे त्रीजा मंडळनी परिधि तेनाथी बमणी हीन थाय छे, ते आ प्रमाणे-छल्ला मंडळथी जीजा मंडळनो विष्कंभ अग्यार योजन अने एकसठीया नव ११६ भागे करीने न्यून थाय छे, अने परिधि पांत्रीश योजन अने एकसठीया पंदर भाग न्युन थाय छे तेथी करीने ते परिधि त्रण लाख अढार हजार बसोने ओगणाएंशी योजन अने एकसठीया छेतालीश भाग ३१८२७९४१ जेटली थाय छे (एटले के छेल्ला मंडळनी परिधि ३१८३१५ योजन प्रमाण छे तेमाथी ३५१५ बाद करतां ३१८२७९४५ रहे छे) तथा छल्ला मंडळथी (अंदर प्रवेश करतां) दरेक मंडळे एक मुहूर्तना एकसठीया वे भाग जेटली दिनमाननी वृद्धि थाय छे. तेथी करीने (छेल्ला मंडळथी) त्रीजा मंडळमां ज्यारे सूर्य चाले छे त्यारे बार मुहूर्त अने एक मुहूर्त्तना एकसठीया चार १२४ भाग जेटलुं दिनमान थाय छे. आ (१२४) मुहूर्त्तना एकसठीया ॥१२३॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला भाग ७३६ थाय तेने अर्धा करवाथीत्रण सोने अडसठ ३६८ थाय तेणे करीने स्थूल गणितनी विवक्षा होवाक्षी त्याग करेला (३५१५) अंशवाळी जीजा मंडळनी परिधिने एटले ३१८२७९ने गुणवाथी (११७१२६६७२) थाय तेने साठे गुणेला एकसठवडे ( ३३६० वडे ) भागाकार करवाथी जे आवे ते त्रीजा मंडळे चक्षुःस्पर्शनुं (जोइ शकवानुं) प्रमाण थाय छे. ते प्रमाण आ प्रमाणे-बत्रीश हजार ने एक ३२००१ योजन, बाकी वधेला (३०१२) अंशने एकसठवडे भागतां | एक योजनना साठीया ओगणपचास भाग ४ तथा योजनना साठीया एक भागना एकसठीया ओवीश भाग ३३ आटलं त्रीजा मंडळमां चक्षुःस्पर्शनु प्रमाण जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिमां कहेलं प्राप्त थाय छ । अहीं मूळ सूत्रमा जे का छे के ते नयोजन काइक विशेष न्यून, ते (बत्रीश हजार उपर ) सातिरेक एक योजननी पण हजारने विपे गणना करवाने इच्छी छे एम संभवे छे. परंतु चौदमा मंडळमां आ कहेलं ( ३३०००) प्रमाण बराबर मळतुं आवे छे. केम के मंडळे मंडळे काइक अधिक चोराशी योजन प्रथम मंडळना मानमा नांखवा पडे छे तेथी (४)॥ सूत्र-३३ ॥ हवे चोत्रीशमुं स्थानक कहे छे मू०-चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पन्नत्ता तं जहा-अवट्ठिए केसमंसुरोमनहे १, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी २, गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए ३, पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्साले ४, पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा ५, आगासगयं चकं ६, आगासगयं छत्तं ७, आगासगयाओ सेय । hin Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३४॥ पोधु अंग - ॥१२४॥ | वरचामराओ ८, आगासफालिआमयं सपायपीढं सीहासणं ९, आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमं- डिआभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छइ १०, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिटुंति वा श्री निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि य णं तक्खणादेव संछन्नपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ - सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ ११, ईसिं पिटुओ मउडठाणांमि तेयमंडलं अभि संजायइ अंधकारे वि यणं दस दिसाओ पभासेइ १२, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे १३, अहोसिरा 0 कंटया जायति १४, उऊ विवरीया सुहफासा भवंति १५, सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारु एणं जोयणपरिमंडलं सवओ समंता संपमजिज्जइ १६, जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किज्जइ १७, जलथलयभासुरपभूतेणं बिंटट्ठाइणा दसवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुप्फोवयारे किज्जइ १८, अमणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ १९, मणुण्णाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं पाउब्भाओ भवइ २०, पच्चाहरओ वि यणं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ २२, सावि यणं अद्धमागही भासा ॥१२४॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासिज्माणी तेसिं सवेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयचउप्पअमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हियसिव सुहयभासत्ताए परिणमइ २३, पुवबद्धवेरा वि यणं देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिंनरकिंपुरिस गरुलगंधव्वमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंत २४, अण्णउत्थिय पावयणिया वि य णमागया वंदति २५, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंत २६, जओ जओ वियणं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वियणं जोयणपणवीसांए णं ईती न भवइ २७, मारी न भवइ २८, सचक्कं न भवइ २९, परचक्कं न भवइ ३०, अइवुट्टी न भवइ ३१, अणावुट्ठी न भवइ ३२, दुब्भिक्खं न भवइ ३३, पुव्वुप्पण्णा वियणं उप्पाइया वाही खिमिव उवसमंति ३४ ॥ १ ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवहिविजया पन्नत्ता, तं जहा- बत्तीसं महाविदेहे दो भरहे एरवए । २ । जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्ढा पन्नत्ता । ३ । जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए चोतसं तित्थंकरा समुपजंति ४ । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससय Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARA सहस्सा पन्नत्ता । ५ । पढमपंचमछट्ठीसत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा समवाय समवायाङ्ग पन्नत्ता।६॥ सूत्रम्-३४॥ ३४॥ मूलार्थ:-तीर्थकरना चोत्रीश अतिशयो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मस्तकना केश, दाढी-मुछ, शरीरना रुंवाडा अने - चोथु अंग नख अवस्थित रहे-मर्यादामा ज रहे ( वधे नहीं) १, तेमनां शरीर रोग रहित अने मेल रहित होय २, मांस अने रुधिर गायना दूध जेवा श्वेत होय ३, तेमना उच्छवास निःश्वास कमळ अने नीलोत्पलनी जेवा सुगंधी होय ४, आहार-नीहार ॥१२५॥ मांस(चम)चक्षुवाळा जोइ न शके तेम गुप्त होय छे ५, धर्मचक्र प्रभुनी आगळ आकाशमां चाले छे ६, आकाशमा रहेलु (चालतुं) छत्र होय छे ७, आकाशमां रहेला श्वेत उत्तम चामरो होय छे ८, आकाश जेवा स्वच्छ स्फटिकमणिमय पादपीठा सहित सिंहासन होय छे (ते पण आकाशमां साथे चाले छे) ९, हजारो लघु पताकाओ सहित सुशोभित इंद्रध्वज N तेमनी आगळ चाले छे १०, ज्यां ज्यां अरिहंत भगवान ऊभा रहे छ अथवा वेसे छे त्यां त्यां तत्काळ पत्र सहित तथा पुष्पा अने पल्लवे करीने युक्त, छत्र सहित, ध्वजा संहित, घंटा सहित अने पताका सहित श्रेष्ठ अशोक वृक्ष होय छे ११, काइका IM पाछळना भागमा मस्तकना प्रदेशमा प्रभामंडळ (भामंडळ) होय छे, के जे अंधकारने विपे पण दशे दिशाओ प्रकाशित करे छ THI १२, बहु सरखो अने रमणीय भूमिभाग होय छे १३, कांटाओ नीचा मुखवाळा होय छे १४, विपरीत ऋतुओ सुखे स्पर्श कराय तेवी थाय छे १५, शीतळ, सुख स्पर्शवाळो अने सुगंधी वायु चोतरफ एक योजनप्रमाण पृथ्वीने स्वच्छ करे छ १६, । A उचित जळबिंदुनी वृष्टिवडे मेघ रज अने रेणुने समावी दे छे १७, जळ अने स्थळमां उत्पन्न थवेला, भास्वर, घणा, नीचा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -6Sमायामा all डीटवाळा अने पांच वर्णवाळा पुष्पोवडे ढींचणप्रमाण पुष्पप्रकर करवामां आवे छे १८, अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गंधनो अभाव होय छे १९, मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गंधनो प्रादुर्भाव होय छे २०, उपदेश आपती वखते Lal भगवाननो स्वर सर्वना हृदयने गमे तेवो अने एक योजन सुधी व्यापी रहेलो होय छ २१, भगवान अर्धमागधी भापाए करीने धर्म कहे छे २२, ते पण अर्धमागधी भाषा बोलवामां आवे छे त्यारे (सांभळनारा) ते सर्वे आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप (सर्प) विगेरेने पोतपोतानी हित, शिव अने सुखने आपनारी भापापणे करीने परिणमे छे २३, पूर्वे जेओए वेर बांध्यु होय तेवा प्राणीओ तथा देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, किंनर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व अने महोरगा विगेरे देवो सर्वे विचित्र प्रकारना मननी शांतिने पामीने अरिहंतना पादमूळने विपे रही धर्मने सांभळे छ २४ कना प्रवचनना विद्वानो पण त्यां आव्या होय तो भगवानने वांदे छे २५, तेओ आव्या सता भगवानना पादमूलने विपे निरुत्तर थइ जाय छ २६, ज्यां ज्यां अरिहंत भगवान विचरे छे, त्यां त्यां पचीश योजन सुधी ईति होती नथी २७, मारी (मरकी ) होती नथी २८, स्वचक्रनो भय होतो नथी २९, परचक्रनो भय होतो नथी ३०, अतिवृष्टि होती नथी ३१. Mel अनावृष्टि होती नथी३२, दुर्भिक्ष होतो नथी ३३, पूर्व उत्पन्न थयेला उत्पातो अने व्याधिओ तत्काळ उपशांत थाय छे-नष्ट थाय छे ३४ (१)॥ . जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे चोत्रीश चक्रवर्तीना विजयो कह्या छे (२)। जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे चोत्रीश दीर्घ | वैताढ्य पर्वतो कह्या छ (३)। जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे उत्कृष्टथी चोत्रीश तीर्थकरो उत्पन्न थाय छे (४) । असुरेंद्र SCINDIATIMEarosana A Am Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३४॥ समवाया पत्र। पो' अंग ॥१२६॥ N चमर नामना असुरना राजाना चोत्रीश लाख भवनावास ( भवनो) कया छे (५)। पहेली, पांचमी, छठी अने सातमी ए चार पृथ्वीने विपे (कुल) चोत्रीश लाख नरकावास कह्या छ (६)॥ टीकार्थ:-हवे चोत्रीशमा स्थानकने विपे काइक लखे छे-'बुद्धाइसेस त्ति'-बुद्धना एटले तीर्थंकरोना जे अतिशेष एटले अतिशयो, ते बुद्धातिशेष कहेवाय छे. ते आप्रमाणे-अवस्थित एटले वृद्धि नहीं पामनारा केश-मस्तकना वाळ, श्मश्रुदाढी मूछना वाळ, रोम-शरीरना रंबाडा अने नख, आ चार शब्दनो समाहार द्वंद्व समास करवाथी एकवचन थयुं छे. आ पहेलो अतिशय १, निरामय एटले रोग रहित अने निरुपलेप एटले निर्मळ (प्रस्वेद रहित) गात्रयष्टि एटले शरीररूपी लता होय छे. ए बीजो अतिशय २, गायना दूध जेवू उज्ज्वळ मांस अने रुधिर होय छे. ए बीजो अतिशय ३, तथा पद्म एटले कमळ अथवा अमुक सुगंधी पदार्थ के जे पद्मक एवे नामे प्रसिद्ध छे तथा उत्पल एटले नीलकमळ अथवा उत्पलकुष्ठ नामनो सुगंधी वस्तु विशेष, ते बन्नेनो ( बन्नेनी जेवो) सुगंध जेने विषे छे, तेवा प्रकारनो उच्छ्वास निःश्वास होय छ. ए चोथो अतिशय ४, गुप्त रीते आहार एटले भोजन अने नीहार एटले मूत्र अने ठल्लो होय छे, गुप्तपणुं शीरीते ? तेने प्रगटपणे कहे छे के-मांस चक्षुवाळा न जोइ शके तेवी रीते, परंतु अवधि विगेरे ज्ञान नेत्रवाळा पुरुष न जुए तेम नहीं ( एवा ज्ञानी तो जोइ शके.) ए पांचमो अतिशय ५, अहीं पहेला सिवायना बीजाथी आरंभीने पांचमा सुधीना चार अतिशयो जन्मने आश्रीने (जन्मथी) होय छे तथा 'आगासगयं त्ति'-आकाशगत एटले आकाशमा वर्तनाएं अथवा आकाशगक एटले प्रकाशवाळ चक्र एटले धर्मचक्र होय छे. ए छठो अतिशय ६, एज रीते आकाशमां रहेला त्रण छत्र होय Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे. ए सातमो अतिशय ७, तथा 'आकाशके एटले आकाशमां श्वेत अने श्रेष्ठ वे चामरो वींझाता रहेला होय छे, ए आठमो अतिशय ८, 'आगासफालिआमय त्ति'-आकाशनी जेम जे अत्यंत स्वच्छ स्फटिक रत्न, तेमय (एटले तेनु बनावेलु) सिंहासन पादपीठ सहित होय छे. ए नवमो अतिशय ९, 'आगासगओ त्ति'-आकाशमां गयेलो एटले अत्यंत ऊंचो अने कुडभिनो अर्थ लघु पताका संभवे छे तेथी हजारो नानी पताकाओवडे परिमंडित एटले युक्त एवो सतो अभिराम एटले रमणीय, ए प्रमाणे (कर्मधारय समासनो) विग्रह करवो. आवा प्रकारनो 'इंदज्झओ त्ति'-बीजा सर्व ध्वजनी अपेक्षाए आ ध्वज अत्यंत मोटो होवाथी इंद्र एवो जे ध्वज ते इंद्रध्वज एम (कर्मधारय समासनो) विग्रह करवो, अथवा इंद्रपणाने सूचवनारो ध्वज जिनेश्वरनी आगळ चाले छे. ए दशमो अतिशय १०, (तथा भगवान जे ठेकाणे) 'चिट्ठति वा निसीयंति वत्ति'-गमननी निवृत्तिवडे (गति नहीं करवावडे ) ऊभा रहे छ अथवा बेसे छे, (ते ठेकाणे) 'तक्खA णादेव त्ति'-तत्काळ ज एटले काळना विलंब विना ज पत्रोवडे संछन्न एटले ढंकायेलो ( व्याप्त), अहीं 'पत्रसंछन्न' एम कहेवू जोइए तेने बदले मूळमां प्राकृत होवाथी 'संछन्नपत्र' एम लख्युं छे, आवो (पत्रोवडे व्याप्त ) सतो पुष्प अने पल्लवे करीने सहित, एम ( कर्मधारय समासनो) विग्रह करवो. तेमां पल्लवनो अर्थ अंकुरा करवो, तथा ध्वजा सहित, घंटा सहित, पताका सहित एवो अशोकवरपादप एटले श्रेष्ठ अशोकवृक्ष होय छे. ए अग्यारमो अतिशय ११, तथा धाईपद्' एटले अल्प (कांइक) पाछळना भागमां मस्तकना प्रदेशने विपे तेजोमंडळ एटले प्रभामंडळ होय छे. ए बारमो अतिशय १२, (तथा प्रभु ज्यां विहार करे त्यां) भूमिभाग बहु समान ( सरखो) अने रमणीय होय १॥ २२ MARATHIMATERATown LE भा ."... - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . समवाय ३४॥ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ घो\ अंग ॥१२७॥ छे. ए तेरमो अतिशय १३, 'अहोसिर त्ति'-नीचा मुखबाळा कांटाओ होय. ए चौदमो अतिशय १४, (विपरीत ऋतुओ केवी होय छे, ते कहे छ के-सुख स्पर्शवाळी होय छे). ऋतुओ अविपरीत होय छे, केवी रीते ? ते कहे छ के-सुख स्पर्शवाळी होय छे. ए पंदरमो अतिशय १५, संवर्त वायुवडे एक योजन सुधीनी पृथ्वी शुद्ध थाय छे. ए सोळमो अतिशय १६, 'जुत्तफुसिएणं त्ति'-उचित (जळ) बिंदुओना पडवावडे 'नियरयरेणुयं ति'-वायुए ऊडाडेली आकाशमा रहेली रज अने पृथ्वी पर रहेली रेणु (ए बन्ने मेघे समावी दीधी छे.) ए गंधोदकवृष्टि नामनो सत्तरमो अतिशय १७, तथा जळमां अने स्थळमां उत्पन्न थयेला जे भास्वर ( देदीप्यमान ) अने घणा पुष्प ते बडे तथा वृन्तस्थायि एटले ऊंचा मुखबाळा अने दशार्धवर्ण एटले पांच वर्णवाळा एवा पुष्पवडे ढींचणनी ऊंचाइनुं जे प्रमाण छे तेटलुं प्रमाण छे जेनुं एवो एटले ढींचणप्रमाणवाळो पुष्पोपचार एटले पुष्पप्रकर होय छे. ए अढारमो अतिशय १८, तथा " कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमंघमघंतगंधुध्धुयाभिरामे भवइत्ति"-कालागुरु एटले विशेष प्रकारनी सुगधी वस्तु (काळो अगर), प्रवरकुंदुरुक्क एटले श्रेष्ठ चीडा नामनी सुगंधी वस्तु अने तुरुक्क एटले सिल्हक नामनी सुगंधी वस्तु, आ त्रण शब्दनो द्वंद्व समास करवो. पछी आ उपर कहेला लक्षणवाळो जे धूप तेनो मघमघतो एटले घणो सुगंधी जे उत्पन्न थयेलो सुगंध, तेवडे अत्यंत रमणीय स्थान एटले प्रभुने बेसवार्नु स्थान होय छे एम संबंध करवो. ए ओगणीशमो अतिशय १९, तथा " उभओ पासिं च णं अरहंताणं भगवंताणं दुवे जक्खा कडयतुडियथंभियभुया चामरुक्खेवणं करंति त्ति"-कटक | ॥१२७॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही एटले हाथना कांडानो अलंकार (कडां), त्रुटित एटले बाहुनु आभरण आ चे जातना अलंकारो घणा होवाथी तेनावडे जेमना हाथ स्तंभाइ गया जेवा थया छे एवा चे यक्षो-देवो ( अरिहंत भगवाननी बन्ने बाजुए रहीने चामर वींझवानुं काम करे छे.) | ए वीशमो अतिशय २०, बृहद्वाचना(मोटी वाचना)मां आ छल्ला वे अतिशयो कह्या नथी. तेथी ते वाचनामां पूर्वना अढार अतिशयो लेवा, अने त्यारपछीना बे आ प्रमाणे लेवा-अमनोज्ञ एवा शब्दादिकनो अपकर्ष एटले अभाव होय. ए ओगणीशमो अतिशय १९, मनोज्ञ एवा शब्दादिकनो प्रादुर्भाव (प्रकाश) होय, ए वीशमो अतिशय २०, तथा 'पच्चाहरओ त्ति'-उपदेश आपता एवा भगवाननो स्वर (सांभळनारना) हृदयने गमे तेवो अने एक योजन सुधी विस्तार पामतो होय छे. ए एकवीशमो अतिशय २१, 'अद्धमागहीए त्ति'-प्राकृत विगेरे छ भाषाओने मध्ये जे 'रसो (शो)लसौ भागध्याम्' (मागधीमां र अने स (श) नो ल अने स थाय छे) आवा सूत्रोवाळी मागधी नामनी भाषा छे, ते भाषा जो समग्र पोताना लक्षणने आश्रय करनारी न होय तो ते अर्धमागधी कहेवाय छ, तेथी अर्धमागधी भाषावडे धर्मने कहे छ; केमके ते भाषा जत्यंत कोमल छ. ए बावीशमो अतिशय २२, 'भासिजमाणी ति'-भगवानवडे बोलाती (ते अर्धमागधी भाषा पण ) 'आरियमणारियाणं ति'-आर्य अने अनार्य देशमा उत्पन्न थयेला द्विपद एटले मनुष्यो, चतुष्पद एटले बळद विगेरे, मृग एटले वनना प्राणीओ, पशु एटले गाममा रहेनारा प्राणीओ, पक्षीओ प्रसिद्ध छे, सरीसृप एटले उर परिसर्प अने भुजपरिसर्प आ सर्वेने पोतपोतानी भाषापणे परिणमे छे, ए प्रमाणे संबंध करवो. हवे ते भाषा केवी छे ? ते कहे छ-हित एटले अभ्युदय १. कोणीनी उपरनो भाग वाहु कहेवाय छे. N Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय श्री. समवाया चोथु अंग ॥१२८॥ (आबादी), शिव एटले मोक्ष अने सुख एटले श्रवण बखते थतो आनंद, तेने जे आपे ते हित, शिव अने सुखने आपनारी एवी भाषा बोले छे, ए त्रेवीशमो अतिशय २३, ' पुवबद्धवरे ति '-पूर्वे एटले भवांतरमा अथवा अनादिकाळमा जन्मने आश्रीने निकाचित करेलु जातिवेर जेओने होय छे तेओ पण (प्रशांत चित्तवाळा थइने भगवानना चरणने विपे रहीने धर्म सांभळे छे) तो पछी बीजा देवादिक सांभळे ते तो दूर रहो. तेमां देव एटले वैमानिक देवो, असुर अने नाग एटले भवनपति देवो, सुवर्ण एटले सारा वर्णे करीने सहित होवाथी ज्योतिपीओ, यक्ष, राक्षस, किंनर अने किंपुरुष ए व्यंतरना भेद छे, गरुड एटले गरुडना लांछनवाळा सुवर्णकुमार नामना भवनपति देवो, गंधर्व अने महोरग ए वे व्यंतरविशेष ज छे. आ सर्वनो द्वंद्व समास करवो. आ सर्वे प्रशांत एटले शमताने पाम्या छे चित्र एटले रागद्वेषादिक अनेक प्रकारना विकार सहित होवाथी विविध प्रकारना मानस एटले अंत:करण जेमना एवा सता धर्मने सांभळे छे. ए चोवीशमो अतिशय २४, वृहद्वाचनामां आ वीजा वे अतिशयो कहेला छे. ते ए के-अन्य तीथिकना गावचनिको (विद्वानो) पण भगवानने चांदे छे. ए पचीशमो अतिशय २५, अने भगवानना पादमूळमां आव्या सता तेओ प्रत्युत्तर रहित थाय छे. ए छवीशमो अतिशय २६, ज्या ज्यां एटले जे जे देशमा ( भगवान विचरे छे) त्या त्यां पचीश योजनने विपे ईति एटले धान्यादिकने उपद्रव करनार घणा उंदर विगेरे प्राणीओनो समूह होतो नथी. ए सत्तावीशमो अतिशय २७, मारि एटले मनुष्योनी मरकी होती नथी. ए अट्ठावीशमो अतिशय २८, स्वचक्र एटले पोताना राज्यर्नु सैन्य उपद्रव करनार थतुं नथी. ए ओगणत्रीशमो अतिशय २९, एज प्रमाणे परचक्र एटले वीजा राजानुं सैन्य उपद्रव जनसमसम्मा Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनार थतुं नथी. ए त्रीशमो अतिशय ३०, अतिवृष्टि एटले अधिक वरसाद थतो नथी. ए एकत्रीशमो अतिशय ३१, - अनावृष्टि एटले वरसादनो अभाव थतो नथी. ए वत्रीशमो अतिशय ३२, दुर्भिक्ष एटले दुकाळ होतो नथी. ए तेत्रीशमो अतिशय ३३, 'उप्पादया वाहि त्ति' - उत्पात एटले अनिष्टने सुचवनारा रुधिरना वरसाद विगेरे अने तेना कारणरूप जे अर्थी ते औत्पातिको तथा ज्वरादिक व्याधिओ, ते सर्वनो उपशम एटले अभाव होय छे. ए चोत्रीशमो अतिशय ३४. वळी अहीं पच्चाहरओ (भगवान उपदेश आपे त्यारे) आ एकवीशमा अतिशयथी आरंभीने छेवट सुधीना जे चौद अतिशयो कहा ते अने एक प्रभामंडळ बारमो अतिशय कुल पंदर अतिशयो कर्मक्षयथी थयेला होय छे, बाकीना भवने (जन्मने) आश्रीने कहेला चार सिवायना पंदर अतिशयो देवना करेला होय छे. आ अतिशयो कोइ ग्रंथमां अन्यथा प्रकारे जोवामां आवे छे मतांतर जाणवा. (१) ॥ ( चार जन्मथी, १९ देवकृत अने ११ अतिशयो घातिकर्मना क्षयथी थयेला अन्यत्र का छे ) ' चकवद्विविजय त्ति ' - चक्रवर्तीने जीतवा लायक क्षेत्रना प्रदेशो ( विजयो) चोत्रीश छे (२) । उत्कृष्टपणे चोत्रीश तीर्थक उत्पन्न थाय छे एटले संभवे छे, परंतु एक ज समये जन्मे छे एम नहीं. केमके एक समये चारज तीर्थंकरोनो जन्म संभवे छे ते आप्रमाणे- मेरुपर्वत उपर पूर्व अने पश्चिम दिशाए एक एक शिलातल छे, तेना उपर बचे सिंहासनो होय छे तेथी वेनोज अभिषेक थाय छे, तेथी करीने (ते बन्ने दिशामां) बबेनोज जन्म होय छे परंतु ते वखते दक्षिण अने उत्तर दिशाना क्षेत्रमां दिवस होय छे तेथी भरत अने ऐवतने विषे जिनेश्वरनो जन्म होतो नथी. केमके जिनेश्वरनो जन्म अर्धरात्रिए ज होय छे. ४ 'पढमेत्यादि' - पहेली पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावासा छे, पांचमी पृथ्वीमां त्रण लाख, छठ्ठीमा एक लाखमां पांच Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१२९॥ ओछाने सात पृथ्वीमा मात्र पांच ज नरकावासा छे. आ सर्व मळीने चोत्रीश लाख नरकावासा थाय छे (६) सूत्र - ३४॥ हवे पांश स्थानक कहे छे मू० - पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पन्नत्ता | १ | कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उड्डुं उच्चणं Peter | २ | दत्ते वासुदेवे पणतीसं धणूइं उङ्कं उच्चत्तेणं होत्था । ३ । नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्डुं उच्चणं होत्था । ४ । सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए इक्खंभे ठा उवरिं च अतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पणतीस जोयणेसु वइरामएस गोलवद्दसमुग्गएसु जिणलकहाओ पन्नत्ताओ | ५ | बितिय उत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावासस्यसहस्सा पन्नत्ता ६ || सूत्रम् - ३५ ॥ मूलार्थ:- सत्य वचनना अतिशयो पांत्रीश कथा छे । १ । कुंथुनाथ अरिहंत ऊंचाइचडे पांत्रीश धनुप उंचा हता । २ । दत्त नामना वासुदेव ऊंचाइवडे पांत्रीश धनुप ऊंचा हता । ३ । नंदन नामना वळदेव ऊंचाइवडे पांत्रीश धनुष ऊंचा हता । ४ । सौधर्म देवलोकने विषे सुधर्मा नामनी सभामां माणवक नामना चैत्यस्तंभमां नीचे अने उपर साडावार साडावार • योजन वर्जीने मध्य भागना पांत्रीश योजनमां वज्रमय गोळ वर्तुलाकार समुद्गक ( दावडा ) ने विपे जिनेश्वरनी दाढाओ कही छे । ५ । बीजी अने चोथी ए वे नरकपृथ्वीना मळीने ३५ लाख नरकावासा कह्या छे । ६॥ समवाय ३५ ॥ ॥१२९॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 टीकार्थ :- पांत्रीशमं स्थानक सुगम छे. विशेष ए के सत्य वचनना अतिशयो आगमने विषे जोवामां आव्या नथी, परंतु ग्रंथांतरमां जोयेला छे ते आ प्रमाणे - जे वचन बोलनुं ते गुणवाळं बोलवु जोइए. ते गुणो आ प्रमाणे - संस्कारवाळं १, उदात्त २, उपचारवाळु ३, गंभीर शब्दवाळु ४, अनुनादि ५, दक्षिण ६, उपनीतराग ७, मोटा अर्थवाळु ८, पूर्वापरनो संबंध न हणाय तेवुं ९, शिष्ट १०, संदेह रहित ११, बीजा वादीनो उत्तर हणाइ जाय तेयुं १२, (सांभळनारना) हृदय ने ग्रहण करे तेनुं (मनोहर) १३, देश काळने अनुसरतुं १४, तच्चने अनुसर १५, अप्रकीर्णप्रसृत १६, परस्पर संबंधवालुं १७, अभिजात १८, अति स्निग्ध अने मधुर १९, बीजाना सर्मने नहीं बींधनारुं २०, अर्थ अने धर्मवाळु २१, उदार २२, परनी निंदा अने पोताना उत्कर्ष रहित २३, प्रशंसाने पामेलं २४, अनपनीत २५, अविच्छिन्न कौतुकने उत्पन्न करनार २६, अद्भुत २७, अत्यंत विलंबवाएं नहीं एवं २८, विभ्रम, विक्षेप, किलिकिंचितादिक रहित २९, अनेक जातिना आश्रयथी विचित्र ३०, आहित विशेष ३१, साकार ३२, सत्त्वने ग्रहण करनाएं ( साविक ) ३३, खेद रहित ३४, विच्छेद रहित ३५. आवा प्रकारनुं वचन महानुभाव पुरुषोए बोलवु जोइए. [ तेमां संस्कारवाळु एटले संस्कृत विगेरे लक्षणवाळु १, उदात्तत्व एटले ऊंची वृत्तिवा (ऊंचे प्रकारे वर्तनारुं ) २, उपचारोपेतत्व एटले गामडीयापणा रहित ३, मेघनी जेवा गंभीर शब्दवाळं ४, अनुनादित्व एटले पडछंदा सहित ५, दक्षिणत्व एटले सरळ ६, उपनीतरागत्व एटले मालकोश विगेरे ग्राम अने रागे करीने सहित ७, आ सात अतिशयो शब्दनी अपेक्षावाळा छे, बाकीना सर्व ( २८ ) अर्थनी अपेक्षावाळा छे. तेमां महार्थत्व एटले मोटा अथवा ८, अव्याहतपौर्वापर्यत्व एटले पूर्व अने पछीना वाक्यमां विरोध न होय तेयुं ९, शिष्टत्व एटले इष्ट Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१३०॥ सिद्धांतमां कहेला अर्थवाएं अथवा वक्तानी सज्जनताने सूचनाएं १०, असंदिग्धत्व एटले संदेह रहित ११, अपहृतान्योरत्व एटले परना दूषणना अविषयवाळु १२, हृदयग्राहित्व एटले श्रोताना मनने हरण करे तेनुं १३, देशकालाव्यतीतत्व एटले प्रस्तावने उचित १४, तच्चानुरूपत्व एटले कहेवाने इच्छेली वस्तुना स्वरूपने अनुसरतुं १५, अप्रकीर्णप्रसृतत्व एटले सारा संबंधवाळा वचनना विस्तारवाएं अथवा असंबंध अने अनधिकारीपणाना अतिविस्तारना अभाववाळु १६, अन्योन्यगृहीतत्व एटले शब्दोनी अने वाक्योनी परस्पर अपेक्षा सहित १५, अभिनतत्व एटले कहेनारनी के कहेवा लायक पदाfit भूमिका अनुसर १८, अतिखिग्धमधुरत्व एटले अमृत अने गोळ विगेरेनी जेम सुख करनार १९, अपरमर्मवेधत्व - एटले परना मर्मने उघाडा न करे तेवुं २०, अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व एटले अर्थ अने धर्मना अभ्यास सहित २१ उदारत्व एटले कवा लायक अर्थनी अतुच्छता अथवा गुंथणीना विशेष गुणवा २२, परनिंदात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व एनो अर्थ प्रसिद्ध छे. २३, उपगतश्लाघत्व एटले कहेला गुणोनो संबंध होवाथी श्लाघाने पामे तेवुं २४, अनपनीतत्व एटले कारक ( कर्ता, कर्म विगेरेनी विभक्ति) काळ, वचन, लिंग विगेरेना व्यत्यय ( फेरफार ) रूप वचनना दोपथी रहित २५, उत्पादिता-च्छिन्नकौतूहलत्व एटले श्रोताओने पोताना विषयमां अविच्छिन्न (निरंतर) कौतुक उत्पन्न करे तेनुं २६, अद्भुतत्व अने अतिविलंबितत्व ए वेनो अर्थ प्रसिद्ध छे २७-२८, विभ्रमविक्षेप किलिकिंचितादिविमुक्तत्व - विभ्रम एटले बक्ताना मननी भ्रांति, विक्षेष एटले ते वक्ताना ज कहेवा लायक अर्थ प्रत्ये आसक्ति रहित, किलिकिंचित एटले क्रोध, भय, अभिलाप विगेरे भावोनुं एकसाथे वारंवार करयुं ते, ' आदि ' शब्दथी वीजा मनना दोपोनुं ग्रहण करयुं, ते सर्व दोपोथी रहित २९, समवाय ३५ ॥ ॥१३०॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक जातिना आश्रयथकी विचित्र, अहीं जाति एटले वर्णन करवा लायक वस्तुना स्वरूपनुं वर्णन कर ते ३०, आहितविशेषत्व एटले बीजा वचननी अपेक्षाएं विशेषता प्राप्त करे ते ३१, साकारत्व एटले छूटा छूटा ( स्पष्ट ) अक्षर, शब्द, वाक्य होवाथी आकारने प्राप्त करे ते ३२, सच्चपरिगृहीतत्व एटले साहस सहित ३३, अपरिखेदितत्व एटले प्रयासनी प्राप्ति रहित ३४. अन्युछेदित्व एटले कहेवाने इच्छेला अर्थनी सम्यक् प्रकारे सिद्धि थाय त्यांसुधी वचननुं प्रमाण निरंतर चाल्या करे तेवु. ३५. ] 46 तथा दत्त नामना सातमा वासुदेव अने नंदन नामना सातमा वळदेव आ वन्नेनुं आवश्यक सूत्रना अभिप्राये छवीश धनुष ऊंचा पणुं छे, अने ते वात प्रसिद्ध छे; केम के अरनाथ अने मल्लिनाथस्वामीना आंतरामां ते बन्नेने कला छे. ते विषे कर्तुं छे के'अरनाथ अने मल्लिनाथ स्वामीना आंतरामां पुरुषपुंडरीक अने दत्त ए वे वासुदेव थया छे.” तथा अरनाथ अने मल्लिनाथनुं उंचपणं अनुक्रमे - त्रीश अने पचीश धनुष प्रमाण कहुं छे. अने तेमना आंतरामां थयेला छठा अने सातमा वे वासुदेवोनुं ऊंचपशुं अनुक्रमे त्रीश अने छवीश धनुषनुं घटी शके छे, परंतु अहीं तो पांत्रीश धनुष कला छे, ते तो जो दत्त अने नंदन ए बने कुंथुनाथस्वामीना काळे थया होय तो घटी शके छे परंतु तेम तो जिनेश्वरोना आंतरामां कां नथी. तेथी आ पांत्रीश धनुषनी बाबत दुववोध छे ।३-४। सौधर्म देवलोकमा सौधर्मावतंसक विगेरे सर्व विमानोने विषे पांच पांच सभाओ होय छे- सुधर्मसभा १, उपपात सभा २, अभिषेकसभा ३, अलंकारसभा ४, व्यवसाय सभा ५ तेमां ( आ पांच सुभाने मध्ये सुधर्म सभा मध्य भागमां मणिपीठिकानी उपर साठ योजनना प्रमाणवाळो ( ऊंचो ) माणवक नामनो चैत्य Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र । चो अंग ॥१३१॥ स्तंभ छे. मां वज्रमय तथा गोळानी जेवा वृत्त-वर्तुल आकारवाळा समुद्गक एटले भाजनविशेष ( दाभडा ) छे तेने वि जिनसक्थि एटले मनुष्य लोकमां निर्वृतिने ( सिद्धिने) पामेला तीर्थकरोनां अस्थीओ रहेलां छे । ५ । बीजी पृथ्वीमां पचीश 'लाख नरकावासा छे अने चोथी पृथ्वीमां दश लाख छे तेथी ते बन्नेना मळीने पांत्रीश लाख थाय छे. । ६ ।। सूत्र - ३५ ॥ छत्री स्थानक कहे छे मू० - छत्तीसं उत्तरज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा - विणयसुयं १, परीसहो २, चाउरंगिज्जं ३, असंखयं ४, अकाममरणिज्जं ५, पुरिसविज्जा ६, उरब्भिज्जं ७, काविलियं ८, नमिपव्वज्जा ९, दुस१०, बहुपूजा ११, हरिएसिजं १२, चित्तसंभूयं १३, उसुयारिजं १४, सभिक्खुगं १५, समाहिठाणाई १६, पावसमणिजं १७, संजइज्जं १८, मियचारिया १९, अणाहपव्वज्जा २०, समुद्दपालि २१, रहनेमिज्जं २२, गोयमकेसिज्जं २३, समितिओ २४, जन्नति २५, सामायारी २६, खलुंकिज्जं २७, मोक्खमग्गगई २८, अप्पमाओ २९, तवोमग्गो ३०, चरणविही ३१, पमायठा• णाई ३२, कम्मपयडी ३३, लेसज्झयणं ३४, अणगारमग्गे ३५, जीवाजीवविभत्ती य ३६ । १ । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं होत्था । २ । समवाय ३६ ॥ ॥१३१॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छत्तीसं अजाणं साहस्सीओ होत्था । ३। चत्तासोएसु णं मासेसु सइ छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसिछायं निव्वत्तए । ४ ॥ सूत्रम्-३६ ॥ मूलार्थः-उत्तराध्ययनना छत्रीश अध्ययनो कयां छे. ते आ प्रमाणे-विनयश्रुत १, परीषह २, चातुरंगीय ३, असंखय ४, अकाममरणीय ५, पुरुपविद्या ६, उ(औ)रभ्रिक ७, कापिलीय ८, नमिप्रव्रज्या ९, द्रुमपत्रक १०, बहुश्रुतपूजा ११, हरिकेशीय १२, चित्रसंभूत १३, इषुकारीय १४, सभिक्षुक १५, समाधिस्थान १६, पापश्रमणीय १७, संयतीय १८, मृगचारिका १९, अनाथ प्रव्रज्या २०, समुद्रपालीय २१, रथनेमीय २२, गौतमकेशीय २३, समितीय २४, यज्ञीय २५, सामाचारी २६, खलुंकीय २७, मोक्षमार्गगति २८, अप्रमाद २९, तपोमार्ग ३०, चरणविधि ३१, प्रमादस्थान ३२, कर्मप्रकृति ३३, लेश्याध्ययन ३४, अनगारमार्ग ३५, तथा जीवाजीवविभक्ति ३६. ॥ १॥ .. असुरकुमारना राजा चमर नामना असुरेंद्रनी सुधर्मा सभा ऊंचाइवडे छत्रीश योजन ऊंची छे । २ । श्रमण भगवान | महावीरस्वामीने छत्रीश हजार साध्वीओ हती।३। चैत्र अने आश्विन मासमा एक दिवस सूर्य पोरसीनी छाया छत्रीश अंगुलनी नीपजावे छे । ४ ॥ टीकार्थ:-छत्रीशमं स्थानक स्पष्ट ज छे. विशेष ए के-चैत्र अने आश्विन मासने विष एक दिवस एटले व्यवहारथी पूर्णिमाने विषे अने निश्चयथी मेप संक्रांतिने दिवसे अने तुला संक्रातिने दिवसे छत्रीश अंगुलवाळी एटले त्रण पगलाना Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३७॥ श्री. प्रमाणवाळी पोरिसीने (नीपजावे छे.) कयु छ के-"चैत्र अने आश्विन मासने विपे पोरसी त्रण पगलाना प्रमाणसमवायाङ्गवाळी होय छे."।४॥ सूत्र-३६. सूत्र॥ हवे साडत्रीशमुं स्थान कहे छचोथु अंग मू०-कुंथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणहरा होत्था । १ । हेमवयहेरण्णवयाओ णं जीवाओ) ॥१३२॥ सत्ततीसं जोयणसहस्साइं छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणाओ आयामेणं पन्नत्ताओ । २ । सव्वासु णं विजयवेजयंतजयंतअपराजिआसु रायहा णीसु पागारा सत्ततीसं सत्ततीसं जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं पन्नत्ता । ३। खुड्डियाए णं विमाणप* विभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता । ४ । कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं परिसिछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ । ५॥ सूत्रम्-३७॥ मूलार्थ:-कुंथुनाथ अरिहंतने साडनीश गणधरो हता (१)। हैमवत अने औरण्यवतनी जीवा साडत्रीश हजार छ सो चुमोतेर ३७६७४ योजन अने एक योजनना ओगणीशीया सोळ भाग ( कळा ) कांइक विशेष ओछा एटली लंबाइमा कही छे (२)। सर्व विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित नामनी राजधानीओना प्राकार (किल्ला) ऊंचाइमा शा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 साडीश साडीश योजन ऊंचा कह्या छे (३) । क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति नामना कालिकतने विपे पहेला वर्गमां साडत्रीश उद्देशन काळ कथा छे (४) । कार्तिक वदि सातमने दिवसे सूर्य साडत्रीश अंगुलनी पोरिसीनी छाया नीपजावीने चार चरे छे ( गति करे छे ) (५) ॥ टीकार्थ :- साडीशमं स्थानक पण प्रगट छे. विशेष ए के - अहीं श्री कुंथुनाथना साडत्रीश गणधरो कह्या छे अने आवश्यकमां तो तेन्रीश सांभळ्या छे, ते मतांतर जाणवुं (९) । तथा हैमवता दिकक्षेत्रनी जीवानुं आ जे प्रमाण कहूं, तेनो संवाद करनारी आ गाथा छे - " साडत्रीश हजार छ सो अने चुमोतेर योजन तथा कांड़क ओछी सोळ कळा एटली हैमवत क्षेत्रनी जीवा छे. " अहीं कळा एटले योजननो ओगणीशमो भाग समजवो. (२) । तथा विजय विगेरे जंबूद्वीपना पूर्वादिक दिशामा चार द्वारो छे. तेमना नायक ते ज नामना देवो छे, तेमनी राजधानीओ पण ते ज नामवाळी छे. ते राजधानीओ अहींथी असंख्यातमा जंबू नामना द्वीपमां छे (३) । क्षुद्रिकाविमानप्रविभक्ति ए नामनुं कालिकश्रुत छे. तेमां अध्ययनना समुदायरूप घणा वर्गों छे. तेमांना पहेला वर्गमां दरेक अध्ययने उद्देशना जे काळ छे ते उद्देशन काळ कवाय छे (४) । जो चैत्र मासनी पूर्णिमाने दिवसे छत्रीश अंगुल प्रमाण पोरिसी छाया होय, त्यारे वैशाख वदि सातमने दिवसे एक अंगुली वृद्धि वाथी साडत्रीश अंगुलप्रमाण छाया थाय छे (ए ज प्रमाणे आश्विन पूर्णिमाथी कार्तिक वदि सातमे पण साडन्रीश अंगुल थाय छे ) (५) || सूत्र - ३७ ॥ त्रीभुं स्थान कहे छे हवे २३ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३८॥ समवायाङ्ग चो अंग ॥१३३|| मूलपासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अद्वतीसं अजिआसाहरूसीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था ।१ । हेमवयएरण्णवईयाणं जीवाणं धणूपिटे अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस एगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचि विसेसूणा परिक्खेवेणं पन्नत्ता । २ । अत्थस्स णं पवयरपणो बितिए कंडे अद्वतीसं जोयणसहस्साइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । ३ । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे अद्वतीसं उद्देसणकाला पत्नत्ता । ४॥ सूत्रम्-३८॥ मूलार्थ:-पुरुषादानीय (पुरुषोने मध्ये आदेय नामकर्मवाळा) श्री पार्श्वनाथ अरिहंतने आडत्रीश हजार साध्वीओरूपी उत्कृष्ट साध्वीसंपदा हती (१)। हैमवत अने ऐरण्यवत क्षेत्रनी जीवाचें धनुःपृष्ठ आडनीश हजार सात सो ने चाळीश ३८७४० योजन तथा एक योजनना ओगणीशीया दश भाग काइक विशेष ओछा परिक्षेपवडे' कयु छ (२) । मेरु नामना पर्वतराजनो चीजो कांड (विभाग) ऊंचाइवडे आडत्रीश हजार योजन ऊंचो छ (३)। क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिना वीजा वर्गमां आडनीश उद्देशन काळ कह्या छे (४)। टीकार्थः-आडत्रीशमुं स्थान प्रगट ज छे. विशेष ए के-'धणुपिटुंति' जंबूद्वीप नामना गोळ क्षेत्रमा हैमवत नामर्नु बीजं अने अरण्यवत नामर्नु छटुं क्षेत्र छे, ते वे क्षेत्रना प्रत्यंचा चडावेला धनुपना पृष्ठना आकारवाळा जे परिक्षेप १ परिक्षेप एटले धनु:पृष्ठनी लंबाइ..२. बीजा कांडनो प्रमथ भाग २५००० नो वाद करता आ प्रमाण आवे छे. न ॥१३३॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडो ते धनुपना पृष्ठ भाग जेवा होवाथी धनुपृष्ठ कहेवाय छे, अने तेना वे छेडाने विषे लांबी रहेली जे अजुप्रदेशनी पंक्ति ते जीवा (प्रत्यंचा) जेवी होवाथी जीवा कहेवाय छे. आ सूत्रनो संवाद करनार अर्धी गाथा आ प्रमाणे छे-"आडनीश हजार सात सो ने चालीश ३८७४० योजन तथा दश कळा, आटलुं धनुपर्नु (धनुपृष्ठन) प्रमाण छे" (२)। तथा 'अत्थस्स त्ति'-अस्त एटले मेरु, केम के ते मेरुना आंतरावाळो सूर्य अस्त पामे छे, तेथी अस्त एटले मेरु कहेवाय छे, ते मेरु नामना पर्वतराजनो एटले प्रधान गिरिनो बीजो कांड एटले विभाग आडत्रीश हजार योजन ऊंचपणे कह्यो छे. तथा मतांतरे त्रेसठ हजार योजन कह्यो छे. ते विष का छे के-" मेरुपर्वतना त्रण कांड (विभाग) छे. तेमां पहेलो कांड पृथ्वी, पथ्थर, वज्र अने शर्करा( कांकरा )मय छे, बीजो कांड रजत, जातरूप, अंकरत्न अने स्फटिक रत्नमय छ, तथा बीजो कांड एकाकारे जांबूनद( सुवर्ण )मय छे. तेमां पहेला कांडर्नु बाहल्य ( ऊंचपणुं ) एक हजार योजन- कह्यु छ, बीजा कांडनु त्रेसठ हजार योजन अने त्रीजा कांडनु छत्रीश हजार योजननुं चाहल्य कयुं छे, तथा मेरुनी उपरनी चूला चाळीश योजन ऊंची छे. (३)॥ सूत्र-३८॥ ___ हवे ओगणचाळीशमुं स्थान कहे छे.- मू०--नमिस्स णं अरहओ एगूणचत्तालीसं आहोहियसया होत्था । १। समयखेत्ते एगूण- | चत्तालीसं कुलपवया पन्नत्ता, तं जहा तीसं वासहरा, पंच मंदरा, चत्तारि उसुकारा । २ । दोच्च Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय ३९॥ चउत्थपंचमछटुसत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगूणचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ३।। समवायाज नाणावरणिज्जस्स मोहणिजस्स गोत्तस्स आउयस्स एयासि णं चउण्हं कम्मपगडीणं एगूणचत्तार॥ लीसं उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ।४॥ सूत्रम्-३९॥ चोधु अंग मूलार्थः-एकवीशमा नमिनाथ अरिहंतने ओगणचाळीश सो ३९०० अवधिज्ञानीओ हता (१)। समयक्षेत्रने विषे ॥१३४॥ (अढी द्वीपने विषे) ओगणचाळीश कुळपर्वतो कह्या छे. ते आ प्रमाणे-त्रीश वर्षधर पर्वतो, पांच मेरुपर्वतो अने चार इषुकार पर्वतो (२)। बीजी, चोथी, पांचमी, छठी अने सातमी आ पांच पृथ्वीने विषे ( मळीने कुल ) ओगणचालीश लाख नरकावासा कहेला छे (३) । ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र अने आयु आ चारे मूळ कर्मप्रकृतिनी उत्तरप्रकृतिओ ओगणचाळीश कहेली छे (४)। टीकार्थ:-ओगणचाळीशमुं स्थान प्रगट ज छे. विशेष एके-'आहोहिय त्ति' नियमित (अमुक) क्षेत्रना V विषयवाळा अवधिज्ञानीओ, तेओनी संख्या ओगणचाळीश सेंकडा ३९०० (१)। कुलपव्वय त्ति' क्षेत्रनी मर्यादा करनार होवाथी कुळनी जेवा जे पर्वतो ते कुळपर्वतो कहेवाय छे, कारण के कुळो जे ते लोकोनी मर्यादाना कारणरूप होय पछे, तेथी अहीं तेने कुळनी उपमा आपी छे. तेमां त्रीश वर्षधर पर्वतो आ प्रमाणे छे-जंबूद्वीपने विपे (६) धातकीखंडना पूर्वदिशाना अर्धभागमा (६) अने पश्चिम अर्धभागमां (६) तथा पुष्कराधना पूर्व अर्धभागमा (६) अने पश्चिम अर्ध Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमां (६) एम दरेकमा छ छ हिमवत विगैरे पर्वतो छ तेथी त्रीश थया, तथा मेरुपर्वत जंबूद्वीपमां १, धातकीखंडमां २ अने पुष्करार्धमा २ होवाथी पांच, तथा धातकीखंड अने पुष्कराधना पूर्व अने पश्चिम एवा वे विभाग करनारा चार इपुकार पर्वतो छ. ए सर्व मळीने ओगणचाळीश थाय छे (२)। 'दोचेत्यादि-बीजी पृथ्वीमां पचीश लाख, चोथीमां दश लाख, पांचमीमांत्रण लाख, छट्ठीमा एक लाखमां पांच ओछा अने सातमी पृथ्वीमां पांच ज. आ सर्व मळीने कहेली नरकावासनी संख्या (३९०००००) थाय छे (३)। 'नाणावरणिजेत्यादि'-ज्ञानावरणीयनी पांच, मोहनीय कर्मनी अठावीश, गोत्रकर्मनी वे अने आयुकमनी चार एम चार कर्मनी सर्व मळीने ओगणचाळीश उत्तरप्रकृतिओ थाय छे (४) ॥ सूत्र-३९ ॥ ___ हवे चाळीशमुं स्थान कहे छ___मू०--अरहओ णं अरिटुनमिस्स चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ होत्था । १। मंदरचूलियाणं चत्तालीसं जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं पण्णत्ता । २ । संती अरहा चत्तालीसं धणूइं उढे उच्चतेणं होत्था । ३। भूयाणंदस्स णं नागकुमारस्स नागरन्नो चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ४ । खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता । ५। फग्गुणपुण्णिमासीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वदृइत्ता णं चारं चरइ। ६ । एवं Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो) अंग ॥१३५॥ कत्तियाए वि पुषिणमाए।७।महासुक्के कप्पे चत्तालीसंविमाणावाससहस्सा पन्नत्ता बासूत्रम्-४०॥ ... मूलार्थ:-बावीशमा अरिहंत श्री अरिष्टनेमिने चाळीश हजार साध्वीओ हती (१)। मेरुपर्वतनी चूलिका ऊंचाइमां चालीश योजन छे (२) सोळमा अरिहंत श्री शांतिनाथ ऊंचाइमां चाळीश धनुष हता । (३) नागराज भृतानंद नामना नागकुमारने चाळीश लाख भवनावास ( भवनो) कह्या छे (४)। क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्तिना त्रीजा वर्गमां चाळीश उद्देशन काळ कह्या छे (५)। फागणनी पूर्णिमाने दिवसे सूर्य चाळीश अंगुलप्रमाण पोरसीनी छाया करीने चार चरे छ (गति करे छे) (६.)। एज प्रमाणे कार्तिक पूर्णिमाने दिवसे पण जाणवू (७)। महाशुक्र नामना सातमा कल्पमां चाळीश हजार विमानावास ( विमानो) कह्या छे (८)॥ टीकार्थ:-चाळीशमुं स्थान प्रगट छे. विशेष ए के-केटलाक पुस्तकमा 'वइसाहपुषिणमासिणीए' (वैशाखनी पूर्णिमाने दिवसे) एवो पाठ जोवामां आवे छे, ते पाठ ठीक नथी. अहीं तो 'फग्गुणपुन्निमासिणीए' (फागणनी पूर्णिमाने दिवसे) एवो पाठ कहेवा योग्य छे. केम? ते कहे छे-पोसे मासे चउप्पया' (पोप मासमां चार पगलानी पोरिसी होय छे ) एवं वचन होवाथी पोष मासनी पूर्णिमाने दिवसे अडताळीश आंगळनी ते (पोरिसी) थाय छे, त्यार पछी माघना चार आंगळ अने फागणना चार आंगळ (एम आठ आंगळ ) वाद थया, तेथी फागणनी पूर्णिमाने दिवसे चाळीश आंगळनी पोरिसीनी छाया थाय छे. तथा कार्तिकनी पूर्णिमाए पण एज प्रमाणे जाणवू. केम के 'चेतासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी' (चैत्र अने आश्विन मासमां (पूर्णिमाए )त्रण पगलानी पोरिसी होय छे) एम कां ॥१३५॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 1578 S छे. तेथी ऋण पगलाना छत्रीश आंगळ थाय, ते कार्तिक मासमां जवाथी चार आंगळनी वृद्धि करतां चाळीश आंगळ प्रमाण ते पोरिसी थाय छे एम सिद्ध थयुं । ( ६-७ ) ।। सूत्र-४० ॥ हवे एकताळीश स्थान कहे छे मू० - नमिस्स णं अरहओ एगचत्तालीसं अज्जियासाहस्सीओ होत्था । १ । चउसु पुढवीसु एकचत्तालीसं निरयावाससय सहस्सा पन्नत्ता, तं जहा - रयणप्पभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए |२| महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एकचत्तालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता ॥३॥ सूत्रम् - ४१॥ मूलार्थ:- नमिनाथ अरिहंतने एकताळीस हजार आर्याओ हती ( १ ) । चार नरक पृथ्वीने विषे एकताळीश लाख नरकावासा का छे. ते आ प्रमाणे - रत्नप्रभा, पंकप्रभा, तमा अने तमतमा ( २ ) । महलियाविमानप्रविभक्तिना पहेला वर्गमा एकताळीश उद्देशन काळ कला छे. (३) ॥ टीकार्थ :- एकताळीश स्थान सुगम छे. विशेष ए के ' चउसु' इत्यादिक क्रमे करीने कहेली पहेली, चोथी, छठ्ठी. अने सातमी ए चार नरकपृथ्वीने विषे त्रीश लाख, दश लाख, पांच ओछा एक लाख अने मात्र पांच नरकावासा होवाथी कहेली संख्या ( ४१००००० ) थाय छे ( २ ) ॥ सूत्र-४१ ॥ वेताळीशमं स्थानक कहे छे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाज पोधु अंग ॥१३६॥ - मू०-समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाइं साहियाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता | समवाय सिद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे । १ । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्सा ४२ ॥ णं आवासपवयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं बायालीसं जोयणसहस्साइं अबाहातो अंतरं पन्नत्तं । २। एवं चउद्दिसि पि दोभासे संखोदयसीमे य । ३ । कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा बायालीसं सूरिया पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा । ४ । संमुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता ।५॥ नामकम्मे बायालीसविहे पन्नत्ते, तं जहा-गइनामे १, जाइनामे २, सरीरनामे ३, सरीरंगोवंगनामे ४, सरीरबंधणनामे ५, सरीरसंघायणनामे ६, संघयणनामे ७, संठाणनामे ८, वपणनामे ९, गंधनामे १०, रसनामे ११, फासनामे १२, अगुरुलहुयनामे १३, उवघायनामे १४, पराघायनामे १५, आणुपुबीनामे १६, उस्सासनामे १७, आयवनामे १८, उज्जोयनामे १९, विहगगइनामे २०, तसनामे २१, थावरनामे २२, सुहुमनामे २३, बायरनामे २४, पज्जत्तनामे २५, अपजत्तनामे २६, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहारणसरीरनामे २७, पत्तेयसरीरनामे २८, थिरनामे २९, अथिरनामे ३०, सुभनामे ३१, असुभनामे ३२, सुभगनामे ३३, दुब्भगनामे ३४, सुसरनामे ३५, दुस्सरनामे ३६, आएजनामे ३७, अणाएजनामे ३८, जसोकित्तिनामे ३९, अजसोकित्तिनामे ४०, निम्माणनामे ४१, तित्थकरनामे ४२ । ६ । लवणे णं समुद्दे बायालीसं नागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारंति । ७ । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए वितिए वग्गे बायालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता । ८। एगमेगाए ओसपिणीए पंचमछट्ठीओ समाओ बायालीसं वाससहस्साइं कालेणं पन्नत्ताई।९। एगमेगाए उस्सप्पिणीए पढमबीयाओ समाओ बायालीसं वाससहस्साइं कालेणं पन्नत्ताई । १०॥ सूत्रम्-४२॥ ... मूलार्थः-श्रमण भगवान महावीरस्वामी काइक अधिक बेंताळीश वर्ष चारित्रपर्याय पाळीने सिद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया (१)। जंबूद्वीप नामना द्वीपनी पूर्व दिशाना छेडाथी एटले जगतीथी लइने गोस्तुभ नामना आवास पर्वतनी पश्चिम दिशाना छेडा सुधी बेंताळीश हजार योजन- अवाधाए (निरंतर) आंतरं कह्यु छ (२)। एज प्रमाणे, चारे दिशामां दकभास, शंख अने दकसीम पर्वतर्नु पण आंतरं कहे, (३)। कालोद नामना समुद्रने विषे बेंताळीश चंद्रो प्रकाश करता हता, प्रकाश करे छे अने प्रकाश करशे, ते ज प्रमाणे बेताळीश सूर्यो तपता हता, तपे छे अने तपशे (४) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१३७॥ समूर्च्छिम भुजपरिसर्पनी उत्कृष्ट स्थिति बेंताळीश हजार वर्षनी कही छे ( ५ ) । नामकर्म वेताळीश प्रकारनुं कं छे. ते आ प्रमाणे - गतिनाम १, जातिनाम २, शरीरनाम २, शरीरांगोपांगनाम ४, शरीरबंधननाम ५, शरीरसंघातननाम ६, • संहनननाम ७, संस्थाननाम ८, वर्णनाम ९, गंधनाम १० रसनाम ११ स्पर्शनाम १२, अगुरुलघु नाम १३, उपघातनाम १४, पराधातनाम १५, आनुपूर्वीनाम १६, उकासनाम १७, आतपनाम १८, उद्योतनाम १९, विहायोगतिनाम २०, नाम २१, स्थावरनाम २२, सूक्ष्मनाम २३, बादरनाम २४, पर्याप्तनाम २५, अपर्याप्तनाम २६, साधारणशरीरनाम २७, • प्रत्येकशरीरनाम २८, स्थिरनाम २९, अस्थिरनाम ३०, शुभनाम ३१, अशुभनाम ३२, सुभगनाम ३३, दुभगनाम ३४, सुवरनाम ३५, दुःस्वरनाम ३६, आदेयनाम ३७, अनादेयनाम ३८, यशः कीर्तिनाम ३९, अयशः कीर्तिनाम ४०, निर्माणनाम ४१ अने तीर्थकरनाम ४२ ( ६ ) । लवणसमुद्रने विषे वेताळीश हजार नागदेवता आभ्यंतर वेळाने धारण करे छे (७) । महाविमानप्रविभक्तिना बीजा वर्गमां बेताळीश उद्देशन काळ कथा छे ( ८ ) | दरेक अवसर्पिणीनो पांचमो अने छडो ए वे आरानो काळ वेताळीश हजार वर्षनो को छे (९) । दरेक उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो ए वे आरानो काळ वेताळीश हजार वर्षनो को छे (१० ) ॥ टीकार्थ :- ताळीश स्थानक प्रगट ज छे. विशेष ए के –'बायालीसं ति' छद्मस्थपर्यायमां चार वर्ष, छ मास अने अर्ध मास तथा केवळीपर्याय कांइक ओछा त्रीश वर्ष एम पर्युषणाकल्पमां बेंताळीश वर्षनो ज महावीरस्वामीनो दीक्षापर्याय कह्यो छे, परंतु अहीं तो बेताळीशथी अधिक कह्यो छे, तेमां पर्युपणाकल्पने विषे जे कांइक अधिक छे ते कहेवाने समवाय ४२ ॥ ॥१३७॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | इच्छथु नथी एम संभवे छे. 'जाव' शब्द कह्यो छ माटे बुद्ध, मुक्त, अंतकृत, परिनिर्वृत अने सर्व दुःखपहीण ए सर्व || विशेषणो जाणवा (१)।'जंबूद्वीपस्य' इत्यादि सूत्रमा पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ त्ति'--जग परिधिना छेडाथी नीकळीने वेलंधर नागराजना गोस्तूभ नामना आवास पर्वतना पश्चिम दिशाना छेडा सुधी जेटलं आंतरं छे, ' एस णं'--ते आंतरूं उताळीश हजार योजन- कयुं छे. 'अंतर' शब्दवडे करीने (शब्दनो अर्थ) विशेष पण कहेवाय छे, तेथी का के-'अबाहाए त्ति'-व्यवधाननी अपेक्षाए जे अंतर होय ते अर्थात् जंबूद्वीपनी जगतीथी ४२००० योजन दर ए चारे द्वीपो छे. (२)। 'कालोए णं त्ति'--धातकी खंडने वींटीने रहेला कालोद नामना समुद्रने विषे (४)। 'गइनामेत्यादि'--जे( नामकर्म )ना उदयथी जीव नारकादिकपणाए करीने करवामां आवे छे ते गतिनाम १, जेना उदयथी एकेंद्रियादिक थाय छे, ते जातिनाम २, जेना उदयथी औदारिकादिक शरीरने करे छे ते शरीरनाम ३, जेना उदयथी मस्तकादिक अंगोनो अने अंगुल्यादिक उपांगोनो विभाग थाय छे ते शरीरांगोपांगनाम कहेवाय छे ४, तथा पूर्व बांधेला अने ( वर्तमानकाळे ) बंधाता औदारिकादिक शरीरना पुद्गलोनो संबंध करवानुं जे कारण छे ते शरीरबंधननाम ५, तथा ग्रहण करेला औदारिकशरीरना पुद्गलोनी जेना उदयथी शरीररूपे रचना थाय, ते शरीरसंघातनाम ६, तथा जेना उदयथी हाडकांओनी तथाप्रकारनी शक्तिना कारणरूप विशेष रचना थाय, ते संहनननाम ७, | जेना उदयथी समचतुरस्र विगेरे संस्थान थाय, ते संस्थान नाम ८, तथा जेना उदयथी वर्णादिक (वर्ण. गंध. विशेषवाळां शरीर थाय, ते वर्णादिकनाम ( वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम ) कहेवाय छे ९-१२, तथा जेना उद Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ४२॥ श्री यथी जीवोने पोताना शरीरर्नु अगुरुलघुपणुं थाय छे, ते अगुरुलघुनाम १३, तथा जेनाथी पडिजीभी विगेरे अंगनो अवयव समवायाङ्ग पोताने ज उपघात करनार थाय छे, ते उपघातनाम १४, तथा जेनाथी पोताना दाढ, चामडी विगेरे अंगना अवयव विष स्त्र ॥ जेवा थइने बीजाने स्पर्शादिथी उपघात करनार थाय ते पराघातनाम १५, तथा जेना उदयथी अंतराल गतिने विपे चोधू अंग (एक भवथी वीजा भवने विषे) जीव जाय छे, ते आनुपूर्वीनाम १६, तथा जेना उदयथी उच्छ्वास अने निःश्वास ( श्वासोच्छ्वास )नी प्राप्ति थाय छे (सुखे लेवाय छे) ते उच्छ्वास नाम १७, तथा जेना उदयथी जीव तापनी ॥१३८॥ जेवा उष्ण शरीरवाळो थाय ते आतपनाम. ते सूर्यबिंबमा रहेला पृथ्वीकायने होय छे १८, तथा जेना उदयथी उष्णता रहित उद्योतवालं शरीर थाय, ते उद्योतनाम १९, तथा जेना उदयथी शुभ अने अशुभ गमनवाळो थाय, ते विहायोगति नाम २०, स विगेरे आठ नाम प्रसिद्ध अर्थवाळा छे २८, तथा जेनाथी स्थिर एवा दांत विगेरेनी उत्पत्ति थाय, ते स्थिरनाम २९, तथा जेनाथी भृकुटि, जिह्वा विगेरे अस्थिर अवयवोनी उत्पत्ति थाय, ते अस्थिरनाम ३०, एज प्रमाणे • मस्तक विगेरे शुभ अवयवोनी उत्पत्ति थाय, ते शुभनाम ३१, पादादिक अशुभनी उत्पत्ति थाय, ते अशुभनाम ३२, शेष नाम प्रसिद्ध छे ३३ थी ४२ तेमां विशेष ए के-जेना उदयथी जन्म जन्मने विपे जीवना शरीरमा स्त्री विगेरे लिंगनो ( आकार नियमित थाय, ते सूत्रधार (सुथार ) जेवू निर्माणनाम कहेवाय छे (६)। अवसर्पिणीनो पांचमो अने छठो आरो ते दुष्पमा अने एकांत दुष्पमा नामनो जाणवो (९)। उत्सर्पिणीनो पहेलो अने बीजो आरो ते एकांत दुष्पमा अने दुष्षमा नामनो जाणवो (१०) ॥ सूत्र-४२॥ ॥१३८॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे तेंताळीशमं स्थान कहे छे मू० — तेयालीसं कम्मविवागज्झयणा पन्नत्ता । १ । पढमच उत्थपंचमासु पुढवीसु तेयाली सं . निरयावास सय सहस्सा पन्नत्ता । २ । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत् । ३ । एवं चउद्दिसिं पि दगभागे संखे दयसीमे । ४ । महालियाए णं विमाणपवि - भति तये वग्गे तेयालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता । ५ । सूत्रम् - ४३ । मूलार्थ:- कर्मविपाकना तैताळीश अध्ययनो कला छे (१) । पहेली, चोथी अने पांचमी नरकपृथ्वीने विषे (त्रणेना मळीने ३०-१०-३ ) तेंताळीश लाख नरकावासा का छे (२) । जंबूद्वीप नामना द्वीपनी पूर्वदिशाना छेडाथी आरंभी गोस्तुभ नामना आवास पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडा सुधी तेंताळीश हजार योजननुं अबाधाए करीने आंतरुं कहेलुं छे (३) । एज प्रमाणे चारे दिशामां दकभास, शंख अने दकसीम पर्वतनुं पण आंतरुं कहेतुं ( ४ ) । महालिका विमानप्रविभक्तिना त्रीजा वर्गना तेंताळीश उद्देशन काळ कला छे ( ५ ) ॥ टीकार्थः -- तताळीशमा स्थानक विषे पण कांइक लखाय छे-' कम्मविवागज्झयण त्ति ' - पुण्यपापरूप कर्मना विपाकने - फळने प्रतिपादन करनारां जे अध्ययनो ते कर्मविपाकाध्ययन कहेवायं छे (ते तेंताळीश कला छे), आ अध्ययनो Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय ४४॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ -चोy अंग ॥१३९॥ अग्यारमा अने बीजा अंगमा मळीने संभवे 'छे (१)। 'जंबूद्दीवस्स णमित्यादि' जंबूद्वीपनी पूर्व दिशाना अंतथी गोस्तूभ पर्वत बेंताळीश हजार योजन (दूर ) छे अने ते(पर्वत)नो विष्कंभ एक हजार योजन तथा बावीश योजन जे अधिक छे तेनी विवक्षा न करवाथी कुल तेताळीश हजार थाय छे (३)।' एवं चउद्दिसि पित्ति'--अहीं उपर कहेली (पूर्व) दिशानो आमां अंतर्भाव (समावेश) होवाथी चार दिशाओ कही छे. एम न होय तो 'एवं तिदिसि पि' एम कहेवू जोइए. तेमां आ प्रमाणे आलावो कहेवो-"जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ दओभासस्स णं आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते" (जंबूद्वीप नामना द्वीपनी दक्षिण दिशाना अंतथी दकभास नामना आवासपर्वतना दक्षिण छेडा सुधी तेंताळीश हजार योजननुं अबाधाए आंतरं कयुं छे), एज प्रमाणे बीजा के सूत्र कहेवा. तेमां विशेष ए के-पश्चिम दिशामां शंख अने उत्तर दिशामां दकसीम नामना आवासपर्वत जाणवा (४) ॥ सूत्र-४३ ॥ .. हवे चुमाळीशमुं स्थान कहे छे.-- · मू०-चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुयाभासिया पन्नत्ता । १। विमलस्स IN णं अरहओ णं चउआलीसं पुरिसजुगाई अणुपिटिं सिद्धाइं जाव प्पहीणाई । २। धरणस्स णं . १. विपाकसूत्रना तो २० अध्ययनो ज छे. ॥१३९॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागिंदस्स नागरण्णो चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ३। महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता । ४ ॥ सूत्रम्-४४ ॥ ___ मूलार्थः--ऋषिभाषित चुमाळीश अध्ययनो छे, ते देवलोकमांथी चवीने (मुनि थइने) कहेला छे (ते सूत्रनुं नाम ज | ऋषिभाषित छे.) (१)। श्रीविमलनाथ अरिहंतना चुमाळीश पुरुषयुग (शिष्य-प्रशिष्यादिक ) अनुक्रमे सिद्ध थया छेद यावत् सर्व दुःखथी रहित थया छे (२) । नागकुमारना राजा धरणेंद्र नामना ( दक्षिण बाजुना ) नागेंद्रना चुमाळीश लाख | भवनो छे (३) । महालिका विमानप्रविभक्तिना चोथा वर्गमां चुमालीश उद्देशन काळ कह्या छे (४)॥ टीकार्थः-चुमाळीशमा स्थानकमां पण काइक लखाय छे-चुमाळीश ऋषिभाषित सूत्रना अध्ययनो कालिकश्रुतना| विशेषभूत देवलोकथकी चवेला ऋषिरूपे ( मुनि ) थइने कहेलां छे. कोइ ठेकाणे “ देवलोयचुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासियज्झयणा पन्नत्ता" (देवलोकथी चवेला ऋषिओना चुमाळीश ऋषिभाषित अध्ययनो कहेला छे) एवो पाठ छ (१) । 'पुरिसजुगाई ति'-पुरुष एटले शिष्य-प्रशिष्यादिकना क्रमे रहेला, युगनी जेवा एटले काळविशेषनी जेवा, अनुक्रमना समान धर्मवाळा होवाथी (एटले के जेम काळ अनुक्रमे होय छे तेम आ पुरुषयुग पण अनुक्रमे-पाटपरंपराए जाणवा). 'अणुपिहिं ति'-अनुक्रमे. कोइ ठेकाणे 'अणुबंधेण' एवा पाठांतरमा तृतीया विभक्ति जोवामां आवे छे तेथी अनुबंधे करीने एटले निरंतरपणाए करीने सिद्ध थया एम कहे. अहीं 'जाव' शब्द लख्यो छे, तेथी बुद्ध, मुक्त, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ४५॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथु अंग ॥१४॥ अंतकृत, सर्वदुःखथी हीन थया एम जाणवू (२)। महालिका विमानप्रविभक्तिना चोथा वर्गमां चुमाळीश उद्देशन काळ कया छे (४) सूत्र-४४॥ हवे पीस्ताळीशमुं स्थान कहे छे.-- मू०-समयखेत्ते णं पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते ।१। सीमंतए । णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । २। एवं उडविमाणे वि ।। इंसिपब्भारा णं पुढवी एवं चेव । ४ । धम्मे णं अरहा पणयालीसं धणूइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था ।५। मंदरस्स णं पवयस्स चउद्दिसि पि पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।६। सवे वि णं दिवडखेत्तिया नक्खत्ता पणयालीसं मुहत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा-तिन्नेव उत्तराई, पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥ ७ । महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसणकाला पन्नत्ता ॥ ८॥ सूत्रम्-४५॥ मूला:-समयक्षेत्र( अढी द्वीप )नो आयामविष्कंभ पीस्ताळीश लाख योजननो कह्यो छे (१)। सीमंतक नामनो ॥१४॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M नरकावास पीस्ताळीश लाख योजन आयामविष्कंभवडे कह्यो छे (२)। एज प्रमाणे उड नामनुं विमान (प्रथम देवलोकन पहेला प्रतरतुं मध्य विमान) पण कहेवू (३)। ईषत्प्राग्भार नामनी पृथ्वी पण एज प्रमाणे कहेवी (४)। धर्मनाथ अरिहंत ऊंचाइमां पीस्तालीश धनुष उंचा हता (५) । मेरुपर्वतनी चारे दिशामां पीस्ताळीश पीस्ताळीश हजार योजन- अवाधाए आंतरं कर्तुं छे (६)। सर्वे दोढ क्षेत्रवाळा नक्षत्रो पीस्ताळीश मुहूर्त सुधी चंद्रनी साथे योगने पामता हता, पामे छे अने पामशे. ते नक्षत्रो आ छे-"त्रण उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी अने विशाखा-आ छ नक्षत्रो पीस्ताळीश मुहूर्त्तना संयोगवाळा छे." (७) महालिकाविमानप्रविभक्तिना पांचमा वर्गमां पीस्ताळीश उद्देशन काळ कहेला छे (८)॥ . टीकार्थः-पीस्ताळीशमा स्थानकमां आ प्रमाणे लखे छे-समयक्षेत्र एटले काळवडे करीने जणातुं क्षेत्र, अर्थात् मनुष्यक्षेत्र ( अढी द्वीप) (१)। सीमंतक एटले पहेली नरकपृथ्वीना पहेला पाथडाना मध्यभागमा रहेलो जे गोळ नरकेंद्र छे ते सीमंतक नामनो छ (२)। 'उडुविमाणे त्ति'-सौधर्म अने ईशान देवलोकना पहेला पाथडामा रहेल चारे विमाननी आवलिका( श्रेणि )ना मध्य भागमा रहेल गोळ उडु विमान नामर्नु विमानकेंद्रक छे (३)। 'ईसिपम्भार त्ति'-सिद्धनी पृथ्वी (शिला)(४)। 'मंदरस्सणं पव्वयस्स' ए सूत्रमा लवणसमुद्रना आभ्यंतर परिधिनी अपेक्षाए आंतरूं जाणवू (मेरुपर्वतथी चारे दिशाए ४५०००-४५००० योजन जंबूद्वीपनी जगती छे त्यारपछी लवण समुद्र छे.) | (६) सब्वे वि णमित्यादि'---चंद्रने त्रीश मुहूर्त सुधी भोगववा लायक जे नक्षत्रनुं क्षेत्र, ते समक्षेत्र कहेवाय छे. तेज अर्ध सहित होय ते व्यर्धक्षेत्र कहेवाय छे, केम के जेमां बीजुं अर्ध होय ते व्यर्ध एवी व्युत्पत्ति थाय छे तेथी आवा प्रकारचें। ... Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोधुं अंग ॥ १४१ ॥ क्षेत्र जेमने होय ते ( दोढ ) क्षेत्रवाळा नक्षत्रो कहेवाय छे. तेथी करीने ज पीस्ताळीश मुहूर्त्त चंद्रनी साथे योगनेसंबंधने जोडे छे-करे छे. ते नक्षत्रो देखाडवा माटे ' तिन्नेव ' ए गाथा लखी छे. त्रण उत्तरा एटले उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा अने उत्तराभाद्रपद जाणवा. (७) || सूत्र - ४५ ॥ हवे छैताळीशमं स्थान कहे छे- मू० - दिट्टिवायरस णं छायालीसं माउयापया पन्नत्ता | १| बंभीए णं लिवीए छायालीसं मायक्खरा पन्ना । २ । पभंजणस्स णं वाउकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससयस हस्ता पन्नत्ता | ३ ॥ सूत्रम् - ४६ ॥ मूलार्थ:-- दृष्टिवादना छैताळीश मातृकापद कह्या छे (१) । ब्राह्मी लिपिना छैताळीश मातृकाक्षर कला छे (२) । प्रभंजन नामना वायुकुमारेंद्रना छेताळीश लाख भवनो कथा छे (३) ॥ टीकार्थ:-- हवे छैताळीशमा स्थानकमां कांइक लखे छे -दृष्टिवाद एटले वारमुं अंग, तेना ' माउयापय त्ति '-- जेम सर्व वाङ्मय ( शास्त्र ) ना अकारादिक मातृकापदो छे, तेम दृष्टिवादना अर्थने उत्पन्न करवा ( जणाववा ) ना कारण होवाथी उत्पाद, विगम अने धौव्य ए मातृकापदो छे, ते पदो सिद्धश्रेणि, मनुष्यश्रेणि विगेरे विषयोना भेदने लीघे कोइ पण प्रकारे भेद पाम्या सता ( सर्व मळीने ) छैताळीश थाय छे, एम संभवे छे (१) । तथा 'बंभीए णं लिवीए त्ति' समवाय ४६ ॥ * ॥ १४१ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लखवानी विधिमा ताळीश मातृकाक्षरो छे, ते अकारथी आरंभीने हकार पर्यंत लेवा, तेमां एक क्ष वधारवो. तथा ऋऋललूळ आ पांच अक्षर लेवा नहिं एम संभवे छे. (चार स्वर वर्जवाथी विसर्ग पर्यंतना बार, स्पर्शव्यंजन पचीश, अंतःस्थ चार, उष्माक्षर चार अने एक क्षवर्ण, ए सर्व मळीने छेताळीश वर्णो थाय छे) (२)। प्रभंजन नामनो उत्तर दिशा तरफनो वायुकुमारेंद्र छे. (३) ॥ सूत्र-४६ ॥ ___ हवे सुडताळीशमुं स्थान कहे छे-- मू-जया णं सूरिए सवभितरमंडलं उवसंकमित्ता णं चार चरइ तया णं इहगयस्स मणूसस्स सत्तचत्तालीसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एकवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हवमागच्छइ (१)। थेरे णं अग्गिभूई सत्तचालीसं वासाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए । २॥ सूत्रम्-४७॥ - मूलार्थ:-ज्यारे सूर्य सर्व आभ्यंतर (पहेला) मंडळने पामीने चार चरे छ (गति करे छे) त्यारे अहीं रहेला मनुष्यने सुडताळीश हजार, बसो ने वेसठ ४७२६३ योजन तथा एक योजनना साठीया एकवीश भाग एटले दूरथी सूर्य चक्षुना स्पर्श प्रत्ये शीघ्र आवे छे (जोवामां आवे छे) (१) । स्थविर भगवान अग्निभूति सुडताळीश वर्ष गृह मध्ये वसीने पछी मुंड थइने ( चारित्र लइने ) घरथकी अनगारपणे प्रव्रज्या लइ विचर्या (२)॥ सब Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१४२॥ टीकार्थ:-- हवे सुडतालीशमा स्थानकमां कांइक कहे छे' जया णमित्यादि ' - अहीं एक लाख योजनप्रमाण जंबूद्वीपनी बन्ने बाजुएं एक सो एंशी एक सो एंशी योजन (३६०) बाद करवाथी सर्व आभ्यंतर सूर्यमंडळनो विष्कंभ ९९६४० योजन छे. तेनी परिधि त्रण लाख, पंदर हजार, ने नेवाशी ३१५०८९ थाय छे, आटली परिधिना प्रमाणने सूर्य साठ मुहूर्त्ते ओळंगे हे, तेथी तेने साठे भागाकार करवाथी एक मुहूर्त्तनी गति पांच हजार, बसो ने एकावन योजन तथा एक योजना साठीया ओगणत्रीश भाग ५२५१३३ प्राप्त थाय छे. तथा ज्यारे आभ्यंतर मंडळमां सूर्य चाले छे, त्यारे दिवसनुं प्रमाण अढार मुहूर्त्तनुं होय छे, तेना अर्ध करवाथी नव मुहूर्त्त थाय, ते नववडे एक मुहूर्त्तनी जे गति ( ५२५१३ ) आवी छे तेने गुणवा, तेम करवाथी जे चक्षुस्पर्शनुं प्रमाण ( ४७२६३३१ ) कह्युं छे ते प्राप्त थाय छे (१) । अग्गिनूइ त्ति '- अग्निभूति महावीरस्वामीना बीजा गणधर, तेनो अहीं सुडताळीश वर्षनो गृहवास कह्यो छे, अने आवश्यकमां तो जे छैताळीश वर्षनो कह्यो छे, ते सुडताळीश वर्ष संपूर्ण नहीं होवाथी तेनी विवक्षा करी नथी, अने अहीं असंपूर्णने पूर्ण कहेवानी इच्छाथी कहेल छे, एम संभवे छे, तेथी विरोध नथी (२) ॥ सूत्र- ४७ ॥ हवे अडताळीशमं स्थान कहे छे मू० - एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवहिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पन्नत्ता । १ । धम्म• स णं अरहओ अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा होत्था । २ । सूरमंडले णं अडयालीसं समवाय ४८ ॥ ॥१४२॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसविभागे जोयणस्स विक्खंभेणं पन्नत्ता। ३ ॥ सूत्रम्--४८॥ मूलार्थः-एक एक ( दरेक ) चारे दिशाना अंत सुधीना (चातुरंत ) चक्रवर्ती राजाने अडताळीश हजार पट्टणो कह्या छ (१)। श्रीधर्मनाथ अरिहंतने अडताळीश गणो अने अडताळीश गणधरोहता (२) । सूर्यमंडळनो (तेना विमाननो पण) विष्कंभ एक योजनना एकसठीया अडताळीश भाग जेटलो कह्यो छे (३)॥ टीकार्थ:-अडताळीशमा स्थानकमां कांइक लखे छे-'पट्टण त्ति'-विविध देशना करीयाणा आवीने ज्यां पडता होय-वेचाता होय ते पत्तन एटले नगर विशेष कहेवाय छे. तथा केटलाक पत्तन एटले रत्नभूमि एम पण कहे छे (१)। “धम्मस्स त्ति'-धर्मनाथ एटले पंदरमा तीर्थकरने अहीं अडताळीश गण अने गणधर कह्या छे, परंतु आवश्यकमां तो ताळीश कह्या छे, ते मतांतर जाणवू (२)। सूर्यमंडळ एटले सूयेनु विमान, तेज अडताळीश भाग एटले के तेर भागे न्यून ए, एक योजन आटलुं सूर्य विमान छ (३) सूत्र--४८॥ * हवे ओगणपचासमुं स्थान कहे छे मू०-सत्तसत्तमियाए णं भिक्खुपडिमाए एगूणपन्नाए राइदिएहिं छन्नउइभिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आराहिया भवइ । १ । देवकुरुउत्तरकुरुएसु णं मणुया एगूणपन्ना राइंदिएहिं संपन्नजोव्वणा भवंति ।। तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगणपन्ना राइंदिया ठिई पन्नत्ता । ३॥सूत्रम्-४९॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV... समवाय ५०॥ समवायाङ्ग सूत्र॥ --चोथु अंग G ... मूलार्थ:-सात सप्तमिका नामनी भिक्षुप्रतिमाना ओगणपचास रात्रिदिवस थाय छे, ते प्रतिमा एक सो ने छन्नु भिक्षा 9 (दत्ति )वडे सूत्रमा कह्या प्रमाणे आराधेली थाय छ (१)। देवकुरु अने उत्तरकुरुना मनुष्यो ओगणपचास रात्रिदिवसे । यौवन अवस्थाने पामेला थाय छे (२)।त्रींद्रियोनी स्थिति उत्कृष्टथी ओगणपचास रात्रि दिवसनी कही छे (३)॥ टीकार्थ:-हवे ओगणपचासमा स्थानकमां लखे छे-जेमां सातमा दिवसो सात रहेला होय ते सप्तसप्तमिका एटले के सात सप्तकमां सात सात दिवसो होय, तेथी ते सप्तसप्तमिका सात दिवसर्नु सप्तक होवाथी ओगणपचास दिवसे पूर्ण थाय छे. 'पडिम त्ति'-प्रतिमा एटले अभिग्रह. 'छन्नउएणं भिक्खासएणं त्ति'-पहेला सात दिवसे हमेशा एक एक दत्तिनी वृद्धि होवाथी (१-२-३-४-५-६-७ मळीने) अठावीश दत्ति थाय छे, ए प्रमाणे साते सप्तकमां (२८-२८ होवाथी) एक सोने छन्नु दत्ति थाय छे. अथवा तो दरेक सप्तके एक एक दत्ति वधारवाथी कहेली दत्तिनुं प्रमाण आवे छे, ते आ प्रमाणे पहेला सप्तकमां हमेशा एक एक दत्ति ग्रहण करवाथी सात दत्ति थइ, बीजा सप्तकमां वेवे दत्ति लेवाथी चौद दत्ति थइ, ए प्रमाणे सातमा सप्तकमा सात सात दत्ति ग्रहण करवाथी ओगणपचास दत्ति थाय छे, ते सर्व मळीने कहेलुं प्रमाण (१९६) थाय छे. यथासूत्र एटले आगममां कह्या प्रमाणे सम्यक् प्रकारे कायावडे स्पर्श करेली थाय छे एम अध्याहार जाणवो (१) । यौवन पामेला थाय छे एटले माता-पिताना परिपालननी अपेक्षा करता नथी (२)। स्थिति एटले आयुष्य (३) ॥ सूत्र-४९॥ • हवे पचासमुं स्थान कहे छे मू०- मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ पंचासं अजियासाहस्सीओ होत्था । १। अणंते णं अरहा ॥१४॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नासं धणूई उङ्कं उच्चतेणं होत्था । २ । पुरिसुत्तमे णं वासुदेवे पन्नासं धणूई उड्डुं उच्चत्तेणं हथा । ३ । सव्वे विणं दीहवेयड्डा मूले पन्नासं पन्नासं जोयणाणि विक्खंभेणं पन्नत्ता । ४। लंत कप्पे पन्नासं विमाणवाससहस्सा पन्नत्ता । ५ । सव्वाओ णं तिमिस्सगुहाखंडगप्पवायगु - हाओ पन्नास पन्नासं जोयणाई आयामेणं पन्नत्ता । ६ । सव्वे विणं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पन्नत्ता । ७ ॥ सूत्रम् - ५० ॥ मूलार्थ: - मुनिसुव्रत अरिहंतने पचास हजार साध्वीओ हती (१) । अनंतस्वामी अरिहंत पचास धनुष ऊंचा हता (२) । पुरुषोत्तम नाना वासुदेव पचास धनुष ऊंचा हता (३) । सर्वे दीर्घवैताढ्य पर्वतो मूळमां पचास पचास योजन विष्कंभवडे ( विष्कंभवाळा एटले पोळा ) कह्या छे (४) । लांतक देवलोकमां पचास हजार विमानो का छे (५) । सर्वे तमिस्रा गुहाओ अने खंडग्रपात गुहाओ पचास पचास योजन (वैताव्य पर्वत प्रमाणे) लांबी कही छे (६) । सर्वे कांचनपर्वतो शिखर उपर पचास पचास योजन विष्कंभवाळा कह्या छे (७) ॥ टीकार्थ:- हवे पचासमुं स्थानक कहे छे हता (३) । ' कंचण त्ति ' -उत्तरकुरुने विषे पश्चिम दिशामा दश दश कांचनगिरि छे, तेथी ते तेमां पुरुषोत्तम एटले चोथा वासुदेव अनंतस्वामी जिनेश्वरने वारे थला नीलवत विगेरे पांच महाहूदो अनुक्रमे रहेला छे, ते दरेक इदोनी पूर्वसर्व मळीने सो थया. ए ज प्रमाणे देवकुरुने विषे निषधादिक महाइदोनी, Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ५१॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो, अंग ॥१४४॥ वे बाजुए मळीने पण सो कांचनगिरि छे. ते सर्वे थइने जंबूद्वीपमा बसो थया. ते सर्वे सो योजन ऊंचा छे, मूळमां सो योजन विष्कंभवाळा छे ( उपर ५० योजन छे) तथा तेना शिखरो ते ते नामना देवोना निवासभूत भवनोवडे अलंकृत (शोभित) छे (७) । सूत्र-५०॥ हवे एकावनमुं स्थान कहे छ--- - मू०-नवण्हं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसणकाला पन्नत्ता ।१। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावन्नखंभसयसंनिविट्ठा पन्नत्ता । २ । एवं चेव बलिस्स वि । ३। सुप्पभे णं बलदेवे एकावन्नं वाससयसहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे । ४। दंसणावरणनामाणं दोण्हं कम्माणं एकावन्नं उत्तरकम्मपगडीओ पन्नत्ताओ। ५॥ सूत्रम्-५१ ॥ मूलार्थ:--नव ब्रह्मचर्य अध्ययनना एकावन उद्देशन काळ कह्या छे (१)। असुरकुमारना राजा चमर नामना असुरेंद्रनी सुधर्मा नामनी सभा एकावन सो स्तंभ सहित कही छे (२)। एज प्रमाणे बलींद्रनी पण जाणवी (३)। सुप्रभ नामना बळदेव एकावन लाख वर्षनुं परम आयुष्य (कुल आयुष्य) पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (४)। दर्शनावरण अने नाम ए वे कर्मनी मळीने उत्तरकर्म प्रकृतिओ एकावन कही छे (५)॥ टीकार्थ:-हवे एकावनमुं स्थान कहे छे-ब्रह्मचर्य एटले आचारांगना पहेला श्रुतस्कंधना शस्त्रपरिज्ञा विगेरेनव अध्ययनो ॥१४४॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ तेमा पहेला अध्ययनमा सात उद्देशा छे तेथी सात ज-उद्देशन काळ समजवा १, एज प्रमाणे बीजा विगेरे अध्ययनोमां का अनुक्रमे छ २, चार-३, चार ४, एज प्रमाणे छ. ५, पांच ६, आठमामां चार-४, ने नवमामां८ सातमा महापरिज्ञा | अध्ययनमा सात उद्देशा छे, ते अध्ययन विच्छेद पाम्यु छे, तेथी पहेलां पण छेडे ज अध्ययनना उल्लेखमां कई छे, ते अहीं पण छेडे ज सातमाना उद्देशा कह्या छे. सर्व मळीने एकावन थया (१)। सुप्रभ ए चोथा वळदेव । श्री अनंतजित जिनेश्वरने समये थया छे. तेनुं अहीं एकावन लाख वर्षतुं आयुष्य कडं, पण आवश्यक सूत्रमा तो पंचावन लाखनु का छे, ते मतांतर जाणवू (४)। एकावन उत्तरप्रकृतिओ कही ते आ प्रमाणे-दर्शनावरणनी नव अने नामकमेनी बेताळीश, ते बन्ने मळीने एकावन समजवी (५) ॥ सूत्र-५१ ॥ हवे. बावनमुं स्थान कहे छेMIमू-मोहणिजस्स णं कम्मस्स बावन्नं नामधेज्जा पन्नत्ता, तं जहा-कोहे १, कोवे २, रोसे ३, दोसे al, अखमा ५, संजलणे६, कलहे.७, चंडिके ८, भंडणे ९, विवाए १०, माणे ११, मदे १२, दप्पे १३, व थंभे १४, अत्तुकोसे १५, गवे १६, परपरिवाए १७,अकोसे १८, अवकोसे (परिभवे) १९, उन्नए २०, १. शस्त्रपरिज्ञामां. ७, २ लोकविजयमां ६, ३ शीतोष्णमां ४, ४ सम्यक्त्वमा ४, ५ लोकसारमा ६, ६ धूतमा ५, ७ सातमु Kा महापरिज्ञा विच्छेद गयेल छे तेमा ७, ८ आठमा विमोक्षमा ४, ९ अहीं नवमुं लखेल के छापेल प्रतमा नथी तेमां ८-कुल ५१ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LO समवाय ५२॥ उन्नामे २१, माया २२, उवही २३, नियडी २४, वलए २५, गहणे २६, णूमे २७, कके २८, कुरुए । समवायाङ्ग / २९, दंभे ३०, कूडे ३१, जिम्हे ३२, किब्बिसे ३३, अणायरणया ३४, गृहणया ३५, वंचणया ) पत्र॥ ३६, पलिकुंचणया ३७, सातिजोगे ३८, लोभे ३९, इच्छा ४०, मुच्छा ४१, कंखा ४२, गेही ४३, चोg अंग तिण्हा ४४, भिजा ४५, अभिज्जा ४६, कामासा ४७, भोगासा ४८, जीवियासा ४९, मरणासा ॥१४५॥ ५०, नंदी ५१, रागे ५२ । १ । गोथूभस्त णं आवासपवयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं बावन्नं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते । २ । एवं दगभासस्स णं केउगस्स संखस्स जूयगस्स दगसीमस्स ईसरस्स । ३ । नाणावरणिज्जस्स नामस्स अंतरायस्स एतेसि णं तिण्हं कम्मपगडीणं बावन्नं उत्तरपयडीओ पन्नत्ताओ।४। सोहम्मसणंकुमारमाहिदेसु तिसु कप्पेसु बावन्न विमाणवासरायसहस्सा पन्नत्ता। ५॥ सूत्रम्-५२॥ मूलार्थ:--मोहनीय कर्मना बावन नाम कह्या छे, ते आ प्रमाणे-क्रोध १, कोप २, रोप ३, दोप४,अक्षमा ५, संज्वलन ६, कलह ७, चांडिक्य ८, भंडण ९, विवाद १०, मान ११, मद १२, दर्प १३, स्तंभ १४, आत्मोत्कर्ष १५, गर्व १६, परपरिवाद १७, आक्रोश. १८, अपकर्ष (परिभव) १९, उन्नत २०, उन्नाम २१, माया २२, उपधि २३, निकृति २४, वलय | ॥१४॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५, ग्रहण २६, न्यवम २७, कल्क २८, कुरुक २९, दंभ ३०, कूट ३१, जैम ३२, किल्बिष ३३, अनादरता ३४, गृहनता ३५, वंचनता ३६, परिकुंचनता, ३७, सातियोग ३८, लोभ ३९, इच्छा ४०, मूर्छा ४१, कांक्षा ४२, गृद्धि ४३, तृष्णा ४४, भिध्या ४५, अभिध्या ४६, कामाशा ४७, भोगाशा ४८, जीविताशा ४९, मरणाशा ५०, नंदी ५१, राग ५२ (१) । ५. गोस्तूभ नामना आवास पर्वतनी पूर्व दिशाना छेल्ला अंतथी वडवामुख नामना महा पातालकलशनी पश्चिम दिशाना छेडा सुधीमां बावन हजार योजननुं अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (२)। एज प्रमाणे (दक्षिणमा रहेला) दकभास पर्वतना पूर्व छेडाथी केतुक नामना पातालकळशनु, तथा ( पश्चिममा रहेला ) शंख नामना पर्वतना पूर्वांतथी यूप नामना पातालकलशर्नु, अनेर ( उत्तरमा रहेला ) दकसीम नामना पर्वतना पूर्वांतथी ईश्वर नामना पातालकलशनुं आंतरं बावन वावन हजारचं जाणवू ला . (३) । ज्ञानावरणीय, नाम अने अंतराय ए त्रणे (मूळ ) कमप्रकृतिनी मळीने वावन उत्तरप्रकृतिओ कही छे (४) । सौधर्म, सनत्कुमार अने माहेंद्र ए त्रणे देवलोकना थइने कुल बावन लाख विमानावास (विमानो) कह्या छे (५)॥ टीकार्थ:-हवे बावनमुं स्थान कहे छे-तेमां मोहनीय कर्मना अवयव( विभाग )रूप क्रोधादिक चार कपायोने विषे " अवयवने विषे समुदायनो उपचार थाय छे" ए न्याये करीने मोहनीयनो उपचार करवाथी मोहनीय कर्मना बावन नाम छे एम का छे. तेमां पण सर्वे (चारे) कषायनी अपेक्षाए बावन नाम छे, परंतु एक एक ( दरेक) कपायना नहीं. तेमां क्रोध विगेरे दश नामो क्रोध कषायना छे. तेमां'चंडिके 'नो अर्थ चांडिक्य (चंडपणुं) एवो करवो. तथा मान विगेरे अग्यार नाम मान कषायना छे. तेमां ' अत्तुक्कोसे'-एटले आत्मोत्कर्ष, ' अवक्कोसे '-एटले अपकर्ष, 'उन्नए'-एटले Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समनाय उन्नत, पाठांतरे 'उन्नामे'-एटले उन्नाम (ऊंचु-अकड रहे ते), तथा माया विगेरे सत्तर नाम माया कपायना छे. समवायाजतेमा णूमे'-एटले न्यवम (नीचुं नमी जq ते ), 'क' एटले कल्क, 'कुरुए -एटले कुरुक, 'जिम्हे'-एटले पत्र॥ जैल (वक्रता) । तथा लोभ विगेरे चौद नाम लोभ कपायना छे. तेमा भिजा अभिज ति'-अभिध्यान ते अभिध्या, चो' अंग अहीं 'तीत ''विधान' इत्यादिकनी जेम विकल्पे अकारनो लोप थवाथी भिध्या अने अभिध्या एवा वे शब्द थवाथी वे नाम आप्या छे ( अर्थात् अभिध्या शब्दमां अकार निषेधवाळो नथी)(१)।' गोथूमेत्यादि'-गोस्तूभ नामनो ॥१४६॥ पर्वत पूर्व दिशामां लवणसमुद्रनी मध्ये वेलंधर नागराजनो निवासभूत छे. तेनी पूर्व तरफना छेडाथी नीकळीने (आरंभीने) वडवामुख नामना महा पातालकलशनी पश्चिम दिशाना अंत सुधी वचमां जे व्यवधान (आंतरं) थाय छे, ते आंतरं। अबाधाए करीने एटले व्यवधान विना बावन हजार. योजनः थाय छे, ए.प्रमाणे अक्षरार्थ करवो. तेनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-अहीं लवण समुद्रमां पंचाणुं हजार योजन अवगाहीने ( दूर जइए ) त्यां- पूर्वादिक दिशामां अनुक्रमे वडवामुख, केतुक, युप अने ईश्वर नामना चार महा पातालकलशो छ, तथा जंबूद्वीपना (तेनी जगतीना) छेडाथी बेंताळीश हजार योजन अवगाहीए त्यां हजार हजार योजनना विष्कंभवाळा गोस्तूभ विगेरे चार पर्वतो वेलंधर नागराजना निवासभूत छे. तेथी पंचाणुमांथी तालीश बाद करवाथी वावन हजार वाकी रहे छे, तेटलं आंतरूं थाय छे (२) । तथा सौधर्ममा बत्रीश लाख विमान छे, सनत्कुमारमा बार-लाख छे अने माहेंद्रमा आठ लाख छे, ते सर्वे मळीने बावन लाख थाय छे (५)। सूत्र-५२॥ हवे त्रेपनमुं स्थान कहे छ AL ॥१४॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० -देवकुरुउत्तरकुरुयाओ णं जीवाओ तेवन्नं तेवन्नं जोयणसहस्साई साइरेगाई आयामेणं पन्नत्ताओ |१| महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपवयाणं जीवाओ तेवन्नं तेवन्नं जोयणसहस्साइं नव यः एगती से जोयणसए छच्च एगूणवासइभाए जोयणस्स आयामेणं पन्नत्ताओ । २ । समणस्स भगवओ महावीरस्स तेवन्नं अणगारा संवच्छर परियाया पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु महावि माणेसु देवत्ताए उववन्ना । ३ । संमुच्छिमउरपरिसप्पाणं उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई. पन्नत्ता । ४ ॥ सूत्रम् - ५३ ॥ मूलार्थ:- देवकुरु अने उत्तरकुरुनी जीवानो आयाम (लंबाइ) कांइक अधिक त्रेपन त्रेपन हजार योजन कह्यो छे (१) । महाहिमवान अने रुक्मी ए वे वर्षधर पर्वतनी जीवानो आयाम त्रेपन हजार नव सो ने एकत्रीश योजन ( ५३९३१ ) अने एक योजना ओगणीशीया छ भाग कह्यो छे ( २ ) । श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामीना त्रेपन साधुओ एक वर्षनी दीक्षा पर्यायवाळा थइने अनुत्तर नामना मोटा उत्सवना स्थानरूप महा विमानाने विषे देवपणे उत्पन्न थया छे ( ३ ) संमूर्छिम उरपरिसर्पनी उत्कृष्ट स्थिति त्रेपन हजार वर्षनी कही छे ( ४ ) ॥ टीकार्थ:- हवे त्रेपनमा स्थानकमां कांइक लखे छे - महाहिमवानना सूत्रमां जे कयुं छे तेनो संवाद करनारी गाथा आ प्रमाणे छे - "महाहिमवान पर्वतनी जीवा त्रेपन हजार नव सो ने एकत्रीश योजन तथा साडी छ कळा कही छे." (२) । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ १४७॥ ' संच्छरपरियाग त्ति ' - एक वर्ष सुधीनो प्रव्रज्या लक्षणवाळो पर्याय जेओनो छे ते संवत्सर पर्यायवाळा कहेवाय छे. ' मह महालएसु ' - मोटा एटले विस्तारवाळा जे अति महालय एटले अत्यंत उत्सवोना आश्रयरूप, ते महातिमहालय कहेछे. एवा 'महाविमाणेसु' - मोटा एटले प्रशस्त एवा जे विमानो ते महाविमानो कहेवाय छे एम (कर्मधारय समासनो) विग्रह करो. आ (एक वर्षना पर्यायवाळा साधुओ) अप्रसिद्ध छे (बीजे कोइ ठेकाणे आ बात कहेली जाणी नथी.) परंतु अनुत्तरोपपातिक नामना अंगमां तो जे कह्या छे ते तेत्रीश कया छे अने घणा वर्षना पर्यायवाळा कह्या छे (३) ॥सूत्र - ५३ ॥ हवे चोपनमुं स्थानक कहे छे मू० - भरवसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए ओसप्पिणीए चउवन्नं चउवन्नं उत्तम• पुरिसा उप्पजिंसु वा उष्पज्जति वा उप्पजिस्संति वा, तं जहा - चउवीसं तित्थकरा बारस चक्कवडी नव बलदेवा नव वासुदेवा । १ । अरहा णं अरिट्ठनेमी चउवन्नं राइंदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता जिणे जाण केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी । २ । समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिज्जाए चउप्पन्नाई वागरणाई वागरित्था । ३ । अनंतस्स णं अरहओ चउपन्नं गणहरा • होत्था । ४ ॥ सूत्रम् - ५४ ॥ समवाय ५४ ॥ ॥१४७/८ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ... मूलार्थः-भरत अने ऐरवत क्षेत्रने विषे एक एक (दरेक) उत्सर्पिणीमां अने अवसर्पिणीमां चोपन चोपन उत्तम पुरुषो उप्तन्न थया हता, उत्पन्न थाय छ, अने उत्पन्न थशे. ते आ प्रमाणे--चोवीश तीर्थंकरो, बार चक्रवर्तीओ, नव बळदेवो अने नव वासुदेवो (१)। अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान चोपन रात्रिदिवस छद्मस्थपर्याय पाळीने जिन थया, सर्वज्ञ थया अने सर्वभाव(पदार्थ)ने जोनारा थया (२)। श्रमण भगवान महावीरस्वामीए एक ज दिवसे एक ज आसने वेसीने चोपन व्याकरणोने (प्रश्नोत्तरोने) कह्या हता (३)। श्री अनंतनाथ अरिहंतने चोपन गणधरो हता (४)॥ टीकार्थः--चोपनमा स्थानकने विपे काइक लखे छे--' पाउणित्ता'--एटले पामीने (२)। 'एगणिसेजाए त्ति'-- एक आसनने ग्रहण करवावडे ( एक ज आसने बेसीने) 'वागरणाई त्ति' जे व्याकरण कराय एटले कहेवाय ते व्याकरण कहेवाय छे एटले के कोइनो प्रश्न थाय त्यारे उत्तररूपे कहेवाता पदार्थो, तेने व्याकृतवान् एटले कह्या हता. आ| वात अप्रसिद्ध छे (३)। अहीं अनंतनाथना चोपन गणधरो कह्या छे, पण आवश्यकमांहे तो पचास कह्या छे तेथी आ मतांतर जाणवू (४) ।। सूत्र--५४ ॥ हवे पंचावनमुं स्थान कहे छे-- मू०-मल्लिस्स णं अरहओ पणपन्नं वाससहस्साइं परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव ... १. आमा नव प्रतिवासुदेव भेळववाथी ६३ उत्तम ( शलाका ) पुरुषो थाय छे. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय भी समवायाङ्ग पो अंग " ॥१४॥ पहीणे ११ मंदरस्स णं पवयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ विजयदारस्स पच्चच्छिामल्ले चरमंते एस णं पणपन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।२। एवं चउद्दिसि पि वेजयंतजयंतअपराजियं ति । ३ । समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । ४ । पढमाबिइयासु दोसु पुढवीसु पणपन्नं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ५। दंसणावरणिज्जनामाउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणपन्नं उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ । ६ ॥ सूत्रम्-५५॥ मूलार्थ:----श्रीमल्लिनाथ स्वामी भगवान पंचावन हजार वर्षनुं संपूर्ण आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया (१)। मेरु पर्वतना पश्चिम तरफना छेडाथी आरंभीने विजय द्वारना पश्चिम छेडा सुधीनुं अबाधाए आंतरूं पंचावन हजार योजनन का छे (२) । एज प्रमाणे चारे दिशामां (बाकीनी त्रण दिशामां) वैजयंत, जयंत अने अपराजित ए त्रण द्वारर्नु आंतरूं कहेg (३) । श्रमण भगवान महावीर स्वामी छेल्ली रात्रिए पंचावन अध्ययन पुण्यफळना विपाकवाळा अने पंचावन अध्ययन-पापफळना विपाकवाळा प्ररूपीने (कहीने) सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (४)। पहेली अने बीजी ए वे नरकपृथ्वीने विपे पंचावन लाख नरकावासा कह्या छे (५)। दर्शनावरणीय, नाम अने आयु ए त्रण मूळ कर्मप्रकृतिनी पंचावन उत्तरप्रकृतिओ कही छे. (६)॥ . ॥१४८॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थः – पंचावनमा स्थानकमां आ प्रमाणे लखे छे - अहीं मेरु पर्वतना पश्चिम तरफना छेडाथी जंबूद्वीपना पूर्व दिशाना द्वारनो पश्चिम छेड़ो पंचावन हजार योजन प्रमाण छे एम: पहेलां कयुं छे. तेमां मेरुना विष्कंभना मध्यभागथी पचास हजार योजन जइए त्यां जंबूद्वीपनो छेडो होय छे, केमके ते द्वीप लाख योजनना प्रमाणवाळो छे तेथी; तथा मेरुनो विष्कंभ दश हजार योजननो छे तेथी द्वीपना अर्धमां (पचासमां ) पांच हजार नांखवाथी पंचावन हजार ज थाय छे. जो के अहीं विजय द्वारनो पश्चिम छेड़ो कह्यो छे तो पण जगतीनो पूर्व छेडो समजवो एम संभवे छे, केम के मेरुना मध्यभागथी • जगतीना छेडा सुधीनुं प्रमाण पचास हजार योजन संपूर्ण थाय छे अने जंबूद्दीपनी जगतीना विष्कंभ सहित जंबूद्वीपना लाख योजन पूर्ण थाय छे, ते ज प्रमाणे लवण समुद्रनी जगतीना विष्कंभ सहित लवण समुद्रनुं प्रमाण वे लाखनुं संपूर्ण थाय छे. अन्यथा जो द्वीप अने समुद्रना प्रमाणथी जूटुं जगतीनुं प्रमाण गणवामां आवे तो मनुष्यक्षेत्रनी परिधि कही छे तेथी वारे थवी जोइए, केमके ते परिधि तो पीस्ताळीश लाख योजन प्रमाणवाळा क्षेत्रनी अपेक्षाए ज कहेवामां आवे छे. तेना करतां वधी जवी जोइए; अथवा तो अहीं कांइक न्यून छतां संपूर्ण पंचावननी संख्या कहेवाने इच्छी छे एम जाणवुं (२) । ' अंतिमरायंसि त्ति ' - सर्व आयुष्यना काळनी छेल्ली रात्रिए रात्रिना छेल्ला भागे ( पहोरे ) पापा नामनी मध्यमा नगरीमा हस्तिपाळ राजानी: कार्यसभामां कार्तिक मासनी अमावास्याए स्वाति नक्षत्रमां चंद्र रहे सते नाग नामनुं करण: सते- प्रातःकाळे पर्यकासने बेठेला भगवान पंचावनः अध्ययनो कल्याणना एटले पुण्यकर्मना फळने - कार्यने प्रगट करनारा. अने एजः प्रमाणे पाप फळने प्रगट करनारा ( पंचावन अध्ययनो ) ने कहीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, 'यावत्' शब्द होवाथी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग पूत्र ॥ चो अंग ॥१४९॥ मुक्त थया, अंत करनार थया, परिनिर्वृत थया अने सर्व दुःखथी रहित थया एम जाणवुं ( ४ ) । 'पढमेत्यादि' पहेली पृथ्वी लाख नरकावासा छे, अने बीजी पृथ्वीमां पचीश लाख छे, ते बन्ने मळीने पंचावन लाख थाय छे (५) । ' दंसणेत्यादि ' - दर्शनावरणीयनी नव उत्तरप्रकृतिओ छे, नामकर्मनी वेताळीश अने आयुष्यनी चार, ए सर्व मळीने पंचावन थाय छे ( ६ ) ।। सूत्र - ५५ ॥ हवे छप्पनमुं स्थान कहे छे मू० - जंबूद्दीवे णं दीवे छप्पन्नं नक्खत्ता चंद्रेण सद्धिं जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा । १ । विमलस्स णं अरहओ छप्पन्नं गणा छप्पन्नं गणहरा होत्था । २ ॥ सूत्रम् - ५६ ॥ मूलार्थ:-- जंबुद्वीप नामना द्वीपमां छप्पन नक्षत्रो चंद्रनी साथै योगने पाम्या हता, योगने पामे छे अने योगने पामशे ( १ ) | श्री विमळनाथ नामना अरिहंतने छप्पन गणो अने छप्पन गणधरो हता ( २ ) ॥ टीकार्थः - हवे छप्पनमा स्थानकमां लखे छे जंबूद्वीपने विषे वे चंद्र छे, ते दरेकने अठ्ठावीस नक्षत्रो होवाथी वे चंद्रना मळीने छप्पन नक्षत्रो थाय छे (१) । अहीं विमळनाथना छप्पन गणो अने गणधरो कला छे अने आवश्यक सूत्रमां . तो सत्तावन का छे तेथी आ मतांतर जाणवुं. ( २ ) ॥ सूत्र- ५६ ॥ हवे सत्तावन स्थान कहे छे समवाय ५६ ॥ ॥१४९॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ READ - मू०-तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावज्जाण सत्तावन्नं अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा| आयारे सूयगडे ठाणे । १ । गोथूभस्स णं आवासपवयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावन्नं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे | पन्नत्ते । २ । एवं दगभासस्स केउयस्स य संखस्स य जूयस्स य दयसीमस्स ईसरस्स य । ३।। मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावन्नं मणपज्जवनाणिसया होत्था । ४। महाहिमवंतरूप्पीणं वासहर पत्वयाणं जीवा णं धणुपिटुं सत्तावन्नं सत्तावन्नं जोयणसहस्साइं दोन्नि य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पन्नत्तं । ५॥ सूत्रम्-५७ ॥ मूलार्थ:--आचारांग सूत्रनी चूलिकाने वर्जीने त्रण गणिपिटकना (कुल) सत्तावन अध्ययनो कह्या छे, ते व्रण आ प्रमाणे-आचारांग, सूत्रकृतांग अने स्थानांग (१)। गोस्तूभ नामना आवास पर्वतनी पूर्वदिशाना छेडाथी आरंभीने वडवामुख नामना महा पातालकलशना बराबर मध्यदेश भाग सुधीमां सत्तावन हजार योजनन अबाधाए आंतरं कडं (२)। ए ज प्रमाणे दक्षिणना दकमास पर्वत अने केतुक नामना महा पातालकलश, पश्चिमना शंख पर्वत अने यूप नामना महा पातालकलशनुं तथा उत्तरना दकसीम पर्वत अने ईश्वर नामना महा पातालकलशनुं आंतरं ( सत्तावन सत्तावन N साथ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ॥१५०॥ श्री हजार योजनन) जाणवू (३) । मल्लिनाथ तीर्थकरना सत्तावन सो साधुओ मनःपर्यवज्ञानवाळा हता (४)। महाहिमवान समवायाङ्ग अने रुक्मी ए बे वर्षधर पर्वतोनी जीवाना धनुःपृष्ठनी परिधि (लंबाइ) सत्तावन हजार बसो ने त्राणुं (५७२९३) योजन पत्र तथा एक योजनना ओगणीश भाग करीए तेवा दश भाग प्रमाण कही छे (५)॥ चोधं अंग टीकार्थ:--हवे सत्तावनमा स्थानक विषे कांडक लखे छे--गणिपिडगाणं ति'--गणिना एटले आचार्यना पिटक(पेटी)नी जेवा पिटक एटले सर्वस्वना भाजन( पेटी के. कंडीया )रूप ए अध्याहार छे. आ गणिपिटक कया कया ? ते कहे छे--आचार एटले बे श्रुतस्कंधवाल्लं पहेलं अंग, तेनी चूलिका एटले छेल्लुं अध्ययन जे विमुक्ति नामर्नु, ते आचारचूलिका कहेवाय छे, तेने वर्जीने (तेना सिवाय ), तेमा आचारांगना पहेला श्रुतस्कंधमां नव (९) अध्ययनो छ, अने बीजा श्रुतस्कंधमां निशीथ नामर्नु अध्ययन प्रस्थानांतर ( जुदा विषयवारों ) होवाथी तेनी गणतरी अहीं नहीं कर-। वाथी सोळ अध्ययनो छे. ते सोळने मध्ये पण एक आचारचूलिकानो त्याग करवाथी शेष पंदर अध्ययनो रह्या (१५), सूत्रयू' कृत नामना वीजा अंगना पहेला श्रुतस्कंधमां सोळ (१६) अध्ययनो छे, बीजामांसात (७) छे, तथा स्थानांगमा दश (१०)। अध्ययनो छे, ते सर्व मळीने सत्तावन अध्ययनो थाय छ (१)। 'गोथूभ०' इत्यादि सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छेताळीश हजार योजन (जंबूद्वीपनी) वेदिका अने गोस्तुभ पर्वतर्नु आंतरुं छे, गोस्तूभ पर्वतनो विष्कम एक हजार योजननो छे, ए प्रमाणे ४३ हजार योजन जतां गोस्तूभ अने वडवामुखर्नु आंतरं बावन हजार योजन प्रमाण छे तथा वडवामुखनो विष्कंभ दश हजार योजननो छे, (तेनो मध्य भाग लेवो छे तेथी) तेनुं अर्ध करवाथी पांच हजार योजन आवे छे, तेथी ॥१५॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन हजारमां पांच हजार भेळववाथी सत्तावन हजार योजन थाय छे (२) । जीवानुं धनुःपृष्ठ एटले मंडळना खंडना आकारवाळु क्षेत्र. आ सूत्रनो संवाद करनार अर्धगाथा आ प्रमाणे छे - " सत्तावन हजार बसो ने त्राणु योजन तथा उपर दश कळा एटलं धनुःपृष्ठ कह्युं छे " (५) ॥ सूत्र- ५७ ।। हवे अहान स्थानक कहे छे- मू० - पढमदोच्चपंचमासु तिसु पुढवीसु अट्ठावन्नं निरयावास सय सहस्सा पन्नत्ता । १ । नाणावरणिजस्स वेयणियआउयनामअंतराइयस्स एएसि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं अट्ठावन्नं उत्तरपगओ पन्नताओ | २ | गोथूभस्स णं आवासपवयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायास्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ३ । एवं चउदिसिं पि नेवं । ४-५-६ ॥ सूत्रम् - ५८ ॥ मूलार्थ:-- पहेली, बीजी अने पांचमी ए त्रण नरकपृथ्वीने विषे अठ्ठावन लाख नरकावासा का छे (१) । ज्ञानावरणी, वेदनीय, आयु, नाम अने अंतराय ए पांच (मूळ) कर्मप्रकृतिनी अठ्ठावन उत्तरप्रकृतिओ कही छे (२) । गोस्तूभ नामना आवास पर्वती पश्चिम दिशाना छेडाथी आरंभीने वडवामुख नामना महापातालकळशना बराबर मध्यभाग सुधी अठावन हजार योजन प्रमाण अबाधाए आंतरुं कह्युं छे (३) । ए ज प्रमाणे चारे दिशामां जाणवुं (४-५-६) ॥ २६ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ५९॥ समवाया चोधु अंग ॥१५॥ टीकार्थ:--अहावनमा स्थानकने विये काइक लखे छे-'पढमेत्यादि'-तेमा पहेली नरकपृथ्वीने विषे त्रीश लाख नरकावासा छे, बीजीमां पचीश लाख अने पांचमी नरकपृथ्वीमांत्रण लाख नरकावासा छे, ते सर्वे मळीने अठ्ठावन लाख थाय छ (१)। 'नाणेत्यादि'-ज्ञानावरणीय कर्मनी पांच, वेदनीयनी बे, आयुनी चार, नामनी ताळीश अने अंतराय कर्मनी उत्तरप्रकृति पांच, ए सर्व मळीने अहावन उत्तरप्रकृति थाय छे (२)। गोथूभस्स'-इत्यादि सूत्रनो भावार्थ पूर्व कह्या प्रमाणे जाणवो. (३) । एज प्रमाणे चारे दिशामा जाणवू, एम कहेवाथी व्रण सूत्रनी भलामण करी छे, ते त्रण सूत्र आ प्रमाणे--दकभास नामना आवास पर्वतनी उत्तर दिशाना छेडाथी केतुक नामना महापातालकळशना वरावर मध्य प्रदेशना भाग सुधी अट्ठावन हजार योजन प्रमाण अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (४)। ए ज प्रमाणे शंख नामना आवास पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी आरंभीने युप नामना महा पातालकलशनु (५)। तथा ए ज प्रमाणे दकसीम नामना आवास पर्वतनी दक्षिण दिशाना छेडाथी आरंभीने ईश्वर नामना महापातालकलशना बराबर मध्य प्रदेश सुधीनुं अबाधाए आंतरं अट्ठावन हजार योजननुं कहेवु (६)॥ (लवणसमुद्रमा ४२ हजार योजन पछी आवासपर्वतो छ एटले तेनी पछीना ५३००० अने पाताळकळशना मुखना अर्ध भागना ५००० मळी ५८००० थाय छे.) सूत्र-५८॥ . हवे ओगणसाठ{ स्थान कहे छे मू०-चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणसद्धिं राइंदियाइं राइंदियग्गेणं पन्नत्ता । १। ॥१५॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवे णं अरहा एगूणसद्धिं पुवसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे जाव पवइए । २।मल्लिस्स णं अरहओ एगूणसटुिं ओहिनाणिसयां होत्था । ३॥ सूत्रम्-५९ ॥ .. मूलार्थः-चंद्र संवत्सरनी एक एक ऋतु ओगणसाठ रात्रिदिवसनी कही छे (१)। श्रीसंभवनाथ अरिहंते ओगणसाठ लाख हवासमध्ये रहीने पछी मुंड थइ प्रव्रज्या लीधी हती (२)। श्रीमल्लिनाथ अरिहंतने ओगणसाठ सो अवधिज्ञानी हता(३)॥ टीकार्थ:--हवे ओगणसाठमा स्थानक विषे काइक लखे छे-'चंदस्स णं' इत्यादि-स्थानांग विगेरे सूत्रोमां अनेक प्रकारनो संवत्सर कह्यो छे. तेमां चंद्रनी गतिने आश्रीने जे संवत्सर कहेवामां आवे छे ते चंद्र संवत्सर ज कहेवाय छे. तेमां बार मास अने छ ऋतुओ आवे छे. तेमां दरेक ऋतु ओगणसाठ रात्रिदिवसनी होय छे. केवी रीते ? ते कहे छे-ओगणत्रीश रात्रिदिवस अने एक अहोरात्रना साठ भाग करीए एवा बत्रीश भाग, आटला प्रमाणवाळो कृष्ण प्रतिपदाथी आरंभीने शुक्ल पूर्णिमा सुधीनो एक चंद्रमास थाय छ, आ मासने बमणो करवाथी एक ऋतु थाय छे. तेथी आ ऋतुमा ओगणसाठ अहोरात्र आवे छे. अहीं जे बासठीया बे भाग (३) वधारे आवे छे तेनी विवक्षा करी नथी (१)। अहीं संभवनाथ अरिहंतनो गृहस्थपर्याय ओगणसाठ लाख पूर्वनो क यो छे, अने आवश्यकसूत्रमा तो तेथी चार पूर्वांग अधिक कह्यो छे (२)॥ सूत्र-५९॥ - हवे साठK स्थानक कहे छे-- मू०-एगमेगे णं मंडले सूरिए सट्ठिए सद्धिए मुइत्तेहिं संघाइए । १ । लवणस्स णं समु Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय दस्सस समवायाज स्त्र ॥ “चोधू अंग ॥१५२॥ दस्स सटुिं नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति । २ । विमले णं अरहा सद्धिं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था । ३ । बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स सर्टि सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ।४। बंभस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सटैि सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ५। सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सटुिं विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ॥ ६ ॥ सूत्रम्-६०॥ मूलार्थ:-एक एक सूर्य साठ साठ मुहूर्ते करीने एक एक मंडळने नीपजावे छे (संपूर्ण करे छे) (१)। लवणसमुद्रना अग्रोदकने (शिखाना जळने) साठ हजार नागदेवताओ धारण करे छे (२)। श्री विमळनाथ अरिहंत साठ धनुष उंचा हता (३)। बलि नामना वैरोचनेंद्र(असुरकुमारेंद्र)ने साठ हजार सामानिक देवो कह्या छ (४)। देवोना राजा ब्रह्म नामना देवेंद्रने साठ हजार सामानिक देवो कह्या छे (५)। सौधर्म अने ईशान ए वे कल्पने विपे कुल साठ लाख विमानावास कह्या छ (६)॥ टीकार्थ:-हवे साठमुं स्थानक कहे छे-तेमां ' एगमेगे 'इत्यादि-सूर्यना एक सो ने चोराशी मंडळ छे, तेमांना दरेक व मंडळने तथाप्रकारनी गतिना स्थानरूप सूर्य साठ साठ मुहूर्ते करीने एटले बवे अहोरात्रे करीने नीपजावे छ (पूर्ण करे छे)। अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे-एक दिवसे जे स्थाने सूर्य उग्यो होय, ते स्थाने फरीथी ते सूर्य के अहोरात्रे ऊगे छ (१)। 'अग्गोदयं ति'-सोळ हजार योजन ऊंची जे लवणसमुद्रनी वेळा छे, तेनी उपर वे गाउप्रमाण वृद्धि-हानिना स्वभाजाववालु जे जळ (शिखा ) छे, ते अग्रोदक (शिखानुं जळ) कहेवाय छे (२)। 'बलिस्स त्ति'-उत्तर दिशा तरफना - ॥१५२।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 | असुरकुमार निकायना राजा जे बलींद्र छे तेने ६०००० सामानिक देवो होय छे' (४)। 'बंभस्स त्ति'-ब्रह्मलोक | नामना पांचमा देवलोकना इंद्र (ब्रह्म नामना छे) (५)। 'सहि त्ति'--सौधर्म कल्पमां बनीश लाख अने ईशा कल्पमा अठ्ठावीश लाख विमानो छे, ते बन्ने मळीने साठ लाख विमानो थाय छ (६) ॥ सूत्र-६०॥ हवे एकसठमुं स्थान कहे छे-- __ मू०-पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिउमासेणं मिजमाणस्स इगसद्धिं उऊमासा पन्नत्ता ।१। मंदरस्स णं पवयस्स पढमे कंडे इगसट्ठिजोयणसहस्साइं उ8 उच्चत्तेणं पन्नत्ते । २। चंदमंडले णं एगसट्ठिविभागविभाइए समंसे पन्नत्ते । ३ । एवं सूरस्त वि । ४ ॥ सूत्रम्-६१॥ मूलार्थ:--पांच संवत्सरनो एक युग थाय छे, तेने ऋतु मासे करीने मान करतां एकसठ ऋतु मास कह्या छे' (१)। मेरुपर्वतनो पहेलो कांड एकसठ हजार योजन ऊंचो कह्यो छे (२)। चंद्रनुं विमान (एक योजनना) एकसठीया भागे मापित होवाथी समांश (५६ भागर्नु) कहेलुंछे (३)।एज प्रमाणे सूर्यनु विमान पण समांश (सरखा अंशवाळ४८ भागनुं) जाणवू. (४)। टीकार्थ:--हवे एकसठमा स्थान विपे काइक कहे छे-तेमां'पंचेत्यादि'-पांच वर्षे करीने जे नीपज्य १. टीकामां भवन शब्द लख्यो छे ते बराबर ठीक लागतो नथी. २. एक ऋतु मासना ३० दिवस होवाथी ६१ ऋतु मासना १८३० दिवस थाय छे. aaamw Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ६१॥ समवायाङ्ग पत्र॥ चोधू अंग ॥१५३॥ त्सरिक कहेवाय छे. 'णं' शब्द वाक्यनी भृपा माटे छे. आवा पांच वर्षनो एक युग होय छे एटले विशेष प्रकारना काळनुं प्रमाण होय छे, ते युगना चंद्रादिक मासवडे नहीं, पण ऋतुमासवडे प्रमाण करवाथी एकसठ ऋतुमास कह्या छे, अहीं आ भावार्थ छे-पांच संवत्सरनो एक युग कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे-चंद्र, चंद्र, अभिवर्धित, चंद्र अने अभिवर्धित (ए नामनां पांच संवत्सर छे). तेमा ओगणत्रीश अहोरात्र अने एक अहोरात्रना बासठीया वत्रीश भाग २९३२ आटलं प्रमाण कृष्ण प्रतिपदाथी आरंभीने पूर्णिमा सुधीनुं थाय छे, ते प्रमाणे एक चंद्रमास कहेवाय छे. एवा बार मासना प्रमाणवाळो एक चंद्रसंवत्सर थाय छे, तेनुं प्रमाण आ प्रमाणे छे-त्रण सो ने चोपन दिवस तथा एक दिवसना बासठीया चार भाग ३५४३३। तथा एकत्रीश दिवस अने उपर एक दिवसना एक सो ने चोवीश भाग करीए तेवा एक सो ने एकवीश भाग ३११२१ आटला प्रमाणवाळो अभिवर्धित मास थाय छ, आवा मासवडे बार मासना प्रमाणवाळो एक अभिवर्धित संवत्सर थाय छे. तेमांत्रण सो ने त्राशी दिवस अने उपर एक दिवसना बासठीया चुमाळीश भाग ३८३३३ जेटलं प्रमाण थाय छ । आ उपर कह्या प्रमाणे त्रण चंद्र संवत्सर अने वे अभिवर्धित संवत्सर ए पांचे संवत्सरने एकठा करवाथी अढार सो ने त्रीश १८३० अहोरात्र थाय छे. तथा ऋतु मास त्रीश अहोरात्रनो होय छे, तेथी तेने ( १८३० ने) त्रीशे भागवाथी एकसठ ऋतु मास (एक युगने विपे) प्राप्त थाय छे (१)। 'मंदरस्सेत्यादि'-अहीं नवाणुं हजार योजनना प्रमाणवाळा मेरुना बे भाग करीए. तेमां पहेलो भाग एकसठ हजारनो कह्यो छे, तथा बीजो भाग पूर्व आडत्रीशमा स्थानकमां आडत्रीश हजार योजननो कह्यो छे, परंतु क्षेत्रसमासमां K ॥१५३॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो कंद (मूळ ) सहित लाख प्रमाणनो कही तेना त्रण भाग ( कांड ) कह्या छे, तेमां पहेलो कांड एक हजार योजननो, बीजो कांड त्रेसठ हजार योजननो अने त्रीजो कांड छत्रीश हजार योजननो छे एम कयुं छे (२) । चंद्रमंडळ एटले चंद्रनुं विमान, 'णं' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे. 'एगसहि त्ति'-योजनना एकसठीया भागे करीने विभाजित एटले व्यवस्थापित कयु सतुं समांश-सम विभागवालं कर्तुं छे, पण विषम विभागवाडं का नथी. केम के एक योजनना एकसठीया छप्पन भाग जेटलं तेनुं प्रमाण छे, अने तेना वाकी रहेला भागर्नु अविद्यमानपणुं छे तेथी (३)। एज प्रमाणे 'सूरस्स वि'-सूर्यन मंडळ पण कहे. केम के ते एकसठीया अडताळीश भाग जेटलुं छे, तेनाथी वधारानो ( जुदो) भाग तेनो नथी, तेथी समान अंशप) सिद्ध थाय छे (४)॥ सूत्र-६१ ।। हवे बासठK स्थानक कहे छे मू०-पंचसंवच्छरिए णं जुगे बासद्धिं पुन्निमाओ बावटुिं अमावसाओ पन्नत्ताओ। १ । वासु| पुजस्स णं अरहओ बासदि गणा बासद्धिं गणहरा होत्था । २ । सुक्कपक्खस्स णं चंदे वासद्धिं 2भागे दिवसे दिवसे परिवड्डइ, ते चेव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायइ । ३ । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बासद्धिं बासद्धिं विमाणा पन्नत्ता । ४ । सो विमाणियाणं बासढि विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पन्नत्ता । ५॥ सूत्रम्-६२ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१५४॥ मूलार्थ:-- पांच संवत्सरना एक युगने विषे बासठ पूर्णिमाओ अने बासठ अमावास्याओ कहेली छे (१) । वासुपूज्य अरिहंतने बासठ गण अने बासठ गणधरो हता ( २ ) । शुक्लपक्षमां चंद्र दिवसे दिवसे ( हंमेशां ) बासठ बासठ भाग छे, अने तेटलोज भाग कृष्णपक्षमां दिवसे दिवसे हानि पामे छे ( ३ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे पहेला पाथडामा पहेली आवलिकामां ( पूर्वादिक) एक एक दिशामां बासठ बासठ विमानो कहा छे ( ४ ) | सर्वे विमानना मळीने बासठ पाथडा कह्या छे ( ५ ) ॥ टीकार्य :- हवे बासठ स्थान कहे छे-' पंचेत्यादि - तेमां एक युगमां त्रण चंद्रसंवत्सर होय छे, तेमनी कुल छत्रीश पूर्णिमाओ होय छे. तथा वे अभिवर्धित संवत्सर होय छे, तेमां दरेक अभिवर्धित संवत्सर तेर मासनो होय छे, ते बन्नेनी मळीने छवी पूर्णिमाओ थाय छे, ए प्रमाणे कुल बासठ पूर्णिमाओ थाय छे, ए ज प्रमाणे अमावास्या पण बासठ होय (१) । अहीं वासुपूज्य स्वामीना बासठ गण अने गणधरो कला छे, अने आवश्यकमां तो छासठ कला छे, ते पण मतांतर जाणवुं ( २ ) । 'सुपक्वस्सेत्यादि ' - शुक्लपक्ष संबंधी चंद्र हमेशां वासठ ( ) भाग वधे छे. ए ज • प्रमाणे कृष्णपक्षमां चंद्र हानि पामे छे. आ अर्थ सूर्यप्रज्ञप्तिमां कहेलो छे. ते आ प्रमाणे - " नित्य हुनुं काळं विमान हमेशा चंद्रनी साथै ज होय छे. ते विमान चंद्रनी नीचे तेने नहीं प्राप्त थयेलं ( तेनो स्पर्श कर्या विना ) चार आंगळ दूर रहीने चाले छे १, तेथी शुक्लपक्षमां चंद्र हंमेशां बासठ बासठ () भाग वृद्धि पामे छे अने कृष्णपक्षमां तेटलो ज हानि पामे छे २, ते राहुनुं विमान पंदरमा भागे चंद्रने छोडीने पंदर दिवस सुधी चाले छे, अने पंदरमा भागे तेटला ज दिवस चंद्रने समवाय ६२ ॥ | ॥१५४॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दबावे छे ३, ए प्रमाणे चंद्र वृद्धि पामे छे अने हानि पामे छे. आ राहुना प्रभावे करीने चंद्रनी कृष्णता अथवा ज्योत्स्ना थाय छे ( देखाय छे ) ४." तथा तेमां ज कयुं छे के-" चंद्र पोताना मंडळना सोळ भाग करीने तेमांथी पंदर भाग (ज्योत्स्ना) हीन थाय छे, अने फरीथी तेटला ज (पंदर ) भाग तेनी ज्योत्स्ना वृद्धि पामे छे १." आ बन्ने वचनने अनुसारे एम अनुमान थाय छे के-चंद्रमंडळना नव सो ने एकत्रीश (९३१ ) भाग कल्पवा. तेमांथी एक भाग बाकी रहे छे ज. वाकीना अंशमांथी हमेशां वासठ बासठ भागे वृद्धि पामे छे, तेथी पंदरमे दिवसे चंद्रना ९३० अंशो एकठा (उघाडा) थाय छ, अने फरीथी ते ज प्रमाणे हानि पामे छे, तेथी पंदरमे दिवसे ९३० अंश रोकातां एक अंश अवशेष रहे छे. बे वचनना सामर्थ्यथी आ व्याख्यान (अर्थ) प्राप्त थयु छे, परंतु जीवाभिगम सूत्रने विपे तो बावडिं०' अने । 'पन्नरसति(य)भागेण ' आ वे गाथानी व्याख्या आ प्रमाणे करी छे-“वावडिं-बासठ बासठ भाग एटले दिवसे | दिवसे-प्रतिदिवस शुक्लपक्षमां चंद्र जे कांइक अधिक चार वासठीआ भाग वृद्धि पामे छे अने कृष्णपक्षमा तेटलो क्षय पामे छे, | ते केटले काळे १ ते बतावे छे-'पन्नरस-पंदर दिवसे एटले के चंद्र विमानना बासठ भाग करवा, ते बासठने पंदरवडे भांगवा. तेम करवाथी पंदरमे भागे काइक अधिक चार बासठीया भाग पमाय छे. तेथी कयुं छे के उपर कह्या प्रमाणे पंदरमा भागे चंद्रने आश्रीने राहुनुं विमान पंदर दिवस सुधी चाले छे अने ते ज प्रमाणे अपक्रमे छे-मूके छे. एम पण भावना करवी." अहीं अमोए जेवु (ग्रंथोमां ) देख्युं तेवु लख्युं छे तथा तेनो समन्वय कयों छे. तेनो साचो निर्णय बहुश्रुतोए करवो. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ १५५॥ [ १ जो एक अंशने देखाडतो ( प्रकाश करतो ) चंद्र चाले छे अने एक ज अंशने देखाडतो राहु चाले छे, तो हमेशां वे अंश • आच्छादन करवा लायक थाय छे. ए प्रमाणे पंदर दिवसो सुधी आच्छादन कर्या छतां पण तेना वे अंश बाकी रहे छे. ते हे अंश पण अर्ध अर्ध भाग एक एकवडे (चंद्र अने राहुवडे) आच्छादन कराय छे तेथी (वेमांथी) एक ज भाग आच्छादन थाय छे माटे बासठ भाग कल्पवानी जरूर पडे छे (अर्थात् पंदर दिवसे त्रीश आच्छादन थाय छे अने त्यारपछी एक अंश आच्छादन थाय छे तेथी कुल एकत्रीश अंश थया, तेने चमणा करवाथी बासठ अंश करवामां आव्या छे ) ] (३) । 'सोहम्मीत्यादि' - तेमां सौधर्म अने ईशान कल्पमां तेर विमानना पाथडा छे, सनत्कुमार अने माहेंद्रमां बार छे, ब्रह्मलोकमां छ छे, लांतकमां पांच छे, शुक्र देवलोकमां चार छे, एज प्रमाणे सहस्रारमां चार छे, आनत अने प्राणतमां चार छे, ए ज प्रमाणे • आरण अने अच्युतमां चार छे, अधस्तन, मध्यम अने उपरना ग्रैवेयकमां त्रण त्रण होवाथी कुल नव पाथडा छे, तथा अनुत्तर विमानमा एक पाथडो छे. आ सर्व मळीने वासठ थाय छे. आ सर्वना मध्य भागे प्रत्येक (दरेक) उडु विमानने आदि लइने (आरंभीने) सर्वार्थसिद्ध नामना विमान पर्यंत वृत्त (गोळ) विमानरूप बासठ ज मध्यना विमानेंद्रो छे. तेनी पासेना भागमां ( पडखे ) पूर्वादिक चारे दिशामां त्र्यस्र (त्रण खूणीया ), पछी चतुरस्र ( चोखंडा - चार खूणीया ) अने पछी वृत्त विमानना क्रमे करीने विमानोनी आवलिका ( श्रेणि) छे. आ प्रमाणे होवाथी सौधर्म अने ईशान कल्पना पहेला पाथडामां १. जो कृष्णपक्षमां चंद्र मंद गतिवाळो थवाथी एक भाग पाछो रहे अने राहु तीव्र गतिवाळो थवाथी एक भाग आगळ वचे तो वे भाग चंद्रनी कळाना दबाय एम समजाय छे-ए रीते पंदर दिवसे त्रीश भाग दबाय. समवाय ६२ ॥ ॥१५५॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले सौथी नीचे 'पढमावलियाए त्ति-उत्तरोत्तर (उपर उपरनी) आवलिकानी अपेक्षाए पहेली चार आवलिका जे पहेला - पाथडानी चारे दिशाए छे ते प्रथमावलिका कहेवाय छे (बहुव्रीहि समास) आवा पहेली आवलिकावाळा पहेला पाथडाने विपे, अथवा ( ' पढमावलियाए-' ) पहेला एटले मूळमां रहेला विमानेंद्रकथी आरंभीने जे आ आवलिका एटले विमानोनी पूर्वी कही तेवडे ( तत्पुरुष समास तृतीया विभक्ति) अथवा ( ' पढमावलियाए-' ) उत्तरोत्तर आवलिकानी अपेक्षाए एक एक ( दरेक ) दिशामां जे पहेली आवलिका कही छे तेने विपे ( सप्तमी विभक्ति ) अथवा ' पढसावलियत्ति ' . आवो पाठांतर होय तो उत्तरोत्तर आवलिकानी अपेक्षाए एक एक दिशामां जे पहेली आवलिका कही छे ते ( प्रथमा विभक्ति ) बासठ बासठ विमानना प्रमाणवडे कही छे. ' एगमेगाए त्ति ' - उड्ड विमान नामना देवेंद्रकनी अपेक्षाए एक एक पूर्वादिक दिशामां बापठ बासठ विमानो कहां छे, तथा बीजा, त्रीजा विगेरे पाथडाने विषे एक एक ओछा विमानो होय छे, यावत् ( ते छेवटे) बासठमा अनुत्तर देवलोकना पाथडामां सर्वार्थसिद्ध नामना देवेंद्रकनी पडखे ( चारे दिशाए ) एक एक जविमान होय छे (४) । तथा ' सव्वे त्ति --सर्वे वैमानिक देवविशेषोना बासठ विमानना पाथडाओ पाथडाना कुल प्रमाणे करीने कला छे ( ५ ) ॥ सूत्र- ६२ ॥ हवे त्रेसठ स्थान कहे छे मू० - उसमे णं अरहा कोसलिए तेसट्ठि पुवसयसहस्साइं महाराय मज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाओ अगर aइए |१| हरिवासरम्मयवासेसु मणुस्सा तेवट्ठिए राईदिएहिं संपत्तजोवणा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीका समवाय, ६४॥ ॥१५६॥ भवंति । २ । निसढे णं पवए तेवदि सूरोदया पन्नत्ता ।३। एवं नीलवंते वि । ४॥ सूत्रम्-६३॥ समवायाजा मूलार्थः-श्री ऋषभदेव अरिहंत त्रेसठ लाख पूर्व सुधी महाराज्यमा बसीने पछी मुंड थइ अगार( गृहवास )थकी सूत्र॥ अनगारपणे (साधुपणे ) प्रव्रजित थया (१)। हरिवर्ष अने रम्यक क्षेत्रने विषे (युगलिक ) मनुष्यो वेसठे रात्रिदिवसे चो, अंग यौवन वयने प्राप्त थाय छे (२) । निषध पर्वत उपर त्रेसठ सूर्योदय (सूर्यना मंडळ ) कहेला छे (३) । एज प्रमाणे नील चंत पर्वत उपर पण वेसठ सूर्यना मंडळ कहेला छे (४)॥ | टीकार्थ-हवे त्रेसठसुं स्थान कहे छ-'संपत्तजोवण त्ति'-संप्राप्त यौवनवाळा एटले माता-पितानी पालनानी अपेक्षा विनाना होय छे (२) । निसहेणं त्ति'-सूर्यना कुल एक सो ने चोराशी मंडळ छे, तेमांथी जंबूद्वीपने छेडेथी अंदर एक सो ने एंशी योजनमां पांसठ मंडळ छे. तेमां निषध नामना वर्षधर पर्वत उपर तथा नीलवंत नामना वर्षधर पर्वत उपर त्रेसठ सूर्यना उदयना स्थानो एटले सूर्यना मंडळो कहेला छे, तेमांना बाकीना वे मंडळ जगती उपर रहेला छे अने बाकीना (११९) मंडळ लवणसमुद्र उपर त्रण सो ने त्रीश योजन सुधीमा रहेला छे (३-४) ॥ सूत्र-६३ ॥ हवे चोसठमुं स्थान कहे छे मू-अट्ठट्ठमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खास१ लोकप्रकाशादिमां ६४ दिवसो कह्या छे. RADIATRIMARim ॥१५६॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fal एहिं अहासुत्तं जाव भवइ । १ । चउसद्धिं असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता । २ । चमरस्स ॥णं रन्नो चउसद्धिं सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ।३। सवे विणं दधिमुहा पव्वया पल्लासंठाण| संठिया सवत्थ समाविक्खंभुस्सेहेणं चउसद्धिं जोयणसहस्साइं पन्नत्ता । ४ । सोहम्मीसाणेसु | बंभलोए य तिसु कप्पेसु चउसद्धिं विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ५। सवस्स वि य णं रन्नो | चाउरंतचकवहिस्स चउसट्ठिलट्ठीए महग्धे मुत्तामणि(मए)हारे पन्नत्ते । ६ ॥ सूत्रम्-६४ ॥ ___ मूलार्थ:--आठ अष्टमिका नामनी भिक्षुप्रतिमा चोसठ रात्रिदिवसे करीने तथा बसो ने अठ्याशी दत्तिए करीने | सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् पूर्ण थाय छे (१)। असुरकुमारना चोसठ लाख भवनो कह्या छे (२)। चमरेंद्र नामना असुरकुमारना इंद्रने चोसठ हजार सामानिक देवो कह्या छे (३) । सर्वे दधिमुख पर्वतो पालाना आकारे रहेला छे तेथी ते सर्वत्र विष्कंभवडे सरखा छे अने उत्सेध( ऊंचाइ )वडे चोसठ हजार योजन कहेला छे (४)। सौधर्म, ईशान अने ब्रह्मलोक ए त्रणे देवलोकना मळीने चोसठ लाख विमानावासो (विमानो) कहेला छे (५)। चार दिशाना अंत सुधीना सर्व चक्रवर्ती राजाने मोटा मूल्यवाळो चोसठ सरवाळो मुक्तामणिमय हार कह्यो छे । (६)॥ टीकाथे:-हवे चोसठमुं स्थान कहे छे–'अद्वेत्यादि'-जेमां आठ आठ दिवसो होय ते अष्टाष्टमिका-आठ अष्टमिका कहेवाय छे, केम के जेमा आठ दिवसाष्टक (आठ दिवसो) होय, तेमां आठ आठ दिवसो होय छे, भिक्षुप्रतिमा एटले विशेष Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ६४॥ प्रकारनो अभिग्रह. जेथी करीने आ (प्रतिमा) आठ दिनाष्टकनी होय छे, तेथी करीने चोसठ रात्रिदिवसे ते पालन करेली थाय समवायाछ. तथा (ते आ प्रमाणे-) पहेला अष्टकमां हमेशा एक एक भिक्षा ( दत्ति) होय छे, ए ज प्रमाणे बीजा अष्टकमा सत्र ॥ हमेशां वे वे भिक्षा होय छे, यावत् आठमा अष्टकमां हमेशां आठ आठ भिक्षा होय छे, तेथी आ सर्व मळीने बसो ने चोधं अंग अठ्याशी भिक्षा थाय छे.' तेथी करीने ज 'द्वाभ्यां च' इत्यादिक लख्यु छे. अहीं यावत् शब्द लख्यो छे तेथी"अहा कप्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किहिया सम्मं आणाए आराहिया वि भवति" ॥१५७|| (कल्पमा कह्या प्रमाणे यतिमार्गमां कह्या प्रमाणे स्पर्श करेली, पालन करेली, शोघेली, तरी गयेली, कीर्तन करेली (संभारेली) तथा सम्यक प्रकारे आज्ञावडे आराधन करेली पण थाय छे) एम जाणवु (१)। 'सब्वे वि णमित्यादि'-अहींथी (आ जंबूद्वीपथी) आठमा नंदीश्वर नामना द्वीपमा पूर्वादिक चार दिशाओमा चार अंजनक पर्वतो छ. ते दरेक पर्वतनी चारे दिशामां चार चार (१६) वावो छे. तेना मध्य भागमा एक एक दधिमुख नामनो पर्वत छे, ते सोळ पर्वतो पल्यंकना (पालाना) संस्थाने रहेला छे, केम के ते पर्वतो मूळ विगेरेमा दश हजार योजनना विष्कंभवाळा होवाथी विष्कमे करीने सर्वत्र समान ज छे. कोइक प्रतमा 'विक्खंभुस्सेहेणं' एचो. पाठ छे. त्यां तृतीया विभक्तिना एक वचननो लोप जाणवाथी 'विष्कमे करीने' एवो अर्थ करवो. तथा उत्सेधे करीने एटले ऊंचाइए करीने चोसठ हजार योजन छ (४)। सौधर्म कल्पने विषे वत्रीश लाख विमानो छ, ईशान कल्पमा अठ्याशी लाख अने ब्रह्मलोकमां चार लाख विमानो छे, ते सर्वे १ एकथी आठ सुधी चडती गणतां एक अष्टकमा ३६ थाय छे. ए प्रमाणे ८ अष्टकमां होवाथी २८८ थाय छे. ॥१५॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मळीने चोसठ लाख थाय छे (५) । ' चउसट्ठि लट्ठीए त्ति 'जेने विषे चोसठ यष्टि- शरीरो छे ते चतुःषष्टियष्टिकः - चोसठ सेरवाळो कहेवाय छे. 'मुत्तामणिमयेति '-मुक्ता एटले मोती अने मणि एटले चंद्रकांत विगेरे रत्नों, ते मय अथवा • मुक्तरूपी मणिओ एटले रत्नो, ते मय एटले तेना विकारवाळो मुक्तामणिमय हार होय छे ( ६ ) || सूत्र - ६४ ॥ हवे पांसठ स्थान कहे छे मू० - जंबूद्दीवे णं दीवे पणसट्ठि सूरमंडला पन्नत्ता । १ । थेरे णं मोरियपुत्ते पणसट्ठिवासाइं अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । २ । सोहम्मवडिंसयस्स णं विमाणस्स गमेगाए बाहाए पणसट्ठि पणसट्ठि भोमा पन्नत्ता । ३ ॥ सूत्रम् - ६५ ॥ 'मूलार्थ:- जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे सूर्यना पांसठ मंडळ कला छे ( १ ) । स्थविर ( गणधर ) मौर्यपुत्र पांसठ वर्ष सुधी गृहवासमा वसीने पछी मुंड थइ अगार ( घर ) थकी अनगारपणे प्रत्रजित थया ( २ ) । सौधर्मावतंसक नामना विमानन एक एक ( दरेक ) दिशाए पांसठ पांसठ भौम नगरो कहेलां छे ( ३ ) ॥ टीकार्थ:- हवे पांस स्थान कहे छे-तेमां मौर्यपुत्र ए भगवान महावीरस्वामीना सातमा गणधर हता. तेनो गृहस्थपर्याय पांसठ वर्षनो हतो. आवश्यक सूत्रमां पण आ प्रमाणे ज कह्यो छे, परंतु आना ज जे मोटा भाइ मंडिकपुत्र नामना छठ्ठा गणधरे आनी दीक्षाने दिवसे ज प्रव्रज्या ग्रहण करी हती, तेनो गृहस्थपर्याय तो आवश्यक सूत्रमां त्रेपन वर्षनो को छे, ते Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोधं अंग ॥१५८ वरावर समजवामां आवतुं नथी; केमके मोटानो गृहस्थपर्याय पांसठ वर्षनी अने नानानो गृहस्थपर्याय त्रेपन वर्पनो घटी शके छ (परंतु मोटाथी नानानो गृहस्थपर्याय वधारे घटी शकतो नथी.)(२)। सौधर्म देवलोकना मध्य भागमा इंद्रना निवासभुत सौधर्मावतंसक नामर्नु विमान रहेलुं छे. तेनी एकएक ( दरेक) दिशामां प्राकारनी समीपे रहेला भौम एटले नगरना आकारो छ, अथवा कोइक कहे छे के विशेष प्रकारना स्थानो छ (३)॥ सूत्र-६५ ॥ हवे छासठमुं स्थान कहे छे मू०-दाहिणड्डमाणुस्सखेत्ता णं छावाटुं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ।१।। छावढेि सूरिया तर्विसु वा तवंति वा तविस्संति वा । २ । उत्तरडमाणुस्सखेत्ता णं छावढेि चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा ।३। छावद्धिं सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा। ४ । सेज्जंसस्स णं अरहओ छावढेि गणा छावढेि गणहरा होत्था। ५। आभिणिबोहियनाणस्स णं उक्कोसेणं छावर्द्धि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । ६॥ सूत्रम्-६६ ॥ मूलार्थ:-दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्रमा थयेला (रहेला) छासठ चंद्रो प्रकाशता हता, प्रकाशे छे अने प्रकाशशे (१)। एज प्रमाणे छासठ सूर्यो तपता हता, तपे छे अने तपशे (२)। उत्तरार्ध मनुष्य क्षेत्रमा थयेला (रहेला) छासठ चंद्रो प्रकाशता हता, प्रकाशे छे, अने प्रकाशशे (३)। एज प्रमाणे छासठ सूर्यो तपता हता, तपे छे अने तपशे (४)। श्री श्रेयांसनाथ कि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . | अरिहंतने छासठ गणो अने छासठ गणधरो हता (५)। आभिनियोधिक ( मति ) ज्ञाननी उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरो पमनी कही छे (६)॥ ____टीकार्थः-हवे छासठमुं स्थान कहे छे-तेमां 'दाहिणेत्यादि'-मनुष्य क्षेत्रनुं जे अर्ध ते अर्ध मनुष्य क्षेत्र कहेवाय छे, (षष्ठी.तत्पुरुष ) दक्षिण तरफनुं जे अर्ध मनुष्यक्षेत्र ते दक्षिणार्ध मनुष्यक्षेत्र कहेवाय छे (कर्मधारय ) तेने विषे जे थयेला ते दाक्षिणार्ध मनुष्यक्षेत्र कहेवाय छे. अहीं 'णं' शब्द वाक्यना अलंकार माटे छे. छासठ चंद्रो प्रकाश करवा लायक वस्तुने प्रकाशता हता, अथवा लिंगनो फेरफार करवाथी दक्षिण तरफना जे मनुष्यक्षेत्रना अर्ध भाग तेमने प्रकाशता हता. अथवा पाठांतरमां सप्तमी विभक्ति लइए तो दक्षिणार्ध मनुष्यक्षेत्रने विषे प्रकाश करवा लायक वस्तुने प्रकाशता हता, एम अर्थ करवो. ते छासठ आ प्रमाणे-जंबूद्वीपमां बे चंद्र, लवण समुद्रमा चार, धातकीखंडमां बार, कालोदधि समुद्रमां बेंताळीश अने पुष्करार्धमां बोंतेर चंद्रो छे. आ सर्व मळीने एक सो ने बत्रीश थाय छे, तेनुं अर्ध करवाथी छासठ चंद्रो दक्षिण श्रेणिमां अने छासठ चंद्रो उत्तर श्रेणिमा रहेला छे. ज्यारे उत्तर श्रेणि पूर्वमा जाय त्यारे दक्षिण श्रेणि पश्चिममां | जाय छ (१)। एज प्रमाणे सूर्यनुं सूत्र पण जाणवू (२)। श्रीश्रेयांसनाथ प्रभुने छासठ गणो अहीं कह्या, पण आवश्यक सूत्रमां तो छोतेर कह्या छे, ते मतांतर जाणवू (५)। छासठ सागरोपमनी जे स्थिति कही छे तेमां जे का अधिक छे, ते कहेवाने इच्छयु नथी. कारण के आ प्रमाणे अन्य स्थळे पण का छे के-“बे वार विजयादिक विमानमां गयेलाने अथवा त्रण वार अच्युत देवलोकमां गयेलाने छासठसागरोपमनी स्थिति थाय छे तेमां मनुष्य भव संबंधी स्थितिनुं Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१५९॥ प्रमाण अधिक समज. तथा सर्व जीवोने आश्रीने कहीए तो सर्व काळ मतिज्ञाननी स्थिति जाणवी.” (६) || सूत्र - ६६ ॥ हवे सडसठ स्थान कहे छे मू० - पंचसवच्छरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स सत्तसट्ठि नक्खत्तमासा | १ | वरन्नवयाओ णं बाहाओ सत्तट्ठि सत्तट्ठि जोयणसयाई पणपन्नाई तिणि य भागा जोयणस्स आयामेणं पन्नत्ता । २ । मंदरस्स णं पवयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोयमदीवस पुरच्छिमिले चरमंते एस णं सत्तसट्ठि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ३ । सवेसिं पिणं नखत्ताणं सीमाविक्खंभे णं सत्तट्ठि भागं भइए समंसे पन्नत्ते । ४ ॥ सूत्रम् -- ६७ ॥ मूलार्थ:- पांच संवत्सररूप एक युगनुं नक्षत्र मासे करीने माप करीए तो सडसठ नक्षत्र मास थाय छे ( १ ) । हैमवत अने ऐरण्यवत बने क्षेत्रनी बाहा सडसठ सडसठ सो ने पंचावन योजन तथा उपर एक योजनना त्रण भाग जेटली लांबी कही छे ( २ ) । मेरु पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी गौतम द्वीपनी पूर्व दिशाना छेडा सुधीमां सडसठ हजार योजननुं अबाधाए आंतरुं कथं छे (३) । सर्व नक्षत्रोनी सीमानो विष्कंभ सडसठमे भागे भाज्यो सतो ( सडसठे भागाकार कर्यो सतो ) समान अंशवाळो थाय छे ( अर्थात् वीजा कोइपण अंकवडे भागवाथी समान अंशवाळो थतो नथी-वीजा कोइ अंकवडे भागी शकातो नथी. ) ( ४ ) ॥ समवाय ६७ ॥ ॥१५९॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थ :- सड़सठमा स्थानकमां कांइक व्याख्या करे छे—तेमां पंचसवच्छरीत्यादि नक्षत्र मास एटले चंद्र जेटले काळे आखा नक्षत्रमंडळने भोगवी रहे, ते काळ सत्तावीश रात्रिदिवस अने उपर एक रात्रिदिवसना सडसठीया एकवीश भाग २७ एटलं एक मासनुं प्रमाण छे. तथा युगनुं प्रमाण अढार सो ने त्रीश दिवसनुं थाय छे एम प्रथम वतान्युं छे. हवे नक्षत्र मासना रात्रिदिवसनुं जे प्रमाण (२७) कह्युं छे, तेने एक दिवसना सडसठ भागे स्थापन कर• वाथी ( गुणवाथी) जे प्रमाण (संख्या) अठार सो ने त्रीश १८३० आवे छे तेनावडे युगना ( पांच वर्षना ) दिवसनी संख्याने (१८३० ने) सडसठीया भागपणे स्थापन करवाथी ( सडसठे गुणवाथी ) जे एक लाख, बावीश हजार, छ सो ने दश १२२६१० नी संख्या आवे छे तेने ( १८३० वडे ) भागवाथी ( एक युगमां ) सडसठ नक्षत्र मास प्राप्त थाय छे (१) । ' वाहाओ त्ति ' - लघु हिमवान पर्वतनी जीवाथी आरंभीने हेमवंतक्षेत्रनी जीवा सुधीमां पूर्व अने पश्चिम तरफनी 'जे क्षेत्र प्रदेशनी पंक्ति बधती होय छे ते बन्ने हेमवंतक्षेत्रनी बाहु कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे ऐरण्यवतनी बाहु पण जाणवी. अहीं (आ चाहुना ) प्रमाणनो संवाद आ प्रमाणे छे – “ सडसठ सो ने पंचावन योजन तथा त्रण कळा एटलं हेमवंत क्षेत्रनी बाहानुं प्रमाण छे । " अहीं कळा एटले एक योजननो ओगणीशमो भाग जाणवो । आ बाहुनुं प्रमाण आ रीते सिद्ध थाय छे-हेमवंत क्षेत्रनुं धनुःपृष्ठ जे आडत्रीश हजार, सात सो ने चाळीश योजन अने उपर दश कळा ३८७४० १९ कयुं छे तेथी हिमवान पर्वतनुं धनुःपृष्ठ पचीश हजार, बसो ने त्रीश योजन अने उपर ४ कळा २५२३० बाद करवाथी जे बाकी रहे ( १३५१०१३) तेने (वे तरफना वे बाहुनुं प्रमाण जुदुं कहेतुं छे तेथी ) अर्ध करवाथी एक बाहुनुं प्रमाण ( ६७५५ - ३ ) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ६७॥ समवायाङ्ग N चोथु अंग ॥१६॥ SOES आयामवडे एटले लंबाइवडे कहेलुं छे (२)। 'मंदरस्सेत्यादि-मेरुपर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी पश्चिम दिशानी जगतीना बाह्य छेडा सुधी जंबूद्वीपर्नु प्रमाण पंचावन हजार योजननुं छे, त्यांथी आगळ लवणसमुद्रमां बार हजार योजन जइए त्यां गौतमद्वीप नामनो द्वीप छे, तेने आश्रीने आ सूत्रनो अर्थ ( सडसठ हजार योजननु आंतरं का ते) संभवे छे; केमके पंचावन हजार अने बार हजार मळीने सडसठ हजार थाय छे. जो के सूत्रना ग्रंथोमां गौतम शब्द देखातो नथी, तो पण ते जाणवो, केम के जीवाभिगम विगेरे सूत्रोमां लवणसमुद्रने विपे गौतमद्वीप अने चंद्र सूर्यना द्वीपो सिवाय बीजा द्वीपो सांभळवामां आवता नथी (३)। 'सव्वेसिंपिणमित्यादि'-'णं' शब्द वाक्यना अलंकार भाटे लख्यो छे. सर्वे नक्षत्रोनो सीमाविष्कंभ एटले पूर्व अने पश्चिम दिशामां चंद्र जेटला क्षेत्र सुधी नक्षत्रोनी साथे भोगवटो करे ते क्षेत्रनो जे विस्तार छे ते नक्षत्रे एक अहोरात्रे करीने जेटलुं क्षेत्र भोगववानुं छे ते क्षेत्रने सडसठ भागे भागाकार करवाथी सम अंशवाळो एटले समान भागवाळो कयो छे. परंतु नक्षत्रनी सीमानो विष्कम सडसठ सिवाय बीजा कोइ भागे करीने भागाकार करीए तो ते विषम च्छेदवाळो (विपम अंशवाळो) थाय छे अर्थात् वीजा भागे करीने भागी शकातो ज नथी. ते आ प्रमाणे-(एक) नक्षत्र एक अहोरात्रे करीने जे (जेटलं) क्षेत्र ओळंगे ते क्षेत्रना सडसठीया एकवीश भाग जेटलो अभिजित् नक्षत्रनो क्षेत्रथी (क्षेत्रने आश्रीने) सीमाविष्कंभ थाय छे. अर्थात् आटला ( सडसठीया एकवीश भाग प्रमाण ) क्षेत्रमा चंद्रनी साथे ते नक्षत्रनो योग कहेवाय छे. तथा त्रीश मुहत्तनी एक अहोरात्र होवाथी ते ज एकवीशने त्रीशे गुणवाथी ६३० थाय, तेने सडसठे भागवाथी १. अहीं क्या सूत्रमा गौतम शब्द देखातो नथी ? ते वात टीकाकारे स्पष्ट करी नथी. ॥१६॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे भागमां प्राप्त थाय ते काळसीमा थाय छे एटले के चंद्रनी साथे ते नक्षत्रनो तेटला काळ सुधी संयोग-संबंध रहे छे. ते काळसीमा नव मुहूर्त्त अने सडसठीया सत्तावीश भाग जेटली ( ९ ) थाय छे. ते विषे कह्युं छे के – “ एक अहोरात्र सडसठे भागवाथी एकवीश भाग जेटलो अभिजित् नक्षत्रने चंद्रनो योग क्षेत्रथी थाय छे, अने काळथी ते योग कांइक अधिक नव मुहूर्त्तनो होय छे." आ प्रमाणे क्षेत्रथी अने काळथी अभिजितने चंद्र साथेनो योग कह्यो. तथा शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति अने ज्येष्ठा आ छ नक्षत्रनो क्षेत्रथी सडसठीया तेत्रीश अने अर्ध (साडी तेत्रीश) भाग जेटलो सीमाविष्कंभ थाय छे, अने ते ज साडी तेत्रीशने त्रीशे गुणतां १००५ थाय छे, तेने सडसठे भागाकार करतां जे भागमां लाघे ते तेनी काळी सीमा थाय छे, तेमां पंदर मुहूर्त्त आवे छे. ते विषे कछु छे के - " शतभिषक, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति अने ज्येष्ठा आ छ नक्षत्रो पंदर मुहूर्त्तना संयोगवाळा छे." तथा ऋण उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी अने विशाखा . ए छ नक्षत्रोनो क्षेत्रथकी सीमाविष्कंभ सडसठीया सो अने अर्ध ( साडी सो ) भाग जेटलो थाय छे. तेने (१०० ॥ ने ) ज त्रीशे गुणवाथी ३०१५ थाय छे. तेनो प्रथम प्रमाणे सडसठवडे भागाकार करवाथी जे भागमां प्राप्त थाय ते आ छ नक्षत्रोनी काळी सीमा थाय छे। अने तेमां (तेम करतां ) पीस्ताळीश मुहूर्त्त आवे छे. ते विषे कयुं छे के - "त्रण उत्तरा, पुनर्वसु रोहिणी ने विशाखा ए छ नक्षत्रो पीस्ताळीश मुहूर्त्तना संयोगवाळा छे." बाकीना पंदर नक्षत्रोनो क्षेत्रथकी सीमाविष्कंभ सडसठीया सडसठ भाग होय छे, तेने (६७ ने) ते ज प्रमाणे (त्रीशे) गुणवाथी २०१० थाय छे. तेने सडसठे भावाथी जे भागमां आवे ते काळथी सीमा थाय छे. तेमां त्रीश मुहूर्त्त आवे छे. ते विषे कयुं छे के – “ बाकीना पंदर Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्रो त्रीश महर्जना संयोगवाळा छे. तेमनी साथे चंद्रनो योग संक्षेपथी हुँ कहुं छु." आ प्रमाणे एक, छ, छ अने पंदरासमवाय समवाया। एम कुल अठ्ठावीश नक्षत्रोंना अढार सो ने त्रीश १८३० सडसठीया भाग थाय छे, तेने बमणा करवाथी छप्पन नक्षत्रो ६८॥ सूत्र॥ थाय छे अने तेना सडसठीया भाग त्रण हजार छसो ने साठ ३६६० थाय छे (४) ॥ सूत्र-६७॥ चोधू अंग हवे अडसठमुं स्थान कहें छे ___मुं०-धायइसंडे णं दीवे अडसद्धिं चक्कवद्विविजया अडसद्धिं रायहाणीओ पन्नत्ता।। उक्कोसपए ॥१६॥ अडसाद अरहंता समुप्पजिंसु वा समुप्पजति वा समुप्पजिस्सति वा ।२। एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा । ३ । पुक्खरवरदीवड्ढे णं अडसद्धिं विजया एवं चेव जाव वासुदेवा । ४ । विमलस्स णं अरहओ अडसद्धिं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था । ५॥ सूत्रम्-६८॥ ... मूलार्थ:-धातकीखंड द्वीपमा अडसठ चक्रवर्तीना (चक्रवर्तीने जीतवा योग्य) विजयो अने अडसठ तेमनी राजधानीओ कही छे (बे महाविदेहनी ६४ विजय, २ भरत ने २ ऐरवत मळी ६८ समजवी) (१)। उत्कृष्टपणे अडसठ तीर्थकरो उत्पन्न थया हता, उत्पन्न थाय छे अने उत्पन्न थशे (२)। एज प्रमाणे चक्रवर्ती, वळदेव अने वासुदेवने माटे पण कहेवु (३) । पुष्करार्ध द्वीपने विषे पण चक्रवर्तीना अडसठ विजयो विगेरे सर्व यावत् वासुदेव सुधी कहेवू (४)। श्रीविमलनाथ तीर्थकरने अडसठ हजार साधुओरूपी उत्कृष्ट साधुसंपदा हती (५)॥ ॥१६॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" ए ज टीकार्थ:- हवे अडसठमा स्थानक विषे कांइक लखे छे -' धायइसंडे इत्यादि - अहीं एम कछु केप्रमाणे चक्रवर्ती, वळदेव अने वासुदेवने माटे पण कहेवुं " तेमां जो के चक्रवर्तीओ अने वासुदेवो एककाळे अडसठ संभवता नथी, केम के जघन्यथी पण एक एक महाविदेहने विषे चार चार तीर्थंकरो अवश्य होय छे एम स्थानांग विगेरे सूत्रोमा क छे, पण एक क्षेत्रमां, एकी समये चक्रवर्ती अने वासुदेव ते प्रमाणे होता नथी, तेथी करीने अडसठ विजयोने विये उत्कर्षथी अडसठ चक्रवर्ती अने वासुदेव ( बन्ने मळीने ) होइ शके छे.' तो पण आ सूत्रमां एकी समये एम विशेष कह्यो नथी तेथी जुदे जुदे काळे थनारा चक्रवर्ती विगेरे जुदी जुदी विजयने आश्रीने थाय तो तेमां कांइ विरोध नथी. ते • बाबत जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिमा भारतक्षेत्र अने कच्छ विगेरे विजयना आलावावडे चक्रवर्तीओ केटला थाय ते कर्तुं छे (त्यांथी जोड़ लेवुं.) (२) || सूत्र - ६८ ॥ हवे ओगणोतेरमुं स्थान कहे छे मू---समयखित्ते णं मंद्रवज्जा एगूणसत्तरिं वासा वासधरपवया पन्नत्ता, तं जहा - पणतीसं वासा तीसं वासहरा चत्तारि उसुयारा । १ । मंदरस्स पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ १. उत्कृष्ट थाय तो एक महाविदेहनी ३२ विजयमांथी २८ मां चक्रवर्ती ने ४ मां वासुदेव थाय अथवा २८ मां वासुदेव अने ४ मां चक्रवर्ती थाय एम स्पष्ट कहेल छे. भरत ने ऐरवतमां एकेक थाय ते भेळवीए तो ३० ने ४= ३४ थाय एम समजवुं. बे महाविदेहादिना मळीने ६० ने ८=६८ समजवा. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाया चोधु अंग ६२ वने या समवाय गोयमद्दीवस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं एगूणसत्तरि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । मोहणिज्जवजाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एगूणसत्तरं उत्तरपगडीओपन्नत्ताओ॥३॥ सूत्रम्-६९॥ मूलार्थ:-समयक्षेत्र( अढी द्वीप )मां मेरु पर्वत विना बाकी सर्व मळीने ओगणोतेर वर्ष (क्षेत्र ) अने वर्षधर पर्वतो all कया छे. ते आ प्रमाणे-पांत्रीश क्षेत्रो, त्रीश वर्षधर पर्वतो अने चार इपुकार पर्वतो (१) । मेरु पर्वतनी पूर्व दिशाना छेडाथी बना गौतम द्वीपना पश्चिम छेडा सुधी ओगणोतेर हजार योजननु अबाधाए आंतरूं कयु छ (२) । एक मोहनीय कर्मने वर्जीने बाकीनी सात कर्मप्रकृतिनी उत्तर प्रकृतिओ ओगणोतेर कहेली छे ॥३॥ टीकार्थ:--हवे ओगणोतेरमा स्थानक विपे काइक लखे छे-'समयेत्यादि-मंदरने वर्जीने एटले मेरु पर्वतने वर्जीने वर्ष एटले भरत विगेरे क्षेत्रो तथा वर्षधर पर्वतो एटले ते क्षेत्रोनी सीमाने करनारा हिमवान विगेरे वर्षधर पर्वतो ए सर्वे मळीने ओगणोतेर कह्या छे. केवी रीते ? ते कहे छे-पांच मेरु पर्वतने आश्रीने सात सात भरत, हैमवत विगेरे मळीने पांत्रीश क्षेत्रो छे, तथा दरेक मेरुने आश्रीने छ छ हिमवान विगेरे वर्षधर पर्वतो होवाथी कुल त्रीश पर्वतो छ, तथा धातकीखंडमां २ ने पुष्कराधमां २ मळी चार इषुकार पर्वत छे. आ सर्वे मळीने ओगणोतेर थाय छे (१)। 'मंदरस्सेत्यादि'लवणसमुद्रमा पश्चिम दिशाए बार हजार योजन जइए त्यां बार हजार योजनना प्रमाणवाळो अने सुस्थित नामना लवणसमुद्रना अधिपतिना भवनवडे सहित गौतमद्वीप नामनो द्वीप छे. तेनो पश्चिम तरफनो छेडो मेरु पर्वतना पश्चिम छेडा थकी ओगणोतेर ॥१६२॥ - Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजार योजन प्रमाण थाय छे, (एटलं बच्चे आंतरं छे) केम के जंबूद्वीपना पीस्ताळीश हजार योजन, लवणसमुद्रना चार हजार | योजन अने गौतमद्वीपना विष्कभना बार हजार योजन एत्रणे मळीने ओगणोतेर हजार थाय छे (२)। मोहनीय कर्मने। वर्जीने बाकीना कोनी ओगणोतेर उत्तरप्रकृतिओ थाय छे ते शी रीते ? ते कहे छे-ज्ञानावरणनी पांच, दर्शनावरणनी नव, वेदनीयनी वे, आयुष्यनी चार, नामनी वेताळीश, गोत्रनी वे अने अंतरायनी पांच-आ सर्व मळीने ६९ थाय छे (३) ॥ सूत्र-६९ ।। हवे सीतेरमुं स्थान कहे छे मू०-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइकंते सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ । १ । पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तरिं वासाइं बहुपडिपुन्नाइं सामन्नपरियागं पाउणित्ता सिद्ध बुद्धे जाव प्पहीणे । २ । वासुपुजे णं अरहा सत्तरं धण्इं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था ।३। मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स सत्तरं सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्मट्ठिई कम्मनिसेगे पन्नत्ता । ४ । माहिंदस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सत्तरि सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ५॥ सूत्रम्-७०॥ - मूलार्थः-श्रमण भगवान महावीरस्वामीए वर्षाऋतुना वीश दिवस सहित एक मास व्यतीत थये सते अने सीतेर | रात्रिदिवस शेष रहे सते वर्षावास प्रत्ये निवास कयों (चोमासु रह्या) (आ हकीकत पर्युपणा माटे समजवी) (१)। " TA F Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१३३॥ पुरुषोना मध्ये आदेय नामकर्मवाळा श्रीपार्श्वनाथ अरिहंत परिपूर्ण सीतेर वर्ष श्रमणपर्याय पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया ( २ ) । श्रीवासुपूज्यस्वामी अरिहंत सीतेर धनुष ऊंचा हता ( ३ ) । मोहनीय कर्मनी स्थिति सीतेर कोडाकोडी सागरोपमनी कही छे तेनो अबाधाए करीने रहित (ओछी ) कर्मस्थितिरूप कर्मनिषेक समजवो एटले सात. हजार वर्षे ऊ सीतेर सागरोपम कोटाकोटि निषेककाळ कह्यो छे ( ४ ) । चोथा माहेंद्र देवलोकना देवराज देवेंद्रना सीतेर हजार सामानिक देवो का छे ( ५ ) ॥ टीकार्थ :- वे सीतेरमा स्थानकमां कांइक लखे छे - 'समणे इत्यादि ' - वर्षाना एटले चार मासना वर्षाकाळना ata रात्रसहित एटले वीश दिवस अधिक एवो एक मास व्यतीत थये सते अर्थात् पचास दिवसो गये सते तथा सीतेर रात्रिदिवस शेष रहे सते अर्थात् भाद्रपदनी शुक्ल पंचमीने दिवसे वर्षावास प्रत्ये एटले वर्षाकाळना अवस्थान प्रत्ये 'पज्जोसवे त्ति'परिवसति एटले सर्वथा प्रकारे निवास करे छे. पहेलाना पचास दिवसोमां तथाप्रकारनी ( रहेवाने योग्य ) वसतिनो अभाव विगेरे कारण होय तो बीजा स्थाननो पण आश्रय करे छे; परंतु भाद्रपद शुक्ल पंचमीए ( पंचमीथी ) तो वृक्षनी नीचे विगेरे कोइ पण स्थळे ( निश्चित ) निवास करे छे, ए आनुं तात्पर्य छे ( १ ) । ' पुरिसादाणीय त्ति '- पुरुषोने जे आदानीय एटले ग्रहण करवा लायक होय ते पुरुषादानीय कहेवाय छे (२) । 'अवाहूणिया कम्मट्टिई कम्मणिसेगे पण्णत्ते त्ति' (' अबाधाहीन कर्मस्थिति ते कर्मनिषेक कह्यो छे. ) आ संसारमां जीव प्रथम सामान्यपणे कर्मपुद्गलोने ग्रहण करी त्यारपछी ज्ञानावरणीयादिककर्मना पोतपोताना अबाधाकाळने मूकीने ज्ञानावरणीयादिक प्रकृतिना विभागे करीने अनाभोगिक समवाय ७० ॥ ॥१६३॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्यवडे ते दळियानो निषेक करे छे एटले उदयने योग्य करे छे. तेथी तेनी स्थिति बे प्रकारे छे-एक कर्मत्वापादनरूप एटले ॥ मात्र (सामान्यथी) कर्मपणे ज प्राप्त करवारूप अने बीजी अनुभवरूप एटले अनुभव करवारूप (भोगववारूप) एम.बे प्रकारे छे. केम के स्थिति एटले अवस्थान अर्थात् तेपणाए करीने नहीं चवg (रहे) ते. तेमां 'अबाह त्ति'-आनो अर्थ शो ? ते कहे छे-(सीतेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिवाढं मोहनीय कर्म) बंधावलिकाथी आरंभीने सात हजार वर्ष सुधी ते कर्म बाधा करतुं नथी एटले उदयमा आवतुं नथी. त्यारपछी तरत ज बीजे समये पूर्व निषेक करेला कर्मदलिक (कर्मनां दळियां) उदयमां (उदयावलिकामां) प्रवेश करे छे. निषेक एटले अनुभवमां आववा माटे ज्ञानावरणादिक कर्मदलिकनी रचना करवी ते. ते कर्मदलिकने प्रथम समये घणो निषेक करे छे, बीजे समये वधारे हीन, त्रीजे समये विशेष हीन, ए प्रमाणे ज्यांसुधी उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण थाय त्यांसुधी कर्मस्थितिनो निषेक हीन हीन समजवो. ते विष कधुं छे के-“पोतानो | अबाधाकाळ मूकीने प्रथम स्थितिमा घणो निषेक करे छे, शेष स्थितिमा विशेषहीन विशेषहीन करता सर्व कर्मनी उत्कृष्ट । स्थिति सुधी लेवु." 'बाई' धातु वलोववाना अर्थमा छे तेथी बाधते एटले जे बाधा पामे ते बाधा एटले कर्मनो | उदय कहेवाय छे. नहीं बाधा ते अबाधा एटले कर्मना उदयनुं आंतरं. ते अबाधावडे जे ऊनिका ( ओछी) ते अबाधो. निका एटले अबाधाकाळने वर्जीने जे कर्मनी स्थिति ते कर्मनिषेक होय छे. आ प्रमाणे केटलाक आचार्यों कहे छे. तथा अन्य आचार्यो एम कहे छ के-(मोहनीय कर्मनी) सात हजार वर्ष अधिक सीतेर कोटाकोटि सागरोपमनी स्थिति छ तेमांथी अवाधारूप सात हजार वर्षे न्यून एवो सीतेर कोटाकोटि सागरोपमनो निषेक काळ समजवो (४) ॥ सूत्र-७०॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समवायाङ्ग पत्र॥ पोधु अंग ॥१६४॥ जन - हवे एकोतेरसुं स्थान कहे छे समवाय मूल-चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एकसत्तरीए राइंदिएहिं वीइकतेहिं सबबाहि- ७१॥ राओ मंडलाओ सूरिए आउटिं करेइ । १ । वीरियप्पवायस्स णं पुवस्स एकसत्चरिं पाहुडा पन्नत्ता । । २ । अजिते णं अरहा एकसत्तरिं पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पवइए।३। एवं सगरो वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एकसत्तरि पुव्व जाव पवइए ति।४॥ सूत्रम्-७१॥ मूलार्थः-चोथा चंद्र संवत्सरना हेमंतऋतुना एकोतेर रात्रिदिवस व्यतीत थाय त्यारे सूर्य सर्व बाह्य मंडळथकी आवृत्ति करे छे (१)। वीर्यप्रवाद नामना पूर्वमा एकोतेर प्राभृतो कहेला छे (२)। श्रीअजितनाथ अरिहंत एकोतेर लाख पूर्व गृहस्थवास मध्ये वसीने पछी मुंड थइ यावत् प्रव्रजित थया (३)। एज प्रमाणे सगर नामना चार दिशाना अंत सुधीना चक्रवर्ती राजा पण एकोतेर लाख पूर्व राज्य भोगवीने यावत् प्रव्रजित थया हता (४)॥ टीकार्थ:-हवे एकोतेरमा स्थानने विपे काइक लखे छे–'चउत्थस्सेत्यादि'-आ सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-एक युगमा पांच संवत्सर होय छे. तेमा पहेला वे चंद्र संवत्सर होय छे, त्रीजो अभिवधित संवत्सर अने चोथो चंद्र संवत्सर ज छे. तेमां ओगणत्रीश दिवस अने एक दिवसना बासठीया बत्रीश भाग २९३३ प्रमाणवाळो एक चंद्र मास थाय [छे. आ.मासने बारे गुणीए त्यारे एक चंद्र संवत्सर थाय छे. अने आमासने ज तेरे गुणीए त्यारे अभिवार्धित संवत्सर ना॥१६ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . थाय छे. तेथी चंद्र, चंद्र अने अभिवर्धित आ त्रण संवत्सरना मळीने कुल दिवसो एक हजार ने वाणुं तथा उपर वासठीया छ भाग १०९२६३ थाय छे । तथा एक सूर्य संवत्सरमां त्रण सो ने छासठ दिवसो होय छे. ते त्रण वर्षना थइने कुल एक हजार अठ्ठाणुं ( १०९८ ) दिवसो थाय छे. हवे अहीं चंद्रयुग अने आदित्य युग बन्ने लेवाना छे. तेमां एक आषाढ मासनी पूर्णिमाए पूर्ण थाय छे अने वीजुं श्रावण कृष्ण प्रतिपदाएं शरू थाय छे. ए प्रमाणे आदित्ययुग त्रण संवत्सरनी अपेक्षाए चंद्रयुगना त्रण संवत्सर पांच दिवस अने एक दिवसना वासठीया छप्पन्न ५६६ भागे करीने ओछा थाय छे, तेथी करीने आदित्ययुगना त्रण संवत्सर चंद्र संबंधी श्रावण कृष्ण पक्षना साधिक छ दिवसे पूर्ण थाय छे, अने (चंद्र ) युगना त्रण संवत्सर तो आषाढ पूर्णिमाए पूर्ण थाय छे. तेथी करीने श्रावण कृष्णपक्षना सातमा दिवसथी आरंभीने दक्षिणायनमां चालतो सूर्य चंद्रयुगना चोथा संवत्सरना चोथा मासने छेडे एक सो ने अढार (११८) मा दिवसे आवती कार्तिक पूर्णिमाए पोताना एक सो ने बारमा (११२) मंडळे चाले छे. त्यारपछी बीजा एकोतेर मंडळे हेमंत मास संबंधी मार्गशीर्ष विगेरे चार मासना तेटला ज (११८) दिवसोवडे चाले छे. त्यारपछी बोंतेरमे दिवसे एटले माघ मासना . कृष्णपक्षनी तेरशने दिवसे सूर्य आवृत्ति करे छे एटले के दक्षिणायनथी पाछो फरी उत्तरायणमां चाले छे. अहीं ज्योतिष्करंडकमां पांच युगसंवत्सर संबंधी उत्तरायणनी तिथिओ अनुक्रमे आ प्रमाणे कही छे - "सूर्य कृष्णपक्षनी सातमे ९, शुक्लपक्षनी चोथे २, कृष्णपक्षनी प्रतिपदाए ३, कृष्णपक्षनी तेरशे ४, शुक्लपक्षनी दशमे ५, कृष्णपक्षनी पांचमे आवर्तन करें छे. आ सर्व आवृत्तिओ माघ मासमां आवे छे. । " दक्षिणायनना दिवसो आ प्रमाणे अनुक्रमे कहा छे - " पहेली आवृत्ति Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ७२॥ कृष्णपक्षनी प्रतिपदाए १, वीजी कृष्णपक्षनी तेरशे २, त्रीजी शुक्लपक्षनी दशमीए ३, चोथी कृष्णपक्षनी सातमे ४, तथा समवाया। पांचमी आवृत्ति शुक्लपक्षनी चतुर्थीने रोज प्रवर्ते छे ५. आ सर्व आवृत्तिओ श्रावण मासमां आवे छे (१)।" वीर्यप्रवाद नामर्नु त्रीजुं पूर्व छे. तेमा 'पाहुड त्ति'-प्राभृत अधिकार विशेष (ते ७१ कहेला छे) (२)। 'अजिए इत्यादि'बोधू अंग ते अजितनाथ तीर्थकरने अढार लाख पूर्व कुमारपणामां अने त्रेपन लाख पूर्व तथा उपर एक पूर्वांग एटलो समय राज्य पणामां व्यतीत थयो, ए प्रमाणे एकोतेर लाख पूर्व थया. अहीं जे एक पूर्वांग अधिक छे ते अल्प होवाथी तेनी विवक्षा ॥१६५॥ (कहेवानी इच्छा) करी नथी (३) । सगर नामना वीजा चक्रवर्ती, ते अजितस्वामीने काळे थया हता ( ते पण ७१ लाख पूर्व अणगार थया हता) (४) ॥ सूत्र-७१ ।। हवे बोतेरमुं स्थान कहे छे: मू०-बावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता ।१। लवणस्स समुदस्स बावत्तरिं नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारंति ।२। समणे भगवं महावीरे बावत्तरि वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । ३। थेरे णं अयलभाया बावत्तरि वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । ४ । अभितरपुक्खरद्धे णं बावत्तरिं चंदा पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, बावत्तरि सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा । ५। एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवाहिस्स ॥१६५॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ६ । बावत्तरि कलाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-लेहं १, गणियं २, रूवं ३, नटं ४, गीयं ५, वाइयं ६, सरगयं ७, पुक्खरगयं ८, समतालं ९, जूयं १०, जणवायं ११, पोक्खच्चं १२, अट्ठावयं १३, दगमट्टियं १४, अन्नविहीं १५, पाणविहीं १६, वत्थविहीं १७, सयणविहीं १८, अजं १९, पहेलियं २०, मागहियं २१, गाहं २२, सिलोगं २३, गंधजुत्तिं २४, मधुसित्थं २५, आभरणविहीं २६, तरुणीपडिकम्मं २७, इत्थीलक्खणं २८, पुरिसलक्खणं २९, हयलक्खणं ३०, गयलक्खणं ३१, गोणलक्खणं ३२, कुकुडलक्खणं ३३, मिंढयलक्खणं ३४, चकलक्खणं ३५, छत्तलक्खणं ३६, दंडलक्खणं ३७, असिलक्खणं ३८, मणिलक्खणं ३९, कागणिलक्खणं ४०, चम्मलक्खणं ४१, चंदलक्खणं ४२, सूरचरियं ४३, राहुचरियं ४४, गहचरियं ४५, सोभागकरं ४६, दोभागकरं ४७, विजागयं ४८, मंतगयं ४९, रहस्सगयं ५०, सभासं ५१, चारं ५२, पडिचारं ५३, वूहं ५४, पडिवूहं ५५, खंधावारमाणं ५६, नगरमाणं ५७, वत्थुमाणं ५८, खंधावारनिवेसं ५९, वत्थुनिवेसं ६०, नगरनिवेसं ६१, ईसत्थं ६२, छरुप्पवायं ६३, आससिक्खं ६४, Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१६६॥ हत्थासक्ख ६५, धणुवेयं ६६, हिरण्णपागं सुवन्नपागं मणिपागं धातुपागं ६७, बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुजुद्धं अजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुदाई जुद्धं ६८, सुत्तखेडं नालियाखेडं वट्टखेडं धम्मखेडं चम्म खेडं ६९, पत्तच्छेज्जं कडगच्छेजं ७०, सजीवं निज्जीवं ७१, सउणरुयं ७२ । ७ । संमुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं बावत्तरिं वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता |८|| सूत्रम्-७२ ॥ मूलार्थ:- सुवर्णकुमारना वोंतेर लाख आवास ( भवनो ) का छे ( १ ) । लवणसमुद्रनी बहारनी ( धातकीखंड तरफनी ) वेळाने बोंतेर हजार नागकुमार देवो धारण करे छे ( २ ) । श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी बतेर वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया ( ३ ) । स्थविर ( गणधर ) अचलभ्राता बींतेर वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थथा, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया ( ४ ) । पुष्करार्ध द्वीपने विषे बोंतेर चंद्र प्रकाशता हता, प्रकाश करे छे, प्रकाश करशे, तथा बोंतेर सूर्य तपता हता, तपे छे अने तपशे ( ५ ) । एक एक ( दरेक) चातुरंत चक्रवर्ती राजाने बोंतेर हजार श्रेष्ठ पुर होय छे एम कर्तुं छे ( ६ ) बोंतेर कळाओ कही छे, ते आ प्रमाणे - लेख १, गणित २, रूप ३, नाट्य ४, गीत ५, वाद्य ६, स्वरगत-स्वर जाणवानी कळा ७, पुष्करगत-ढोल विगेरे वाजिनुं जाणवुं ८, समताल - ताळीयो वगाडवानुं जाणवुं ९, द्यूत-जुगार रमवानुं जाणवुं १०, जनवाद - लोकोना वार्तालाप जाणवा ११, नगरनी रक्षा करवानुं जाणवुं १२, पासा रमवानी कळा १३, दगमट्टी-पाणीने माटी बन्ने मेळवीने समवाय ७२ ॥ ॥१६६॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेमांथी बनती वस्तुओ करवानी कळा १४, अन्नविधि-अन्न उत्पन्न करवानी ( रांधवानी) कळा १५, पानविधि-पाणी उत्पन्न करवानी तथा शुद्ध करवानी कळा १६, वस्त्रविधि-वस्त्र बनाववानी, रंगवानी, धोवानी कळा १७, शयनविधि-शय्या बनाववानी तथा तेमां सूवानी कळा १८, आर्या-संस्कृत कविता बनाववादिकनी कळा १९, प्रहेलिकागूढार्थवाळी कविता बनाववादिकनी कळा २०, मागधिका-मगध देशनी भाषा जाणवानी कळा २१, गाथाप्राकृत गाथा करवानी तथा जाणवानी कळा २२, श्लोक-श्लोक बनाववा-जाणवानी कळा २३, गंधयुक्ति-सुगंधि पदार्थ बनाववा-जाणवानी कळा २४, मधुसिक्थ-मधुरादिक छ रस बनाववा-जाणवानी कळा २५, आभरणविधिअलंकार बनाववा, पहेरवा विगेरेनी कळा २६, तरुणीप्रतिकर्म-स्त्रीने केळवणी आपवानी कळा २७, स्त्रीलक्षण-स्त्रीना लक्षण जाणवानी कळा २८ पुरुषलक्षण-पुरुषना लक्षण जाणवानी कळा २९, हयलक्षण-अश्वना लक्षण जाणवानी कळा ३०, गजलक्षण-हस्तीना लक्षण जाणवानी कळा ३१, गोणलक्षण-वृपभना लक्षण जाणवानी कळा ३२, कुर्कुटलक्षण-कुकडाना लक्षण जाणवानी कळा ३३, मेंढलक्षण-मेंढाना लक्षण जाणवानी कळा ३४, चक्रलक्षण-चक्रना लक्षण जाणवानी कळा ३५, छत्रलक्षण-छत्रना लक्षण जाणवानी कळा ३६, दंडलक्षण-दंडना लक्षण जाणवा ३१, असिलक्षण-खगना लक्षण जाणवा ३८, मणिलक्षण-मणिना लक्षण ३९, काकिनीलक्षण-कागणीना लक्षण ४०, चर्म -चर्मना लक्षण एटले गुण, अवगुण विगेरे जाणवानी कळा ४१, चंद्रलक्षण-चंद्रनुं ग्रहण विगेरे जाणवानी कळा ४२, सूर्यचरित-सूर्यनी गतिनुं जाणवू विगेरे ४३, राहुचरित-राहुनी गति विगेरे जाणवी ४४, ग्रहचरित-ग्रहनी गति विगेरेनुं ज्ञान ४५, सौभाग्यकर Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१६७॥ सौभाग्य करवानुं ज्ञानादिक ४६, दौर्भाग्यकर - दौर्भाग्य करवानुं ज्ञानादिक ४७, विद्यागत - रोहिणी, प्रज्ञप्ति विगेरे विद्या संबंधी ज्ञानादिक ४८, मंत्रगत - मंत्रनी साधना विगेरेनुं ज्ञानादिक ४९, रहस्यगत - गुप्त वस्तु, वात विगेरेनुं ज्ञानादिक ५०, सद्भाव - दरेक वस्तुनी हकीकत जाणवी ५१, चार- सैन्यनुं प्रमाण जाणवुं विगेरे ५२, प्रतिचार - सैन्यने युद्धमां उतारवानी कळा ५३, व्यूह - सैन्यनी रचनानी कळा ५४, प्रतिव्यूह - शत्रुसैन्यना व्यूहनी सामे तेनो पराजय करवा माटे सामुं व्यूह रचवानी कळा ५५, स्कंधावारमान - सैन्यना पडाव नांखवाना स्थळनुं प्रमाण जाणवुं ५६, नगरमान - शहेर बसाववाना स्थाननुं प्रमाण जाणवुं ५७, वस्तुमान - वस्तुनुं प्रमाण जाणवुं ५८, स्कंधवारनिवेश - सैन्यनो पडाव नांवानुं ज्ञानादिक ५९, वस्तुनिवेश - दरेक वस्तुने स्थापन करवाना विधिनुं ज्ञानादिक ६०, नगरनिवेश -नगर वसाववा संबंधी ज्ञानादिक ६१, ईपदर्थ - थोडाने घणुं करी बताववानी कळा ६२, त्सरुप्रपात - खगनी मूठ बनाववा विगेरेनी कळा ६३, अशिक्षा - घोडानी शिक्षा ६४, हस्तीशिक्षा ६५, धनुर्वेद ६६, हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक ६७, बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध ६८, सूत्रखेड, नालिकाखेड, वर्तखेड, धर्मखेड, चर्मखेड ६९, पत्रच्छेद्य - पत्र छेदवानी कळा, कटकच्छेद्य-वृक्षांगविशेष छेदवानी कळा ७०, सजीव-निर्जीवने सजीव जेवो करीने अने सजीवने निर्जीव जेवो करीने बताववानी कळा ७१, तथा शकुनरुत - पक्षीना शब्दथी शभाशुभ जाणवानी कळा ७२ (७)। संमूच्छिम खेचर पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिवाळानी उत्कृष्ट स्थिति चोंतेर हजार वर्षनी कही छे ( ८ ) ॥ टीकार्थ:- हवे बोंतेरमा स्थानकमां कांइक लखे छे – सुवर्णकुमारना वोंतेर लाख भवनो छे. केवी रीते १ ते कहे छे समवाय ७२ ॥ ॥१६७॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 दक्षिण निकायमा आत्रीश लाख अने उत्तरनिकायमां चोत्रीश लाख बन्ने मळीने बोंतेर लाख भवनो थाय छे (१) । 'नागसाहस्सीओ त्ति ' - बोंतेर हजार नागकुमार देवो बाह्य वेळाने एटले धातकीखंड तरफनी वेळाने एटले सोळा हजार योजन ऊंची अने दश हजार योजन पहोळी ( जाडी ) लवणसमुद्रनी शिखाने ( धारण करे छे) (२) । श्रीमहावीरस्वामी बोंतेर वर्षनुं आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, ते केवी रीते ? ते कहे छे - त्रीश वर्ष गृहवासमां, साडावार वर्ष अने एक पक्ष ( पखवाडीयुं ) छद्मस्थ अवस्थामां तथा कांइक न्यून त्रीश वर्ष केवळीपणामां एम सर्व मळीने वोंतेर वर्ष थाय छे ( ३ ) । अयलभाय त्ति ' - अचळ भ्राता नामना महावीरस्वामीना नवमा गणधर, तेनुं आयुष्य वोंतेर वर्षनुं हतुं. केवी रीते ? ते कहे - छैताळीश वर्ष गृहस्थपणामां, बार वर्ष छद्मस्थपणामां अने चौद वर्ष केवळीपणामां ( एम कुल ७२ वर्ष थाय छे ) ( ४ ) । पुष्करार्ध क्षेत्रमां वोंतेर चंद्र (ने ७२ सूर्य ) छे. तेमां एक पंक्तिमां छत्रीश अने वीजी पंक्तिमां पण छत्रीश बन्ने मलीने बोंतेर थाय छे (५) । ' बावत्तरिं कलाओ त्ति - कळा एटले विज्ञान. ते कळा जाणवाना भेदथी बोंतेर होय छे. तेमां लेखन एटले अक्षर लखवा ते, तेना विषयवाळी जे कळा - विज्ञान ते लेखन कहेवाय छे. एम सर्वत्र समज. ते लेख वे प्रकारनी छे – लिपि अने विषय. तेमां लिपि अढार प्रकारनी छे ते अठारमा स्थानमां कही गया छे, अथवा लाट विगेरे देशोना भेदने लइने अथवा तथाप्रकारनी विचित्र उपाधिना भेदने लीधे अनेक प्रकारे होय छे. ते आ प्रमाणे --पत्र, छाल, काष्ठ, दांत, लोह, ताम्र, रुपुं विगेरे वस्तुओ अक्षरना (लखवाना) आधाररूप छे, ( तेना पर लखाय छे). तथा लख Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ७२॥ श्री., समवायाङ्ग स्त्र ॥ चोयूं अंग ॥१६॥ कोतर, परोव, वणवं, छेदवं, मेदवं, वाळवू अने संक्रामद् (बीजा पदार्थ- मेळवq) आ विगेरे करवाथी (लखवा, कोतवा विगेरेथी) अक्षरो थाय छे. तथा विपयनी अपेक्षाए पण अनेक प्रकारे लेखन थइ शके छे केम के स्वामी-भृत्य, पितापुत्र, गुरु-शिष्य, भार्या-पति, शत्रु-मित्र विगेरे लेखना विषयो अनेक छे. तेम ज ते स्वामी विगेरेना तथाप्रकारना कार्यों पण अनेक प्रकारना छे, तेथी अनेक प्रकार थइ शके छे. आ अक्षर पण दोप रहित लखवा जोइए, तेथी तेना दोष आ प्रमाणे कह्या छ-"अति झीणापणुं, अति मोटापणुं, विषमपणुं, लींटीनुं वांकापणुं, असमानतुं सदृशपणुं (जेमके-'प' ने बदले 'य' लखवो विगेरे) तथा अवयवोनो विभाग न पाडवो ते (अक्षरोना विभाग माथां विगेरे जुदा लखीने न पाडवो ते वरवर्णिका' ने बदले विखर्णिका') १, तथा गणित एटले संख्या, ते गणित संकलित विगेरे अनेक प्रकारचं पाटीने विष प्रसिद्ध छे २, रूप्य-लेप्य, शिला, सुवर्ण, मणि, वस्त्र अने चित्र विगेरेने विपे रूप बनावबुं (प्रतिमादिक बनाववानी कळा )३, नाट्य कळा-भरत, मार्ग, छलिक अने लास्यविधान विगेरेना भेदवडे आठ प्रकारचं नाट्य ग्रहण करवाथी नृत्यकळा पण ग्रहण करी छे एम जाणवू. ते नृत्यकळा त्रण प्रकारे छे-अभिनयिका, अंगहारिका अने व्यायामिका-आ सर्वनुं स्वरूप भारतनाटयशास्त्रथी जाणवू ४, तथा गीतकळा त्रण प्रकारनी छे-निबंधमार्ग, छलिकमार्ग अने भिन्नमार्ग, तेमां " सात स्वर, त्रण ग्राम, एकवीश मूर्छना अने ओगणपचास तान छे. ए प्रमाणे स्वरमंडळ समाप्त थयु." आ कळा विशाखिल नामना शास्त्रमाथी जाणवी ५, 'वाइयं ति'-वाद्यकळा. आ कळा चार प्रकारनुं तत, पांच प्रका १. गरम करेली वस्तुने काष्ठपर फेरवी अक्षर पाडवा. तेमा काष्ट बळे छे ने अक्षर पडे छे. ॥१६॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - रतुं वितत, त्रण प्रकारनुं शुषिर अने एक प्रकारचें घन, आरीते वाजिबना तेर प्रकार थाय छे ६, इत्यादिक कळानो विभाग लौकिकशास्त्रथी जाणी लेवो. अहीं कळानी संख्या बौंतेर कही छे, परंतु सूत्रमा तेनां नामो घणां जुदां जुदा जोवामां आवे छ, तेथी कोइनो कोइमां अंतर्भाव ( समावेश) थाय छ एम जाणवू. (७) ॥ सूत्र-७२ ॥ . हवे तोतेरमुं स्थान कहे छ मू०-हरिवासरम्मयवासयाओ णं जीवाओ तेवतरि तेवत्तरि जोयणसहस्साइं नव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं पन्नत्ता । १ । | विजए णं बलदेवे तेवत्तरिं वाससयसहस्साइंसवाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे।२॥ सूत्रम्-७३॥ II मूलार्थः-हरिवर्ष अने रम्यक क्षेकनी (प्रत्येकनी ) जीवा तोतेर तोतेर हजार, नव सो ने एक योजन तथा उपर | एक योजनना ओगणीशीया सत्तर भाग तथा अर्धे भाग ७३९०११३ जेटली लांबी कही छ (१)। विजय नामना बळदेव तोतेर हजार वर्पनुं सर्व (कुल ) आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (२)॥ टीकार्थ:--हवे तोतेरमा स्थानक विष काइक लखे छ- हरिवासे.त्ति'--अहीं संवादनी गाथा आ प्रमाणे छ--- "हरिवर्प क्षेत्रनी जीवा तोतेर हजार, नव सो ने एक योजन उपर सत्तर अने अर्ध (साडीसत्तर) कळा ७३९०११६३ जेटली छ (१)। तथा विजय नामना बीजा वळदेवतुं कुल आयुष्य तोतेर लाख वर्षनुं कह्यु छे, पण आवश्यक सूत्रमा तो पंचोतेर - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ७४॥ समवायाङ्गः चोपुंअंग ॥१६९॥ लाख वर्पर्नु कथु छ, ते मतांतर जाणवु (२) ॥ सूत्र-७३ ॥ हवे चुमोतेरसुं स्थान कहे छे-- मू०--थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोवत्तरि वासाई सघाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे।। निसहाओ णं वासहरपवयाओ तिगिच्छिओ णं दहाओ सीतोयामहानदीओ चोवत्तरिं जोयणसयाई साहियाइं उत्तराहिमुही पवहित्ता वइरामयाए जिब्भियाए चउजोयणायामाए पन्नासजोयणवि. क्खंभाए वडरतले कुंडे महया घडमहपवत्तिएणं मृत्तावलिहारसंठाणसठिएणं पवाएणंमहया सद्देणं पवडइ । २ । एवं सीता वि दक्खिणाहिमुही भाणियव्वा । ३। चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवत्तरि नरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ४ ॥ सूत्रम्-७४ ॥ .. मूलार्थ:--स्थविर अग्निभूति नामना गणधर चुमोतेर वर्षY सर्व ( कुल ) आयुष्य पाळीने सिद्ध थया यावत् सर्व दुःख रहित थया (१)। निपध नामना वर्षधर पर्वत उपर रहेला तिगिच्छ नामना महाद्रहथकी सीतोदा नामनी महानदी (नीकळी छे ते) साधिक चुमोतेर सो योजन उत्तर दिशा सन्मुख वहन करीने चार योजन लांबी अने पचास योजन विष्कंभवाळी (पहोळी) एवी वज्ररत्नमय जिह्वावडे वज्ररत्नना तळियावाळा कुंडमां (सीतोदा प्रपातकुंडमां) मोटा घडाना मुखमाथी धारा नीकळे तेम मोतीना हारना संस्थानवडे रहेला प्रपातवडे ( पडवावडे ) मोटा शब्दे करीने पडे छे (२)। ६९॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज प्रमाणे सीता नामनी महानदी पण दक्षिण दिशा तरफ वहेती सती सीताप्रपात द्रहमां पडे छे एम कहे ( ३ ) । • एक चौथी नरकपृथ्वी सिवाय बाकीनी छ नरक पृथ्वीने विपे (कुल) चुमोतेर लाख नरकावासा कह्या छे ( ४ ) ॥ टीकार्थ:-- हवे चुमोतेरमा स्थानक विषे कांइक लखे छे - तेमां अग्निभूति ए श्री महावीरस्वामीना वीजा गणधर हता, तेनुं चुमोतेर वर्षनुं आयुष्य कहुं, तेनो विभाग आ प्रमाणे छे छेंताळीश वर्षनो गृहस्थपर्याय, चार वर्ष छद्मस्थपर्याय अने सोळ वर्ष केवळीपर्याय जाणवो (१) । ' निसहाओ णमित्यादि -आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे - निषध नामना वर्ष पर्वतो विष्कंभ सोळ हजार आठसो ने बेंताळीश योजन अने वे कळा ( १६८४२ - २ ) नो छे. तेना मध्य भागमां तिमिच्छ नामनो महाद्रह छे, ते वे हजार योजन पहोलो अने चार हजार योजन लांबो छे. तेथी पर्वतना विष्कंभ (पहोळाइ) ने अर्ध करी (८४२१ - २) तेमांथी द्रहना विष्कंभनो अर्ध भाग (१०००) बाद करीए त्यारे सीतोदा महानदीनो पर्वत उपर सात हजार चार सो ने एकवीश योजन तथा एक कळा ( ७४२१ - १ ) जेटलो प्रवाह थाय छे. ' वइरामयाए जिन्भियाए त्ति 'वज्रमय जिह्विकावडे एटले प्रणाळमां रहेला मकरमुखनी जिह्वा के जे चार योजन लांबी अने पचास 'योजन पहोळी छे तेनावडे ' वइरतले कुंडे त्ति, निषध पर्वतनी नीचे रहेला, वज्रना तळीयावाळा, चार सो ने ऐंशी ( ४८० ) योजन लांबा पहोळा अने दश योजन ऊंडा तथा शीतोदा देवीनुं भवन जेना शिखर उपर रहेलुं छे एवा शीतोदा नामना द्वीपवडे जेनो मध्य भाग शोभी रह्यो छे एवा शीतोदा प्रपात नामना कुंडने विष ' महय त्ति 'मोटा प्रमाणे करीने, अहीं कोइ प्रतमां ' दुहओ ' (वे बाजुए) एवो पाठ देखाय छे ते खोटो पाठ छे एम जणाय छे. ' घडमुहपवत्ति Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाह सूत्र !! धुं अंग ॥ १७० ॥ एणं ति -- जैम घडाना मुखथी नीकळतो होय तेम मुक्तावळीना एटले मोतीनी सेरवाळा हारनुं जेवुं संस्थान (आकार) वा संस्थाने रहेला प्रपातवडे एटले पर्वतथी पडता जळसमूहवडे मोटा शब्दे करीने पडे छे ( २ ) । ए ज प्रमाणे सीता महानदी पण कवी. तेमां विशेष ए के ते नदी नीलवान नामना वर्षधर पर्वतथकी दक्षिण दिशानी सन्मुख जड़ने ( सीता प्रपातकुंड मां ) पडे छे (३) । 'चउत्थवज्जेत्यादि ' तेमां पहेली पृथ्वीमां त्रीश लाख, बीजीमां पचीश लाख, त्रीजीमां पंदर लाख, पांचमीमां त्रण लाख, छठीमां पांच ओछा एक लाख अने सातमीमां पांच- आ सर्व मळीने चुमोतेर लाख थाय छे ( एकंदर ८० लाखमांथी चोथी नरक पृथ्वीना ६ लाख नरकावास बाद करतां ७४ लाख रहे छे ) (४) ॥ सूत्र- ७४ ॥ • हवे पंचोतेरमुं स्थान कहे छे -- मू० - सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ पन्नत्तरि जिणसया होत्या । १ । सीतले णं अरहा पन्नत्तरि पुव्वसहस्साई अगारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए । २ । संती णं अरहा पन्नत्तरिवास सहस्साइं अगारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । ॥ ३ ॥ सूत्रम् - ७५ ॥ मूलार्थ:-- सुविधिनाथ एटले पुष्पदंत अरिहंतने पंचोतेर सो सामान्य केवळी हता ( १ ) | श्री शीतळनाथ अरिहंत पंचोतेर हजार पूर्व सुधी गृहवास मध्ये रहाने पछी मुंड थइ यावत् प्रव्रजित थया ( २ ) । श्री शांतिनाथ अरिहंत पंचोतेर समवाय ७५ ॥ ॥ १७० ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजार वर्ष सुधी गृहवासने मध्ये रहीने पछी मुंड थइ गृहथकी अनगारपणे प्रव्रजित थया (३)॥ ____टीकार्थ:--हवे पंचोतेरमा स्थान विषे काइक लखे छे--सुविधि नवमा तीर्थकर, तेनुं बीजं नाम पुष्पदंत छ (१)। तथा शीतळनाथ अरिहंत पंचोतेर हजार पूर्व सुधी गृहवासमा रह्या हता, ते शी रीते ? ते कहे छे--पचीश हजार पूर्व कुमारपणामां अने पचास हजार पूर्व राज्य उपर रह्या हता (२)। तथा शांतिनाथ भगवान पंचोतेर हजार वर्ष गृहवासमा रही प्रत्रजित थया, ते शी रीते ? ते कहे छे--पचीश हजार वर्ष कुमारपणामां, पचीश हजार वर्ष मांडलिक राजापणामां अने पचीश हजार वर्ष चक्रवर्तीपणामां (एम कुल ७५००० वर्ष समजवा) (३)॥ सूत्र-७५॥ ___ हवे छोतेरसुं स्थान कहे छे-- __ मू०-छावत्तरि विज्जुकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता । १ । एयं-दीवदिसाउदहीणं, विज्जुकुमारिंद थणियमग्गीणं । छण्हं पि जुगलयाणं, छावत्तरि सयसहस्साइं। १ । ॥२॥ सूत्रम्-७६ ॥ मूलार्थः-विद्युत्कुमारना आवासो छोतेर लाख कह्या छ (१)। ए ज प्रमाणे द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमारेंद्र, स्तनितकुमार अने अग्निकुमार, ए छए युगलना छोंतेर छोतेर लाख भवनो कह्या छे (२)॥ टीकार्थ:--हवे छोतेरमा स्थानक विषे कांइक लखे छे-तेमा विद्युत्कुमारोना भवनो दक्षिण दिशामां चाळीश लाख छे अने उत्तर दिशामां छत्रीश लाख छ ( बन्ने मळीने ७६ लाख छ (१)। एज प्रमाणे एटले आ जे भवनोनुं प्रमाण कडं Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र चो अंग ॥ १७१ ॥ तेज द्वीपकुमारादिक भवनपति निकायनुं जाणवुं ते बाबतनी गाथा 'दीवेत्यादि ' मूळमां लखी छे. तेमां 'युगलानां एटले दक्षिण तथा उत्तरनिकायना भेदे युगल एटले दरेक निकायने विपे ( छोंतेर लाख छे ) (२) ॥ सूत्र- ७६ ॥ हवे सत्तोतेरमुं स्थान कहे छे -- मू० - भरहे राया चाउरंतचक्कवही सत्तहत्तरं पुव्वसयसहस्साइं कुमारवासमझे वसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते । १ । अंगवंसाओ णं सत्तहत्तरि रायाणो मुंडे जाव पव्वइया । २ । गद्द - तोयतुसियाणं देवाणं सत्तहत्तरं देवसहस्तपरिवारा पन्नत्ता । ३ । एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तहत्तरं लवे लवग्गेणं पन्नत्ते । ४ ॥ सूत्रम्-७७ ॥ मूलार्थ:-चातुरंत चक्रवर्ती भरत राजा सत्तोतेर लाख पूर्व कुमार अवस्थामां रहीने पछी महाराजाना अभिषेकने पाम्या हता ( १ ) । अंगवंशना सतोतेर राजा मुंड थड़ने यावत् प्रव्रजित थया हता ( २ ) । गर्दतोय अने तुपित देवोने सत्तो तेर हजार देवोनो परिवार कह्यो छे (३) । एक एक मुहूर्त्त सत्तोतेर लवप्रमाण कह्यो छे ( ४ ) ॥ टीकार्थ:-- हवे सत्तोतेरमा स्थानक विषे कांइक विवरण करे छे-तेमां ऋपभस्वामीनी वय छ लाख पूर्वनी थइ त्यारे भरतचक्री जन्म्या हता, अने ज्याशी लाख पूर्वनी वये भगवान प्रत्रजित थया त्यारे भरत राजा थया हता. तेथी ज्याशीमांथी छ बाद करतां सत्तोतेर रहे, तेटला लाख पूर्व सुधी तेनो कुमारवास हतो (१) । अंगवंश एटले अंगराजानो ( पुत्र पौत्रादिक) समवाय ७७ ॥ ॥१७१॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश संतान, ते संबंधी (तेमां जन्मेला ) सत्तोतेर राजाओ प्रव्रजित थया हता (२)। 'गद्दतोयेत्यादि'--ब्रह्मलोक(पांचमा स्वर्ग)नी नीचे रहेली आठ कृष्णराजिने विषे सारस्वत विगेरे लोकांतिक नामना आठ देवनिकायो रहेला छे. तेमां गर्दतोय अने तुपित ए बन्नेना (देवोना) परिवारनी संख्या एकठी करवाथी सत्तोतेर हजार देवोनो परिवार कह्यो छे (३) । तथा एक एक मुहूर्त लवना परिमाणे करीने कहीए तो सत्तोतेर लवनो कह्यो छे. ते विपे कयु छ के--"हर्पित, नीरोग अने क्लेश रहित (उपद्रव रहित) एवा प्राणीनो जे एक श्वासोच्छास ते प्राण कहेवाय छे. आवा सात प्राणनो एक स्तोक, सात स्तोकनो एक लव अने सत्तोतेर लवनो एक मुहूर्त कह्यो छे" (एकंदर ३७७३ प्राण-श्वासोश्वासनुं एक मुहूर्त थाय छे.) (४) ।। सूत्र-७७॥ हवे अठोतेरसुं स्थान कहे छे-- मू-सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमारदीवकुमारावाससयसहस्साणं आहेवचं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महारायत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ । १ । थेरे णं अकंपिए अट्ठहत्तरि वासाई सवाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । २ । उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्ठहत्तरं एगसद्विभाए दिवसखेत्तस्स निवुड्डेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं चारं चरइ ।३। एवं दक्षिणायणनिय। वि ॥४॥ सूत्रम्-७८ ॥ . NA Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय ७८॥ मूलार्थ:--देवीना इंद्र शक्र नामना देवराजनो वैश्रमण नामनो महाराजा (लोकपाल ) सुवर्णकुमार अने द्वीपकुमा-1 समवायाङ्गरना अठोतेर लाख आवासना अधिपतिपणाने, अग्रेसरपणाने, स्वामीपणाने, भर्तापणाने, महाराजपणाने अने आज्ञाप्रधान स्त्र ॥ सेनाना नायकपणाने करावतो तथा पाळतो विचरे छे ( रहेलो छे) (१)। अकंपित नामना स्थविर अठोतेर वर्पनुं सर्व चोथु अंग (कुल) आयुष्य पाळीने सिद्ध थया यावत् सर्व दुःख रहित थया (२)। उत्तरायणथी पाछो फरेलो सूर्य पहेला मंडळथी ओगणचालीशमा मंडळ सुधीमां (एक मूहूर्त्तना) एकसठीया अठोतेर भागप्रमाण दिवसना क्षेत्रने (दिवसने) हानि पमा-1 ॥१७२॥ डीने अने तेटला ज प्रमाण रात्रिक्षेत्रने वृद्धि पमाडीने गति करे छे (३)। एज प्रमाणे दक्षिणायनथी पाछो फरेलो सूर्य पण ( तेटला दिवसने घटाडे छे अने रात्रिने वृद्धि पमाडे छे) (४)॥ टीकार्थः-हवे अठोतेरमा स्थानक विपे कांइक लखे छे-'सकस्सेत्यादि,' वेसमणे महाराय त्ति'-सोम, यम, वरुण अने वैश्रमण नामना लोकपाळना मध्ये आ वैश्रमण चोथो उत्तरदिकपाळ छे. ते (दिपाळ ) वैश्रमणदेव भवनपतिनिकायमा रहेला सुवर्णकुमारना देव-देवीना, द्वीपकुमारना देव-देवीना तथा व्यंतर अने व्यंतरीना अधिपतिपणाने करे छे, अने तेना अधिपतिपणाने लीधे तेमना निवासोना अधिपतिपणाने पण ते करे छे एम कहेवाय छे. अहीं अहोतेर लाख सुवर्णकुमार, द्वीपकुमारना आवासो कया छे, तेमां दक्षिण दिशामां सुवर्णकुमारना आडनीश लाख भवनो छे अने द्वीपकुमारोना चाळीश लाख छे ते बन्ने मळीने अठोतेर लाख थाय छे, आ(वैश्रमण)नु द्वीपकुमारनुं अधिपतिपणुं भगवती सूत्रमा देखातुं नथी, परंतु अहीं कधूछे, ते मतांतर जाणवू. 'आहेवचं त्ति'-आधिपत्य एटले अधिपतिर्नु कर्म, 'पोरेवचं त्ति' १७२॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरावर्तित्वं एटले अग्रेसरपणुं, 'भहित्तं ति'-भर्तृत्व एटले पोषण करवापणु, 'सामित्तं त्ति'-स्वामित्व एटले । स्वामीपणुं, 'महारायत्तं त्ति'-महाराजत्व एटले लोकपालपणुं, ' आणाईसरसेणावचं त्ति'-जेमां आज्ञाप्रधान | होय एवं सेनानुं नायकपणुं तेने 'कारेमाणे त्ति'-अनुनायको पासे सेवकोना आधिपत्यादिकने करावतो, 'पालेमाणे त्ति'-पोते पण आधिपत्यादिकने पाळतो विहरे छे एटले रहे छ (१)। अकंपित नामना स्थविर के जे महावीर स्वामीना आठमा गणधर हता, तेनुं सर्व आयु अष्टोतेर वर्षनुं हतुं. केवी रीते ? ते कहे छे-गृहस्थपर्यायमां अडताळीश वर्ष, छद्मस्थपर्यायमां नव वर्ष अने केवळीपर्यायमां एकवीश वर्ष सर्व मळीने ७८ वर्ष समजवा. (२)। ' उत्तरायणनियट्टेणं त्ति' उत्तरायणथकी एटले उत्तर दिशाना गमनथकी पाछो फरेलो अर्थात् दक्षिणायनमां गयेलो सूर्य, ' पढमाओ मंडलाओ त्ति'-दक्षिण दिशामा जता सूर्यन जे पहेलं मंडळ, पण सर्व आभ्यंतर सूर्यमंडळ न जाणवू, एटले के || दक्षिणायनना पहेला मंडळनी अपेक्षाए गणाता ते पहेला मंडळथी ओगणचाळीशमा मंडळने विषे अने सर्व आभ्यंतर मंडळनीः अपेक्षाए तो चाळीशमा मंडळने विषे, 'अट्ठहत्तरं त्ति'-अठोतेर, 'एगसद्विभाए त्ति-मुहूर्त्तना एकसठीया भाग, · दिवसखेत्तस्स त्ति'-दिवस लक्षणवाळा क्षेत्रना एटले दिवसना ज 'निवुड्वेत्त त्ति'-निवर्ध्य एटले हानि | RIL पमाडीने 'चारं चरई त्ति'-भ्रमण करे छे.. आनो ज भावार्थ चंदप्रज्ञप्तिने अनसारे कहे ळे-ज्यारे सूर्य सर्व आभ्यंतर मंडळने पामीने गति करे छे, त्यारे नवाणुं हजार छ सो ने चाळीश (९९६४०) योजननु परस्पर आंतरं करीने गति करे छे. आ आभ्यंतर मंडळ जबूद्वीपमा एक सो ने ऐंशी (१८०) योजन जइए त्यारे आवे छे. ए प्रमाणे Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ७८॥ समवाया पत्र पो अंग ॥१७॥ ने तरफ अंदर आवतो होवाथी आ(१८०)ने वमणां (३६०) करी तेने जंबुद्वीपना प्रमाणमांथी बाद करीए त्यारे उपर कहेलु (९९६४०) आंतरूं थाय छे. तथा ते मंडळमां बन्ने सूर्य चाले छे त्यारे उत्कृष्टथी अढार मुहर्जनो दिवस थाय छे अने जघन्यथी चार मुहर्तनी रात्रि थाय छे. त्यारपछी आभ्यंतर मंडळथी नीकळीने पहेली अहोरात्रिए आभ्यंतरनी पछीना मंडळने पामीने ज्यारे गति करे छे, त्यारे नवाणुं हजार छ सो ने पीस्ताळीश (९९६४५) योजन अने एकसठीया पांत्रीश भाग (३) जेटलं आंतरं करीने गति करे छे. ते वखते मुहूर्त्तना एकसठीया ये भाग न्युन एवा अढार मुहर्तनो दिवस थाय छे, अने मुहूर्त्तना एकसठीया वे भाग अधिक एवा बार मुहूर्तनी रात्रि थाय छे. ए ज प्रमाणे दक्षिणायनना चीजा, त्रीजा विगेरे मंडळोने विपे तथा वीजा, त्रीजा विगेरे अहोरात्रने विषे पांच पांच योजन अने उपर योजनना एकसठीया पात्रीश पांत्रीश भाग जेटली आंतरानी वृद्धि कहेवी, तथा मुहूर्त्तना एकसठीया बबे भाग जेटली दिवसनी हानि अने रात्रिनी वृद्धि कहेवी. ए प्रमाणे करतां ओगणचाळीशमे मंडळे बन्ने सूर्यनुं परस्पर आंतरं नवाणु हजार, आठ सो ने सत्तावन (९९८५७) योजन अने उपर एकसठीया त्रेवीश भाग (२३) जेटलं आवे छे, तथा दिवसर्नु प्रमाण अढार मुहूर्त्तमांथी एकसठीया अठोतेर भाग वाद करतां सोळ मुहूर्त अने एकसठीया चुमाळीश भाग आवे छे, अने बार मुहर्तनी रात्रिमा एकसठीया अठोतेर भाग उमेरवाथी तेर मुहर्त अने उपर एकसठीया सत्तर भाग थाय छे (३)। ए ज प्रमाणे ' दक्षिणायणनिय। त्ति'-जेम उत्तरायणथी पाछो फरेलो सूर्य ओगणचाळीशमा मंडळे एकसठीया अठो१. मंडळना आंतराना बने बाजुना ये बे योजन अने मंडळना बने बाजुना ४८-४८ एकसठीआ भाग एटले पांच योजन ने ३५ थाय. ॥१७॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | तेर भाग ओछा करे छे अने वधारे छे. ते ज प्रमाणे दक्षिणायनथी पाछो फरेलो सूर्य तेटला ज भाग ओछा करे छे अने वधारे छे. मात्र फेर ए छे के-दक्षिणायनथी पाछो फरतां दिवसना भागने ओछा करे छे अने रात्रिना: भागने वधारे छे, अने उत्तरायणथी पाछो फरतां दिवसना भागने वधारे छे अने रात्रिना भागने ओछा करे छे (४) ॥ सूत्र-७८ ।। हवे ओगणाएंशी, स्थान कहे छ मू-वलयामुहस्स णं पायालस्स हिट्ठिल्लाओ चरमंताओ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरमंते एस णं एगूणासिं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।। १ । एवं केउस्स वि जूयस्स वि ईसरस्स वि । २ । छट्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेढिल्ले चरमंते एस णं एगूणासीति जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ३ । जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स य एस णं एगूणासीइं जोयणसहस्साइं साइरेगाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।४। ॥ सूत्रम्-७९॥ _ मूलार्थ:-वडवामुख नामना पातालकळशना नीचेना छेडाना अंतथी आ रत्नप्रभा पृथ्वीना नीचेना छेडाना अंत सुधीमां ओगणएंशी हजार योजन- अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (१) । ए ज प्रमाणे केतु, यूप अने ईश्वर नामना पाताळ कळशनुं. पण आंतरं जाणवु (२)। छठी नरकपृथ्वीना बहुमध्यदेश भागथी छठा घनोदधिना नीचेना चरमांत सुधीमां ओगण Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समवाय ७९॥ एंशी हजार योजन- अबाधाए आंतरं कह्यु छे (३)। जंबूद्वीप नामना द्वीपना दरेक द्वारर्नु अबाधाए आंतकै काइक अधिक समवायाङ्ग ओगणएंशी हजार योजन- कछु छ (४)॥ टीकार्थ:-हवे ओगणएंशीमा स्थानक त्रिपे काइक लखे छे-तेमां 'वलयामुहस्स त्ति'-वडवामुख नामना चो, अंग पूर्व दिशामा रहेला 'पायालस्स त्ति'--महापातालकळशना नीचेना चरमांतथी रत्नप्रभा पृथ्वीनो चरमांत ओगणएंशी हजार योजन दूर छे. केवी रीते ? ते कहे छे--रत्नप्रभा पृथ्वीनु बाहल्य एक लाख ने एंशी हजार योजननुं छे, तेमांथी एक ॥१७४॥ 2 हजार योजन समुद्रनो अवगाह छे ते बाद करयो, तथा तेनी नीचे एक लाख योजनना अवगाहवाळो वलया( वडवा )मुख पाताळ कळश छे तेथी ते लाख पण बाद करवा, तेथी तेना चरमांतथी पृथ्वीनो चरमांत कहेला प्रमाणवाळु एटले ओगण- एंशी हजार योजनना प्रमाणवाल्लु आंतरं थाय छ (१)। एज प्रमाणे बाकीना त्रण कळशो संबंधी अंतर कहेवू (२)। 'ट्ठीए इत्यादि'--आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे--छट्ठी पृथ्वीनुं बाहल्य एक लाख ने सोळ हजार योजन छे, परंतु साते घनोदधि तो वीश वीश हजार योजनना होवा जोइए, तोपण आ ग्रंथना मते करीने तो छठी पृथ्वीमा रहेलो आ घनोदधि एकवीश हजार योजननो संभवे छे. तेथी करीने छठी पृथ्वीना बाहल्यनुं अर्ध करवाथी अहावन हजार योजन अने घनोदधिनुं प्रमाण एकवीश हजार योजन ए बन्ने भेगा करवाथी ओगणएंशी हजार योजन थाय छे, परंतु ग्रंथांतरना मते करीने तो सर्व घनोदधिर्नु बाहल्य वीश वीश हजार योजन होवाथी पांचमी पृथ्वीने आश्रीने आ सूत्र होवु जोइए; केमके ते पांचमी पृथ्वीनु बाहल्य एक लाख ने अढार हजार योजननु का छे. (तेनुं अर्ध ५९ हजार अने घनोदधिना २०००० ॥१७४॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मळी ७९००० थाय.) ते विषे कयुं छे के-"नरकपृथ्वीनुं बाहल्य अनुक्रमे एक लाख उपर एंशी १, बत्रीश २, अठावीश ३, वीश ४, अढार ५, सोळ ६ अने आठ ७ हजार योजननुं जाणवू." अथवा तो छठी पृथ्वीनो मध्य भाग हजार अधिक पण (५९ हजार पण ) कहेवाने इच्छ्यो छे, केम के 'बहुमध्य ' ए ठेकाणे 'बहु' शब्द छे ते एवा ( अधिक ) अर्थने सूचवनारो छे. ( आम करवाथी आ ग्रंथनो मत सिद्ध थाय छे) (३)। तथा जंबूद्वीपनी जगतीना पूर्वादि दिशाना। | अनुक्रमे चार द्वार छ--विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित. ते दरेक द्वारनो विष्कंभ ( पहोळाइ ) चार चार योजननो छे, तथा ते दरेकनी द्वारशाखाओ बबे गाउ पहोळी छे ( कुल ४॥ योजन थया, चारे द्वारना थइने कुल १८ योजन थया.) ते द्वारोना मध्ये एक द्वारथी बीजा द्वारनुं आंतरूं कहेवू छे. 'एस णं त्ति'-आ आंतरं ओगणाएंशी हजार योजन सातिरेक-कांइक अधिक अबाधाए-व्यवधानवडे एटले व्यवधानरूप कयुं छे. केवी रीते ? ते कहे छे--जंबूद्वीपनी परिधि ३१६२२७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष अने १३॥ अंगुल छे. तेमांथी चारे द्वार अने द्वार शाखानो विष्कंभ (१८ योजन)। बाद करवो, बाकी रहेलाने (३१६२०९ ने) चारे भागवाथी कहेली संख्या (७९०५२) एटले ओगणाएंशी हजार योजन | साधिक थशे. (४) ॥ सूत्र-७९ ॥ हवे एंशीमुं स्थान कहे छे-- II मू०-सेजसे णं अरहा असीइं धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था ।१ । तिविढे णं वासुदेवे असीइं धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । २ । अयले णं बलदेवे असीइं धणूइं उद्धं उच्चत्तणं होत्था । ३ । - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८०॥ NEES Fal तिविट्ठी णं वासुदेवे असीइवाससयसहस्साई महाराया होत्था । ४ । आउबहुले णं कंडे असीइ समवायाङ्ग जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता । ५। ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो असीई सामाणियसाहस स्सीओ पन्नत्ताओ । ६ । जंबुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसयं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्टोवगए चो अंग पढमं उदयं करेइ । ७॥ सूत्रम-८० ॥ ॥१७॥ मूलार्थः-श्रेयांस नामना (अग्यारमा) अरिहंत ऊंचाइवडे एंशी धनुप ऊंचा हता (१)। त्रिपृष्ठ वासुदेव ऊंचाइवडे एंशी धनुष ऊंचा हता (२)। अचळ नामना बळदेव ऊंचाइवडे एंशी धनुप ऊंचा हता (३)। त्रिपृष्ठ वासुदेव एंकी लाख वर्ष सुधी महाराजापणे रह्या हता. (४)। (आ रत्नप्रभानो) अब्बहुल कांड एंशी हजार योजन बाहल्यवडे (जाडाइवडे) कह्यो छे (५)। देवराज ईशान देवेंद्रने एंशी हजार सामानिक देवो कह्या छे (६)। जंबूद्वीप नामना द्वीपमा एक सो ने ऐंशी योजन जइए त्यारे उत्तर दिशामां गयेलो सूर्य प्रथम उदयने करे छे ( सर्व आभ्यंतर मंडळमां ऊगे छे) (७)॥ टीकार्थ:--हवे एंशीमा स्थानक विषे काइक लखे छे-श्रेयांस ए अग्यारमा अरिहंत थइ गया (१)। त्रिपृष्ठ ते श्रेयांस जिनेश्वरना काळे थयेला प्रथम वासुदेव हता (२)। तथा अचळ प्रथम बळदेव हता (३) । तथा त्रिपृष्ठ वासुदेवनुं सर्व आयु चोराशी लाख वर्षनुं हतु तेमां चार लाख कुमारपणामां अने वाकीना ऐंशी लाख वर्ष महाराज्यने विषे हता (४)। 'आउबहुल इत्यादि'-रत्नप्रभा पृथ्वीनुं बाहल्य एक लाख ने अंशी हजार योजननुं छे. तेना त्रण कांड छे. तेमां ॥१७॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहेलो रत्नकांड सोळ प्रकारना रत्नमय छे, तेनु बाहल्य सोळ हजार योजननुं छे, बीजो पंकवकुलकांड चोराशी हजार योजन प्रमाण छेत्रीजो अब्बहल कांड एंशी हजार योजन प्रमाण छे (५)। "जंबुद्दीवे णमित्यादि' (जंबूद्वीपमां १८० योजन)। 'ओगाहित्त त्ति'-प्रवेश करीने 'उत्तरकट्ठोवगय त्ति'-उत्तर काष्ठा-दिशामां गयेलो सूर्य प्रथम उदयने करे छे एटले सर्व आभ्यंतर मंडळमां ऊंगे छ (७) ॥ सूत्र-८०॥ हवे एकाशीमुं स्थान कहे छे मू-नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासीइ राइदिएहि चउहि य पंचुत्तरोहिं (भिक्खासएहिं ) अहासुत्तं जाव आराहिया ।१। कुंथुस्स णं अरहओ एक्कासीति मणपज्जवनाणसया होत्था । २ । विवाहपन्नत्तीए एकासीतिं महाजुम्मसया पन्नत्ता ॥ ३॥ सूत्रम्-८१ ॥ - मूलार्थः-नवनवमिका नामनी भिक्षुपडिमा एकाशी रात्रिदिवसे अने चार सो ने पांच भिक्षा( दत्ति )ए करीने सूत्रमा कह्या प्रमाणे यावत् आराधेली थाय छ (१)। कुंथुनाथ नामना सत्तरमा अरिहंतने एकाशी सो (८१०० ) मन:पर्यवज्ञानी हता (२)। विवाहप्रज्ञप्तिमा एकाशी महायुग्मशत ( अध्ययनो) कयां छे (३)॥ टीकार्थः-हवे एकाशीमा स्थानक विपे कांइक लखे छे-'नवनवमिके त्ति'-जेने विषे नवमा दिवस नव वार होय a ते नवनवमिका कहेवाय छे, केमके नवनवकने विष नव नवमा दिवस होय ज छे. आ भिक्षुप्रतिमाने विपे एकाशी रात्रिदिवस Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८२॥ होय छे. केमके नवनवकना (नवने नवे गुणवाथी) एकाशी दिवस थाय ज छे. तथा पहेला नवकमां हमेशा एक एक समवायाङ्ग भिक्षा निगर भिक्षा (दत्ति) लेवानी छे. एज प्रमाणे बीजा नवकमां बेबे, जीजा नवकमांत्रण त्रण, एम एक एक भिक्षानी वृद्धि करवाथी सूत्र॥ नवमा नवकमां हमेशां नव नव भिक्षा लेवानी छे. आ सर्व भिक्षाने एकत्र करीए त्यारे चार सो ने पांच (४०५) भिक्षा थाय चोधुं अंग छे. तेथी मुळमां का छे के-'चउहि य' इत्यादि अहीं भिक्षा शब्दे करीने दत्ति इच्छी छे. "अहासुत्तं त्ति'-यथासूत्र ॥१७६॥ एटले सूत्रमा कह्या प्रमाणे. अहीं ' यावत् ' शब्द लख्यो छे तेथी यथाकल्प-कल्पमां कह्या प्रमाणे, 'यथामार्ग'-मार्गने नहीं ओळंगीने, 'यथातत्त्वं'-तत्त्वने नहीं ओळंगीने एटले तत्वमां कह्या प्रमाणे सम्यक् प्रकारे कायावडे स्पर्श करेली, पाळेली, शोभावाळी, तरी गयेली, कीर्तन करेली अने आज्ञावडे आराधेली थाय छे, एम जाणवू (१)। विवाहपन्नत्तीए त्ति'-व्याख्याप्रज्ञप्तिने विषे एकाशी महायुग्म शतो कह्या छ, अहीं 'शत' शब्दे करीने अध्ययन कहेवाय छे, ते अध्ययनो कृतयुग्म विगेरे लक्षणना समूह विशेषना विचाररूप छे ते अहीं अंतराध्ययनना स्वभाववाळा अने तेना अवगमवडे जाणवा लायक छ (३)॥ सूत्र-८१ ॥ हवे बाशीमुं स्थान कहे छे-- मू०--जंबुद्दीवे दीवे बासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरइ, IN तं जहा-निक्खममाणे य पविसमाणे य । १ । समणे भगवं महावीरे बासीए राइदिएहि ॥१७॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sa वीइकंतेहिं गब्भाओ गम्भं साहरिए । २ । महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्य कंडस्स हेढिल्ले चरमंते एस णं बासीइं जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।३ । एवं रूप्पिस्स वि ॥ ४॥ सूत्रम्--८२ ॥ मूलार्थ:--जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे ते एक सो ने वाशी मंडळ छे, के जेमां सूर्य के वार प्रवेश करीने गति करे |ळे. ते आ प्रमाणे-जंबद्रीपथी बहार नीकळतो तथा तेमां प्रवेश करतो सतो (१८२ मंडळ पर वे वार आवे छे) (१) श्रमण भगवान महावीर स्वामी बाशी रात्रिदिवस वीती गया त्यारे एक गर्भथी बीजा गर्भमां लइ जवाया (२)। महाहिमवान नामना वर्षधर पर्वतना उपरना चरमांतथी सौगंधिक कांडना नीचेना चरमांत सुधी बाशी सो योजननुं अबाधाए आंतरं का छे. (३)। एज प्रमाणे रुक्मी पर्वतर्नु पण जाणवू (४)॥ टीकार्थः-हवे बाशीमा स्थानक विषे काइक खे छे-अहीं जंबूद्वीपमा एक सो ने बाशी मंडळ एटले सूर्यने चालवाना |मार्ग 'ते होय छे' एम अध्याहार राखवो. कया ते मंडळ ? ते कहे छे-के जे मंडळने विष सूर्य वेवार प्रवेश करीने गति करे छे ते आ प्रमाणे-जंबूद्वीपथी बहार नीकळतो सतो तथा जंबूद्वीपने विष प्रवेश करतो सतो (एम वे वार ते मंडळो पर गति करे छे). अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे-सूर्यना मंडळ एक सो ने चोराशी छे. तेमां सर्व आभ्यंतर मंडकमां अने सर्व बाह्य मंडळमां एक जवार प्रवेश करे छे. बाकीना सर्व मंडळमां वे वार प्रवेश करे छे. अहीं बाशीनी - Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवाय ८२॥ నా నాకు ఆ विवक्षा होवाथी ज आ वाशीमा स्थानकमां कडं छे, एम जाणवू. जो के जंबूद्वीपमां पांसठ (६५) ज मंडळो छे, तो पण समवायाङ्ग जंबूद्वीप संबंधी सूर्यनी गतिनो विषय होवाथी वाकीना (बहारना) मंडळो पण जंबूद्वीपना ज विशेषण तरीके कयां छे (१)। सूत्र ।। 'समणे इत्यादि -आषाढ मासना शुक्लपक्षनी छथी आरंभीने बाशी रात्रिदिवस गया अने ताशीमो रात्रिदिवस चोथं अंग। वर्ततो हतो त्यारे एटले आश्विन मासना कृष्णपक्षनी तेरशे एक गर्भाशयथी एटले देवानंदा ब्राह्मणीनी कुक्षिथकी बीजा गर्भमां एटले त्रिशला नामनी क्षत्रियाणीनी कुक्षिमा शकेंद्रनी आज्ञानो अमल करनारा हरिणेगमेपी नामना देववडे लइ ॥१७७॥ जवाया. आ सूत्र बाशी रात्रिदिवसने आश्रीने वाशीमा स्थानमां कहेवामां आव्यु छे, परंतु त्राशीमा रात्रिदिवसने आश्रीने त्राशीमा स्थानमां पण कहेशे. (२) । 'महाहिमवंतस्सेत्यादि'-महाहिमवान नामे बीजो वर्षधर पर्वत बसो योजन ऊंचो छ, तेना उपला चरमांतथी सौगंधिक कांडनो नीचेनो चरमांत बाशी सो योजनप्रमाण छे. केवी रीते ? ते कहे छेरत्नप्रभा पृथ्वीना त्रण कांड छे-खरकांड, पंककांड अने अब्बहुलकांड. तेमा पहेलो कांड सोळ प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे-रत्नकांड १, वज्रकांड २, वैडूर्यकांड ३, लोहिताक्षकांड ४, मसारगल्लकांड ५, हंसगर्भकांड ६, पुलककांड ७, सौगंधिककांड ८, ज्योतीरसकांड ९, अंजनकांड १०, अंजनपुलककांड ११, रजतकांड, १२, जातरूपकांड १३, अंककांड १४, स्फटिककांड १५ अने रिष्ठकांड १६. आ सर्वे कांड हजार हजार योजनप्रमाण छे. तेथी सौगंधिककांड आठमो होवाथी आठ हजार एटले एंशी सो योजन थया अने बसो योजन महाहिमवान ऊंचो छे, तेथी बाशी सो योजन थया ( ३)। ए ज प्रमाणे रुक्मी नामना पांचमा वर्षधर पर्वतर्नु पण कहेवु. केमके ते पण महाहिमवाननी जेटलो ज ऊंचो छ (४)॥ सूत्र-८२ ॥ ॥१७७॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे त्राशीमुं स्थान कहे छ मू-समणे भगवं महावीरे बासीइ राइदिएहिं वीइकंतेहिं तेयासीइमे राइंदिए वट्टमाणे गब्भाओ गम्भं साहरिए ।१। सीयलस्स णं अरहओ तेसीई गणा तेसीई गणहरा होत्था।२। थेरे णं | मंडियपुत्ते तेसीइं वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव प्पहीणे । ३। उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए। ४ । भरहे णं राया चाउरंतचकवट्टी तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी । ५॥ सूत्रम्-८३॥ मूलार्थः-श्रमण भगवान महावीरस्वामी बाशी रात्रिदिवस वीती गया अने त्राशीमो रात्रिदिवस वर्ततो हतो त्यारे एक गर्भथी बीजा गर्भमां लइ जवाया (१) । शीतलनाथ स्वामीने त्राशी गणो अने त्राशी गणधरो हता (२)। स्थविर | मंडितपुत्र त्राशी वर्षनुं सर्व आयु पाळी सिद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (३) । कोशल देशमां थयेला ऋपभस्वामी त्राशी लाख पूर्व गृहवासमां वसीने मुंड थइने यावत् प्रव्रजित थया हता (४)। चातुरंतचक्रवर्ती भरत राजा त्राशी लाख पूर्व गृहवासमां वसीने जिन, केवळी, सर्वज्ञ अने सर्व पदार्थने जोनारा थया (५)॥ टीकार्थः-हवे त्राशीमा स्थानक विषे कांइक लखे छे-अहीं शीतळनाथ जिनेश्वरना त्राशी गणो अने त्राशी गणधरो | Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८४॥ समवायाङ्ग ... सत्र ॥ चोधुं अंग ॥१७८॥ कह्या पण आवश्यक सूत्रमा तो एकाशी लख्या छे, ते मतांतर जाणवू (२) । तथा स्थविर मंडितपुत्र ए महावीरस्वामीना छट्ठा गणधर हता. तेनुं सर्व आयु त्राशी वर्षनुं हतुं. केवी रीते ? ते कहे छ-त्रेपन वर्ष गृहस्थ पर्यायमां, चौद वर्ष छद्मस्थपर्यायमा अने सोळ वर्ष केवळीपणामां, ए रीते त्राशी वर्ष थया (३) । तथा 'कोसलिए त्ति'-कोशल देशमा थयेला ते कौशलिक कहेवाय छे. 'तेसीइंत्ति-वीश लाख पूर्व कुमारपणामां अने त्रेसठ लाख पूर्व राज्यमा ए बन्ने मळीने त्राशी लाख पूर्व ( अगार मध्ये वसीने पछी अनगार थया)(४)। तथा भरत चक्रवर्ती सीत्तोतेर लाख पूर्व कुमारपणामां अने छ लाख पूर्व चक्रवर्तीपणामां एम त्राशी लाख पूर्व गृहवासमां बसीने जिन थया एटले राज्यावस्थामा ज रागादिकनो क्षय थवाथी जिन थया, तथा संपूर्ण कोइनी सहाय विना विशुद्ध ज्ञानादिक त्रणनो योग थवाथी केवळी थया, विशेष बोधथकी सर्वज्ञ थया अने सामान्य बोधथकी सर्व पदार्थने जोनारा ( सर्वदर्शी) थया. त्यारपछी एक लाख पूर्व सुधी प्रव्रज्या ग्रहणपूर्वक केवळीपणे विचरीने सिद्ध थया (५) ॥ सूत्र-८३ ॥ .... हवे चोराशीमुं स्थान कहे छे मू०-चउरासीइ निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता । १ । उसभे णं अरहा कोसलिए चउरासीइं पुवसयसहस्साइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव प्पहीणे । २ । एवं भरहो बाहुबली बंभी सुंदरी । ३ । सिजसे णं अरहा चउरासीइं वाससयसहस्साइं सवाउयं पालइत्ता सिद्धे जाव ॥१७॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पहीणे । ४ । तिविटे णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नरए नेरइयत्ताए उववन्नो । ५ । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो चउरासीइ सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ६ । सव्वे वि णं बाहिरया मंदरा चउरासीइं चउरासीइं जोयणसहस्साइं उर्दू उच्चत्तेणं पन्नत्ता। ७ । सव्वे वि णं अंजणगपव्वय चउरासीइं चउरासीइं जोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । ८। हरिवासरम्मयवासियाणं जीवाणं धणुपिट्ठा चउरासी जोयणसहस्साइंसोलस जोयणाइं चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं पन्नत्ता । ९ । पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेढिल्ले चरमंते एस णं चोरासीइ जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । १० । विवाहपन्नत्तीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पन्नत्ता । ११ । चोरासीइ नागकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता । १२ । चोरासीइ पइन्नगसहस्साइं पन्नत्ताई। १३ । चोरासइिं जोणिप्पमुहसयसहस्सा पन्नत्ता । १४ । पुवाइयाणं सीसपहलियापज्जवसाणाणं सट्ठाणट्ठाणंतराणं चोरासीए गुणकारे पन्नत्ते ।१५। उसभस्स णं अरहओ चउरासीइ समणसाहस्सीओ होत्था।१६। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१७९॥ भी सव्वे वि चउरासीइ विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमा समवाय ८४॥ समवायाङ्ग-मक्खायं । १७ ॥ सूत्रम्-८४॥ मूत्र ॥ - मूलार्थ:--चोराशीलाख नरकावासा कया छे (१)। कोशल देशमा थयेला श्री ऋषभदेव अरिहंत चोराशी लाख चो अंग पूर्वनुं सर्व (कुल) आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया (२)। एज प्रमाणे भरत, बाहु वली, ब्राह्मी अने सुंदरी विपे पण जाणQ (३)। श्रीश्रेयांसनाथ अरिहंत चोराशी लाख वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, यावत् सर्व दुःखरहित थया (४) त्रिपृष्ठ वासुदेव चोराशीलाख वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने अप्रतिष्ठान नामना नरकावासमा नारकीपणे उत्पन्न थया (५)। देवना राजा शक्र देवेंद्रने चोराशी हजार सामानिक देव कह्या छे (६)। सर्वे बहारना मेरुपर्वतो चोराशी चोराशी हजार योजन ऊंचा कह्या छे (७)। सर्व अंजनगिरिओ चोराशी चोराशी हजार योजन उंचा कह्या छे (८)। हरिवास अने रम्यक क्षेत्रनी जीवाना धनुःपृष्ठनो विस्तार (लंबाइ) चोराशी हजार ने सोळ योजन तथा उपर एक योजनना (ओगणीशीया) चार भाग जेटलो कह्यो छे (९)। पंकबहुल नामना पृथ्वीकांडनी उपरना चरमांतथी नीचेना चरमांत सुधीमा चोराशी लाख योजननु अबाधाए आंतरूं कहुं छे (१०)। विवाहप्रज्ञप्ति १. बाहुबलि ऋपभप्रभुनी साथे सिद्ध थयेला होवाथी तेमनुं आयुष्य जन्मथी ७२ लाख पूर्वनुं अनुभवेलुं छे. ब्राह्मीसुंदरीनो । निर्वाणकाळ जाण्यो नथी." ॥१७९॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले भगवतीसूत्रने विषे कुल चोराशी हजार पदो कह्या छे (११)। चोरासी लाख नागकुमारना आवासो कह्या छे (१२)।। चोराशी हजार प्रकीर्णको कह्या छ (१३)। चोराशी लाख जीवोनी योनिरूपी द्वारो कह्या छे (१४)। पूर्वथी आरंभीने शीर्षप्रहेलिका पर्यंत स्वस्थानथी (पूर्वना अंकथी) स्थानांतरनो (पछीना अंक स्थाननो) चोराशी लाखे गुणाकार कह्यो छे (पहेला अंकने चोराशी लाखे गुणतां पछीनो अंक आवे छे) (१५)। श्री ऋषभदेव अरिहंतने चोराशी हजार साधुनी संपदा हती (१६) । सर्वे मळीने वैमानिकना विमानो चोराशी लाख, सत्ताणु हजार ने त्रेवीश छे एम भगवाने कयुं छे (१७)॥ टीकार्थः--हवे चोराशीमा स्थानक विषे काइक लखे छे-चोराशी लाख नरकावासो आ रीते छे--पहेलीमां त्रीश लाख १, बीजीमां पचीश लाख २, त्रीजीमां पंदर लाख ३, चोथीमां दश लाख ४, पांचमीमांत्रण लाख ५, छठीमां पांच ओछा एवा एक लाख ६ अने सातमीमां पांच ज ७, आ सर्व मळीने चोराशी लाख थाय छ (१)। अग्यारमा श्रेयांसनाथ तीर्थकर एकवीश लाख वर्ष कुमारपणामां, तेटला ज (२१०००००) प्रव्रज्यामां अने बेंताळीश लाख राज्यमां, ए | रीते कुल चोराशी लाख वर्षतुं आयुष्य पाळीने सिद्ध थया (४)। तथा त्रिपृष्ठ पहेला वासुदेव श्रेयांसस्वामीने काळे थयेला | ते अप्रतिष्ठान नामना नरकमां एटले सातमी पृथ्वीना नरकावासामांना मध्य (वचला) नरकावासमां उत्पन्न थया (५)। तथा 'सामाणिय त्ति'--एटले समान ऋद्धिवाळा (६) । तथा 'बाहिरयं त्ति'-जंबूद्वीपना मेरु विनाना बीजाचार मेरुपर्वतो चोराशी हजार योजन ऊंचा कया छे (७)।'अंजणगपव्वय त्ति'-जंबद्वीपथी आठमा नंदीश्वर नामना द्वीपने विषे चक्रवाल विष्कभना मध्य भागे पूर्वादिक चारे दिशामां चार अंजनरत्नमय अंजनक पर्वतो छ (ते ८४००० योजन Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८४॥ ज्या अर्थनी प्राप्ति थाय अयाख्याप्रज्ञप्ति एटले भगवती मन्त्रालय चोराशी हजार योजननु छ, या चार ऊंचा छे) (८)। हरिवासेत्यादि- चत्तारिय भागा जोयणस्स त्ति'-अहीं योजनना चार भाग कह्या ते ओगसमवायाङ्गणीशीया चार भाग जाणवा. आ अर्थने माटे अर्ध गाथा आ प्रमाणे कही छे-"चोराशी हजार ने सोळ योजन तथा चार सूत्र॥ कळा एटलुं धनुःपृष्ठ कयुं छे." (९) तथा पंकबहुल ए बीजुं कांड छे, तेनुं वाहल्य चोराशी हजार योजननुं छे, तेथी सूत्रमा -चो कहेलो अर्थ बराबर छ (१०)। तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति एटले भगवती सूत्र. तेमां पदना परिमाणे करीने चोराशी हजार पदो छे. अहीं ज्यां अर्थनी प्राप्ति थाय-अर्थ पूर्ण थाय ते पद कहेवाय छे. मतांतरे तो आचारांग सूत्रमा अढार हजार पदनुं ॥१८॥ प्रमाण कहेलं होवाथी तथा बाकीना अंगो तेथी बमणा प्रमाणवाळा होवाथी व्याख्याप्रज्ञप्तिना पदो बे लाख ने अठ्ठाशी हजार छे एम कहे छे (११)। तथा नागकुमारना आवासो चुमाळीश लाख दक्षिणमां अने चाळीश लाख उत्तरमा छे ते बन्ने मळीने चोराशी लाख थाय छे (१२)। योनि एटले जीवनी उत्पत्तिनां स्थान, ते रूपी प्रमुख एटले द्वार, ते योनिप्रमुख कहेवाय छे ते चोराशी लाख कह्या छे. केवी रीते ? ते कहे छे-"पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय अने वायुकाय ते एक के एकनी सात सात लाख योनि (२८) छे, प्रत्येक वनस्पतिनी दश लाख अने अनंतकायनी चौद लाख ( कुल २४ लाख) ॐ योनि छे, विकलेंद्रियनी (बेइंद्रिय, तेइंद्रिय ने चौरेंद्रियनी) बबे लाख (६) योनि छे, नारकी अने देवनी चार चार लाख (८) योनि छे." पंचेंद्रिय तिर्यचने विषे चार लाख, मनुष्यने विषे चौद लाख योनि छे. अहीं जो के जीवोना उत्पत्तिस्थानो असंख्याता छे तो पण सरखा वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळा घणा स्थानोने एक ज स्थानपणे विवक्षा होवाथी कहेली योनिनी संख्यामां दोष जाणवो नहीं (१४)।' पुवाइयाणमित्यादि' पूर्व छ आदि जेने ते पूर्वादिक ॥१८॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीए, तेवा तथा शीर्षप्रहेलिका छे अंते जेने ते शीर्षप्रहेलिकापर्यवसान कहीए, तेवा स्वस्थानथकी एटले पूर्व पूर्व (संख्याता ) स्थानथी उत्तरोत्तर संख्याना स्थाननी उत्पत्ति स्थानवाळा संख्याविशेषथकी अर्थात् गुणवा लायक संख्याथकी स्थानांतरो एटले तेनी पछीना संख्यास्थानो अर्थात् गुणाकारथी उत्पन्न थयेला व्यवधान रहित तरतना संख्याविशेष जेने विषे छे ( बहुव्रीहिसमास ) ते स्वस्थानस्थानांतर एटले अनुक्रमे रहेला संख्याना स्थानविशेष कद्देवाय छे, अथवा ( बहुव्रीहि समास न करीए तो ) स्वस्थान एटले पूर्वस्थान अने स्थानांतर एटले पछीना तरतना स्थान (द्वंद्व समास ) ते स्वस्थानस्थानांतर कवाय छे, अथवा (द्वंद्व समास पण न करीए तो ) स्वस्थानथकी एटले पूर्वांग नामना प्रथम स्थानथकी स्थानांतर एटले ( पूर्व विगेरे) कहेवाने इच्छेला पछीना स्थानो ( पंचमी तत्पुरुष समास ) ते स्वस्थानस्थानांतर कहेवाय छे. तेनो (स्वस्थानस्थानांतरनो ) चोराशी एटले 'लक्ष' शब्दनो अध्याहार होवाथी चोराशी लाखवडे गुणाकार करवानो को छे. ते आ प्रमाणे- चोराशी लाख वर्षे करीने (पूर्वनुं) एक पूर्वांग थाय छे, ते (पूर्वांग) स्वस्थान छे, तेने चोराशी लाखे गुणवाथी एक पूर्व कहेवाय छे, ते स्थानांतर थयुं. ए ज प्रमाणे पूर्व स्वस्थान छे, तेने चोराशी लाखे गुणवाथी तेनी पछीनुं स्थान त्रुटितांग नामनुं थाय छे (ते त्रुटितांगने चोराशी लाखे गुणवाथी एक त्रुटित थाय छे. इत्यादि उत्तरोत्तर स्थानो जाणवा.) अहीं आ संख्यानां स्थानो माटे आ प्रमाणे वे गाथाओ छे - " पूर्व १, त्रुटित २, अडड ३, अवव ४, हूहूक ५, उत्पल ६, पद्म ७, नलिन ८, अर्थनिपूर ९, अयुत १०, नयुत ११, प्रयुत १२, चूलिका १३ अने शीर्षप्रहेलिका १४ आ चौद नाम अंग शब्दवडे युक्त करवा ( पूर्वांग, त्रुटितांग विगेरे. ) एम करवाथी अठ्ठावीश स्थानो थाय छे. अहीं ( शीर्षप्रहेलिकाना ) एक. ३१ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१८०॥ ऊंचा छे) (८) । ' हरिवासेत्यादि - ' चत्तारि य भागा जोयणस्स त्ति ' - अहीं योजनना चार भाग कला ते ओगणीशीया चार भाग जाणवा. आ अर्थने माटे अर्ध गाथा आ प्रमाणे कही छे– “चोराशी हजार ने सोळ योजन तथा चार कळालं धनुःपृष्ठ कहां छे." (९) तथा पंकबहुल ए बीजुं कांड छे, तेनुं बाहल्य चोराशी हजार योजननुं छे, तेथी सूत्रमां कहेलो अर्थ बराबर छे ( १० ) । तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति एटले भगवती सूत्र तेमां पदना परिमाणे करीने चोराशी हजार पदो छे. अहीं ज्यां अर्थनी प्राप्ति थाय - अर्थ पूर्ण थाय ते पद कहेवाय छे. मतांतरे तो आचारांग सूत्रमां अढार हजार पदनुं प्रमाण कहे होवाथी तथा बाकीना अंगो तेथी वमणा प्रमाणवाळा होवाथी व्याख्याप्रज्ञप्तिना पदो वे लाख ने अहाशी - हजार छे एम कहे छे ( ११ ) । तथा नागकुमारना आवासो चुमाळीश लाख दक्षिणमां अने चाळीश लाख उत्तरमा छे ते बन्ने मळीने चोराशी लाख थाय छे (१२) । योनि एटले जीवनी उत्पत्तिनां स्थान, ते रूपी प्रमुख एटले द्वार, ते योनि प्रमुख कहेवाय छे ते चोराशी लाख कह्या छे. केवी रीते ? ते कहे छे -" पृथ्वीकाय, अपूकाय, अग्निकाय अने वायुकाय ते एक एकनी सात सात लाख योनि ( २८ ) छे, प्रत्येक वनस्पतिनी दश लाख अने अनंतकायनी चौद लाख ( कुल २४ लाख ) योनि छे, विकलेंद्रियनी ( बेइंद्रिय, तेइंद्रिय ने चौरेंद्रियनी ) बवे लाख (६) योनि छे, नारकी अने देवनी चार चार लाख (८) योनि छे. " पंचेंद्रिय तिर्यचने विषे चार लाख, मनुष्यने विषे चौद लाख योनि छे. अहीं जो के जीवोना उत्पत्तिस्थानो असंख्याता छे तो पण सरखा वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळा घणा स्थानोने एक ज स्थानपणे विवक्षा होवाथी कली योनिनी संख्यामां दोप जाणवो नहीं (१४) । ' पुत्रवाइयाणामित्यादि ' पूर्व छे आदि जेने ते पूर्वादिक समवाय ८४ ॥ ॥१८०॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८६ ॥ श्री ऊंचा छे, तेथी कुल पंचाशी हजार योजन थाय छे. तथा पुष्कराधना बन्ने मेरु पण ए ज रीते समजवा. विशेष ए केसमवायाङ्ग सूत्रनी गतिनुं विचित्रपणु होवाथी ते सूत्रमा कह्या नथी (२) । तथा रुचक एटले रुचक नामनो तेरमा द्वीपनी अंदर रहेलो पत्र ॥ प्राकारनी जेवी आकृतिवाळो रुचकद्वीपना वे विभाग करनारो रुचक नामनो पर्वत छे, ते मंडळाकारे रहेलो होवाथी मंडलिक _ चोथु अंग पर्वत कहेवाय छे. ते एक हजार योजन पृथ्वीमां अवगाढ छे अने चोराशी हजार योजन ऊंचो छ, तेथी कुल पंचाशी G हजार योजन थाय छै (३) तथा मेरुपर्वतनी पांच सो योजन ऊंची पहेली मेखळामा रहेला नंदन वनना भूमितळना ॥१८२॥ चरमांत थकी सौगंधिककांड एटले रत्नप्रभा पृथ्वीना खरकांड नामना पहेला कांडना अवांतरभूत सौगंधिक जातिना रत्नमय सौगंधिक नामना आठमा कांडनी नीचेनो चरमांत पंचाशी सो योजन आंतराने आश्रीने रहेलो छे. केवी रीते ? ते कहे छे-पांच सो योजन मेरु संबंधी तथा (तेनी नीचे) दरेक कांड हजार हजार योजनना प्रमाणवाळा होवाथी आठमो कांड एंशी सो योजन दूर छे, तेथी कुल पंचाशी सो योजन- आंतरुं छे (४) ॥ सूत्र-८५॥ हवे छाशीमुं स्थान कहे छे.. मू०-सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ छलसीइ गणा छलसीइ गणहरा होत्था।१।सुपासस्स कणं अरहओ छलसीइ वाइसया होत्था ।२। दोच्चाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागाओ दोच्चस्स घणोKo दहिस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं छलसीइ जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।३।।सूत्रम्-८६॥ ॥१८२॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ:- चूलिका सहित पूज्य आचारांग सूत्रना पंचाशी उद्देशनकाळ का छे (१) । धातकीखंडना वे मेरुपर्वत कुल थइने पंचाशी हजार योजन ऊंचा कला छे (२) । रुचक द्वीपनो मंडलिक पर्वत कुल पंचाशी हजार योजन ऊंचो कह्यो छे (३) । . नंदन वननी नीचेना चरमांतथी सौगंधिक कांडनी नीचेना चरमांत सुधी पंचाशी सो योजननुं अबाधाएं आंतरुं कह्युं छे (४) ॥ टीकार्थ: - हवे पंचाशीमा स्थानक विषे कांइक लखे छे - तेमां आचार नामनुं पहेलं अंग नव अध्ययनवाळा पहेला श्रुतस्कंधरूप छे. ते पण चूलिका सहित एटले तेना बीजा श्रुतस्कंधमां पांच चूलिका छे, तेमां पांचमी निशीथा नामनी चूलिका तेनुं जूर्दु स्थान होवाथी अहीं ग्रहण करवानी नथी. तेमां पहेली अने चीजी चूलिका सात सात अध्ययनवाळी छे, तथा त्रीजी अने चोथी चूलिका एक एक अध्ययनवाळी छे. तेथी आ प्रमाणे चूलिका सहित जे वर्ते ते सचूलिकाक कहेवाय छे. अर्थात् ते चूलिका सहित आचारांगना पंचाशी उद्देशन काळ छे. केम के दरेक अध्ययने तेटला उद्देश काळ छे. ते आ प्रमाणे - पहेला श्रुतस्कंधना नव अध्ययनोमां अनुक्रमे सात (७), छ (१३), चार (१७), चार (२१), छ (२७), पांच (३२), आठ (४०), चार (४४), सात (५१) उद्देशनकाल छे. तथा वीजा श्रुतस्कंधमां पहेली चूलिकाना सात अध्ययनोने विषे अनुक्रमे अग्यार (६२), त्रण (६५), त्रण (६८), चारने विषे बवे (७६), बीजी चूलिकाने विषे सात अध्ययनो एक सरवाळा एटले एक एक उद्देशनकाळवाळा होवाथी ( ८३ ), ए ज प्रमाणे त्रीजी चूलिका एक अध्ययनवाळी होवाथी ( ८४ ) तथा चोथी चूलिका पण एक अध्ययनवाळी होवाथी ( ८५ ) सर्व मळीने पंचाशी (उद्देशन काळ ) थाय छे ( १ ) । तथा धातकीखंडना बन्ने मेरुपर्वत हजार योजन भूमिमां अवगाढ छे अने चोराशी हजार योजन भूमिथी Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायः ८५॥ सो ने चोराणुं स्थान (आंकडा) आवे छे." आ स्थानोना नाम अनुक्रमे आ प्रमाणे जाणवा-पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, समवायाङ्ग त्रुटित विगेरे (१५)। 'चउरासीतिमित्यादि'-(चोराशी संख्याना स्थानकना विवरण नो आ लेख छ) अहीं तेनो विभाग सूत्र॥ आ प्रमाण आ प्रमाणे छे-"वत्रीश लाख १, अहावीश लाख २, चार लाख ३, आठ लाख ४ अने चार लाख ५ विमानो पहेलेथीघो\ अंगा पांचमा ब्रह्म देवलोक सुधीमां (८४ लाख) छे. त्यारपछी लांतकमां पचास हजार ६, शुक्रमां चाळीश हजार ७, सहस्रारमा । ॥१८१॥ छ हजार ८, आनत-प्राणतमां चार सो ९-१०, आरण-अच्युतमा त्रण सो ११-१२, त्रण अधस्तन ग्रेवेयकमा एक सो ने अग्यार, त्रण मध्यम ग्रेवेयकमां एक सो ने सात, त्रण उपरितन 7वेयकमां एक सो, तथा अनुत्तरमां पांच विमानो छ । (कुल ८४९७०२३ ).'भवंतीति मक्खायं ति'-आ विमानो आ प्रमाणे होय छे, ए हेतु माटे भगवाने सर्वज्ञपणु Pa' होवाथी अने सत्यवादीपणुं होवाथी कया छे (१७) ॥ सूत्र-८४ ॥ - हवे पंचाशीमुं स्थान कहे छे-- । मू०-आयारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स पंचासीइ उद्देसणकाला पन्नत्ता। १ । धायइसंडस्स णं मंदरा पंचासीइ जोयणसहस्साइं सबग्गेणं पन्नत्ता । २ । रुयए णं मंडलियपवए पंचासीइ जोयणसहसाई सव्वग्गेणं पन्नत्ते । ३ । नंदणवणस्स णं हेट्ठिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स | कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं पंचासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ४॥ सूत्रम्-८५ ॥ ॥१८१॥ A Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीए, तेवा तथा शीर्षप्रहेलिका छे अंते जेने ते शीर्षप्रहेलिकापर्यवसान कहीए, तेवा स्वस्थानथकी एटले पूर्व पूर्व (संख्याता) स्थानथी उत्तरोत्तर संख्याना स्थाननी उत्पत्ति स्थानवाळा संख्याविशेषथकी अर्थात् गुणवा लायक संख्याथकी स्थानांतरो एटले तेनी पछीना संख्यास्थानो अर्थात् गुणाकारथी उत्पन्न थयेला व्यवधान रहित तरतना संख्याविशेष जेने विषे छे (बहुव्रीहिसमास ) ते स्वस्थानस्थानांतर एटले अनुक्रमे रहेला संख्याना स्थानविशेष कद्देवाय छे, अथवा (बहुव्रीहि समास न करीए तो ) स्वस्थान एटले पूर्वस्थान अने स्थानांतर एटले पछीना तरतना स्थान ( द्वंद्व समास ) ते स्वस्थानस्थानांतर कहेवाय छे, अथवा (द्वंद्व समास पण न करीए तो ) स्वस्थानथकी एटले पूर्वांग नामना प्रथम स्थानथकी स्थानांतर एटले ( पूर्व विगेरे) कहेवाने इच्छेला पछीना स्थानो ( पंचमी तत्पुरुष समास ) ते स्वस्थानस्थानांतर कद्देवाय छे. तेनो (स्वस्थानस्थानांतरनो ) चोराशी एटले 'लक्ष' शब्दनो अध्याहार होवाथी चोराशी लाखवडे गुणाकार करवानो को छे. ते आ प्रमाणे- चोराशी लाख वर्षे करीने (पूर्वनुं ) एक पूर्वांग थाय छे, ते (पूर्वांग) स्वस्थान छे, तेने चोराशी लाखे गुणवाथी एक पूर्व कहेवाय छे, ते स्थानांतर थयुं. ए ज प्रमाणे पूर्व स्वस्थान छे, तेने चोराशी लाखे गुणवाथी तेनी पछीनुं स्थान त्रुटितांग नामनुं थाय छे (ते त्रुटितांगने चोराशी लाखे गुणवाथी एक त्रुटित थाय छे. इत्यादि उत्तरोत्तर स्थानो जाणवा.) अहीं आ संख्याना स्थानो माटे आ प्रमाणे वे गाथाओ छे - " पूर्व १, त्रुटित २, अडड ३, अवव ४, हूहूक ५, उत्पल ६, पद्म ७, नलिन ८, अर्थनिपूर ९, अयुत १०, नयुत ११, प्रयुत १२, चूलिका १३ अने शीर्षप्रहेलिका १४ आ चौद नाम अंग शब्दवडे युक्त करवा (पूर्वांग, त्रुटितांग विगेरे. ) एम करवाथी अठ्ठावीश स्थानो थाय छे. अहीं ( शीर्षप्रहेलिकाना ) एक ३१ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : मूलार्थ:-सुविधिनाथ एटले पुष्पदंत नामना अरिहंतने छाशी गण अने छाशी गणधरो हता (१)। सुपार्श्वनाथ अरिहंतने छाशी सो वादी हता (२)। बीजी पृथ्वीना बहु मध्य देशभागथकी बीजा घनोदधिनी नीचेना चरमांत सुधी छाशी हजार योजन- अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (३)॥ टीकार्थ:-हवे छाशीमा स्थानक विषे काइक लखे छे-तेमां सुविधि नामना नवमा जिनेश्वरना अहीं छाशी गण अने गणधरो कह्या छे अने आवश्यक सूत्रमा तो अठाशी कह्या छे, ते मतांतर जाणवू (१)। तथा वीजी पृथ्वी शर्कराप्रभा. तेनुं बाहल्य एक लाख ने बत्रीश हजार योजननुं छे, तेनु अर्ध करतां छासठ हजार योजन थाय तथा तेनी नीचे रहेलो. वीजी पृथ्वी संबंधी होवाथी बीजो घनोदधि बाहल्यपणे वीश हजार योजननो छे, ते बन्ने मळीने छाशी हजार योजन | थाय छे (३)॥ सूत्र-८६ ॥ हवे सत्ताशीमुं स्थानक कहे छे-- मू०-मंदरस्स णं पवयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स आवासपवयस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । १ । मंदरस्स णं पव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ दगभासस्स आवासपवयस्स उत्तरिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । २। एवं मंदरस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ संखस्स Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समवायाङ्ग सूत्र ॥ पोपुं अंग ॥१८३॥ आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते | ३ | एवं चैव मंदरस्स उत्तरिल्लाओ चरमंताओ दगसीमस्स आवासपवयस्स दाहिणिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ४ । छण्हं कम्मपगडीणं आइमउवरिल्लवज्जाणं सत्तासीई उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ | ५ | महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिमंताओ सोगंधियस्स कंड हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ६ । एवं रुप्पिकूडस्स वि । ७ ॥ सूत्रम्-८७॥ मूलार्थ:- मेरु पर्वतना पूर्व दिशाना चरमांतथी गोस्तूभ नामना आवास पर्वतना पश्चिम चरमांत सुधी (४५ हजार जंबूद्वीपना अने ४२ हजार लवण समुद्रना एम) सत्ताशी हजार योजननुं अबाधाए आंतरुं कधुं छे (१) । मेरु पर्वतना दक्षिण चरमांतथी दकभास नामना आवास पर्वतना उत्तर चरमांत सुधी सत्ताशी हजार योजननुं अबाधाए आंतरुं कथं छे (२) । ए ज प्रमाणे मेरु पर्वतना पश्चिम चरमांतथी संख नामना आवास पर्वतना पूर्व चरमांत सुधी सत्ताशी हजार योजननुं अबाधाए आंतरु छे. (३) । ए ज प्रमाणे मेरु पर्वतना उत्तर चरमांतथी दकसीम नामना आवास पर्वतना दक्षिण चरमांत सुधी 'सचाशी हजार योजननुं अबाधाएं आंतरुं कह्युं छे (४) । पहेला अने छेल्ला कर्म रहित बाकीना छ कर्मनी उत्तरप्रकृतिओ सत्ताशी कही छे (५) । महाहिमवान कूटना उपरना छेडाथी सौगंधिक कांडनी नीचेना चरमांत सुधीमां सत्ताशी सो योजनतु समवाय ८७ ॥ ॥१८३॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबाधाए आंतरूं कहुं छे (६) । एज प्रमाणे रुक्मी कूटनु पण कहेQ (७)।.. टीकार्थ:-हवे सत्ताशीमा स्थानक विषे कांइक कहे छे-'मंदरेत्यादि-मेरुना पूर्व तरफना अंतथी जंबूद्वीपनी अंदरनो भाग पीस्ताळीश हजार योजननो छे, अने बेंताळीश हजार योजन लवणसमुद्रमा जइए त्यारे वेलंधर नागराजनो आवासभूत गोस्तूभ नामनो पर्वत पूर्व दिशामा रहेलो छे, तेथी ते बन्ने मळीने सत्ताशी हजार योजन- आंतरं थाय छे (१)। एज प्रमाणे बीजात्रणेनुं आंतरं जाणवू (२-३-४)। तथा पहेली ज्ञानावरण अने छेल्ली अंतराय ए वे मूळ कर्भप्रकृति रहित Id बाकीनी छ मूळकर्मप्रकृतिनी एटले दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम अने गोत्र कर्मनी सत्ताशी उत्तरप्रकृतिओ कही छे. केवी रीते ? ते कहे छ-दर्शनावरण विगेरे छ कर्मनी उत्तरप्रकृतिओ अनुक्रमे नव, वे, अहावीश, चार, बेंता ळीश अने बे छे. ते सर्व मळीने सूत्रमा कहेली ८७ उत्तरप्रकृतिओ थाय छे (५)। 'महाहिमवंतेत्यादि'-महाहिमवान NE नामना बीजा वर्षधर पर्वत उपर सिद्धायतनकूट, महाहिमवत्कूट विगेरे आठ कूटो छे, ते पांच सो पांच सो योजन ऊंचा छे. i: तेमां महाहिमवंत कूटना पांच सो योजन, महाहिमवंत वर्षधर पर्वतनी ऊंचाइना बसो योजन अने रत्नप्रभाना खरकांडना अवांIN तर कांडोमांना सौगंधिककांड सुधीना आठ कांडो के जे दरेक कांड हजार हजार योजन प्रमाणवाळा छ तेना एंशी सो योजन ए त्रणे मळीने कुल सत्ताशी सो योजननु आंतरं थाय छे (६) । एज प्रमाणे रुक्मी नामना पांचमा वर्षधर पर्वत उपरजे बीजुं 1 रुक्मीकूट नामनुं कूट छे, तेनुं पण आंतरं महाहिमवत्कूट प्रमाणे ज कहेवू, केमके ते बन्नेनुं सरखुंज प्रमाण छे (७)।। सूत्र-८७॥ हवे अठाशीमुं स्थानक कहे छे AM Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गः सूत्र ॥ चो अंग ॥९८४॥ मू० - एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पन्नत्ता । १ । दिट्टिवायरस णं अट्ठासीइ सुत्ताई पन्नत्ताई, तं जहा - उज्जुसुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियवाणि जहा नंदीए |२| मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स आवासपवयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासीइं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते |३| एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वं । ४ । बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अमाणे चोयालीसमे मंडलगते अट्ठासीति एगसद्विभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुत्ता सूरिए चारं चरइ । ५ । दक्खिणकट्ठाओ णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे चोयालीसति मे मंडलगते अट्ठासीई एगसट्टिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवृडित्ता णं सूरिए चारं चरइ । ६ ॥ सूत्रम्-८८ ॥ मूलार्थ:- एक एक ( दरेक ) चंद्र-सूर्यना अडाशी अठ्ठाशी महा ग्रहोरूप परिवार को छे (१) । दृष्टिवादना सूत्रोछे, ते आ प्रमाणे- ऋजुसूत्र, परिणतापरिणत, इत्यादि अठ्ठाशी सूत्र जेम नंदी सूत्रमां कला छे तेम कहेवा (२) । मेरु पर्वतना पूर्व तरफना चरमांतथी गोस्तुभ नामना आवास पर्वतना पूर्व तरफना चरमांत सुधी अट्ठाशी हजार समवाय ८८ ॥ ॥ १८४॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजन- अबाधाए आंतरूं का छे (३)। एज प्रमाणे चारे (बाकीनीत्रणे) दिशामां जाणवू (४) सर्व आभ्यंतर मंडळरूप बहारनी. उत्तर दिशाथकी पहेला छ मास तरफ एटले दक्षिणायन तरफ आवतो सूर्य ज्यारे चुमाळीशमा मंडळे आवे त्यारे मुहूतैना एकसठीया अहाशी भाग जेटली दिवसक्षेत्रनी एटले दिवसनी हानि करीने अने रात्रिक्षेत्रनी तेटली ज वृद्धि करीने सूर्य गति करे छे (५)। तथा दक्षिण दिशा थकी बीजा छ मास तरफ एटले उत्तरायण तरफ आवतो सूर्य ज्यारे चुमाळीशमा मंडळे आवे त्यारे मुहूर्त्तना एकसठीया अठाशी भाग जेटली रात्रिक्षेत्रनी (रात्रिनी) हानि करीने अने | तेटली ज दिवस क्षेत्रनी वृद्धि करीने सूर्य गति करे छ (६)॥ टीकार्थ:-हवे अहाशीमा स्थान विषे कांइक लखे छे-चंद्र सूर्य असंख्याता छे तो पण अहीं दरेक चंद्र सूर्यना परिवारभूत अहाशी ग्रह जाणवा. अहीं चंद्रमा अने सूर्य एम समाहार द्वंद्व समास को छे, तेथी चंद्रसूर्यरूपी युगलना अठाशी महाग्रहो छे, आ ग्रहो जो के चंद्रना ज परिवाररूप छे एम अन्यत्र कहेलुं छे, तो पण सूर्य पण इंद्र ज छे तेथी तेज ग्रहो तेना पण परिवाररूप जाणवा (१) 'दिद्विवाएत्यादि' दृष्टिवाद एटले बारमुं अंग, ते पांच प्रकारचें छे-परिकर्म १, सूत्र २, पूर्वगत ३, प्रथमानुयोग ४ अने चूलिका ५. तेनो बीजो प्रकार जे सूत्र छे तेमां सूत्र अद्याशी छे. 'जहा नंदिए त्ति'-जेम नंदी सूत्रमा कह्या छे तेम, ए प्रमाणे अतिदेश (भलामण) करीने सूत्रो देखाड्या छे ते आगळ कहेवामां आवशे (२)। 'मंदरस्सेत्यादि'-मेरुना पूर्व दिशाना छेडाथी जंबूद्वीपनो छेडो पीस्ताळीश हजार योजन दूर छे, त्यांथी ARE बेंताळीश हजार योजन जइए त्यारे त्यां गोस्तूभ नामनो आवास पर्वत छे, ते पर्वतनो विष्कम एक हजार योजननो छे, तेथी, Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाङ्ग चोयुं अंग ॥१८५॥ (४५-४२-१ हजार मळवाथी) सूत्रमा कहेलो अंक (८८ हजार) मळतो आवे छे (३)। आ ज क्रमे करीने दक्षिण विगेरे (त्रण) दिशामा रहेला दकावभास, शंख अने दकसीम नामना वेलंधर नागराजना निवासभूत पर्वतोने आश्रीने पण कहे. ते माटे ज कयु के-'एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वमिति'-एज प्रमाणे चारे दिशामां जाणवू (४) । 'बाहिराओणमित्यादि'-बाह्य एटले सर्व आभ्यंतर मंडळरूप उत्तर दिशाथकी, कोइ पुस्तकमां 'बाहिराओ' ए शब्द देखातो नथी. पहेला छ मास तरफ एटले वर्षमा प्रथम दक्षिणायन होवाथी दक्षिणायन तरफ आवतो सूर्य चुमाळीशमा मंडळ उपर गयो सतो मुहर्तना एकसठीया अठाशी भाग जेटली दिवसक्षेत्रनी एटले दिवसनी हानि करीने तथा रात्रिनी तेटली ज वृद्धि करीने सूर्य चार चरे छे एटले भ्रमण करे छे. अहीं भावार्थ आ प्रमाणे जाणवो-दक्षिणायननी अपेक्षाए दरेक मंडळे मुहतैना एकसठीया बे भाग जेटली दिवसनी हानि थाय छे, तेथी चुमाळीशमा मंडळे अष्टाशी भाग जेटली हानि थाय छे, अने रात्रि तेटला ज भागप्रमाण वृद्धि पामे छे. अहीं (सूत्रमा ) वे वार सूर्य शब्द लख्यो छे, ते दिवस अने रात्रिने आश्रीने बे वाक्यना भेदनी कल्पना करवाथी लख्यो छे, तेथी पुनरुक्त दोप जाणवो नहीं. आ सूत्रनो भावार्थ अठोतेरमा स्थानना सूत्रनी जेम जाणी लेवो. (५)। 'दक्षिणकट्टाओ' इत्यादि सूत्र उपरना सूत्रनी जेम जाणवू. विशेष एकेअहीं दिवसनी वृद्धि अने रात्रिनी हानि जाणवी (६) ॥ सूत्र-८८॥ हवे नेवाशीमुं स्थानक कहे छमू-उसभेणं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए सुसमदूसमाए (समाए) पच्छिमे M॥१८५॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागे एगूणणउए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे।। समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थाए दूसमसुसमाए समाए पच्छिमे भागे एगूणनउइए अद्धमासहिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । २ । हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगणनउइं वाससयाई महाराया होत्था । ३ । संतिस्स णं अरहओ एगणनउई अज्जासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था । ४॥ सूत्रम्-८९॥ __ मूलार्थ:--कोशल देशमा उत्पन्न थयेला श्री ऋषभदेव अरिहंत आ अवसर्पिणीना सुषमदुःषम नामना त्रीजा आराने छेडे नेवाशी अर्धमास ( पखवाडीया ) बाकी हता त्यारे काळधर्म पाम्या यावत् सर्व दुःख रहित थया (१)।श्रमण भगवान | महावीरस्वामी आ अवसर्पिणीना दुःषमसुषम नामना चोथा आराना पश्चिम भागमां नेवाशी अर्धमास (पखवाडीया) बाकी हता त्यारे काळधर्म पाम्या यावत् सर्व दुःख रहित थया (२)। हरिषेण नामना चातुरंत चक्रवर्ती राजा नेवाशी सो वर्ष सुधी महराजा हता (राज्य पाळता हता) (३)। श्रीशांतिनाथ अरिहंतने नेवाशी हजार साध्वीओरूप उत्कृष्ट साध्वीसंपदा हती (४)। दीकार्थ:-हवे नेवाशीमा स्थानक विषे कांइक लखे छे-तईयाए समाए त्ति'-सुषमदुःषम नामना जीजा आराना नेवाशी अर्धमास एटले त्रण वर्ष अने साडाआठ मास शेष रहे सते. 'जाव' शब्द लख्यो छे तेथी अंतकृत थया, सिद्ध थया, बुद्ध थया, मुक्त थया, एम जाणवू (१)। हरिषेण नामना दशमा चक्रवर्तीनुं सर्व आयु दश हजार वर्षर्नु Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समवाय ९०॥ सूत्र॥ हतुं. तेमां सो वर्ष न्यून नव हजार वर्ष सुधी राज्य कयु, वाकीना अग्यार सो वर्ष कुमारपणामां, मांडलिकपणामां अने साधुसमवायाङ्गपणामां जाणवा (३) । अहीं शांतिनाथ जिनेश्वरनी नेवाशी हजार साध्वीनी संपदा कही छे, परंतु आवश्यक सूत्रमा तो एकसठ हजार अने छ सो कही छे, ते मतांतर जाणवु (४)॥ सूत्र-८९॥ चोधू अंग हवे नेवुमुं स्थान कहे छ॥१८॥ मू०-सीयले णं अरहा नउइं धणूई उडं उच्चत्तेणं होत्था। १। अजियस्स णं अरहओ नउई गणा नउई गणहरा होत्था । २ । एवं संतिस्स वि।३। सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउइ वासाइं विजए होत्था ।४। सबेसि णं वद्दवेयड्डपबयाणं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ सोगंधियकण्डस हेडिले चरमंते एस णं नउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ५॥ सूत्रम्-९०॥ . मूलार्थः-श्रीशीतळनाथ अरिहंत नेवु धनुष ऊंचा हता (१)। श्रीअजितनाथ अरिहंतने नेवु गण अने नेवु गणधरो हता (२)। एज प्रमाणे श्रीशांतिनाथने पण नेवु गण अने नेवु गणधरो हता (३)। स्वयंभू वासुदेवे नेवु वर्ष सुधी दिग्विजय कर्यो हतो (४)। सर्वे वृत्तवैताढ्य पर्वतोना उपरना शिखरतळथी सौगंधिक कांडना हेठला चरमांत सुधी नेवु सो योजननुं अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (५)॥ . टीकार्थ:--हवे नेवुमा स्थानक विषे काइक लखे छे-तेमां अजितनाथ अने शांतिनाथना नेवु गण अने नेवु गणधरो र८६ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहीं कह्या छे, पण आवश्यक सूत्रमा तो अजितनाथना पंचाणु अने शांतिनाथना छत्रीश गण अने गणधरो कह्या छे ते मतांतर जाणवु (२-३)। तथा स्वयंभू नामना त्रीजा वासुदेवने नेवु वर्ष सुधी विजय एटले पृथ्वीने साधवानो व्यापार हतो (४)। 'सव्वेसि णमित्यादि'-सर्वे एटले शब्दापाती विगेरे वीशे वृत्तवैताढ्यो एक हजार योजन ऊंचा छे, तथा सौगंधिक कांडनो चरमांत आठ हजार योजन प्रमाण छे, तेथी नव हजार एटले नेवु सो योजननु आंतरुं सूत्रमा का छे ते बराबर छ (५)॥ सूत्र--९०॥ हवे एकाणुएं स्थानक कहे छे-- ___मू-एकाणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पन्नत्ताओ। १ । कालोए णं समुद्दे एकाणउई जोयणसयसहस्साइं सहियाइं परिक्खेवेणं पन्नत्ते । २ । कुंथुस्स णं अरहओ एकाणउई आहोहियसया होत्था । ३ । आउयगोयवजाणं छण्हं कम्मपगडीणं एकाणउई उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ । ४॥ सूत्रम्-९१ ॥ मूलार्थ:-वीजानुं वैयावृत्त्य कर्म करवानी प्रतिमाओ एकाणु कही छे (१)। कालोद समदनी परिधि कांइक अधिक एकाणु लाख योजन प्रमाण कही छे (२)। कुंथुनाथ अरिहंतने एकाणु सो अवधिज्ञानीओनी संपदा हती।३। आयु अने गोत्र ए वे कर्म विना बाकीनी छ मूल कर्मप्रकृतिनी एकाणु उत्तर प्रकृतिओ कही छे (४)॥. . ... Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाम सूत्र ॥ अंग ॥ १८७॥ टीकार्थ:- हवे एकाणुमा स्थानक विषे कांइक लखे छे - तेमां पर एटले पोताथी रहित एवा बीजाओना वैयावृत्यकर्म एटले भक्तपानादिकवडे उपष्टंभ क्रिया करवारूप प्रतिमा एटले विशेष प्रकारना अभिग्रहो एकाणु छे. अहीं आ अभिग्रहोने प्रतिमापणा करीने कला छे ते बीजे कोइपण ठेकाणे जोवामां आवता नथी. मात्र आ विनयवडे वैयावृत्य करवाना भेदो छे एम संभवे छे. ते आ प्रमाणे - दर्शनना ( समकितना ) गुणे करीने जेओ अधिक होय तेओने विषे सत्कार विगेरे दश प्रकारनो विनय करवानी छे. ते विपे कयुं छे के— सत्कार १, अभ्युत्थान २, सन्मान २, आसनाभिग्रह ४, आसनानुप्रदान ५, कृतिकर्म ६, अंजलिप्रग्रह ७, आवतानी सामे जवुं ८, स्थिर रहेलानी पर्युपासना ९ तथा जतानी पाछळ जनुं १०. आ दश प्रकारनो शुश्रूषा विनय को छे. तेमां सत्कार एटले वांदयुं, स्तुति करवी विगेरे १, अभ्युत्थान एटले आसननो त्याग करवी ते २, सन्मान एटले वस्त्रादिकवडे पूजा करवी ते ३, आसनाभिग्रह एटले पासे आवीने ऊभा होय तेने आसन लावी 'आपापूर्वक 'अहीं बेसो' एम कहेवुं ते ४, आसनानुप्रदान एटले एक स्थानथी वीजा स्थाने आसन लड़ जनुं ते ५, कृतिकर्म विगेरे बाकींना पांच भेदोनो अर्थ प्रगट ज छे १० तथा तीर्थंकरादिक पंदर पदने अनाशातनादि चार पदवडे गुणवाथी साठ प्रकारनो अनाशातना विनय थाय छे. ते पंदर पद आ प्रमाणे –“ तीर्थकर १, धर्म २, आचार्य ३, वाचक ४, स्थविर ५, कुल ६, गण ७, संघ ८, सांभोगिक ९, क्रिया १०, तथा मतिज्ञानादि (मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव, केवळ ) पांच ज्ञान मळीने १५, " आनी भावना आ प्रमाणे करवी - तीर्थंकरोनी जे अनाशातना ते तीर्थंकर अनाशातना कहेवाय छे ( पष्ठीतत्पुरुष समास ). ए ज प्रमाणे तीर्थंकरे प्ररूपेला धर्मनी अनाशातना. एज प्रमाणे सर्वत्र भावना करवी. अनाशातना समवाय ९१ ॥ ॥ १८७॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे चार पद आ प्रमाणे--" तीर्थकरथी आरंभीने केवळज्ञान पर्यंत. पंदर पदोनी अनाशातना १, भक्ति २, बहमान ३।। अने वर्णवाद (श्लाघा) ४ आ चार करवा." तथा औपचारिक विनय सात प्रकारनो छे. ते विपे कह्यु छ के--"अभ्यासासन १, छंदोऽनुवर्तन २, कृतप्रतिकृति ३, कारित निमित्तकरण ४, दुःखार्तगवेषण ५, सर्व अर्थने विपे देशकाळन जाणवू ६ तथा अनुमति-अनुज्ञा ७, आ औपचारिक विनय संक्षेपथी सात प्रकारे कह्यो छे." तेमां अभ्यासासन एटले उपचार (सेवा) करवा लायक गुरुनी पासे बेसवु ते १, छंदोऽनुवर्तन एटले गुरुना अभिप्राय( इच्छा )ने अनुसरवू ते २, कृतप्रतिकृति एटले प्रसन्नथयेला आचार्य (गुरु) सूत्रादिक आपशे, पण निर्जरा आप नहीं एम माननार शिष्य आहारादिक लावी आपे (वैयावच्च करवाथी निर्जरा थाय)३, कारितनिमित्तकरण एटले सम्यक् प्रकारे शास्त्रना पद भणावेला विशेषे करीने विनयमां वर्ते अने तेने माटे क्रिया पण करे ते ४, बाकीना पदो प्रसिद्ध अर्थवाळा छे. ५-६-७. तथा वैयावृत्त्य दश प्रकारे छे, ते माटे कयुं छे | के--" आचार्य १, उपाध्याय २, स्थविर ३, तपस्वी ४, ग्लान ५, शैक्ष (नवो दीक्षित) ६, साधर्मिक ७, कुल ८, गण | ९ अने संघ १०, आ दशर्नु वैयावृत्त्य कर." तेमा प्रव्राजना १, दिक् २, उद्देश ३, समुद्देश ४ अने वाचना ५ ए पांच | प्रकारना आचार्यनुं वैयावृत्य करवु ते आचार्यविनय कहेवाय छे. तथा औपचारिक विनय एटले पासे रहे विगेरे सात प्रकारे छे. तथा वैयावृत्त्यना दश (पैकी नवना नव भेद ) अने आचायनी पांच भेद छे. तेथी ते चौद प्रकार थया. ए. प्रमाणे कुल एकाणु विनयना मेदो थाय छे. आ ज भेदो अभिग्रहना विषयरूप होवाथी प्रतिमा कहेवाय छे ) कुल गणतरी | . १. दीक्षाचार्य, दिगाचार्य विगेरे. २. नवना विनयनो एक एक भेद अने आचार्यता विनयना पांच भेद मळी १४ थाय.. Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१८८॥ प्रमाणे ) दर्शन गुणाधिकना १०, अनाशातनाना ६०, औपचारिकना ७, वैयावृत्यना १४. कुल ९१ (१) । तथा कालोद नामनो समुद्र छें तेनी परिधि कांइक अधिक एकाणु लाख योजननी छे. तेमां जे अधिक छे ते आ प्रमाणे- सीतेर हजार, छ सो ने पांच ( ७०६०५ ) योजन, सत्तर सो ने पंदर ( १७१५ ) धनुष अने कांइक अधिक सत्ताशी (८७) अंगुल एंटलं जाणवुं (२) । आहोहिय एटले नियमित क्षेत्रने जाणनार अवधिज्ञानी काळोदधि समुद्र परत्वे तेटलं जोवे (३) । आयुष्य अने गोत्र ए वे कर्मने वर्जीने वाकीना छ कर्मों एटले ज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, वेदनीय ३, मोहनीय ४, नाम ५ अने अंतराय ६. तेना अनुक्रमे पांच १, नव २, वे ३, अठ्ठावीश ४, वेताळीश ५ अने पांच ६ भेदो छे ( एटले ते छ कर्मनी उत्तरप्रकृति सर्व मळीने ९१ थाय छे ) (४) ॥ सूत्र - ९१ ॥ हवे चाणु स्थान कहे छे मू० - बाणउई पडिमाओ पन्नत्ताओ |१| थेरे णं इंदभूती बाणउइ वासाई सव्वाउयं पालता सिद्धे बुद्धे |२| मंदरस्स णं पवयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथूभस्स आवासपव्वयस्स पच्चच्छिमिले चरमंते एस णं बाणउई जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते | ३ | एवं चउन्हं वि आवासपवयाणं । ४ ॥ सूत्रम् - ९२ ॥ मूलार्थ:-वाणु प्रतिमाओ कही छे (१) । स्थविर इंद्रभूति बाणुं वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया. (२) । मेरु समवाय ९२ ॥ ॥१८८॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वतना बहु मध्य देशभागथकी गोस्तुभ नामना आवास पर्वतनी पश्चिम तरफना छेल्ला अंत सुधी बाणु हजार योजननुं अबाधाएं आंतरं कर्तुं छे (३) । ए ज प्रमाणे चारे आवास पर्वतनुं आंतरुं जाणवुं (४) ॥ कार्थ:- हवे वाणुमा स्थानक विषे कांइक लखे छे - बाणु प्रतिमा एटले विशेष प्रकारना अभिग्रहो का छे. ते प्रतिमाओ दशाश्रुतस्कंधनी निर्युक्तिने अनुसारे देखाडे छे—तेमां पांच प्रतिमाओ कही छे, ते आ प्रमाणे- वे प्रकारनी समाधि प्रतिमा १, उपधान प्रतिमा २, विवेकप्रतिमा ३, प्रतिसंलीनता प्रतिमा ४ अने एकलविहार प्रतिमा ५० तेमां पहेली समाधि प्रतिमा वे प्रकारनी आ प्रमाणे श्रुत समाधि प्रतिमा अने चारित्र समाधि प्रतिमा. अहीं दर्शनने ज्ञाननी अंदर गणेलुं होवाथी दर्शन प्रतिमा जुदी कहेवाने इच्छी नथी. तेमां श्रुत समाधि प्रतिमाना बासठ भेद छे. केवी रीते ? ते कहे छे - आचारांग नामना पहेला श्रुतस्कंधमां पांच (५) वीजा श्रुतस्कंधमां साडत्रीश (३७), स्थानांगसूत्रमां सोळ ( १६ ) व्यवहारसूत्र मां चार (४). आ सर्व मळीने बासठ (६२) भेद थया. जो के आ प्रतिमाओ चारित्रना स्वभाववाळी छे तोपण विशेष प्रकारना श्रुतधारीने ज ते होय छे, तेथी श्रुतना प्रधानपणाने लीधे श्रुत समाधि प्रतिमा तरीके कही छे एम संभवे छे, तथा सामाकि, छेदोपस्थापनीय विगेरे चारित्र समाधि प्रतिमाओ पांच छे. तथा वीजी उपधान प्रतिमा वे प्रकारनी छे - भिक्षु प्रतिमा अने श्राद्धप्रतिमा. मां भिक्षुप्रतिमा ' मासाइ सत्तंता '-' एक मासथी आरंभीने सात मास पर्यंत ' इत्यादि पूर्वे बार कही छे ते जाणवी तथा अग्यार प्रकारनी श्रावक प्रतिमा पण ' दंसणवय ' - दर्शन, व्रत विगेरे पूर्वे कही छे ते जाणवी. सर्वे मळीने वीश थइ. तथा त्रीजी विवेक प्रतिमा तो एक ज जाणवी. अहीं क्रोधादिक आभ्यंतर अने गण, शरीर, उपधि, Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ९३ ॥ भक्तपान विगेरे बाह्य विवेक करवा लायक पदार्थों घणा छ तो पण एकपणानी विवक्षा करी छे. तथा चोथी प्रतिसंलीनता समवायाङ्ग प्रतिमा पण एक ज प्रकारनी छे. जो के आ प्रतिसंलीनतामां पांच प्रकारना इंद्रियोनुं स्वरूप अने योग, कषाय तथा विविक्त शयन-आसन ए त्रण प्रकारना नोइंद्रियनु स्वरूप आवी शके छे, तो पण तेना भेदवडे विवक्षा करेली नहीं होवाथी एक ज चोथु अंग प्रकार कह्यो छे. तथा पांचमी एकलविहार प्रतिमा पण एक ज प्रकारनी छे. आ प्रतिमानो भिक्षुप्रतिमाने विपे समावेश To थाय छे तेथी तेनी भेदवडे विवक्षा करी नथी. आ प्रमाणे ६२-५-२३-१-१ आ सर्व मळीने बाणुं (९२) प्रतिमाओ थाय छ (१) । स्थविर इंद्रभूति एटले श्रीमहावीरस्वामीमा पहेला गणधर हताचे गृहस्थपर्यायमां पचास वर्ष, छद्मस्थपर्यायमां त्रीश वर्ष अने केवळीपर्यायमां बार वर्ष रहीने सिद्ध थया, तेथी सर्व मळीने बाणु वर्ष थया (२) । अंदरस्सेत्यादिआनो भावार्थ आ प्रमाणे छ-मेरुना मध्य भागथकी जंबूद्वीपनी जगती पचास हजार योजन दूर छे, त्यांथी बेंताळीश हजार योजन जइए त्यारे त्यां गोस्तूभ पर्वत आवे छे, तेथी सूत्रमा कहेलं वाणु हजार योजननु आंतलं मळतुं आवे छे. (३)। एज प्रमाणे बाकीना पर्वतो, आंतरं पण जाणवु (४) ॥ सूत्र-९२ ॥ हवे त्राणुमुं स्थान कहे छे-. मू-चंदप्पहस्स णं अरहओ तेणउई गणा तेणउई गणहरा होत्था ।। संतिस्स णं अरहओ तेणउई चउद्दस पुविसया होत्था ॥२॥ तेणउइमंडलगते णं सूरिए अतिवमाणे वा निवट्टमाणे ॥१८॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ all वा समं अहोरत्तं विसमं करेइ ॥३॥ सूत्रम्-९३ ॥ . । मूलार्थः--चंद्रप्रभ अरिहंतने त्राणु गण अने त्राणुं गणधरोहता (१)। शांतिनाथ अरिहंतने त्राणु सो चौदपूर्वी हता(२)। त्राणुमा मंडळे रहेलो सूर्य आभ्यंतर मंडळ तरफ जतो अथवाबाह्य मंडळ तरफ जतो समान (सरखा) अहोरात्रने विषम करेछ (३)। टीकार्थ:-हवे त्राणुमा स्थान विपे कांइक लखे छे-'तेणउइ मंडलेत्यादि'-तेमां अतिवर्तमान एटले सर्व बाह्य मंडळथी सर्व आभ्यंतर मंडळ प्रत्ये जतो अथवा निवर्तमान एटले सर्व आभ्यंतर मंडळथी सर्व बाह्य मंडळ तरफ जतो, अथवा तो आ बन्नेनो अर्थ उलटसुलट करवो. ( आवो सूर्य ) समान अहोरात्रने विषम करे छे. अहीं "अहश्च रात्रिश्च ( अनयोः समाहारः) अहोरात्रं" एवो समाहार द्वंद्व समास को छे. आ बन्नेनुं समानपणुं त्यारे ज होय के ज्यारे आ बन्ने पंदर पंदर मुहूर्त्तना होय. तेमां सर्व आभ्यंतर मंडळमां (सूर्य रह्यो होय त्यारे) अढार मुहूर्तनो दिवस अने बार मुहूर्तनी रात्रि होय छे. अने सर्व बाह्य मंडळमां (सूर्य रह्यो होय त्यारे) तेथी व्यत्यय जाणवो (एटले के बार मुहूर्त्तनो दिवस अने अढार मुहूर्तनी रात्रि होय छे) तथा बाकीना एक सो ने त्राशी मंडळने विष (सूर्य रहे त्यारे दरेक मंडळे ) एकसठीया बवे भाग वृद्धि पामे छे, तथा हानि पामे छे, एटले के ज्यारे । दिवसनी वृद्धि थाय त्यारे रात्रिनी हानि थाय छे अने ज्यारे रात्रिनी वृद्धि थाय त्यारे दिवसनी हानि थाय छे. तेमां वाणुमे मंडळे दरेक मंडळे मुहूर्त्तना एकसठीया बे वे भागनी वृद्धि थवाथी त्रण मुहूर्त अने एकसठीयो एक भाग अधिक एटली वृद्धि के हानि थाय छे. आ प्रमाण बार मुहर्त्तमां उमेरवाथी अथवा अढार मुहूर्तमाथी बाद करवाथी बन्ने वाजुए एकसठीया एक Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INT समवाय ९५॥ . मी समवायाजा चोपुंअंग ॥१९॥ भाग अधिक अथवा ओछा एवा पंदर मुहर्त थाय छे तेथी वाणुमा मंडळना अर्ध भागमा अहोरात्रनी समानता थाय छे अने तेज अर्ध मंडळने छेडे अहोरामनी विषमता थाय छे. तेथी वाणुमा मंडळनी शरूआतथी आरंभीने त्राणुमुं मंडळ आवे त्यारे सूत्रमा कहेलो अर्थ मळतो आवे छे (३) ॥ सूत्र-९३॥ हवे चोराणुमुं स्थान कहे छे-- मू-निसहनीलवंतियाओ णं जीवाओ चउणउइ जोयणसहस्साइं एकं छप्पनं जोयणसयं दोन्नि य एगूणवीसइभागे जोयणस्स आयामेणं पन्नत्ता । १ । अजियस्स णं अरहओ चउणउइ ओहिनाणिसया होत्था । २ ॥ सूत्रम्-९४ ॥ मूलार्थ:-निषध अने नीलवंत पर्वतनी जीवा चोराणु हजार, एक सो ने छप्पन्न योजन तथा उपर एक योजनना ओगणीशीया वे भाग लंबाइवडे कही छे (१)। अजितस्वामी अरिहंतने चोराणु सो अवधिज्ञानी हता (२)॥ टीकार्थ:-हवे चोराणुमा स्थान विपे काइक लखे छे--'निसहेत्यादि'-अहीं पोणी संवादनी गाथा आ प्रमाणे छे--" चोराणु हजार, एक सो ने छप्पन्न योजन तथा वे कळा आटली निषधनी जीवा कही छे" (१)॥ सूत्र-९४ ॥ हवे पंचाणुमुं स्थान कहे छे-- मू०-सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउइ गणा पंचाणउइ गणहरा होत्था। १ । जंबुद्दीवस्स णं ॐ ॥१९॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवस्स चरमंताओ चउद्दिसिं लवणसमुदं पंचाणउइ पंचाणउइ जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा पन्नत्ता, तं जहा-वलयामुहे केऊए जूयए ईसरे।। लवणसमुद्दस्स उभओ पासं पिपंचाणउयं पंचाणउयं पदेसाओ उल्वेहुस्सेहपरिहाणीए पन्नत्ता।३। कुंथू णं अरहा पंचाणउइ वाससहस्साइं परमाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव प्पहीणे । ४। थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइ वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव प्पहीणे । ५ । सूत्रम्-९५॥ ___ मूलार्थ:--श्रीसुपार्श्वस्वामी अरिहंतने पंचाणु गण अने पंचाणु गणधरो हता (१)। जंबूद्वीप नामना द्वीपना छेल्ला अंतथी चारे दिशामां लवण समुद्रमा पंचाणु पंचाणु हजार योजन प्रवेश करीए त्यारे त्यां चार महापातालकलशो कह्या छे. ते आ प्रमाणे-बडवामुख १, केतु २, युप ३ अने ईश्वर (४) । लवणसमुद्रनी बन्ने बाजुए पंचाणु पंचाणु प्रदेशो उद्वेध (ऊंडाइ) अने उत्सेध( ऊंचाइ )नी हानिना विषयमां कहेला छे (३)। श्रीकुंथुनाथ अरिहंत पंचाणु हजार वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (४) । स्थविर मौर्यपुत्र पंचाणु वर्षनुं सर्व आयुष्य पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःखथी रहित थया (५)॥ टीकार्थ:--हवे पंचाणुमा स्थान विषे कांइक लखे छे-लवण समुद्रनी बन्ने पासे पंचाणु प्रदेशो उद्वेध अने उत्सेधनी हानिना विषयमां कहेला छे. आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-लवणसमुद्रना मध्यभागे दश हजार योजनप्रमाण क्षेत्र Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ९५॥ समवाया चोधू अंग ॥१९॥ (दगमाळ ) छे ( ते जंबुद्वीपथी अने धातकीखंडथी पंचाणु पंचाणु हजार योजन जइए त्यारे बच्चेना दश हजार योजनमा सीधी पीठिकाने आकारे जळनी दगमाळ छे) तेनो उद्वेध एटले ऊंडाइ सम पृथ्वीतळनी अपेक्षाए एक हजार योजन छे. त्यांधी पंचाणु प्रदेश उल्लंघन करीए त्यां उद्वेधनो एक प्रदेश हानि पामे छे, त्यांथी पण पंचाणु प्रदेश जइए त्यां उद्वेधनो चीजो एक प्रदेश हानि पामे छे. ए प्रमाणे पंचाणु पंचाणु प्रदेश ओळंगतां एक एक प्रदेश प्रमाण उद्वेधनी हानि थतां पंचाणु हजार योजन ओळंगीए त्यारे समुद्रतटना प्रदेशने विष हजार योजन प्रमाण जे उद्वेध हतो ते हजार योजननी हानि थाय छे एटले के समभृतळपणुं थाय छे. तथा ते लवणसमुद्रना मध्य भागनी अपेक्षाए ते समुद्रना तटनो उत्सेध एटले ऊंचाइ एक हजार योजन छे. तेमां समभूतळरूप ते समुद्रतटथी पंचाणु प्रदेश ओळंगीए त्यारे त्यां एक प्रदेश उत्सेधनी हानि थाय छे, त्यांथी पण पंचाणु प्रदेश जइए त्यारे त्यां वीजा एक प्रदेश ज उत्सेधनी हानि थाय छे. ए ज प्रमाणे पंचाणु पंचाणु प्रदेशना ओळंगवावडे एक एक प्रदेशनी हानि थतां पंचाणु हजार योजन ओळंगीए त्यारे त्यां समुद्रना मध्य भागे हजार योजननो उत्सेध हानि पामे छे. आप्रमाणे एक हजार योजन प्रमाण उत्सेधनी हानि थवाथी एक हजार योजन प्रमाण उद्वेध थाय छे. 'लवणस्सेति'-अथवा तो उद्वेधने माटे जे उत्सेधनी हानि कही अने तेमा जे पंचाणु प्रदेशो कह्या, ते प्रदेशो ओळंगवाथी उत्सेधथकी प्रदेश प्रदेशनी हानि थये सते प्रदेश प्रदेशनो उद्वेध थाय छे (३) । तथा कुंथुनाथ सत्तरमा तीर्थकर थया, तेना कुमारपणामां, मांडलिक राजापणामां, चक्रवर्तीपणामां अने अनगारपणामां दरेकमां त्रेवीश हजार अने साडा सात सो वर्ष होवाथी सर्व आयुष्य पंचाणु हजार वर्षनुं थाय छ (४) तथा मौर्यपुत्र ते श्री महावीरस्वामीना ॥१९ ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातमा गणधर हता, तेनुं सर्व आयु पंचाणु वर्षतुं हतुं, केत्री रीते ? ते कहे छे-गृहस्थपणामां पांसठ वर्ष, छद्मस्थपणामां || चौद वर्ष अने केवळीपणामां सोळ वर्ष होवाथी कुल पंचाणु वर्षथाय छे (५) ॥ सूत्र-९५॥ . . ___ हवे छन्नुमुं स्थान कहे छे-- मू-एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचकवहिस्स छण्णउई छण्णउई गामकोडीओ होत्था । १। वायुकुमाराणं छण्णउइ भवणावाससयसहस्सा पन्नत्ता । २ । ववहारिए णं दंडे छण्णउइ अंगुलाई । अंगुलमाणेणं । ३ । एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसले वि हु । ४ । अभितरओ आइमुहुत्ते ! छण्णउइअंगुलछाए पन्नत्ते । ५॥ सूत्रम्-९६॥ . - मूलाथैः-दरेक चातुरंत चक्रवर्ती राजाने छन्नु छन्नु करोड गाम होय छे (१) । वायुकुमार देवना भवनावास छन्नु लाख कह्या छे (२)। व्यावहारिक दंड छन्तु आंगळ लांबो होय छे (३)।एज प्रमाणे धनुष, नालिका, युग (धोंसलं) अक्ष (धरी) अने मुशळ ( सांवेलं) पण छन्नु छन्नु आंगळ प्रमाण होय छे (४)। आभ्यंतर मंडळमां सूर्य होय त्यारे | पहेलु मुहूर्त छन्नु अंगुलनी छायावडे कहेलुं छे (५)॥ टीकार्थ:--हवे छन्नुमा स्थान विषे काइक कहे छ--वायुकुमार देवोना भवनो दक्षिण दिशामां पचास लाख अने उत्तर दिशामा छेताळीश लाख होवाथी कुल छन्नु लाख कहेला छे (२)। ‘ववहारिए त्ति' व्यवहारिक दंड एट ASS Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय श्री समवायाङ्ग चोएं अंग . ॥१९२॥ . जेनावडे गाउ विगेरेनु प्रमाण कहेवाय छे ते, परंतु अव्यावहारिक दंड तो कहेला प्रमाणथी नानो अथवा मोटो होइ शके छे. केमके दंडनुं प्रमाण चार हाथर्नु कहेलं छे अने एक हाथना चोवीश अंगुल कया छे, तथी चोवीशने चारे गुणतां छन्नु थाय जछे (३)। 'अम्भितरओ इत्यादि'--आभ्यंतर एटले आभ्यंतर मंडळने आश्रीने पहेलं मुहूर्त छन्नु अंगुलनी छायावालू का छे. अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे—सूर्य जे दिवसे सर्व आभ्यंतर मंडळने विष चार चरे छे-गति करे छे, ते दिवसर्नु पहेलं मुहूर्त बार अंगुलना शंकुने आश्रीने छन्नु आंगळनी छायावाडं थाय छे. ते आ प्रमाणे-आ दिवस अढार मुहूर्त्तना प्रमाणवाळो होय छे तेथी दिवसनो अढारमो भाग ते एक मुहूर्त थाय छे. तेथी छायागणितनी रीते वार अंगुलना शंकुने छेदरूप अढारवडे गुणवा, तेथी बसो ने सोळ (२१६) थाय छे, तेने अर्ध करवाथी एक सो ने आठ (१०८) थाय छे. तेमाथी शंकुतुं प्रमाण बार आंगळनुं छे ते बार बाद करवाथी छन्नुं अंगुल प्राप्त थाय छे (५)॥ सूत्र-९६ ॥ हवे सत्ताणुमुं स्थान कहे छे-- - मू०-मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्ताणउइ जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।। एवं चउदिसि पि।। अट्ठण्हं कम्मपगडीणं सत्ताणउइ उत्तरपगडीओ पन्नत्ताओ। ३ । हरिसेणे णं राया चाउरंतचकवट्टी देसूणाई सत्ताणउइ वाससयाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भविचाणंजाव पवइए।४॥ सूत्रम्-९७॥ ॥१९२॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलार्थः-मेरु पर्वतना पश्चिमना चरमांतथी गोस्तूभ नामना आवास पर्वतना पश्चिमना चरमांत सुधी सत्ताणुं हजार योजन- अबाधाए आंतरूं का छे (१)। एज प्रमाणे चारे दिशा संबंधी कहेवू (२)। आठे कर्मप्रकृतिनी सत्ताणुं उत्तरप्रकृतिओ कहेली छे (३)। हरिषेण नामना चातुरंत चक्रवर्ती राजा कांइक ओछा सत्ताणुं सो वर्ष सुधी गृहवासमां बसी मुंड थइ यावत् प्रव्रजित थया (४)॥ टीकार्थ:--हवे सत्ताणुमा स्थान विपे कांइक लखे छे--मंदरेत्यादि'--आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे--मेरुना | पश्चिम छेडाथी जंबूद्वीपनो छेडो पंचावन हजार योजन दूर छे, त्यांथी उताळीश हजार योजन दूर गोस्तुभ पर्वत छ, तेथी कहेलं आंतलं मळतुं आवे छे (१)। हरिषेण नामना दशमा चक्रवर्ती काइक ओछा सत्ताणु सो वर्ष घरवासमा रह्या अने कांइक अधिक त्रण सो वर्ष दीक्षानुं पालन कर्यु, केमके तेनुं सर्व आयुष्य दश हजार वर्पनुं हतुं ॥ ( ४ ) ॥ सूत्र-९७ ॥ हवे अठाणुमुं स्थान कहे छे___ मू-नंदणवणस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ पंडुयवणस्स हेटिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ | जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । १ । मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ जोयणसहस्साई अबाहाए | अंतरे पन्नत्ते । २ । एवं चउदिसि पि । ३ । दाहिणभरहड्डस्स णं धणुप्पिटे अट्ठाणउइ जोयणस ManR मामा । . . . He .. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१९३॥ किंचूणाई आयाणं पन्नत्ते । ४ । उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अयमाणे एगूपति मंडल अट्ठाणउइ एकसद्विभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुत्ता णं सूरिए चारं चरइ । ५ । दक्खिणाओ णं कट्ठाओ सूरिए दोघं छम्मासं अयमाणे • गूणपन्नास मे मंडलगते अट्ठाणउइ एकसट्टिभाए मुहुत्तस्स रयणिखित्तस्स निवुड्डेत्ता दिवस - खेल अभिनित्ताणं सूरिए चारं चरइ । ६ । रेवईपढमजेद्वापज्जव साणाणं एगूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउइ ताराओ तारग्गेणं पन्नताओ । ७ ॥ सूत्रम् - ९८ ॥ सूलार्थ:- नंदनवननी उपरना चरमांतथी पांडुकवननी नीचेना चरमांत सुधी अड्डाणु हजार योजननुं अवाधाए आंतरुं कहेलुं छे (१)। मेरु पर्वतनी पश्चिमना चरमांतथी गोस्तुभ नामना आवास पर्वतना पूर्व चरमांत सुधी अडाणु हजार योजननुं अबाधाए आंतरुं कर्तुं छे (२) । एज प्रमाणे चारे दिशामां जाणवुं (३) । दक्षिण भरतार्धनुं धनुःपृष्ठ कांइक ओछा अहाणु सो योजन लंबामांकयुं छे (४) । उत्तर दिशामां प्रथम छ मास सुधी चालतो ( सर्व आभ्यंतर मंडळ थकी ) ओगणपचासमे मांडले रह्यो सतो एक मुहूर्त्तना एकसठीया अडाणु भाग दिवसक्षेत्रनी हानि करीने अने रात्रि क्षेत्रनी वृद्धि करीने सूर्य चार चरे छे-गति करे छे (५) । तथा दक्षिण दिशामां बीजा छ मास सुधी चालतो सूर्य ओगणपचासमे मांडळे रह्यो सतो एक मुहू समवाय ९८ ॥ ॥१९३॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तना एकसठीया अठाणु भाग रात्रिक्षेत्रनी हानि करीने अने दिवसक्षेत्रनी वृद्धि करीने सूर्य गति करे छे (६)। रेवति नक्षथी आरंभीने ज्येष्ठा नक्षत्र सुधीना ओगणीश नक्षत्रोनी मळीने अठाणु ताराओ ताराना प्रमाणवडे कह्या छे (७) । टीकार्थः-हवे अठाणुमा स्थान विपे कांइक कहे छे-'नंदणवणेत्यादि-आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-मेरु पर्वतर्नु नंदनवन पांच सो योजन ऊंची पहेली मेखळामा रहेलुं छे, ते पण तेमां (वनमा) रहेला पांच सो योजन ऊंचा आठ कूटनु आ बनना ग्रहणवडे ग्रहण थाय छे माटे पांच सो योजन उंचुं छे ( कुल एक हजार योजन थया). तथा पंडक वन मेरु पर्वतना शिखर पर रहेलं छे, तेथी मेरुनी ऊंचाइ नवाणु हजार योजननी छे, तेमाथी उपरना एक हजार बाद करतां कह्या प्रमाणे अठाणु हजार योजननु आंतरं थाय छ (१)। गोस्तुभना सूत्रनो भावार्थ पूर्वनी जेम ज छे. विशेष ए केगोस्तुभनो विष्कंभ एक हजार योजननो छे ते ( सत्ताणुमां) नांखवाथी अहीं कह्या प्रमाणे (अठाणु हजार योजनन)। आंतरं थाय छे (२)। वेयड्वस्त णमित्यादि'-कोइ पुस्तकमां आ पाठ देखाय छे ते खोटो पाठ छे साचो पाठ आ प्रमाणे छे-" दाहिणभरहवस्स णं धणुपिटे अहाणउइं जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं पन्नत्ते" इति । कारण के अन्य स्थळे कह्यु छ के-" नव हजार छ सो ने सात योजन तथा उपर एक कळा (९६०७१) आटलं दक्षिण भरतनुं धनुःपृष्ठ छे." ( ते बराबर नथी. ९८०० मा कांइक ऊण एटले ९७६६० योजन धनुःपृष्ठ छे) तथा वैताढ्यनुं धनुःपृष्ठ अन्य स्थळे आ प्रमाणे कयुं छे-" दश हजार, सात सो ने तेंताळीश योजन तथा उपर पंदर कळा | FEIL (१०७४३१५) आटलं वैतादयतुं धनुःपृष्ठ छे" (ते बराबर छे) (४)। 'उत्तराओ णमित्यादि-आनो भाव Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --5 | समवाय ९९॥ श्री ... समवाया -सूत्र ॥ चोथु अंग ॥१९॥ कहेला भावार्थने अनुसारे जाणवो, विशेप ए के-'एकतालीसइमे' एवो पाठ कोइ पुस्तकोमा देखाय छे ते खोटो पाठ । छे. 'एगूणपंचासइमे त्ति'--ओगणपचासने बमणा करवाथी अठाणु थाय छे. चमणा करवानुं कारण ए छे के-दरेक मांडले दिवस अथवा रात्रिमा एकसठीया वे भागनी वृद्धि थाय छे तेथी (५)। 'रेबईत्यादि'--रेवति नक्षत्र छ पहेलं जेने ते रेवति प्रथम कहेवाय छे ( बहुव्रीहि समास ) तथा जेष्ठा नक्षत्र छे छेल्लं जेने ते ज्येष्ठापर्यवसान कहेवाय छे (बहुव्रीहि समास ), पछी बन्नेनो कर्मधारय समास करवो. ते ओगणीश नक्षत्रोनी अठाणु ताराओ ताराना परिमाणवडे कही छे. ते आ प्रमाणे-रेवति नक्षत्रनी बत्रीश तारा छे ३२, अश्विनीनी त्रण तारा छे ३५, भरणीनी त्रण तारा छे ३८, कृत्तिकानी छ तारा छे ४४, रोहिणीनी पांच तारा छे ४९, मृगशिरनी त्रण तारा छे ५२, आर्द्रानी एक तारा छे ५३, पुनर्वसुनी पांच तारा छे ५८, पुष्यनी त्रण तारा छे ६१, अलेपानी छ तारा छे ६७, मघानी सात तारा छे ७४, पूर्वाफाल्गुनीनी बे तारा छे ७६, उत्तराफाल्गुनीनी बे तारा छे ७८, हस्तनी पांच तारा छे ८३, चित्रानी एक तारा छे ८४, स्वातिनी एक तारा छे ८५, विशाखानी पांच तारा छे ९०, अनुराधानी चार तारा छे ९४, अने ज्येष्ठानी त्रण तारा छे ९७. आ सर्व ताराओ मळीने कहेली संख्या थाय छे, तेमां एक तारा ओछी थइ ते ग्रंथांतरना अभिप्रायथी जाणवी. आ ग्रंथना अभिप्राये तो कोई एक नक्षत्रनी एक अधिक तारा संभवे छे, तेथी कह्या प्रमाणे तेनी संख्या जाणवी (७)॥ सूत्र-९८॥ हवे नवाणुमुं स्थान कहे छे- मू०-मंदरे णं पवए णवणउइ जोयणसहस्साई उड्डे उच्चत्तेणं पन्नत्ते । १ । नंदणवणस्स णं ay ॥१९४॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । २ । एवं दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ उत्तरिल्ले चरमंते एस णं णवणउइ जोयणसंयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ३ । उत्तरे पढमे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साइरेगाई आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । ४ । दोच्चे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साहियाइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । ५। तइए सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साहियाइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । ६। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्ल हेढिल्लाओ चरमंताओ वाणमंतरभोमेजविहाराणं उवरिमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते।७॥ सूत्रम्-९९॥ .. ___ मूलार्थ:--मेरु पर्वत नवाणु हजार योजन ऊंचो कह्यो छे (१)। नंदनवननी पूर्व दिशाना चरमांतथी ( तेना ज) पश्चिम तरफना चरमांत सुधी नवाणु सो योजननु अवाधाए आंतरूं कहेलं छे (२)। एज प्रमाणे दक्षिणना चरमांतथी उत्तरना चरमांत सुधी नवाणु सो योजनन अबाधाए आंतरूं कहेलुं छे (३)। उत्तरतुं सर्व आभ्यंतर सूर्यनुं पहेलं मांडलं। आयाम अने विष्कमे करीने काइक अधिक नवाणु हजार योजन का छे (४)। बीजु सूर्यमंडळ आयाम अने विष्कंभवडे NI कांइक अधिक नवाणु हजार योजननु का छे (५)।त्रीजुं सूर्यमंडळ आयाम अने विष्कंभवडे कांइक अधिक नवाणु हजार .. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥१९५।। योजननुं युं छे. ( ६ ) | आ रत्नप्रभा पृथ्वीना अंजन नामना कांडनी नीचेना चरमांतथी वाणव्यंतरना भूमिगृहनी उपरना • छेडा सुधी नवाणु सो योजननुं अबाधाए आंतरुं कहेलुं छे ( ७ ) ॥ टीकार्थ:- हवे नवाणुमा स्थान विषे कांइक लखे छे-' नंदणवणेत्यादि ' - आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे- मेरु पर्वतो विष्कंभ मूळमां दश हजार योजननो छे, अने नंदनवनने स्थाने तो नवाणु सो ने चोपन योजन तथा उपर एक योजना अग्यारीया छ भाग ( ९९५४६ ) एटलो पर्वतनो बाह्य विष्कंभ छे, तथा नंदनवननी अंदरनो मेरुविष्कंभ तो नेवाशी सो ने चोपन तथा उपर अग्यारीया छ भाग ( ८९५४, १ ) जेटलो छे. तथा नंदन वननो विष्कंभ पांच सो योजननो छे. आ ते होवाथी आभ्यंतर गिरिनो विष्कंभ अने बमणो करेलो नंदन वननो विष्कंभ मेळववाथी कहेलं आंत प्राये करीने थाय छे (२) । ' पढमसूरियमंडले त्ति - अहीं एक सो ने एंशीने बमणा करी (३६०) तेने जंबूद्वीपना प्रमाणमथी (१००००० मांथी ) वाद करी जे राशि रहे, ते पहेला मंडळनो आयामविष्कंभ थाय छे. ते नवाणु हजार, छ सो ने चाळीश (९९६४०) थाय छे (४) । बीजुं मंडळ ( आयामविष्कंभवडे ) नवाणु हजार छ सो ने पीस्ताळीश योजन तथा एक योजना एकसठीया पांत्रीश भागनुं ( ९९६४५३ ) थाय छे, शी रीते ? ते कहे छे दरेक मांडलानुं अंतरं वे वे योजननुं छे, अने सूर्यना विमाननो विष्कंभ एकसठीया अडताळीश भागनो छे, तेने बमणा करवाथी पांच योजन अने एकसठीया पांत्रीश भाग आवे छे, तेने पूर्व मंडळना विष्कंभमां नांखवाथी कहेलं प्रमाण आवे छे (५) । त्रीजा मंडळनो विष्कंभ पण एज प्रमाणे जाणवो. ते नवाणु हजार, छ सो ने एकावन योजन तथा एकसठीया नव भाग समवाय ९९ ॥ ॥ १९५॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९६५१३) थाय छे (६) । 'इमीसे णमित्यादि'-आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-अंजन कांड दशमुं छे, तेमां रत्न| प्रभाना उपरना छेडाथी ते अंजन कांड सो सेंकडा (१००००) छे. तथा पहेला कांडमां अने पहेला शतक(सेंकडा)मां व्यंतरना नगरो छे, तेथी एक सो बाद करवाथी नवाणु सोनुं आंतरं सूत्रमा कहेलं मळतुं आवे छे (७) ॥ सूत्र-९९ ॥ हवे सोमुं स्थान कहे छे__मू०--दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछट्टेहिं भिक्खासतहिं अहासुत्तं जाव आराहिया वि भवइ । १ । सयभिसया नक्खत्ते एकसयतारे पन्नत्ते । २ । सुविही पुष्फदंते णं अरहा एगं धणूसयं उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था । ३। पासे णंअरहा पुरिसादाणीए एकं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध जाव प्पहीणे । ४ । एवं थेरे वि अजसुहम्मे । ५। सव्वे वि णं दीहवेयड्डपव्वया एगमेगं गाउयसयं उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । ६ । सव्वे वि णं चुल्लहिमवंतसिहरीवासहरपव्वया | एगमेगं जोयणसयं उडं उच्चत्तेणं पन्नत्ता एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पन्नत्ता ।७। सव्वे विणं कंच| णगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता, एगमेगं गाउयसयं उव्वेहेणं पन्नत्ता, एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पन्नत्ता ॥८॥ सूत्रम्-१०० ॥ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१९६॥ मूलार्थ:- दशदशमिका नामनी भिक्षुप्रतिमा एक सो रात्रिदिवसवडे कुल साडा पांच सो भिक्षाए करीने सूत्रमां का प्रमाणे यावत् आराघेली पण थाय छे ( १ ) । शतभिषक नामना नक्षत्रने एक सो ताराओ कही छे ( २ ) । सुविधिनाथ बीजुं नाम पुष्पदंत अरिहंत एक धनुष ऊंचा हता (३) । पुरुषोने मध्ये आदेय नामकर्मवाळा पार्श्वनाथ अरिहंत एक सो वर्षनुं सर्व आयु पाळीने सिद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया ( ४ ) । ए ज प्रमाणे स्थविर आर्य सुधर्मा पण ( ५ ) । सर्वे दीर्घवैताढ्य पर्वतो सो सो गाउ ऊंचा कला छे ( ६ ) । सर्वे क्षुल्लहिमवंत अने शिखरी नामना वर्षधर पर्वतो सो सो योजन ऊंचा कला छे, अने सो सो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा कहा छे ( ७ ) । सर्वे कंचनगिरिओ सो सो योजन ऊंचा कह्या छे, अने सो सो गाउ पृथ्वीमां ऊंडा कहा छे, तथा सो सो योजन मूळमां विष्कंभवाळा कला छे ( ८ ) | टीकार्थ:-- हवे सोमा स्थानक विषे कांइक लखे छे - तेमां दश दशमा दिवसो छे जेमां ते दशदशमिका कहेवाय छे ( बहुव्रीहि समास ) तेमां दिवसना दश दशका आवे छे, दश दशमा दिवस जेमां होय तेमां सो दिवस आवे छे, तेथी करीने एक सो रात्रिदिवसे करीने एम कघुं. जे दशदशमिकाने विपे पहेला दशकामां हंमेशां एक एक भिक्षा, वीजा दशकामां बवे भिक्षा, एम छेवट दशमा दशकामां हंमेशां दश दश भिक्षा लेवानी छे, तेथी सर्व भिक्षा मळीने सूत्रमां का प्रमाणे साडा पांच सो थाय छे (१) । पार्श्वनाथस्वामी त्रीश वर्ष कुमारपणामां अने शीतेर वर्ष अनगारपणामां एम सो वर्ष आयु पाळीने सिद्ध थया ( ४ ) । एज प्रमाणे स्थविर आर्य सुधर्मा श्री महावीरस्वामीना पांचमा गणधर, ते पण सो १ जंबूद्वीप, धातकीखंड अने पुष्करार्ध संबंधी. २ एक दत्ति आहारनी अने एक दत्ति पाणीनी समवाय १०० ॥ ॥१९६॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का वर्षतुं सर्व आयु पाळीने सिद्ध थया. तेमनो गृहवास पचास वर्ष, छद्मस्थपर्याय बेताळीश वर्ष अने केवळीपर्याय आठ वर्ष, ए प्रमाणे त्रणे संख्या मेळववाथी सो वर्ष थाय छे (५)। वैताठ्यादिकनी जेटली ऊंचाइ छे तेने चोथे भागे उद्वेध (पृथ्वीमां ऊंडाइ) छे (६)। कंचनगिरिओ उत्तरकुरुमां अने देवकुरुमां अनुक्रमे रहेला पांच महादोनी बन्ने बाजुए दश दश रहेला छे, ते जंबूद्वीपमां सर्व मळीने बसो छ एम जाणवू (८)॥ सूत्र-१०॥ हवे दोढसोमुं स्थान कहे छ| मू०--चंदप्पभे णं अरहा दिवढं धणुसयं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । १ । आरणे कप्पे दिवढे | विमाणावाससयं पन्नत्तं । २ । एवं अच्चुए वि । ३।१५० ॥ सूत्रम्-१०१॥ .. मूलार्थः-चंद्रप्रभ अरिहंत दोढ सो धनुष ऊंचा हता (१)। आरण कल्पने विषे दोढ सो विमानो कह्या छ (२)। एज प्रमाणे अच्युत देवलोकमां पण जाणवा (११ मा १२ माना मळीने ३०० कह्या छे) (३)॥ १५० ॥ टीकार्थः-हवे एक एक स्थाननी वृद्धिवडे सूत्रनी रचनानो त्याग करी पचास अने सो विगेरेनी वृद्धिवडे ते सूत्र रचना करता सता कहे छे–'चंदप्पभे' इत्यादि द्वादशांगगणिपिटक सूत्र सुधी सर्व सूत्रो सुगम छ । (१५०)॥ सूत्र-१०१॥ हवे बसोमुं स्थान कहे छेमू०--सुपासे णं अरहा दो धणुसया उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । १ । सवे वि णं महाहिमवंतरु Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समवाय २५०॥ समवायाङ्ग सूत्र ॥ पो अंग ११९७॥ प्पीवासहरपव्वया दो दो जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता, दो दो गाउयसयाई उव्वेहेणं पन्नत्ता ।२जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपव्वयसया पन्नत्ता । ३॥ २००॥ सूत्रम्-१०२ ॥ मूलार्थः-श्री सुपार्श्वस्वामी अरिहंत ब सो धनुप ऊंचा हता (१)। सर्वे महाहिमवंत अने रूपी नामना वर्षधर पर्वतो वसो बसो योजन ऊंचा कह्या छे, अने बसो बसो गाउ उद्वेध (पृथ्वीमां ऊंडा) कह्या छे (२)। जंबुद्वीप नामना द्वीपने विषे बसो कंचनगिरिओ कह्या छे (३) ॥ २००॥ सूत्र-१०२॥ हवे अढीसोमुं स्थानक कहे छे मू-पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइज्जाइं धणुसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। १ । असुरकुमाराणं | देवाणं पासायवडिंसगा अड्डाइजाइं जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । २॥२५०॥ सूत्रम्-१०३॥ -- मूलार्थः-पद्मप्रभ अरिहंत अढीसो धनुष ऊंचा हता (१) । असुरकुमार देवोना प्रासादावतंसक (श्रेष्ठ प्रासादो) अढीसो योजन ऊंचा कह्या छे (२) ॥ २५० ॥ टीकार्थः-विशेष ए के-'पासायवडिंसय त्ति'-अवतंसक एटले मुगट अथवा कर्णपूर. (कानना अलंकार), ते अवतंसकनी जेवा अवतंसक एटले प्रधान (श्रेष्ठ ), प्रासादरूप अवतंसक अथवा प्रासादने मध्ये जे अवतंसक ते प्रासादावतंसक कहेवाय छे ( कर्मधारय अथवा पष्ठी तत्पुरुष समास) (२).॥२५०॥ सूत्र-१०३ ॥ ॥१९७॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kal हवे त्रण सोमुं स्थान कहे छ मू०---सुमई णं अरहा तिणि धणुसयाई उर्दू उच्चत्तेणं होत्था । १ । अरिटुनेमी णं अरहा | तिपिण वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पवइए । २। वेमाणियाणं देवाणं all विमाणपागारा तिण्णि तिषिण जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पन्नत्ता ।३। समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सयाणि चोद्दसपुवीणं होत्था । ४ । पंचधणुसइयस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगयस्स. | सातिरेगाणि तिणि धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा पन्नत्ता । ५॥३०० ॥ सूत्रम्-१०४ ॥ मूलार्थ:-सुमतिस्वामी अरिहंत त्रण सो धनुष ऊंचा हता (१)। अरिष्टनेमि अरिहंत त्रण सो वर्ष कुमारवास. मध्ये रहीने मुंड थइने यावत् प्रव्रजित थया हता (२) । वैमानिक देवोना विमानना प्राकार (किल्ला)त्रण सो त्रण सो योजन ऊंचा कया छ (३) । श्रमण भगवान महावीरस्वामीने त्रण सो चौदपूर्वी हता (४)। पांच सो धनुष प्रमाणवाळा चरमशरीरी सिद्धिपदने पाम्या होय तेनी जीवप्रदेशनी अवगाहना सातिरेक त्रण सो धनुषनी कही छे (५)॥३०॥ - टीकार्थ:--तथा 'पंचधणुस्सझ्यस्स णमित्यादि'-पांच सो धनुष प्रमाणवाळा चरमशरीरी सिद्धिपदने पामेला, तेनी जीवप्रदेशनी अवगाहना सातिरेक त्रण सो धनुपनी कही छे कारण के ते शैलेशीकरणने समये शरीरना रंध्र (छिद्र) पूरवावडे देहनो त्रीजो भाग मूकीने -घनप्रदेशवाळो थइने देहना बे त्रीजा भागनी अवगाहनावाळो सिद्धिपदने पामे छे. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय समवायाज - चोधु अंग तेमां सातिरेकपणु आ प्रमाणे जाणवू-"त्रण सो ने तेत्रीश धनुप अने उपर एक धनुपनो बीजो भाग (३२ अंगुळ) थाय छे एम जाणवु. आ सिद्धोनी उत्कृष्ट अवगाहना कही छ (५)॥३०० । सूत्र-१०४ ॥ हवे साडा त्रण सोमुं स्थान कहे छे___ मूल--पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अध्धुट्ठसयाइं चोदसपुवीणं संपया होत्था ।१।। अभिनंदणे णं अरहा अध्धदाइंधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। २।३५० ॥ सूत्रम्-१०५॥ मूलार्थ:-पुरुषादानीय श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतने साडा त्रण सो चौदपूर्वीनी संपदा हती (१)। श्रीअभिनंदनस्वामी अरिहंत साडा त्रण सो धनुप ऊंचा हता (२) ॥ ३५० ॥ सूत्र-१०५॥ हवे चार सोमुं स्थान कहे छे___मू०--संभवे णं अरहा चत्तारि धणुसयाइं उडु उच्चत्तेणं होत्था।१। सव्वे विणं णिसढनीलवंता वासहरपव्वया चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं पन्नत्ता । २। सव्वे वि णं वक्खारपव्वया णिसढनीलवंतवासहरपव्वयए णं चत्तारि चत्तारि जोयणसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं पन्नत्ते । ३ । आणयपाण ॥१९८॥ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एसु दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया पन्नत्ता । ४ । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमणुयासुरांम लोगंमि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था । ५॥ ॥ ४००॥ सूत्रम्-१०६॥ मूलार्थ:-श्रीसंभवनाथ अरिहंत चार सो धनुष ऊंचा हता (१)। सर्वे निषध अने नीलवंत नामना वर्षधर पर्वतो। चार सो चार सो योजन ऊंचा तथा चार सो चार सो गाउ उद्वेधवाळा कह्या छ (२)। सर्वे वक्षस्कार पर्वतो निषध अने नीलवंत नामना वर्षधर पर्वतोनी पासे चार सो चार सो योजन उंचा अने चार सो चार सो गाउ ऊंडा कह्या छे (३)। आनत अने प्राणत ए वे कल्पने विषे चार सो विमान कह्या छे (४)। श्रमण भगवान श्रीमहावीरस्वामीने देव, मनुष्य अने असुर लोकने विपे वादमा पराजय न पामे तेवा चार सो वादीओनी उत्कृष्ट संपदा हती।५।। ४००॥ टीकार्थ:--'सब्वे विणं वक्खारपव्वएत्यादि-वक्षस्कार पर्वतो एक क्षेत्रमा ( महाविदेहमां) रहेला वीश छे (१६ वक्षस्कार ने ४ गजदंता मळीने २० समजवा) ते वक्षस्कारो अने बे वे वर्षधरो चार सो चार सो योजन ऊंचा छे | (३)॥४०० ।। सूत्र-१०६॥ हवे साडाचार सोमुं स्थान कहे छे-- .. मूळ-अजिते णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसयाइं उडं उच्चत्तेणं होत्था।१। सगरे णं राया Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ५००॥ समवायाङ्ग सत्र घोषू अंग ॥१९९॥ चाउरंतचकवही अद्धपंचमाइंधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । २॥४५०॥ सूत्रम्-१०७॥ मूलार्थ:-श्री अजितनाथ अरिहंत साडाचार सो धनुष ऊंचा हता (१)। सगर नामना चातुरंतचक्रवर्ती राजा साडाचार सो धनुप ऊंचा हता (२) ॥ ४५० ॥ सूत्र-१०७॥ हवे पांच सोमुं स्थान कहे छे-- मू-सव्वे वि णं वक्खारपव्वया सीआसीओआओ महानईओ मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाइं उड़े उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं पन्नत्ता । १। सव्वे विणं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं [ होत्था ] मूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पन्नत्ता । २। उसभे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसयाइं उई उच्चत्तेणं होत्था ।३। भरहे णं राया चाउरतचकवट्टी पंच धणुसयाइं उड़ उच्चत्तेणं होत्था।४। सोमणसगंधमादणविज्जुप्पभमालवंताणं वक्खारपव्वयाणं मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाइं उड़े उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाई उठवेहेणं पन्नत्ता ।५। सव्वे वि णं वक्खारपव्वयकूडा हरिहरिस्तहकूडवजा पंच पंच जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं मूले पंच पंच जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं पन्नता।६। सव्वे विणं नंदणकूडावल जा ॥१९९।। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूडवज्जा पंच पंच जोयणसवाई उड्ड उच्चत्तेणं मूले पंच पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता |७| सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच पंच जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं पन्नत्ता । ८॥ ५०० ॥ सूत्रम् - १०८ ॥ मूलार्थः सर्वे वक्षस्कार पर्वतो सीता अने सीतोदा महा नदी पासे तथा गजदंताओ मेरु पर्वतनी पासे पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने पांच सो पांच सो गाउ ऊंडा कह्या छे (१) । सर्वे वर्षधर उपरना कूटो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन विष्कंभवाळा कह्या छे (२) कोशल देशमां उत्पन्न थयेला श्रीऋषभदेव अरिहंत पांच सो धनुष ऊंचा हता (३) । भरत नामना चातुरंत चक्रवर्ती राजा पांच सो धनुष ऊंचा हता ( ४ ) । सौमनस, गंधमादन, विद्युत्प्रभ अने मालवंत नामना वक्षस्कार ( गजदंता ) पर्वतों मेरु पर्वतनी पासे पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने पांच सो पांच सो गाउऊंडा का छे ( ५ ) । सर्वे वक्षस्कार पर्वत उपरना कूटो हरि अने हरिस्सह ए वे कूटने वर्जीने पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन आयाम अने विष्कंभवाळा (लांचा-पहोळा ) कह्या छै ( ६ ) । एक बलकूटने वर्जीने बाकीना नंदनवनना कूटो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा अने मूळमां पांच सो पांच सो योजन आयामविष्कंभवाळा कह्या छे (७) । सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे जे विमानो छे ते पांच सो पांच सो योजन ऊंचा कह्या छे (८) ||५००|) टीकार्थ :- सर्वे वक्षस्कार पर्वतो सीता अने सीतोदा महा नदीनी पासे तथा मेरु पर्वतनी पासे पांच सो पांच सो योजन Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क समवाय - क/ ऊंचा छे (१)।तथा 'सव्वे विणं वासेत्यादि'-तेमां वर्षधर उपरना कूटो बसो ने एंशी छे. केवी रीते ? ते कहे छ--- समवायाज "क्षुल्लहिमवानना अग्यार कूट, महाहिमवानना आठ कूट, निषधना नव कूट, एज प्रमाणे नीलादिक त्रण पर्वतना अनुक्रमे पत्र। नव, आठ अने अग्यार कूट छे.” (सर्व मळीने ५६ थया) तेने पांच गुणा करवाथी २८० थाय छे (२)। वक्षस्कारना IN कूटो तो चार सो ने एंशी (४८०) छे. केवी रीते? ते कहे छे--" विद्युत्प्रभ अने मालवंतने विपे नव नव कूट छे, बाकीना वेने विषे सात सात कूट छे, अने सोळ वक्षस्कार पर्वतने विपे चार चार कूटो छे." (कुल ९६ कूट थया.) तेने पांचे ॥२०॥ गुणवाथी ४८० थाय छे. केमके जंबूद्वीप विगेरे ( अढी द्वीपमां) मेरु पर्वतवाळा महाविदेह क्षेत्र यांच छे तेथी तेने पांचगुणा करवानुं कयुं छे. आ सर्वे कूटो पांच सो पांच सो योजन ऊंचा छे. ए ज प्रमाणे मानुपोत्तर पर्वतादिकने विषे पण जाणवू. वळी वैताढ्यना कूटो तो सवा छ योजन ऊंचा छ, अने ऋषभकूट विगेरे वर्षकूटो (भूमिकूटो) तो आठ आठ योजन ऊंचा छे. अहीं हरिकूट अने हरिस्सहकूट एक एक हजार योजन ऊंचा होवाथी तेमने वा छे. ते विपे कयुं छे के" विद्युत्प्रभ (गजदंता) उपर हरिकूट, मालवंत वक्खारा (गजदंता) उपर हरिस्सहकूट अने नंदनवनमा बलकूट ए त्रण कूट एक एक हजार योजन ऊंचा छे." (६)॥५०० सूत्र-१०८ ॥ . हवे छ सोमुं स्थान कहे छे मू०--सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु विमाणा छ जोयणसयाइं उ8 उच्चत्तेणं पन्नत्ता । १ । ॥२०॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुल्लहिमवंतकूडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । २ । एवं सिहरीकूडस्स वि । ३ । पासस्स णं अरओ छ सया वाईणं सदेवमणुयासुरे लोए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्था | ४ | अभिचंदे णं कुलगरे छ धणुसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं होत्था । ५ । वासुपुजे णं अरहा छहिं पुरिसएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए । ६ ॥ ६०० ॥ सूत्रम् - १०९ ॥ मूलार्थ:-- सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पने विषे रहेला विमानो छ सो योजन ऊंचा कला छे ( १ ) । क्षुल्लहिमवंतना कूटनी उपरना चरमांतथी ( छेडाथी ) क्षुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वतना समभूमित सुधी छ सो योजननुं अबाधाए आंतरुं कं छे (२) । एज प्रमाणे शिखरीकूटनुं पण कहेतुं (३) । श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतने देव, मनुष्य अने असुर लोकने विषे वादमां पराजय न पामे तेवा छ सो वादीओनी उत्कृष्ट संपदा हती ( ४ ) । अभिचंद्र नामना कुलकर छ सो धनुष ऊंचा हता (५) । श्री वासुपूज्य स्वामी अरिहंत छ सो पुरुषोनी साथै मुंड थइने घरथी नीकळी अनगारपणे प्रत्रजित थया हता ( ६ ) ||६००॥ टीकार्थ :- 'चुल्ल हिमवंतकूडस्सेत्यादि ' - अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे - हिमवान पर्वत सो योजन उंचो छे अने तेनो कूट पांच सो योजन उंचो छे, तेथी सूत्रमां कहेलुं छ सोनुं आंतरुं मळतुं आवे छे (२) । अभिचंद्र नामना कुलकर अवसर्पिणीमा थयेला सांत कुलकरमांना चोथा कुलकर हता, तेना शरीरनी ऊंचाइ पचास अधिक छ सो धनुषनी हती Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ७००॥ (५)॥ ६००॥ सूत्र-१०९ ॥ समवायाङ्ग हवे सात सोमुं स्थान कहे छ सत्र॥ . 'मू-बंभलंतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाइं उद्रे उच्चत्तेणं पन्नत्ता ।। समचो\ अंग / णस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसंया होत्था ।२। समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त ॥२०१॥ वेउव्वियसया होत्था ॥३॥ अरिटुनेमीणं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता । सिद्ध बुद्धे जाव प्पहीणे ।४। महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।५। एवं रुप्पिकूडस्स वि।६॥ ७०० ॥ सूत्रम्-११०॥ मूलार्थ:--ब्रह्म अने लांतक कल्पने विपे रहेला विमानो सात सो सात सो योजन ऊंचा छे (१)। श्रमण भगवान महावीरस्वामीने सात सो जिन (केवळी) हता (२)। श्रमण भगवान महावीर स्वामीने सात सो चैक्रियलब्धिवाळा हता (३) । अरिष्टनेमि अरिहंत कांइक ओछा सात सो वर्ष केवळीपर्यायने पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया (४) । महाहिमवान कूटना उपरना छेडाथी महाहिमवान वर्षधर पर्वतना समभूमितळ सुधी सात सो योजननु अवाधाए आंतरं कर्तुं छे (५) ए ज प्रमाणे रुपी कूटनुं पण जाणवू (६) ॥ ७००॥ ॥२०॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थ:--श्रमण भगवान महावीरस्वामीने सात सो जिन एटले केवळी हता (२)। तथा श्रमण भगवान महावीर स्वामीने सात सो वैक्रिय एटले चैक्रिय लब्धिवाळा साधुओ हता (३)। अरिद्वेत्यादि-'देसूणाइंति'--चोपन दिवस ओछा (सात सो वर्ष) समजवा, केम के तेमनो छद्मस्थ काळ तेटलो ज हतो (४)। 'महाहिमवंत'-इत्यादिक सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छ-महाहिमवान पर्वत बसो योजन ऊंचो छे अने तेनां कूट पांच सो योजन ऊंचा छे, तेथी सूत्रमां | कहेलं सात सो योजन- आंतरं मळतुं आवे छे (५) ।। ७०० ॥ सूत्र--११०॥ ___ हवे आठ सोमुं स्थान कहे छे-- __ मू०-महासुक्कसहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठ जोयणसयाइं उठें उच्चत्तेणं पन्नत्ता ।१। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेजविहारा पन्नत्ता ।२। | समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ट सया अणुत्तरोबवाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्ला णाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था ।३। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठहिं जोयणसएहिं सूरिए चारं चरइ ।४। अरहओ णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठ सयाइं वाईणं सदेवमणुयासुरांम लोगंमि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया - Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोधुं अंग ॥२०२॥ वाईसंपया होत्था । ५ ॥ ८०० ॥ सूत्रम् - १११ ॥ मूलार्थ:-- महाशुक्र अने सहस्रार ए वे कल्पने विषे रहेला विमानो आठ सो योजन ऊंचा कला छे (१) । आ रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला कांडमां (मध्यना) आठ सो योजनने विषे वानव्यंतर देवोना भूमि संबंधी विहारो ( नगरो ) कहेला छे (२) । श्रमण भगवान महावीरस्वामीने अनुत्तर विमानमां उत्पन्न थवावाळा, कल्याणकारक गतिवाळा, कल्याणकारक स्थितिवाळा अने आगामी काळमां निर्वाणरूपी भद्र थवावाळा साधुओनी उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिकनी संपदा हती ( ३ ) | आ रत्नप्रभा पृथ्वीना बहु समान रमणीय भूमिभागथ की आठ सो योजन उंचे सूर्य गति करे छे ( ४ ) । श्रीअरिष्टनेमि अरिहंतने देव, मनुष्य अने असुर लोकमां पण कोइथी वादमां पराजय न पाये एवा आठ सो वादीओनी उत्कृष्ट संपदा हती (५) ॥ ८०० ॥ टीकार्थ:-' इमीसे णमित्यादि ' - प्रथम खरकांड नामनुं कांड छे, ते खरकांडना सोळ विभाग छे, तेमां पहेला विभागरूप रत्नकांड छे. ते रत्नकांड हजार योजन प्रमाण छे. तेनी नीचेना (सो) अने उपरना (सो) एम बसो योजन मूकीने बाकी ना ( मध्यना ) आठ सो योजनने विषे वनमां थयेला ते वान कहीए, एवा जे व्यंतरो ते वानव्यंतर कहीए, ते वानव्यंतर संबंधी भूमि विकार होवाथी भौमेक एवा, जेने विषे विहार-क्रीडा कराय तेवा बिहारो - नगरो ते वानव्यंतर भौमेयक- विहारो कहेला छे (२) । ' अट्ठ सय त्ति '-आठ सो, कोना आठ सो ? ते कहे छे -- अनुत्तरोपपातिक देवोना एटले ते देवाने विषे ' उत्पन्न थनार होवाथी देवो अर्थात् द्रव्य देवो, तेओना आठ सो, तथा गति एटले देवगतिरूप कल्याण छे जेमनुं ते गति. कल्याण कचाय छे, ए ज प्रमाणे स्थिति एटले तेत्रीश सागरोपमरूप स्थिति छे कल्याण जेमनुं ते स्थितिकल्याण कहे समवाय ८०० ॥ ॥२०२॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाय छे, तथा त्यांथी चवेला एवानुं आगामी काळे भद्र एटले मोक्षगमनरूप कल्याण छे जेमनुं ते आगमिष्यद्भद्र कहेवाय छे. तेमनुं शुं ? ते कहे छे - 'उक्कोसिएत्यादि'-आठ सो साधुओनी उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिकनी संपदा हती (३) ॥८०० ॥सूत्र - १११॥ हवे नव सोमं स्थान कहे छे मू०--आणयपाणयआरणअच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव नव जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं पन्नत्ता |१| निसढकूडस्स णं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ णिसदस्स वा सहरपव्वयस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते २ । एवं नीलवंतकूडस्स वि । ३ । विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव धणुसयाई उ उच्चत्तेणं होत्था |४| इमीसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ नवहिं जोयणसएहिं सव्वुवरिमे तारारूवे चारं चरइ |५| निसटस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ सिहरतलाओ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेस• भए एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । ६ । एवं नीलवंतस्स वि ॥ ७॥ ९००॥ सूत्रम् - ११२ ॥ मूलार्थ:- आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत कल्पने विषे रहेला विमानो नव सो नव सो योजन ऊंचा कथा छे (१) । निपधकूटना उपरना शिखरतलथी निषधं वर्षधर पर्वतना समान भूमितळ सुधी नव सो योजन अबाधाए आंतरं Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LG ... . समवाय की समवायाङ्ग . सूत्र ॥ चोयुं अंग ॥२०३॥ & कहेलु छे (२)। एज प्रमाणे नीलवंत कूटनु पण कहेQ (३)। विमलवाहन नामना कुलकर नव सो धनुप ऊंचा हता (४) आ रत्नप्रभाना बहु समान रमणीय भूमिभागथकी नव सो योजन ऊंचे सर्वथी उपरना तारा चार चरे छे (५)। निषध नामना वर्षधर पर्वतना उपला शिखरतळ थकी आ रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला कांडना बहु मध्य देशभाग सुधी नव सो योजन- अबाधाए आंतरूं कहेलं छे (६) । एज प्रमाणे नीलवंतनुं पण कहेवू (७) ॥ ९०० ॥ टीकार्थ:-निसहकूडस्स णमित्यादि'-अहीं आ भावार्थ छ-निपध पर्वतपरना कूट पांच सो योजन ऊंचा छे अने निषध पर्वत चार सो योजन ऊंचो छे. तेथी सूत्रमा कहेलुं नव सो योजननु आंतरं थाय छे (२)॥९००||सूत्र-११२॥ हवे हजारमुं स्थान कहे छे मू-सव्वे वि णं गेवेजविमाणे दस दस जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं पन्नत्ते ।। सव्वे विणं जमगपव्वया दस दस जोयणसयाइं उड्डूं उच्चत्तेणं पन्नत्ता, दस दस गाउयसयाइं उव्वेहेणं पन्नत्ता, मूले दस दस जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता।। एवं चित्तविचित्तकूडा वि भाणियव्वा ॥३॥ सव्वे विणं वटवेयड्पव्वयादस दस जोयणसयाइं उर्दू उच्चत्तेणं पन्नत्ता, दस दस गाउयसयाइं उव्वेहेणं पन्नत्ता मूले दस दस जोयणसयाइं विक्खंभेणं पन्नत्ता, सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया पन्नत्ता ।४। १. एमां पर्वतनी ऊंचाइ ४०० योजन अने रत्नप्रभाना प्रथम कांडना मध्य सुधी ५०० योजन एम ९०० योजन समजवा. కారతనార్య నాగార శాకుగా నాకు ఆ కు २०३॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वे विणं हरिहरिस्सहकूडा वक्खारकूडवजा दस दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पन्नत्ता, मूले दस दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पन्नत्ता ।५। एवं बलकूडा वि नंदणकूडवज्जा ।६। अरहा वि अरि| ठुनेमी दस वाससयाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे .।७। पासस्स णं अरहओ दस सयाइं जिणाणं होत्था ।८। पासस्स णं अरहओ दस अंतेवासीसयाइं कालगयाइं जाव सवदुक्खप्पहीणाइं ।९। पउमद्दहपुंडरीयद्दहा य दस दस जोयणसयाइं आयामेणं पन्नत्ता ॥१०॥१०००॥ सूत्रम्--११३ ॥ __मूलार्थ:-सर्वे ( नवे ) ग्रैवेयक विमानो एक एक हजार योजन ऊंचा कह्या छ (१)। सर्वे यमक पर्वतो एक एक || हजार योजन ऊंचा कया छे, एक एक हजार गाउ उद्वेधवाळा ( उंडा) कह्या छ, मूळंमा एक एक हजार योजन आयाम-|| विष्कंभवडे कह्या छ (२)। एज प्रमाणे चित्रकूट अने विचित्रकूट पण कहेवा (३)। सर्वे वृत्तवैताढ्य पर्वतो एक एक हजार योजन ऊंचा कह्या छ, एक एक हजार गाउ ऊंडा कह्या छे, मळमां एक एक हजार योजन विष्कंभवाळा कह्या छे, सर्वत्र सरखा पालाना संस्थाने (आकारे) रहेला छे (४)। वक्षस्कार परना बीजा कूटने वर्जीने सर्वे हरिकूट अने हरिस्सहकूट एक एक हजार योजन उंचा कह्या छे अने मळमां एक एक हजार योजन विष्कंभवाळा कह्या छे (५)। एज Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. समवाय १०००। समवायाङ्ग मंत्र॥ चोथं अंग ॥२०४॥ प्रमाणे नंदनना बीजा कूटने वर्जीने बलकूट पण (हजार योजन उंचो) कहेवो (६)। श्रीअरिष्टनेमि अरिहंत एक हजार वर्षनुं सर्व आयु पाळीने सिद्ध थया, बुद्ध थया, यावत् सर्व दुःख रहित थया (७)। श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतने एक हजार जिन (केवळी) हता (८)। श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतना एक हजार शिष्यो काळधर्म पाम्या, यावत् सर्व दुःख रहित थया (९)। पद्मद्रह अने पुंडरीकद्रह एक एक हजार योजन (पूर्व पश्चिम) लांबा कया छे (१०)॥१०००॥ टीकार्थः-'सव्वे वि णं जमगेत्यादि'---उत्तरकुरुमां नीलवंत वर्षधर पर्वतनी उत्तर तरफ शीता महानदीना बन्ने किनारे यमक नामना बे पर्वतो छे, ते पांचे उत्तरकुरुने विषे बवे होवाथी कुल दश छे (२)। एज प्रमाणे चित्र अने विचित्र कूट पण पांचे देवकुरुने विषे यमकनी जेम होवाथी पांच चित्रकूट अने पांच विचित्रकूट छ (३)। 'सव्वे वि णमित्यादि'-सर्वे वृत्तवैताठ्यो, ते शब्दापाती विगेरे वीश छे (४)।' सव्वे वि णं हरीत्यादि'-हरिकूट विद्युत्प्रभ नामना गजदंतने आकारे रहेला वक्षस्कार पर्वत उपर छे, अने हरिस्सहकूट तो माल्यवान नामना वक्षस्कार पर्वत उपर छे, ते पांचे मेरु संबंधी होवाथी पांच पांच छे अने ते हजार हजार योजन उंचा छे. वक्षस्कार उपरना आ बे कूटने वर्जीने एटले वक्षस्कार पर रहेला वीजा कूटने विषे आटली ऊंचाइ नथी. आने विषे ज छे एम भावार्थ जाणवो (५)।एज प्रमाणे बळकूट पण जाणवा एटले के पांच मेरुने विषे पांच नंदनवनो छे, ते दरेकनी ईशान विदिशामां बळकूट नामे कूट छे, तेथी ते नामना कूट पांच छे, अने ते एक एक हजार योजन ऊंचा छे. अहीं नंदनवनना बळकूटने वर्जीने एटले नंदनवनमा रहेला वाकीना दरेक पूर्वादि दिशा अने विदिशामा रहेला चाळीश नंदनकूटो छे, ते हजार योजन ऊंचा नथी, तेथी ते वर्जवाना ॥२०४॥ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कह्या छे (६) । अरिष्टनेमि अरिहंत कुमारपणामांत्रण सो वर्ष अने अनगारपणामां सात सो वर्ष रहेला होवाथी कुल आयु एक हजार वर्षेनुं थाय छे (७)। पद्मद्रह ए श्रीदेवीनो निवास छे अने हिमवान वर्षधर पर्वतनी उपर रहेलो छे, तथा पुंडरीकद्रह ए लक्ष्मीदेवीनो निवास छ अने शिखरी वर्षधर पर्वत उपर रहेलो छ (१०) (१०००)॥ सूत्र-११३ ॥ हवे अग्यार सोमुं स्थान कहे छे-- मू०--अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एकारस जोयणसयाइं उड़े उच्चत्तेणं पन्नत्ता।१। पासस्स णं अरहओ इक्कारस सयाइं वेउव्वियाणं होत्था । २॥११००॥ सूत्रम्-११४ ॥ मूलार्थः-अनुत्तरोपपातिक देवोना विमानो अग्यार सो योजन ऊंचा कह्या छे (१) । श्री पार्श्वनाथ अरिहंतने अग्यार सो वैक्रियलब्धिवाळा साधुओ हता (२) ॥ ११०० ॥ सूत्र-११४ ।। हवे वे हजारमुं स्थान कहे छ. मू०-महापउममहापुंडरीयदहाणं दो दो जोयणसहस्साइं आयामेणं पन्नत्ता ।१। २०००॥ सूत्रम्-११५॥ मूलार्थः-महापद्म अने महापुंडरीक नामना द्रहो वबे हजार योजन लांबा कह्या छ (१)॥ २००० ॥ टीकार्थ-महापद्म अने महापुंडरीक नामना द्रहो महाहिमवंत अने रुक्मी वर्षधर पर्वत उपर रहेला छे अने ते HARA Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग समवाय ४०००॥ , चोधु अंग ॥२०५॥ हीदेवी तथा बुद्धिदेवीना निवासरूप छे (१) २००० ॥सूत्र-११५॥ हवे त्रण हजारमुं स्थान कहे छे. मू०-इमीसे णंरयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ लोहियक्खकंडस्स हेटिल्ले चरमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते ।१॥३०००॥ सूत्रम्-११६॥ मूलार्थः-आ रत्नप्रभा पृथ्वीना वज्रकांडनी उपरना छेडाथी लोहिताक्ष कांडना नीचेना छेडा सुधी त्रण हजार योजननु अबाधाए आंतरं कयुं छे (१) ।। ३०००॥ टीकार्थः- इमीसे णं रयणेत्यादि-आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-रत्नप्रभा पृथ्वीना सोळ विभाग छ, तेमां खरकांड नामना पहेला कांड(विभाग)नो पहेलो रत्नकांड छ, वनकांड नामनो बीजो कांड छ, वैडूर्यकांड नामनो त्रीजो अने लोहिताक्ष नामनो चोथो छे. ते दरेक कांड हजार हजार योजनना छे तेथी आ वणर्नु आंतरं सूत्रमा कह्या प्रमाणे एकंदर व्रण हजार योजननु थाय छे (१) ॥ ३०००॥ सूत्र-११६ ॥ __ हवे चार हजारनुं स्थान कहे छे मू-तिगिच्छिकेसरिदहाणं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं पन्नत्ताई।१॥४०००॥ सूत्रम्--११७ ॥ ॥२०५॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थ:- तिगिच्छि अने केसरी ए वे द्रहनी लंबाई चार चार हजार योजननी कही छे (१) ॥ ४००० ॥ टीकार्थ :- तिगिच्छि अने केसरी द्रहो निषध अने नीलवंत वर्षधरनी उपर रहेला छे अने ते धृति अने कीर्ति देवीना निवासस्थान छे ( १ ) ||४००० | सूत्र - ११७ ॥ हवे पांच हजारमुं स्थान कहे छे मू० — धरणितले मंदरस्स णं पवयस्य बहुमज्झसभाए रुयगनाभीओ चउदिसिं पंच पंच जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे मंदरपवर पत्रत्ते |१| ५००० ॥ सूत्रम् - ११८ ॥ मूलार्थ:- पृथ्वीतळने विषे मेरुपर्वतना बहु मध्य देशभागमां रहेला रुचक प्रदेशना मध्य भागथी चारे दिशामां मेरु पर्वतना छेडा सुधी पांच पांच हजार योजननुं अबाधाए आंतरं करूं छे (१) ॥ ५००० ॥ टीकार्थ :- धरणितळे एटले पृथ्वीना समभागने विपे, रुचकनाभिथी एटले - " तिरछा लोकना मध्य भागे आठ प्रदेशवाळो रुचक कह्यो छे, ते ज रुचक दिशाओनुं अने विदिशाओनुं उत्पत्तिस्थान छे. " आ रुचक ज नाभि एटले पैडाना मध्यभाग जेवो होवाथी रुचकनाभि कहेवाय छे, मेरु पर्वतनो विष्कंभ दश हजार योजननो छे तेथी ते मेरु रुचकथी चारे दिशामां पांच पांच हजार योजन सुधी रहेलो छे (१) ॥ ५००० | सूत्र - ११८ ॥ हवे छ हजार स्थान कहे छे Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ८०००। Anam मू०--सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा पन्नत्ता । १॥ ६००० ॥ सूत्रम्-११९ ॥ समवायाङ्ग मूलार्थ:-सहस्रार कल्पने विपे छ हजार विमानो कह्या छ (१)॥ ६००० ।। सूत्र-११९ ॥ सूत्र॥ - हवे सात हजारमुं स्थान कहे छेचोधु अंगा मू०--इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ पुलगस्स ॥२०६॥ कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नते।१॥७०००॥सूत्रम्-१२०॥ मूलार्थ:-आ रत्नप्रभा पृथ्वीना रत्नकांडना उपरना छेडाथी पुलगकांडना नीचला छेडा सुधी सात हजार योजनअबाधाए आंतरं कर्तुं छे (१)।७०००॥ टीकार्थ:-'इमीसे णमित्यादि-रत्नकांड पहेलो छे अने पुलककांड सातमो छे, तेथी सात हजार योजननु आंतरं थाय छे (१)॥ ७००० ॥ सूत्र ॥१२०॥ - हवे आठ हजारमुं स्थान कहे छे मू०-हरिवासरम्मयाणं वासा अट्ठ जोयणसहस्साइं साइरेगाइं वित्थरेणं पन्नत्ता।१ ॥८०००॥ सूत्रम्-१२१॥ मूलार्थः-(जंबूद्वीपमा आवेला) हरिवर्ष अने रम्यकक्षेत्रनो विस्तार सातिरेक आठ हजार योजन कह्यो छे (१) ॥८०००॥ ॥२०६॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थः- हरिवासेत्यांदि'-आ अर्थने माटे अर्ध गाथा आ प्रमाणे छे-" हरिवर्षनो विस्तार एकवीश अने चोराशी सो (८४२१) योजन अने उपर एक कळा जेटलो छ."(१)।। ८०००॥ सूत्र-१२१॥ हवे नव हजारमुं स्थान कहे छे मू०-दाहिणड्डभरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ समुदं पुट्ठा नव जोयणसहस्साइं | आयामेणं पन्नत्ता । १॥ ९००० ॥ सूत्रम्-१२२ ॥ a मूलार्थः-दक्षिणार्ध भरतक्षेत्रनी जीवा पूर्व-पश्चिम लांबी अने बन्ने बाजुए समुद्रने अडकेली छे ते नव हजार योजन - लांबी कही छे (१)॥९००० ॥ टीकार्थः-'दाहिणेत्यादि'-भरतक्षेत्रनो जे दक्षिण भाग ते दक्षिणार्ध भरत कहेवाय छे. तेनी जीवाना जेवी जीवा एटले सीधी सीमा, वळी ते पूर्व अने पश्चिम दिशाए लांबी छे, ते बन्ने बाजुए एटले पूर्व अने पश्चिम बाजुए लवणसमुद्रने अडकेली छे. ते जीवा अहीं नव हजार योजन लांबी कही छे. परंतु अन्य स्थाने आ प्रमाणे विशेष कह्यो छे-"नव हजार, सात सो ने अडताळीश योजन अने उपर बार कळा" (१)।९००० ॥ सूत्र-१२२ ॥ हवे दश हजारमुं स्थान कहे छे मू-मंदरेणं पवए धरणितले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पन्नत्ते॥१॥१०००० ॥सूत्रम्-१२३॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय ३००००० समवाया पोधु अंग ॥२०७॥ मूलार्थ:-मेरु पर्वत पृथ्वीतळमा दश हजार योजनना विष्कंभवाळो कह्यो छे (१)॥१००००॥ सूत्र-१२३ ॥ हवे एक लाखमुं स्थान कहे छे मू-जंबूदीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते ॥१॥१०००००॥ सूत्रम्-१२४ ॥ मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामनो द्वीप आयाम विष्कंभवडे एक लाख योजननो कयो छे (१) ॥१०००००॥सूत्रम्-१२४॥ हवे वे लाखमुं स्थान कहे छे मू०--लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते ।१॥ २००००० ॥ सूत्रम्--१२५॥ मूलार्थ:--लवणसमुद्र गोळ विष्कंभवडे बे लाख योजननो कह्यो छे (१)॥२०००००। सूत्र-१२५॥ हवे त्रण लाखमुं स्थान कहे छे मू०--पासस्स णं अरहओ तिन्नि सयसाहस्सीओसत्तावसिं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्था । १ ॥ ३००००० ॥ सूत्रम्-१२६ ॥ मूलार्थ:-श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतने त्रण लाख ने सत्तावीश हजार उत्कृष्ट श्राविकानी संपदा हती(१)॥३०००००।सूत्र-१२६॥ -॥२०७॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H हवे चार लाखमुं स्थान कहे छे मू०--धायइखंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते।१॥४००००० ।। | ॥ सूत्रम्-१२७॥ मूलार्थः-धातकीखंड नामना द्वीपनो गोळ विष्कंभ चार लाख योजननो छ (१)॥ ४०००००॥ सूत्र-१२७ ॥ . हवे पांच लाखमुं स्थान कहे छे___ मू०-लवणस्स णं समुदस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं पंच जोयणसयसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । १॥ ५००००० ॥ सूत्रम्-१२८ ॥ ___ मूलार्थ:-लवणसमुद्ना पूर्व तरफना छेडाथी पश्चिम तरफना छेडा सुधी पांच लाख योजन- अबाधाए आंतरं का छे (१) ।। ५०००००॥ टीकार्थः-'लवणेत्यादि'-एक लाख जंबूद्वीपना अने लवणसमुद्रना (वे बाजुना मळीने) चार लाख मळी पांच लाख थाय छे (१) ॥५०००००॥सूत्र-१२८॥ ___हवे छ लाखमुं स्थान कहे छे-- मू०--भरहे ण राया चाउरंत चकवट्टी छ पुवसयसहस्साइं रायमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय . अगाराओ अणगारियं पवइए।१॥६०००००॥ सूत्रम्-१२९॥ समवायाङ्ग मूलार्थ:-भरत नामना चातुरंत चक्रवर्ती राजा छ लाख पूर्व राज्य मध्ये वसीने पछी मुंड थइने गृहथकी अनगारस्त्र ॥ पणे प्रव्रजित थया हता (१)॥६०००००।सूत्र-१२९ ।। चोथु अंग हवे सात लाखमुं स्थान कहे छे-- Roeno मू०--जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेइयंताओ धायइखंडचकवालस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्त जोयणसयसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ।१॥ ७००००० ॥ सूत्रम्-१३० ॥ . मूलार्थ:--जबूद्वीप नामना द्वीपनी पूर्व तरफनी वेदिकाना अंतथी धातकीखंडना चक्रवालना पश्चिम छेडा सुधी सात लाख योजन- अबाधाए आंतरं कर्तुं छे (१) ॥७०००००॥ टीकार्थ:--'जंबूदीवस्सेत्यादि'-तेमां जंबूद्वीपना एक लाख, लवणसमुद्रनावे लाख अने धातकीखंडना च 14 लाख मळीने सात लाख योजन- आंतरुं सूत्रमा कह्या प्रमाणे थाय छे (१) ॥ ७००००० ।। सूत्र-१३० ।। 3. हवे आठ लाखमुं स्थान कहे छे-- मू-माहिंदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावाससयसहस्साइं पन्नत्ताई।१॥ ८०००००॥सूत्रम्-१३१॥ मूलार्थ:--माहेंद्र कल्पने विषे आठ लाख विमानो कह्या छ (१) ॥८०००००॥ सूत्र-१३१॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे वच्चे नव हजारमुं स्थान कहे छे-- मूळ-अजियस्सणं अरहओ साइरेगाइं नव ओहिनाणिसहस्साइं होत्था।१।९०००॥सूत्रम्-१३२॥ मूलार्थ:-- अजितनाथ अरिहंतने साधिक नव हजार अवधिज्ञानी हता (१) ॥९०००॥ टीकार्थ:--अजितनाथ अरिहंतने साधिक नव हजार अवधिज्ञानी हता. अहीं चार सो अधिक (९४००) जाणवा. आ हजारवें स्थानक होवा छतां लाखना स्थानकना अधिकार मां जे कयुं छे ते सहस्र शब्दना (शतसहस्र शब्द मूळ सूत्रमा लख्या छे तेना) सदृशपणाने लीधे अथवा सूत्रनी रचनानुं विचित्रपणुं होवाने लीधे अथवा लेखकना दोषने लीधे जाणवू (१)। ९००० ।। सूत्र-१३२॥ ___ हवे दश लाखमुं स्थान कहे छे-- ___मू०--पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साइं सवाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने । १ । १००००००॥ सूत्रम्-१३३ ॥ ___ मूलार्थः-पुरुषसिंह वासुदेव दश लाख वर्षनुं सर्व आयु पाळीने पांचमी पृथ्वीमां नारकीओने विपे नारकीपणे उत्पन्न थया (१) ॥ १०००००० ॥ टीकार्थ:--पुरुषसिंह नामना पांचमा वासुदेव थया छे (१) ॥ १०००००० ॥ सूत्र-१३३ ॥ .. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय १०००० .... हवे एक करोडमुं स्थान कहेछे-- समवायाङ्ग मू-समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छटे पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सूत्र॥ सामन्नपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सवट्ठविमाणे देवत्ताए उववन्ने । १ । १००००००० चो' अंग ॥ सूत्रम्-१३४॥ ॥२०९।। मूलार्थः-श्रमण भगवान महावीरस्वामी तीर्थकरनो भव ग्रहण कर्या पहेला छठा पोट्टिल भवना ग्रहणमा एक करोड वर्ष सुधी श्रामण्यपर्यायने पाळीने आठमा सहस्रार नामना देवलोकमां सर्वार्थ नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया हता (१)॥१०००००००। ... टीकार्थ:--'समणेत्यादि-भगवान महावीरस्वामी पोट्टिल नामना राजपुत्र हता. ते भवमा करोड वर्ष प्रव्रज्या पाळी हती, ते पहेलो भव, त्यांथी देव थया ते बीजो भव, त्यांथी नंदन नामना राजपुत्र छत्राग्र नगरीमा थया ते त्रीजो भव, ते भवमां लाख वर्ष सुधी सर्वदा मासक्षपण तप करीने दशमा देवलोकमां पुष्पोत्तर वरविजय पुंडरीक नामना विमानमां देव थया ते चोथो भव, त्यांथी ब्राह्मणकुंड गाममां ऋषभदत्त ब्राह्मणनी भार्या देवानंदानी कुक्षिमा उत्पन्न थया ते पांचमो भव अने त्यांथी त्राशीमे दिवसे क्षत्रियकुंडग्राम नगरमां सिद्धार्थ महाराजानी त्रिशला नामनी भार्या( राणी )नी कुक्षिमा su इंद्रनुं वचन करनारा (आज्ञा पालनारा ) हरिनैगमेपी नामना देवे संहर्या अने तीर्थंकरपणे जन्म्या ए छठो भव थयो. आ । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे कहेला भगवानना भवने ग्रहण कर्या विना बीजो कोइ छठो भव सांभळवामां नथी. तेथी आर्नु ज छठा भवपणे व्याख्यान कर्य छे. जे भवथी आ (भगवाननो) भव छठो होय, ते पण आनाथी छठोज होय छे. तेथी तीर्थकरना भवग्रहणथकी छठा पोटिल भवग्रहणने विषे एम जे कयुं ते ठीक ज कयुं छे (१)। १००००००० ॥ सूत्र-१३४ ॥ __ हवे सागरोपम कोटाकोटिमुं स्थान कहे छ मू०--उसभसिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । १॥ १०००००००००००००० ॥ सूत्रम्--१३५॥ ___मूलार्थ:-श्रीऋषभदेव भगवानना निर्वाणथी छेल्ला श्रीमहावीर-वर्धमानस्वामीना निर्वाण सुधी एक कोटाकोटि सागरोपमर्नु अबाधाए आंतरूं का छे (१)॥१००००००००००००००॥ टीकार्थः- उसभेत्यादि, ' उसभसिरिस्स त्ति'-(ऋषभश्री) आ ठेकांणे श्रीऋषभ एम कहेवू जोइए, छतां. प्राकृतने लीधे विपरीतपणे निर्देश कर्यो छे. अहीं कांइक अधिक बताळीश हजार वर्ष एक कोटाकोटि सागरोपममां न तो पण ते अल्प होवाथी ते विशेषतुं विशेषण आप्यु नथी (१)। १००००००००००००००। सूत्र-१३५॥ ... | अहीं जे आ हमणां (उपर ) संख्याना अनुक्रमना संबंध मात्रवडे संबंधवाळा विविध प्रकारना वस्तुविशेषो कह्या, ते १ काइक अधिक बेंताळीश हजार वर्ष कहेवार्नु कारण समजा नथी. % 3DA S Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगी स्वरूप । Nज अत्यंत विशेष प्रकारना संबंधवडे संबंधवाळा वस्तुविशेषो द्वादशांगीने विषे कहेला छे, तेथी ते द्वादशांगी- ज स्वरूप समवायाङ्ग कहेवाने इच्छता सता कहे छे मू०---दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तं जहा-आयारे १, सुयगडे २, ठाणे ३, समवाए ४, चोथु अंग विवाहपन्नत्ती ५, णायाधम्मकहाओ ६, उवासगदसाओ ७, अंतगडदसाओ ८, अणुत्तरोववाइयद-- ॥२१॥ साओ ९, पण्हावागरणाई १०, विवागसुए ११, दिट्टिवाए १२ । से किं तं आयारे ? आयारे ण समणाणं निग्गंथाणं आयार--गोयर--विणय--वेणइय--टाण-गमण--चंकमण--पमाण--जोगजुंजण-- भासा--समिति--गुत्ती सेज्जो--वहि-भत्त-पाण-उग्गमउप्पायणएसणाविसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वयणियम--तवोवहाणसुप्पसत्थमाहिज्जइ । से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-णाणायारे १, दंसणायारे २, चरित्तायारे ३, तवायारे ४, विरियायारे ५। आयारस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेजा वेढा, संखेजा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। से णं अंगठ्ठयाए पढमे अंगे दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीइं उद्देसणकाला, पंचासीइं समुद्देसणकाला, अट्ठारस पदसहस्साई पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता प ॥२१॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पज्जवा, परित्ता तसा, अनंता थावरा, सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविनंति पण्णविज्जंति परुविज्जति दंसिजंति निदंसिजति उवदंसिजंति । से एवं णाया एवं विष्णाया । एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति पण्णविज्जंति परुविज्जंति दंसिजंति निदंसिजति उवदंसि - जंति । सेतं आयारे ॥ १ ॥ सूत्रम् - - १३६ ॥ मूलार्थ:- बार अंग गणिपिटक कला छे, ते आ प्रमाणे - आचार १, सूत्रकृत २, स्थान ३, समवाय ४, विवाहप्रज्ञप्ति ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, अंतकृतदशा ८, अनुत्तरोपपातिकदशा ९, प्रश्नव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११ अष्टवाद १२ | हवे ते आचारांग कयुं ? आचारांगने विषे श्रमण निर्मथनो आचार १, गोचर २, विनय ३, वैनयिक ४, स्थान ५, गमन ६, चंक्रमण ७, प्रमाण ८, योगयुंजन ९, भाषा १०, समिति १९ अने गुप्ति १२ कहेवाय छे, तथा शय्या १, उपधि २, भक्त ३ अने पान ४ ए चारनुं उद्गम, उत्पादन अने एषणानी विशुद्धिए करीने शुद्ध होय तेनुं अथवा कारणे अशुद्धनुं ग्रहण कहेवाय छे, तथा व्रत १, नियम २ अने तपउपधान ३, आ सर्वे (१९) सुप्रशस्त कहेवाय छे । ते आचार संक्षेपथी पांच प्रकारे कह्यो छे, ते आ प्रमाणे- ज्ञानाचार १, दर्शनाचार २, चारित्राचार ३, तपाचार ४ अने वीर्याचार ५ । आ आचारांगनी वाचना परिमित छे, अनुयोगद्वार संख्याता छे, प्रतिपत्तिओ संख्याती छे, वेष्टक संख्याता छे, श्लोक संख्याता छे, नियुक्ति संख्याती छे । ते आचारांग अंगार्थकपणाए करीने पहेलुं अंग छे, तेना वे श्रुतस्कंध छे, पंचीश अध्य ३६ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२११ ॥ यनो छे, पंचाशी उद्देशन काळ छे, पंचाशी समुद्देशन काळ छे, कुल पदोवडे करीने तेना अठार हजार पदो छे, अक्षरो संख्याता छे, गमा अनंता छे, पर्यवो अनंता छे, नसो परिमित ( असंख्याता ) छे, स्थावरो अनंता छे, (वळी आ उपर कहेला सर्वे ) शाश्वता छे, करेला छे, निबद्ध छे, निकाचित छे. आ सर्वे जिनेश्वरे कहेला भावो ( आ आचारांगने विषे ) कवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शन कराय छे, उपदर्शन कराय छे। आ प्रमाणे भणीने मनुष्य ज्ञाता थाय छे अने आ प्रमाणे विशेष ज्ञाता थाय छे. आ प्रमाणे आ आचारांगमां चरणकरणनी प्ररूपणा . कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शन कराय छे, उपदर्शन कराय छे। ते आ आचार वस्तु कही || सूत्र - १३६ ॥ टीकार्थ:--' दुवाललंगे इत्यादि ' अथवा उपर ( प्रथम आखा ग्रंथमां ) उत्तरोत्तर संख्याना अनुक्रमे संबंधवाळा पदार्थोनी प्ररूपणा करी - हवे मात्र संख्याना संबंधवाळा पदार्थोनी प्ररूपणा करवा माटे आरंभ करे छे - 'दुवालसँगे इत्यादि'मां श्रुतरूपी उत्तम पुरुषना अंगनी जेवा अंग. ते बार अंग आचारांग विगेरे जेने विषे छे ते द्वादशांग कहेवाय छे . (बहुव्रीहि समास ). गण छे जेने ते गणी एटले आचार्य, तेनी जे पेटीना जेवी पेटी एटले सर्वस्व राखवानुं भाजन ते गणिपिटक कहेवाय छे. अथवा गणि शब्द परिच्छेदने कहेनार छे. ते विषे कधुं छे के "आचारांग भणवाथी साधुधर्म जेथी करीने जाणवामां आवे छे, तेथी करीने आचारांगने धारण करनार साधु पहेलुं गणिस्थान कहेवाय छे. " अर्थात् परिच्छेद स्थान कहेवाय छे. तेथी करीने परिच्छेदनो जे पिटक -समूह ते गणिपिटक कहेवाय छे. अहीं पदनी घटना आ प्रमाणे आचारांग परिचय | ॥२११॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवी - जे आ गणिपिटक छे ते द्वादशांग कयुं छे. ते आ प्रमाणे - आचार १, सूत्रकृत २, इत्यादि । अहीं शिष्य प्रश्न करे छे के - " ते आचार वस्तु कइ छे ? अथवा तो आ आचार कयो छे ? " । उत्तर - आचरणनुं नाम आचार कहेवाय छे, अथवा जे आचरण कराय ते आचार कहेवाय छे अर्थात् साधुओए आचरेलो ज्ञानादिकनी सेवानो विधि, आने प्रतिपादन करनार ( कहेनार ) ग्रंथ पण आचार ज कहेवाय छे। ' आयारेणं ति ' - करणभूत आ आचारे करीने (करणमां तृतीया विभक्ति) साधुओनो आचार कहेवाय छे एवो क्रियापदनो संबंध करवो. अथवा अधिकरणभूत आचारने विपे (अधिकरणमां सप्तमी विभक्ति) 'णं' शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. श्रमण एटले तपलक्ष्मीए करीने सहित अने निर्ग्रथ एटले बाह्य अने आभ्यंतर ग्रंथिए (परिग्रहे) करीने रहित एवा साधुओनो ( आचार विगेरे कहेवाय छे). अहीं कोइ शंका करे के-जे श्रमण छे ते निर्बंथ ज छे, तथी आ (निर्ग्रथ ) विशेषण शा माटे आप्युं १ तेनो जवाब कहेवाय छे आ विशेषण शाक्यादिक मतना श्रमणोने दूर करवा माटे आप्युं छे. कयुं छे के - " निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक अने आजीविक आ पांच प्रकारना श्रमण कहेवाय छे. " इति । तेमां आचार एटले ज्ञानादिक अनेक प्रकारनो छे ते १, गोचर एटले भिक्षा ग्रहण करवानो विधि २, विनय एटले ज्ञानादिकनो विनय करखो ते ३, वैनयिक-ते विनयनुं कर्मक्षयादिक फळ थाय ते ४, स्थानकायोत्सर्ग करवो, बेसवुं, सुबुं, एम त्रण प्रकारनुं स्थान ५, गमन - विहारभूमि विगेरेमां जनुं ते ६, चंक्रमण - उपाश्रयनी अंदर शरीरना श्रमने दूर करवा माटे आम तेम चालबुं ते ७, प्रमाण-भात, पाणी, आहार (कोळीया ) अने उपधि विगेरेनुं मान- प्रमाण ८, योगयोजन - स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षण विगेरे कार्यमां बीजाओने जोडवा - प्रेरवा ते ९, भाषा - साधुने सत्या अने Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग - ॥२१२ ॥ • सत्यामृपा भाषा बोलवी ते १०, समिति - ईर्यासमिति विगेरे पांच ११, अने गुप्ति – मनोगुप्ति विगेरे त्रण १२ । तथा शय्या वसति ( उपाश्रय) १, उपधि - वस्त्रादिक २, भक्त - अशनादिक ३ अने पान-उष्ण जळ विगेरे ४, आ चारनो द्वंद्व समास करवो. तथा उद्गम, उत्पादन अने एपणाना दोपोनी जे विशुद्धि एटले अभाव ते उद्गमोत्पादनैषणाविशुद्धि कहेवाय छे. त्यारपछी शय्या विगेरे चार के जे उगमादिकनी विशुद्धिए करीने शुद्ध होय तेनुं ग्रहण अने तथाप्रकारने कारणे अशुद्धनुं पण ग्रहण कर ते शय्यादि ग्रहण कहेवाय छे. तथा वळी व्रत - मूळ गुण १, नियम - उत्तरगुण २ अने तपउपधान - बार प्रकारनो तप ३. त्यारपछी आचार, गोचर विगेरे गुप्ति सुधीना चार पदो, अने शय्यादिग्रहण, अने व्रत, अने नियम अने तपउपधान, आ सर्वनो समाहार द्वंद्व समास करवो. त्यारपछी आ सर्व सुप्रशस्त एम कर्मधारय समास करवो. आ सर्व कहेवाछे । आ आचार विगेरे पदोने विषे कोइ एक पदना कहेवाथी कोइ चीजा पदनो समावेश थइ जतो होय छतां तेनुं जे जुदुं कथन कर्यु ते सर्व तेनुं प्रधानपणुं जणाववा माटे ज कयुं छे एम जाणवुं । ' से समासओ इत्यादि ' - ते एटले जेने • श्रीने आ ग्रंथ नाम आचार कहेवाय छे ते आचार संक्षेपथी पांच प्रकारे कह्यो छे. ते आ प्रमाणे- ज्ञानाचार इत्यादि. मां ज्ञानाचार एटले श्रुतज्ञानना विषयवाळो कालाध्ययन ( काळे भगवुं ), विनयाध्ययन ( विनयथी भणवुं ), विगेरे आठ प्रकारनो व्यवहार १, दर्शनाचार एटले निःशंकता विगेरे आठ प्रकारनो समकित वाळानो व्यवहार २, चारित्राचार एटले समिति (गुप्ति) विगेरेने पाळवारूप साधुओनो व्यवहार ३, तपआचार एटले चार प्रकारनो तपविशेष करवो ते ४, वीर्याचार एटले ज्ञानादिक प्रयोजनने विषे वीर्य गोपवधुं नहीं ते ५ । ' आयारस्स त्ति ' -आ आचारांग ग्रंथनी ( वाचना ) परित्त एटले आचारांग परिचय | ॥२१२॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव्याने विषे पदार्थोनी प्राप्ति अथात् मा वचननी संकलना ते संख्यात घटना-विशेष संख्याती छे परंतु आदि अने अंतनी प्राप्ति छे माटे अनंती नथी. शुं संख्याती छे ? सूत्र अने अर्थ भणाववारूप वाचना संख्याती छ अथवा अवसर्पिणी अने उत्सर्पिणीरूप काळने आश्रीने संख्याती छे, तथा उपक्रमादिक अनुयोगद्वार संख्याता छ, केम के तेना अध्ययनोज संख्याता छे अने वळी ते प्रज्ञापक( आचार्य )ना वचननो विपयरूप छे तेथी, तथा संख्याती प्रतिपत्तिओ छे एटले द्रव्यार्थने विषे पदार्थोनी प्राप्ति अर्थात् मतांतरो अथवा प्रतिमादिक अभिग्रहविशेषो संख्याता छ, तथा | वेष्टक एटले छंदविशेष अथवा कोइना मतमा एक अर्थने कहेनारी वचननी संकलना ते संख्यात छे, तथा श्लोक एटले अनुष्टुप् छंद संख्याता छ, तथा निर्युक्तनी एटले सूत्रमा अभिधेयपणे स्थापन करेला अर्थोनी युक्ति एटले घटना-विशेष प्रकारनी योजना तेरूप निर्युक्तयुक्ति संख्याती छे, आ वाक्यमा 'युक्त' शब्दनो लोप करवाथी नियुक्ति कहेवाय छे, आ निक्षेपनियुक्ति विगेरे संख्याती छे । 'से णमित्यादि'-णं शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. ते आचार अंगार्थपणाए करीने एटले अंगरूप वस्तुए करीने प्रथम अंग स्थापनानी अपेक्षाए कयुं छे, पण रचवानी अपेक्षाए तो आ वारसुं अंग छे. केम के पूर्वमा रहेली वस्तु सर्व प्रवचननी पहेलां रचीछे तेथी ते पहेलुं छे. तथा आमां बे श्रुतस्कंध एटले अध्ययनना समूह छ, तथा पचीश अध्ययनो छे. ते आ प्रमाणे-"शत्रपरिज्ञा १, लोकविजय २, शीतोष्णीय ३, सम्यक्त्व ४, आवंती ५, धूत ६, विमोह ७, महापरिज्ञा ८, उपधानश्रुत ९, आ पहेलो श्रतस्कंध थयो. तथा पिंडैपणा १, शय्या २, ईर्या ३, भापा ४, वस्त्रैपणा. ५, पात्रैषणा ६, अवग्रहप्रतिमा ७, सप्तसप्ततिका १४, भावना १५ अने विमुक्ति १६, आ बीजो शुतस्कंध थयो." आ प्रमाणे निशीथने वर्जीने आ पचीश अध्ययनो छे. तथा उद्देशनना काळ पंचाशी छे. केवी रीते? ते कहे छे-अंग, श्रुतस्कंध, अध्ययन Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग परिचय। समवाया लोग ॥२१३॥ अने उद्देशा आ चारेनो एक ज उद्देशनकाळ छे. एज प्रमाणे शस्त्रपरिज्ञा विगेरे पचीश अध्ययनोने विप अनुक्रमे सात १, छ २, चार ३, चार ४, छ ५, पांच ६, आठ ७, सात ८, चार ९, अग्यार १०, त्रण ११, त्रण १२, बे १३, वे १४, वे १५, बे १६, आटली (७६) संख्यावाळा उद्देशनकाळ सोळ अध्ययनना मळीने छे तथा बाकीना नव अध्ययनना नव ज छे. आ अर्थ जणावनार संग्रह गाथानो अर्थ आ प्रमाणे छे-" सात, छ, चार, चार, छ, पांच, आठ, सात, चार, अग्यार, त्रण, त्रण, वे, वे, बे, वे, सात, एक, एक. इति । एज प्रमाणे समुद्देशनकाळ पण तेटला ज कहेवा । वळी आ आचारना कुल पदोए करीने अढार हजार पदो कहेला छे. अहीं ज्यां अर्थनी प्राप्ति थाय ते पद कहेवाय छे. अहीं कोइ शंका करे छे के-अहीं जो वे श्रुतस्कंध, पचीश अध्ययन अने अढार हजार कुल पद छे, तो "नव ब्रह्मचर्य अध्ययनना कुल अढार हजार पद छे" एम जे का छे ते केम विरुद्ध नथी ? आनो उत्तर कहे छे के-चे श्रुतस्कंध विगेरे जे कह्यं ते आचारनु प्रमाण कयु, अने वळी जे अढार हजार पद कह्या ते नव ब्रह्मचर्य अध्ययनरूप पहेला श्रुतस्कंधनुं प्रमाण का छे केम के सूत्रनो अर्थ विचित्र होय छे, तेथी तेनो अर्थ गुरुना उपदेशथी जाणवा लायक छ । तथा वेष्टकादिक संख्याता होवाथी आना अक्षरो संख्याता छ, तथा गमा अनंत छे, अहीं गमा एटले अर्थगमा ग्रहण कराय छे अर्थात् अर्थना परिच्छेद, ते अनंता छे. केम के एक ज सूत्रथकी ते ते धर्मवाळा अनंत धर्मवाळी वस्तुनी प्राप्ति थाय छे तेथी । अन्य आचार्यों तो आ प्रमाणे कहे छ के-अभिधान अने अभिधेयने आश्रीने गमा थाय छे, ते अनंता छे. तथा पर्यायो एटले स्व अने पर एवा मेदवडे जुदा अक्षरार्थना पर्यायो अनंता छे. तथा त्रस जीवो परित्त कहेवाय छे एवो संबंध करवो. अहीं जे त्रास पामे ते त्रस द्वींद्रिय ॥२१॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे, तेओ परिमित (असंख्याता) छे पण अनंत नथी. केम के तेओर्नु एवं ज स्वरूप छे. तथा वनस्पतिकाय सहित थइने स्थावर जीवो अनंता छे. आ सर्वे केवा छे ? ते कहे छे-'सासया' एटले द्रव्यार्थपणाए करीने कायम होवाथी शाश्वता छे, 'कडा' पर्यायार्थपणाए करीने समये समये बदलाता होवाथी करेला छे, 'निवद्धा' सूत्रमा ज ग्रथित-गुंथेला छे, तथा 'निकाइआ'-नियुक्ति, संग्रहणि, हेतु, उदाहरण विगेरेवडे प्रतिष्ठित छे. तथा जिनेश्वरोए कहेला भावो-पदार्थों बीजा पण अजीवादिक छे ते सर्वे 'आघविजंति'-प्राकृत शैलीए करीने आ पद छे ते संस्कृतमां 'आख्यायन्ते' एटले सामान्य अने विशेषवडे कहेवाय छे. 'प्रज्ञाप्यन्ते ' एटले नामादिकना भेद कहेवावडे कहेवाय छे 'प्ररूप्यन्ते' एटले नामादिकनुं स्वरूप कहेवावडे कहेवाय छे, जेम के पर्यायर्नु अभिधेय एटले नाम इत्यादि. — दयन्ते ' एटले मात्र उपमावडे देखाडाय छे, जेम के जेवो बळद तेवो गवय छे इत्यादि.'निदश्यन्ते' एटले हेतु अने दृष्टांत कहेवावडे देखाडाय छ, 'उपदर्यन्ते ' एटले उपनय अने निगमनवडे अथवा सर्व नयना अभिप्रायवडे देखाडाय छ । हवे | आचारांगना ग्रहण- फळ देखाडवा माटे कहे छ-' से एवमित्यादि'-'सः' एटले आचारांगने ग्रहण करनार जाणवो. 'एवं आयत्ति'-आ (आचारांग) भावथी सम्यक् प्रकारे भणे सते आ प्रमाणे आत्मा थाय छे (आत्मा आचाररूप ज थाय छे) केम के ते( आचारांग)मां कहेली क्रियाना परिणामथी अभिन्न (परिणामरूप ) दोवाथी ते आत्मा पण | तदूप ज थाय छे. आ ( एवं आय ) सूत्र पुस्तकोमा जोयुं नथी, परंतु नंदीसूत्रमा देखाय छे, तेथी अहीं तेनी व्याख्या करी छे. आ प्रमाणे ज्ञाननो सार क्रिया जछे एवं जणाववा माटे क्रियानो परिणाम कहीने हवे ज्ञानने आश्रीने कहे छे Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअगडांग परिचय। -'एवं नाय त्ति'-आ सूत्र भणीने (भणनार साधु ) ए प्रमाणे ज्ञाता थाय छे के जे प्रमाणे आ सूत्रमा का होय. समवायाङ्ग एवं विन्नाय त्ति'-विविध प्रकारे के विशेष प्रकारे जे जाणनार ते विज्ञाता कहेवाय छे. ए प्रमाणे विज्ञाता थाय छ सूत्र ॥ एटले अन्य शास्त्रोने पण जाणनार थाय छे अर्थात् अन्य शास्त्रोना जाणकारथकी अत्यंत वधारे प्रधान-जाणकार थाय -चोअंगछ । ' एवं ' इत्यादि निगमन( समाप्ति )नु वाक्य छे' एवं ' एटले आचार, गोचर, विनय विगेरे कहेवारूप आ प्रकारे 'चरणकरणप्ररूपणता आख्यायत इति'-चरण एटले व्रत, साधुधर्म, संयम विगेरे अनेक (सीतेर) प्रकारनुं चारित्र, ॥२१४॥ करण एटले पिंडविशुद्धि, समिति विगेरे अनेक (सीतेर ) प्रकारचें करण, ते बन्नेनी प्ररूपणा ज कहेवाय छ, प्रज्ञापना कराय छे विगेरे पूर्वनी जेम जाणवू । 'सेत्तं आयारे त्ति'-ते आ आचारवस्तु अथवा ते आ आचार करो के जे पूर्व जोयो हतो ( एम ग्रंथकार कहे छे) ॥१ ।। सूत्र-१३६ ॥ . हवे बीजुं सूत्रकृतांग कहे छे.-- मू०-से किं तं सूअगडे ? सूअगडे णं ससमया सूइज्जति, परसमया सूइज्जति, ससमयपर, समया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइज्जति, लोगो सूइज्जति, अलोगो 9 सूइजति, लोगालोगो सूइज्जति । सूअगडे णं जीवाजीवपुण्णपावासवसंवरनिजरणबंधमोक्खा वसाणा पयत्था सूइज्जति । समणाणं अचिरकालपवइयाणं कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं संदेह- ॥२१॥ A Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जायसहजबुद्धिपरिणामसंसइयाणं पावकरमलिनमइगुणविसोहणत्थं असीअस्स किरियावाइयसय| स्स चउरासीए अकिरियवाईणं सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेवट्ठीणं अण्णदिट्ठियसयाणं वूहं किच्चा ससमए ठाविज्जति णाणदिटुंतवयणणिस्सारं सुट्ट दरिसयंता विविहवित्थराणुगमपरमसब्भावगुणविसिट्ठा मोक्खपहोयारगा उदारा अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूआ सोवाणा चेव सिद्धिसुगइगिहुत्तमस्स णिक्खोभनिप्पकंपा सुत्तत्था । सुयगडस्स णं परित्ता वायणा । संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखजाओ निज्जुत्तीओ। से णं अंगठ्ठयाए दोच्चे अंगे दो सुयक्खंधा तेवीसं अज्झयणा तेत्तीसं उद्देसणकाला तेत्तीसं समुद्देसणकाला छत्तीसं पदसहस्साइं पयग्गेणं पन्नत्ताई, संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविनंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिजंति उवदंसिर्जति । से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजति निदंसि Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२१५॥ जति उवदंसिज्जति । सेत्तं सूअगडे ॥ २ ॥ सूत्रम् - १३७ ॥ मूलार्थ:-- हवेकयुं ते सूत्रकृतांग छे १ सूत्रकृतांगने चिपे स्वसमय ( जिनमत ) नी सूचना कराय छे, परसमयनी सूचना कराय छे, स्वसमय अने परसमय बनेनी सूचना कराय छे, जीवोनी सूचना कराय छे, अजीवोनी सूचना कराय छे, जीव अजीवनी सूचना कराय छे, लोकनी सूचना कराय छे, अलोकनी सूचना कराय छे, लोक अलोकनी सूचना कराय छे। सूत्रकृतांगने विषे जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष पर्यंतना पदार्थोंनी सूचना कराय छे। श्रमणो (साधुओ) के जे थोडा काळथी प्रवजित थयेला छे, कुतीर्थिकना मोह (अज्ञान ) थी थयेला मोहवडे जेओनी मति मोह ( मूढता ) ने पामेली छे, ( कुसमयना समीपपणाने लीधे ) जेओने संदेह उत्पन्न थयो छे तथा स्वाभाविक बुद्धिना परिणामथी जेओने संदेह उत्पन्न थयो छे तेवा साधुओनी पापी अने मलीन बुद्धिना गुणने शुद्ध करवा माटे एक सो ने एंशी (१८०) क्रियावादीओ, चोराशी (८४) अक्रियावादीओ, सडसठ (६७) अज्ञानवादीओ अने वत्रीश (३२) विनयवादीओ कुल व्रण सो ने सठ (३६३) अन्य दर्शनीओनी रचना ( तिरस्कार- खंडन ) करीने स्वसमय ( जैन सिद्धांत ) स्थापन कराय छे. (हवे आ सूत्रकृतांगना सूत्र अने अर्थ केवा छे ? ते कहे छे ) विविध प्रकारे करीने ( परवादीओए पोतानो मत स्थापन करवा माटे कला ) दृष्टांत अने हेतुना वचनोने सारी रीते निःसार करीने देखाडता, विविध प्रकारना विस्तारनुं प्रतिपादन अने अत्यंत सत्यतारूप गुणे करीने सहित, मोक्षमार्गमां उतारनारा, उदार, अज्ञानरूपी अत्यंत अंधकारखडे दुर्गम एवा तत्त्वमार्गने विषे दीवारूप, मोक्ष अने सुगतिरूप उत्तम प्रासाद उपर चडवाना पंगथियारूप, कोइथी क्षोभ न पामे एवा अने सुअगडांग परिचय | ॥२१५॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंपायमान न थाय एवा सूत्र अने अर्थ आ अंगमां कहेला छ । आ सूत्रकृतांगनी वाचना परित्त (संख्याती) छ, अनुयोगद्वार संख्याता छे, प्रतिपत्तिओ संख्याती छे, वेष्टको संख्याता छे, श्लोको संख्याता छे, तथा नियुक्तिओ संख्याती छ। ते सूत्रकृतांग अंगार्थकपणाए करीने वीजं अंग छे, तेमां वे श्रुतस्कंध छ, त्रेवीश अध्ययनो छे, तेत्रीश उद्देशनकाळ छे, तेत्रीश समुद्देशनकाळ छे, कुल छत्रीश हजार पद कहेला छे । तेमां अक्षरो संख्याता छ, गमा अनंता छे, पर्यायो अंनता छ, त्रस जीवो असंख्याता छ, स्थावर जीवो अनंता छ । आ सर्वे शाश्वत छे, कृत छ, निवद्ध छे, निकाचित छे. आ सर्वे जिनेश्वरोए कहेला भावो आ अंगने विपे कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छ, निर्देश कराय छे, उपदर्शन कराय छ । जे साधु आने भणे छे तेनो आत्मा एज प्रमाणे तद्प ज थाय छ, एज प्रमाणे जाणकार थाय छ, एज प्रमाणे विशेष जाणकार थाय छ । आ प्रमाणे चरण करणनी प्ररूपणा कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छ, देखाडाय छे, निर्देश कराय छे, उपदर्शन कराय छ । ते आ प्रमाणे में सूत्रकृतांग कयुं छे ।। २॥ सूत्र-१३७॥ | . टीकार्थ:-हवे कयु ते सूत्रकृत छ ? अहीं 'सूच' धातु सूचवन करवू एवा अर्थमा प्रवर्ते छे. तेथी सूचवन करवाथी | सूत्र कहेवाय छे अने सूत्रवडे जे करायुं ते सूत्रकृत एम रूढिथी कहेवाय छे. 'सूयगडेणं ति'-सूत्रकृते करीने अथवा सूत्रकृतने विपे स्वसमय सूचवाय छे ( कहेवाय छे ) इत्यादि सूत्रो सुगम छे. तथा सूत्रकृते करीने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष सुधीना पदार्थो सूचवाय छ । तथा 'समणाणमित्यादि'-अहीं साधुओनी मतिना गुणने शुद्ध करवा माटे स्वसमय स्थापन कराय छे एम वाक्यार्थ करवो. ते साधुओ केवा ? ते कहे छे-थोडा काळमां Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२१६॥ प्रब्रजित थयेला, कारण के चिर काळना प्रव्रजित साधुओ निर्मळ मतिवाळा होय छे, केम के तेमने रात्रिदिवस शास्त्रनो परिचय होय छे तथा बहुश्रुत साधुओनो समागम पण होय छे. वळी ते ( नवदीक्षित ) साधु केवा ? ते कहे छे-'कुसम - मोहमोहमइमोहियाणं ति '- कुत्सित एवो समय एटले सिद्धांत छे जेने (बहुव्रीहि ) ते कुसमय एटले कुतीर्थिको कहीए, तेमनो मोह एटले पदार्थोंने विषे विपरीत बोध ( ज्ञान ) ते कुसमयमोह कहीए, ते कुसमयमोहथकी जे मोह एटले श्रोताओना मननी मूढता, तेवडे जेनी मति मोहित थइ छे एटले मूढताने पामी छे ते कुसमय मोहमतिमोहित कहीए. अथवा तो कुसमय एटले खोटा शास्त्रो, तेनो ओघ एटले समूह ते कुसमयमोह कहेवाय छे. अहीं मकार प्राकृतभाषाने • वधारानो छे. ते कुसमयना समूहथी थयेलो जे मोह एटले श्रोताना मननी मूढता, ते मूढतावडे जेमनी मति मोह पामी होय ते कुसमयौघमोहमतिमोहित कहीए. अथवा तो कुतीर्थिकोनो मोह अथवा मोघ एटले शुभफळनी अपेक्षाए निष्फळ एवो जे मोह, ते वडे जेमनी मति मोह पामी होय ते कुसमयमोहमोहमतिमोहित अथवा कुसमय मोघमोहमतिमोहित कहीए. तथा संदेह एटले वस्तुना तव प्रत्ये शंका, अहीं कुतीर्थिकना मोहथी उत्पन्न थयेली मूढतावडे जेमनी मति मूढ थली छे एवं विशेषण समीपे होवाथी कुसमय पासेथी जेओने संदेह थया छे ते संदेहजात कहीए, तथा सहज एटले स्वभावथी ज प्राप्त थयेला पण कुसमयना श्रवणथी प्राप्त थयेला नहीं एवा स्वाभाविक बुद्धिना परिणामथी एटले मतिना स्वभावथी जेओने संशय थयो छे, ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयित कहीए. पछी संदेहजात अने सहजबुद्धिपरिणामसंशयित एवेनो द्वंद्व समास करवो. आवा साधुओनो एम प्रकृत जाणवु. आवा साधुओनो शुं १ ते कहे छे- पापकर एटले विपरीत सुअगडांग परिचय | ॥२१६॥ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशयरूपपणाए करीने कुत्सित (खराव) प्रवृत्तिना कारणरूप होवाथी अशुभ कर्मनों हेतुरूप एज कारणथी मलिन एटले आत्मस्वरूपर्नु आच्छादन करनार होवाथी अनिर्मळ (निर्मळता रहित) जे मतिगुण एटले बुद्धिनो पर्याय, तेना विशोधन माटे एटले निर्मळपणुं करवा माटे 'असीयस्स किरियावाइयसयस्स त्ति'-एक सोने एंशी क्रियावादीओना व्यूहने (तिरस्कारने) करीने स्वसमय स्थापन कराय छे एवो संबंध करवो. एज प्रमाणे बीजा पदोने विषे पण आ ज क्रियापदनो संबंध करवो. तेमां al कर्ता विना क्रिया संभवती नथी तेथी आत्मानी साथे संबंधवाळी ते क्रियाने जेओ कहेवाना स्वभाववाळा छे तेओ क्रियावादी कहेवाय छे. आ आत्मादिकनुं अस्तिपणुं माननारा आ उपाये करीने (आरीते) एक सोने एंशी प्रकारना जाणवा-जीव, अजीव, आश्रय, बंध, संवर, निर्जरा, पुण्य, अपुण्य (पाप) अने मोक्ष-आ नव पदार्थोंने अनुक्रमे मांडीने पछी पहेला जीव पदार्थनी नीचे स्व अने पर एवा बे भेदो स्थापवा. ते बन्नेनी नीचे नित्य अने अनित्य एवा वे भेदो स्थापवा. ते बन्नेनी पण नीचे काळ, ईश्वर, आत्मा, नियति अने स्वभाव ए पांच मेदो स्थापवा. पछी आ प्रमाणे विकल्पो करवा-जीव पोते नित्य काळथकी छे, ए पहेलो विकल्प थयो. आ विकल्पनो अर्थ आ प्रमाणे छे-निश्चे आत्मा छे, ते पोताना स्वरूपे छे, नित्य छे अने काळ थकी छे एम काळवादीनो मत छे.आ कहेला ज आलावावडे वीजो विकल्प ईश्वरना कारणवाळो (ईश्वरवादीना मतवाळो) कहेवो, बीजो विकल्प आत्मवादीनो, चोथो नियतिवादीनो अने पांचमो स्वभाववादीनो कहेवो. ए प्रमाणे ' स्वतः'ए पदने साथे राखीने पांच विकल्पो थया, ते जरीते 'परतः' ए पदवडे पण पांच विकल्पो प्राप्त थाय छे. आ दश विकल्पो नित्यत्वने साथे राखीने थया, तेज प्रमाणे अनित्यत्ववडे पण दश कहेवा. ए प्रमाणे एक जीवपदार्थवडे वीश Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समवायाङ्ग सूत्रं ॥ चो अंग ॥२१७॥ विकल्पो थया. ते ज प्रमाणे अजीव विगेरे आठे पदने विषे ए ज रीते दरेक पदना वीश वीश विकल्पो कहेवा. तेथी तेने नवगुणा करवाथी एक सो ने एंशी क्रियावादीना भेदो थया. तथा 'चउरासीए अकिरियवाईणं ति' - अक्रियावादीना चोराशी भेद छे. आनुं स्वरूप जेम नंदी विगेरे सूत्रमां कयुं छे तेम कहेवुं. विशेष ए के आनी व्याख्यामां पुण्य अने agart वर्जीने सात पदार्थो स्थापन करवा, तेनी नीचे स्व अने पर ए वे पद स्थापवा, तेनी नीचे कालादिंक पांच अने छठ्ठी यच्छा एम छ पदो स्थापवा. तेथी करीने जीव स्वतः कालतः नथी एम एक विकल्प थयो, ए प्रमाणे कुल चोराशी भेद थाय छे. तथा 'सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं ति ' - अज्ञानवादीना सडसठ भेद पण ते ज प्रमाणे करवा. विशेष ए के - जीवादिक नव पदार्थो अने दशमो पदार्थ उत्पत्ति, आ दशने उपर स्थापवा, तेनी नीचे सत् विगेरे सात पदो स्थापवा. ते आ प्रमाणे - सच, असच्च, सदसत्र, अवाच्यत्व, सदवाच्यत्व, असदवाच्यत्व अने सदसदवाच्यत्व. तेमां कोण जाणे छे के जीवनुं छतापं छे १ ए एक विकल्प थयो, एज प्रमाणे असच - अछतापणुं इत्यादि जाणवुं. ते प्रमाणे आ सात नवक मळीने त्रेसठ भेद थाय छे, अने उत्पत्तिपदने आश्रीने तो पहेला चार ज पदो लेवा. ए रीते सडसठ भेद थाय छे. तथा " बत्तीसार वेणइयवाईणं ति ' - वैनयिकवादीना वत्रीश भेद छे. ते आ प्रमाणे देव, राजा, ज्ञाति, यति, स्थविर (वृद्ध), अधम ( नीच ), माता अने पिता आ आठेनो काय, वाणी, मन अने दानवडे चार प्रकारनो विनय करवो, एवं अंगीकार करनारना मतमां वत्रीश भेद थाय छे. आ प्रमाणे आ चारे वादीओना भेदो मेळववाथी त्रण सो ने त्रेसठ (३६३) भेदो अन्यदर्शनीओना छे. तेथी करीने ' तिन्हं ' इत्यादि सूत्र कयुं छे. तेमनो व्यूह एटले तिरस्कार करीने सूत्रकृतां परिचय | ॥२१७॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांत स्थापन कराय छे. जेथी करीने आ प्रमाणे सूत्रकृतांगमा कहेवाय छे तेथी करीने तेना सूत्र अने अर्थनुं स्वरूप कहे छे-नाणेत्यादि'-नाना एटले अनेक प्रकारे अर्थात् घणा प्रकारे 'दिटुंतवयणनिस्सारं ति'-स्याद्वादीए (जैने) पूर्वपक्षरूप करेला परवादीओना पोताना पक्षने सिद्ध करवा माटे जे दृष्टांतना वचनो अने उपलक्षणथी जे हेतुना वचनो छे, तेनी अपेक्षाए निस्सार एटले सार रहित बीजानो मत छे एम सारी रीते एटले पोताना मतनुं खंडन कोइ पण करी शके नहीं एवी रीते देखाडता एटले प्रकाश करता एवा, तथा सत्पद(छता पद )नी प्ररूपणा विगेरे अनेक अनुयोगद्वारने आश्रित होवाथी विविध प्रकारनो जे विस्तारानुगम एटले अनुगम (व्याख्या) करवा लायक जीवादिक अनेक तत्वोनुं विस्तारथी कहेवू ते विविधविस्तारानुगम कहेवाय छे, एवा तथा परम सद्भाव एटले अत्यंत सत्यता अर्थात् . वस्तुओनुं इदंपरपणुं (अनुक्रमपणुं), आ वे गुणोवडे जे सहित, ते विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्ट कहीए, एवा, तथा 'मोक्खपहोयारग त्ति'-मोक्षमार्गमां उतारनारा एटले के प्राणीओने सम्यग्दर्शन विगेरेमा प्रवृत्ति करावनारा एवा तथा 'उदार त्ति'-सूत्र अने अर्थना समग्र दोष रहितपणाए करीने अने ते सूत्रार्थना समग्र गुण सहितपणाए | करीने उदार एवा, तथा अज्ञानरूपी तमोऽन्धकार एटले अत्यंत अंधकार अथवा उत्कृष्ट (अत्यंत) जे अज्ञान ते अज्ञानतम, अने ते रूपी जे अंधकार ते अज्ञानतमोऽधकार अथवा अज्ञानतमान्धकार कहेवाय छे, तेनावडे करीने जे दुर्ग एटले दुःखे करीने गमन करी शकाय (जाणी शकाय) एवा तत्वमार्गने विषे 'दीवभूय त्ति'-प्रकाश करनार होवाथी दीवानी उपमावाळा एवा, तथा' सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्य-सिद्धिरूप जे सुगति ते सिद्धिसुगति कहीए, अथवा सिद्धि एटले Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गः सूत्र ॥ चो अंग ॥२१८॥ मोक्ष अने सुगति एटले उत्तम देवपणुं अने उत्तम मनुष्यपणुं, ते सिद्धिसुगति कहीए, ते रूपी जे उत्तम गृह श्रेष्ठ प्रासाद तेनी उपर चडवाने माटे ' सोपान ' पगथियानी जेवा पगथीयारूप एवा, तथा ' निक्खोभ ' -वादीवडे क्षोभ न पमाडी काय एवा, तथा 'निष्पकंप - स्वरूपथी पण थोडा पण व्यभिचार दोपरूप कंपथी रहित एवा, कोण ? ते कहे छे' सूत्रार्थी ' सूत्र अने अर्थ एटले निर्युक्ति, भाष्य, संग्रहणि, वृत्ति, चूर्णि, पंजिका विगेरे. आवा सूत्र अने अर्थ कहेवाय छे. बाकी सर्व सुगम छे, ' तं सुयगडे त्ति '- विशेष ए के तेत्रीश उद्देशनकाळ आ प्रमाणे छे- “ चार, त्रण, चार, वे, वे अने अग्यार एम पहेला श्रुतस्कंधमां एक सरवाळा छे तथा बीजा श्रुतस्कंधमां सात महा अध्ययनो एक सरवाळा छे. " आ गाथाथी जाणवा ॥ २ ॥ सूत्र- १३७ ॥ . हवे त्रीजुं स्थानांग कहे छेः मू० - से किं तं ठाणे ? ठाणे णं ससमया ठाविजंति, परसमया ठाविज्जंति, ससमय पर समया ठाविज्जंति, जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविज्जंति, जीवाजीवा ठाविज्जंति, लोगा ठाविज्जंति, अलोगा ठाविज्जंति, लोगालोगा ठाविज्जंति, ठाणेणं दवगुणखेत्तकालपज्जव पयत्थाणं - ' सेला सलिला य समुद्दा, सूरभवणविमाणआगरणदीओ । णिहिओ पुरिसज्जाया, सरा य गोत्ता य जोइसंचाला ॥१॥ एक वित्तवयं दुविह जाव दसविहवत्तवयं, जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया स्थानाङ्ग परिचय ! ॥२१८॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आघविजंति । ठाणस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेजा वेढा, संखेजा सिलोगा, संखेज्जाओ संगहणीओ। से णं अंगट्ठयाए तइए अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस TT अज्झयणा, एकवीसं उद्देसणकाला, (एकवीसं समुद्देसणकाला,) बावत्तरिं पयसहस्साइं पयग्गेणं पन्नत्ताई । संखेज्जा अक्खरा, (अणंता गमा) अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति (दंसिर्जति) निदंसिज्जति उवदंसिर्जति । से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति । से तं ठाणे ॥३॥ सूत्रम्-१३८॥ मूलार्थ:-ते स्थानांग कयु ? स्थानांगने विषे स्वसमय स्थापन कराय छे, परसमय स्थापन कराय छ, स्वसमय अने परसमय स्थापन कराय छे, जीव स्थापन कराय छे, अजीव स्थापन कराय छे, जीव अजीव स्थापन कराय छे, लोक स्थापन कराय छे, अलोक स्थापन कराय छे, लोक अलोक स्थापन कराय छ । स्थानांगवडे पदार्थना द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काळ अने पर्यायो स्थापन कराय छ। पर्वत, नदी, समुद्र, सूर्य, भवन, विमान, आकर, नदी, निधि, पुरुषना प्रकार, स्वर, गोत्र अने ज्योतिपचार ए सर्व कह्या छे (१) । तथा एक प्रकारनुं वक्तव्य, वे प्रकारनुं वक्तव्य, यावत् दश प्रकारचं वक्तव्य | Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समषायाङ्ग धूत्रं ॥ पोयुं अंग ॥२१९॥ "कवा छे, तथा जीव अने पुद्गलनी प्ररूपणा कहेवाय छे, तथा लोकमां रहेला धर्मास्तिकायादिकनी प्ररूपणा कहेवाय छे । आ स्थानांगनी वाचना परित ( संख्याती ) छे, अनुयोगद्वार संख्याता छे, प्रतिपत्तिओ संख्याती छे, वेष्टक संख्याता छे, श्लोक संख्याता छे अने संग्रहणि संख्याती छे । आ स्थानांग अंगार्थकपणाए करीने त्रीजुं अंग छे, तेमां एक श्रुतस्कंध छे, दश अध्ययनो छे, एकवीश उद्देशनकाळ छे, एकवीश समुद्देशनकाळ छे, बोंतेर हजार कुल पदो छे, अक्षरो संख्याता छे, गमा अनंता छे, पर्याय अनंता छे, त्रस जीवो असंख्यात छे, स्थावर जीवो अनंता छे, ते सर्वे शाश्वता छे, करेला छे, निबद्ध छे, निकाचित छे, एम जिनेश्वरोए कहेला भावो आमां कहेवाय छे, प्रज्ञापन कराय छे, प्ररूपाय छे, देखाडाय छे, निदर्शाय छे, उपदेशाय छे, तेने भणनारनो आत्मा ए ज प्रमाणे एटले तद्रूप थाय छे, ए ज प्रमाणे जाणनार थाय छे, ए ज प्रमाणे विशेष जाणनार थाय छे ए जं प्रमाणे चरणकरणानी प्ररूपणा कराय छे. आ प्रमाणे स्थानांग कहां ||३|| सूत्र - १३८॥ टीकार्थः - हवे कयुं ते स्थान ? जेने विपे प्रतिपादन करवापणे जीवादिक पदार्थों स्थापन कराय ते स्थान कहेवाय छे. तेज कहे छे' ठाणेणमित्यादि ' - स्थानांगवडे अथवा स्थानांगने विषे जीवो स्थापन कराय छे एटले जीवनुं यथावस्थित स्वरूप प्रतिपादन करवा माटे जीवो कहेवाय छे एम भावार्थ जाणवो. शेष सूत्र प्राये पाठसिद्ध (सुगम) ज छे. विशेष ए के'ठाणेणं' ए फरीथी कहेवामां आव्यं ते पूर्व कहेलानुं सामान्यपणुं जणाववा माटे अने स्थापन करवा लायक विशेष पदार्थोंने ..कहेवा माटे आ वीजुं वाक्य कथं एम जणाववा माटे. तेमां 'दव्वगुणखेत्तकालपज्जव' अहीं प्रथमा विभक्तिना बहुवचननो १ अहीं परित्ता शब्द असंख्यात वाचक छे. स्थानाङ्गपरिचय ॥ ॥२१९॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोप कर्यो छे, तेथी 'द्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यवाः' एम जाणवुं । पदार्थोंना एटले जीवादिकना द्रव्य विगेरे स्थानांगवडे स्थापन कराय छे एम संबंध जाणवो. तेमां द्रव्य एटले द्रव्यार्थता, जेमके जीवास्तिकाय जे ते अनंत द्रव्यरूप छे, गुण एटले स्वभाव, जेके जीव उपयोगना स्वभाववाळो छे, क्षेत्र एटले आकाश, जेमके आ जीव असंख्याता प्रदेशोने अवगाहीने रहेलो छे, काळ एटले समय, जेमके आ जीव आदि अंत रहित छे, तथा पर्याय एटले काळे करेली अवस्था, जेमके नारकीपणुं विगेरे अथवा चाळपशुं विगेरे. ' सेला ' इत्यादिक गाथा छे. तेमां शैल एटले हिमवान विगेरे पर्वतो आ स्थानांगवडे स्थापन कराय छे, एम सर्वत्र संबंध जाणवो. सलिलो एटले गंगादिक महानदीओ, समुद्र एटले लवणसमुद्र विगेरे, सर एटले आदित्य (सूर्य), भवन एटले असुरादिकनां भवनो, विमान एटले चंद्रादिकनां विमानो, आकर एटले सुवर्ण विगेरेनी उत्पत्तिनां स्थानो, नदी एटले मही, कोसी विगेरे सामान्य नदीओ, निधि एटले चक्रवर्ती संबंधी नैसर्प विगेरे नव निधानो, 'पुरिसजाय त्ति ' - ऊंचा, नीचा विगेरे भेवाळा पुरुषना प्रकारो, अथवा पाठांतरे ' पुस्सजोय त्ति ' -उपलक्षणथी पुष्यादिक नक्षत्रोनो चंद्रनी साथै पश्चिम, पूर्वनेने बाजु प्रमर्दविगेरे योग थवो ते, स्वर एटले पड्ज विगेरे संगीतना सात स्वरो, गोत्र एटले काश्यप विगेरे ओग पचास गोत्रो, 'जोइसंचालय त्ति ' - तारारूपी ज्योतिषनो चार (गति), 'तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा''त्रण स्थानवडे तारारूपी ज्योतिष चाले छे' इत्यादि सूत्रवडे स्थानांग सूत्र स्थापन करे छे एम संबंध जाणवो. (१) । तथा एक प्रकार वक्तव्य एटले तेनुं अभिधेय (कहेवा लायक पदार्थ) ते एकविध वक्तव्य पहेला अध्ययनमां स्थापन कराय छे एम संबंध करवो. एज प्रमाणे द्विविध वक्तव्य वीजा अध्ययनमां, ए प्रमाणे त्रीजा विगेरे अध्ययनोमां कहेवुं यावत् दर्श Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाजपरिचय। समवायाङ्ग घो अंग ॥२२०॥ 1 प्रकारनु वक्तव्य दशमा अध्ययनमा स्थापन कराय छ । तथा जीवो अने पुद्गलोनी प्ररूपणा कहेवाय छे एम संबंध करवो. तथा 'लोगहाइंच णं ति'-लोकमा रहेला धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय विगेरेनी प्ररूपणा कहेवाय छे । शेष सूत्र आचारांग सूत्रनी व्याख्यानी जेम जाणवू. विशेष ए के-उद्देशनकाळ एकवीश छे. ते केवी रीते ? ते कहे छे-बीजा, जीजा अने चोथा अध्ययनमा चार चार उद्देशा छे अने पांचमा अध्ययनमा त्रण उद्देशा छ एम पंदर थया. बाकी छ अध्ययनोना छ उद्देशन काळ होवाथी छ उद्देशा छे. तथा बोंतेर हजार पदो छ केमके अढार हजार पदना प्रमाणवाळा आचारांगथी सूत्रकृतांग वमणुं (छत्रीश हजारर्नु) छे, अने तेनाथी पण स्थानांग बम' होवाथी ते बोंतेर हजार पदप्रमाण छे ।।३।। सूत्र-१३८॥ - हवे चोधुं समवायांग कहे छे: मू०--से किं तं समाए ? समवाए णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जंति, ससमयपरसमया सूइज्जंति, जाव लोगालोगा सूइज्जति । समवाए णं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरिय परिवुड्ढी य, दुवालसंगस्स य गणिपिड गस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ ठाणगसयस्स, बारसविहविस्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवाहियस्स भगवओसमासेणं समोयारे आहिज्जति । तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया वित्थरेण, अवरे वि अ बहुविहा विसेसा नरगतिरियमणु- ॥२२०॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . असुरगणाणं आहारुस्सासलेसाआवाससंखआययप्पमाणउववायचवणओगाहणोहिवेयणविहाण। उवओगजोगइंदियकसाय, विविहा य जीवजोणी, विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य | मंदरादीणं महीधराणं, कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाण चक्कीणं चेव चकहरहल हराण य, वासाण य निगमा य समाए। एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिज्जति। NI समवायस्स णं परित्ता वायणा जाव से णं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्खंधे एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले एगे चउयाले पदसतसहस्से पदग्गेणं पन्नत्ते । संखेज्जाणि अक्खराणि जाव चरणकरणपरूवणया आघविजंति । से तं समाए ॥ ४॥ सूत्रम्-१३९॥ ___मूलार्थ:-ते समवाय कयो छे ? समवायने विषे स्वसमय सूचवन कराय छे, परसमय सूचवन कराय छे, स्वसमय परसमय सूचवन कराय छे यावत् लोक अलोक सूचवन कराय छ । समवायने विषे एकथी आरंभीने केटलाक पदार्थोनी एक अधिकवाळी अने अनेक अधिकवाळी वृद्धि कहेवाय छे, तदा द्वादशांगीरूप गणिपिटकना पर्यवोर्नु परिमाण एटले सो स्थानकनुं परिमाण कहेवाय छे, तथा चार प्रकारना विस्तारवाळा अने जगतना जीवोने हितकारक भगवान श्रुतज्ञाननो संक्षेपथी समवतार कहेवाय छे, तेमा विविध प्रकारना भेदवाळा जीव अने अंजीव विस्तारथी वर्णव्या छे, वीजा Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IPM 10 ॥२२१॥ पण घणा प्रकारना विशेषो जेवा के-नारकी, तिर्यच, मनुष्य अने देवना समूहना आहार, श्वासोच्छ्वास, लेश्या, आवा- कासमवायाङ्ग समवायाङ्ग सनी संख्या, आवासनी लंबाइ विगेरेनुं प्रमाण, उत्पत्ति, च्यवन, अवगाहना, अवधिज्ञान, वेदना, भेद, उपयोग, परिचय॥ योग, इंद्रिय अने कपाय वर्णव्या छे. तथा जीवोनी विविध प्रकारनी योनि वर्णवी छे. तथा मेरु विगेरे पर्वतोना बोधं अंग विष्कम, उत्सेध अने परिधिनुं प्रमाण तथा विशेष प्रकारना विधि वर्णव्या छे. तथा कुलकर, तीर्थंकर, गणधर, समग्र भरतना अधिपति चक्रवर्तीओ, वासुदेव अने बळदेवना विशेष विधिओ वर्णव्या छे. तथा क्षेत्रोना निर्गमो ( आ सर्वे) समवायमा वर्णव्या छे. आ अने ए विगेरे वीजा पदार्थों अहीं विस्तारथी कहेवाय छे । आ समवायांगनी वाचना परित्त (संख्याती) छे यावत् ते समवाय अंगार्थकपणाए करीने चो| अंग छे. तेमां एक अध्ययन छे, एक श्रुतस्कंध छे, एक उद्देशनकाळ छे, एक समुद्देशनकाळ छे, अने एक लाख ने चुमाळीश हजार कुल पदो कहेला छे । तेना अक्षरो संख्याता छे यावत् चरणकरणनी प्ररूपणा कराय छे । ते आ प्रमाणे समवायांग कयुं ॥४॥ सूत्र-१३९ ॥ टीकार्थः-से किं तमित्यादि-हवे आ समवाय कयो छ ? सूत्रमा प्राकृतपणाने लीधे वकारनो लोप करेलो होवाथी 'समाए' एम कडं छे. समवाय एटले परिच्छेद (जाणवू-ज्ञान), तेना हेतुरूप आ ग्रंथ पण समवाय कहेवाय छे. आ समवायवडे अथवा आ समवायने विषे स्वसमय सूचवाय छे (कहेवाय छे) इत्यादि सुगम छ । तथा समवायवडे अथवा समवायने विष एक, बे, त्रण, चार विगेरे सो सुधी अथवा कोटाकोटि सुधीना केटलाक पदार्थों एटले के सर्व पदार्थो G कही न शकाय तेथी केटलाक जीवादि पदार्थोनी एक उत्तर (अधिक ) जेमां होय ते एकोतरिका कहेवाय छे अहीं प्राकृत- GR२१॥ - Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणाने लीधे 'एगोत्तरिय ' ए ठेकाणे याने बदले य इस्व थयो छे. अर्थात् एकोत्तरिका परिवृद्धि एटले वृद्धि आ समवायवडे कहेवाय छे, एम संबंध करवो. तेमां वृद्धि जे ते संख्यानी जाणवी. अहीं च शब्द छे तेनो अन्य ठेकाणे संबंध होवाथी एकोत्तरिका अने अनेकोतरिका एम जाणवू. तेमा सो सुधी एकोत्तरिका वृद्धि अने त्यारपछी अनेकोतरिका वृद्धि जाणवी. तथा द्वादशांगीरूप गणिपिटकनुं 'पल्लवग्गे त्ति'-पर्यवर्नु परिमाण एटले अभिधेयादिक तेना धर्मनी संख्या जेमके 'असंख्याता त्रस जीवो' छे इत्यादि. अहीं पर्यव शब्दने बदले पल्लव शब्द लख्यो छे ते प्राकृतने लीधे लख्यो छे. जेमके पर्यंकने बदले - पल्यंक विगेरेनी जेम. अथवा तो पल्लवनी जेवा पल्लव एटले अवयव, तेनुं प्रमाण सम्यक प्रकारे प्रतिपादन कराय छे. आ पूर्वे कहेला अर्थनो ज विस्तार करता सता कहे छे-'ठाणगसयस्स त्ति'-स्थानकशतक एटले एकथी आरंभीने सो सुधीनी संख्याना स्थानोर्नु अर्थात् ते संख्यावडे विशेषित करेला जीवादिक पदार्थोनुं परिमाण कहेवाय छ। तथा आचारादिकना भेदवडे वार प्रकारनो विस्तार छे जेनो ते द्वादशविधविस्तारवाळु श्रुतज्ञान-जिनप्रवचन, केबुं ? तो के-जगतना जीवने हितकारक तथा भगवान एटले श्रुतना अतिशयवाडं, आवा श्रुतज्ञाननो समाचार एटले दरेक स्थाने अने दरेक अंगे विविध प्रकारने कहेनार व्यवहार संक्षेपथी कहेवाय छे । हवे आ समाचार कह्या पछी जे कयुं छे ते कहेवाने माटे कहे छ-' तत्थ येत्यादि'-ते ज समवायने विषे एम संबंध जाणवो, विविध प्रकारनो भेद छ जेनो ते नानाविधप्रकारवाळा, केवी रीते ? ते कहे छे-एकेंद्रियादिक भेदे करीने पांच प्रकारना जीवो छे, ते दरेक प्रकार पण पर्याप्त अने अपर्याप्त विगेरे भेदे करीने a नानाविध छे. 'जीवाजीवा य त्ति'-जीव अने अजीव विस्तारवडे एटले मोटा वचननी रचनाए करीने वर्णव्या छे, SHO Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग परिचय ॥ समवाया पत्र॥ चोधू अंग ॥२२२॥ तथा बीजा पण घणा प्रकारना विशेपो एटले जीव अजीवना धर्मों वर्णव्या छे एम संबंध करवो. ते धर्मोने जलेशथी कहे छे-'नरयेत्यादि'-तेमां निवास अने निवासवाळानो अभेद उपचार होवाथी नरक एटले नारकी लेवा. त्यारपछी नारकी, तिर्यच, मनुष्य अने देवसमूह संबंधी आहारादिक वर्णव्या छे. ते आहारादिक आ प्रमाणे-आहार-ओजआहार विगेरे. ते आभोगथी अने अनाभोगथी थयेलो आहार अनेक प्रकारनो छे, उच्छ्वास-अणु, समय विगेरे काळना भेदवडे करीने अनेक प्रकारवाळो, लेश्या-कृष्णलेश्या विगेरे छ प्रकारनी, आवासनी संख्या-जेमके नरकावासा चोराशी लाख छ इत्यादि, आयतप्रमाण-लंबाइनुं प्रमाण, ते पण आवासमुंज होय छे, जेमके संख्याता असंख्याता योजननी लंबाइ, आना उपलक्षणथी विष्कंभ, वाहल्य अने परिधिनुं प्रमाण पण अन्यत्र जाणवू, उपपात-एक समये आटला जीवोनी अथवा आटला काळना आंतराए करीने जीवोनी उत्पत्ति थवी ते, च्यवन-एक समये आटला जीवो मरे अथवा आटला काळे मरे ते, अवगाहना -अंगुलना असंख्येय भाग विगेरे जेटलं शरीरनुं प्रमाण होय ते, अवधि(ज्ञान)-अंगुलना असंख्येय भाग जेटला क्षेत्रनुं जाणवू विगेरे, वेदना-शुभ के अशुभ स्वभाववाळी वेदना, विधान-भेद, जेमके सात प्रकारना नारकी जीवो छे इत्यादि, उपयोगआभिनिबोधिक विगेरे बार प्रकारनो छ ते, योग-पंदर प्रकारनो मन, वचन, कायानो मळीने योग कहेवाय छे ते, इंद्रियो-श्रोत्रादिक पांच, अथवा द्रव्यादिकना भेदथी वीश अथवा श्रोत्रादिकना छिद्रादिकनी अपेक्षाए आठ छे ते, अने कपाय-क्रोधादिक. पछी आहार, उच्छ्वास विगेरे सर्वनो द्वंद्व समास करवो. तेमां छेल्ला कपाय शब्दने प्रथमार्नु बहुवचन आवे तेनो लोप करवो. (आ आहारादिक सर्वे वर्णव्या छे.) तथा विविध प्रकारनी जीवनी योनि एटले ॥२२२॥ १. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IMIL जीवोनुं सचित्तादिक उत्पत्ति स्थान, तथा विष्कंभ एटले विस्तार, उत्सेध एटले ऊंचाइ, परिरय एटले परिधि, अने विधि विशेष-विधि एटले मेदो, जेमके जंबूद्वीप संबंधी धातकीखंड संबंधी, अने पुष्कराध संबंधी एवा भेदथी मेरु पर्वत त्रण प्रकारना छे, आवा प्रकारनी विधिनो विशेष एटले जंबूद्वीपनो मेरु लाख योजन ऊंचो छे, बाकीना मेरु पंचाशी हजार योजन ऊंचा छे ते, ए ज प्रमाणे वीजा पर्वतो विपे पण जाणवू, तथा कुलकर, तीर्थकर, गणधर, तथा समग्र भरतक्षेत्रना अधिपति-चक्रवर्तीओ तथा चक्रधर (वासुदेव ), हलधर (बळदेव ) ए सर्वना विधिविशेषो आश्रय कराय छे-कहेवाय छे एम संबंध करवो. तथा वर्ष एटले भरतादि क्षेत्रोना निर्गम एटले पहेलां करतां पछीनानुं अधिकपणुं, आ सर्व समवायमां एटले चोथा अंगमा वर्णव्यु छ एम संबंध करवो. हवे आ सूत्रनी हकीकतने समाप्त करता सता कहे छे-आ पूर्व कहेला पदार्थों तथा वीजा धनवात, तनुवात विगेरे पदार्थों आवा प्रकारना आ समवायने विषे विस्तारवडे समाश्रीयन्ते-आश्रय कराय छ अर्थात् अविपरीत ( यथार्थ) स्वरूप अने गुणे करीने शोभित एवा आ सर्वे पदार्थो बुद्धिवडे अंगीकार कराय छे, अथवा 'समस्यन्ते'-खोटी प्ररूपणाथकी साची प्ररूपणाने विपे स्थापन कराय छे. शेष सूत्र समाप्ति सुधीन पाठसिद्ध ( सुगम ) छे ॥ ४ ॥ सूत्र-१३९ ॥ . - हवे व्याख्याप्रज्ञप्ति नामनुं पांचमुं अंग (विवाह प्रज्ञप्ति-भगवती ) कहे छे- मू०-से किं तं वियाहे ? वियाहेणं ससमया विआहिजति परसमया विआहिज्जति ससम Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या प्रज्ञप्ति परिचय। श्री यपरसमया विआहिजंति, जीवा विआहिज्जति अजीवा विआहिज्जति जीवाजीवा विआहिज्जंति, समवायाङ्ग लोगे विआहिज्जइ अलोगे विआहिज्जइ लोगालोगे विआहिज्जइ। वियाहणं नाणाविहसुरनरिंदरायसत्र॥ रिसिविविहसंसइअपुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दवगुणखेत्तकालपज्जवपदेसपरिणामचोधु अंग जहच्छियभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाणसुनिउणोवकमविविहप्पकारपगडपयासियाणं लोगालोग॥२२॥ पयासियाणं संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं सुरवइसंपूजियाणं भवियजणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविद्धंसणाणं(ण) सुदिट्ठदीवभूयईहामतिबुद्धिवद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दसणाओ सुयत्थबहुविहप्पगारा सीसहियत्था य गुणमहत्था । वियाहस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निजुत्तीओ।सेणं अंगठ्ठयाए पंचमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अज्झयणसते दस उद्देसगसहIN स्साइं छत्तीसं वागरणसहस्साइं चउरासीई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता । संखेज्जाइं अकराई अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया ॥२२३॥ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविज्जति दंसिज्जंति निदंसिज्जति उवदं| सिज्जंति । से एवं आया से एवं णाया से एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति। IN से त्तं वियाहे ॥ ५॥ सूत्रम्-१४० ॥ - मूलार्थ:-हवे कइ ते व्याख्या (विवाहप्रज्ञप्ति-भगवती) छे ? व्याख्याने विष स्वसमय कहेवाय छे, परसमय | कहेवाय छ, स्वसमय परसमय कहेवाय छे, जीव कहेवाय छ, अजीव कहेवाय छे, जीव अजीव कहेवाय छ, लोक कहेवाय छे, अलोक कहेवाय छे, लोक अलोक कहेवाय छ । व्याख्याए करीने विविध प्रकारना देव, नरेंद्र अने राजर्पिओ के जेओ विविध प्रकारना संशयवाळा हता तेमणे पूछेला, (छत्रीश हजार प्रश्नोना उत्तर कहेवाय छे एम क्रियापदनो संबंध जाणवो) | जिनेश्वरे विस्तारथी कहेला, तथा द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काळ, पर्याय, प्रदेश, परिणाम, यथास्तिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, का प्रमाण अने सारो उपक्रम, विविध प्रकारना आ सर्ववडे जेओए (उत्तरोए) प्रगट देखाड्यो छे एवा, तथा लोका लोकने प्रकाश करनारा, तथा विस्तारवाळा ( मोटा) संसारसमुद्रने उतारवामां समर्थ एवा, तथा इंद्रोए पूजेला एवा, तथा भव्यजनरूपी प्रजाना हृदयने आनंद आपनारा एवा, तथा अज्ञान अने पापने नाश करनारा एवा, तथा सारी रीते जोयेला (निर्णय करेला) होवाथी दीवारूप अने ए ज कारण माटे ईहा, मति अने बुद्धिने वृद्धि करनारा एवा अन्यून (संपूर्ण) छत्रीश हजार व्याकरणो( उत्तरो)ने प्रकाश करवाथी अथवा प्रकाश करनारा घणा प्रकारना सूत्र अने तेना अर्थ शिष्योना Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२२४॥ हितने माटे गुणरूपी हाथवाळा कहेवाय छे। आ व्याख्यानी वाचना परित्त ( संख्याती ) छे, अनुयोगद्वार संख्याता छे, "प्रतिपत्तीओ संख्याती छे, वेष्टको संख्याता छे, श्लोको संख्याता छे, निर्युक्ति संख्याती छे. ते आ व्याख्या अंगार्थकपणाए करीने पांच अंग छे. तेमां एक श्रुतस्कंध छे, कांइक अधिक एक सो अध्ययनो छे, दश हजार उद्देशा छे, दश हजार समुद्देशा छे, छत्रीश हजार व्याकरण (उत्तर) छे, चोराशी हजार कुल पद का छे. तेमां संख्याता अक्षरो छे, अनंत गमा छे, अनंत पर्यायो छे, सो असंख्याता छे, स्थावरो अनंता छे, ते सर्वे शाश्वत छे, करेला छे, निबद्ध छे, निकाचित छे, आ सर्व जिनेश्वरोए कहेला पदार्थों कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शाय छे, उपदर्शाय छे, ते आ प्रमाणे भणनारनो आत्मा तद्रूप थाय छे, ते आ प्रमाणे जाणकार थाय छे, ते आ प्रमाणे विशेष जाणकार थाय छे, आ प्रमाणे चरणकरणनी प्ररूपणा कहैवाय छे. आ प्रमाणे व्याख्या नामनुं अंग में कछु ॥ ५ ॥ सूत्र- १४० ॥ टीकार्थ:--' से किं तं वियाहे इत्यादि ' हवे कइ आ व्याख्या ? जेने विषे अर्थों ( पदार्थों ) व्याख्यान कराय ते व्याख्या कहेवाय छे. सूत्रमां 'वियाहे' एम पुंलिगनो निर्देश कर्यो छे ते प्राकृतने लीधे कर्यो छे. 'वियाहेणं ति ' - व्याख्यावडे अथवा व्याख्याने विषे स्वसमय कहेवाय छे विगरे नव पदो सूत्रकृतांगना वर्णनमां व्याख्यान कर्या छे तेथी सुगम छे. 'वियाहेणमित्यादि ' – विविध प्रकारना देवोए, नरेंद्रीए अने राजर्षिओए विविहसंसय त्ति ' विविध प्रकारना संशय करनाराओए पूछेला एवा व्याकरणो छत्रीश हजार जोवाथी श्रुतार्थो व्याख्यान कराय छे एम पूर्वापर वाक्यनो संबंध करवो. ते व्याकरणो केवां छे ? ते कहे छे -- भगवान महावीरस्वामीए विस्तारथी व्याख्या प्रज्ञप्ति परिचय | ॥२२४॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेला, वळी केवा ? ते कहे छे-दब्वेत्यादि-विविध प्रकारना द्रव्य, गुण, विगेरेवडे जे व्याकरणोए प्रगट अर्थ देखाडयो छे एवा, तेमां द्रव्य एटले धर्मास्तिकाय विगेरे, गुण एटले ज्ञान, वर्ण विगेरे, क्षेत्र एटले आकाश, काळ एटले समय विगेरे, पर्यव एटले स्व अने पर एवा भेदे करीने जूदा जूदा धर्मों, अथवा काळे करेली नवं, जूनुं विगेरे अवस्थारूप पर्याय, प्रदेश-जेना वे भाग न थाय तेवा अवयवो, परिणाम एटले एक अवस्थाथकी बीजी अवस्थामां जq ते, यथा एटले जे प्रकारे अस्तिपणुं छे ते अस्तित्व एटले सत्ता (होवापणुं) ते यथास्तिभाव कहेवाय छे, अनुगम एटले संहिता (संधि) विगेरे व्याख्यान(अर्थ)नो प्रकार अथवा उद्देश, निर्देश, निर्गम विगेरे द्वारोनो समूह, निक्षेप एटले नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाववडे वस्तु (पदार्थ) स्थापवा ते, नयप्रमाण-तेमां नय एटले नैगमादि सात, अथवा द्रव्यास्तिक अने पर्यायास्तिकना भेदथी, अथवा ज्ञाननय अने क्रियानयना भेदथी अथवा निश्चय अने व्यवहारना भेदथी वे छे अर्थात् सात अथवा वे नयरूप. प्रमाण एटले वस्तुतत्त्वनो परिच्छेद ते नयप्रमाण कहेवाय छे, तथा सुनिपुण एटले अति सूक्ष्म अथवा सुनिपुण एटले सारी रीते निश्चित गुणवाळो उपक्रम एटले आनुपूर्वी विगेरे, आ सर्वेनुं विविध प्रकारपणुं तेमना भेदो कहेवाथी ज देखाडयुं छे. तथा केवा प्रकारनां व्याकरणो (उत्तरो) ? ते कहे छे-लोक अने अलोक प्रकाशित छे जेमां एवा, तथा 'संसारसमुद्द' विस्तारवाळा (मोटा) संसारसमुद्रना उतरवामां-तारवामां समर्थ एवा, एज कारण माटे इंद्रोए पूजेला | एटले पूछनार तथा निर्णय करनारनी इंद्रोए पूजा करवाथी अथवा सारूं कहेलु होवाथी श्लाघा करेली होवाथी पूजेला, तथा | भवियजण०-भव्य प्राणीओनी जे प्रजा एटले लोक ते भव्यजनप्रजा कहेवाय छे, अथवा भव्य एवो जनपद, तेमना Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 IN "श्री समवाया. म चोधु अंग ॥२२५॥ हृदयोवडे-चित्तोवडे अभिनंदित एटले अनुमोदना करायेला, एवो (तत्पुरुष समासनो) विग्रह करवो, तथा तमस् एटले 12 व्याख्या अज्ञान अने रजस् एटले पाप, तेने जे नाश करे ते तमोरजोविध्वंस कहेवाय छे, आ प्रमाणे अज्ञान अने पापने नाश प्रज्ञप्ति करनार एवं जे ज्ञान, ते ज्ञानवडे सारी रीते जोयेला एटले निर्णय करेला अने एज कारण माटे दीवारूप थयेला अने परिचय। तेथी करीने ज ईहा, मति अने बुद्धिने वधारनारा, तेमां ईहा एटले वितर्क, मति एटले अवाय अर्थात् निश्चय अने बुद्धि एटले औत्पत्तिकी विगेरे चार प्रकारनी, अथवा 'तमोरजोविध्वंसनानां' एटलं जुदुं पद पाठांतरे जाणचुं अने 'सुदृष्टदीपभूतानां ' ए पण जुदुं पद जाणवू, तथा 'छत्तीससहस्स०' न्यूनता रहित छत्रीश हजार पदो जेना छे तेवा, अहीं मकार वधारानो छ तथा शब्दनुं स्थापन अन्यथा प्रकारे कयु छ ( अन्यूनने पहेलो मूकवो जोइए ) ते प्राकृतपणाने लीधे दोप रहित छ एम जाणवू. 'वागरणाणं ति'-व्याकरण कराय एटले प्रश्न पूछया पछी निर्णय करनारा गुरुवडे उत्तररूपे जे कहेवाय ते व्याकरण कहेवाय छे, ते व्याकरणने प्रकाश करवाथी एटले रचना करवाथी, अथवा ते व्याकरणने देखाडनारा, कोण देखाडनार ? ते कहे छे-'सुयत्थ०'-श्रुतना विषयवाळा जे अर्थ ते श्रुतार्थ एटले कहेवा लायक अर्थविशेषो, अथवा श्रुत एटले गणधरे जिनेश्वर पासे सांभळेला जे अर्थो ते श्रुतार्थ कहेवाय छ, अथवा श्रुत एटले सूत्र अने अर्थ एटले नियुक्ति विगेरे, ते श्रुतार्थ कहेवाय छे, ते घणा प्रकारवाळा एम (कर्मधारय समासनो) विग्रह करवो. अथवा श्रुतार्थीना घणा प्रकारो एम (पष्ठी तत्पुरुष समासनो) विग्रह करवो. शा माटे आ व्याख्यान कराय छे ? ते उपर कहे छ के-शिष्योनुं हित एटले अनर्थनो नाश अने अर्थनी प्राप्तिरूप जे हित तेरूप प्रार्थना करवा लायक होवाथी अर्थ-प्रयोजन, ॥२२५॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेने माटे. ते श्रुतार्थो केवा ? ते कहे छे-'गुणहस्ताः '-अर्थनी प्राप्ति विगेरे रूप जे गुण तेज हस्त जेवो हस्त एटले प्रधान अवयव छे जेमने ते गुणहस्त कहेवाय छ (गुणमहत्था एटले गुणरूपी महा अर्थ)। 'वियाहस्सेत्यादि' अहींथी समाप्ति सुधीन सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-अहीं शत (शतक) ए अध्ययननी संज्ञा छे. आ अंगमां कुल चोराशी हजार पदो छे. अहीं समवायांगनी अपेक्षाए वमणी संख्यानो आश्रय करवानो नथी, अन्यथा जो तेने बमणी करीए तो वे लाख ने अठाशी हजारनी संख्या थाय छे. ॥५॥ सूत्र-१४०॥ हवे ज्ञाताधर्मकथा नाम, छठे अंग कहे छे-. ___ मू०--से किं तं णायाधम्मकहाओ ? णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराइं उजाणाइं चेइआई वणखंडा रायाणो ५ अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइ- I अइड्डीविसेसा १० भोगपरिच्चाया पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा १५ संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगमणाई सुकुलपच्चायायाई २० पुणबोहिलाभा अंतकिरियाओ २२ य आघविज्जति जाव नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरणजिणसामिसासणवरे संजमपइण्णापालणधिइमइववसायदुब्बलाणं १ तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभरभग्गयणि Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म समवायाङ्ग सम्र॥ चोधुं अंग कथा परिचय। ॥२२६॥ | स्सहयणिसिटाणं २ घोरपरीसहपराजियासहपारद्धरुद्धसिद्धालयमग्गनिग्गयाणं ३ विसयसुहतुच्छ आसावसदोसमुच्छियाणं ४ विराहियचरित्तनाणदसणजइगुणविविहप्पयारनिस्सारसुन्नयाणं ५ संसारअपारदुरकदुग्गइभवविविहपरंपरापवंचा । धीराण य जियपरिसहकसायसेपणधिइधणियसंजमउच्छाहनिच्छियाणं आराहियनाणदंसणचरित्तजोगानिस्सल्लसुद्धसिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसुखाइं अणोवमाइं। भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि ततो य कालकमचुयाणं जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया। चलियाण य सदेवमाणुस्सधीरकरणकारणाणि बोधणअणुसासणाणि गुणदोसदरिसणाणि। दिटुंते पञ्चय य सोऊण लोगमुणिणो जहट्ठिय सासणम्मि जरमरणनासणकरे । आराहिअसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता ओवेति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं । एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य । णायाधम्मकहासु णं परित्ता 19 वायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ। सेणं अंगट्टयाए छठे अंगे दोसुअक्खंधा एगूणवीसं अज्झयणा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-चरिता य कप्पिया य, | G ॥२२६॥ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाइं एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयासयाई, एवमेव सपुत्वावरेणं अध्धुढाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ, एगूणतीसं उद्देसणकाला एगूणतीसं समुद्देसणकाला संखजाइंपयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जंति । से तं णायाधम्मकहाओ ॥ ६॥ सूत्रम्-१४१ ॥ - मूलार्थ:-हवे कइ ते ज्ञाताधर्मकथा ? ज्ञाताधर्मकथाने विषे ज्ञाताना (श्रेणिकादिक दृष्टांतना) नगरो, उद्यानो, यक्षना चैत्यो, वनखंडो, राजाओ ५, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा (देशना), आ लोक अने परलोक संबंधी ऋद्धि विशेष १०, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या ग्रहण, शास्त्रनुं ग्रहण (अभ्यास), तपोपधान, दीक्षापर्यायनो काळ १५, संलेखना, भात -पाणीना प्रत्याख्यान, पादपोगमन, देवलोकमां जg, त्यांथी चवीने उत्तम कुळमां जन्म २०, फरीथी बोधि(समकितनी प्राप्ति २१, तथा अंतक्रिया २२, आ बावीश स्थानो कहेवाय छे, यावत् ज्ञाताधर्मकथाने विषे विनय क्रियाने करनारा जिनेश्वरना उत्तम शासनमा प्रव्रजित थयेला छतां संयम(चारित्र)नी प्रतिज्ञा पाळवामा जे धृति, मति अने व्यवसाय (उद्यम) जोइए तेने विषे दुर्बळ होय १, नियमित तप अने उपधान तपरूपी रणसंग्राम अने दुर्धर भारवडे भग्न थयेला, अत्यंत अशक्त अने भग्न शरीरवाळा होय २, घोर परीषहोवडे पराभव पामेला अने असमर्थ छता परीपहोए वश करवाने आरंमेला अने Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञाताधर्म कथा समवायाङ्ग । सत्र ॥ परिचय। पोएं अंग ॥२२७॥ मोक्षमार्गे जता रुंधेला तेथी करीनेज सिद्धालयना मार्गथी भ्रष्ट थयेला होय ३, तुच्छ विषयसुखने विपे आशाने वश थवारूप दोपवडे मूर्छा पामेला होयं ४, चारित्र, ज्ञान अने दर्शननी विराधना करनार, विविध प्रकारना साधुना गुणोने विपे निःसार अने शून्य (रहित ) होय ५, आवा साधुओने संसारने विप अपार दुःखवाळा दुर्गतिना भवोना विविध प्रकारनी परंपराना विस्तारो कहेबाय छ । तथा परीपह अने कषायरूपी सैन्यने जीतनारा, धृतिना स्वामी अने संयमने विपे निश्चे उत्साहवाळा, तथा ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना योगनी आराधना करनार अने शल्य रहित शुद्ध सिद्धालयना मार्गनी सन्मुख थयेला एवा धीर पुरुपोना अनुपम ( उपमा रहित घणा श्रेष्ठ ) देवपणे उत्पन्न थवामा जे विमानना सुख छे ते कहेवाय छे। तथा चिरकाळ सुधी ते दिव्य अने अत्यंत प्रशस्त एवा मनोहर भोगो भोगवीने पछी त्यांथी काळक्रमे च्यवेलाने जे प्रकारे फरीथी सिद्धिमार्गने पामीने अंतक्रिया (मोक्ष) प्राप्त थाय छे ते प्रकारे कहेवाय छ । तथा संयमथी चलित थयेलाने देव अने मनुष्य संबंधी धैर्य उत्पन्न करवाना कारणरूप दृष्टांतो के जे मार्गभ्रष्टने वोध करनार, अनुशासन करनार अने गुण दोपने देखाडनार छे ते कहेवाय छ । तथा दृष्टांतो अने प्रत्ययोवाळा वचनो सांभळीने लौकिक मुनिओ जे प्रकारे जन्म मरणने नाश करनार जिनशासनमा स्थिर थया, ते प्रकारे कहेवाय छे । तथा संयमनी आराधना करीने देवलोकमां जइने त्यांथी पाछा आव्या सता जे प्रकारे शाश्वत, कल्याणकारक अने सर्वदुःख रहित एवा मोक्षने पामे छ, ते प्रकारे कहेबाय छ । आd अने एवा बीजा अर्थो विस्तारथी कह्या छ । ज्ञाताधर्मकथाने विपे वाचना परित्त ( संख्याती) छे, अनुयोगद्वार संख्याता छ, यावत् संख्याती संग्रहणी छे। ते आ अंगार्थकपणाए करीने छहूं अंग कहेवाय छे. तेमां वे श्रुतस्कंधो छ, ओगणीश अध्ययनो २२७॥ ब Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALS Irel छे, ते संक्षेपथी वे प्रकारे छे. ते आ प्रमाणे-चरित (थयेल) अने कल्पित. तेमां धर्मकथाना दश वर्ग छे, तेमां एक एक धर्मकथामां पांच पांच सो आख्यायिका छे. एक एक आख्यायिकामां पांच पांच सो उपाख्यायिका छे, एक एक उपाख्यायिकामां पांच पांच सो आख्यायिकोपाख्यायिका छे, ए प्रमाणे कुल साडा त्रण करोड आख्यायिकाओ छे एम में का छे. तेमां ओगणत्रीश उद्देशन काळ छे, ओगणत्रीश समुद्देशन काळ छे, संख्याता हजार कुलपदो कहेला छे, संख्याता अक्षरो छे, यावत चरणकरणनी प्ररूपणा कही छे । ते प्रमाणे आ ज्ञाताधर्मकथा में कही ॥६॥ सूत्र-१४१॥ ___टीकार्थः-' से किं तमित्यादि '-हवे ते ज्ञाताधर्मकथा कइ छ ? ज्ञात एटले उदाहरण, ते जेमा मुख्य छे एवी जे धर्मकथा ते ज्ञाताधर्मकथा कहेवाय छे, अहीं ज्ञाता ए ठेकाणे संज्ञाने लीधे दीर्घपणुं थयुं छे, अथवा पहेलो श्रुतस्कंध ज्ञात नामनो होवाथी ज्ञात, अने बीजो श्रुतस्कंध ते ज प्रमाणे (धर्मकथा नामनो होवाथी) धर्मकथा, त्यारपछी ज्ञात अने धर्मकथा ए वेनो द्वंद्व समास करवाथी ज्ञाताधर्मकथा एवं नाम थयु. तेमां प्रथम व्युत्पत्तिना अर्थने सूत्रकार देखाडता सता कहे छे-'नायाधम्मकहासु णमित्यादि'-ज्ञाताना एटले उदाहरणरूप करेला मेघकुमारादिकना नगरादिक कहेवाय छे. तेमां नगर विगेरे वावीश पदो सुगम छे, विशेष ए के-उद्यान एटले पुष्प, पत्र, फळ अने छायावाळा वृक्षोवडे शोभित एबुं वन के जेमा विविध प्रकारना वेषने धारण करनार अने मोटा मानवाळा घणा लोको भोजनने माटे आवता होय (उजाणी करवा आवता होय) ते, चैत्य एटले व्यंतरतुं देरुं, वनखंड एटले अनेक जातिना उत्तम वृक्षोवडे शोभित एवं वन, आ सर्वे कहेवाय छ। अहीं मूळमां यावत्' शब्द लख्यो छे तेथी बीजा पांच पदो जाणवा. तेना सूत्रनो अवयव आ प्रमाणे छे-'नायाधम्मे Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२२८॥ त्यादि ' - तेमां ज्ञाताधर्मकथाने विषे 'णं' शब्द वाक्यनी भूषा माटे छे. प्रत्रजित थयेला, क्यां प्रव्रजित थयेला ? ते कहे छे- विनयक्रियाने करनारा, जिनेश्वर संबंधी अने बीजाना शासनोनी अपेक्षाए प्रधान एवा प्रवचनने विषे, अथवा आ प्रमाणे पाठांतर जाणवु - ' समणाणं विणयकरण जिणसासणंमि पवरे -' ( साधुओनो विनय करनार एवा श्रेष्ठ जिन(शाने विषे ) दीक्षित थयेला एवा, वळी ते दीक्षित थयेला केवा ? ते कहे छे - संयमने विषे जे प्रतिज्ञा एटले संयमनो जे स्वीकार ते दुःखे करीने पामी शकाय तेवो होवाथी, कायर मनुष्योने क्षोभ पमाडनार होवाथी तथा महागंभीर होवाथी पाताळनी जेवो पाताळरूप छे, ते पाताळने विषे जेमनी धृति, मति अने व्यवसाय अति दुर्लभ छे एवा, अथवा पाठांतरे संयमनी प्रतिज्ञाना पालन करवाने विषे जे धृति, मति अने व्यवसाय तेने विपे दुर्बळ एवा, तेमां धृति एटले चित्तनी स्वस्थता, मति एटले बुद्धि अने व्यवसाय एटले क्रिया करवानो उत्साह, आवा दीक्षितो १, तथा तपने विपे नियम एटले अवश्य करवाणुं ते तपोनियम एटले नियमित तप करवो ते, अने तपउपधान एटले अनियमित तप अर्थात् आगमने आश्रीने तप करवोते, आ प्रमाणे तपनियम अने तपउपधानरूपी रण एटले कायर जनोने क्षोभ पमाडनार संग्राम तथा श्रमनुं कारण होवाथी दुर्धर एवो भार एटले दुःखे करीने वहन करी शकाय तेवा लोह विगेरेनो भार, आवेवडे भग्न थयेला एटले पराङ्मुख थयेला, तथा निःसह एटले अत्यंत अशक्त, ते ज ( स्वार्थमां के प्रत्यय करवाथी ) निःसहक कहेवाय छे अने निसृष्ट एटले निसृष्टांग अर्थात् भग्न अंगवाळा ( आळसु ), अथवा पाठांतरे ' निःसहकनिविष्टाः - ( अत्यंत अशक्त सता वेसी रहेला) एवा, अहीं ' भग्गय' ए ठेकाणे प्राकृत भाषाने लीघे ककारनो लोप अने संधिनुं कर थयुं छे तेथी 'भग्ना' ज्ञाताधर्म कथा परिचय | ॥२२८॥ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादिकने विषे दीर्घपणुं जाणयु, आवा दीक्षितो २, तथा घोर परीपहोवडे पराजित थयेला अने असह एटले असमर्थ एवा सता ज परीपहोए वश करवाने आरंभेला अने मोक्षमार्गमा जता रुंधेला, ते 'घोरपरीपदपराजितासहप्रारब्धद्धाः ' कहीए, ए ज कारण माटे जे ज्ञानादिक सिद्धालयना मार्गथी निर्गत एटले पतित (भ्रष्ट ) थयेला ते अने ते उपर कहेला | मळीने ( कर्मधारय समास करवाथी) 'घोरपरीपहपराजितासहप्रारब्धरुद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानां' एवं थयुं. अथवा पाठांतरे घोर परीसहोबडे पराभव पामेला एवा दीक्षितो (एम पष्टी विभक्ति जुदी राखवी) तथा सह एटले एकी साथे ज विशिष्ट प्रकारनी गुणश्रेणि उपर चड़ता थका परीपहोवडे प्ररुद्धरुद्ध एटले जेओ अत्यंत रुंधाया सता सिद्धालियना मार्गथी पतित थयेला ते 'सहप्रमद्धसिद्धालयमार्गनिर्गतानां' कहीए, आवा दीक्षितो ३, तथा स्वरूप (स्वभाव) थी ज तुच्छ एवा विषयसुखने विपे आशावशना दोपे करीने एटले मनोरथोनी परतंत्रतारूप निर्गुणपणाए करीने (दोपे NI करीने) जेओ मूर्छित थयेला एटले आग्रहवाका थयेला ते 'चिपयसूखतच्छाशावशदोपमर्छित' तरे-कोइ पण अवस्थामां विषयसुखने विपे जे महेच्छा-मोटी इच्छा अने बीजी कोइ अवस्थामा जे तुच्छ आशा ते वेना पारतंत्र्यरूप दोपवडे जेओ मूर्छित थया होय ते 'विपयसुखमहेच्छातुच्छाशावशदोपमूर्छितानां' कहीए, आवा दीक्षितो ४, तथा जेओए चारित्र, ज्ञान अने दर्शननी विराधना करी होय तेओ, तथा मृकगुण अने उत्तरगुणरूपी विविध प्रकारना साधुगुणोने विप निःसार एटले सार रहित अर्थात् पळाळ जेवा गौण (तुच्छ ) धान्य जेवा, तथा ते ज साधुगुणे करीने शून्य एटले सर्वथा रहित जे होय ते, पछी आत्रण शब्दनो कर्मधारय समास करवो, तेम करवाथी 'विराधित Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LG ज्ञाता S IN समवायाग धर्मकथा परिचय॥ चोथु अंग ॥२२९।। चारित्रज्ञानदर्शनयतिगुणविविधप्रकारनिःसारशून्यकानां' एq थयु ५, आवा पांच प्रकारना पडवाइ साधुओ, तेमने शुं थाय ? ते कहे छे-संसारने विपे अपार दुःखवाळा एटले अनंत क्लेशवाळा जे नारक, तिर्यच, कुमनुष्य अने कुदेवरूप कुगतिने विपे थता भवो-भवना ग्रहणो, तेमना जे विविध प्रकारनी परंपराना विस्तारो, ते 'संसारापारदुःखदुगतिभवविविधपरंपराप्रपश्चाः' कहीए, ते आ अंगमा कहेवाय छे एम पूर्वनी साथे संबंध करवो । तथा धीर एटले महासत्त्वाळा मनुष्यो, ते केवा ? ते कहे छे-जेओए परीपह अने कपायरूपी सैन्यने जीत्यु होय ते, तथा धृतिना एटले मननी स्वस्थताना जे धनिक-स्वामीओ ते धृतिधनिक कहीए, तथा संयमने विपे निश्चित एटले अवश्य थनारो छे उत्साह एटले वीर्य (पराक्रम) जेमनो ते 'संयमोत्साहनिश्चित' कहीए. त्यारपछी आ त्रण पदोनो कर्मधारय समास करवो. पछी तेने पष्ठीबहुवचन करवू एटले 'जितपरीषहकषायसैन्यधृतिधनिकसंयमोत्साहनिश्चितानां' आq थयु. तथा जेओए ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना योगो आराध्या होय तेओ, तथा निःशल्य एटले मिथ्यादर्शनादिक शल्य रहित अने शुद्ध एटले अतिचार रहित एवो जे सिद्धालयनो एटले मुक्तिनो मार्ग, तेनी सन्मुख जे थयेला होय तेओ, पछी वे पदनो कर्मधारय समास करी पष्ठीनुं बहुवचन करवाथी 'आराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगनिःशल्यशुद्धसिद्धालयमार्गाभिमुखानां' एवं थयु. आवा सारा साधुओने शुं थाय ? ते कहे छे-सुरभवनने विषे एटले देवतापणे उत्पन्न थवाने विपे जे विमानना अनुपम सुखो ते 'सुरभवन विमानसौख्यानि अनुपमानि' आवा सुखो ज्ञाताधर्मकथामां कहेवाय छ एम संबंध करवो. अहीं भवन शब्दे करीने भवनपतिना भवनो कह्या नथी, केम के संयमनी विराधना रहित एवा साधुओनो आ प्रस्ताव छ ॥२२९॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेथी; कारण के आवा साधुओ भवनपतिने विपे उत्पन्न थता नथी । तथा चिरकाळ सुधी भोगभोगान् एटले मनोहर शब्दाटिक भोगोने भोगवीते. केवा भोगो ? ते को छे-दिव्य एटले स्वर्गमां उत्पन्न थयेला तथा 'महान-मोटा एटले आत्यंतिक अर्हान् एटले प्रशस्तपणाए करीने पूजवा लायक एवा भोगो भोगवीने पछी त्यांथी एटले ते देवलोकथी काळना। क्रमथी चवेला तथा वळी लब्धसिद्धिमार्ग एटले जेओ मनुष्यगतिने विपे ज्ञानादिक मोक्षमार्गने पामेला छे तेओनी जे प्रकारे अंतक्रिया एटले सिद्धि थाय छे ते प्रकारे आ अंगमा कहेवाय छे एम संबंध जाणवो । तथा चलितानां एटले कोड़पण प्रकारे कर्मना वशथी परीपहादिकने विपे धीरज नहीं रहेबाथी संयमनी प्रतिज्ञाथी भ्रष्ट थवेलाने देवसहित मनुष्य (देव अने मनुष्य) संबंधी जे धीरपणुं उत्पन्न करनारा कारणो-दृष्टांतो छे, ते आ अंगमां कहेबाय छे. अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे--जेम आर्यापाढाभूतिने देवे धीर (स्थिर) कर्या, अथवा जेम मेघकुमारने भगवान महावीरस्वामीए धीर कर्या, अथवा जेम शैलकाचार्यने पंथक साधुए धीर (स्थिर) कयों, तेम धीर करवाना कारणो ते अंगमां कहेवाय छे. केवांते कारणो? ते कहे छे--बोधनानशासनानि-बोधन एटले मार्गथी भ्रष्ट थयेलाने मार्गमां स्थापवा, अनुशासन एटले दुष्ट स्थितियाळाने सारी स्थितिनुं संपादन ( प्राप्त) करवू ते, अथवा वोधन एटले आमंत्रण (संवोधन), ते पूर्वक जे अनुशासन (उपदेश) ते बोधनानुशासन कहीए. तथा 'गुणदोपदर्शनानि'-संयमनी आराधना करवामां गुण छे अने अन्यमा (आराधना नहीं करवामां) दोष छे, ए प्रमाणेना दर्शन एटले वाक्यो आ अंगमां कहेवाय छे एम संबंध करवो। तथा दृष्टांतोने एटले ज्ञातोने अने प्रत्ययोने एटले बोधिना कारणभूत वाक्योने सांभळीने लौकिकमुनिओ शुक परिव्राजक विगेरे जे प्रकारे जरा मरणने नाश రాతన కాలం ఆగాక ఆకులు Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ aji अंग ॥२३० ॥ करनारा जिनेश्वरना शासनने विषे स्थिरताने पाम्या, ते प्रकारे आ अंगमां कहेवाय छे तेम संबंध जाणवो । तथा ' आराहितसंजम त्ति ' -- आथी ज लौकिक मुनिओ अने संयमथी चलायमान थयेला साधुओ जिनवचनने पाम्या सता (पामीने) फरीथी संयमनुं पालन करीने सुरलोकमां जइने त्यारपछी ते सुरलोकथी पाछा आव्या सता जे प्रकारे शाश्वत - सदाकाळ रहेनार अने शिव-बाधा रहित एवा सर्व दुःखना मोक्षने एटले निर्वाणने पामे छे, ते सर्व आ अंगमां कहेवाय छे। आ उपर का ते अने बीजापण एने आदि लइने, अहीं आदि शब्दनो प्रकार अर्थ होवाथी एवा प्रकारना अर्थों एटले पदार्थो विस्तारवडे अने च शब्द छे तेथी कोइक ठेकाणे कोइक पदार्थों संक्षेपे करीने अहीं कहेवाय छे एम क्रियापदनो संबंध करवो । नायाधम्मकहासु णं ' - इत्यादि सूत्र समाप्ति पर्यंत सुगम छे. तेमां विशेष आ प्रमाणे छे-' एकूणची समज्झयण त्ति ' - पहेला श्रुतस्कंधमां ओगणीश अध्ययनो छे, तथा बीजा श्रुतस्कंधमां दश अध्ययनो छे. तथा ' दस धम्मकहाणं वरगा--' आ सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छे--अहीं ओगणीश ज्ञाताना अध्ययनो छे. केम के दाष्टांतिक अर्थने जणावनार रूप जे ज्ञात, तेमां तेनुं प्रतिपादन करेलुं छे तेथी ते ओगणीश अध्ययनो पहेला श्रुतस्कंधमां छे अने चीजा श्रुतस्कंधमां तो अहिंसादिक लक्षणवाळा धर्मनी कथा ते धर्मकथा एटले आख्यानको कहेला छे, ए आनो भावार्थ छे. ते धर्मकथाना दश वर्गों छे. अहीं वर्ग एटले समूह एवो अर्थ छे. तेथी करीने अर्थाधिकारना समूहरूप अध्ययनो ज दश वर्गरूप जाणवा. तेमां • ज्ञातने विषे पहेला जे दश अध्ययनो छे ते ज्ञात ज कहेवाय छे. तेमने विपे आख्यायादिकनो संभव नथी. बाकीना नव अध्ययनो छे, तेमां एक एक अध्ययनमां पांच सो चाळीश पांच सो चाळीश आख्यायिका छे. तेमां पण एक एक आख्या ज्ञाता धर्मकथा परिचय ॥ ॥२३०॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यिकामां पांच सो पांच सो उपाख्यायिका छे. तेमां पंण एक एक उपाख्यायिकामां पांच सो पांच सो आख्यायिकोपाख्यायिका छे. ए प्रमाणे आ सर्वने एकठा करीए त्यारे केटला थाय ? ते कहे छे - " एक सो ने एकवीश करोड तथा पचास लाख थाय. आ प्रमाणे नव अध्ययन संबंधी विस्तार कह्या पछी अधिकृत सूत्रनो ( धर्मकथानो ) विस्तार जाणवो. " ते आ प्रमाणे -- धर्मकथाना दश वर्ग छे, तेमां एक एक धर्मकथाने विषे पांच सो पांच सो आख्यायिका छे, एक एक आख्यायिकामां पांच सो पांच सो उपाख्यायिका छे, अने एक एक उपाख्यायिकामां पांच सो पांच सो आख्यायिकोपाख्यायिका छे." आ सर्वने एकठा करीये त्यारे शुं थाय ? ते कहे छे -- " एक सो पचीश करोड थाय छे. अहीं जे कारण माटे समलक्षणवाळा छे, ते कारणमाटे नव ज्ञाताना संबंधवाळी आख्यायिका विगेरे जे (एक सो ने साडी एकवीश करोड ) कही छे ते आ मोटी राशिमांथी स्फुट रीते शोधवी - चाद करवी. तेथी पुनरुक्ति रहित आ आख्यायिकाओनुं प्रमाण कहेलुं छे.” ते प्रमाणे आ राशि बाद करे सते साडाण करोड ज कथानको थाय छे. तेथी करीने मूळ सूत्रमां कयुं छे के --' एवमेव सपुत्र्वावरेणं ति ' -- ए ज प्रमाणे एटले कला प्रकारवडे गुणाकार अने बादबाकी करे सते ' अध्धुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवतीति मक्खाओ त्ति " -- आख्यायिका एटले कथानको एता एटले आटली (साडा त्रण करोड ) संख्यावाळी थाय छे. एम भगवान महावीरस्वामीए कह्युं छे'। तथा आ अंगमां संख्याता हजार पदो छे. एटले के पांच लाख ने सीतोतेर हजार कुल पदो छे. अथवा सूत्रालापका कुल पदोए करीने संख्याता हजार ज पदो छे एम सर्वत्र जाणी लेबुं || ६ || सूत्र - १४१ ॥ १ नव अध्ययनो अने दश वर्गनी मळीने तो एक सो पचीश करोड आख्यायिका समजवी. डी.ए Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक दशा परिचय॥ समाया पोधु अंग १॥२३१॥ ... हवे उपासकदशा नामर्नु सात अंग कहे छे__ मू०-से किं तं उवासगदसाओ ? उवासगदसासु णं उवासयाणं णगराइं उजाणाई चेइआई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइद्विविसेसा उवासयाणं सीलवयवेरमणगुणपञ्चक्खाणपोसहोववासपडिवज्जणयाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणा पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाइं सुकुलपञ्चायाया पुणो बोहिलाभा अंतकिरियाओ आघविज्जति । उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्विविसेसा परिसा वित्थरधम्मसवणाणि बोहिलाभअभिगमसम्मत्तविसुद्धया थिरत्तं मूलगुणउत्तरगुणाइयारा ठिईविसेसा य बहुविसेसा पडिमाभिग्गहग्गहणपालणा उवसग्गाहियासणा णिरु वसग्गा य तवा य विचित्ता सीलवयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासा अपच्छिममारणतिया य संलेहणाझोसियाहिं अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तमेसु जह अणुभवंति सुरवरविमाणवरपोंडरीएसु सोक्खाइं अणोवमाइं कमेण भुत्तूण ॥२३१॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तमाई तओ आउक्खणं चुया समाणा जह जिणमयंमि बोहिं लध्धूण य संजमुत्तमं तमरयोधविमुक्ा उवेंति ह अक्खयं सवदुक्खमोक्खं । एते अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण य । उवासयदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ । से णं अंग सत्तमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समुद्दे सणकाला संखेजाइं पयस्यसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता । संखेजाइं अक्खराइं जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघ विनंति । से तं उवासगदसाओ ॥ ७ ॥ सूत्रम् - १४२ ॥ मूलार्थ:- ते उपासकदशा केवी छे ? उपासकदशाने विषे श्रावकोना नगरो, उद्यानो, यक्षना चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, मातापिताओ, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आ लोक अने परलोक संबंधी ऋद्धिविशेष कहेवाय छे, तथा श्रावकोना शीलत्रत, विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास, ए सर्वनी प्रतिपत्ति एटले अंगीकार, तथा श्रुतनुं ग्रहण, तपोपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, संलेखना, भातपाणीना प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकमां जयुं, त्यांथी चवीने उत्तम कुळमां जन्म पामवो, फरीथी वोधिनो लाभ अने अंतक्रिया ए सर्व कहेवाय छे. उपासकदशाने विषे श्रावकोनी ऋद्धिविशेष, पर्पदा, विस्तारथी धर्मनुं श्रवण, बोधिलाभ, अभिगम, सम्यक्त्वनी शुद्धता, स्थिरपणुं, मूळगुण अने उत्तरगुणना अतिचार, स्थिति Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासक दशा परिचय॥ विशेष, घणा प्रकारनी प्रतिमा, अभिग्रहनुं ग्रहण, तेनुं पालन, उपसर्ग सहन करवा, निरुपसर्ग, विचित्र तप, शीलवत, गुण, समवायाङ्ग विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास, छेल्ली मरणांतिक संलेखनाना सेवनवडे पोताना आत्माने यथाप्रकारे भावीने घणा भोजनने सूत्र॥ अनशनवडे छेदीने (त्याग करीने) उत्तम देवलोकने विपे उत्पन्न थया सता जे प्रकारे श्रेष्ठ देवोना उत्तम विमानोने विषे चोधुं अंग। अनुपम उत्तम सुखने क्रमवडे भोगवीने त्यारपछी आयुष्यने क्षये चव्या सता जे प्रमाणे जिनमतने विषे बोधिने पामीने उत्तम चारित्रने पामीने अज्ञान अने पापना समूहथी मुक्त थया सता जे प्रकारे अक्षय अने सर्व दुःखथी रहित एवा मोक्षने पामे ॥२३२॥ छे, आ अने एवा बीजा पदार्थों आ अंगमा विस्तारथी कहेवाय छे. उपासकदशाने विपे वाचना परित्त छ, संख्याता अनुयोग द्वार छे, यावत् संख्याती संग्रहणी छे, ते आ अंगार्थकपणाए करीने सातमुंअंग छे, तेमां एक श्रुतस्कंध छे, दश अध्य. यनो छे, दश उद्देशनकाळ छे, दश समुद्देशन काळ छे, कुल संख्याता हजार पदो कहेला छे, संख्याता अक्षरो छे, यावत् आ प्रमाणे चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छे. । ते आ उपासकदशा में कही ॥७॥ सूत्र-१४२॥ ... टीकार्थ:--' से किं तमित्यादि-हवे कइ ते उपासक दशा छ ? उपासक एटले श्रावको, तेमा रहेली क्रियाना समूहने प्रतिपादन करनार दशा एटले दश अध्ययनवडे जणाती ते उपासकदशा कहेवाय छे. ते माटे कहे छे के-'उपासकदसासु णं'-उपासकदशाने विपे श्रावकोनां नगरो, उद्यानो, चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आ लोक परलोक संबंधी ऋद्धिविशेषो, तथा उपासको( श्रावको )ना शीलवत Ko एटले अणुव्रतो, विरमण एटले रागादिकनी विरति, गुण एटले गुणवतो, प्रत्याख्यान एटले नवकारसहित (नमुकारसही) ॥२३२।। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगेरे, पौषध एटले अष्टमी विगेरे पर्वतिथि तेने विष उपवसन एटले आहार, शरीरसत्कार विगेरेनो जे त्याग धोपवास कहीए. त्यारपछी ( शीलवतथी पौषधोपवास सुधी) द्वंद्व समास करी ते सर्वेनी प्रतिपादनता II एटले प्रतिपत्ति-स्वीकार एम (षष्ठीतत्पुरुष समासनो) विग्रह करवो. श्रुतपरिग्रह अने तपउपधाननो अर्थ प्रसिद्ध छे, 'पडिमा ओ त्ति'-श्रावकनी अग्यार प्रतिमा अथवा कायोत्सर्ग, उपसर्गो एटले देवादिकना करेला उपद्रवो, संलेखना, भक्तपानना प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकमां जवू, त्यांथी सारा कुळमां आववं, फरीथी वोधिनी प्राप्ति अने अंतक्रिया ए सर्व आ N अंगमां कहेवाय छे. प्रथम कहेलाने ज हजु विशेपे करीने कहे छे-'उवासगेत्यादि'-तेमां ऋद्धिविशेष एटले अनेक करोड संख्यावाळा द्रव्यादिक संपत्तिविशेष, तथा परिषद् एटले परिवारविशेप, जेम के माता, पिता, पुत्र विगेरे आभ्यंतर परिषद् ( परिवार ) अने दासी, दास, मित्र, विगेरे वाह्य परिषद्, तथा महावीरस्वामीनी पासे विस्तारथी धर्मनुं श्रवण, तेना थकी बोधिनो लाभ, अभिगम, सम्यक्त्वनी शुद्धता, स्थिरपणुं एटले पण सम्यक्त्वनी शुद्धता ज, मूळगुण उत्तरगुण एटले अणुव्रत विगेरे, अतिचार एटले ते व्रतर्नु ज वधबंधादिकवडे खंडन, स्थितिविशेप एटले उपासक( श्रावक)ना पर्यायन काळमान, बहु विशेष एटले घणा भेदवाळी प्रतिमाओ एटले सम्यग्दर्शनादिक प्रतिमाओ, अभिग्रहोनुं ग्रहण अने तेमनुं ज पालन करवु, उपसगों सहन करवा, उपसगे रहितपणुं, विचित्र प्रकारना तप, शीलवत विगेरेनो अर्थ उपर कही गया प्रमाणे | जाणवो. तथा अपश्चिम एटले पाछली उम्मरमां थनारी-छेवटने काळे थनारी. अहीं 'अ' एवो अक्षर अमंगळने दूर करवा माटे कर्यो छे, तथा मरणरूप अंतने विपे जे थयेली ते मारणांतिकी कहीए, तथा आत्मानी एटले शरीरनी अने जीवनी Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकशा परिचय॥ समनायासमास की संलेखना एटले तपवडे अने रागादिकना जयवडे कृशता करवी ते आत्मसंलेखना कहीए, पछी आ त्रण पदनो कर्मधारय समास करी तेने पष्ठी विभक्तिनुं बहुवचन करवू, तेनी जोपणा एटले सेवा अर्थात् कारण ते वडे आत्माने भावीने तथा अनशनवडे करीने एटले भोजनरहितपणाए करीने घणा भातपाणीनो विच्छेद करीने मरण पामी उत्पन्न थया, क्यांश चो, अंग उत्पन्न थया ? ते कहे छे--श्रेष्ठ कल्पने विषे जे उत्तम विमानो तेने विपे उत्पन्न थया, तथा श्रेष्ठ पुंडरीक(कमळ)नी जेवा देवना जे उत्तम विमानो तेने विपे जे प्रमाणे अनुपम सुखोने अनुभवे छे, ते उत्तम सुखोने अनुक्रमे भोगवीने त्यारपछी ॥२३३शा आयुष्यने क्षये चव्या सता जे प्रमाणे जिनमतने विपे बोधिने पामीने अने उत्तम प्रधान संयमने पामीने तम-अज्ञान अने । रज-कर्म तेना ओघ-प्रवाहबडे मुक्त ( रहित ) थया सता जे प्रकारे अक्षय-पुनरावृत्ति रहित सर्व दुःखना मोक्षने-कर्मक्षयने पामे छे, ते प्रकारे उपासकदशाने विपे कहेवाय छे एम संबंध करतो. आ अने बीजा इत्यादिनो अर्थ पूर्वनी जेम जाणवो. विशेष ए के-कुल संख्याता लाख पदो छे एटले के अग्यार लाख अने बावन हजार पदो छ ॥७॥ सूत्र-१४२ ॥ हवे अंतकृदशा नामर्नु आठमुं अंग कहे छे मू०-से किं तं अंतगडदुसाओ ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराइं उज्जाणाई चेइयाइं वणाइं राया अम्मापियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा Lal भोगपरिच्चाया पवजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई. पडिमाओ बहुविहाओ खमा अज्जवं मद्दवं च ॥२३३॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोअं च सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचणया तवो चियाओ समिइगुत्तीओ चेव तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउबिहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं पायोवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोघविप्पमुक्को मोक्खसुहमणुत्तरं च पत्ता । एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थारेणं परवेई । अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा जाब संखेजाओ संगहणीओ, जाव से णं अंगठ्ठयाए अट्ठमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उद्देसणकाला दस लमुद्देसणकाला संखेज्जाइं पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेज्जा अक्खरा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । से त्तं अंतगडदसाओ ॥ ८॥ सूत्रम्-१४३ ॥ ... मूलार्थः-हवे ते अंतकृद्दशा कई छे ? अंतकृद्दशाने विपे संसारनो अंत करनारना (तीर्थंकरादिकना) नगरो, उद्यानो, चैत्यो, वनो, राजाओ, माता पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आलोक परलोक संबंधी समृद्धिविशेष, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या, श्रुतनुं ग्रहण, तपोपधान, बहु प्रकारनी प्रतिमा, क्षमा, आर्जव, मार्दव, शौच, सत्य, सत्तर प्रकारनो संयम, उत्तम Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकृद्दशा परिचय ।। ब्रह्मचर्य, अकिंचनता (परिग्रह रहितपणुं), तप, त्याग, समिति, गुप्ति, तथा अप्रमादनो योग, उत्तम एवा स्वाध्याय अने समवायाङ्ग ध्यान ए बन्नेनां लक्षणो, तथा उत्तम संयमने पामेला अने परीषहोने जीतनाराने चार प्रकारना कर्मनो क्षय थये सते जे एन॥ प्रकारे केवळज्ञाननी प्राप्ति अने जे प्रकारे जेटलो पर्याय मुनिओए पाळ्यो, तथा पादपोपगमने पामेलो जे मुनिवर जे चोधु अंग। स्थाने जेटला भक्तपानने छेदीने अंतकृत अने अज्ञान तथा कर्मना समूहथी मुक्त (रहित ) थया, तथा ते अनुत्तर मोक्षसुखने पाम्या । आ अने एवा वीजा अर्थों अहीं विस्तारवडे प्ररूपाय छे । अंतकृतदशाने विपे वाचना परित्त छ, ॥२३४॥ अनुयोग द्वार संख्याता छे, यावत् संख्याती संग्रहणी छे, यावत् ते आ अंगार्थकपणाए करीने आठमुं अंग छ । आ अंगमां एक श्रुतस्कंध छ, दश अध्ययनो छे, दश वर्ग छे, दश उद्देशनकाळ छे, दश समुद्देशनकाळ छे, कुल संख्याता हजार पदो कह्या छ, संख्याता अक्षरो छे, यावत् आ प्रमाणे चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छ । ते आ प्रमाणे में अंतकृतदशा कही ॥८॥ सूत्र-१४३ ॥ टीकार्थः-'से किं तमित्यादि'--हवे कइ ते अंतकृद्दशा छ ? तेमां अंत एटले विनाश, ते कर्मनो अथवा कर्मना फळरूप संसारनो जेमणे विनाश कयों छे ते अंतकृत एटले 'तीर्थकरादिक कहेवाय छे, तेना प्रथम वर्गमां दश अध्ययनो छे, तेथी ते संख्याने लइने अंतकृतदशा कहेवाय छे । ते ज कहे छे--'अंतगडदसासु णं' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष १ यौगिक अर्थ लेवाथी तीर्थकरादिक पण अंतकृत् कही शकाय छे, परंतु अंतकृत् सूत्रमा तो भवप्रांते केवळी थइने मोक्षे । गया तेना ज अधिकार छे. . ॥२३४॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एके- नगर विगेरे चौद पदो छठा अंगना वर्णनमां कह्या ते ज छे, तथा 'पडिमाओ त्ति ' - बार भिक्षुनी प्रतिमा एक मासनी इत्यादि घृणा प्रकारनी छे, तथा क्षमा, मार्दव, आर्जव अने सत्य सहित शौच ( शौच अने सत्य ), तेमां शौच एटले परधननो अपहार करवाथी थती मलिनतानो अभाव, सत्तर प्रकारनो संयम, मैथुननी विरतिरूप उत्तम ब्रह्मचर्य, 'आकिंचणिय त्ति' - अकिंचनपणुं ( परिग्रह रहितपणुं ), तप, त्याग एटले आगममां कहेलुं दान, समिति अने गुप्ति, तथा अप्रमादयोग, उत्तम एवा स्वाध्याय अने ध्यान ए बन्नेनां लक्षण एटले स्वरूप, तेमां 'स्वाध्याय करवाथी प्रशस्त ध्यान थाय छे' ए स्वाध्यायनुं लक्षण छे अने 'एक अंतर्मुहूर्त्त सुधी एक वस्तुने विषे जे चित्तने स्थापन करवुं ते ध्यान कहेवाय छे' ए ध्याननुं लक्षण छे. इत्यादि पदार्थों आ अंगमां व्याख्यान कराय छे ( कहेवाय छे ) एम सर्वत्र संबंध करवो । तथा उत्तम संयमने एटले सर्वविरतिने पामेला तथा जेओए परींषहो जीत्या छे तेओने चार प्रकारना घातिकर्मनो क्षय थये सते जे प्रकारे केवळज्ञाननो लाभ थाय छे, तथा जेटलो एटले जेटला वर्षादिकना प्रमाणवाको प्रव्रज्यारूप पर्याय जे तपोविशेपना आश्रयादिक प्रकारे करीने मुनिओए पाळ्यो होय छे, तथा पादपोपगमन नामना अनशनने पामेला जे मुनि जे स्थान - एटले शत्रुंजय पर्वतादिकने विषे जेटला भक्तने एटले भोजनने छेदीने, केम के अनशनवाळाने हमेशां वे भक्तनो विच्छेद - थाय छे. तेथी तेटला भक्तने छेदीने अज्ञान अने कर्मना समूहथी मूकायेला मुनिवर अंतकृत थया छे, ते प्रकारे सर्वे क्षेत्र - • कालादिकना विशेषणवाळा मुनिओ अनुत्तर मोक्षसुखने पाम्या छे, ते सर्व आ अंगमां कहेवाय छे एम क्रियापदनो संबंध करवो । आ अने बीजा पदार्थो इत्यादिक सूत्रनो अर्थ पूर्वनी जेम करवो. विशेष ए के अहीं जे दश अध्ययनो कह्यां ते Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग बो, अंग ॥२३५॥ प्रथम वर्गनी अपेक्षाए ज घटी शके छे. केमके नंदीमां पण तेजप्रमाणे कयुं छे तेथी. वळी अहीं जे सात वर्ग कह्या ते प्रथम वर्गने अनुत्तरोपछोडीने अन्य वर्गनी अपेक्षाए कह्या छे केम के अहीं आठ वर्ग छे. (ते दरेक वर्गमा १०-१०-१३-१०-१०-१६-१३-१० कुल ९२ IN पातिक अध्ययनो छे.) नंदीमां पण ते जप्रमाणे कयुं छे. तेनी वृत्ति (टीका) आप्रमाणे छे-'अट्ट बग्गत्ति'-अहीं वर्ग एटले समूह परिचय। जाणवो. ते समूह अंतकृतोनो अथवा अध्ययनोनोजाणवो. ते सर्व एक वर्गमा रहेलाएकी साथे उद्देशाय छे, तेथी करीने का के'अट्ठ उद्देसणकाला' (आठ उद्देशनना काळ छे) इत्यादि. अहीं मूळ सूत्रमा दश उद्देशनना काळ छे एमजे कयु छ तेनो अभिप्राय अमे जाणता नथी। तथा कुल संख्याता लाख पदो छे, ते त्रेवीश लाख ने चाळीश हजार छ एम जाणवू ॥८॥ सूत्र-१४३ ॥ हवे अनुत्तरोपपातिकदशा नामर्नु नवमुं अंग कहे छे... मू०-से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ? अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं lal नगराइं उज्जाणाइं चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोगपरलोगइविविसेसा भोगपरिचाया पवजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपाणपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाइं अणुत्तरोववाओ सुकुलपञ्चायाया पुणो । बोहिलाभो अंतकिरियाओ य आघविजंति । अणुत्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइं पर- ॥२३५॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल्लजगहियाणि जिणातिसेसा य बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिरजसाणं परिसहसेण्णरिउबलपमद्दणाणं तवदित्तचरित्तणाणसम्मत्तसारविविहप्पगारवित्थरपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं । जह य जगहियं भगवओ जारिसा इड्डिविसेसा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउब्भावा य जिणसमीवं जह य उवासंति जिणवरं जह य परिकहति धम्मं लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुहो गयमहियभासिया जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लभ्रूण य समाहिमुत्तमज्झाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ | विसयसोक्खं तओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा य अंतकिरियं एए अन्ने य एवमाइ अत्था वित्थरेण । अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जाओ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२३६॥ संग्रहणीओ। सेणं अंगाए नवमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा तिन्नि बग्गा दस उद्दे काला दस समुद्देणकाला संखेज्जाई पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता । संखेजाणि अक्खराणि जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविनंति । से त्तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ॥ ९ ॥ सूत्रम् - १४४॥ मूलार्थः - हवे ते अनुत्तरोपपातिकदशा कइ छे ? अनुत्तरोपपातिकदशाने विषे अनुत्तर विमानमां उत्पन्न थनाराना नगरो, उद्यानो, चैत्यो, वनखंडो, राजाओ, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आलोक अने परलोकनी समृद्धि • विशेष, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या, श्रुतनुं ग्रहण, तपोपधान, परित्याग, प्रतिमा, संलेखना, भक्तपानना प्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अनुत्तर विमानमां उत्पत्ति, सारा कुळमां जन्म, फरीथी वोधिनो लाभ अने अंतक्रिया, ए सर्व कहेवाय छे। अनुतरोपपातिकदशाने विपे तीर्थकरना समवसरण के जे परम मंगळपणाए करीने जगतने हितकारक छे ते, घणा प्रकारना जिनेश्वरना अतिशयो, तथा जिनेश्वरना शिष्यों के जेओ साधुना समूहने विषे श्रेष्ठ गंधहस्ती समान छे, जेओ स्थिर यश. चाळा छे, जेओ परीपहना समूहरूपी शत्रुना सैन्यनुं मर्दन करनारा छे, जेओ तपवडे देदीप्यमान एवा चारित्र, ज्ञान अने सम्यक्त्ववडे सारभूत, विविध प्रकारना विस्तारवाळा अने प्रशस्त गुणे करीने सहित छै, तथा जेओ अनगार सता महर्षिओ छें, तथा जेओ उत्तम छे, श्रेष्ठ तपवाळा छे, अने विशेष प्रकारना ज्ञानयोगे करीने युक्त छे, तेवा अनगारना गुणोनुं वर्णन अहीं कहेवाय छे। तथा जेम भगवान महावीरस्वामीनुं शासन जगतने हितकर्ता छे, देव, असुर अने मनुष्योना जेवा अनुत्तरोपपातिक परिचय | ॥२३६॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jall प्रकारना ऋद्धिविशेषो छे, जिनेश्वरनी समीपे जेवी रीते पर्षदातुं प्रगट थर्बु छे, तेओ जेवी रीते जिनेश्वरनी उपासना करे | छे, जेवी रीते जगद्गुरु अमर, नर अने असुरना समूहनी पासे धर्मने कहे छे, ते भगवाननुं भाषित सांभळीने अवशिष्ट कर्मवाळा अने विषयथी विरक्त थयेला मनुष्यो घणा प्रकारना संयम अने तपरूपी उदार धर्मने जे रीते पामे छे, तथा जे रीते घणा वर्ष सुधी तप संयमर्नु सेवन करीने ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना योगने आराधन करनारा, संबंधवाळा अने पूजित एवा जिनवचनने कहेनारा, जिनेश्वरोने हृदयवडे ध्यान करीने जेओ जे ठेकाणे जेटला भक्तपानने छेदीने अने उत्तम समाधिने पामीने उत्तम ध्यानयोगवडे युक्त थयेला एवा उत्तम मुनिवरो जे प्रकारे अनुत्तर देवलोकने विषे उत्पन्न थाय छे अने. त्यां अनुत्तर एवा विषयसुखने पामे छे अने त्यांथी चव्या सता अनुक्रमे संयमवाळा थया सता जे प्रकारे अंतक्रियाने करशे, ए सर्व आ अंगने विष कहेवाय छे. आ अने वीजा एवा प्रकारना पदार्थों विस्तारथी कहेवाय छे । अनुत्तरोपपाति| कदशाने विषे संख्याती वाचना, संख्याता अनुयोगद्वार अने संख्याती संग्रहणी छे. ते आ अंगार्थकपणाए करीने नवमुं | अंग छे. तेमां एक श्रुतस्कंध, दश अध्ययनो, त्रण वर्ग, दश उद्देशनकाळ, दश समुद्देशनकाळ छे, तथा कुल संख्याता लाख | पदो कहेला छे, संख्याता अक्षरो यावत् ए प्रमाणे चरणकरणनी प्ररूपणा कहेली छे । ते आ प्रमाणे अनुत्तरोपपातिकदशा | में कही छे ॥ ९ ॥ सूत्र-१४४ ॥ टीकार्थः--'से किं तमित्यादि' जेनाथी कोइ पण उत्तर नथी ते अनुत्तर, तथा उपपात एटले जन्म, | संसारमा तेवा प्रकारना अन्यनो अभाव होवाथी अनुत्तर एटले प्रधान के जन्म जेनो तेज अनुत्तरोपपातिक कहेवाय TIS Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवापाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२३७॥ छे, तेनी वक्तव्यताए करीने सरित जे दश अध्ययनोवाळी दशा ते अनुत्तरोपपातिकदशा कहेवाय छे । ते कहे छे-'अणुत्तरोववाइयदसासु णमित्यादि ' - तेमां अनुत्तरोपपातिकोना एटले साधुओना नगरो विगेरे बाबीश पदो ज्ञाता'धर्मकथाना वर्णन या प्रमाणे जाणवा. तेना ज विस्तारने करता सता कहे छे- अनुत्तरोपपातिकदशाने विषे तीर्थकरना समवसरणो कहेवाय छे, ते केवा छे ? ते कहे छे अत्यंत मांगलिकपणाए करीने जगतने हित करनारा छे. तथा घणा प्रकारना जिनेश्वरना अतिशयो जेवा के निर्मळ अने सुगंधी शरीर विगेरे चोत्रीश अथवा तेथी अधिक अतिशयो कहेवाय छे. तथा गणधर विगेरे जिनेश्वरना शिष्योनुं गुणवर्णन कहेवाय छे, ते शिष्यो केवा ? ते कहे छे - साधुओना समूहने विपे श्रेष्ठ गंधहस्ती समान एटले उत्तम श्रमणो, तथा स्थिर यशवाळा, तथा परीपहसैन्यरूपी एटले परीपहना समूहरूपी जे रिपुवळशत्रुनुं सैन्य तेने मर्दन करनारा, तथा दववत् एटले दावानळनी जेम दीप्त एटले उज्ज्वळ अथवा पाठांतरे तपवडे देदीप्यमानउज्वळ एवा जे चारित्र, ज्ञान अने सम्यक्त्व तेवडे सार-सफळ विविधप्रकार विस्तार - अनेक प्रकारना प्रपंचवाळा अने प्रशस्त एवा जे क्षमादिक गुणो तेणे करीने सहित, कोइ ठेकाणे गुणध्वज ( गुणरूपी ध्वजावाळा ) एवो पाठ छे, तथा अनगार एवा सता जे महर्षिओ ते अनगारमहर्षि कहेवाय छे तेवा अनगारना गुणोनुं वर्णन - श्लाघा कराय छे एम संबंध करवो. ळी ते जिनेश्वरना शिष्यो केवा ? ते कहे छे-जाति विगेरेवडे उत्तम एवा सता श्रेष्ठ तपवाळा अने विशेष प्रकारना ज्ञानयोगे करीने सहित (एवाना गुणोनुं वर्णनकराय छे ) । वळी बीजुं शुं कहेवाय छे ? ते कहे छे-जे प्रकारे जगतने हित. कारक भगवाननुं - जिनेश्वरनुं शासन छे, शासन शब्द अध्याहार छे. तथा देव, असुर अने मनुष्योना जेवा ऋद्धि-विशेषो अनुचरोपपातिक परिचय ॥ ॥२३७॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जेवा के - रत्नोवडे उज्वळ लक्ष योजन प्रमाण विमाननी रचना, सामानिक विगेरे देव देवीनी अनेक कोटिनो समूह, मणिना समूहवडे शोभित लांबा दंड उपर फरकती नानी पताकाओना सेंकडाओथी शोभता महाध्वज ( इंद्रध्वज ) नुं आगळ चालवं, अने विविध प्रकारना वाजित्रोना नादवडे आकाशनो विस्तार भरी देवो विगेरे, तथा प्रतिकल्पित गंधहस्तीना स्कंध उपर चढवुं, चतुरंगी सेनानो परिवार अने छत्र, चामर, महाध्वज विगेरे महाराजाओना चिह्ननुं देखाडवु, आ विगेरे संपत्तिना विशेष समवसरणni जवानी प्रवृत्तिवाळा वैमानिक, ज्योतिषी, भवनपति, व्यंतर अने राजादिक मनुष्योना होय छे, अथवा तो अनुत्तर विमानमा जे साधुओ उत्पन्न थवाना होय तेमने पण आवा प्रकारना देवादिक संबंधी ऋद्धिविशेषो होय छे, ते आ सर्व आ अंगमां कहेवाय छे एम क्रियापदनो संबंध करवो । तथा पर्षदा एटले साधुओ, वैमानिक देवीओ अने साध्वीओ पूर्वद्वावडे प्रवेश करीने श्रीमहावीरस्वामीने ( प्रदक्षिणा दइने ) विगेरे कह्या प्रमाणे ( बार प्रकारनी) पर्षदानो प्रादुर्भाव एटले आगमन थाय छे. क्यां १ ते कहे छे - जिनेश्वरनी समीपे, तथा जे प्रकारे एटले पांच प्रकारना अभिगमादिवडे राजा विगेरे जिनेश्वरनी सेवा करे छे ते प्रकारे आ अंगमां कहेवाय छे एम संबंध जाणवो। तथा जे प्रकारे लोक'गुरु एटले जिनेश्वर देव, मनुष्य अने असुरना समूहने धर्म कहे छे, अने ते जिनेश्वरनुं भाषित (धर्मोपदेश ) सांभळीने अवशेष एटले प्राये करीने क्षीण थया छे कर्म जेना एवा अने विषयोथी विरक्त थयेला एवा नरो एटले मनुष्यो जे रीते घणा प्रकारना संयम अने तपरूपी उदार धर्मने अंगीकार करे छे, तथा जे रीते घणा वर्षो सुधी संयम अने तपने अनुचर्य एटले सेवीने त्यारपछी आराध्या छे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना योग जेमणे एवा, तथा 'जिणवयणमणुगय महिय भासिय त्ति'-- Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुत्तरोपपातिक परिचय॥ आचारादिक जिनेश्वरनुं वचन अनुगत एटले संबंधवाळु अर्थात् आहटदोहटवाळं नहीं एवं महित एटले पूजित अथवा समवाया अधिक भापित एटले भणाववादिकवडे कयुं छे जेओए एवा, अथवा पाठांतरे जिनेश्वरनुं वचन अनुगतिवडे एटले अनुकू- " ए क तावडे सारी रीते कह्यु छ जेओए ते जिनवचनानुगतिसुभापित कहीए, तेवा मुनिओ, तथा 'जिणवराण हिययेणमणु- चोपं अंगपणेत्त त्ति'-अहीं द्वितीयाना अर्थमां पष्ठी विभक्ति लखी छे तेथी जिनेश्वरोने हृदयवडे-मनवडे अनुनीय-प्राप्य एटले ) ध्यान करीने जेओ जे ठेकाणे जेटला भक्तपानने छेदीने अने उत्तम समाधिने पामीने ध्यानयोगे करीने सहित एवा उत्तम ॥२३८॥ मुनिवरो जे प्रकारे अनुत्तर देवलोकने विपे उत्पन्न थया, ते प्रकारे आ अंगमां कहेवाय छे एम संबंध करवो । तथा जे प्रकारे 'तत्थ' ते अनुत्तर विमानने विपे अनुत्तर-अनुपम विषयसुखने पामे छे, ते प्रकारे आ अंगमां कहेवाय छे एम संबंध करवो । 'तत्तो यत्ति'--ते अनुत्तर विमानथकी अनुक्रमे चव्या सता संयमने पाम्या सता तेओ जे प्रकारे अंतक्रियाने करशे, ते प्रकारे आ अनुत्तरोपपातिकदशाने विपे कहेवाय छे एम संबंध जाणवो । आ अने बीजा पदार्थों इत्यादिक सूत्र प्रथमनी जेम जाणवू. विशेष ए के-'दस अज्झयणा तिन्नि वग्ग त्ति'-अहीं अध्ययनोनो जे समूह ते वर्ग कहेवाय छे. अने (प्रथम) वर्गने विपे दश अध्ययनो छ, अने दरेक वर्गनोएकी साथे ज उद्देशोथाय छे तेथी आना त्रण ज उद्देशनकाळ छे, एज प्रमाणे नंदीने विषे कयुं छे. परंतु अहीं सूत्रमा तो दश उद्देशनकाळ देखाय छे, तेनो अभिप्राय अमे जाणी शकता नथी. तथा कुल संख्याता लाख पदो एटले छेताळीश लाख ने आठ हजार पदो कहेला छे. इति ।।९॥ सूत्र-१४४॥ १ पहेला वर्गमा १०, बीजा वर्गमा १३ अने त्रीजा वर्गमा १० एम कुल ३३ अध्ययनो छे. ॥२३८॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे प्रश्नव्याकरण नामनुं दशमुं अंग कहे छे मू० - से किं तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु णं अटठुत्तरं पसिणसयं अट्ठत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं विजाइसया नागसुवन्नेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविजंति । पण्हावागरणदसासु णं ससमयपरसमयपण्णवयपत्ते अबुद्धविविहत्थभासाभासियाणं अइसंयगुण उवसमणाणप्पगारआयरियभासियाणं वित्थरेणं वीरमहेसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अद्दागंगुटुबाहुअसिमणिखोमआइञ्चमाइयाणं विविहमहापसिणविज्जामणपसिणविज्जादेवयपयोगपहाणगुणप्पगासियाणं सब्भूयदुगुणप्पभावनरगणमइविम्हयकराणं अईसयमई - कालसमयदमसमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगमदुरवगाहस्स सव्वसव्वन्नुसम्म - • अस्स अबुहजणविबोहणकरस्स पञ्चक्खयपञ्च्चयकराणं पण्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविज्जंति । पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संग्रह ओ। सेणं अंगाए दसमे अंगे एगे सुयक्खंधे पणयालीसं उद्देसणकाला पणयालीसं समुदेसणकाला संखेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पन्नत्ता । संखेजा अक्खरा अणंता गमा जाव Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग पोएं अंग ॥२३९॥ चरणकरणपरूवणया आघविज्जति । से तं पण्हावागरणाई ॥१०॥ सूत्रम्-१४५॥ प्रश्नव्याक रणांग मूलार्थ:-कडे ते प्रश्नव्याकरण छे ? प्रश्नव्याकरणने विपे एक सो ने आठ प्रश्न, एक सो ने आठ अप्रश्न, एक सोने परिचय।। 9. आठ प्रश्नाप्रश्न, विद्याना अतिशयो तथा नाग सुपर्ण नामना भवनपति विगेरेनी साथे दिव्य संवादो कहेवाय छे । तथा प्रश्नव्याकरणदशाने विपे स्वसमय अने परसमयने कहेनारा प्रत्येकवुद्धोए विविध अर्थवाळी भापावडे कहेली (प्रश्नविद्या), तथा विविध प्रकारना अतिशय, गुण अने उपशमवाळा आचार्योए विस्तारथी कहेली, तथा वीरमहर्पिओए विविध विस्तारवडे कहेली, तथा जगतने हितकारक, तथा आदर्श, अंगुष्ठ, बाहु, खड्ग, मणि, वस्त्र अने सूर्यादिकना संबंधवाळी, तथा विविध प्रकारनी महाप्रश्नविद्यानी अने मनप्रश्नविद्यानी अधिष्ठायिका देवताओना प्रयोगना मुख्यपणाए करीने गुणोने प्रकाश करनारी, तथा साचा अने बमणा प्रभावबडे मनुष्यना समूहनी बुद्धिने विस्मय करनारी, तथा अत्यंत बीती गयेला काळसमयने विषे थइ गयेला दम अने शमवाळा उत्तम तीर्थकरनी स्थितिनुं स्थापन करवाना कारणभूत एवो, तथा दुःखे करीने जाणी शकाय, दुःखे अवगाही शकाय तथा अवुधजनने विवोध करनार एवा सर्व सर्वज्ञोने संमत तत्वनी प्रत्यक्ष प्रतीति करावनारी एवी प्रश्नविद्याना जिनेश्वरे कहेला विविधगुणवाळा महापदार्थों आ अंगमां कहेवाय छ । प्रश्नव्याकरणने विपे संख्याती वाचना, संख्याता अनुयोगद्वार, यावत् संख्याती संग्रहणी छे । ते आ अंगार्थकपणाए करीने दशर्मु अंग छे, तेमां एक श्रुतस्कंध, पीस्ताळीश उद्देशनकाळ, पीस्ताळीश समुद्देशनकाळ तथा कुल संख्याता लाख पदो कहेला छे. तेमाल ॥२३९॥ . . Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्याता अक्षरो, अनंता गमा, यावत् चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छे । ते आ प्रश्नव्याकरण में कह्यु ॥ १०॥ सूत्र-१४५॥ टीकार्थ:--'से किं तमित्यादि'-प्रश्ननो अर्थ प्रसिद्ध छे, अने तेनुं (प्रश्नमुं) निर्वचन एटले व्याकरण (उत्तर) ए रीते प्रश्नोना अने तेनां व्याकरणो( उत्तरो)ना योगथी प्रश्नव्याकरण कहेवाय छे, तेने विपे' अहत्तरं पसिणसयं-- एक सो ने आठ प्रश्न छे. तेमां अंगूठो, हाथ अने प्रश्न विगेरे जे मंत्रविद्याओ ते प्रश्न कहेवाय छे, बळी जे विद्या मंत्रना। विधिवडे जाप करवाथी पूछथा विना ज शुभाशुभ फळने कहे ते अप्रश्न कहेवाय छे, तथा अंगूठो विगेरे प्रश्नना होवापणाने अथवा न होवापणाने आश्रीने (प्रश्न पूछे के न पूछे तो पण ) जे विद्या शुभाशुभ फळने कही आपे ते प्रश्नाप्रश्न कहेवाय छ। 'विजाइसय त्ति'--तथा बीजा पण विद्याना अतिशयो जेवा के स्तंभ, स्तोभ, वशीकरण, द्वेषकरण, उच्चाटन विगेरे विद्याओ, तथा भवनपतिना नाग सुपर्ण देवोनी साथे अने उपलक्षणथी यक्षादिक देवोनी साथे साधक पुरुषने दिव्य अने ताचिक (साचा) शुभाशुभ विषयवाळा संवाद-संलाप थाय ते सर्व आ अंगमां कहेवाय छे . आ ज विषयने प्राये विस्तारता सता कहे छे--पण्हावागरणदसेत्यादि'--तथा प्रश्नव्याकरणदशाने विषे स्वसमय अने परसमयने कहेनारा करकंवादिक जेवा प्रत्येकवुद्धोए विविध अर्थवाळी गंभीर भाषावडे कहेली (प्रश्नविद्या), तेओनी, शुं ? ते कहे छे-| आदर्श, अंगुष्ठ विगेरे संबंधी प्रश्नोना विविध गुणरूपी महाअर्थो आ प्रश्नव्याकरणदशाने विषे कहेवाय छे एम संबंध करवो. वळी ते प्रश्न विद्या केवी ? ते कहे छे--' अइसयगुण.'-आमपौषधि विगेरे अतिशयो, ज्ञानादिक गुणो अने स्वपरना भेदवाळो उपशम, आ विविध प्रकारना जेने छे एवा आचार्योए कहेली, केवी रीते कहेली? ते कहे छ-'वित्थं Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की समवायाङ्ग सत्र। चोयं अंग प्रश्नव्याकरणांग परिचय ॥२४॥ विस्तारथी एटले वचनना मोटा आडंबरथी कहेली, तथा स्थिर एवा महर्षिओए अथवा पाठांतरे वीर एवा महर्षिओए विविहवित्थरभासियाणं च त्ति'--विविध विस्तारवडे कहेली, अहीं'च' शब्द कह्यो छे ते त्रीजा रचनार ( कहेनार-महर्षि )ना भेदनो समुच्चय करवा माटे कह्यो छे. वळी केवा प्रकारनी प्रश्नविद्या? ते कहे छे-'जगहियाणं ति'-- पुरुषार्थमां उपयोगीपणुं होवाथी जगतने हितकारक एवी, कोना संबंधी ? ते कहे छे-'अदाग त्ति'--आदर्श, अंगुष्ठ, बे हाथ, खड्ग, मणि, क्षौम-वस्त्र अने सूर्य, आटला शब्दनो द्वंद्व समास करचो. पछी आ सर्व छे आदि जेने एटले जे भीत, शंख, घंटादिकने ते आदर्शादिक संबंधी. केम के प्रश्नविद्यावडे आदर्शादिकनुं स्थापन थाय छे तेथी (आदर्शादिक संबंधी आ प्रश्नविद्या जगतने हितकारक छे), वळी ते प्रश्नविद्या केवा प्रकारनी छ ? ते कहे छे-विविध प्रकारनी महाप्रश्नविद्या एटले के जे वाणीवडे ज (बोलीने) प्रश्न करे सते उत्तरने आपनारी होय ते, अने मनःप्रश्नविद्या एटले मनथी ज पूछेला अर्थने जे उत्तर आपनारी होय ते, आ बन्नेना अधिष्ठायक देवताना प्रयोगनी-व्यापारनी प्रधानताए करीने विविध प्रकारना अर्थनो संवाद करनारा गुणने लोकमां प्रकाश करनारी, वळी ते प्रश्नविद्या केवी ? ते कहे छे-सद्भुत एटले तात्विक (साचा) अने द्विगुण एटले बमणा तथा उपलक्षणथी लौकिक प्रश्नविद्याना प्रभावनी अपेक्षाए बहुगुणवाळा अथवा पाठां. तरे विविध गुणवाळा एवा प्रभाववडे-माहात्म्यवडे मनुष्योना समूहनी बुद्धिने विस्मय करनारी एटले चमत्कार करनारी, वळी ते प्रश्नविद्या केवी? ते कहे छे--' अतिसयमतीतकालसमयेति --अत्यंत अतीत थयेला (वीती गयेला) काळसमयने विपे अर्थात् अत्यंत व्यवधानवाळा काळने विषे दम अने शमवडे प्रधान-मुख्य एवा अने अन्य दर्शनोने शासन ॥२४॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनारा तीर्थकरोने विपे उत्तम एवा भगवान जिनेश्वरनी स्थितिनुं करवु एटले " अतीतकाळने विषे चोत्रीश अतिशये करीने सहित, ज्ञानादिक गुणवाळा अने समग्र शास्त्रकर्ताना मस्तकना मुगट समान कोइ पुरुपविशेप हता. आवा प्रकारनी। प्रश्नविद्यानी अन्यथा उपपत्ति घटी न शके." एवं जे स्थापन करवू, तेना कारणरूप-हेतुरूप एवी, वळी ते प्रश्न विद्यार्नु ज विशेषण आपे छे-दुरभिगम एटले दुःखे करीने जाणी शकाय तेवू अर्थात् सूक्ष्म अर्थने लीधे गंभीर अने दुरवगाह एटले घणां सूत्रो होवाथी दुःखेथी भणी शकाय तेवू तथा सर्वे सर्वज्ञोने संमत एटले इष्ट अथवा सर्व एवं जे सर्वज्ञ संमत (कर्मधारय समास ) ते सर्वसर्वज्ञसंमत एटले प्रवचन- तत्व, ते वळी अज्ञान जनने बोध करनारं एटले एकांत o हितकारक एवा तत्त्वने-'पचक्खयपचयकराणं ति'--प्रत्यक्षकेण एटले ज्ञानवडे अर्थात् साक्षात् जे प्रत्यय एटले के " आ जिनप्रवचन सर्व अतिशयोनुं निधान छे अने अतींद्रिय पदार्थोंने देखाडवामां व्यभिचार दोष रहित छे" एवी प्रतिपत्ति, अथवा प्रत्यक्ष एवा ज आनावडे पदार्थो जाणवामां आवे छे माटे आ प्रत्यक्ष जेवू ज छे एवो जे प्रत्यय (विश्वास) ते प्रत्यक्षकप्रत्यय कहीए, तेने जे करवाना स्वभाववाळी ते प्रत्यक्षकप्रत्ययकारणी कदीए अथवा प्रत्यक्षताप्रत्ययकारी कहीए. पछी ते बन्ने शब्दने षष्ठी विभक्तिनुं बहुवचन करवू. हवे कोने प्रत्यक्ष करनार ? ते कहे छ-'प्रश्नानां'-प्रश्नविद्याने तथा उपलक्षणथी बीजी पण विद्या के जे प्रथम एक सो ने आठ कहेली छे, ते सर्व प्रश्नविद्याओना विविध गुणवाळा एटले घणा प्रकारना प्रभाववाळा एवा जे महार्था एटले मोटा अभिधेय-शुभाशुभने सूचवनारा पदार्थों, केवा ? के-जिनवरे रचेला-कहेला. एवा पदार्थों 'आधविनंति'--कहेवाय छे । शेप सूत्रनो अर्थ पूर्वनी जेम जाणवो. विशेप ए के-- Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाक श्रुत परिचय। समवायाङ्ग - सूत्र ॥ चौधु अंग ॥२४॥ 'पणयालीसमित्यादि'-जो के अहीं दश अध्ययनो होवाथी दश ज उद्देशनकाळ थाय छे, तो पण वीजी वाचनानी अपेक्षाए पीस्ताळीश हशे एम संभवे छे, तेथी 'पणयालीसं' इत्यादि जे लख्युं छे ते अविरुद्ध छ एम जाणवू. तथा कुल संख्याता लाख पदो छ एटले बाणु लाख अने सोळ हजार पदो छ एम जाणवू ॥१०॥ सूत्र-१४५॥ हवे विपाकश्रुत नामर्नु अग्यार, अंग कहे छे--- मू-से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविजंति। से समासओ दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-दुहविवागे चेव सुहाविवागे चेव । तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि । से किं तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइयाइं वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविज्जति । से तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाई ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराइं उज्जाणाइं चेइयाइं वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पवज्जाओ ॥२४॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाया पुण बोहिलाहा अंतकिरियाओ य आघविजंति । णं पाणाइवायअलियवयणचोरिक्ककरणपरदारमेहुणससंगयाए महतिवकसाय इंदियप्पमायपावप्पओयअसुहज्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पावअणुभागफलविवागा णिरयगतितिरिक्खजो - णिबहुविहवसणसय परंपरापबद्वाणं मणुयते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावगा होंति फलविवागा वहवसणविणासनासाकन्नुटुंगुटुकरचरण नहच्छेयणजिन्भच्छे अणअंजणकडग्गिदाहगयचलणमलणफालणउल्लंबणसूललयालउडलट्टिभंजणत उसी सगतत्ततेल्लकलकलअहिसिंचणकुंभपागकंपणथिरबंधणवे हवज्झकत्तणपतिभयकरकरपल्लवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि । बहुविवि परंपराबद्धा ण मुञ्चंति पावकम्मवलीए, अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो तवेण धिइणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वावि हुज्जा । एतो य सुहविवागेसु णं सीलसंजमणियम गुणतवोवहा साहू सुविसु अणुकंपासयप्पओगतिकालमइविसुद्ध भत्तपाणाईं पययमणसा हियसु आज कु Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Womanmanuman हनीसेसतिव्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाइं जह य निव्वत्तेति उ बोहिलाभं । विपाकसमवायाङ्ग । जह य परित्तीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियअरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं श्रुत परिचय। सूत्र ॥ HAM अन्नाणतमंधकारं चिक्खिल्लसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचक्कवालं सोलसकसायसावयपयंड चंडं अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं । जह य णिबंधति आउगं सुरगणेसु जह य अणु॥२४२॥ भवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउवपुपु(ब)ण्णरूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमेहाविसेसा मित्तजणसयणधणधण्णविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु अणुवरयपरंपराणुबद्धान असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवागसुयम्मि भगवया जिणवरेण संवेगकारणत्था अन्ने वि य एवमाइया चउविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणयाआधविजंति । विवागसुअस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा जाव संखेज्जाओ संगहणीओ । से णं अंग?याए एक्कारसमे अंगे वीसं अज्झयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुद्देसणकाला । संखेज्जाई २४२॥ %AIRomans Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पन्नत्ता । संखेज्जाणि अक्खराणि अणंता गमा अणंता पज्जवा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति । से तं विवागसुए ॥ ११॥ सूत्रम्-१४६ ॥ ___ मूलार्थः--ते विपाकश्रुत कयुं छे ? विपाकश्रुतने विपे सुकृत अने दुष्कृत (शुभ अने अशुभ) कर्मना फळविपाक कहेवाय छे. ते (विपाक) संक्षेपथी वे प्रकारे कह्यो छेः ते आ प्रमाणे--दुःखविपाक अने सुखविपाक. तेमां दश दुःखविपाक अने दश सुखविपाक छे. (प्रश्न)-ते दुःखविपाक केवा छे ? (उत्तर)-दुःखविपाकने विपे दुःखविपाकवाळा जीवोना नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगरमा प्रवेश, संसारनो विस्तार अने दुःखनी परंपरा कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे दुःखविपाक छे. (प्रश्न)-ते सुखविपाक केवा छे ? (उत्तर)सुखविपाकने विषे सुखविपाकवाळा जीवोना नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आलोक अने परलोक संबंधी विशेष प्रकारनी (उत्तम) समृद्धि, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या, श्रुतनुं ग्रहण, तपोपधान, दीक्षापर्याय, प्रतिमावहन, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान (अनशन), पादपोपगमन, देवलोकमां जq, त्यांथी उत्तम कुळमां अवतरवू, फरीथी बोधिनी प्राप्ति अने अंतक्रिया ए सर्व कहेवाय छ । हवे दुःखविपाकने विपे प्राणातिपात, मृपावाद, IN चोरी, परदारमैथुन अने परिग्रह सहितपणाए करीने तथा महातीव्र कपाय, इंद्रिय, प्रमाद, पापप्रयोग अने अशुभ अध्य वसाये करीने संचय करेला अशुभ कर्मना अशुभ रसवाळा फळना विपाक (कहेवाय छे), ते वळी जीवोए नरकगतिमां Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥२४३॥ अने तिर्यंचयोनिमां घणा प्रकारना सेंकडो दुःखोनी परंपरावडे बांधेला अने मनुष्यपणाने विषे पण आवेला ते जीवोना शेष रहेला पापकर्मे करीने जे प्रकारे फळनो विपाक पापी (अशुभ) होय छे, ते प्रकारे कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे - वध, • वृपणनो छेद ( खांसी करवी ते), नासिका, कर्ण, ओष्ठ, अंगुष्ठ, हाथ, पग अने नखनुं छेदन, जिह्वानो छेद, अंजन, कटना एटले फाडेला वांसना अभिवडे चाळवु, हाथीना पग नीचे मर्दन करयुं, फाडवुं, ऊंचे लटकावनुं, तथा शूळ, लत्ता (लात ), लाकडी अने सोंटीवडे शरीरने भांग, त्रपुं, सीसुं अने तपावेल तेलवडे कळकळ एवा शब्दे करीने अभिषेक करवो, कुंभीमां पकाव, कंपावj, स्थिर बंधन कर, वेध करवो, चामडी तोडवी, भय उत्पन्न करनार एवं हाथनुं वाळवं, ए विगेरे भयंकर अने अनुपम एवां दुःखो कहेवाय छे, तथा घणा विविध प्रकारना दुःखनी परंपराए करीने बंधायेला जीवो पापकर्मरूपी वेलडीवडे मूकाता नथी; कारण के कर्मना फळने अनुभव्या विना ते कर्मश्री मोक्ष थतो नथी, अथवा तो धैर्यरूपी अत्यंत बांधी छे केड जेमां एवा तपवडे ते कर्मनुं शोधन (विनाश ) यह शके छे । तथा वळी सुखविपाकने विषे शील, संयम, नियम, गुण अने तप ए सर्वने धारण करनारा सुविहित साधुओने अनुकंपावाळा चित्तना प्रयोगवडे तथा त्रिकालिक मतिवडे विशुद्ध एवा तथा प्रयोगने विषे शुद्ध एवा भातपाणीने हितकारक, सुखकारक, कल्याणकारक अने तीव्र अध्यवसायवाळी अने संशय विनानी बुद्धिवाळा मनुष्यो आदरवाळा चित्तवडे आवीने जे प्रकारे बोधिलाभने उत्पन्न करे छे, तथा जे प्रकारे नर, नारक, तिर्यंच अने देवगतिने विषे गमन करवारूप मोठा परिवर्त ( आवर्त) वाळा, अरति, भय, विपाद, शोक अने मिथ्यात्वरूपी पर्वतोवडे सांकडा, अज्ञानरूपी महा अंधकारवाळा, (विपयादिक) कादवबडे दुःखे करीने तरी शकाय एवा, विपाकश्रुत परिचय | ॥२४३॥ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरा, मरण अने योनि ( जन्म ) रूपी क्षोभ पाम्युं छे चक्रवाळ जेमां एवा, सोळ कपायरूपी अत्यंत प्रचंड श्वापदो छे जेमां एवा आ अनादि अनंत संसारसमुद्रने परिमित करे छे, तथा जे प्रकारे देवसमूहनेविषे जवारूप आयुष्यने वांधे छे तथा जे प्रकारे देवगणना विमानना अनुपम सुखोने भोगवे छे, अने त्यांथी काळांतरे चवीने आज मनुष्यलोकमां आवीने विशेष प्रकारना (उत्तम) आयुष्य, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुळ, जन्म, आरोग्य, बुद्धि अने मेधा, तथा विशेष प्रकारना मित्रजन, स्वजन, धन धान्यना वैभव तथा समृद्धिनी सारवस्तुओना समुदाय, तथा घणा प्रकारना कामभोगथी उत्पन्न थयेला विशेष प्रकारना सुख उत्तम वा सुखविपाकने विषे कहेवाय छे। तथा अनुक्रमे अशुभ अने शुभ कर्मना निरंतर परंपराना संबंधवाळा घणा कारना विपाको आविपाकश्रुतने विषे भगवान जिनेश्वरे संवेगने उत्पन्न करवा माटे कहेला छे, ए विगेरे वीजा पण पदार्थों का छे. आ प्रमाणे घणा प्रकारनी पदार्थनी प्ररूपणा विस्तारथी कहेवाय छे । आ विपाकश्रुतनी संख्याती वाचना छे, संख्याता अनुयोगद्वार छे, यावत् संख्याती संग्रहणीओ छे, ते आ अंगार्थकपणाए करीने अग्यारमुं अंग छे, तेमां वीश अध्ययनो छे, वीश उद्देशन काळ छे, वीश समुद्देशन काळ छे, कुल संख्याता लाख पदो छे, संख्याता अक्षरो छे, अनंत गमा छे, अनंत पर्यायो छे, यावत् आ प्रमाणे चरण-करणानी प्ररूपणां कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे विपाकश्रुत क. ११ ॥ सूत्र - १४६ ॥ टीकार्थ:-' से किं तमित्यादि ' – जे पकाचधुं ते विपाक कहेवाय छे एटले शुभाशुभ कर्मनो परिणाम, ते विषाकने कहेनारुं जे श्रुत ते विपाकश्रुत कहेवाय छे । ' विवागसुए णं' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के ' फलविपा Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ धुं अं ॥२४४॥ 5 केति - फळरूप जे विपाक ते फळविपाक कहेवाय छे । तथा ' नगरगमणाई ति -- भगवान गौतमस्वामीए भिक्षाचर्यादिक माटे नगरमा प्रवेश कर्यो । ए ज वातने विस्तारथी कहे छे --' दुहविवागेसु णं ' इत्यादि -- तेमां प्राणातिपात, मृपावाद, चोरी करवी, परदारमैथुन, ए चारनी साथे जे ' ससंगयाए त्ति ' -- ससंगता एटले सपरिग्रहता ( परिग्रह सहितं) ते वडे संचय करेला कर्मों एम संबंध करवो. वळी महा तीव्र कपाय, इंद्रिय, प्रमाद, पापप्रयोग अने अशुभ अध्यवसायवडे संचय करेला पापकर्मना पापानुभाग एटले अशुभ रसवाळा जे फळविपाक एटले विपाकोदय ते आ विपा कश्रुतमां कहेवाय छे, एम संबंध करवो. कोना विपाकोदय कहेवाय छे ? ते कहे छे नरकगतिने विषे अने तिर्यंचगतिने विषे जे घणा प्रकारना सेंकडो कष्टनी परंपराथी बंधायेला छे ते जीवोना, अहीं जीव शब्द अध्याहार राखवो. तथा ' मणुयत्ते त्ति ' - मनुष्यपणाने विषे पण आवेला ते जीवोने जे प्रकारे शेष रहेला पापकर्मवडे पापवाळा फळविपाक एटले अशुभ विपाकोदय थाय छे, ते अहीं कहेवाय छे एम प्रकृत जाणवुं. ते आ प्रमाणे-वध-यष्टि विगेरेवडे ताडन करवुं, वृषणविनाश-वर्धितक ( खासी ) करवुं ते, तथा नासिका, कर्ण, ओष्ठ, अंगुष्ठ, हाथ, पग, अने नखनुं जे छेद तें, तथा जिह्वानो छेद, अंजन एटले तपावेली लोढानी सळीवडे नेत्रमां आंजनुं ते, अथवा म्रक्षण एटले खार अने तेल विगेरेवडे शरीरने मसळवं ते, 'कडग्गिदाहणं ति '--कट एटले फाडेला वांस विगेरेना अग्निवडे वाळवं ते, अर्थात् कटवडे वीटेलाने बाधा उपजावधी ते, तथा हस्तीना पग नीचे दबावयुं ते, फालन एटले विदारखं ते, उल्लंघन एटले वृक्षनी शाखादिक उपर लटकावयुं ते, तथा शूळवडे, लत्तावडे, लकुटवडे अने यष्टिवडे गात्रोने भांगवा ते, तथा त्रपुवडे, सीसा - विपाक श्रुत परिचय | ॥२४४॥ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडे अने तपावेला तेलवडे कलकल एवा शब्दपूर्वक अभिषेक करवो, तथा कुंभीने विपे पकावयु, तथा कंपन एटले शीतकाळे शीतळ जळ छांटवा आदिवडे शरीरमां कंपारो उत्पन्न करवो, तथा स्थिरबंधन एटले गाढ रीते ( मजबूत) बांधवू, वेध एटले कुंत (भाला) विगेरे शस्त्रवडे भेदवं, वर्धकर्तन एटले चामडी उतरडवी, प्रतिभयकर एटले भय उत्पन्न करवावाळू एवं करप्रदीपन एटले वस्त्रथी वीटेला अने तेलथी सींचेला(जीव)ना वे हाथने विषे अग्नि सळगाववो ते, एम कर्मधारय समास करवो. त्यारपछी वध, वृषणविनाश, त्यांथी लइने प्रतिभयकरकरप्रदीपन सुधीना सर्वे शब्दोनो द्वंद्व समास करवो. त्यारपछी ते सर्वे छे आदि जे दुःखोने ( एम बहुव्रीहि समास करी) एवा सता दारुण एटले भयंकर एम कर्मधारय समास करवो. आवा भयंकर कोण ? ते कहे छे-दुःखो. ते दुःखो केवां ? ते कहे छे--अनुपम एटले कोइनी उपमा न आपी शकाय एवां दुःखो आ दुःखविपाकने विपे कहेवाय छे एम प्रकृत जाणवू । तथा आ पण कहेवाय छे-अहीं दुःख शब्दनो अध्याहार छे तेथी दुःखोनी घणा प्रकारनी परंपरावडे अनुबद्धा एटले निरंतर आलिंगन करायेला एवा जीवो मूकाता नथी-त्याग कराता नथी, अहीं जीव शब्द अध्याहार छे. कोनावडे त्याग कराता नथी ? ते कहे छे-दुःखरूप फळने प्राप्त करनारी पापकर्मरूपी वेलडीवडे (मूकाता नथी). केम मुकाता नथी ? ते कहे छेकारण के वेद्या विना एटले अनुभव कर्या विना, अहीं 'कर्मफळ' ए अध्याहार छे, 'हु' शब्द 'जे कारण माटे' एवा अर्थमां छे. तेथी कर्मना फळनो अनुभव कर्या विना जीवोनो कर्मथकी मोक्ष-वियोग थतो नथी. अहीं 'जीव' शब्द अध्याहार छे. शुं सर्वथा प्रकारे अनुभव्या विना मोक्ष नथी ज ? ते शंका उपर कहे छे के-ना, सर्वथा प्रकारे नहीं, ते ज Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२४५॥ कहे छे - अथवा तो अनशनादिक तपवडे, केवा १ धृति एटले चित्तनुं समाधान, ते रूप अत्यंत बांधी छे केड जेने विषे एवा अर्थात् धृतिळे करीने सहित एवा तपवडे ते कर्मविशेषनुं शोधन एटले विनाश होज्जा - थइ शके छे. 'वावि' शब्द संभव अर्थमा छे. अर्थात् कर्मना मोक्षनो चीजो कोइ उपाय नथी. । ' एत्तो येत्यादि ' - त्यारपछी सुखविपाकने वि एटले वीजा श्रुतस्कंधना अध्ययनोने विषे जे कहेवाय छे ते कहे छे-शीळ एटले ब्रह्मचर्य अथवा समाधि, संयम एटले प्राणातिपातविरमण, नियम एटले विशेष प्रकारना अभिग्रह, गुण एटले बाकीना मूळगुणं अने उत्तरगुण, तप एटले अनशनादिक, आ सर्वनुं उपधान एटले कर छे जेओने एवा, पछी तेने सप्तमी विभक्तिनुं बहुवचन करवाथी 'शीलसंयमनियम गुणत उपधानेषु' एवं थयुं. एवा कोण ? ते कहे छे - साधुओने विषे-यतिने विपे. वळी ते साधु केवा ? ते कहे छे- सारं विहित एटले अनुष्ठान (क्रिया) छे जेमनुं एवा सुविहित साधुओने विषे भात - पाणी आपीने जे प्रकारे बोधिलाभादिकने मेळवे छे ते प्रकारे आ सुखविपाकने विषे कहेवाय छे. एम संबंध करवो. अहीं ' साधुपु ' ए ठेकाणे संप्रदान छप्त विभक्त करी छे, तेमां कांड दोष नथी. केम के 'साधुने विषे ' एमे विषयनी विवक्षा करी छे तेथी. 'अनुकंपा एटले अनुक्रोश (दया), ते छे मुख्य जेमां एवो आशय एटले चित्त, तेनो जे प्रयोग एटले व्यापार ते अनुकंपाशयप्रयोग कहीए, तेनावडे, तथा 'तिकालमति त्ति 'त्रण काळने विषे जे मति - बुद्धि एटले के ' हुं आपीश ' एम धाने परितोष (आनंद) थाय, आपती वखते पण परितोष थाय अने आप्या पछी पण परितोष थाय, ते त्रैकालिक मति• वडे जे विशुद्ध होय ते त्रिकालमतिविशुद्ध कहीए, एवा जे भक्तपान ( कर्मधारय ) ते अनुकंपाशयप्रयोगात्रिकालमतिविशु विपाक श्रुत परिचय | ॥२४५॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्धभक्तपानानि कहिए, तेने आपीने एम क्रियानो संबंध करवो. शा वडे आपीने ? ते कहे छे-प्रयतमनवडे एटले आदर IN सहित चित्तवडे आपीने. तथा हित एटले अनर्थनो नाश करनार होवाथी हितकारक, सुखनु कारण होवाथी सुख अथवा शुभ, कल्याणकारक होवाथी निःश्रेयस अने तीव्र एटले प्रकृष्ट एवो छे परिणाम-अध्यवसाय जेनो एवी निश्चिता एटले | संशय विनानी मति-बुद्धि छे जेओनी ते हितसुखनिःश्रेयसतीव्रपरिणामनिश्चितमतयः कहीए. आवा जनो भक्तपान आपीने (एवो संबंध करवो). ते भक्त-पान केवा ? ते कहे छ-प्रयोगने विपे शुद्ध एवा एटले के दातारना दानना व्यापारनी अपेक्षाए समग्र आशंसादिक दोषे करीने रहित अने ग्रहण करनार( साधु )ना ग्रहण करवाना व्यापारनी अपेक्षाए उद्ग| मादि दोषे करीने रहित (एवा भक्तपान आपीने ). ते आपत्राथी शुं फळ ? ते कहे छे--जे प्रकारे परंपराए मोक्षनुं साधन| रूप होवाथी भव्य प्राणीओ बोधिलाभने (समकितने) प्राप्त करे छे. अहीं 'भव्यजीव' शब्द अध्याहार छे अने 'तु' द मात्र भाषानी शोभा माटे छे, तेनो अर्थ कांई नथी, तथा वळी जे प्रकारे संसारसागरने परित्त करे छे एटले नानो करे । छे. संसारसागर केवो ? ते कहे छे--नर, नारक, तिर्यंच, अने देवगतिने विपे जे जीवोनु गमन एटले भ्रमण ते रूप विपुल। मोटो परिवर्त एटले मत्स्यादिकनो अनेक प्रकारनो संचार छ जेमां एवो, तथा अरति, भय, विपाद, शोक अने मिथ्यात्व रूपी पर्वतोवडे संकट-सांकडो (व्याप्त) एवो, त्यारपछी आ वे पदनो कर्मधारय समास करवो. अहीं विपाद एटले मात्र दीनता अने शोक एटले आनंद विगेरे चिह्नवाळो जाणवो. तथा अज्ञानरूपी तमोन्धकार एटले महा अंधकार छे जेने विषे Loll एवो, तथा चिख्खिल्ल एटले कादव, अने संसारना पक्षमां तो चिख्खिल्ल एटले विषय, धन अने स्वजनादिकने विषे आसक्ति, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -24 | विपाक श्रुत परिचय। श्रीवा कादवबडे सुदुस्तर एटले दुःखे करीने उतरी शकाय तेवो, तथा जरा, मरण अने योनि(जन्म)रूपी संक्षभित एटले समवाया मोटा मत्स्य, मगर विगेरे अनेक जळजंतुना समूहरूप संमर्दवडे विलोडन कयुं छे (वलोव्युं छे) चक्रवाल एटले जळसमूह सूत्र ॥ जेने विपे एवो, तथा सोळ कपायोरूपी श्वापद एटले मगर, ग्राह विगेरे अत्यंत प्रचंड-भयंकर छे जेने विपे एवो, तथा अनादि एटले जेनो आदि नथी एवो तथा अनंत एटले जेनो अंत नथी एवो आ प्रत्यक्ष देखातो संसाररूपी समुद्र तेने लघु करे छ.। तथा जे प्रकारे एटले सागरोपमादिक प्रकारे करीने साधुदानवडे देवसमूहने विपे जवाना आयुष्यने बांधे छे अने जे ॥२४६॥ प्रकारे अनुपम (उपमा रहित) एवा देवविमानना सुखने अनुभवे छे, अने वळी त्यांथी काळांतरे चवेला (च्यवीने) अहीं ज एटले आ तिर्यग्लोकमां मनुष्यभवने पामेला एवा तेमना विशेष प्रकारना आयुष्य, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुळ, जन्म, आरोग्य, बुद्धि अने मेधा कहेवाय छे. तेमां आयुष्य विशेष एटले वीजा जीवोना आयुष्यथकी शुभपणुं अने दीर्घपणुं, एज प्रमाणे शरीरनो विशेप एटले स्थिर संहनन(संघयण )पणुं, वर्णनो विशेष एटले अत्यंत गौरपणुं, रूपनो विशेष एटले अति सुंदरता, जातिनो विशेष एटले उत्तम जातिपणुं, कुळनो विशेष पण ए ज प्रमाणे (उत्तम कुळपणुं), जन्मनो विशेष एटले उत्तम क्षेत्र अने काळ, आरोग्यनो प्रकर्ष एटले निराबाधपणुं, औत्पत्तिकी विगेरे चार प्रकारनी बुद्धि तेनी प्रकृष्टता, अने मेधा एटले अपूर्वशास्त्रने ग्रहण करवानी शक्ति तेनो विशेष एटले प्रकृष्टपणुं. तथा मित्रजन एटले सुहृद्वर्ग, स्वजन एटले पिता, काका विगेरे, धनधान्यरूप जे विभव एटले लक्ष्मी ते धनधान्यविभव, तथा समृद्धिनी एटले नगर, अंतःपुर, खजानो, कोठार, सैन्य अने वाहनरूप संपदानी जे सारभूत एटले प्रधानभूत वस्तुओ तेनो जे समूह ते, पछी मित्रजन विगेरेनो द्वंद्व J& ॥२४६॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समास करवो, त्यारपछी आ सर्वना जे विशेष एटले उत्कर्ष ते (कहेवाय छे). तथा घणा प्रकारना कामभोगथी उत्पन्न थयेला सुखना विशेषो, अहीं पण विशेष शब्दनो संबंध करवो. उत्तम छे शुभविपाक जेओनो ते शुभविपाकोत्तम एवा जीवोने विषे, अहीं पष्ठीना अर्थमां सप्तमी विभक्ति करी छे. आ रीते शुभविपाक अध्ययनमां कहेवा लायक साधुओना आयुष्य विगेरेना विशेपो शुभविपाक अध्ययनमां कहेवाय छे एम संबंध करवो. । हवे दरेक (बन्ने) श्रुतस्कंधमां कहेवा लायक पुण्यविपाक अने पापविपाक जुदा जुदा कहीने ते बन्नेने एक साथे कहे छे-'अणुवरयेत्यादि'-अनुपरत एटले अविच्छिन्न (निरंतर) एवा जे परंपराए करीने संबंधवाळा छे, कोण ? ते कहे छे-विपाक, एवो अहीं संबंध करवो, विपाक | कोनो ? ते कहे छे-अशुभ अने शुभ कर्मना (विपाक) पहेला अने वीजा श्रुतस्कंधमां अनुक्रमे कहेला घणा प्रकारना जे विपाक ते विपाकश्रुतने विषे एटले अग्यारमा अंगने विपे भगवान जिनेश्वरे संवेगना कारणवाळा पदार्थों तथा बीजा पण ए विगेरे पदार्थों कहेवाय छे एम पूर्वना क्रियापद साथे संबंध करवो अथवा वचननो फारफेर करीने उत्तरक्रियानी साथे संबंध करवो. । आ प्रमाणे घणा प्रकारनी अर्थनी प्ररूपणा विस्तारथी कहेवाय छे। बाकीचें सूत्र सुगम छे. विशेष ए के संख्याता लाख पदो कुल मळीने छे. तेमां एक करोड, चोराशी लाख अने वत्रीश हजार कुल पद छे ॥११॥ सूत्र-१४६॥ का हवे बारमुं अंग कहे छेIN मू०-से किं तं दिविवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणया आघविनंति । से समासओ Kा पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा-परिकम्मं १, सुत्ताइं २, पुव्वगयं ३, अणुओगो ४, चूलिया ५।से किं तं Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ लोधुं अंग ॥२४७॥ परिकम् ? परिकम्मे सत्तविहे पन्नत्ते, तं जहा- सिद्धसेणियापरिकम्मे १, मणुस्स सेणियापरिकम्मे २, पुसेणियापरिकम्मे ३, ओगाहणसेणियापरिकम्मे ४, उवसंपज्ज सेणियापरिकम्मे ५, विप्पजहसेणियापरिकम्मे ६, चुआचुअसेणियापरिकम्मे ७ । से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणियापरिकम्मे चोद्दसविहे पन्नत्ते, तं जहा - माउयापयाणि १, एगट्टियपयाणि २, पादोद्वपयाणि ३, आगासपयाणि ४, केउभू (व्व ) यं ५, रासिबद्धं ६, एगगुणं ७, दुगुणं ८, तिगुणं ९, केउ भूयं १०, डिगो ११, संसार डिग्गहो १२, नंदावत्तं १३, सिद्धबद्ध १४, से तं सिद्धसेणियापरिकम्से १ । से किं तं मणुस्स सेणियापरिकम्मे ? मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोदसविहे पन्नत्ते, तं जहा-ताई चैव माउआपयाणि जाव नंदावत्तं मणुस्सबद्धं, से तं मणुस्स सेणियापरिकम्मे २ । अवसेसा परिकम्माई पुट्ठाइयाई एकारसविहाई पन्नत्ताई ७ । इच्चेयाइं सत्त परिकम्माई, छ ससमइयाई सत्त आजीवियाई, छ चउक्कणइयाई सत्त तेरासियाई, एवामेव सपुवावरेणं सत्त परिकम्माई तेसीति भवतीति मक्खायाई, से त्तं परिकम्माई ॥ १ ॥ दृष्टिवाद परिचय | -॥२४७॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किं तं सुत्ताइं ? सुत्ताइं अट्ठासीति भवंतीति मक्खायाइं, तं जहा-उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पच्चइयं [ विन(ज)यचरियं ] अणंतरं परंपरं समाणं सजूहं [मासाणं] संभिन्नं अहाच्चयं [अहवायं नन्यां ] सोवत्थि(वत्तं) यं गंदावत्तं बहुलं पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणुप्पयं समभिरूढं सबओभदं पणाम[ पस्लायं नन्यां] दुपडिग्गहं इच्चेयाई बावीसं सुत्ताइं छिपणछेअणइआई ससमयसुत्तपरिवाडीए इच्चेयाइं बाबीसं सुत्ताइं अछिन्नछेअणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई बावीसं सुत्ताइं तिकणइयाइं तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई | बावीसं सुत्ताइं चउकणइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए, एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठासीति सुत्ताई भवंतीति मक्खायाइं, से तं सुत्ताई ॥ २॥ से किं तं पुतगयं ? पुव्वगयं चउद्दसविहं पन्नत्तं, तं जहा-उप्पायपुव्वं १, अग्णीयं २, | वीरियं ३, अस्थिणत्थिप्पवायं ४, नाणप्पवायं ५, सच्चप्पवायं ६, आयप्पवायं ७, कम्मप्पवायं ८, पञ्चक्खाणप्पवायं ९, विज्जाणुप्पवायं १०, अवंझं ११, पाणाऊ १२, किरियाविसालं १३, लोग - Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद परिचय समवायाङ्ग चोj अंग ॥२४॥ बिंदुसारं १४ । उप्पायपुव्वस्स णं दसवत्थू पन्नत्ता, चत्तारि चूलियावत्थू पन्नत्ता १ । अग्गेणियस्स णं पुव्वस्स चोदसवत्थू पन्नत्ता, बारस चूलियावत्थू पन्नत्ता २ । वीरियप्पवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठ वत्थू पन्नत्ता, अट्ठ चूलियावत्थू पन्नत्ता ३ । अस्थिणस्थिप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठारस वत्थू पन्नत्ता, दस चूलियावत्थू पन्नत्ता ४ । नाणप्पवायस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पन्नत्ता ५। सच्चप्पवायस्स णं पुव्वस्त दो वत्थू पन्नत्ता ६ । आयप्पवायस्स णं पुवस्स सोलस वत्थू पन्नत्ता ७। कम्मप्पवायपुवस्स णं तीसं वत्थू पन्नत्ता ८ । पञ्चक्खाणस्स णं पुव्वस्त वीसं वत्थू पन्नत्ता ९ । विजाणुप्पवायरस णं पुव्वस्स पनरस वत्थू पन्नत्ता १० । अवंझस्स णं पुव्वस्स बारस वत्थू पन्नत्ता ११ । पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्थू पन्नत्ता १२ । किरियाविसालस्स णं पुवस्स तीसं वत्थू पन्नत्ता १३ । लोगबिंदुसारस्स णं पुवस्स पणवीसं वत्थू पन्नत्ता १४ । “ दस १ चोद्दस २ अट्ठ ३ वारसे ४ व बारस ५ दुवे ६ य वत्थूणि । सोलस ७ तीसा ८ वीसा ९ पन्नरस अणुप्पवायम्मि १० ॥१॥ बारस एकारसमे ११, बारसमे तेरसेव १२ वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे ॥२४॥ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३, चउदसमे पन्नवीसाओ १४ ॥२॥ चत्तारि १ दुवालस २ अट्ठ ३ चेव दस ४ चेव चूलवIN स्थूणि । आतिल्लाण चउण्हं, सेसाणं चूलिया णत्थि ॥ ३॥” से तं पुत्वगयं ॥३॥ IN से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-मूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य। से किं तं मूलपढमाणुओगे ? एत्थ णं अरहताणं भगवंताणं पुव्वभवा देवलोगगमणाणि आउं चवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पव्वजाओ तवा य भत्ता | केवलणाणुप्पाया अ तित्थपवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउं वन्नविभागो सीसा गणा | गणहरा य अज्जा पवत्तणीओ संघस्स चउव्विहस्स जं वावि परिमाणं जिणमणपज्जवओहिनाण सम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पाओवगया यजे जहिं जत्तियाई भत्ताई छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तमरओघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमा. इया भावा मूलपढमाणुओगे कहिआ आघविजंति पण्णविनंति परूविजंति,सेत्तं मूलपढमाणुओगे। से किं तं गंडियाणुओगे ? (गंडियाणुओगे) अणेगविहे पन्नत्ते, तं जहा-कुलगरगंडियाओ तित्थ Aaman - Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिवाद परिचय॥ समवायाङ्ग भत्र॥ चोथु अंग - ॥२४९॥ गरगंडियाओ गणहरगडियाओ चकहरगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओ वासुदेवगंडि. याओ हरिवंसगंडियाओ भद्दबाहुगंडियाओ तवोकम्मगंडियाओ चित्तरगंडियाओ उस्लप्पिणीगं- डियाओ ओसप्पिणीगंडियाओ अमरनरतिरियनिरयगइगमणविबिहपरियणाणुओगे, एवमाइयाओ गंडियाओ आघविनंति पधणविनंति परूविजंति, से तं गंडियाणुओगे ॥४॥ - से किं तं चूलियाओ ? जपणं आइल्लाणं चउण्हं पुठवाणं चूलियाओ सेसाइं पुव्वाइं अचू । लियाई, से तं चूलियाओ ॥५॥ दिट्टिवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेजाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जा सिलोगा संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्ठयाए बारसमे अंगे एगे सुय. खंधे चउद्दस पुत्वाइं संखेज्जा वत्थू संखेज्जा चूलवत्थू संखेज्जा पाहुडा संखेज्जा पाहुडपाहुडा संखे. जाओ पाहुडियाओ संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पन्नत्ता, संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिवद्धा ॥२४९॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति पण्णविज्जंति परुविज्जति दंसिजति निदंसिजंति उवदंसिज्जति, एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आघविज्जति, से त्तं दिट्टिवाए, से तं दुवालसंगे गणिपिडगे ॥ १२ ॥ सूत्रम् – १४७ ॥ मूलार्थ:- हवे कयो ते दृष्टिवाद छे ! दृष्टिवादने विषे सर्व भाव ( पदार्थ ) नी प्ररूपणा कहेवाय छे. ते दृष्टिवादना संक्षेपथी पांच भेद कह्या छे. ते आ प्रमाणे- परिकर्म १, सूत्र २, पूर्वगत ३, अनुयोग ४ अने चूलिका ५ तेमां परिकर्म शुं ? परिकर्म सात प्रकारे कयुं छे. ते आ प्रमाणे – सिद्धश्रेणिका परिकर्म १, मनुष्य श्रेणिका परिकर्म २, पृष्ट श्रेणिका परिकर्म, ३, अवगाहनाश्रेणिका परिकर्म ४, उपसंपद्य श्रेणिका परिकर्म ५, विप्रजहश्रेणिका परिकर्म ६ अने च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म ७. । तेमां सिद्धश्रेणिका परिकर्म शुं छे ? सिद्धश्रेणिका परिकर्म चौद प्रकारनुं कर्तुं छे. ते आ प्रमाणे – मातृकापद १, एकार्थकपद २, पादोष्ठपद ३, आकाशपद ४, केतुभूत (केतुव्रत ) ५, राशिवद्ध ६, एकगुण ७, द्विगुण ८, त्रिगुण ९, केतुभूत १०, प्रतिग्रह ११, संसारप्रतिग्रह १२, नंदावर्त १३ अने सिद्धबद्ध १४. आ प्रमाणे सिद्धश्रेणिका परिकर्म क छे | १ | ते मनुष्य श्रेणिका परिकर्म कयुं छे ? मनुष्यश्रेणिका परिकर्म चौद प्रकारे कयुं छे ते आ प्रमाणे ते ज ( उपर का ते ज ) मातृकापदश्री लइने यावत् नंदावर्त सुधीना तेर अने चौदमुं मनुष्यवद्ध १४. ते आ मनुष्यश्रेणिका परिकर्म क - २ | arrator पृष्ट श्रेणिका विगेरे परिकर्मो अग्यार अग्यार प्रकारना कला छे ७ । आ प्रमाणे आ सात परिकर्म का. तेमां Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ aj अंग ॥२५०॥ छ स्वसमयना छे अने सात आजीविक मतना छे. तेमां छ परिकर्म चार नयवाळा छे अने सात परिकर्म त्रिराशिकवाळाना छे. ए प्रमाणे पूर्वापर सहित (मूळभेद अने उत्तरभेद सहित ) साते परिकर्मना त्र्याशी भेद थाय छे एम में कहुं छे. ते आ परिकर्म क ॥ १ ॥ हवे ते सूत्र कयां छे ? सूत्र अट्ठाशी छे एम में कनुं छे. ते आ प्रमाणे - ऋजुसूत्र १, परिणतापरिणत २, बहुमंगिक ३, 'विप्रत्ययिक [विनय (विजय ) चरित ] ४, अनंतर ५, परंपर ६, समान ७, संजूह [ मासाण ] ८, भिन्न ९, यथात्याग [ अहव्वा -- नंदीसूत्र ] १०, सौवस्तिक ११, नंद्यावर्त १२, बहुल १३, पृष्टापृष्ट १४, वियावर्त ( व्यावर्त ) १५, एवंभूत १६, द्विकावर्त १७, वर्तमानोत्पाद १८, समभिरूढ १९, सर्वतोभद्र २०, प्रणाम[ प्रश्वास - नंदीसूत्र ] २१ अने द्वि(तिग्रह २२. आ बावीस सूत्रो छिन्नच्छेद नय संबंधी स्वसमयसूत्रनी परिपाटीए करीने कहां छे, ए ज बावीश सूत्रो अच्छि - नच्छेद नय संबंधी आजीविकसूत्रनी परिपाटीए करीने कहां छे. ए ज बावीश सूत्रो त्रण नयवाळा त्रिराशिक सूत्रनी परिपाटीए करीने कां छे, तथा ए ज बावीश सूत्रो चार नयवाळा स्वसमय सूत्रनी परिपाटीए करीने कां छे. आ प्रमाणे पूर्वापर सहित (सर्वे मळीने ) अट्ठाशी सूत्र थाय छे एम में कह्युं छे. ते आ सूत्र कयुं । २ । हवे ते पूर्वगत शुं छे ? पूर्वगत चौद प्रकारनुं कयुं छे. ते आ प्रमाणे -- उत्पाद पूर्व १, अग्रणीय पूर्व २, वीर्य ३, अस्तिनास्तिप्रवाद ४, ज्ञानप्रवाद ५, सत्यप्रवाद ६, आत्मप्रवाद ७, कर्मप्रवाद ८, प्रत्याख्यानप्रवाद ९, विद्यानुप्रवाद १०, अवध्य ११, प्राणायु १२, क्रियाविशाल १३ अने लोकविंदुसार १४. तेमां उत्पादपूर्वने विषे दश वस्तु कही छे अने चार दृष्टवाद परिचय | ॥२५०॥ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलिका वस्तु कही छे १, अग्रणीय पूर्वमा चौद वस्तु कही छे अने बार चूलिका वस्तु कही छे २, वीर्यप्रवाद पूर्वमा आठ वस्तु | कही छे अने आठ चूलिका वस्तु कही छे ३, अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्वमा अढार वस्तु कही छे अने दश चूलिका वस्तु कही कछे ४, ज्ञानप्रवाद पूर्वमां बार वस्तु कही छे ५, सत्यप्रवाद पूर्वमां वे वस्तु कही छे ६, आत्मप्रवाद पूर्वमां सोळ वस्तु कही छ ७, कर्मप्रवाद पूर्वमा त्रीश वस्तु कही छे ८, प्रत्याख्यान पूर्वमां वीश वस्तु कही छे ९, विद्यानुप्रवाद पूर्वमां पंदर वस्तु कही छे १०, अवंध्य पूर्वमां बार वस्तु कही छे ११, प्राणायुपूर्वमां तेर वस्तु कही छे १२, क्रियाविशाल पूर्वमां त्रीश | वस्तु कही छे १३, तथा लोकबिंदुसार पूर्वमां पचीश वस्तु कही छ १४. (गाथानो अर्थ)-"दश १, चौद २, आठ ३, अढार, ४ बार ५, वे ६, सोळ ७, त्रीश ८, वीश ९, विद्यानुप्रवादमा पंदर १० [१] अग्यारमा पूर्वमा वार ११, वारमा | | पूर्वमा तेर १२, तेरमा पूर्वमां त्रीश १३ अने चौदमा पूर्वमां पचीश १४, वस्तु कही छे [२] पहेला चार पूर्वमा अनुक्रमे | चार १, बार २, आठ ३ अने दश ४, चूलिका वस्तु कही छे. बाकीना पूर्वमांचूलिका नथी (३)॥" ते आ पूर्वगत कयुं ॥३॥ . हवे ते अनुयोग शुं छे ? अनुयोग वे प्रकारे कह्यो छे. ते आ प्रमाणे-मूळ प्रथमानुयोग अने गंडिकानुयोग. हवे ते मूळ प्रथमानुयोग शुं छे ? आ मूळ प्रथमानुयोगमा भगवान अरिहंतोना पूर्वभव, देवलोकमां गमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यनी श्रेष्ठलक्ष्मी, शिविका, प्रव्रज्या, तप, भक्त, केवलज्ञाननी उत्पत्ति, तीर्थनुं प्रवर्तन, संघयण, संस्थान, ऊंचाइ, आयुष्य, वर्णविभाग, शिष्य, गण, गणधर, साध्वी, प्रवर्तिनी, चतुर्विध संघर्नु जे प्रमाण, तथा जिन (केवळी), मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यगज्ञानी (मतिज्ञानी) श्रुतज्ञानीनुं जे प्रमाण, तथा वादी, अनुत्तर विमानमां गयेला, Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3g दृष्टिवाद परिचय॥ समवायाङ्ग चोधु अंग ॥२५॥ जेटला सिद्ध थया ते, पादोपगमने पामेला जेओ जे ठेकाणे जेटला भातपाणीने छेदीने ( अनशन करीने) अंतकृत थइने मुनिवरोमां उत्तम एवा तेओ अज्ञानरज(कर्मरज)ना समूहथी मुक्त थइ अनुत्तर सिद्धिमार्गने पाम्या, आ अने एनी जेवा वीजा पण भावो मूळ प्रथमानुयोगने विपे जे कहेला छे ते अहीं कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छ, प्ररूपणा कराय छे. ते आ मूळ प्रथमानुयोग कह्यो. हवे कयो ते गंडिकानुयोग छ ? गंडिकानुयोग अनेक प्रकारे करो छे. ते आ प्रमाणे-कुलकरगंडिका, तीर्थकरगडिका, गणधरगंडिका, चक्रवर्तीगंडिका, दशारगंडिका, बळदेवगंडिका, वासुदेवगंडिका, हरिवंशगंडिका, भद्गबाहुगंडिका, तपकर्मगंडिका, चित्रांतरगंडिका, उत्सर्पिणीगंडिका, अवसर्पिणीगंडिका, तथा अमर, नर, तिर्यच अने नरकगतिमा गमन करवू, विविध प्रकारे पर्यटन करवू तेनो अनुयोग ( व्याख्यान) करवो, ए विगेरे गंडिकाओ आमां कहेवाय छ, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, ते आ गंडिकानुयोग कहो. (ते आ अनुयोग कहो.) ॥४॥ - हवे कइ ते चूलिका छ ? पहेला चार पूर्वमा चूलिकाओ छे अने वाकीना पूर्वमां चूलिकाओ नथी. ते आ चूलिका कही ॥५॥ आ दृष्टिचादने विष परित्त (संख्याती) वाचना छ, संख्याता अनुयोगद्वार छ, संख्याती प्रतिपत्ति छ, संख्याती नियुक्ति छे, संख्याता श्लोक छे, संख्याती संग्रहणी छे, ते आ अंगार्थकनी अपेक्षाए चार अंग छे, तेमां एक श्रुतस्कंध छ, चौद । | पूर्व छ, संख्याती वस्तु छ, संख्याती चूल(लघु)वस्तु छे, संख्याता पाहुडा (प्राभृतक) छे, संख्याता प्राभूतप्राभूत छ, संख्याती १. तीर्थकरादिकनी पछी तेमनी पाटपरंपराए जे थया होय ते अने बीजा उत्तम पुरुपो. ॥२५॥ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभृतिका छे, संख्याती प्राभृतप्राभृतिका छे, सर्व मळीने संख्याता लाख पदो कहेला छे, वळी संख्याता अक्षरो, अनंत गमा, अनंत पर्यायो, परित्त त्रसो, अनंता स्थावरो, (द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए) शाश्वत छे अने (पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए) ला कृत-करेला छे, तथा निबद्ध अने निकाचित एवा जिनेश्वरे कहेला भावो आमां कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शन कराय छे, उपदेशाय छे. ए प्रमाणे भावो जाण्या छ, विशेषे करीने जाण्या छे, ए रीते चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छे, ते आ दृष्टिवाद कह्यो. ते आ बार अंगरूप गणिपिटक कयु. ॥ १२ ॥ सूत्र-१४७॥ ___टीकार्थः-से किं तं दिहिवाए त्ति'-दृष्टि एटले दर्शन, वदनं एटले बोलवू, ते वाद कहीए. दृष्टिनो जे वाद IN ते दृष्टिवाद अथवा दृष्टिनो पात (पड ) छे जेमां ते दृष्टिपात, अर्थात् सर्व नयनी दृष्टि ज अहीं कहेवाय छे. ते बावत कहे छ-'दिट्ठिवाए णमित्यादि' दृष्टिवादवडे अथवा दृष्टिपातवडे सर्व भावनी प्ररूपणा कहेवाय छे. 'से समासओ पंचविहे ' (ते संक्षेपथी पांच प्रकारे छे ) इत्यादि आ सर्व प्राये करीने विच्छेद पाम्युं छे, तो पण जेवू जोयु ते प्रमाणे काइक लखाय छे-तेमां गणितना परिकर्मनी जेम परिकर्म जे ते सूत्रादिकने ग्रहण करवानी योग्यता प्राप्त करवामां समर्थ होय छे, अने ते परिकर्मश्रुत सिद्धश्रेणिका विगेरे परिकर्मना मूळ भेदे करीने सात प्रकारचं छे, अने उत्तरभेदे करीने तो मातृकापद विगेरे त्राशी प्रकारचें छे. आ सर्व मूल अने उत्तरभेद सहित सूत्रथी अने अर्थथी विच्छेद पाम्युं छे. ए सात परिकर्ममा प्रथमना छ परिकर्म स्वसमय संबंधी ज छे अने गोशाळके प्रवर्तावेल आजीविका नामना पाखंडी सिद्धांतना मते तो च्युताच्युतश्रेणिका नामना परिकर्म सहित साते परिकर्म कहेला छे. हवे ते साते परिकर्मने विपे नयनी Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाया -पत्र ॥ - ॥२५२॥ चिंता (विचार) करे छे तेमा नैगम नय बे प्रकारनो छे-सांग्राहिक अने असांनाहिक. तेमां संग्रहमा जे प्रवेश करेलो होय ते सांगा- दृष्टिवाद हिक अने व्यवहारमा जे प्रवेश करेलो होय ते असांग्राहिक कहेवाय छे. तेथी करीने संग्रह १, व्यवहार २, ऋजुसूत्र ३ अने शब्दा- परिचय॥ दिक मळीने एक ज ४, एम चार नय मानेला छे. आ चारे नयवडे करीने स्वसमय संबंधी छ परिकर्म चिंतवाय छे. तेथी करीने मूळ सूत्रमा कमु छ के–'छ चउकनयाई ति(छ परिकर्म चार नयवाळा ) होय छे. इति । चळी तेओ ज ॐ आजीविक एटले त्रिराशिवाळा कहेला छे. शाथी? ते कहे छे-कारण के तेओ सर्व वस्तु ऋण स्वरूपवाळी इच्छे छे. जेमके जीव, अजीव अने जीवाजीव; लोक, अलोक अने लोकालोकसत् , असत् अने सदसत् विगेरे. नयनी चिंतामां पण तेओ त्रण नयने इच्छे छे. ते आ प्रमाणे-द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक अने उभयार्थिक. तेथी करीने मूळ सूत्रमा कह्यु के-'सत्त तेरासिय त्ति'-सात परिकर्मने त्रैराशिक पाखंडीओ त्रण प्रकारनी नयचिंतावडे चिंतवे छे, ए एनो अर्थ छे. 'सेत्तं परिकम्मे त्ति' (ते आ परिकम कर्दा)-ए निगमन कहुं ॥ १॥ से किं तं सुत्ताई' इत्यादि. तेमां सर्व द्रव्य, पर्याय अने नय विगेरे अर्थने सूचवनार होवाथी सूत्र कहेवाय छे. ते सूत्रो अठाशी छे. ते सर्वे सूत्रथी अने अर्थथी विच्छेद पाम्या छे, तो पण जोयाने (जाण्याने) अनुसारे काइक लखाय । छे-आ ऋजुक विगेरे चावीश सूत्रो छे, ते ज विभागथी अट्ठाशी थाय छ, केवी रीते ? ते कहे छ-आ बावीश सूत्रो छिन्नच्छेद नयने आश्रीने स्वसमयना सूत्रनी परिपाटीए कह्या छे. अहीं जे नय छिन्न एवा सूत्रने छेदवडे इच्छे छे, ते छिन्नच्छेद नय कहेवाय छे. जेमके-धम्मो मंगलमुकिलु' इत्यादि श्लोक सूत्रथी अने अर्थथी प्रत्येक छेदे करीने ५ ॥२५२॥.. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जुदापणाए करीने) रहेलो छे ते वीजा, त्रीजा विगेरे कोइ पण श्लोकनी अपेक्षा राखतो नथी, एटले के दरेक श्लोकने छेडे तेनो अर्थ पूर्ण थाय छे तेथी ते वीजानी अपेक्षा राखता नथी. आ बावीश सूत्रो स्वसमय सूत्रनी परिपाटीए रहेलां आनो छे, तथा ए ज बावीश सूत्रो अच्छिन्नच्छेद नयवाळा आजीविक सूत्रनी परिपाटीए रहेलां छे, भावार्थ आ प्रमाणे छे-अहीं जे नय छेदवडे अच्छिन्न सूत्रने इच्छे छे ते अच्छिन्नच्छेद नय कहेवाय छे. जेम के 'धम्मो मंगलमुक्किहं ' इत्यादि श्लोक ज अर्थथकी ( अर्थने आश्रीने ) बीजा, त्रीजा विगेरे श्लोकनी अपेक्षा करनार छे अने वीजो, त्रीजो विगेरे श्लोको पहेला श्लोकनी अपेक्षा करे छे ए रीते परस्पर सर्व श्लोको अपेक्षावाळा होय छे एम समजवुं. आ बावीश सूत्रो आजीविक अने गोशालके प्रवर्तावेला पाखंडसूत्रनी परिपाटीए करीने अक्षररचनाना विभागवडे रहेला छे ( दरेक श्लोकमां रहेला अक्षरो जुदा जुदा छे, परस्पर संबंधवाळा नथी ) तो पण अर्थथी ( अर्थनी अपेक्षा) . तो परस्पर अपेक्षावाळा छे ज । ' इचेइयाई ' इत्यादि सूत्र. तेमां ' तिकनइयाई ति -त्रण नयना अभिप्राय ( अपेक्षा) वडे चिंतवाय छे. एवो अर्थ छे. अहीं जे त्रिराशिया कह्या ते आजीविक ज कहेवाय छे. (आ त्रिराशिक रोहगुप्तथी जुदा संभवे 'छे ) तथा ' इच्चेइयाई ति ' इत्यादि सूत्र, तेमां ' चउक्कनइयाई ति ' - चार नयना अभिप्रायथी चिंतवाय छे, एम भावार्थ जाणवो. ' एवमेव ' इत्यादि सूत्र. ए प्रमाणे चार वावीश मळीने अट्ठाशी सूत्र थाय छे. ' से त्तं सुत्ताई ति ' ( ते आसूत्र कहां ) ए निगमननुं वाक्य छे ॥ २ ॥ हवे ते पूर्वगत शुं छे ? ते कहेवाय छे—जेथी करीने तीर्थंकर भगवान तीर्थप्रवृत्तिने समये गणधरोने सर्व सूत्रोनो ४३ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोधू अंग आधार होवाथी प्रथम पूर्वगत सूत्रनो अर्थ कहे छे तेथी करीने ते पूर्व एवा नामे कहेला छे. वळी गणधरो सूत्रनी रचना दृष्टिवाद समवायाङ्ग करता सता आचारांगादिक सूत्र अनुक्रमे रचे छे अने स्थापन करे छे. अन्यनो मत एवो छ के-पूर्वगत सूत्रनो अर्थ परिचय । प्रथम अरिहंते कयो अने गणधरोए पण पूर्वगत श्रुतने ज प्रथम रच्यु छ अने पछी आचारांगादिक रच्यां छे. अहीं कोई शंका करे के-जो एम होय तो आचारांगनी नियुक्तिमा कयुं छे के 'सव्वेसिं आयारो पढमो' (सर्वने मध्ये आचारांग प्रथम छे ) इत्यादि शी रीते घटी शके ? उत्तर-ते नियुक्तिमां तो स्थापनने आश्रीने ते प्रमाणे कयुं छे अने अहीं तो अक्ष॥२५३|| रनी ( सूत्रनी ) रचनाने आश्रीने कयुं छे के प्रथम पूर्वो रच्यां छे इति । हवे ते पूर्वगत चौद प्रकारे कयु छे. ते आ प्रमाणे'उप्पायेत्यादि'-तेमां पहेलु उत्पाद पूर्व छ, अने ते पूर्वमा सर्व द्रव्य अने पर्यायोना उत्पाद( उत्पत्ति )पणाने अंगीकार करीने प्रज्ञापना( व्याख्या ) करी छे. तेना पदोनुं परिमाण (पदोनी संख्या ) एक करोड छे १, बीजुं पूर्व अग्रेणीय छे. तेमां पण सर्व द्रव्यो अने पर्यायो तथा जीवविशेषो( विशेष प्रकारना जीवो )नु अग्र एटले परिमाण वर्णन कराय छ तेथी ते अग्रणीय कहेवाय छे, तेनुं पदपरिमाण छन्नु लाख पदनुं छे २, त्रीजु पूर्व वीर्यप्रवाद छे. तेमां पण कर्म सहित अनेक कर्म रहित एवा जीव अने अजीवनुं वीर्य कहेलुं छे, तेथी ते वीर्यप्रवाद कहेवाय छे. तेनुं सीतेर लाख पदनुं प्रमाण छे ३, चोथु पूर्व अस्तिनास्तिप्रवाद नामर्नु छे. लोकमां जे जे पदार्थ जे प्रकारे छ अथवा जे प्रकारे नथी, अथवा तो स्याद्वाHदना अभिप्रायथी ते ज वस्तु छे अने ते ज वस्तु नथी ए प्रमाणे जे कहे ते अस्तिनास्तिप्रवाद कहेवाय छे. ते पण पदना परिमाणथी साठ लाख पदनुं छे ४, पांचमुं पूर्व ज्ञानप्रवाद नामनुं छे. तेने विपे मतिज्ञानादिक पांच ज्ञानना मेदनी प्ररू ॥२५॥ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणा करी छे तेथी ते ज्ञानप्रवाद कहेवाय छे. तेना पदनुं प्रमाण एक करोडमा एक पद ओछं एटलं छे ५, छटुं पूर्व सत्यप्रवाद नामनुं छे. तेमां सत्य एटले संयम अथवा सत्य वचन, ते भेद सहित अने प्रतिपक्ष सहित जेमा वर्णन करेलुं छे ते सत्यप्रवाद कहेवाय छे. तेनुं परिमाण एक करोड अने छ पद छे ६, सातमु पूर्व आत्मप्रवाद नामे छे. एटले के जेम नयोने देखाडवापूर्वक अनेक प्रकारे आत्मानुं वर्णन करेलुं छे ते आत्मप्रवाद कहेवाय छे. तेनुं पदपरिमाण छवीश करोड पद जेटलं छे ७, आठमुं पूर्व कर्मप्रवाद नामे छे. एटले के जेमा ज्ञानावरण विगेरे आठ प्रकारचं कर्म-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग (रस), 11. | प्रदेश विगेरे भेदोवडे अने बीजा उत्तरोत्तर भेदोवडे वर्णन कराय छे ते कर्मप्रवाद कहेवाय छे. तेनुं परिमाण एक करोड अने एंशी हजार पदनुं छे ८, नवमुं पूर्व प्रत्याख्यान प्रवाद नामर्नु छे. तेमां सर्व प्रकारना प्रत्याख्यानोनुं स्वरूप वर्णन करेलुं छे तेथी ते प्रत्याख्यानप्रवाद कहेवाय छे. तेनुं परिमाण चोराशी लाख पदनुं छे ९, दशमुं पूर्व विद्यानुप्रवाद नामनुं छे. तेमां विद्याना | अनेक अतिशयो वर्णव्या छे. तेनुं परिमाण एक करोड अने दश लाख पदनुं छे १०, अग्यारसुं पूर्व अवंध्य नामनुं छे. तेमां वंध्य एटले निष्फळ, अने नहीं वंध्य ते अवंध्य एटले सफळ एवो तेनो अर्थ छे कारण के तेमां ज्ञान, तप, संयम अने योग INए सर्वे शुभ फळवडे सफळ वर्णन कराय छे अने प्रमादादिक सर्व अप्रशस्त अशुभ फळवाळा वर्णन कराय छे, तेथी तेनुं नाम अवंध्य छे. तेनुं परिमाण छवीश करोड पदनुं छे ११, बारमुं प्राणायु नामर्नु पूर्व छे. तेमां पण आयुष्य अने प्राणNI (श्वासोच्छ्वास )नुं विधान सर्व भेद सहित तथा बीजा प्राणोनुं वर्णन कयु छे. तेनु परिमाण एक करोड अने छप्पन लाख पदनु छ १२, तेरखें पूर्व क्रियाविशाळ नामर्नु छे. तेमां कायिकी विगेरे क्रिया विशाळ एटले भेद सहित संयमक्रिया, छंद Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र !! चोथुं अंग ॥२५४॥ क्रिया अने विधान वर्णन कराय छे तेथी तेनुं नाम क्रियाविशाल छे. तेना पदनुं परिमाण नव करोड छे १३, तथा चौदमुं 1. पूर्व लोक बिंदुसार नामनुं छे. ते आ लोकमां के श्रुतरूपी लोकमां अक्षरने माथे बिंदुनी जेम (सारभूत एटले) सर्वोत्तम छे तेथी - अने सर्व अक्षरोना सन्निपात ( एकठा थवा ) वडे प्रतिष्ठित ( उत्तम ) होवाथी लोकबिंदुसार कहेवाय छे. तेनुं प्रमाण साडा चार करोड पदनुं छे १४ इति । ' उप्पायपुव्वस्स ' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के नियमित अर्थनो अधिकार जेमां प्रतिबद्ध ( कल ) होय एवो अध्ययननी जेवो जे ग्रंथ विशेष ते वस्तु कहेवाय छे. तथा चूडा ( चूलिका ) ना जेवी चूडाएटले के अहीं दृष्टिवादमां परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत अने अनुयोगवडे कहेला अने नहीं कहेला अर्थनो संग्रह करवामां तत्पर एवी जे ग्रंथनी पद्धति ते चूडा कहेवाय छे. ' से तं पुव्वगते त्ति' (ते आ पूर्वगत कं) ए निगमन करूं ॥ ३ ॥ " से किं तमित्यादि ' - अनुरूप ( सदृश ) अथवा अनुकूल एवी जे योग ते अनुयोग एटले पोताना अभिधेय - ( कवा लायक अर्थ )नी साथै सूत्रनो अनुरूप संबंध, ए भावार्थ छे. ते अनुयोग वे प्रकारनो कह्यो छे. ते आ प्रमाणेमूल प्रथमानुयोग अने गंडिकानुयोग. ' से किं तमित्यादि - अहीं प्रथम तो धर्म रचवा थकी तीर्थंकरो ज मूळ छे, . तेमनो सौथी प्रथम समकितनी प्राप्तिवाको पूर्व भवादिकना विषयवाळो जे अनुयोग ते मूळ प्रथमानुयोग कहेवाय छे. ते चावत मूळ सूत्रमां कयुं छे के' से किं तं मूलपढमाणुओगे ' - इत्यादि ' से त्तं मूलपढमाणुओगे ' त्यां सुधीनुं सूत्र पाठसिद्ध-सुगम अर्थवाळु छे । ' से किं तमित्यादि - अहीं एक ( सरखी ) वक्तव्यताना अर्थवाळा अधिकारने अनुसरनारी वाक्यनी पद्धतिओ गंडिका कहेवाय छे, तेमनो जे अनुयोग एटले अर्थ कहेवानो विधि ते गंडिकानुयोग कहे दृष्टिवाद परिचय | ॥२५४॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय छे. ते विषे मूळ सूत्रमां कह्युं छे के' गंडियाणुओगे अणेगेत्यादि - तेमां कुलकर गंडिकाने विषे विमलवाहन विगेरे कुलकरोना पूर्वजन्मादिक कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे शेष ( वाकीनी ) गंडिकाने विषे अभिधान प्रमाणे ( गंडिकाना नाम प्रमाणे ) अर्थ चित्रांतर गंडिका सुधीनो जाणवो. तेमां विशेष ए के -- समुद्रविजयने आरंभीने वसुदेव पर्यंत दश दशाह जाणवा. तथा चित्रा एटले अनेक अर्थवाळी अंतरे एटले ऋषभ अने अजितनाथने आंतरे गंडिका एटले एक वक्तव्यताना अर्थवाळा अधिकारने अनुसरनारी, त्यारपछी चित्र एवी अंतरगंडिका ते चित्रांतरगंडिका एम (चित्र अने अंतरगंडानो कर्मधारय समास करवो ) आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे -- श्रीऋपभस्वामी अने श्रीअजितनाथ तीर्थकरना आंतरामां तेना वंशमां थयेला राजाओने वीजी गतिमां जवाना अभावने लीधे मात्र मोक्षगति अने अनुत्तरविमाननी प्राप्तिने कनारी चित्रांतरगंडिका कहेवाय छे. ते गंडिका " चोइस लक्खा० - - चौद लाख राजाओ निरंतरपणे सिद्ध थाय, पछी एक राजा सर्वार्थसिद्धे जाय. ए प्रमाणे एक एक स्थानने विषे असंख्याता पुरुषयुग थाय छे " इत्यादि ग्रंथे करीने नंदि - सूत्रांनी टीकामां का छे त्यांथी ज जाणी लेवा, केमके अहीं तो मात्र सूत्रनी ज व्याख्या कहेवानी इच्छा राखी छे इति शेष सूत्र निगमन पर्यंत सुगम छे. तेमां विशेष ए के - ' संखेज्जा वत्थु त्ति '- संख्याती एटले बसो ने पचीश वस्तु छे. ' संखेजा चूलवत्थु त्ति '-- संख्याती एटले चोत्रीश चूलिका वस्तु छे. इति ॥ १२ ॥ सूत्र- १४७ ।। द्वादशांग विषे विराधना करवाथी उत्पन्न थतुं त्रिकाळ संबंधी फळ देखाडता सता कहे छे- मू० - इच्छेयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग। सूत्र॥ चोघं अंग ॥२५५॥ संसारकंतारं अणुपरियटिंसु, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा आणाए । दृष्टिवाद विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियति, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले परिचण। अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहिस्संति, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं वीईवइंसु, एवं पडुप्पण्णेऽवि, एवं अणागएऽवि । दुवालसंगे णं गणिपिडगे ण कयावि णत्थि, ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवति य भविस्सति य (अयले) धुवे णितिए सासए अक्खए अबए अवट्ठिए णिच्चे, से जहा णामए पंच अस्थिकाया ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सति, भुविं च भवति य भविस्सति य, ( अयला ) धुवा णितिया सासया अक्खया अवया अवट्ठिया णिच्चा, एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवति य भविस्सइय, (अयले) धुवे जाव अवट्ठिए णिच्चे। एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंताभावा अणंता अभावा अणंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा ॥२५५॥ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अता अकारण अता जीवा अणंता अजीवा अणंता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अनंता सिद्धा अनंता असिद्धा आघविनंति पण्णविज्जंति परुविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उव • दंसिज्जति । एवं दुवालसंगं गणिपिडगं इति ॥ सूत्रम् - १४८ ॥ मूलार्थ:- : -आ द्वादशांग गणिपिटकने अतीतकाळे (भूतकाळे ) अनंत जीवो आज्ञाए विराधीने चातुरंत संसाररूपी अरण्यमां भम्या छे, आ द्वादशांग गणिपिटकने वर्तमान काळे परित ( संख्याता ) जीवो आज्ञाए विराधीने चातुरंत irani भ्रमण करे छे, आ द्वादशांग गणिपिटकने अनागत ( भविष्य ) काळे अनंत जीवो आज्ञाए विराधीने चातुरंत संसारावीमां भ्रमण करशे, आ द्वादशांग गणिपिटकने अतीत काळे अनंत जीवो आज्ञाए आराधीने चातुरंत संसार कांतारने ओलंग्या छे, ए ज प्रमाणे वर्तमान काळे अने भविष्य काळे पण कहेवुं । आ द्वादशांग गणिपिटक कदापि नथी एम नहीं, कदापि नहोतुं एम नहीं अने कदापि नहीं होय एम पण नहीं, ( परंतु सदाकाळ ) हतुं, छे अने हशे वळी ते ( द्वादशांग गणिपिटक ) अचळ, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे । जेम के ( आ लोकमां ) 1 पांच अस्तिकाय कदापि नहोता एम नहीं, कदापि नथी एम पण नहीं अने कदापि नहीं होय एम पण नहीं, ( परंतु सदाकाळ ) हता, छे अने हशे . वळी ते ( पांच अस्तिकाय ) अचळ, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे, एज प्रमाणे द्वादशांग गणिपिटक कदापि नहोतुं एम नहीं, कदापि नथी एम नहीं अने कदापि नहीं होय एम Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२५६॥ पण नहीं. ( परंतु सदाकाळ ) हतुं, छे अने हशे वळी ते अचळ, ध्रुव यावत् अवस्थित अने नित्य छे । आ द्वादशांग गणिपिटक विषे अनंत भावो, अनंत अभावो, अनंत हेतुओ, अनंत अहेतुओ, अनंत कारणो, अनंत अकारणो, अनंत जीवो अनंत अजीवो, अनंत भवसिद्धिओ, अनंत अभवसिद्धिओ, अनंत सिद्धो अने अनंत असिद्धो कहेवाय छे, प्रज्ञापन कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शन कराय छे अने उपदर्शन कराय छे. ते आ प्रमाणे द्वादशांग गणिपिटक कां ॥सूत्र - १४८ ॥ टीकार्थ:-' इच्चेइयं ' इत्यादि -आ द्वादशांग गणिपिटकने अतीत (भूत) काळने विषे अनंत जीवो आज्ञावडे विराधीने चातुरंत संसारकांतारमां पर्यटन करता हता, कारण के आ द्वादशांग सूत्र, अर्थ अने उभय ( सूत्र अने अर्थ बन्ने ) भेदवडे त्रण प्रकारनुं छे. तेथी करीने आज्ञावडे एटले कदाग्रहने लीघे पाठादिकने अन्यथा करवारूप सूत्राज्ञावडे ( विराधीने) अतीत काळने विषे अनंत जीवो चतुरंत संसारकांतारमां एटले नारकी, तिर्यच, नर अने देवरूप विविध वृक्षोना समूहने लीधे दुस्तर एवा आ गाढ भवारण्यमां जमालिनी जेम पर्यटन करता हता, अने कदाग्रहने लीधे अन्यथा प्ररूपणा(विपरीत अर्थ कहेवा ) रूप अर्थाज्ञावडे ( विराधीने ) गोष्ठा माहिलादिकनी जेम तथा पांच प्रकारना आचारनुं ज्ञान अने तेज प्रमाणे क्रिया करवामां उद्यमवाळा गुरु जे आदेश आपे तेनाथी विपरीत करवारूप उभयाज्ञावडे गुरुना प्रत्यनीकपणे वर्तता द्रव्यलिंगने धारण करनारा अनेक साधुओनी जेम सूत्र, अर्थ अने उभयनी विराधना करीने अथवा तो द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनी अपेक्षावाळं आगममां कहेलं जे अनुष्ठान ते रूपी आज्ञाने विराधीने नहीं करीने पर्यटन करता हता, एवो भावार्थ जाणवो । ' इचेइयं ' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के परिता जीवो एटले संख्याता जीवो दृष्टिवाद परिचय | ॥२५६॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावा, केमके वर्तमानकाळमां विशिष्ट विराधक मनुष्यरूपी जीवो संख्याता ज होय छे. 'अणुपरियद्वंति त्ति - अनुपरावर्तन करे छे एटले भ्रमण करे छे. 'इचेइयमित्यादि -आ सूत्रनो अर्थ पण कहेबाई गयो ज छे. विशेष ए के - ' अणुपरियहिस्संति त्ति ' -- अनुपरावर्तन करशे एंटले पर्यटन करशे. । ' इच्चेइयं ' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष एके --' विश्वसु त्ति ' व्यतिक्रम करता हता एटले के चतुर्गति संसारने ओळंगीने मुक्ति पाम्या हता. ए ज प्रमाणे प्रत्युत्पन्न ( वर्तमान ) काळे पण जाणवुं, तेमां विशेष ए छे के' विश्वयंति त्ति' व्यतिक्रम करे छे एटले . ओळंगे छे एम अर्थ करवो. ए ज प्रमाणे अनागत (भविष्य ) काळे पण जाणवुं, तेमां विशेष ए के - ' वीइवइस्संति . त्ति ' -- व्यतिक्रम करशे एटले ओलंगशे एम अर्थ करवो । जे आ अनिष्ट अने इष्ट मेदवाळं फळ कयुं, ते आ द्वादशांग नित्य स्थायि होय तो ज बनी शके, तेथी ते बाबत कहे छे - ' दुवालसंगे ' इत्यादि - - अहीं ' णं' ए शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. आ द्वादशांग गणिपिटक अनादिपणुं होवाथी कदापि नहोतुं एम नहीं, निरंतर होवाथी कदापि नथीएम पण नहीं, अने अंत रहित होवाथी कदापि नहीं होय एम पण नहीं. त्यारे ते केतुं छे १ सर्वकाळे हतुं, छे अने हशे एवं छे, तेथी करीने आ· ( गणिपिटक ) त्रणे काळे होवापणुं होवाथी अचळ छे, अचळपणुं होवाथी मेरु पर्वता - दिकनी जेम ध्रुव छे, ध्रुवपणुं होवाथी ज पांच अस्तिकायने विपे जेम लोक कहेवाय छे तेम नियत छे, नियतपणुं होवाथी ज समय अने आवळिका विगेरेने विषे जेम काळ कहेवाय छे तेम शाश्वत छे, शाश्वत होवाथी ज गंगानदीनो प्रवाह अविच्छिन्न नीकळता छतां पण जेम पद्मद्रहनुं जळ अक्षय रहे छे तेम वाचना विगेरे आप्या छतां पण अक्षय छे, अक्षयपणं Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग पत्र ॥ चोy अंग ॥२५॥ होवाथी जमानुपोत्तर पर्वतनी वहार रहेला समुद्रनी जेम अव्यय छे, अव्ययपणुं होवाथी ज जंबूद्वीपादिकनी जेम पोताना प्रमाणमा ( सावीतपणामां) अवस्थित (स्थिर रहेल) छे, अने अवस्थितपणुं होवाथी ज आकाशनी जेम नित्य छे. इति.IN परिचय। हवे आ अर्थमां दृष्टांत आपे छ-'से जहा नामए' इत्यादि-जेम धर्मास्तिकाय विगेरे पांचे अस्तिकाय कदापि नहोता एम नहीं, इत्यादिक पूर्वनी जेम जाणवू । 'एवामेव ' इत्यादिक दार्टीतिकनी योजना पाठसिद्ध ज ( सुगमार्थ ज) छ । 'एत्थ णं' इत्यादि-आ द्वादशांग गणिपिटकने विपे अनंत भावो कहेवाय छे एवो संबंध जाणवो. तेमां' भवन्ति' एटले जे होय ते भाव एटले जीवादिक पदार्थो, आ पदार्थों जीव अने पुद्गळर्नु अनंतपणुं होवाथी अनंत छ. तथा अनंत अभावो कहेवाय छे, एटले के सर्वे पदार्थों अन्यरूपे करीने अछता (अभावरूपे) होवाथी ज अभावो पण अनंत छे केमके दरेक वस्तुतत्त्व स्वपरनी सत्तानो भाव अने अभाव ए बन्नेने आधीन होय छे (घटरूपी वस्तु जे ते स्व एटले पोतानी-घटनी सत्ता-होवापणारूप भावने आधीन छे, ते ज घटवस्तु परनी एटले पटनी सत्ताना अभावने आधीन छे.) ते आ प्रमाणेजीव जे ते जीवात्मा( जीवस्वरूप )वडे भावरूपे छे अने अजीवात्मावडे अभावरूपे छे. जो एम न होय तो (जीवमां) अजीवपणानी प्राप्ति थइ जाय. अन्य आचार्यों तो-"धर्मनी अपेक्षाए अनंत भावो अने अनंत अभावो वस्तु वस्तु प्रत्ये अस्तित्व अने नास्तित्ववडे प्रतिबद्ध ( संबंधवाळा) छे" एम व्याख्यान करे छे. तथा अनंत हेतुओ कहेवाय छे, तेमां जाणवाने इच्छेला विशिष्ट अर्थो( पदार्थो )ने जे 'हिनोति-गमयति '-प्राप्त करे-जणावे ते हेतु कहेवाय छे. ते हेतुओ वस्तुना अनंत धर्मो होवाथी अने तेनाथी ( हेतुथी) प्रतिबद्ध एवा धर्मवडे विशिष्ट वस्तुने जणावनार होवाथी अनंत छे. ॥२५॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केमके हेतु अने सूत्र अनंतगमा अने अनंत पर्यायवाळा छे इति. तथा कहेला हेतुना प्रतिपक्षपणाथकी अनंता अहेत छे. तथा अनंता कारणो छ, घट बनाववामां माटीनो पिंड कारण छे अने पट बनाववामां तंतु कारण छे विगेरे. तथा अनंता अकारणो छे, केम के सर्व कोइ पण कारण बीजा कार्यनुं कारण थइ शकतुं नथी. जेमके माटीनो पिंड कांइ पटने बनावी शके नहीं. तथा अनंता जीवो-प्राणीओ छे एज प्रमाणे अजीवो एटले व्यणुकादिक अनंता छ, तथा भवसिद्धिक एटले भन्यो, सिद्धा एटले निष्ठित अर्थवाळा, बीजा (असिद्ध) ते संसारी जाणवा. आधविजंति' इत्यादिक पूर्वनी जेम जाणवा. ॥सूत्र-१४८॥ उपर द्वादशांगनुं स्वरूप कह्यु. हवे तेना अभिधेयनी अंतर्गत वे राशि होवाथी तेनुं स्वरूप कहेवाने इच्छता सता कहे छ मू०-दुवे रासी पन्नत्ता, तं जहा-जीवरासी अजीवरासी य । अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-रूवी अजीवरासी अरूवी अजीवरासी य । से किं तं अरूवी अजीवरासी ? अरूवी अजीवरासी दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए । रूबी अजीवरासी अणेगविहा पन्नत्ता। जाव से किं तं अणुत्तरोववाइआ ? अणुत्तरोववाइआ पंचविहा पन्नत्ता, तं जहाविजयवेजयंतजयंतअपराजितसव्वट्ठसिद्धिआ, से तं अणुत्तरोववाइआ, से तं पंचिंदियसंसारसमावण्णजीवरासी । दुविहा णेरइया पन्नत्ता, तं जहा-पजत्ता य अपज्जत्ता य, एवं दंडओ भाणि १. अहींथी जीवराशीनी शरुआत थाय छे. - Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग दृष्टिवाद परिचय। सूत्र॥ चोथं अंग ॥२५८॥ यवो जाव वेमाणिय त्ति । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए. उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अट्ठसत्तरि जोयणस- यसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवाए णेरइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाया । ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया असुभाओ णिरएसु वेयणाओ, एवं सत्त वि भाणियव्वाओ जं जासु जुज्जइ-आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं अट्ठत्तरमेव बाहल्लं ॥१॥ तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई। तिण्णेगं पंचूणं पंचेव अणुत्तरा नरगा ॥ २॥ चउसट्री असुराणं चउरासीइंच होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्नाण वाउकुमाराण छण्णउइ ॥३॥दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं । छण्हं पि जुवलयाणं बावत्तरिमो य सयसहसा(स्सा)॥ ४॥ बत्तीसट्ठावीसा बारस अंड चउरो य सयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे॥५॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाssरणच्चुए तिन्नि । सत्त विमाणसयाइं चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥ ६ ॥ एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्तु ॥२५॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 त्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ ७ ॥ दोच्चाए णं पुढवीए तच्चाए viyढवी उत्थी पुढवीए पंचमीए पुढवीए छट्टीए पुढवीए सत्तमीए पुढवी गाहाहिं भाणि - यव्वा । सत्तमाए पुढवीए पुच्छा, गोयमा ! सत्तमाए पुढवीए अट्टुत्तरजोयणसयसहस्साइं बाहmr वर अद्धनं जोयणसहस्साइं ओगाहेत्ता हेट्ठा वि अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साइं वज्जिन्त्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया पन्नता, तं जहा - काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे नामं पंचमे । ते णं निरया वट्टे यतंसा य अहे खुरप्पसंठाणसंठिया जाव असुभा नरगा असुभाओ नरपसु वेयओ ॥ सूत्रम् - १४९ मूलार्थ:--- वे राशि कही छे. ते आ प्रमाणे - जीवराशि अने अजीवराशि. अजीवराशि वे प्रकारे कही छे. ते आ प्रमाणे - रूपी अजीवराशि अने अरूपी अजीवराशि. ते अरूपी अजीव राशि कइ ( केटला प्रकारनी ) छे ? अरूपी अजीवराशि दश प्रकारे कही छे. ते आ प्रमाणे -- धर्मास्तिकाय ( विगेरे त्रणना त्रण त्रण भेद थतां नत्र अने) यावत् अद्धासमय ( एम दश ) . रूपी अजीवराशि अनेक प्रकारे कही छे (त्यांथी मांडीने) यावत् (जीवराशिना भेदो कहेतां अनुत्तरोपपा ४४ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे राशि विचार॥ तिक देवो कया छे त्यांसुधी टीकामांथी कहेवू.) ते अनुत्तरोपपातिक कया (केटला प्रकारे) छ ? अनुत्तरोपपातिक पांच समवायाङ्ग प्रकारे कह्या छे. ते आ प्रमाणे-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित अने सर्वार्थसिद्धिक. ते आ अनुत्तरोपपातिक कह्या. ते सूत्र॥ आ संसारने पामेला ( संसारी) पंचेंद्रिय जीवराशि कही. । तेमां नारको वे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-पर्याप्ता अने बो' अंग अपर्याप्ता. ए ज प्रमाणे दंडक कहेवो (ते दंडकनुं वर्णन करवू) यावत् वैमानिक आवे त्यांसुधी । आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटला क्षेत्रने अवगाहीने एटले जइने-ओळंगीने केटला नरकावासा कह्या छ ? हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीनो पिंड ॥२५९॥ एक लाख ने एंशी हजार योजन प्रमाण छे, तेमां उपरथी एक हजार योजन अवगाहीने तथा नीचेना एक हजार योजन वर्जीने मध्यमां एक लाख ने अहोतेर हजार योजन रह्या, ते ठेकाणे रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे नारकीना त्रीश लाख नरकावासा छे एम में कां छे । ते नरकावासा अंदरना भागमा वर्तुल (गोळ ) अने बहारना भागमा चतुरस्र ( चोखंडा) छे, यावत् ते नरको अशुभ छे अने ते नरकोमा अशुभ वेदनाओ छे. ए ज प्रमाणे साते नरक संबंधी ज्या जेवू घटे तेवू कहेवु. (अहीं all सात गाथाओ छे तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे)-पहेली पृथ्वीनुं बाहल्य एक लाख एंशी हजार योजन- छे, चीजीजें एक लाख बत्रीश हजार योजन, त्रीजीनु एक लाख अठ्ठावीश हजार योजन, चोथीनुं एक लाख वीश हजार योजन, पांचमीचें एक लाख अढार हजार योजन, छठीनुं एक लाख सोळ हजार योजन अने सातमी पृथ्वीनुं बाहल्य एक लाख ने आठ हजार योजन प्रमाण छे (१)। तथा पहेली पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावासा छे, बीजीमां पचीश लाख, त्रीजीमां पंदर लाख, चोथीमा दश लाख, पांचमीमांत्रण लाख, छठीमां पांच ओछा एक लाख अने सातमी पृथ्वीमा मात्र पांच ज अनुत्तर ॥२५९॥ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अधिकता रहित ) नरकावासा छे (२) (कुल ८४ लाख छे ) । असुरकुमारना चोसठ लाख भवन छे, नागकुमारना चोराशी लाख भवन छे, सुवर्णकुमारना वोंतेर लाख अने वायुकुमारना छन्नु लाख भवन छे (३) । द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार अने अग्निकुमार, ए छए नीकायमां ( दक्षिण उत्तरना मळीने ) बॉतेर बोतेर लाख भवनो छे, (४) । ( कुल ७ क्रोड ने ७२ लाख भवनो छे ) पहेला सुधर्म देवलोकमां वत्रीश लाख विमानो छे, वीजा ईशान देवलोकमा अद्यावीश लाख, त्रीजा सनत्कुमारमां चार लाख, चोथा माहेंद्रमां आठ लाख, पांचमा ब्रह्मलोकमां चार लाख, छठ्ठालांतकमा पचास हजार, सातमा महाशुक्रमां चाळीश हजार, आठमा सहस्रारमां छ हजार, (५) | नवमा आनत ने दशमा प्राणतमां ( वेना मळीने ) चार सो, अग्यारमा आरण अने चारमा अच्युत देवलोकमां ( नेना मळीने ) त्रण सो विमानो छे, आ (९-१०-११-१२ ) चार कल्पने विषे कुल सात सो विमान छे ( ६ ) । नव ग्रैवेयकमां नीचेना त्रण ग्रैवेयकमां एक सो ने अग्यार, मध्यमना त्रणने विषे एक सो ने सात अने उपरना त्रणने विषे एक सो विमानो छे, तथा अनुत्तर देवलोकमां पांच ज विमान छे ( ७ ) ( कुल ८४९७०२३ विमानो छे.) । बीजी पृथ्वीने विषे, त्रीजी पृथ्वीने विषे, चोथी पृथ्वीने विषे, पांचमी पृथ्वीने विपे, छठ्ठी पृथ्वीने विपे अने सातमी पृथ्वीने विषे एम सर्व पृथ्वीने विषे उपर गाथामां का प्रमाणे नरकावासा कहेवा । तेमां सातमी पृथ्वी संबंधी प्रश्न कर्यो ( तेनो उत्तर) - हे गौतम ! सातमी पृथ्वी एक लाख ने आठ हजार योजन प्रमाण बाहल्यवाळी छे तेमां उपरथी साडी बावन हजार योजन अवगाहीने तथा नीचेथी साडी बावन हजार योजन वर्जीने मध्यना ऋण हजार योज Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाया सूत्र ॥ राशि विचार॥ चोधु अंग ॥२६॥ K 80 नमा सातमी पृथ्वीना नारकीना अनुत्तर अने महा मोटा पांच नरकावासा कह्या छे. तेना नाम आ प्रमाणे-काळ, महा- काळ, रोरुक, महारोरुक अने अप्रतिष्ठान नामनो पांचमो एम पांच छे. ते नरको वृत्त अने व्यस्र (वच्चेनो वर्तुल अने चार बाजुना चार त्रण खुणीया ) छे. नीचे क्षुरप्र(सजाया)ना संस्थाने रहेला छे, यावत् ते नरको अशुभ छे अने ते नरकोने विषे अशुभ वेदनाओ छे. ॥ सूत्र-१४९ ॥ . टीकार्थ:-अहीं प्रज्ञापना सूत्रनुं पहेलु पद प्रज्ञापना नामर्नु छे ते सर्व अक्षरे अक्षर कहेवु. क्यां सुधी कहेवू ? ते कहे छ-'जाव से किं तं' इत्यादि सूत्र पर्यंत कहे. केवळ आमां अने प्रज्ञापना सूत्रमा आटलो विशेष छे-अहीं 'दुवे। रासी पन्नत्ता' एवं अभिलापसूत्र छे (सूत्रनो आलावो छे), अने त्यां (प्रज्ञापना सूत्रमा) "दुविहा पण्णवणा पन्नत्ताजीवपण्णवणा अजीवपण्णवणा यत्ति" एवं सूत्र छे. सूत्रमा अतिदेश (भळामण) करेला प्रज्ञापनानुं आ पद लखी शकाय तेम नहीं होवाथी अर्थथकी तेनो लेशमात्र देखाडे छे-तेमां अजीवराशि वे प्रकारनो छे-रूपी अने अरूपी. तेमां अरूपी अजीवराशि दश प्रकारे छे-धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय देश, धर्मास्तिकाय प्रदेश, एज प्रमाणे अधर्मास्तिकाय अने आकाशास्तिकाय पण त्रण त्रण प्रकारे कहेवाथी कुल नव थया, तथा दशमो अद्धा समय जाणवो इति । रूपी अजीवराशि चार प्रकारे छे-स्कंध, देश, प्रदेश अने परमाणु. ते दरेक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानना भेदथी पांच पांच प्रकारना छे, (ते दरेकना बवे त्रण त्रण विगेरेना) संयोगथी अनेक प्रकार थाय छे इति । - जीवराशि वे प्रकारनो छ-संसारसमापन्न अने असंसारसमापन्न, तेमां असंसारसमापन्न जीवो वे प्रकारना छे-अनंतरसिद्ध ॥२६॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने परंपरसिद्ध. तेमां अनंतरसिद्ध पंदर प्रकारना छे अने परंपरसिद्ध अनंत प्रकारना छे. इति संसारसमापन्न जीवो तो एकेंद्रियादिक भेदथकी पांच प्रकारना छे. तेम एकेंद्रिय पृथ्व्यादिक भेदवडे पांच प्रकारना छे, ते दरेक सूक्ष्म अने चादर भेदवडे वे प्रकारना छे, वळी ( ते दरेक ) पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदे करीने प्रकारे छे, ए ज प्रमाणे द्वींद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिंद्रिय जीवो पण कहेवा. तथा पंचेंद्रियो नारकादिकना भेदथी चार प्रकारे छे. तेमां नारकी रत्नप्रभादिक पृथ्वीना भेदथी सात प्रकारे छे, पंचेंद्रिय तिर्यंच जळचर, स्थळचर अने खेचरना भेदी त्रण प्रकारे छे, तेमां जळचर मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर अने सुंसुमारना भेदथी पांच प्रकारे छे; तेमां पण मत्स्य श्लक्ष्णमत्स्यादिकना भेदथी अनेक प्रकारे छे, कच्छप अस्थिकच्छप अने मांसकच्छपना भेदथी वे प्रकारे छे, ग्राह दिलि, वेष्टक, मद्गु, पुलक अने सीमाकारना भेदथी पांच प्रकारे छे, मकर एटले मत्स्यविशेष, ते झुंडामकर अने करिमकर एम वे प्रकारना छे, तथा सुंसुमार एक ज प्रकारना छे. हवे वीजा स्थळचर चतुष्पद अने परिसर्पना भेदथी वे प्रकारे छे, तेमां चतुष्पद एक खुरवाळा, वे खरीवाळा, गंडीपद अने सनखपदना भेदथी चार प्रकारे छे, अने तेओ अनुक्रमे अश्व, गो, हस्ती अने सिंह विगेरे जातिवाळा छे, तथा परिसर्प उरपरिसर्प अने भुजपरिसर्पना भेदथी वे प्रकारे छे. तेमां उरपरिसर्पना चार भेद छे-अहि, अजगर, आशालिक अने महोरग. तेमां अहि वे प्रकारना छे - दर्वीकर अने मुकुली. तथा खेचरना चार भेद छेचर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी अने विततपक्षी. तेमां पहेला वे ( चर्मपक्षी अने लोमपक्षी ) वल्गुली अने हंस विगेरे भेदवाळा छे अने वीजा वे ( समुद्गपक्षी अने विततपक्षी ) बीजा ( अढी द्वीपनी बहारना ) द्वीपोमां छे. आ सर्वे पंचेंद्रिय Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२६२॥ तिच अने मनुष्यो संमूर्छिम अने गर्भज एम वे प्रकारना छे. तेमां जे संमूहिम छे ते एकला नपुंसक ज छे, अने बीजा ( गर्भज ) जे छे ते त्र लिंगवाळा (पुल्लिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंगवाळा ) छे. तेमां पण गर्भज मनुष्यो ऋण प्रकारना छेभूमि, कर्मभूमि ने अंतरद्वीपज. तेमां कर्मभूमिज वे प्रकारना छे-आर्य अने म्लेच्छ. आर्य वे प्रकारना छेऋद्धिने पामेला अने ऋद्धिने नहीं पामेला. तेमां पहेला ( ऋद्धिवाळा ) अरिहंत विगेरे छे. बोजा ( ऋद्धि रहित ) नव प्रकारना छे -- क्षेत्र, जाति, कुळ, कर्म, शिल्प, भाषा, ज्ञान, दर्शन अने चारित्र. हवे देवो चार प्रकारना छे - भवनपति विगेरे. • तेमां असुर, नाग, विगेरे दश प्रकारना भवनपति छे, पिशाच विगेरे आठ प्रकारना व्यंतर छे, चंद्र विगेरे पांच प्रकारना ज्योतिष छे अने कल्पोपपन्न अने कल्पातीत ए वे प्रकारे वैमानिक छे. तेमां सौधर्मादिक बार प्रकारना कल्पोपपन्न छे, अने कल्पातीत वे प्रकारना छे— ग्रैवेयक अने अनुत्तरोपपातिक. तेमां ग्रैवेयक नव प्रकारे छे अने अनुत्तरोपपातिक पांच प्रकारे छे. आ सर्व सूचवन करता ग्रंथकारे कछु के-' जाव से किं तं अणुत्तर ० ' इत्यादि । हवे पूर्वे कला जीवराशिने ज दंडकना क्रमवडे वे प्रकारे देखाडता सता कहे छे के – ' दुविहेत्यादि, ' आ सूत्र सुगम छे. विशेष ए के ' दंडओत्ति ' - ( ते दंडकनी गाथानो अर्थ आ प्रमाणे छे ) - " नारकीनो एक, असुरादिकना दश, पृथिव्यादिकना पांच, द्वींद्रियादिकना चारे, मनुष्यनो एक, व्यंतरनो एक, ज्योतिषनो एक अने वैमानिकनो एक. आ प्रमाणे चोवीस दंडक छे. ' १. द्वींद्रिय, श्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, ने तिथंच पंचेंद्रिय- एम ४ । वे राशि विचार ॥ ॥२६१ ॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे हमणां ज जणावेला पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदवाळा नारकादिकना स्थानने जणाववा माटे कहे छे--' इमीसे Nणं' इत्यादि अवगाहना सूत्र सुधी सर्व सुगम छे. विशेप ए के--ते णं निरया' इत्यादि. अहीं जीवाभिगमनी चूर्णिने अनुसारे लखे छे-नरकावासा वे प्रकारना छे--आवलिकाप्रविष्ट अने आवलिकाबाह्य. तेमां जे आवलिकाप्रविष्ट छे ते आठे दिशामां होय छे, अने ते वृत्त, व्यस्र अने चतुरस्रना क्रमे करीने जाणवा. तेना मध्यमां सीमंतक विगेरे इंद्रको होय छे तथा जे आवलिकानी बहार छे ते पुष्पावकीर्ण दिशा अने विदिशाना आंतरामां होय छे. (ते सर्वे) विविध संस्थाने रहेला छे. आ प्रमाणे नरक संस्थाननी व्यवस्था जाणवी. तेमां बहोळताने आश्रीने आ प्रमाणे कहेवाय छे--'अंतो वटेत्यादि, 'आ बावत सूत्रकृत( सुगडांग )नी वृत्तिना कर्ताए कह्यु छ के--" सीमंतकादिक नरको बहोळताने आश्रीने अंदर एटले मध्ये वृत्त छे, बहार चतुरस्र छे अने नीचे क्षुरप्रना संस्थाने (आकारे ) रहेला छे. आ संस्थान पुष्पावकीर्ण(नरकावासा)ने आश्रीने का छे केमके ते पुष्पावकीर्ण ज घणा छे. परंतु जे आवलिकामा प्रवेश करेला छे ते तो वृत्त, यस्र अने चतुरस्र संस्थानवाळा ज छे." तेमां अंदर शुपिर( पोलाण )ने आश्रीने मध्ये वर्तुल कह्या छे अने बहार कुड्य(भीत )नी परिधिने आश्रीने चतुरस्त्र कह्या छे. अहीं ' यावत् ' शब्द लख्यो छे, तेथी आ प्रमाणे जाणवु के-लीचे क्षुरप्रना संस्थाने रहेला छे एटले के भूतलने आश्रीने क्षुरप्रनी जेवा आकारवाळा छे केमके तेनुं भूतल त्यां चालनार प्राणीओना पादने छेदी नांखे तेवू छे. अन्य आचार्यों तो एम कहे छ के--"तेनी नीचेनो भाग क्षुरन जेवो छे एटले आगळ आगळ जतां पातळो अने विस्तारवाळो छे तेथी तेनुं क्षुरप्र जेवं संस्थान कहेवाय छे । " तथा 'निचंधयार०' " नित्य Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे राशि विचार ॥ समवाया चो' अंग ॥२६ ॥ अंधकारवडे रात्रि जेवा, तथा ग्रह, चंद्र, सूर्य अने नक्षत्ररूपी ज्योतिषनी प्रभा रहित, तथा मेद, वसा, पूय, रुधिर अने मांसना कादवबडे वारंवार अत्यंत लेपायुं छे तळियु जेर्नु एवा, तथा अपवित्र कोहेली गंधवाळा होवाथी अत्यंत दुर्गंधवाळा, तथा काळा अग्निना वर्णनी जेवी कांतिवाळा, तथा कठोर स्पर्शवाळा अने दुःखे करीने सहन थइ शके तेवा नरकावासो छे." तेमां नित्य एटले सर्वदा अंधकार एटले अंधपणाने करनार घणा वादळाना समूहवडे आच्छादित करेला गगनमंडळवाळी अमावास्यानी अर्ध रात्रिना अंधकार जेवो अंधकार जेमा छे ते नित्यांधकारतमस कहेवाय छे अथवा नित्यांधकारवडे एटले सर्व काळ रहेनारा अंधकारवडे जे तमस एटले रात्रि ते नित्यांधकारतमस कहेवाय छ, अर्थात् जन्मथी ज अंधपुरुपने मेघना अंधकारवाळी अमासनी मध्य रात्रि जेवी लागे तेवा अंधकारवाळा नरक छे. तेनु शुं कारण? ते कहे छे-व्यपगत एटले अविद्यमान छे ग्रह, चंद्र, सूर्य अने नक्षत्ररूप ज्योतिषोनी एटले ज्योतिष्क लक्षणवाळा विमानोनी अथवा ज्योतिपनी एटले दीवा विगेरेना अग्निनी प्रभा-प्रकाश जेमां एवा अथवा तो 'पह' एटले पथ-मार्ग एवो अर्थ करवो. तथा शरीरना अवयवो जे मेद, वसा, पूय, रुधिर अने मांस तेनो जे कादव तेनावडे लिप्त एटले लींपायेल छे अनुलेपनवडे एटले एक वार लींपायेलाने वारंवार उपलेपनवडे तळ एटले भूमितळ जेनुं ते मेदोवसापूयरुधिरमांसचिख्खिल्ललिप्तानुलेपतलाः कहेवाय छे. जो के ते नरकावासमां नारकीओने चैक्रिय शरीर होवाथी औदारिक पंचेंद्रियना शरीरना अवयवरूप मेद विगेरे होता नथी, तो पण त्यां तेवा ज आकारवाळा ते अवयवो कहेवाय छे. तथा ते नरको अपवित्र विश्र एटले आमगंधवाळा अर्थात् पूति (कोहेली) गंधवाळा छे, तेथी करीने ज अत्यंत दुर्गंधवाळा छे. तथा ते नरक 'काऊअगणिवण्णाभ त्ति'- ॥२६॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोढुं विगेरे धमवाथी जे काळो अग्नि थाय छे तेना वर्णनी जेवी आभा - कांति छे जेनी ते कृष्णाग्निवर्णाभ कहेवाय छे, तथा ते नरक कर्कश - कठोर छे स्पर्श जेनो ते कर्कशस्पर्शवाळा छे, तेथी करीने ज दुःखे करीने जेने विषे वेदना सहन करी शकाय छे, ते दुरधिसा कहेवाय छे, तेथी करीने ज नरको अशुभ छे अने ते नरकोने विषे अशुभ वेदना छे. ' एवं सत्त वि भाणियव्वा ' -- आ प्रमाणे साते नरक कहेवा. अहीं पहेली नरकने पण साथे गणवाथी साते एम कहुं छे. 'जं जासु जुज्जइत्ति - जे पृथ्वीने विषे वाहल्यनुं अने नरकावासानुं जे परिमाण योग्य होय ते अन्य स्थानमां का प्रमाणे ते पृथ्वीने विपे कहे. ते आ प्रमाणे - "आसीतं ०" गाथा तथा "तीसा य०" गाथा - रत्नप्रभाने विषे एक लाख ने एंशी हजार योजन प्रमाण बाहल्य छे. ए प्रमाणे शेष पृथ्वीओनुं कहेवुं. तथा पहेली पृथ्वीमां त्रीश लाख नरकावासा छे, एज प्रमाणे शेष पृथ्वीमां पण कहेवुं. असुरकुमार विगेरे दशेना, सौधर्मादिक कल्पना अने कल्पातीतना आवासनुं परिमाण सूत्रमां ज कहेल छे. ते निवासना परिमाणनो संग्रह करनारी ' चउसट्ठी ' विगेरे पांच गाथाओ मूळमां कही छे. (ते जाणी लेवी. ) हवे बीजी नरकपृथ्वीना सूत्रनो आलावो आ प्रमाणे कहेवो “ सक्करप्पभाए णं पुढवीए केवइयं ओगाहित्ता hasया निरया पन्नत्ता ?, गोयमा । सकरप्पभाए णं बत्तीसुत्तरजोयणसय सहस्सा हल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं. • सकरपभाए पुढ़वीए नेरइयाणं पणवीसं निरयावास सय सहस्सा भवतीति मक्खाया, ते णं निरया Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाया बोधू अंग ॥२६॥ इत्यादि"--" शर्कराप्रभा पृथ्वीने विषे केटला क्षेत्रने अवगाहीने ओळंगीने केटला नरकावासा कह्या छे ? हे गौतम ! आ वे राशि शर्कराप्रभा पृथ्वीनो पिंड एक लाख ने बत्रीश हजार योजन प्रमाण छे, तेमां उपरथी एक हजार योजन अवगाहीने तथा विचार॥ नीचेना एक हजार योजन वर्जीने मध्यमा एक लाख ने त्रीश हजार योजन रह्या, ते ठेकाणे शर्कराप्रभा पृथ्वीने विष नारकीना पचीश लाख नरकावासा छे एम में कयुं छे. ते नरको विगेरे सर्व कहेवू." आ प्रमाणे गाथामां कह्या प्रमाणे वीजा पण पांच आलावा कहेवा. ते ज कहे छे--" दोचाए" इत्यादि लइने “वेयणाओ" सुधीनुं सूत्र सुगम छे. विशेष ए के-'गाहाहिं ति'-अहीं करण अर्थमा तृतीया विभक्ति होवाथी गाथाए करीने एटले गाथाना अनुसारे करीने एवो अर्थ करवो. 'भणितव्याः ' नरकावासा कहेवा एम संबंध जाणवो. तथा ' वट्टे य तंसा यत्ति'-मध्यनो नरकावास वर्तुल छे, वाकीना व्यस्र-त्रण खूणीया छे. इति ॥ सूत्र-१४९॥ हवे असुरादिकना आवास संबंधी आलावो वतावे छे... मू-केवइया णं भंते ! असुरकुमारावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउसर्व्हि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता । ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पोक्खरकण्णि- G॥२६३॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसंठाणसंठिया उकिण्णंतरविउलगंभीरखायफलिहा अट्टालयचरियदारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतमुसलमुसंढिसयग्घिपरिवारिया अउज्झा अडयालकोट्ठरइया अडयालकयवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कडज्झतधूवमघमघेतगंधुध्धुयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवद्विभूया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा समिरीया सउज्जोआ पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एवं जं जस्स कमती तं तस्ल जं जं गाहाहिं भणियं तह चेव वण्णओ। ... केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा पुढवीकाइयावासा पन्नत्ता, lal एवं जाव मणुस्स त्ति । केवइया णं भंते ! वाणमंतरावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणIN प्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरिं एगं जोयणसयं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठसुजोयणसएसु एत्थणं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेजा नगरांवाससयसहस्सा पन्नत्ता, तेणं भोमेजानगरा बाहिं वहा अंतो चउरंसा, एवं जहा भव. Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बे राशि विचार ॥ णवासीणं तहेवणेयवा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा॥ समवायाङ्ग - केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए सूत्र ॥ मग पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाई जोयणसयाइं उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं दसु त्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा ॥२६॥ पन्नत्ता, ते णं जोइसियविमाणावासा अब्भुग्गयमूसियपहसिया विविहरमणिरयणभत्तिचित्ता वाउध्धुयविजयवेजयंतीपडागछत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयण पञ्जरुम्मिलिय छ मणिकणगथूभियागा वियसियसयपत्तपुंडरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ता अंतो बाहिं च सहा तवणिज्जवालुआपत्थडा सुहफासा सस्तिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा ॥ . केवइया णं भंते ! वेमागियावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीले णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उद्धं चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं वीइवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि बहूणि जोयणसयसहस्साणि बहुइओ ॥२६४॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जोयणकोडीओ बहुइओ जोयणकोडाकोडीओ असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ उडे दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं विमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदबंभलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअच्चुएसु गेवेज्जगमणुत्तरेसु य चउरासीइं विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउइं चली सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खाया, ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिव| ण्णाभा अरया नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सवरयणामया अच्छा सहा घट्ठा मट्ठा णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसह स्सा पन्नत्ता, एवं ईसाणाइसु अट्ठावीस बारस अट्ठ चत्तारि एयाइं सयसहस्साई पण्णासं चत्ता* लीसं छ एयाइं सहस्साइं आणए पाणए चत्तारि आरणच्चुए तिन्नि एयाणि सयाणि, एवं गाहाहिं भाणियत्वं ॥ सूत्रम्-१५० ॥ a मूलार्थ:-हे भगवान ! असुरकुमारना केटला आवास कह्या छे ? हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख ने एंशी Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ans देवसंबंधी विचार॥ हजार योजन बाहल्यवाळी छे, तेना उपरना भागथी एक हजार योजन अवगाहीने-ओळंगीने अने नीचे एक हजार योजन समवायाजवर्जीने मध्ये एक लाख ने अठोतेर हजार योजन रहे छे ते ठेकाणे रत्नप्रभा पृथ्वीमां (पृथ्वीना पोलाणमां प्रतरोना सूत्र ॥ आंतरामा) चोसठ लाख असुरकुमारना आवासो कया छे. ते भवनो बहारथी वृत्त छे, अंदर चतुरस्र छे, नीचे पुष्करनी कर्णिचोपं अंग। काना संस्थाने (आकारे) रहेला छे, जेनो अंतराल (बच्चेनो भाग) खोयो छे एवा, विस्तीर्ण अने गंभीर खात अने परिखा जे( आवास )ने छे एवा, तथा अट्टालक, चरिका, गोपुरना द्वार, कमाड, तोरण अने प्रतिद्वार (नानी बारी) ॥२६५॥ जेना देशभागमा छे एवा, तथा यंत्र, मुशळ, मुसुंढी अने शतघ्नीए करीने सहित एवा, तथा बीजाओ वडे युद्ध न करी शकाय एवा तथा अडताळीश कोठावडे रचेला एवा, तथा अडताळीश उत्तम वनमाळावाळा, तथा जेनो भूमिभाग छाणथी लीपेलो होय जेनी भीतो उपर खडी चोपडी होय एवी पृथ्वी अने भींतोबडे शोभता एवा, तथा घणा गोशीर्ष चंदन अने रसवाळा रक्तचंदनवडे जेनी भींतो उपर पांचे आंगळीवाळा थापा मारेला छे एवा, तथा कालागुरु, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क (चीडा) तथा तुरुष्क, तेना बळता धूपना मघमघता गंधे करीने अत्यंत मनोहर एवा, तथा सुंदर श्रेष्ठ गंधवाळा, तथा गंधद्रव्योनी वाटरूप थयेला, वळी ते आवासो स्वच्छ, कोमळ, सुंवाळा, घसेला, मसळेला तेथी करीने रज रहित, निर्मळ, अंधकार रहित, विशुद्ध, कांतिवाळा, किरणोवाळा, उद्योतवाळा, मनने प्रसन्न करनारा, जोवालायक, अभिरूप अने प्रतिरूप छे. ए ज प्रमाणे जे जेने घटे ते तेने जे जे गाथावडे का छे ते प्रमाणे वर्णन करवू. ते आ प्रमाणे- हे भगवान ! पृथ्वीकायना आवास केटला कया छ ? हे गौतम ! पृथ्वीकायना आवास असंख्य कह्या छे. एज ॥२६॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे यावत् मनुष्य सुधी कहेवुं. हे भगवान! वानव्यंतरना केटला आवास कहला १ हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीनं रत्नमय कांड हजार योजन बाहल्य छे, तेनी उपरथी एक सो योजन अवगाहीने तथा नीचेना एक सो योजन वजने वच्चेना आठ सो योजन रह्या, तेमां ( तेना पोलाणमां ) वानव्यंतर देवोना तिरछा असंख्याता लाख भौमेय ( भूमिमां रहेला ) नवास कला छे. ते भौमेय नगरो बहारथी वर्तुल छे, अंदर चतुरस्र छे, ए ज प्रमाणे जेम भवनवासी देवोना आवासोनुं वर्णन कहुं ते प्रमाणे जाणवुं. विशेष ए के-पताकानी माळाथी व्याप्त छे, अतिरम्य छे, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप अने प्रतिरूप छे । हे भगवान ! ज्योतिपीओना केटला विमानावासो कला छे ? हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना बहु समान रमणीय भूमिभागथकी सात सो ने नेतुं योजन ऊंचे जइए त्यां एक सो ने दश योजनना वाहल्यमां तिरछा ज्योतिपना विषयमां ज्योतिषी देवोना असंख्याता ज्योतिषिक विमानावासो कहेला छे. ते ज्योतिषिक विमानावासो चोतरफ अत्यंत प्रमरेली कांतिवडे उज्ज्वळ, विविध प्रकारना मणि अने रत्ननी रचनावडे आश्चर्यकारक, वायुए ऊडाडेली विजयने सूचनारी वैजयंती, पताका अने छत्रातिछत्रे करीने सहित, अति ऊंचा, आकाशतळने स्पर्श करता छे शिखर जेना, जाळीयानी अंदर रत्नो छे जेने एवा, पांजरामांथी बहार काढ्या होय तेवा, मणि अने सुवर्णना शिखर छे जेना एवा, विकस्वर शतपत्र कमळ, तिलक अने रत्नमय अर्धचंद्रवडे विचित्र एवा, अंदर अने बहार कोमळ, सुवर्णमय वालुकाना प्रतर छे जेमां एवा, सुख स्पर्शवाळा, सुंदर छे आकार जेनो एवा, तथा प्रासादनीय, दर्शनीय विगेरे विशेषणवाळा छे || Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हे भगवान ! वैमानिक देवोना आवासो केटला कया छे ? हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वीना बहु समान रमणीय का देवसंबंधी समवायाङ्ग भूमिभागथकी ऊंचे चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र अने ताराओने ओळंगीने घणा योजन, घणा सो योजन, घणा हजार योजन, विचार॥ सूत्र ॥ घणा लाख योजन, घणा करोड योजन, घणा कोटाकोटि योजन अने असंख्य कोटाकोटि योजन ऊंचे ऊंचे दूर जइए, त्यां चो अंग / वैमानिक देवोना सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, लांतक, शुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण अने अच्युत देवलोकने | ला विषे तथा नव ग्रैवेयक अने (पांच) अनुत्तर विमानने विपे चोराशी लाख, सत्ताणु हजार ने त्रेवीश विमानो छे, एम में कयु छे. ॥२६६॥ ते विमानो सूर्य जेवी कांतिवाळा, प्रकाशना समूहरूप सूर्यना जेवा वर्णवाळा, अरज, नीरज, निर्मळ, तिमिर रहित, विशुद्ध, सर्व रत्नमय, स्वच्छ, कोमळ, घसेला, मठेला, पंक रहित, निष्कंटक कांतिवाळा, प्रभा सहित, लक्ष्मी (शोभा) सहित, उद्योतवाळा, प्रासादनीय, दर्शनीय, अभिरूप अने प्रतिरूप छ.। हे भगवान ! सौधर्मकल्पमा केटला विमानावास कह्या छे ? हे गौतम ! बत्रीश लाख विमानो कया छे. एज प्रमाणे ईशान विगेरे कल्पोमां अनुक्रमे अठावीश लाख २, बार लाख ३, आठ लाख ४, चार लाख ५ आटला लाख जाणवा. पचास हजार ६, चाळीश हजार ७, छ हजार ८ आटला हजार जाणवा. आनत अने प्राणत ९-१० मां चार सो, तथा आरण अने अच्युत ११-१२ मांत्रण सो आटला सो जाणवा. ए प्रमाणे गाथावडे कहेयु ॥ सूत्र-१५० ।। ... टीकार्थ:-'केवइ.' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेप ए के-ते विमानो वहार वर्तुल एटले गोळ प्राकारथी बीटाजा येला नगरनी जेवा छे, अंदरना भागमा समचतुरस्र (चोखंडा) छे, केमके तेना अवकाशना स्थानो चतुरस्र छ माटे, ॥२६ - Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा तथा नीचेना भागमां पुष्करकार्णिकाना संस्थाने रहेला छे एटले पुष्करकर्णिका-कमळनो मध्यभाग, ते ऊंचा अने सरखा चित्रना बिंदुवाळो होय छे, तथा 'उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखेति'-उत्कीर्ण एटले पृथ्वीने खोदीने | पाळरूप कर्यु छे आंतरं जे बेनुं ते उत्कीर्णांतर कहीए, एवा विपुल अने गंभीर छे खात अने परिखा जेमना एवा भवनो छे, अहीं जे उपर अने नीचे सरखं होय ते खात कहेवाय छे, अने जे उपर विशाळ होय अने नीचे सांकडी होय ते परिखा कहेवाय छे. ते बन्नेनी बच्चे पाळ बांधेली छे एवा, तथा अट्टालक एटले प्राकारनी उपर रहेला आश्रयविशेष (कोठा), | चरिका एटले नगर अने प्राकारनी वच्चे आठ हाथनो पहोळो मार्ग, पाठांतरे चतुरक एटले गाममां प्रसिद्ध एवा सभाविशेष जाणवा, 'दारगोउर त्ति'-गोपुर( दरवाजा )ना द्वार अर्थात नगरनी प्रतोलीओ (दरवाजा), कपाट (कमाड) ए प्रसिद्ध छे, तोरण पण प्रसिद्ध छे, प्रतिद्वार एटले अवांतर (वचेना) द्वार, त्यारपछी अट्टालक विगेरे सर्व शब्दोनो द्वंद्व समास करवो. आ सर्व जेना देश(प्रदेश )रूप भागने विषे छे एवा विमानो छे. अहीं देश अने भाग ए बन्ने शब्दना घणा अर्थ थाय छे, तेथी आ बन्नेनो परस्पर विशेषण विशेष्यभाव जाणवो. तथा जंत एटले पथ्थर फेंकवाना यंत्र (गोफण) मुशळ( सांवेला )नो अर्थ प्रसिद्ध छे, मुसुंढी नामनुं शस्त्र, शतघ्नी एटले सेंकडोनो घात करनार मोटा काष्ठ अने शिलाना थांभला, आटलाए करीने सहित, तथा किल्ला होवाने लीधे परसैन्योए युद्ध न करी शकाय ते अयोध्य कहेवाय छे अथवा जेना प्रत्ये योधाओ एटले परसैन्यना सुभटो नथी ते अयोध कहेवाय छे. तथा' अडयालको[ग]रइया'-अडताळीश प्रकारना विचित्र छंद अने गोपुरवडे रचेला, अहीं अन्य आचार्यों कहे छे के ' अडयाल' शब्द प्रशंसा अर्थने कहेनारो - - राज Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसंबंधी विचार ॥ समवायाग घोघं अंग ॥२६७॥ छे. तथा 'अडयालकयवणमाला'-अडताळीश प्रकारनी प्रशंसाने लायक करी छ वनमाळा एटले वनस्पतिना पल्लवोनी माळा जेमां एवा, तथा 'लाइयं ति'-भूमिने जे छाण विगेरे बडे लीपवं अने 'उल्लोइयं ति'-भीतनी श्रेणिने सेटिका (खडी) विगेरे वडे जे धोळ, ते वे बडे जाणे के पूजित ( सहित ) होय ते 'लाउल्लोइयमहित' कहेवाय छे. तथा दर्दर एटले घणा एवा गोशीर्ष चंदन अने रस सहित जे रक्तचंदन एटले चंदन विशेष ते वे बडे जेनी भींतो विगेरे उपर पांचे आंगळीवाळा हाथा-थापा आपेला छे एवा, अथवा गोशीर्ष अने सरस रक्तचंदनना दर्दरवडे एटले चपेटा (लापट ) मारवावडे अथवा दर्दरने विपे एटले पगथियानी वीथी( श्रेणि )ने विषे पांचे आंगळीओना हाथा जेमां दीधा छे ते गोशीर्षसरसरक्तचंदनदर्दरदत्तपंचांगुलितल कहीए, तथा कालागुरु एटले कृष्णागुरु नामनो गंध विशेष, प्रवर एटले प्रधान ( श्रेष्ठ ) कुंदुरुक्क एटले चीडा अने तुरुष्क एटले सिल्हक ए पण गंधविशेष ज छ, आ सर्वे बळता एवा गंधनो जे धूमाडो मघमघायमान थतो होय अर्थात् अति घणो सुगंधवाळो धूमाडो, ते वडे उद्धर एटले उत्कट एवा अभिराम एटले रमणीय एम कर्मधारय समास करवो, एवा, तथा सुगंधी एटले खुशबोदार जे वरगंध एटले प्रधानवास ( श्रेष्ठ गंध ), तेनो गंध-आमोद छ जेने विपे ते सुगंधिवरगंधिक कहीए एवा, तथा गंधवति एटले गंधद्रव्योनी गंधयुक्तिना शास्त्रमा कहेला उपदेश(रीति )बडे बनावेली जे गुटिका तेनी जेवा (जे आवासो) ते गंधवर्तिभूत कहीए अर्थात् श्रेष्ठ गंधगुणवाळा एवा, तथा अच्छ एटले आकाशस्फटिकनी जेवा उज्ज्वळ, 'सण्ह त्ति'-सूक्ष्म परमाणुस्कंधथी बनावेला होवाथी श्लक्ष्ण एटले बारीक दळ( तंतु )थी बनावेल वस्त्रनी जेवा सूक्ष्म, ‘लण्ह त्ति'-लक्ष्ण एटले घुटेला वस्रनी जेवा ॥२६॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोमळ -संवाळा, 'घट्ट त्ति - कठण सराण उपर घसेली पथ्थरनी प्रतिमानी जेम घसेला होय तेवा, ' मह त्ति - कोमळ सराण उपर घसेली पथ्थरनी प्रतिमानी जेम मठेला होय तेवा, अथवा तो सावरणीए करीने साफ कर्या होय तेवा, तेथी करीने ज ' नीरयत्ति -रज रहित होवाथी नीरज, 'निम्मल त्ति - कठण मळनो अभाव होवाथी निर्मळ, ' वितिमिर त्ति ' - अंधकार रहित होवाथी वितिमिर, ' विसुद्ध त्ति - कलंक रहित होवाथी विशुद्ध एवा, पण चंद्रनी जेम कलंकवाळा नहीं, तथा ' सप्पभ त्ति 'समभ एटले प्रभा सहित अथवा प्रभाव सहित अथवा ' स्वेन ' एटले पोतानी मेळे ' प्रभान्ति ' शोभे अथवा प्रकाशे ते स्वप्रभाणि कहीए एवा, कारण के 'समरीय त्ति ' - मरीचि सहित एटले किरणो सहित छे, तेथी करीने ज ' सउज्जोय त्ति ' -उद्योत सहित एटले बीजी वस्तुने प्रकाश करवावडे जे वर्ते सोद्योत कहीए एवा, 'पासाईय त्ति ' - प्रासादीय एटले मननी प्रसन्नता करनारा, ' दरिसणिज त्ति ' - दर्श नीय एटले जोवा लायक अर्थात् तेने चक्षुवडे जोतां श्रम लागे नहीं तेवा, ' अभिरूव त्ति ' - अभिरूप एटले कमनीय-चहावा लायक, 'पडिरूव त्ति - प्रतिरूप एटले जोनार जोनार प्रत्ये ( सर्व कोइ जोनारने ) रमणीय लागे तेवा अर्थात् कोइकने ज रमणीय लागे तेवा नहीं. ' एवं ' इत्यादि - जेवी रीते असुरकुमारना आवासना सूत्रमां तेनुं परिमाण कहां छे, ते जप्रमाणे जे नागकुमारादिक निकायना जे भवनादिकनुं परिमाण घटे छे, ते तेनुं कहेवुं. केवा प्रकारनुं तेनुं परिमाण कहेवुं ? ते उपर कहे छे के - ' जं जं गाहाहिं भणियं ' जे जे ( परिमाण ) ' चउसट्ठि असुराणं' इत्यादि गावडे कहेतुं. ( प्रश्न ) - शुं एकलं परिमाण ज ते प्रमाणे कहेवुं ? ना. ( बीजुं पण कहेवुं ) ते कहे छे - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + समवायात सूत्र ॥ अंग . ॥२६८|| 'तह चैव वण्णओ त्ति ' – जे प्रकारे असुरकुमारना भवनोनो वर्णक कह्यो छे, ते प्रकारे सर्वेनो वर्णक कहेवो. ते आ प्रमाणे- "केवइया णं भंते ! नागकुमारावाससयस हस्सा० " " हे भगवान ! नागकुमारना आवासो केटला लाख का छे ? हे गौतम ! आ रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख ने एंशी हजार योजन बाहल्यवाळी छे, तेनी उपरथी एक हजार योजन अवगाहने तथा नीचे एक हजार योजन वर्जीने मध्ये एक लाख ने अहोतेर हजार योजन रह्या ते ठेकाणे रत्नप्रभाना पोलाणमां (प्रतरोना आंतरामां ) चोराशी लाख नागकुमारना आवासो छे एम में कह्युं छे. ते भवनो इत्यादि पूर्ववत् कहेवुं. तथा ( सुवर्णकुमारना ७२ लाख अने वायुकुमारना ९६ लाख छे.) द्वीपकुमारादिक छ प्रकारना देवोना प्रत्येकना छोंतेर छोंतेर लाख आवासो कहेवा. || "केवइया णं भंते ! पुढवि० " इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के - मनुष्यो संख्याता ज छे, केमके गर्भज मनुष्यो असंख्याता छे ज नहीं, तेथी तेना ( गर्भज मनुष्योना ) संख्याता ज आवासो छे, अने संमूच्छिम मनुष्यो असंख्याता छे तेथी दरेक शरीरे आवास होवाथी असंख्याता आवासो छे ॥ 66 “ केवइया णं भंते जोइसियाणं विमाणावासा " इत्यादि, ( सुगम छे. तेमां विशेष ए के ) मूसियपहसिय त्ति " - अभ्युद्गत एटले उत्पन्न थयेली अने उत्सृत एटले प्रचळपणाए करीने सर्व दिशाओमां प्रसरेली अब्भुग्णयजे प्रभा एटले दीप्ति, ते वडे सिता एटले शुक्ल ( उज्ज्वळ ) एवा विमान आवासो छे, तथा विविध एटले अनेक प्रकारना मणि एटले चंद्रकांत विगेरे अने रत्न एटले कर्केतन विगेरे, तेओनी भक्ति एटले रचना विशेष, तेवडे चित्र एटले चित्र देवसंबंधी विचार ॥ ॥ २६८ ॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाळा अथवा आश्चर्य उत्पन्न करनारा एवा ते आवासो छे, तथा वातोद्धूत एटले वायुए कंपावेली विजयने एटले अभ्युदयने सूचवनारी वैजयंती नामनी पताकाओ अथवा विजय एटले वैजयंती ( पताका ) नी पार्श्वकर्णिका कहेवाय छे, ते जेमां प्रधान (मुख्य) छे एवी वैजयंती अने ते ( पार्श्वकर्णिका)थी रहित एवी पताका अने छत्रातिछत्र एटले उपराउपर रहेला छत्र, वडे कलित एटले युक्त एवा आवासो छे, तथा ते आवासो तुंग एटले ऊंचाइना गुणवाळा अर्थात् अत्यंत ऊंचा छे, तेथी करीने ज गगनतळने एटले आकाशतळने अनुलिखत् एटले उल्लंघन करनार छे शिखर जेना एवा छे, तथा जेना जालां - तरने विषे एटले जाळीयाना मध्य भागने विषे रत्नो रहेला छे ते ' जालांतररत्नाः' कहीए. अहीं - मूळ सूत्रमां प्रथमा विभक्तिना बहुवचननो लोप थयो छे एम जाणवुं भवन ( घर )नी भींतोमां जाळीयां होय छे ते लोकप्रसिद्ध ज छे. तेनी मध्ये शोभाने माटे रत्नो मूकेलां होय एम संभवे ज छे, तथा ते आवासो जाणे पांजरामांथी मूकेला एटले बहार काढेला होय एवा लागे छे एटले के जेम कोइ पण वस्तु वांस विगेरेना करेला प्रच्छादन विशेष ( कंडीया, पेटी विगेरे ) रूप पांजरामांथी बहार काढी होय तो ते वस्तुनी कांति जरा पण विनाश पामेली नहीं होवाथी ते अत्यंत शोभे छे तेम ते आवासो पण शोभे छे, तथा मणि अने सुवर्ण संबंधी स्तूपिका एटले शिखर छे जेमना तेवा ते आवासो छे, तथा द्वारादिकने विषे प्रतिकृतिपणे स्थापन करेला जे विकस्वर शतपत्र पुंडरीक ( सो पांखडीवाळा कमळ ) अने भींत विगेरेमां रहेला तिलक अने द्वारा अग्रभागने विषे रहेला जे रत्नमय अर्धचंद्र, ते सर्ववडे चित्रविचित्र एवा ते आवासो छे, तथा अंदर अने बहार लक्ष्ण - कोमळ छे, तथा तपनीय एटले सुवर्णविशेष तेमय वाळुकानो एटले रेतीनो प्रस्तट एटले पाथडो छे जेमां एवा Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसंबंधी विचार ॥ चोथु अंग al अथवा तो श्लक्ष्ण शब्दने वालकानुं विशेषणरूप करवाथी कोमळ सुवर्णवालकाना पाथडावाळा एम व्याख्या करवी, तथा समवायाङ्ग ते आवासो सुखे स्पर्शवाळा अथवा शुभस्पर्शवाळा छ, तथा सश्रीक एटले शोभा सहित छे रूप एटले आकार जेनो एवा प्रतला अथवा शोभावाळा रूप एटले नरयुगलादिक रूपको छ जेने विषे ते सश्रीकरूप कहीए, तेवा छ, तथा प्रासादीय, दर्शनीय, || अभिरूप अने प्रतिरूप ए सर्वनो अर्थ पूर्वनी जेम जाणवो. | "केवइएत्यादि," रत्नप्रभा पृथ्वीना " बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ ति"-बहु समान रमणीय ॥२६९|| भूमिभागनी उपर तथा चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र अने तारारूप, अहीं ' णं'ए शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. आ बधाने NIY? ते कहे छे-आ सर्वने 'बीइवइत्त त्ति'-उल्लंघन करीने, अहीं 'तारारूप' एवो शब्द लख्यो छे तेनो अर्थ Fel ताराओ ज समजवा. तथा 'बहूनि'-घणा इत्यादि. शु? ते कहे छे-दूर अत्यंत ओळंगीने (वैमानिकोना ) चोराशी लाख विमानो होय छे एम संबंध करवो. ' इति मक्खाय त्ति'-आवा प्रकारवाळा अथवा जे कारण माटे आवा छे। दाते प्रकारवाळा अथवा ते कारण माटे सर्वज्ञ भगवाने कया छे. 'ते णं ति'-ते विमानो, ‘णं'ए शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे. 'अचिमालिप्पभ त्ति-अचिर्मालि एटले सूर्य, तेनी जेम जे शोमे ते अर्चिालिप्रभ कहीए, तथा भासनो एटले प्रकाशनो जे राशि ते भासराशि एटले सूर्य कहीए, तेना वर्ण (रंग) जेवी आभा एटले कांति छ जेनी की ते भासराशिवर्णाभ कहीए, तथा ' अरय त्ति' स्वाभाविक रज रहित होवाथी अरज ( रज रहित ) छे, तथा नीरय त्ति-आगंतुक रज रहित होवाथी नीरज छे, तथा निम्मल त्ति'-कर्कश मळनो अभाव होवाथी निर्मळ छे तथा शा Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Fol 'वितिमिर त्ति'-चोतरफथी दुर करवा लायक एवा अंधकारथी रहित होवाथी वितिमिर छे, तथा 'विसुद्ध त्ति'स्वाभाविक अंधकार रहित होवाथी अथवा समग्र दोष रहित होवाथी विशुद्ध छे, तथा सर्व रत्नमय छे परंतु काष्ठ विगेरेना दळवाळा नथी, तथा आकाशस्फटिकनी जेवा अच्छ--स्वच्छ छे, सूक्ष्म स्कंधमय होवाथी श्लक्ष्ण छ, कठण सराणवडे पथ्थरनी प्रतिमानी जेम घृष्ट-घसेलानी जेवा घसेला छे, तथा कोमळ सराणवडे पथ्थरनी प्रतिमानी जेम मृष्ट--मठारेलानी जेवा मठेला छे, तथा कलंक रहितपणुं होवाथी अथवा कर्दम ( कादव ) विशेषनो अभाव होवाथी निष्पंक छे, तथा निष्कंटक एटले कवच रहित--आवरण रहित-उपघात रहित छाया-दीप्ति छे जेनी ते निष्कंटकछाय कहीए, एवा छे, तथा प्रभावाळा, समरीच-किरणोवाळा, उद्योत सहित एटले बीजी वस्तुने प्रकाश करनारा, 'पासाइया' इत्यादिकनो अर्थ पूर्वनी पेठे जाणयो । “ सोहम्मे णं भंते कप्पे केवइया. "हे भगवान ! सौधर्म कल्पने विषे केटला विमानो कह्या छे ? हे गौतम ! वत्रीश लाख विमानो कह्या छे, एज प्रमाणे ईशान विगेरे कल्पने विपे पण जाणवा. ते ज कहे छ-' एवं ईसाणाइसु त्ति,'' गाहाहिं भाणियब्वं ति'-" बत्तीस अट्ठावीसा" इत्यादिक पूर्व कहेली गाथाओने अनुसारे कहेवा. दरेक कल्प प्रत्ये भिन्न परिमाणवाळा विमानावासो कहेवा, तथा तेनो वर्णक कहेवो. 'जाव ते णं विमाणा' त्यांथी लइने 'पडिरूवा' सुधी वर्णक कहेवो. तेमां विशेष ए के तेना आलावानो भेद आ प्रमाणे कहेवो-" हे भगवान ! ईशानकल्पमा केटला लाख विमानावासो कह्या छ ? हे गौतम ! अट्ठावीश लाख विमानावासो कया छे एम तीर्थकरोए कयुं छे. ते विमानो यावत् प्रतिरूप छे, ए प्रमाणे सर्व पूर्वे कहेली गाथाओने अनुसारे अने प्रज्ञापना सूत्रना Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का श्री . नारकादि आयुविचार॥ वीजा पदने अनुसारे कहे. इति ॥ सूत्र-१५०॥ समवायाङ्ग उपर नारकादिक जीवोनां स्थानो कह्यां, हवे ते नारकादिकनी ज स्थिति देखाडवा माटे कहे छे पत्र॥ मू०-नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साइं चोप अंग अग। उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता । अपजत्तगाणं नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई ॥२७०॥ पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्वं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । पज्जत्तगाणं जहन्नेणं दस वास सहस्साइं अंतोमुहत्तूणाई। उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तूणाई। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए एवं जाव विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं देवाणं केवडयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं बत्तीसं सागरोवमाइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । सव्वढे अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता ॥ सूत्रम्-१५१ ॥ - मूलार्थ:-हे भगवान! नारकीओनी केटलो काळ स्थिति कही छे ? हे गौतम ! जघन्यथी दश हजार वर्ष अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. हे भगवान ! अपर्याप्ता नारकीओनी केटलो काळ स्थिति कही छे ? हे गौतम ! जघन्यथी अंतर्मुहूर्त अने उत्कृष्टथी पण अंतर्मुहर्त्तनी स्थिति कही छे. तथा पर्याप्ता नारकीओनी जघन्यथी अंतर्मुः। ॥२७॥ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुर्त ओछी दश हजार वर्षनी अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त ओछी तेत्रीश सागरोपमनी कही छे. आ रत्नप्रभा पृथ्वी विगेरेने | विषेए जप्रमाणे कहेवु यावत् विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देवोनी केटलो काळ स्थिति कही छे ? हे गौतम! जघन्यथी वत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम कही छे. तथा सर्वार्थसिद्धने विष जघन्य अने उत्कृष्ट रहित तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. ॥ सूत्र-१५१ ॥ टीकार्थ-नेरइयाणं भंते' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष आ प्रमाणे--स्थिति एटले नारकादिक पर्याये करीने जीवोने रहेवानो काळ ' अपज्जत्तयाणं ति--नारकीओ लब्धिथकी तो पर्याप्ता ज होय छे, पण करणथकी तो उत्पत्तिने काळे एक अंतर्मुहर्त सुधी अपर्याप्ता ज होय छे अने त्यारपछी पर्याप्ता होय छे. तेथी तेओनी अपर्याप्तापणानी स्थिति जघन्यथी अने उत्कृष्टथी पण एक अंतर्मुहूर्त्तनी ज होय छे अने पर्याप्तानी तो जे ओघे कही छे ते ज एक अंतर्मुहूर्त ओछी जघन्यथी अने उत्कृष्टथी होय छे. अहीं पर्याप्ता अने अपर्याप्तानो विभाग आ प्रमाणे छे (वे गाथानो अर्थ )--" नारकी देवों, गर्भज तिर्यंच, अने गर्भज मनुष्य जे असंख्य वर्षना आयुष्यवाळा छे ते सर्वे उपपात( उत्पत्ति )ने समये अपर्याप्ता जाणवा (१)। अने बाकीना तिर्यच अने मनुष्यो लब्धिने पामीने उपपातने समये पर्याप्ता जने इतर (अपर्याप्ता) एम वे प्रकारे विभाग करवा. एवं जिनेश्वरनुं वचन छे. (२) इति "॥ सामान्यपणे नारकोनी स्थिति कही. हवे विशेषथी ते स्थितिने कहेवा माटे आ प्रमाणे कहे छे-'इमीसे णं' इत्यादि. सर्व स्थितिनुं प्रकरण प्रज्ञापना सूत्रमा प्रसिद्ध छे, तेथी तेनो अतिदेश (भळामण) करता सता कहे छेके-"एवमिति"-जेम प्रज्ञापना सूत्रमा सामान्य पर्याप्ता Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारकादि आयुविचार ॥ ॥२७॥ श्री. अने अपर्याप्ताना लक्षणवाळा त्रण गमाए करीने नारकीओनी, विशेष प्रकारना नारकीओनी अने तिर्यंचादिकनी स्थिति समवायाङ्ग कही छे तेम अहीं पण कहेवी. क्यां सुधी कहेवी ? ते कहे छे-'जाव विजयेत्यादि'-एटले के अनुत्तर देवोनी ओधिक, अपर्याप्तक अने पर्याप्तकनी स्थितिबाळा त्रण गमा सुधी कहेवी. अहीं अतिदेश ( भळामण) करेला सूत्रोनो अर्थ चोपं अंग || आ प्रमाणे कहेवो-भगवान ! रत्नप्रभाना नारकीओनी केटली स्थिति छ ? हे गौतम ! जघन्यथी दश हजार वर्षनी । | अने उत्कृष्टथी एक सागरोपमनी छे. १. हे भगवान! रत्नप्रभा पृथ्वीना अपर्याप्ता नारकीओनी स्थिति केटलो काळ कही। छ ? हे गौतम! (जघन्य अने उत्कृष्ट एम) बन्ने प्रकारे अंतर्मुहर्तनी ज कही छे. २. तथा पर्याप्ताओनी तो जे सामान्य कही छे ते ज एक अंतर्मुहूर्त ओछी कहेवी. ३." ए ज प्रमाणे शेष पृथ्वीना नारकीओनी प्रत्येकनी, असुरादिक दशेनी, पृथ्वीकाय विगेरेनी, तिर्यंचोनी, गर्भज अने इतर ( संमूर्छिम ) भेदवाळा मनुष्योनी, आठ प्रकारना व्यंतरोनी, पांच प्रकाNEL रना ज्योतिपीओनी अने सौधर्मादिक वैमानिकोनी स्थिति संबंधी त्रण त्रण गमा कहेवा. केटले दूर सुधी कहेवा ? ते कहे छे-'जाव विजयेत्यादि'-अहीं विजयादिकने विपे जघन्यथी बत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे, तेज प्रमाणे गंधहस्ती विगेरेना ग्रंथोमां पण देखाय छे, परंतु प्रज्ञापना सूत्रमा तो (जघन्य) एकत्रीश सागरोपमनी कही छे, ते मतांतर | जाणवू, अहीं पर्याप्तक अने अपर्याप्तकना चे गमा पोतानी मेळे जाणी लेवा. एज प्रमाणे सर्वार्थसिद्धि विमानना देवोनी से स्थिति पण त्रण गमावडे कहेवी ॥ सूत्र-१५१ ।। - उपर नारकादिक जीवोनी स्थिति कही. हवे तेओना शरीरनी अवगाहना प्रतिपादन करवा ( कहेवा) माटे कहे छे ॥२७॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० - कति णं भंते सरीरा पन्नत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा पन्नत्ता, तं जहा - ओरालिए वेउfar आहार तेयए कम्मए । ओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा - ए गिंदियओरालियसरीरे जाव गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरे य । ओरालियसरीरस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलअसंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमाणं तहा निरवसं, एवं जाव मस्से त्ति उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई । कइविहे णं भंते ! वेउद्द्वियसरीरे पन्नत्ते ? गोमा ! दुबिपन्न - एगिंदियवेउचियसरीरे य पंचिंदियवेउहियसरीरे य, एवं जाव सणकुमारे दत्तं जाव अणुत्तराणं भवधारणिजा जाव तेसिं रयणी रयणी परिहायज्ञ । आहारयसरीरे णं ते ! इव पनते ? गोयमा ! एगाकारे पन्नत्ते । जइ एगाकारे पन्नत्ते किं मणुस्स आहारयसरीरे अमणुस्स आहार यसरीरे ? गोयमा ! मणुस्स आहारगसरीरे णो अमणुस्स आहारगसरीरे, एवं जइ मणुस्सआहारगसरीरे किं गन्भवकंतियमणुस्स आहारगसरीरे संमुच्छिममणुस्स आहार Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग पत्र॥ चो) अंग ॥२७२॥ गसरीरे ? गोयमा ! गब्भवतियमणुस्सआहारगसरीरे नो समुच्छिममणुस्सआहारगसरीरे । जइ पांच प्रकार शरीर गब्भवतियमणुस्सआहारयसरीरे किं कम्मभूमिगा० अकम्मभूमिगा० ? गोयमा ! कम्मभूमिगा० विचार॥ नो अकम्मभूमिगा० । जइ कम्मभूमिगा० किं संखेजवासाउय० असंखेज्जवासाउय? गोयमा! संखेजवासाउय नो असंखेजवासाउय० । जइ संखेजवासाउय० किं पजत्तय० अपजत्तयः ? गोयमा ! पजत्तय० नो अपज्जत्तय० । जइ पजत्तय० किं सम्मद्दिट्टी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छ. दिट्ठी ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी नो मिच्छदिट्ठी नो सम्मामिच्छदिट्ठी । जइ सम्मदिट्ठी किं संजय० असंजय० संजयासंजय० ? गोयमा ! संजय० नो असंजय० नो संजयासंजय० । जइ संजय० किं पमत्तसंजय० अपमत्तसंजय० ? गोयमा ! पमत्तसंजय० नो अपमत्तसंजय० । जइ पमत्तसंजय० किं इड्डिपत्त० अणिढिपत्त० ? गोयमा ! इड्डिपत्त० नो अणिविपत्त० वयणा विभाणियवा आहारयसरीरे समचउरंससंठाणसंठिए । आहारयसरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं देसूणा रयणी उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी । तेआसरीरे | ॥२७॥ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंते! कतिविपन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते - एगिंदियतेयसरीरे बितिचउपंच० एवं जाव गेवेज्जस्स णं भंते ! देवस्स णं मारणंतिसमुग्धाएणं समोहयस्स समाणस्स के महालिया सरीरोगाहणा पन्नता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहन्नेणं अहे जव विजाहरसेढीओ उक्कोसेणं जाव अहोलोइयग्गामाओ, उड्डुं जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्खेत्तं, एवं जाव अणुत्तरोववाइया । एवं कम्मयसरीरं भाणियां ॥ सूत्रम् - १५२ ॥ मूलार्थ :- हे भगवान ! शरीर केटला कह्या छे ? हे गौतम ! पांच शरीर कहा छे, ते आ प्रमाणे- औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अने कार्मण । हे भगवान ! औदारिक शरीर केटला प्रकारनुं कर्तुं छे ? हे गौतम ! ( औदारिक शरीर ) पांच प्रकारनुं कर्तुं छे, ते आ प्रमाणे – एकेंद्रिय औदारिक शरीर यावत् गर्भव्युत्क्रांतिक (गर्भज ) मनुष्य पंचेंद्रियनुं औदारिक शरीर. हे भगवान ! औदारिक शरीरनी केटली मोटी शरीरनी अवगाहना कही छे ? हे गौतम ! जघन्यथी अंगुलना असंख्यामा भाग जेटली अने उत्कृष्टथी कांइक अधिक एक हजार योजन जेटली ( अवगाहना कही छे ) ए ज प्रमाणे जेम अवगाहना कही तेम संस्थान अने औदारिकनुं प्रमाण पण समग्र कहेवुं, ए ज प्रमाणे यावत् मनुष्यना शरीरनी अवगाहना उत्कृष्टथी त्रण गाउनी छे । हे भगवान ! वैक्रिय शरीर केटला प्रकारनुं कर्तुं छे ? हे गौतम! वे प्रकारनुं क छे- एकेंद्रिय वैक्रिय शरीर अने पंचेंद्रिय वैक्रिय शरीर. ए ज प्रमाणे यावत् सनत्कुमारथी आरंभीने यावत् अनुत्तर विमा Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥२७३॥ नना देवोनुं भवधारणीय शरीर. यावत् ( सनत्कुमारथी आरंभीने) तेओना शरीरमां एक एक रत्नीनी ( हाथनी ) हानि थाय छे। हे भगवान! आहारक शरीर केटला प्रकारनं कयुं छे! हे गौतम! एक ज आकारवाळु (प्रकार) कबुं छे. हे भगवान ! जो एक ज आकारनुं कर्तुं छे तो शुं ते मनुष्यनुं आहारक शरीर के अमनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! मनुष्यनुं आहारक शरीर कयुं छे पण अमनुष्यनुं आहारक शरीर की नथी. हे भगवान! जो आ प्रमाणे मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो शुं गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के संमूर्छिम मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर, पण संमूर्छिम मनुप्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान ! जो गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो ते कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के अकर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर पण अकर्मभूमिमा रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान ! जो कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के असंख्याता वर्षना आयुवाळा कर्मभूमिमा रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! संख्याता वर्पना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे, पण असंख्याता वर्पना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान! जो संख्याता वर्षना आयुष्यवाळानुं तो शुं ते पर्याप्तानुं के अपर्याप्तानुं ? हे गौतम ! पर्याप्तानुं पण अपर्याप्तानुं नहीं. हे भगवान ! जो पर्याप्तानुं तो शुं ते सम्यग्दृष्टिनुं । मिथ्यादृष्टिनुं ? के सम्यग्मिथ्यादृष्टिनुं ? हे गौतम! सम्यग्डष्टिनुं, पण मिध्यादृष्टिनुं नहीं, तेम ज सम्य मिध्यादृष्टिनुं पण नहीं. हे भगवान ! जो सम्यग्दृष्टिनुं तो शुं ते पांच प्रकार शरीर विचार ॥ ॥२७३॥ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयतनुं, असंयतनुं के संयतासंयत ( देशविरतिवाळा ) नुं १ हे गौतम ! संयतनुं, पण असंयतनुं नहीं, तेमज संयतासंयतनुं पण नहीं. हे भगवान ! जो संयतनुं तो शुं प्रमत्तसंयतनुं के अप्रमत्तसंयतनुं ? हे गौतम ! प्रमत्तसंयतनुं, पण अप्रमत्यनुं नहीं. हे भगवान ! जो प्रमत्तसंयतनुं तो शुं ते ऋद्धिने पामेलानुं के ऋद्धिने नहीं पामेलानुं ? हे गौतम ! ऋद्धिने पामेलानुं, पण ऋद्धिने अप्राप्तनुं नहीं. एज प्रमाणे सर्व वचनो संपूर्ण कहेवा ( एटले के - ऋद्धिप्राप्त, प्रमत्तसंयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक, संख्यातवर्षायुष, कर्मभूमिग, गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर जाणवुं . ) ते आहारक शरीर समचतुरस संस्थाने रहेलुं छे. हे भगवान ! आहारक शरीरनी केटली मोटी शरीरावगाहना कही छे ? हे गौतम ! जघन्यथी कांड़क ओछी एक हाथनी अने उत्कृष्टथी परिपूर्ण एक हाथनी । हे भगवान ! तैजस शरीर केटला प्रकार नुं कां छे ? हे गौतम ! तैजस शरीर पांच प्रकारनुं कर्तुं छे. ते आ प्रमाणे – एकेंद्रियनुं तैजस शरीर, एज प्रमाणे द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने पंचेंद्रियनुं पण क. प्रमाणे यावत् हे भगवान ! ग्रैवेयक देव मारणांतिक समुद्घातवडे हणाय (करे) त्यारे तेना शरीरनी अवगाहना केटली मोटी कही छे ? हे गौतम ! विष्कंभ बाहल्य शरीरना प्रमाणमात्र ज छे अने आयाम जघन्यथी नीचे मनुष्यलोकमां विद्याधरनी श्रेणि सुधी अने उत्कृष्टथी अधोलोकना गाम सुधी तथा उपर पोतपोताना विमाननी ध्वजा सुधी अने तिरछी मनुष्यक्षेत्र सुधी अवनाही . प्रमाणे यावत् अनुत्तरोपपातिक देव सुधी जाणवुं. ए ज प्रमाणे कार्मण शरीर संबंधी पण कहेवुं । सूत्र- १५२ ।। टीकार्थ :- ' कइ णं भंते ' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के एकेंद्रिय औदारिक शरीर इत्यादि जे लख्युं । १. अहीं ऋद्धिप्राप्त एटले चौदपूर्वी समजवा. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ C चो अंग ॥२७४॥ त्यां यावत् शब्द लख्यो छे तेथी द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने पंचेंद्रिय औदारिक शरीर पण पृथिव्यादिक एकेंद्रिय अने जळचरादिक पंचेंद्रियना भेदे करीने पूर्वे देखाडेला जीवराशिना क्रमे कहेवा. क्यां सुधी कहेवा ? ते कहे छे- ' गव्भवतिय' इत्यादि, 'ओरालियसरीरस्स ' इत्यादि - तेमां उदार एटले तीर्थंकरादिकना शरीरने आश्रीने प्रधान, अथवा उराल एटले विस्तारवाळु अर्थात् विशाळ वनस्पत्यादिकनुं शरीर हजार योजनथी कांइक वधारे प्रमाणवाळं छे -तेने आश्रीने अथवा उराल एटले थोडा प्रदेशवडे उपचित होवा छतां प्रमाणवडे मोडं होवाथी भेंडनी' जेम, अथवा मांस, अस्थि अने परुथी बंधायेलं जे शरीर ते समयनी परिभाषाए करीने उराल कहेवाय छे. आधुं उराल जे शरीर ते प्राकृतभाषाने लीधे ओरालिय शरीर कहेवाय छे, तेनुं ( अहीं शरीरने पष्ठी विभक्ति लेवानी छे ). जेने विपे अवगाहना ( प्रवेश ) कराय ते • अवगाहना एटले आधारभूत क्षेत्र, शरीरनी जे अवगाहना ते शरीरावगाहना कहेवाय छे. अथवा औदारिक शरीरवाळा जीवनी जे औदारिक शरीररूप अवगाहना ते हे भगवान ! केटली मोटी कही छे । तेमां जघन्यथी पृथिव्यादिकनी अपेक्षाए अंगुलना असंख्येय भाग जेटली अने उत्कृष्टथी बादर वनस्पतिनी अपेक्षाए कांइक अधिक एक हजार योजन जेटली कही छे. ' एवं जाव मणुस्से त्ति ' - अहीं आ प्रमाणे यावत् शब्द लखेलो होवाथी अवगाहना अने संस्थान नामना प्रज्ञापासून एकवीशमा पदमां कहेलो सर्व पाठ अर्थथी जाणी लेवो, ते आ प्रमाणे - प्रथम एकेंद्रिय औदारिकनो प्रश्न अने उत्तर कह्यो छे ते ज जाणवो. तथा पृथिव्यादिक बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त अने अपर्याप्त ए चारनी अवगाहना जघन्यथी १ भींडी जेम जुदा जुदा तांतणानी बनेली होवाथी प्रदेशो ओछा छतां जग्या वधारे रोके छे तेम ॥ पांच प्रकार शरीर विचार ॥ ॥२७४॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अने उत्कृष्टथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छे, बादर पर्याप्त वनस्पतिनी अवगाहना उत्कर्षथी साधिक एक हजार योजननी छे, बाकीनानी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छे. पर्याप्ता द्वींद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिंद्रियनी उत्कर्षथी अनुक्रमे बार योजननी,त्रण गाउनी अने चार गाउनी छे. पंचेंद्रिय तियेच मध्ये गर्भज अने संमृच्छिम एम बन्ने प्रकारना | पर्याप्ता जळचरनी अवगाहना उत्कर्षथी एक हजार योजननी छे, ए ज प्रमाणे संमूछिम पर्याप्ता चतुष्पद स्थळचरनी अवगाहना गव्यूतपृथक्त्व एटले वेथी नव गाउ सुधीनी छे अने ते ज गर्भज होय तो तेनी अवगाहना छ गाउनी छे. गर्भज उरपरिसर्पनी अवगाहना एक हजार योजननी छे अने संमूछिम एवा तेनी बेथी नव योजननी छे. गर्भज भुजपरिसर्पनी वेथी नव गाउ सुधीनी छे अने संमृर्छिम एवा तेनी बेथी नव धनुष्यनी छे. गर्भज अने संमृर्छिम खेचरोनी अवगाहना वेथी नव धनुष्यनी ज छे. तथा गर्भज मनुष्योनी अवगाहना त्रण गाउनी अनें संमूर्छिमनी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छे. आ ( अंगुलनो असंख्यातमो भाग) सर्वत्र जघन्यंपदे अने अपर्याप्तपदे जाणवो. ा तथा 'कइविहे णं' इत्यादि सूत्र स्पष्ट छे, तेमां विशेष एके-विविध प्रकारनी अथवा विशेष प्रकारनी जे क्रिया ते विक्रिया, तेने विषे जे थयुं ते वैक्रिय कहेवाय छे, अथवा तो विविध के विशिष्टने जे करे छे ते वैकुर्विक कहेवाय छे. का तेमां एकेंद्रिय वैक्रिय शरीर वायुकायने होय छे अने पंचेंद्रिय वैक्रिय शरीर नारकादिकने होय छे.।' एवं जाव' इत्याAMIT दिक अतिदेश (भलामण) होवाथी आप्रमाणे जाणवू के-हे भगवान! जो एकेंद्रियने चैक्रिय शरीर वायुकाय एकेंद्रियने वैक्रिय शरीर होय छे के अवायुकाय एकेंद्रियने वैक्रिय शरीर होय छे ? हे गौतम! वायुकाय एके Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायास सूत्र ॥ चो अंग ॥२७५॥ • द्रियने वैक्रिय शरीर होय छे, अवायुकाय एकेंद्रियने वैक्रिय शरीर होतुं नथी, इत्यादिक अभिलापे ( आलावा ) करीने आ अर्थ जाणवो-जो वायुकायने वैक्रिय शरीर होय छे तो ते सूक्ष्म वायुकायने के वादर वायुकायने होय छे ? हे गौतम! बादर होय छे. जो बादरने होय छे तो शुं पर्याप्ताने के अपर्याप्ताने ? हे गौतम ! पर्याप्ताने ज होय छे. हे भगवान ! जो पंचेंद्रियने (वैक्रिय शरीर होय छे ) तो शुं नारकीने, पंचेंद्रिय तिर्यंचने, मनुष्यने के देवने (वैक्रिय शरीर होय छे ) १ गौतम ! सर्वने (चारेने ) होय छे, तेमां साते प्रकारना नारकी पर्याप्ता अने अपर्याप्ता बन्नेने होय छे. हे भगवान ! जो तिर्यंचने होय छे तो शुं संमूर्छिमने के वीजाने ( गर्भजने ) १ हे गौतम ! बीजाने एटले गर्भजने ज होय छे, ते गर्भज - पण संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा पर्याप्ताने ज होय छे, ते पण जळचरादिक त्रणे भेदवाळाने ( वैक्रिय शरीर) होय छे. तथा मनुष्य होय छे ते गर्भजने ज होय छे, ते पण कर्मभूमिमां उत्पन्न थयेलाने ज, ते पण संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा पर्याप्त होय छे. तथा देव एटले भवनवासी चिरेने होय छे, तेमां दश प्रकारना असुरादिक पर्याप्ता अने इतर ( अपयता ) बन्नेने होय छे, ए ज प्रमाणे आठ प्रकारना व्यंतरने अने पांच प्रकारना ज्योतिपीने होय छे. तथा हे भगवान ! जो वैमानिक देवने (वैक्रिय शरीर ) होय छे तो शुं कल्पोपपन्न देवने के कल्पातीत देवने होय छे ? हे गौतम ! बने • प्रकारनाने होय छे ते पण पर्याप्ता अने अपर्याप्ता बन्नेने वैक्रिय शरीर होय छे. ॥ तथा हे भगवान ! वैक्रिय शरीर केवा संस्थान (आकार )बाळं होय छे ? आ प्रश्ननो जवाब कहे छे के हे गौतम! विविध प्रकारना संस्थानवाळं होय छे. तेमां वायुकायने पताकासंस्थानवाल, नारकीओने भवधारणीय अने उत्तरवैक्रिय SS प्रांच प्रकार शरीर विचार ॥ ॥२७५॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ने हुंडसंस्थानवाळ, पंचेंद्रियतिर्यंच अने मनुष्यने विविध प्रकारना संस्थानवालं अने देवोने भवधारणीय वैक्रिय शरीर | समचतुरस्र संस्थानवाळं अने उत्तरवैक्रिय विविध संस्थानवालं होय छे. मात्र कल्पातीत देवने भवधारणीय ज होय छे. तथा हे भगवान ! वैक्रिय शरीरनी अवगाहना केटली मोटी कही छे ? हे गौतम ! जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली अने उत्कर्पथी कांइक अधिक एक लाख योजन जेटली होय छे. तेमां वायुकायने बन्ने प्रकारे (जघन्य अने उत्कर्षथी) अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली कही छे. ए ज प्रकारे नारकीने जघन्यथी भवधारणीय शरीरनी अंगुलना असंख्यातमा भागनी अने उत्कर्षथी पांच सो धनुष्य जेटली ( अवगाहना ) कही छे. आ अवगाहना सातमी पृथ्वीने विषे जाणवी, छठी विगेरे पृथ्वीने विपे तो ए ज अवगाहना अर्ध अर्ध हीन जाणवी. परंतु उत्तरवैक्रिय शरीरनी अवगाहना तो सर्वेनी (साते पृथ्वीना नारकीनी ) जघन्यथी अंगुलना संख्यातमा भाग जेटली अने उत्कर्षथी अवगाहना भवधारN|| णीय शरीरथी बमणी जाणवी. पंचेंद्रिय तियंचोने उत्कर्षथी बसोथी नव सो योजननी जाणवी, मनुष्योने उत्कर्पथी कांइक अधिक एक लाख योजननी होय छे, देवोने उत्तर वैक्रिय शरीरनी अवगाहना एक लाख योजननी छे अने भवधारणीय | शरीरनी अवगाहना तो भवनपति, व्यंतर, ज्योतिपी, सौधर्म अने ईशानना देवोने सात हाथनी, सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पना देवोने छ हाथनी, ब्रह्म अने लांतकना देवने पांच हाथनी, महाशुक्र अने सहस्रार देवने चार हाथनी, आनतादिक चारने विषेत्रण हाथनी, नव ग्रैवेयकने विपे बे हाथनी अने अनुत्तर विमानने विपे एक हाथनी भवधारणीय शरीरनी १ अरधी अरंधी एटले छठ्ठीमा २५० धनुष्य, पांचमीमा १२५ धनुष्य, चोथीमां ६२॥ धनुष्य ए प्रमाणे समजवी. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्रः ॥ चो अंग ॥२७६॥ अवगाहना कही छे. आ हकीकतने सूत्रमां ज कहे छे - ' एवं जाव सणकुमारेत्यादि ' - एवं एटले ' दुविहे पत्ते एगिंदिय ' इत्यादि पूर्वे देखाडेला क्रमे करीने प्रज्ञापना सूत्रमां कहेलं वैक्रिय अवगाहनाना प्रमाणवाळं सूत्र कहेनुं. क्यां सुधी कहेतुं ? ते कहे छे - यावत् सनत्कुमारथी आरंभीने भवधारणीय वैक्रिय शरीरनी हानि जाणवी. एटलो अध्याहार छे. त्यांथी ( सनत्कुमारथकी ) पण यावत् अनुत्तराणि एटले अनुत्तरदेव संबंधी जे भवधारणीय शरीर छे त्यांसुधी एक एक रत्न ( हाथ ) नी हानि करवी, एवा अर्थवाळं सूत्र आवे त्यांसुधी कहेवुं इति । ग्रंथांतरमां तो आ वाक्य अन्यथा प्रकारनुं पण देखाय छे, तेमां पण अर्थनी घटना आने अनुसारे ज करवी ॥ ' आहारय ० ' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के 'एवमिति' - प्रथम जे प्रमाणे परिपूर्ण आलावो कह्यो छे ते ज प्रमाणे उत्तरत्र (पछी) पण कहेवो. ते आ प्रमाणे - 'जइ मणुस्स त्ति' - हे भगवान ! जो मनुष्यने आहारक शरीर कयुं छे, तो शुं गर्भज मनुष्य आहारक शरीर होय छे के संमूर्छिम मनुष्यने आहारक शरीर होय छे ? हे गौतम! गर्भज मनुष्यने आहारक होय छे, पण संमूर्छिम मनुष्यने आहारक शरीर होतुं नथी. हे भगवान ! जो गर्भज मनुष्यने आहारक शरीर होय छे तो, इत्यादि सर्व कहेतुं यावत् जो प्रमत्त संयत सम्यगष्टि पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिना गर्भज मनुष्यने आहारक • शरीर होय छे तो शुं ऋद्धिने पामेला प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिना गर्भज मनुष्यने आहारक शरीर होय छे के ऋद्धिने नहीं पामेला प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुवाळा कर्मभूमिना गर्भज मनुष्यने आहारक शरीर होय छे ? हे गौतम ! बीजानो निषेध अने पहेलानी अनुज्ञा कहेवी ( ऋद्धि प्रांच प्रकार शरीर विचार ॥. ॥२७६॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं पामेला प्रमत्तने होतुं नथी, ऋद्धि पामेलाने आहारक शरीर होय छे). एज बावत कहे छ-'वयणा विभाणियव्व त्ति'-सूचवन करेला वचनो पण सर्वे कहेला न्याये करीने कहेवा, अर्थात् विभागवडे ( जुदा जुदा ) संपूर्ण उच्चारण करवा । . 'आहारय त्ति' हे भगवान ! आहारक शरीरनी केटली मोटी शरीरावगाहना कही छे ? हे गौतम ! एम सूचवन कयु छे के जघन्यथी काइक न्यून रत्नि जेटली कही छे. ( उत्कृष्टथी पूर्ण रत्नि कहेल छे) केवी रीते ? ते कहे छे-तथाप्रकारना प्रयत्न विशेषथकी अने तथाप्रकारना आरंभक द्रव्यविशेषथकी प्रारंभने समये पण कडं तेटलं ज प्रमाण होय छे, कारण के औदारिकादिक शरीरनी जेम प्रारंभने काळे अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली अवगाहना होती नथी, एवो भावार्थ छे. .: 'तेयासरीरे णं भंते ' इत्यादि, 'एवं जाव'-यावत् शब्द लख्यो छे तेथी प्रज्ञापना सूत्र संबंधी एकवीशमा पदमां कहेल तैजस शरीरनी वक्तव्यता अहीं कहेवी, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे-हे भगवान ! एकेंद्रियर्नु तैजस शरीर केटला प्रकारचें कह्यु छ ? हे गौतम ! पांच प्रकारचें कयुं छे. ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकायथी लइने वनस्पतिकाय सुधीना एकेंद्रियना तैजस शरीर कह्या छे. ए प्रमाणे जीवराशिनी प्ररूपणाने अनुसारे सूत्रनी भावना करवी, यावत् सर्वार्थसिद्धिक अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देवरूप पंचेंद्रियर्नु तैजस शरीर हे भगवान! केवा संस्थानवाळु कयुं छे ? हे गौतम ! | विविध संस्थानवाल्छं कयुं छे. जे पृथिव्यादिक जीवनुं जे औदारिकादिक शरीरनुं संस्थान कयुं छे ते ज तैजस शरीर अने कार्मण शरीरनुं जाणवू. । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ श्रधुं अंग १२७७॥ तथा मारणांतिक समुद्घातने पामेला जीवना तैजस शरीरनी अवगाहना केटली कही छे ? हे गौतम ! विष्कंभ अने वाल्यवडे शरीरना प्रमाण जेंटली अने आयामवडे जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली अने उत्कर्षथी ऊंचे अने नीचे लोकांतथी आरंभीने लोकांत सुधी जाणवीः केमके एकेंद्रिय जीव त्यांथी (अधोलोकांतथी) त्यां ( उर्ध्व लोकांते) उत्पन्न यह शके छे तेने आश्रीने आ जाणवुं एवो भावार्थ छे. एज प्रमाणे सर्व (पांचे) एकेंद्रिय संबंधी जाणवुं, परंतु द्वींद्रिय जीवोनी तो आयामवडे उत्कर्षथी तिर्यग्लोकथी आरंभीने तिर्यग् लोकांत सुधी जाणवी; केमके प्राये करीने तिर्यग्लोकमां द्वींद्रियादिक तिर्यच होय छे. नारकीना तैजस शरीरनी अवगाहना जघन्यथी एक हजार योजननी छे. केवी रीते ? ते कहे छेनरकमांथी नीकळीने पाताळकळशना एक हजार योजनना मानवाळा कुड्य ( ठीकरी ) ने भेदीने तेमां मत्स्यपणे उत्पन्न थाय तेने आधीने तेटली अवगाहना होय छे अने उत्कृष्टथी नीचे सातमी पृथ्वी सुधी अवगाहना होय छे, आ प्रमाण सातमी पृथ्वीनो नारकी समुद्रादिकना मत्स्यने विषे उत्पन्न थाय तेने आश्रीने जाणवुं तिरहुं स्वयंभूरमण समुद्र सुधी अने ऊंचे पंडकवननी पुष्करिणी (वाव) सुधी जाणवु, केमके नारकी जीव ते बन्नेमां उत्पन्न थइ शके छे, पण तेनाथी आगळ उत्पन्न थता नथी. तथा मनुष्यना तैजस शरीरंनी अवगाहना (सर्वदिशाएं) लोकांत सुधी जाणवी तथा भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म अने ईशान कल्पना देवोना तैजस शरीरनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छे, केमके तेओ पोताने स्थाने ज पृथ्वीकायादिकपणे उत्पन्न थइ शके छे, अने उत्कर्षथी नीचे त्रीजी पृथ्वी सुधी, तिरलुं स्वयंभूरमण समुद्रनी बहारनी वेदिकाना अंत सुधी अने ऊंचे ईपत्प्रागभारा नामनी पृथ्वी सुधी जाणवी, कारण के तेओ शुभ पर्याप्त अवगाहना विचार ॥ ॥२७७॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चादर पृथ्वीका यादिकने विषे ज उत्पन्न थइ शके छे, तेथी आगळ थड़ शकता नथी. तथा सनत्कुमार देवलोकथी आरंभीने सहस्रार देवलोक सुधीना देवोना तैजस शरीरनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली छे, केवी रीतें ? ते कहे छे - पंडकवनादिकनी पुष्करिणीमां स्नान (क्रीडा) करवा माटे उतरतां मरण पामीने त्यां ज मत्स्यपणे उत्पन्न यह शके छे तेथी, अथवा पूर्वभव संबंधी मनुष्ये भोगवेली पोतानी स्त्रीने आलिंगन करी ( करती वखते ) मरण पामी तेना ज गर्भमा उत्पन्न थइ शके छे तेथी, अने उत्कर्षथी तो नीचे महापातालकळशना वीजा त्रिभाग सुधी जाणवी; कारण के त्यां जळ होवाथी मत्स्यमां उत्पन्न यह शके छे, तिरहुं स्वयंभूरमण समुद्र सुधी अने ऊंचे अच्युत देवलोक सुधी जाणवी. कारण के त्यां संगतिक ( मित्र ) देवनी निश्राए ( मददथी ) जइ मरण पामी अहीं ( मनुष्यमां ) ज उत्पन्न थइ शके छे तेथी. तथा आनत देवलोकथी आरंभीने अच्युत देवलोक सुधीना देवोना तैजस शरीरनी अवगाहना जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटली जाणवी. केंवी रीते ? ते कहे छे - अहीं ( मर्त्यलोकमां ) आवी मरणकाळने लीधे विपरीत मति 'थवाथी मनुष्ये भोगवेली नारीने पण आलिंगन करी मरण पामी त्यां ज उत्पन्न थइ शके छे तेथी, अने उत्कर्षथी तो नीचे 'अधोलोक ग्राम सुधी, तिरछं मनुष्य क्षेत्रने विषे अने ऊंचे अच्युतविमान सुधी तैजस शरीरनी अवगाहना समजवी. तेने मनुष्योने विपेज उत्पन्न वापणुं छे, अहीं भावार्थ पूर्वनी जेम जाणवो. तथा नव ग्रैवेयक अने पांच अनुत्तरोपपातिक देवोना तैजस शरीरनी अवगाहना जघन्यथी विद्याधरनी श्रेणि सुधी अने उत्कर्षथी नीचे अधोलोकग्राम सुधी, तिरहुं मनुयक्षेत्र सुधी अने ऊंचे तेमना ( पोतपोताना ) विमान सुधी ज जाणवी. इति ॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२७८॥ कार्मण शरीरनी अवगाहना पण एज रीते जाणवी, केमके तेजस शरीर अने कार्मण शरीरनी अवगाहना एक सरखी ज होय छे. इति ॥ कहेला अर्थवाळा ज सूत्रना अंशाने कहे छे–'गेवेज्जस्स णं इत्यादि ॥ अनंतर ( उपर) प्राणीओनो अवगाहनाधर्म को हवे अवधिधर्मनुं प्रतिपादन करवा माटे कहे छे मू० - भेय विसयसंठाणे, अभितर बाहिरे य देसोही । ओहिस्स बुड्ढाणी, पडिवाई चेव अपडिवाई ॥ १ ॥ मूलार्थ:- अवधिज्ञाना भेद १, विषय २, संस्थान ३, आभ्यंतर ४, बाह्य ५, देशावधि ६, हानिवृद्धि ७, प्रतिपाती ८ अने अप्रतिपाती ९. आ सर्व द्वार कहेवा. कार्थ :- भेदे इत्यादि द्वारगाथा - तेमां अवधिना ( अवधिज्ञानना) भेद कहेवा; जेमके वे प्रकारे अवधि छेभवप्रत्यय ( भवने आश्रीने ) अने क्षायोपशमिक ( क्षयोपशमने आश्रीने थयेल ). तेमां देव अने नारकीने भवप्रत्यय अवधि . होय छे, तथा मनुष्य अने तिर्यंचने क्षायोपशमिक अवधि होय छे. १. तथा अवधिनो विषय कहेवो. ते विषय चार प्रकारनो छे-द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भाव. तेमां द्रव्यथी जघन्य तेजस् अने भाषा बन्नेने अग्रहण प्रायोग्य वर्गणा सुधीना द्रव्योने जाणे, अने उत्कर्षथी एक परमाणुथी आरंभीने अनंत परमाणु सुधीना सर्व रूपी द्रव्यना समूहने जाणे. क्षेत्रथी आ प्रमाणे - जघन्यथी अंगुलना असंख्यातमा भाग जेटला क्षेत्रने जाणे अने उत्कर्षथी अलोकने विपे लोकप्रमाणवाळा असं अवधिज्ञान विचार ॥२७८॥ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्य खंडो( विभाग)ने जाणे (जाणी शके ). काळथी आ प्रमाणे-जघन्यथी अतीत अने अनागत आवळिकाना असंख्यातमा भाग जेटला काळने जाणे अने उत्कर्षथी असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणीने जाणे. तथा भावथी आ प्रमाणे-जघन्यथी दरेक द्रव्यना चार वर्णादि( वर्ण, गंध, रस ने स्पर्श )ने अने उत्कर्षथी एकेक द्रव्यना असंख्य वर्णादिकने अने सर्व द्रव्यनी अपेक्षाए अनंत वर्णादिकने जाणे. २. तथा अवधिनुं संस्थान कहेवू. ते आ प्रमाणे-नारकीर्नु अवधि तप(त्रापा)ना आकारवालं, भवनपतिनुं पल्यना आकारवालं, व्यंतरोने पडहना आकारवाल्लं, ज्योतिषीने झालरना आकारवालं, कल्पोपपन्न ( बार देवलोकना ) देवोने मृदंगना आकारवालं, नव ग्रैवेयकना देवोने पुष्पसमूहथी भरेली शग चडावेली चंगेरीना आकारवाळू अने पांच अनुत्तरविमानना देवोने कन्याना चोलकना आकारवाळू एटले लोकनाळीना आकारवाळ अवधिहोय छे. मनुष्य अने तिर्यंचने विविध प्रकारना आकारवालू अवधि होय छे. ३. तथा ' अभितर त्ति'-अवधिज्ञानबडे प्रकाशित थयेला क्षेत्रनी अंदर कया जीवो होय छे ? ते कहेवू. ते आप्रमाणे-नारकी, देव अने तीर्थंकरो अवधिज्ञानना क्षेत्रनी अंदर होय छे. ४. तथा 'बाहिरे यत्ति'-अवधिज्ञानना क्षेत्रनी बहार कया जीवो होय छे ? ते कहेवू. तेमां शेष (नारकी, देव अने तीर्थंकर सिवायना) जीवो ते बाह्य अवधिवाळा अने अभ्यंतर अवधिवाळा एम बन्ने प्रकारना होय छ. ५. तथा 'देसोहि त्ति'-अवधिज्ञानवडे प्रकाश करवा लायक वस्तुना एक देशने प्रकाश करनार जे अवधि ते देशावधि कहेवाय छे. तेवू अवधि कया जीवोने होय छे ? ते कहेवू अने तेवा अवधिथी जे विपरीत (जुदा प्रकारचें) होय १ अन्यत्र अभ्यंतर अवधि एटले निश्चय अवधिवाळा अने बाह्य अवधि एटले अवधिज्ञाननी भजनावाळा समजवा एम कडं छे. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिज्ञान समवायाज यत्र ॥ चोधु अंग ॥२७९॥ ते सर्वावधि कहेवाय छे. तेमां मनुष्योने बन्ने प्रकारर्नु अवधि होय छे अने वीजा सर्वेने देशावधि एक ज होय छे; कारण के केवळज्ञाननी प्राप्तिना समीपने समये ज सर्वावधि ( परमावधि) थइ शके छे. ६. तथा अवधिज्ञाननी वृद्धि अने हानि कहेवी. तेमांनु जे जीवोने जेवू अवधि होय ते कहे. तेमां तिथंच अने मनुष्यने वर्धमान (वधतुं) अने हीयमान (घटतुं) वन्ने प्रकारनु अवधि होय छे. बाकीनाने (नारकी अने देवने) अवस्थित ज (एक सर ज) होय छे. तेमां अंगुलना असंख्यातमा भाग विगेरेने प्रथम जोइने पछी वधारे वधारे जोवे ते वधतुं ( वृद्धिमान ) कहेवाय छे अने तेनाथी जे विपरीत ते हानि पामतुं (हीयमान ) कहेवाय छे. ७. तथा प्रतिपाती अने अप्रतिपाती एवा वे प्रकारर्नु अवधि छे तेमां उत्कर्षथी आखा लोकने जाणे तेटलं होय ते प्रतिपाती होइ शके छे अने तेनाथी अधिक देखे ते अप्रतिपाती कहेवाय छे. तेमा जे भवप्रत्यय अवधि छे ते ते भव पूरो थतां सुधी पडतुं नथी अने जे क्षायोपशमिक अवधि छे ते वन्ने प्रकारर्नु होय छे. ८-९. इति ॥ तेज देखाडे छे" मू०-कइविहे णं भंते ! ओही पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता-भवपच्चइए य खओवसमिए य, एवं सवं ओहिपदं भाणियत्वं ॥ मूलार्थ:-हे भगवान ! अवधिज्ञान केटला प्रकारे कयुं छे ? हे गौतम ! वे प्रकारे कां छे-भवप्रत्ययिक अने क्षायोपशमिक. ए प्रमाणे सर्व अवधिपद कहे ॥ ॥२७९॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकार्थः- कविहे ' इत्यादि. आ अवसरे प्रज्ञापना सूत्रनुं तेत्रीशमुं पद परिपूर्ण कहे. इति ॥ हमणां जीवना पर्यायरूप क्षायोपशमिक उपयोग विशेष कयो. हवे वेदनाना स्वरूपवाळो तेज औदयिक उपयोग कहेवाय छे-- मू०-सीया य दव सारीर साता तह वेयणा भवे दुक्खा । अब्भुवगमुवक्कमिया णीयाए चेव अणियाए ॥ १॥ नेरइया णं भंते ! किं सीतं वेयणं वेयंति उसिणं वेयणं वेयंति सीतोसिणं वेयणं वेयंति ? गोयमा ! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियवं ॥ मूलार्थ:-शीत, द्रव्य, शरीर संबंधी, साता वेदना, दुःख, आभ्युपगम, औपक्रमिक, निदया अने अनिदया, आटला PANI प्रकारनी वेदना छे (१)। हे भगवान! नारकी जीवो शुं शीत वेदनाने वेदे छे (भोगवे छे-अनुभवे छे)? के उष्णवेदनाने वेदे छे ? के शीतोष्ण वेदनाने वेदे छे ? हे गौतम ! नारकी जीवो० विगेरे आ प्रमाणे सर्व वेदनापद कहे.॥ टीकार्थः-सीया' इत्यादि द्वार गाथा छे. तेमां'सीया यति'-अहीं 'च' शब्द लख्यो छे ते नहीं कहेलानो पण संग्रह करवा माटे छे, तेथी त्रण प्रकारनी वेदना-शीत, उष्ण अने शीतोष्ण, तेमां नारकीओ शीत अने उष्ण वेदनाने वेदे छे. शेष जीवो त्रणे प्रकारनी वेदना वेदे छे. १. 'दव्वे त्ति'-अहीं उपलक्षणथी द्रव्यादिक भेदवडे चार प्रकारनी वेदना लेवी. तेमां पुद्गल द्रव्यना संबंधथी (जे वेदना थाय ते) द्रव्य वेदना, नरकादिकना उत्पत्तिक्षेत्रना संबंधथी Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्रं ॥ अंग ॥२८०॥ ' (जे थाय ते) क्षेत्र वेदना, नारकादिक आयुष्यरूप काळना संबंधथी थाय ते काळ वेदना अने वेदनीय कर्मना उदयथी (जे वेदना थाय ते ) भाव वेदना कहेवाय छे. तेमां नारकथी आरंभीने वैमानिक सुधीना सर्व जीवो चारे प्रकारनी वेदना वे छे. २. तथा ' सारीर त्ति त्रण प्रकारनी वेदना - शारीरिक, मानसिक अने शारीरमानसिक तेमां संज्ञी पंचेंद्रिय सर्व जीवणे प्रकारनी वेदना वेदे छे अने शेष जीवो एकली शारीरिक वेदना वेदे छे. ३. तथा 'साथ त्ति 'त्रण प्रकारनी वेदना - साता, असाता अने सातासाता. तेमां सर्व जीवो त्रणे प्रकारनी वेदना वेदे छे. ४. 'तह वेयणा भवे दुक्ख त्ति -त्रण प्रकारनी वेदना सुख, दुःख अने सुखदुःख. तेमां सर्व जीवो त्रणे प्रकारनी वेदना वेदे छे. ५. अहीं सात, असात अने सुख, दुःखनो विशेष आ प्रमाणे छेक्रमे करीने ( पोतानी मेळे ) उदयने पामेला वेदनीय कर्मना पुद्गलोनो जे अनुभव थवो ते सात असात कहेवाय छे, अने वीजाए उदिराता वेदनीय कर्मना पुद्गलोनो जे अनुभव थवो ते सुख दुःख कहेवाय छे. तथा 'अम्भुवगमुवकमिय त्ति ' - वे प्रकारनी वेदना - आभ्युपगमिकी अने औपक्रमिकी. तेमां जीवो पहेली (आभ्युपगमिकी ) वेदनाने पोते ज स्वीकार करीने वेदे ते. जेमके साधुओ केशनो लोच अने ब्रह्मचर्य विगेरेथी वेदे छे ते, अने वीजी ( औपक्रमिकी ) ते स्वयमेव उदयमां आवेला अथवा उदीरणा करवावडे उदमां आणला वेदनीय कर्मनो जे अनुभव करवो ते. तेमां पंचेंद्रिय तिर्यंच अने मनुष्यो आ बन्ने प्रकारनी वेदना वेदे छे, "अने शेष जीव एकली औपक्रमिकी वेदनाने वेदे छे, ६-७, तथा 'णीयाए चेव अणियाए त्ति' - वे प्रकारनी वेदना-निदया एटले आभोगथी ( जाणीने ) अने अनिदया एटले अनाभोगथी ( अजाणपणे ) वेदाय ते. तेमां संज्ञी जीवोने बने वेदना विचार | ॥२८०॥ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारनी होय छे अने असंज्ञीने एकली अनिदयावेदना वेदाय छे. ८-९. आ द्वारोना विवरणने माटे 'नेरइयाणं' इत्यादि सूत्र का छे, आ अवसरे प्रज्ञापना सूत्रनु वेदना नामर्नु पांत्रीशमुं पद कहेवू. इति ॥ . हमणां वेदनानी प्ररूपणा करी, ते वेदना लेश्यावाळाने ज होय छे, तेथी हवे लेश्यानी प्ररूपणा करवा माटे कहे छे मू-कइ णं भंते ! लेसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! छ लेसाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा सुक्का, एवं लेसापयं भाणियत्वं ॥ . मूलार्थ:-हे भगवान ! लेश्याओ केटली कही छे ? हे गौतम ! छ लेश्याओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस् , पद्म अने शुक्ल. ए प्रमाणे लेश्यापद कहे ॥ टीकार्थः- कह णं भंते !' इत्यादि, आ स्थाने प्रज्ञापना सूत्रनु छ उद्देशावाडं लेश्या नामनुं सत्तरमुं पद कहेवू. | ते पद अति मोटुं होवाथी अमे अर्थथी पण अहीं लख्यु नथी, तेथी त्यांथी ज जाणी लेवु. इति ॥ . हमणां लेश्याओ कही. हवे लेश्यावाळा ज जीवो आहार करे छे, तेथी आहारनी प्ररूपणा करवा माटे कहे छे मू०-अणंतरा य आहारे, आहाराभोगणा इय । पोग्गला नेव जाणति, अज्झवसाणे य सम्मत्ते ॥ १॥ नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तओ निवत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामरणाय तओ परियारणया तओ पच्छा विकुव्वणया ? हंता गोयमा ! एवं आहारपदं भाणि Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२८१ ॥ यवं ॥ सूत्रम् - १५३ ॥ मूलार्थ:-- अनंतर ( आंतरा रहित ) आहार, आहारनी आभोगता अने अनाभोगता, पुद्गलोने जाणे नहीं, अध्यअसम्यक्त्व, आटला द्वार कहेवा. (१) हे भगवान ! नारकी जीवो अनंतर आहारवाळा, त्यारपछी शरीरनी निर्वृत्ति, त्यारपछी पर्यादान, त्यारपछी परिणामता, त्यारपछी परिचारणता अने त्यारपछी विकुर्वणता छे ? हे गौतम ! हा. ए प्रमाणे आहार पद कहे. ॥ सूत्र- १५३ ॥ टीकार्थ:-' अगंतरा य' इत्यादि द्वारश्लोक कहे छे - तेमां ' अगंतरा य आहारे त्ति ' - अनंतर एटले आहारा विषयमा व्यवधान रहित अर्थात् अनंतर आहारवाळा जीव कहेवा, तथा आहारनी आभोगता, मूळमां 'अपि च' एवं वचन होवाथी अनाभोगता पण कहेवी, तथा पुद्गलोने न ज जाणे, अहीं ' एवं ' शब्द लख्यो छे तेथी न जुए एम तेना चार भंग ( चौभंगी ) सूचव्या छे, तथा अध्यवसाय अने सम्यक्त्वं कहेवुं. इति । तेमां पहेला द्वारनो अर्थ कहे छे- 'नेरइया ' इत्यादि, ' अगंतराहार त्ति -- उत्पत्तिना क्षेत्रनी प्राप्ति थाय ते ज समये आहार करे छे ? ' ततो निव्वत्तणया इति ' -- त्यारपछी शरीरनी निर्वृत्ति करे छे ? ' ततो परिवाइयणय त्ति 'त्यारपछी पर्यापान १. आ अर्थ लखेली वे प्रतने आधारे लख्यो छे. छापेली प्रतमां पर्यापानने बदले पर्यादान एंटले अंगप्रत्यंगवडे चौतरफथी आदान -ग्रहण करे छे. एम होवुं जोइए एवो प्रकाशके पोतानो मत बताव्यो छे, अने त्यारपछी ' ततो परिणामणयत्ति ' ए पाठ अने तेनी टीका छापेली प्रतमां के ज नहीं तेथी लखेली प्रतमां जोइ अर्थ लख्यो छे. आहार विचार ॥ ॥२८१॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 एटले अंग अने प्रत्यंगवडे चोतरफथी पान करे छे? 'ततो परिणामणय त्ति--त्यारपछी नहीं] पीधेलानी उपात्ता एटले इंद्रियादिकना विभागवडे परिणति करे छ (परिणमावे छे)? 'ततो परियारणय त्ति'-त्यारपछी शब्दादि विषयोनो उपभोग करे छे ? ' ततो पच्छा विउठवणय त्ति'---त्यारपछी विक्रिया (विकुर्वणा) एटले विविध रूपो करे छे ? (आ प्रमाणे गौतमस्वामीना प्रश्ननो जवान प्रभु आपे छे के)'हंता गोयमा!'--हे गौतम! हा, एम ज छे. ए प्रमाणे सर्व पंचेंद्रियोनो आहार विपय कहेवो. विशेप ए के-देवोने पहेली विकुर्वणा अने पछी परिचारणा (शब्दादि विषयनो भोग) होय छे अने वीजाओने पहेली परिचारणा अने पछी विकुर्वणा होय छे. तथा एकेंद्रियादिकना विषयमां पण ए ज प्रमाणे प्रश्न जाणवो, तेना जबावमा तो आ प्रमाणे जाणवू--ज्यां चैक्रियनो संभव नथी, त्यां विकुर्वणानो निषेध कहेवो. आ प्रमाणे पहेलं आहार पद कहे. इति । जेम अहीं प्रथम द्वारना प्रश्न कह्या तेज प्रमाणे तेनो उत्तर अने बीजा द्वारोने कहेता एवाए (आचार्य) प्रज्ञापना सूत्रर्नु परिचारणा पद नामर्नु चोत्रीशमुं पद कहेg. तो आहारना विचारनुं प्रधानपणुं होवाथी आ आहारपद कयुं छे, तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे--तेमां' आहाराभोगणाइय त्ति,'आनुं विवरण (टीका ) आ प्रमाणे छे--हे भगवान! नारकीओनो आहार शुं आभोगवडे थाय छे के अनाभोगवडे थाय छे ? बन्ने प्रकारे थाय छे, ए एनो उत्तर छे. ए ज प्रमाणे सर्व जीवोनो आहार जाणवो. विशेप ए केएकेंद्रियोनो आहार अनाभोगथी ज नीपजेलो होय छे. तथा ' पोग्गला नेव जाणंति त्ति,' आनो अर्थ आ प्रमाणे छे--नारकीओ जे पुद्गळोनो आहार करे छे, ते पुद्गळोने अवधिज्ञानवडे पण जाणी शकता नथी; केमके ते नारकीओने Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार विचार॥ समवायाग चोडूं अंग ॥२८२॥ ते पुद्गळ संबंधी अंवधिज्ञाननो अविषय छे तेथी, तेम ज चावडे जोइ शकता पण नथी. केमके ते नारकीओ लोम आहारवाळा छे तेथी. एज प्रमाणे असुरकुमारथी आरंभीने त्रींद्रिय पर्यंत जाणवु. अने चतुरिंद्रियो तो चक्षु छतां पण मतिअज्ञानी होवाथी प्रक्षेपाहार( कवलाहार )ने जाणता नथी पण चावडे जोइ शके छे. तथा ते ज ( चतुरिंद्रियो ) लोमाहारने जाणता नथी अने जोता पण नथी, एम व्यपदेश कराय छे, केमके ते (लोमाहार ) चक्षुनो अविषय छे. तथा पंचेंद्रिय तिर्यच अने मनुष्यो केटलाक जाणे छे अने जुए छे, केमके अवधिज्ञानादिवडे युक्त एवा ते लोमाहारने अने प्रक्षेपाहारने जाणे छे अने जुए छे (१), तथा बीजा केटलाक जाणे छे, पण जोता नथी, एटले के लोमाहारने अवधिवडे जाणे छे पण चक्षुबडे जोइ शकता नथी (२) तथा बीजा केटलाक जाणे नहीं पण जुए खरा, तेमां मतिअज्ञानीपणाने लीधे प्रक्षेपाहारने जाणे नहीं अने चावडे जुए खरा (३) तथा बीजा केटलाक जाणे पण नहीं अने जुए पण नहीं. एटले अतिशय . (अवध्यादि) रहितपणाने लीधे लोमाहारने जाणे नहीं अने जुए पण नहीं. (४). तथा व्यंतर अने ज्योतिष्क देवो नारकीनी जेम जाणवा. तथा चैमानिक देवो तो जे सम्यग्दृष्टि होय ते विशिष्ट अवधिज्ञान होवाथी जाणे छे अने चक्षु पण विशिष्ट होवाथी जुए पण छे, परंतु जे मिथ्यादृष्टि होय ते जाणे पण नहीं अने जुए पण नहीं; केमके तेमने प्रत्यक्षज्ञान अने परोक्षज्ञान अस्पष्ट ज होय छे तेथी, तथा 'अज्झवसाणे त्ति' ए द्वार कहे छेनारकी विगेरे (सर्व जीवो)ने प्रशस्त अने अप्रशस्त एवा अध्यवसायनां स्थानो असंख्याता होय छे. तथा 'संमत्त त्ति' ए द्वार कहे छे-तेमां नारकीओ शुं सम्यक्त्वना अभिगम( प्राप्ति )वाळा छ ? के मिथ्यात्वना अभिगमवाळा छ ? के सम्यक्त्वमिथ्यात्वना ॥२८२॥ . . . Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिगमवाळा छ ? (उत्तर)त्रणे प्रकारना छे. एज प्रमाणे सर्व जीवोत्रणे प्रकारना कहेवा. तेमां विशेप ए के एके द्रिय अने विकलेंद्रिय जीवो मात्र मिथ्यात्व अभिगमवाळा ज होय छे. इति ॥ सूत्र-१५३ ॥ आयुष्यबंधवाळाने ज होय छे, तेथी आयुष्यबंधनी प्ररूपणा करवा माटे कहे छे-- ___मू०-कइविहे णं भंते ! आउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छविहे आउगवंधे पन्नत्ते, तं जहा| जाइनामनिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभागनाम| निहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए । नेरइयाणं भंते ! कइविहे आउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! | छबिहे पन्नते, तं जहा-जातिनामनिहत्ताउए गइनामनिहत्ताउए ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनि-1 हत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए । एवं जाव वेमाणियाणं ॥ | मूलार्थः हे भगवान ! आयुष्यबंध केटला प्रकारनो कह्यो छे ? हे गौतम ! छ प्रकारनो आयुबंध कह्यो छे, ते आ || प्रमाणे-जातिनामनिधत्तायु १, गतिनामनिधत्तायु २, स्थितिनामनिधत्तायु ३, प्रदेशनामनिधत्तायु ४, अनुभा भत्तायु ५ अने अवगाहनानामनिधत्तायु ६ । हे भगवान! नारकीओने केटला प्रकारनो आयुबंध कह्यो छे ? हे गौतम ! छ प्रकारनो कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-जातिनामनिधत्तायु १, गतिनामनिधत्तायु २, स्थितिनामनिधत्तायु ३, प्रदेशनामनिधत्तायु ४, अनुभागनामनिधत्तायु ५ अने अवगाहनानामनिधत्तायु ६. ए प्रमाणे वैमानिक देवो सुधी कहेवु.॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाज सूत्र ॥ चो अंग ॥२८३॥ टीकार्थ :- 'कविहे ' इत्यादि. तेमां आयुष्यनो जे बंधनिषेक ते आयुबंध कहेवाय छे. निषेक एटले घणा, हीन अने हीनतर ( वधारे हीन ) एवा दळीयाने जे अनुभवने माटे रचवा ते. अहीं निघत्त पण निषेक ज कहेवाय छे (बन्नेनो • अर्थ एक ज छे ). ते ज कारण माटे कहे छे के— 'जाइनाम निघत्ताउए' - जाति नामनी साथे निधत एटले निपिक्त अर्थात् अनुभव करवा माटे घणा, अल्प ( हीन ) अने अल्पतर ( हीनतर ) एम (दळीयाना ) अनुक्रमे स्थापन करेल जे . आयुष्य ते जातिनामनिधत्तायु कहेवाय छे. शंका - जाति विगेरे नामकर्मने आयुष्यनां विशेषण केम कराय छे ? उत्तर-आयुष्यनुं प्रधानपशुं जणाववा माटे ( आयुष्यने विशेष्य राखी जात्यादिनामकर्मने विशेषण तरीके राख्या छे) कारण के नारकादिक आयुष्यनो उदय थाय त्यारे ज जात्यादि नामकर्मनो उदय थाय छे, अने आयुष्य ज नारकादिक भवनो उपग्राहक ( ग्रहण करावनार ) छे. ते विषे व्याख्याप्रज्ञप्तिमां कयुं छे के हे भगवान ! शुं नारकीओ ज नरकमां उत्पन्न थाय छे के अनारकीओ नरकमां उत्पन्न थाय छे ? हे गौतम ! नारकीओ ज नरकमां उत्पन्न थाय छे, अनारकीओ नरकमां उत्पन्न थता नथी इति. आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-नारकायुष्यना वेदवाना काळना प्रथम समये ज आ नारकी छे एम कहेवाय छे. तथा ते वखते ते नारकायुना सहचारी पंचेंद्रियजाति विगेरे नामकर्मनो पण उदय थाय छे. इति । तथा ' गतिनामनिधत्ताउए त्ति - गति एटले नारकगति विगेरे, ते लक्षणवाळं (ते रूप ) जे नामकर्म तेनी साथे .निधत एटले निपिक्त ( स्थापन करेलं ) जे आयु ते गतिनामनिधत्तायु कहेवाय छे. तथा 'ठिनामनिधत्ताउए त्ति' स्थिति एटले आयुष्यना दळीयानुं ते भावे ( आयुष्यपणे ) जे रहेवुं ते. ते स्थितिरूप जे नाम- परिणाम एटले धर्म ते स्थिति आयुबंध विचार | ॥२८३॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम कवाय छे, तथा गति, जाति विगेरे कर्म के जे प्रकृति विगेरे भेदोवडे चार प्रकारनुं छे, तेनो जे स्थितिरूप भेद छेते स्थितिनाम कवाय छे, ते स्थितिनामनी साथै निधत्त ( स्थापन करेलुं ) जे आयु ते स्थितिनामनिधत्तायु कहीए. 'इति । तथा 'एसनामनिधत्ताउए त्ति '- प्रदेशोनो एटले परिमित प्रमाणवाळा आयुकर्मना दळीयानो जे नामपरिणाम एटले तथाप्रकारे आत्माना प्रदेशनी साथै संबंध ते प्रदेशनाम कहीए, अथवा जाति, गति अने अवगाहनारूप कर्मनुं जे प्रदेशरूप नामकर्म ते प्रदेशनाम कहीए, तेनी साथे जे निधत्त एवं आयु ते प्रदेशनामनिधत्तायु कहीए. इति । तथा agartraitase त्ति ' - अनुभाग एटले आयुकर्मना द्रव्य ( दळीया ) नो जे तीव्रादिक भेदवाको रस, तेरूपी नाम - परिणाम अथवा तेनो नाम-परिणाम ते अनुभागनाम कहीए, अथवा तो गत्यादिक नामकर्मना अनुभागबंधरूप जे भेद ते अनुभागनाम कहीए, तेनी साथै जे निधत्त एवं आयु ते अनुभागनामनिधत्तायु कहेवाय छे. इति । तथा ' aareerata निघत्ताउए ति '--जेने विषे जीव अवगाहे ते अवगाहना एटले औदारिक विगेरे पांच प्रका " शरीर, तेना कारणरूप जे कर्म ते पण अवगाहना कहेवाय छे, ते अवगाहनारूप जे नामकर्म ते अवगाहना नाम कहेवाय छे. तेनी साथे जे निधत्त एवं आयु ते अवगाहनानामनिधत्तायु कहेवाय छे । ' नेरइयाणं ' इत्यादि सूत्र स्पष्ट छे. इति ॥ उपर आयुबंध को हवे बांधेला आयुष्यवाळानो नारकादिक गतिमां उपपात ( उपजवुं ) थाय छे, तेथी तेना विरहकाळनी प्ररूपणा करवा माटे कहे छे- Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहकाळ विचार । मू-निरयगई णं भत्ते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं समवायाङ्ग । एक समयं उक्कोसेणं बारस मुहत्ते, एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई । सिद्धिगई णं भंते ! सूत्र ।। केवइयं कालं विरहिया सिज्झणयाए पन्नत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उकोसेणं छम्माले, I चोथु अंग एवं सिज्झिवजा उबद्दणा । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विर॥२८॥ हिया उववाएणं? एवं उववायदंडओ भाणियबो उवट्टणादंडओ य । नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसहिं पगरीत ? गोयमा ! सिय १ सिय २ सिय ३ सिय ४ सिय ५ सिय ६ सिय ७ सिय ८ अढहिं, नो चेव णं नवहिं । एवं सेसाण वि आउगाणि जाव वेमाणिय त्ति ॥ सूत्रम्-१५४ ॥ मूलार्थ:--हे भगवान ! नरकगतिने विषे नारकीने उपजवानो केटलो विरहकाळ कह्यो छे ? हे गौतम ! जघन्यथी| एक समय अने उत्कर्षथी बार मुहूर्त, ए ज प्रमाणे तिर्यंचगति, मनुष्यगति अने देवगतिनो विरहकाळ जाणवो. । हे भगवान ! सिद्धिगतिने विषे सिद्धने उपजवानो केटलो विरहकाळ कह्यो छे ? हे गौतम ! जघन्यथी एक समय अने उत्कर्पथी छ मासनो विरह कह्यो छे । ए ज प्रमाणे सिद्धिगतिने वर्जीने (चारे गतिनो) उद्वर्तना (च्यवन) काळनो विरह पण कहेवो. SE ॥२८४॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे भगवान! आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विपे नारकीने उपजवानो विरहकाळ केटलो कह्यो छे ? ए प्रमाणे उपजवानो दंडक अने उद्वर्तनानो दंडक कहेवो । हे भगवान! नारकी जीवो जातिनामनिधत्त आयुष्य केटला आकर्षवडे करे छे ? हे गौतम ! नारकी जीव कोइ वार एक आकर्ष करे, कोइवार वे आकर्ष करे, कोइ वार त्रण, कोइ वार चार, कोइ वार पांच, कोइ वार छ, कोइ वार सात अने कोइ वार आठ आकर्ष करे. पण कदापि नव (अथवा तेथी वधारे) आकर्पवडे जातिनामनिधत्त आयु करे नहीं । एज प्रमाणे शेष जीवोना (जातिनामनिधत्त ) आयुष्यना आकर्ष वैमानिकदेव पर्यंत जाणवा ॥ सूत्र-१५४ ॥ ___टीकार्थ:--' निरयगई णं' इत्यादि सूत्र सुगम छे. तेमां विशेष आ प्रमाणे--जो के रत्नप्रभादिक पृथ्वीने विषे चोवीश मुहूर्त विगेरे विरहकाळ कह्यो छे. ते बाबत कयुं छे के--" साते पृथ्वीमां पहेलेथी अनुक्रमे चोवीश मुहूर्त १, सात अहोरात्र २, पंदर अहोरात्र ३, एक मास ४, बे मास ५, चार मास ६ अने छ मास ७ विरहकाळ छे." तो पण सामान्य नरक गतिनी अपेक्षाए बार मुहूर्त कह्या छ । तथा' एवं' शब्द लखीने तियेच अने मनुष्य गतिने विपे सामान्यपणे जे बार मुहूर्त कह्या छे ते गर्भनी अपेक्षाए कह्या छे. देवगतिने विषे तो सामान्यथी ज कह्या छ । 'सिद्धिवज्जा उबट्टणा' . इति, नारकादिक (चार) गतिने विषे उद्वर्तनाने आश्रीने बार मुहूर्त्तनो विरहकाळ कह्यो छे, परंतु सिद्धना जीवोने तो उद्वर्तना होती ज नथी केमके तेओने पाछं संसारमा आववापणुंछे ज नहीं.इति । आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विष उपपातने आश्रीने नारकीनो केटलो विरहकाळ कह्यो छे ? ए प्रमाणे उपपातदंडक कहेवो एम मूळमां का छे, ते आ प्रमाणे हे गौतम ! जघ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥२८५॥ यी एक समय ने उत्कर्षथी चोवीश मुहूर्त्त आ आलावाए करीने शेप आलावा पण कहेवा. ते आ प्रमाणे " शर्कराप्रमा पृथ्वीने विषे उत्कर्षथी सात रात्रिदिवस, वालुकाप्रभा पृथ्वीने विषे अर्धमास, पंकप्रभाने विषे एक मास, धूमप्रभाने विषे वे मास, तमः प्रभाने विषे चार मास अने नीचेनी सातमी पृथ्वी (तमः तमः प्रभा) ने विषे छ मास विरहकाळ छे. असुरकुमारनो विरहकाळ चोवीमुहूर्त्तनो छे एज प्रमाणे भवनपतिमां स्तनितकुमार सुधी विरहकाळ जाणवो. पृथ्वी कायिकने उपपातनो विरहकाळ नथी, एज प्रमाणे शेप एकेंद्रियो माटे जाणवु, द्वींद्रियने विरहकाळ अंतर्मुहूर्त्तनो छे, ए ज प्रमाणे त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, संमूमि पंचेंद्रिय तिर्यंच योनिनो विरहकाळ जाणवो. गर्भज तिर्यंच अने मनुष्यनो विरहकाळ बार मुहूर्त्तनो जाणवो. अने संमूर्छिम मनुष्यनो चोवीश मुहूर्त्त उपपात विरहकाळ जाणवो. व्यंतर अने ज्योतिपीनो चोवीश मुहूर्त्त, ए ज प्रमाणे सौधर्म अने ईशानदेवनो पण जाणवो. सनत्कुमारने विषे नव दिवस अने वीश मुहूर्त्त, माहेंद्रने विषे चार दिवस अने दश मुहूर्त्त ब्रह्मलोकमां साडीचावीश रात्रिदिवस, 'लांतकमा पीस्ताळीश रात्रिदिवस, महाशुक्रमां एंशी रात्रिदिवस, सहस्रारमां एक सो रात्रिदिवस, आनतमां संख्याता मास, एज प्रमाणे प्राणतमां पण संख्याता मास, आरणमां संख्याता वर्ष, ए ज प्रमाणे अच्युतमां पण संख्याता वर्ष, ग्रैवेयकना त्रण पाथडा (त्रिक)मांना पहेला पाथडामां (त्रिकमां) संख्याता सो वर्ष, बीजा पाथडामां (त्रिक्रमां) संख्याता हजार वर्ष अने त्रीजा पाथ•डामां (त्रिकमां) संख्याता लाख वर्ष, विजयादिक (४) मां असंख्यातो काळ अने सर्वार्थसिद्ध विमानमां उपपातनो विरहकाळ पeatural असंख्यातमो भाग छे । ए ज प्रमाणे उद्वर्तना दंडक पण कहेवो. । आ उपपात अने उद्वर्तना ए बन्ने (जातिनामनिघत्त) आयुष्यनो बंध थाय त्यारे ज होय छे. तेथी आयुबंधने विषे विशेष विधिनी प्ररूपणा करवा माटे कहे छे- 'नेरइया' विरहकाळ विचार | ॥२८५ ॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि सूत्र सुगम छ विशेष ए के--आकर्ष एटले कर्मना पुद्गळोनुं ग्रहण. जेम गाय पाणी पीए छे त्यारे भयथी वारंवार बराडा पाडे छे, तेम जीव पण आयुबंधना तीव्र अध्यवसायवडे एक जवार जातिनामनिधत्त आयुष्यनो बंध करे छे, मंद अध्यवसायवडे वे आकर्ष करे, मंदतरं अध्यवसायवडे व्रण आकर्ष करे, मंदतम अध्यवसायवडे चार आकर्प करे, एज प्रमाणे पांच, छ, सात के आठ आकर्ष करे. परंतु नव आकर्ष करे नहीं. एज प्रमाणे शेप पण 'आउगाणि त्ति'--गतिनामनिधत्तायु विगेरे कहेवां, यावत् वैमानिक सुधी कहेवा. इति । आ एक विगेरे आकर्पनो नियम आयुष्यकर्म बांधती वखते ज बंधाता जात्यादिनामकर्मनो ( कर्मने माटे) छे, पण शेष काळने माटे समजवो नहीं; केम के आयुष्यबंधनी समाप्ति थइ रह्या पछी पण ते कर्मोनो बंध तो छ ज. वळी आ ध्रुवबंधिनी ज्ञानावरणादि मूळ प्रकृतिनो समये समये बंध थाय छे. ते तो परावर्तन करी करीने बंधाय छे. इति ॥ सूत्र-१५४ ॥ ___उपर जीवोना आयुष्यबंधनो प्रकार कह्यो, हवे ते जीवोना संस्थान, संहनन अने वेदना प्रकारने कहे छ मू-कइविहे गंभंते ! संघयणे पन्नत्ते? गोयमा! छबिहे संघयणे पन्नत्ते, तं जहा-वइरोसभनारा| यसंघयणे रिसभनारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारायसंघयणे कीलियासंघयणे छेवट्ठसंघयणे। नेरइयाणंभंते ! सिंघयणा? गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेव अट्टिणेव छिरा णेव पहारू जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया अणाएज्जा असुभा अमणुण्णा अमणामा अमणाभिरामा ते ला Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग संघयण संस्थान विचार। चो) अंग ॥२८६॥ तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति । असुरकुमाराणं भंते ! किंसंघयणा पन्नत्ता ? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी णेव छिरा णेव पहारू जे पोग्गला इट्टा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढवी- काइया णं भंते ! किंसंघयणी पन्नत्ता ? गोयमा ! छेवट्ठसंघयणी पन्नत्ता, एवं जाव संमुच्छिमपचिंदियतिरिक्खजोणिय त्ति । गब्भवतिया छबिहसंघयणी, संमुच्छिममणुस्सा छेवट्ठसंघयणी, गब्भवतियमणुस्सा छविहे संघयणे पन्नत्ता । जहाअसुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य॥ ... कइविहे णं भंते ! संठाणे पन्नत्ते ? गोयमा छविहे संठाणे पन्नत्ते, तं जहा-समचउरसे १ णिग्गोहपरिमंडले २ साइए ३ वामणे ४ खुजे ५ हूंडे ६ । णेरइया णं भंते ! किंसंठाणी पन्नत्ता? गोयमा ! हुंडसंठाणी पन्नत्ता । असुरकुमारा णं भंते ! किंसंठाणी पन्नत्ता ? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया पन्नत्ता, एवं जाव थणियकुमारा । पुढवी मसूरसंठाणा पन्नत्ता, आऊ थिबुयसंठाणा पन्नत्ता, तेऊ सूइकलावसंठाणा पन्नत्ता, वाऊ पडागासंठाणा पन्नत्ता, वणस्सई नाणासंठाणसं ॥२८६॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CM ठिया पन्नत्ता, बेइंदियतेइंदियचउरिदियसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खा हुंडसंठाणा पन्नत्ता, गब्भवकं|| तिया छव्विहसंठाणा पन्नत्ता, संमुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता, गब्भवकंतियाणं मणुस्साणं छव्विहा संठाणा पन्नत्ता । जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया वि ॥ सूत्रम्-१५५ ॥ ___मूलार्थ:-हे भगवान ! केटला प्रकारना संहनन कह्या छे ? हे गौतम ! छ प्रकारना संहनन कह्या छे, ते आ | प्रमाणे-वज्रऋषभनाराचसंहनन १, ऋषभनाराचसंहनन २, नाराचसंहनन ३, अर्धनाराचसंहनन ४, कीलिकासंहनन ५ अने सेवार्तसंहनन ६.। हे भगवान! नारकी जीवो केटला संहननवाळा कह्या छ ? हे गौतम ! छ संहनन मध्ये एक पण नहीं होवाथी असंहननी छे. तेमने अस्थि नथी सिरा नथी, अने स्नायु पण नथी.जे पुद्गलो अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अनादेय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनापा अने अमनाभिराम छे, ते पुद्गलो तेमना असंहननपणे परिणमे छे. हे भगवान ! असुरकुमार देव केटला संहननवाळा कह्या छे ? हे गौतम ! छ संहनन मध्ये कोइ पण नहीं होवाथी असंहननी छे. तेमने अस्थि नथी, शिरा नथी अने स्नायु नथी. जे पुद्गळो इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनाप अने मनाभिराम छे, ते पुद्गळो । तेमना असंहननपणे परिणमे छे. ए ज प्रमाणे स्तनितकुमारने पण कहे. । हे भगवान ! पृथ्वीकायिक जीव केटला संह १ वेदनुं सूत्र पण अहीं साथे लेवु जोइए. परंतु छापेली प्रतमां ते जुदुं पाड्युं छे, तेथी अमे पण तेनुं अनुसरण कर्यु छे. Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ जोधुं अंग ॥२८७॥ ननवाळा का छे ? हे गौतम! एक सेवार्तसंहननवाळा कला छे. ए ज प्रमाणे संमूर्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिवाळाने कहे, अने गर्भव्युत्क्रांत (गर्भज) पंचेंद्रिय तिर्यंच छए संहननवाळा होय छे. संमूर्छिम मनुष्यो सेवार्त संहननवाळा अने गर्भज मनुष्यो छ संहननवाळा कह्या छे । जेम असुरकुमारने कह्युं तेम वानव्यंतर, ज्योतिषी अने वैमानिक देवोने पण कहेतुं ॥ हे भगवान ! केला प्रकारना संस्थान का छे ? हे गौतम ! छ प्रकारना संस्थान का छे, ते आप्रमाणे -- समचतुरस्र १, न्यग्रोधपरिमंडळ २, सादि ३, वामन ४, कुब्ज ५ अने हुंड ६ । हे भगवान ! नारकी जीवो कया संस्थानवाळा कता छे ? हे गौतम! हुंड संस्थानवाळा कला छे । हे भगवान ! असुरकुमार देव कया संस्थानवाळा कला छे ? हे गौतम! समचतुरस्र संस्थाने रहेला का छे, ए ज प्रमाणे स्तनितकुमार सुधी कहेवुं । पृथ्वीकाय मसूर संस्थानवाळा काा छे, अप्काय स्तिबुकसंस्थानवाळा कथा छे, तेजस्काय सूचीकलाप (सोयना समूह जेवा ) संस्थानवाळा कह्या छे, वायुकाय पताका संस्थानवाळा कला छे, वनस्प तिकाय विविध संस्थानवाळा कह्या छे, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय अने समूर्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंच हुंड संस्थानवाळा कया छे अने गर्भज पंचेंद्रिय तिर्यंच छए संस्थानवाळा कह्या छे, संमूर्छिम मनुष्य हुंड संस्थाने रहेला कह्या छे अने गर्भज मनुष्यने छए प्रकारना संस्थान का छे । जे प्रमाणे असुरकुमारने कछु, ते प्रमाणे वानव्यंतर, ज्योतिष अने वैमानि - कने पण कहेतुं ॥ सूत्र- १५५ ॥ टीकार्थ :- कवि णं' इत्यादि त्रेण दंडक सुगम छे. विशेष ए के संहनन एटले विशेष प्रकारनो अस्थि १ त्रीजुं वेद नामनुं दंडक आ टीकानी पछी नवुं सूत्र लखीने तेमां आप्युं छे. संघयण संस्थान विचार | ॥२८७॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध (हाडकानो समूह ), ( हाडकानी ) वे बाजुएं मर्कटस्थानत्राळं ( मर्कटबंध जेवुं ) हाडकुं ते नाराच कहेवाय छे, ऋषभ एटले पट्ट (पाटो ), अने वज्र एटले खीली. हवे वज्र, ऋषभ अने नाराच ए त्रण जेने विपे होय ते वज्रभना।। राच नामनुं संहनन कहेवाय छे. अर्थात् मर्कट, पट्ट अने कीलिकानी रचना सहित जे अस्थिबंध ते पहेलो ( पहेलुं वज्रभनाराच संहनन ) १, मर्कट अने पट्ट ए वेवडे जे युक्त सहित ते बीजो अस्थिबंध ( ऋपभनाराच संहनन ) २, एकला मर्कटवडे जे युक्त ते त्रीजो अस्थिबंध ( नाराच संहनन ) ३, मर्कटनो एक बाजु बंध अने बीजी बाजु कीलिकानो संबंध होय ते चोथो अस्थिबंध ( अर्धनाराच संहनन ) ४, जेमां वे अस्थिबंधनी मध्ये एकली कीलिका ज दीधी होय ते पांच कीलिका संहनन ५ अने जेमां केवळ चर्मवडे ज हाडकां निकाचित ( वींटायेला ) होय ते सेवा एटले स्नेहपानादिक ( तेल चोळवुं विगेरे ) नुं नित्य परिशीलन ( सेवन ) करवुं ते सेवा अने ते सेवाए करीने ऋत एटले व्याप्त - सहित ते सेवार्त नामनुं छहुं संहनन छे. ६ । ' छण्हं संघयणाणं असंघयणे ति ' -उपर कहेला छ संहननो मध्ये कोइ एकनो पण अभाव होवाथी असंहननी एटले अस्थिसंचय रहित छे. एज कारण माटे कहे छे के-' नेवट्टी ' -- तेमना शरीरमां अस्थि छे ज नहीं, 'नेव छिर त्ति -- शिरा एटले धमनी ( नसो) छे ज नहीं, 'णेव हारु त्ति ' - स्नायु ( मोटी नाडीओ ) छे ज नहीं. आथी करीने तेमने संहनननो अभाव छे, कारण के तेणे ( असंहमने ) करीने सहित एवा जीवोने ( प्राप्त थयेळं ) घणुं दुःख पण बाधा करनार थतुं नथी. नारकीओ तो अत्यंत शीतादिकवडे बाधा पामेला होय छे, वळी अस्थिसंचयने अभावे कांइ शरीरने पीडा थती नथी एम नथी, कारण के पुद्गळना Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥२८८॥ स्कंधवाळी ते पीडा तेमने घटी शके छे, तेथी करीने ज कहे छे के' जे पोग्गला' इत्यादि, जे पुद्गलो अनिष्ट एटले सदा तेओने सामान्यवडे अवल्लभ छे, तथा अकांत एटले सदा तेपणुं ( अवल्लभपणुं ) होवाथी अकमनीय छे, तथा अप्रिय एटले सर्वेने द्वेष करवा लायक छै, तथा अशुभ एटले स्वभावथी ज असुंदर छे, तथां अमनोज्ञ एटले कथा करवाथी पण मनने न गमे तेवा छे, तथा अमनआपा एटले चितवन करतां पण मनने अप्रिय लागे तेवा छे. ते आवा प्रका रना पुद्गलो ते नारकी जीवोने असंहननपणाए करीने एटले अस्थिसंचयनी रचना रहित शरीरपणाए करीने परिणमे छे. इति ॥ 4 कवि णं भंते! संठाणे ' इत्यादि. तेमां मान, उन्मान अने प्रमाणनी न्यूनता के अधिकता रहित अंगोपांग जे शरीरसंस्थानमां होय ते समचतुरस्र संस्थान कहेवाय छे १, तथा जेमां नाभिनी उपरना सर्व अवयवो चतुरस्र एटले • कहेला लक्षणना विसंवाद रहित ( यथोक्त लक्षणवाळा ) होय अने नीचेना अवयवो तेवा न होय ते न्यग्रोध संस्थान कहेवाय छे २, तथा जेमां नाभिनी नीचे सर्व अवयवो चतुरस्र एटले लक्षणना विसंवाद रहित ( यथोक्त लक्षणवाळा ) होय अने उपरना अवयवो तेवा स्वरूपवाळा न होय ते सादि संस्थान कहेवाय छे ३, तथा जेमां ग्रीवा अने हाथ- पग समचतुरस्र - यथोक्त लक्षणवाळा तथा बच्चे संक्षिप्त अने विकारवाळो कोठो होय ते कुब्ज संस्थान कहेवाय छे ४, तथा मां कोठो यथोक्त लक्षणवाळो होय तथा ग्रीवादि अवयव अने हाथ-पग चतुरस्रना लक्षण रहित होय ते वामन संस्थान कहेवाय छे ५, तथा जेमां हाथ-पग विगेरे सर्व अवयवो बहुप्राय (लांबा - हुंका) अने प्रमाणवाळा न होय ते हुंड संस्थान कहेवाय छे. ६ ॥ सूत्र- १५५ ।। संघयण संस्थान विचार ॥ ॥२८८॥ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मू०-कइविहे णं भंते ! वेए पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे वेए पन्नत्ते, तं जहा-इत्थीवेए पुरिसवेए नपुंसवेए । नेरइया णं भंते ! किं इत्थीवेया पुरिसवेया णपुंसगवेया पन्नत्ता ? गोयमा ! णो इत्थीवेए णो पुवेए णपुंसगवेया पन्नत्ता । असुरकुमारा णं भंते ! किं इत्थीवेया पुरिसवेया नपुंसगवेया ? गोयमा ! इत्थीवेया पुरिसवेया णो णपुंसगवेया, जाव थणियकुमारा, पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणस्सई बितिचउरिदियसंमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खसंमुच्छिममणुस्सा णपुंसगवेया, गब्भवकंतियमणुस्सा पंचिंदियतिरिया य तिवेया, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसियवेमाणिया वि ॥ सूत्रम्-१५६ ॥ - मूलार्थ:-हे भगवान ! वेद केटला प्रकारना कह्या छे ? हे गौतम ! वेद त्रण प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणेस्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद । हे भगवान! नारकी जीवो शुं स्त्रीवेदी छे ? पुरुषवेदी छे ? के नपुंसकवेदी कह्या छ ? हे गौतम ! स्त्रीवेदी नथी, पुरुषवेदी नथी, पण नपुंसकवेदी कह्या छ. । हे भगवान ! असुरकुमार देवो शुं स्त्रीवेदी छे ? -पुरुषवेदी छे ? के नपुंसकवेदी कह्या छे ? हे गौतम ! स्त्रीवेदी छे, पुरुषवेदी छे, पण नपुंसकवेदी नथी. यावत् स्तनितकुमार सुधी कहे. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, संमूर्छिमपंचें ४९ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदविचार समवसरण विचार ॥ समवाया खत्र॥ पो' अंग १२८९॥ द्रियतिथंच अने संमूर्छिम मनुष्य आ सर्वे नपुंसकवेदी छे, तथा गर्भज मनुष्यो अने तिर्यचो त्रण वेदवाळा छ । तथा जेम असुरकुमार कह्या तेम वानव्यंतर, ज्योतिषी अने चैमानिक देवो जाणवा ॥ सूत्र-१५६ ॥ टीकार्थः-'कइविहे वेए' इत्यादि, तेमां स्त्रीवेद एटले पुंस्कामिता (पुरुषनी साथे मैथुन सेववानी इच्छा ), पुरुषवेद एटले स्त्रीकामिता( स्त्रीनी साथे मैथुन सेववानी इच्छा) अने नपुंसकवेद एटले स्त्रीपुंस्कामिता ( बन्नेनी साथे मैथुन सेववानी इच्छा). इति ॥ सूत्र-१५६ ॥ । आ पूर्वे कहेला सर्व पदार्थों समवसरणमा रहेला भगवाने उपदेश्या छे, तेथी समवसरणनी वक्तव्यताने कहे छ .... मू०-ते णं काले णं ते णं समए णं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं, जाव गणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिण्णा । मूलार्थ:-ते काळे ते समये कल्पभाष्यनु समवसरण कहे.यावत् गणधरो शिष्य सहित अने शिष्य रहित सिद्ध थया त्यांसुधीः टीकार्थः-'तेणं.' अहीं बेणं' शब्द छे ते वाक्यनी शोभा माटे जाणवा. तेथी'ते' ए प्राकृत होवाथी ते काळे एटले सामान्ये करीने दुःषमसुषमा नामना चोथा आरामां अने ते समये एटले जे समये भगवान ( महाधीरस्वामी) विचरता हता ते विशेष समये 'कप्पस्स समोसरणं नेयव्वं ति'-आ अवसरे कल्पभाष्यना क्रमे करीने समवसरणनी वक्तव्यता कहेवी, ते आवश्यकमां जे कहेली छे तेनाथी जुदी नथी परंतु वाचनांतरमां तो 'पर्युषणाकल्पमा ॥२८९॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहेला क्रमे करीने ' एम कयुं छे. क्या सुधी कहेवू ? ते कहे छे-'जाव गणहरा' इत्यादि. तेमां गणधर एटले सुधर्मा नामना पांचमा गणधर सापत्य एटले शिष्य प्रशिष्यादिक संतति सहित अने शेष गणधरो निरपत्य एटले शिष्य प्रशिष्यादिक संतति रहित 'वोच्छिन्न त्ति'-सिद्ध थया. ते विषे का छे के-" श्रीमहावीरस्वामीनी हयातीमां नव गणधरो निर्वाण पाम्या हता, तथा इंद्रभूति अने सुधर्मास्वामी राजगृही नगरीमां वीर भगवान निर्वाण पाम्या पछी क' निर्वाण पाम्या. (१)॥ ___ आ समवसरणना नायक ( भगवान महावीरस्वामी ) कुलकरना वंशमा उत्पन्न थयेला अने महापुरुष हता, तेथी कुलकरोनी अने महापुरुषोनी वक्तव्यताने कहे छ. मू-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीआए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्था, तं जहामित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सयंपभे। विमलघोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥ १॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए ओसप्पिणीए दस कुलगरा होत्था, तं जहा-सयंजले सयाऊ य, अजियसेणे अणंतसेणे य । कजसेणे भीमसेणे, महाभीमसेणे य सत्तमे ॥ २॥ दढरहे दसरहे सय(त्त) रहे ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए सत्त १ लखेली प्रतमा गाभाओ छे, पण कोइ ठेकाणे अंक करेला नथी, अने छापेलमां कर्या छे. ते प्रमाणे अमे पण कर्या छे. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी समवायाङ्ग कुलकरादि महापुरुष निरुपण॥ पोधु अंग ॥२९॥ कुलगरा होत्था, तं जहा-पढमेत्थ विमलवाहण [ चक्खुम जसम चउत्थमभिचंदे । तत्तो य पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥ ३॥ ] एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराण सत्त भारिया होत्था, तं जहा-चंदजसा चंदकंता [ सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥४॥] ... मूलार्थः-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा अतीत काळनी उत्सर्पिणीमा सात कुलकर थया हता, ते आ प्रमाणे-मित्रदाम १, सुदाम २, सुपार्श्व ३, स्वयंप्रभ ४, विमलघोष ५, सुघोष ६ अने सातमा महाघोष ७ (१)॥ आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा अतीत काळनी अवसर्पिणीमां दश कुलकर थया हता, तें आ प्रमाणेस्वयंजल १, शतायु २, अजितसेन ३, अनंतसेन ४, कार्यसेन ५, भीमसेन ६, सातमा महाभीमसेन ७, (२) दृढरथ ८, दशरथ ९ अने शतरथ १० ॥ आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां सात कुलकर थया हता, ते आ प्रमाणे-अहीं पहेला विमळवाहन १, चक्षुष्मान् २, यशोमान ३, चोथा अभिचंद्र ४, त्यारपछी प्रसेनजित् ५, मरुदेव ६ अने नाभि ७ (३)॥ आ सात कुलकरने सात भार्या हती, ते आ प्रमाणे-चंद्रयशा १, चंद्रकांता २, सुरूपा ३, प्रतिरूपा ४, चक्षुष्कांता ५, श्रीकांता ६ अने मरुदेवी ७. आ प्रमाणे कुलकरनी पत्नीना नाम जाणवा. (४)॥ - मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं पियरो S ॥२९०॥. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा होत्था, तं जहा-णाभी य जियसत्तू य[ जियारी संवरे इय । मेहे धरे पइढे य महसेणे या खत्तिए ॥ ५ ॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपुज्जे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे भाणू विस्ससेणे इय ॥ ६ ॥ सूरे सुदंसणे कुंभे, सुमित्त विजए समुद्दविजये य । राया य आससेणे य सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए ॥ ७॥] उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं एए पियरो जिणवराणं ॥ ८॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं मायरो होत्था, तं जहा--मरुदेवी विजया सेणा [ सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहवी लखणा रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ ९॥ सुजसा सुव्वय अइरा सिरिया देवी पभावई पउमा। वप्पा सिवा य वामा तिसला देवी य जिणमाया ॥ १०॥] ___ मूलार्थः-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमा चोवीश तीर्थकरना पिताओ हता, ते आ प्रमाणे-नाभि १, जितशत्रु २, जितारि ३, संवर ४, मेघ ५, धर ६, प्रतिष्ठ ७, महासेन क्षत्रिय ८, (५) सुग्रीव ९, दृढरथ १०, विष्णु ११, वसुपूज्य क्षत्रिय १२, कृतवर्मा १३, सिंहसेन १४, भानु १५, विश्वसेन १६, (६) सूर १७, सुदशन १८, कुभ, १९, सुमित्र २०, विजय २१, समुद्रविजय २२, अश्वसेन राजा २३ अने सिद्धार्थ क्षत्रिय २४ (७), Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरोत्तर उदयमा आवता कुळवंशवाळा, विशुद्ध वंशवाळा, अने गुणोए करीने सहित एवा आ चोवीश तीर्थप्रवर्तक जिने- तीर्थकरसमवायाङ्ग श्वरोना पिताना नाम छे. (८), आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरोनी माता माता हती, ते आ प्रमाणे-मरुदेवी १, विजया २, सेना ३, सिद्धार्था ४, सुमंगला ५, सुसीमा ६, पृथ्वी ७, लक्ष्मणा पिनानाम।। घोडुं अंग M८, रामा ९, नंदा १०, विष्णु ११, जया १२, श्यामा १३, (९) सुयशा १४, सुव्रता १५, अचिरा १६, श्री १७, देवी १८, प्रभावती १९, पद्मावती २०, वमा २१, शिवा २२, वामा २३ अने त्रिशलादेवी २४. आ जिनेश्वरोनी ॥२९॥ माताओ थइ हती. (१०)॥ - मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तं जहा-उसभ १ अजिय २ संभव ३ अभिनंदण ४ सुमइ ५ पउमप्पह ६ सुपास ७ चंदप्पभ ८ सुविहि पुप्फदंत ९ सीयल १० सिज्जंस ११ वासुपुज्ज १२ विमल १३ अणंत १४ धम्म १५ संति १६ कुंथु १७ अर १८ मल्लि १९ मुणिसुवय २० णमि २१ णेमि २२ पास २३ वड्डमाणो २४ य ॥ । एएसिं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पुवभवया णामधेया होत्था, तं जहा-पढमेत्थ । वइरणाभे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ॥ ११ ॥ ॥२९१॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुंदरवाहु तह दीहवाहु जुगबाहू लट्ठबाहू य । दिपणे य इंददत्ते सुंदर माहिंदरे चेव ॥ १२ ॥ | सीहरहे मेहरहे रुप्पी अ सुदंसणे य बोद्धवे । तत्तो य नंदणे खलु सीहगिरी चेव वीसइमे ॥१३॥ KM अदीणसत्तु संखे सुदंसणे नंदणे य बोद्धवे । ओसप्पिणीए एए तित्थकराणं तु पुत्रभवा ॥ १४ ॥ ___ एएसी णं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं सीयाओ होत्था, तं जहा-सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धा य । विजया य वेजयंती जयंती अपराजिया चेव ॥१५॥ अरुणप्पभ चंदप्पभ सूरप्पह अग्गि सप्पभा चेव । विमला य पंचवण्णा सागरदत्ता य णागदत्ता य ॥ १६ ॥ अभयकर निव्वुइकरा मणोरमा तह मणोहरा चेव । देवकुरूत्तरकुरा विसाल चंदप्पभा सीया ॥ १७ ॥ एआओ सीआओ सवेसिं चेव जिणवरिंदाणं । सबजगवच्छलाणं सबोउगसुभाए छायाए ॥ १८ ॥ पुट्विं ओक्खित्ता माणुसेहिं साह((ट्ट) रोमकूवेहिं । पच्छा वहति सीअं असु. रिंदसुरिंदनागिंदा ॥ १९ ॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी । सुरअसुरवंदिआणं वहंति सी जिणंदाणं ॥ २०॥ पुरओ वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि। पञ्चच्छि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोयुं अंग दीक्षाशिविका नाम ॥ ॥२९२॥ मेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ॥ २१॥ उसभो अ विणीयाए बारवईए अरिट्ठवरणेमी । अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु॥२२॥ सव्वे वि एगदूसेण [णिगया जिणवरा चउव्वीसं । ण य णाम अण्णलिंगे ण य गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥ २३ ॥] एको भगवं वीरो [ पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहिं । भगवं पि वासुपुज्जो छहिं पुरिससरहिं निक्खंतो ॥२४॥] उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं [ च खत्तियाणं च। चउहि सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥२५॥ ] सुमइ स्थ णिच्चभत्तेण[णिग्गओ वासुपुज चोत्थेणं । पासो मल्ली य अट्ठमेण सेसा उछट्टेण।। २६ ॥] | मूलार्थ:-जंबुद्वीप नामना द्वीपने विपे भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थंकरो थया, ते आ प्रमाणे| ऋषभदेव १, अजितनाथ २, संभव ३, अभिनंदन ४, सुमति ५, पद्मप्रभ ६, सुपार्श्व ७, चंद्रप्रभ ८, सुविधि अथवा पुष्पदंत ९, शीतल १०, श्रेयांस ११, वासुपूज्य १२, विमल १३, अनंत १४, धर्म १५, शांति १६, कुंथु १७, अर १८, मल्लि १९, मुनिसुव्रत २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्व २३ अने वर्धमान २४. आ चोवीश तीर्थंकरोना चोवीश पूर्वभवना नाम हता, ते आ प्रमाणेला १. पूर्वना त्रीजा जे मनुष्यभवमा तीर्थकरनाम निकाचित कयु ते भवनां आ नामो जाणवा. amansamanuman ॥२९२॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहीं प्रथम वज्रनाभ १, विमल २, विमलवाहन ३, धर्मसिंह ४, सुमित्र ५, धर्ममित्र ६, (११) सुंदरबाहु ७, दीर्घबाहु ८, युगबाहु ९, लष्टबाहु १०, दिन ११, इंद्रदत्त १२, सुंदर १३, माहेंद्र १४ (१२) सिंहरथ १५, मेघरथ १६, रूपी १७, अने सुदर्शन १८ जाणवा, त्यारपछी नंदन १९, वीशमा सिंहगिरि २०, (१३) अदीनशत्रु २१, शंख २२, सुदर्शन २३ अने नंदन २४ आ अवसर्पिणीमां आ तीर्थंकरोना पूर्वभवना नाम जाणवा. (१४ ) ॥ आ चोवीश तीर्थकरोनी ( दीक्षा लेवा जती वखतनी ) जे नामनी शिविकाओ हती, ते आ प्रमाणे – सुदर्शना नामनी पहेली शिविका १, सुप्रभा २, सिद्धार्था ३, सुप्रसिद्धा ४, विजया ५, वैजयंती ६, जयंती ७, अपराजिता ८, ( १५ ), अरुणप्रभा ९, चंद्रप्रभा १०, सूरप्रभा ११, अग्निप्रभा १२, विमला १३, पंचवर्णा १४, सागरदत्ता १५, नागदत्ता १६, (१६) अभयकरा १७, निर्वृतिकरा १८, मनोरमा १९, मनोहरा २०, देवकुरा २१, उत्तरकुरा २२, विशाला २३ अने चंद्रप्रभा २४ नामनी शिचिका ( १७ ). सर्व जगतना वत्सल एवा सर्व जिनेश्वरोनी आ शिविकाओ सर्व ऋतुनी शुभ छायावडे युक्त होय . (टीकार्थ :- 'सव्वोउगसुभयाए छायाए त्ति – शरदादिक सर्व ऋतुने विषे सुखने आपनारी छायावडे एटले १ आ सूत्रोनी टीकामां कांइ विशेष लखेलुं नथी तेथी टीकार्थ जूदो लख्यो नथी. पण जे ठेकाणे टीकार्थ विशेष आप्यो छे. ते साथ साथै ज काउंसमां लख्यो छे. Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाम दीक्षा . शिविका नाम ॥ पो' अंग ॥२९॥ आतपना अभावरूप प्रभावडे युक्त होय छे, अहीं युक्त ए शब्द अध्याहार छे.) (१८) आ शिविकाओ प्रथम मनुष्यो हर्पना रोमकूप सहित उपाडे छे-वहन करे छे अने पछी असुरेंद्रो, सुरेंद्रो अने नागेंद्रो वहन करे छे. (टीकार्थ-सा हहरोमकूवेहिं ति'-जेना उपर जिनेश्वर आरूढ थया होय ते शिविका हृष्टरोमकूप एटले, जेमना रुंवाडा ऊभा थया छे एवा मनुष्यो वहन करे छे) (१९). ते असुरेंद्रादिक चपळ एवा सता चपळ कुंडलने धारण करनारा अने पोतानी इच्छाथी विकुर्वेला मुकुटादिक आभरणोने धारण करनारा होय छे. तेओ सुरासुरे वांदेला एवा जिनेश्वरोनी शिविका वहन करे छे (२०) तेमा आगळ देवो वहन करे छे, नागकुमारो जमणी बाजु वहन करे छे, असुरेंद्रादिक पाछळथी वहन करे छे अने उत्तर बाजुए गरुड-गरुडध्वज एटले सुपर्णकुमार वहन करे' छे. (२१). ऋषभदेव भगवाने विनीता नगरीमाथी निष्क्रमण कयु, अरिष्टनेमिए द्वारका नगरीमाथी अने बाकीना बावीश तीर्थंकरोए पोतपोतानी जन्मभूमिमांथी निष्क्रमण कयु (दीक्षा लेवा नीकळ्या) (२२). सर्वे चोवीशे तीर्थंकरो इंद्रे आपेला एक देवदूष्यवडे नीकळ्या हता, (पण उपधिरूप वस्त्रवडे नहीं ). अन्यलिंगे नहीं (एटले स्थविरकल्पिकादिकना लिंगवडे नीकळ्या नहोता पण तीर्थकरलिंगे ज नीकळ्या हता), तथा गृहस्थलिंगे पण नहीं, तेम ज कुलिंगे एटले शाक्यादिकलिंगे पण नहीं. (२३) भगवान महावीरस्वामीए एकलाए ज दीक्षा ग्रहण करी हती, पार्श्वनाथे अने मल्लिनाथे त्रण सो त्रण सो पुरुषोनी साथे दीक्षा लीधी हती, भगवान वासुपूज्यस्वामी छसो पुरुषोनी साथे नीकळ्या हता-दीक्षा लीधी हती, (२४), उग्रकुळना, भोगकुळना १. सुबोधिकामां उपाडनार इंद्रोना नामोमां फेरफार छे. ला॥२९॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S चार हजार क्षत्रिय राजाओनी साथे ऋषभदेव नीकळ्था हता, अने बाकीना ओगणीश तीर्थकरो हजार हजारना परिवार सहित नीकळ्या हता (२५). सुमतिस्वामी नित्यभक्तवडे (उपवास विना) नीकळ्या हता, वासुपूज्य स्वामी एक उपवासे नीकळ्या हता, पार्श्वनाथ अने मल्लिनाथ अहम भक्ते नीकळ्या हता अने बाकीना वीश तीर्थकरो छठभक्ते नीकळ्या हता (२६) एएसिं णं चउव्वीसाए तित्थगराण चउव्वीसं पढमभिक्खादायारो होत्था, तं जहा-सिजंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत्ते य । पउमे य सोमदेवे माहिदे तह सोमदत्ते य ॥ २६ ॥ पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद सुगंदे जये य विजये य । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह वग्गसीहे अ॥२७॥ अपराजिय विस्ससेणे वीसइमे होइ उसभसेणे य । दिपणे वरदत्ते धणे बहुले य आणुपुवीए ॥ २८ ॥ एए विसुद्धलेसा जिणवरभत्तीइ पंजलिउडा उ । तं कालं तं समयं पडिलाभेई जिणवरिंदे ॥ २९ ॥ संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसमेण लोयणाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ३० ॥ उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं पर....१ छापेल प्रतमा आ २६ नो अंक बीजी वार कर्यो छे. 34 य Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरोने प्रथमभिक्षा दाता॥ समवाया - घोपुंअंग इंद्रदत्त ४, पद्म ५, सोमदव १ -- ॥२९॥ मपणं अमियरसरसोवमं आसि ॥ ३१ ॥ सव्वसि पि जिणाणं जहियं लद्धाउ पढमभिक्खाउ । तहियं वसुधाराओ सरीरमेत्तीओ वुढाओ ॥ ३२॥ आ चोवीश तीर्थंकरोने प्रथम भिक्षा आपनारा जे चोवीश हता, ते आ प्रमाणे-श्रेयांस १, ब्रह्मदत्त २, सुरेंद्रदत्त ३, इंद्रदत्त ४, पद्म ५, सोमदेव ६, माहेंद्र ७, सोमदत्त ८ (२६), पुष्य (पुष्पदंत)९, पुनर्वसु १०, पूर्णानंद ११, सुनंद, १२, जय १३, विजय १४, धर्मसिंह १५, सुमित्र १६, वर्गसिंह १७ (२७), अपराजित १८, विश्वसेन १९, ऋपभसेन २०, दिन्न २१, वरदत्त २२, धन, २३ अने बहुल २४, आ नामो अनुक्रमे जाणवा. (२८). आ सर्वे जिनेश्वर उपरनी भक्तिने लीधे विशुद्ध लेश्यावाळा ते काळे ते समये वे हाथ जोडीने जिनेश्वरोने पडिलाभता हवा (२९) लोकना नाथ ऋषभदेव स्वामीए एक वर्षे प्रथम भिक्षा प्राप्त करी हती, अने शेष त्रेवीश तीर्थकरो बीजे ज दिवसे प्रथम भिक्षा पाम्या हता. (३०). लोकना नाथ ऋषभदेवने प्रथम भिक्षामां इक्षुरस मळ्यो हतो अने बीजा वीश तीर्थंकरोने| अमृतरसना जेवू परमान्न ( क्षीरभोजन ) मळ्युं हतुं. (३१), सर्व जिनेश्वरोने ज्यां प्रथम भिक्षा प्राप्त थइ, त्यां देवोए शरीर-पुरुष प्रमाण साडा बार करोड सुवर्णनी वृष्टि करी हती. (३२) __ एएसिं चउव्वीसाए तित्थगराणं चउवीसं चेइतरुक्खा होत्था, तं जहा-णग्गोह सत्तिवण्णे साले पियए पियंगु छत्ताहे । सिरिसे य णागरुक्खे माली य पिलंक्खुरुक्खे य ॥ ३३ ॥ तिंदुक - - ॥२९॥ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाल जंबू आसत्खलु तहेव दहिवपणे । णंदीरुक्खे तिलए अंबयरुक्खे असोगे य ॥ ३४ ॥ चंपय उले यता वेडसरुक्खे य धायईरुक्स्खे । साले य वडमाणस्स चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३५ ॥ बत्तीसं धणुयाइं चेइयरुक्खो य वद्धमाणस्स । णिच्चोउगो असोगो ओच्छण्णो सालरुक्खेणं ॥ ३६॥ तिणे व गाउआई चेइयरुक्खो जिणस्स उसभस्स । सेसाणं पुण रुक्खा सरीरओ बारसगुणा उ ॥ ३७ ॥ सच्छत्ता सपडागा सवेइया तोरणेहिं उववेया । सुरअसुरगरुलमहिया चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३८ ॥ आ चोवीश तीर्थकरोने चोवीश चैत्यवृक्षो हता, ते आ प्रमाणे – न्यग्रोध १, सप्तपर्ण २, शाल ३, प्रियालु ४, प्रियंगु ५, छत्रवृक्ष ६, सरस ७, नागवृक्ष ८, माली ९, पिलंखुवृक्ष १० (३३), तिंदुक ११, पाटल १२, जंबू १३, अश्वत्थ १४, दधिपूर्ण १५, नंदीवृक्ष १६, तिलक १७, आम्रवृक्ष १८, अशोक १९ (३४), चंपक २०, कुल २१, वेतसवृक्ष २२, धातकीवृक्ष २३ अने छेल्ला वर्धमानस्वामीने शालवृक्ष २४ हतुं. आ प्रमाणे चोवीशे तीर्थकरोना चैत्यवृक्षो हता. ( टीकार्थ - ' चेइयरुक्खे त्ति ' - पीठबंध वृक्षो एटले जेनी नीचे केवळज्ञान उत्पन्न थयुं होय ते. ( ३५ ) ॥ श्री वर्धमानस्वामीनो अशोक चैत्यवृक्ष वत्रीश धनुष ऊंचो, नित्य ऋतुवाको अने शालवृक्षवडे अवच्छन्न ढंकायेलो हतो ५० Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य वृक्षादि विचार । (टीकार्थ-'बत्तीसं धणुयाई' ए गाथामां' निचोउगो त्ति'-नित्य एटले सर्वदा ऋतुज एटले पुष्पादिक काळ समवायाङ्ग छ जेनो ते नित्यर्तुक कहीए. 'असोगो त्ति'-अशोक नामनो जे वृक्ष समवसरणनी भूमिने मध्ये होय छे ते. मन्त्र ओ च्छन्नो सालरुक्खेणं ति'-शालवृक्षवडे अवच्छन्न हतो. आम कहेवाथी ज अशोकवृक्षनी उपर शालवृक्ष पण चोथं अंग कथंचित् होय छे एम जणाय छे.) (३६)॥ ऋषभदेव स्वामीनो चैत्यवृक्ष त्रण गाउ ऊंचो हतो (एटले के तेमना शरी स्थी चारगुणो ऊंचो हतो) अने बाकीना तीर्थकरोना चैत्यवृक्ष तेमना शरीरथी बारगुणा ऊंचा हता एम जाणवू (३७). ॥२९५॥ 1 ते जिनेश्वरोना चैत्यवृक्षो छत्र सहित, पताका सहित, वेदिका सहित, तोरणोए करीने सहित अने सुर, असुर तथा गरुड देवोए पूजित होय छे (आ अशोकवृक्षो समवसरणना होय एम संभवे छे.')(३८)॥ - मू०-एएसिं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसीसा होत्था, तं जहा-पढमेत्थ उसY भसेणे बीइए पुण होइ सीहसेणे य । चारू य वजणाभे चमरे तह सुव्वय विदब्भे ॥ ३९ ॥ • दिण्णे य वराहे पुण आणंदे गोथुभे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिटे चक्काह सयंभु कुंभे य॥४०॥ १ आ हकीकत श्रीवीरप्रभुना अशोकवृक्षने अंगे ज छे. २ आ. वृक्षना नामो तीर्थंकर जे वृक्ष नीचे केवळज्ञान पाम्या तेना छे. ते काइ प्रभुना शरीरथी बारगुणा होता नथी. बारगणुं तो समवसरणना मध्यमा रहेलं अशोकवृक्ष ज सर्व प्रभुना संबंधमां होय छे. ॥२९५॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद कुंभे य सुभे वरदत्ते दिपण इंदभूई य । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥ ४१ ॥ मूलार्थ:- आ चोवीशे तीर्थंकरोने. चोवीश प्रथम शिष्य हता, ते आ प्रमाणे -- अहीं पहेला ऋषभसेन १, बीजा सिंहसेन २, चारु ३, वज्रनाभ ४, चमर ५, सुव्रत ६, विदर्भ ७, (३९), दिन ८, वराह ९, आनंद १०, गोस्तुभ ११, सुधर्मा १२, मंदर १३, यशोधर १४, अरिष्ट १५, चक्रायुध १६, स्वयंभू (संघ) १७, कुंभ १८ (४०), इंद्र १९, कुंभ २०, शुभ २१, वरदत्त २२, दिन २३ अने इंद्रभूति २४ तीर्थने प्रवर्तावनारा जिनेश्वरोना आ प्रथम शिष्य उदितोदित (उदय पामेला ) कुळ अने वंशवाळा, विशुद्ध वंशवाळा अने गुणे करीने सहित हता ॥ ४१ ॥ मू० - एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसिस्सिणी होत्था, तं जहा - बंभी य फग्गु सामा अजिया कासवीरई सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा ॥४२॥ पउमा सिवासुयी तह अंजुया भावियप्पा य रक्खी य । बंधुवती पुप्फवती अज्जा अमिला य अहिया य ॥ ४३ ॥ जक्खिणी पुष्पचूला य चंदणज्जा य आहियाउ । उदितोदितकुलवंसा विसु १ आ नामोमां ने श्रीत्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्रमां आपेला नामोमां कोइ कोइ फेरफार छे. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागुणेहिं उववेया । तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥४४॥ गाहा ॥सूत्रम् - १५७॥ मूलार्थ:- आ चोवीशे तीर्थकरोने चोवीश प्रथम शिष्या हती, ते आ प्रमाणे - ब्राह्मी २, फल्गु २, श्यामा ३, अजिता ४, काश्यपी ५, रति ६, सोमा ७, सुमना ८, वारुणी ९, सुलसा १०, धारणी ११, धरणी १२, धरणिधरा १३ (४२), पद्मा १४, शिवा १५, श्रुति १६, अंजुक १७, भावितात्मा एवी रक्षिका १८, बंधुमती १९, पुष्पवती २०, आर्या अमिला नामनी कही छे २१ ( ४३ ) यक्षिणी २२, पुष्पचूला २३ अने चंदना आर्या २४ कही छे. तीर्थने प्रवविनार तीर्थकरोनी आ पहेली शिष्याओ उदितोदित कुलवंशवाळी, विशुद्ध वंशवाळी अने गुणे करीने सहित ..कही छे. (४४) ॥ सूत्र- १५७ ॥ 'हवे चार चक्रवर्तीना पिताना नामो कहे छे- मू० - जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिपियरो होत्या, तं जहा - उसमे सुमित्ते विजए समुद्दविजए य आससेणे य | विस्ससेणे य सूरे सुदंसणे कत्तवी•रिए चैव ॥ ४५ ॥ उत्तरे महाहरी विजय राया तहेव य । बंभे बारसमे उत्ते पिउनामा चक्कणं ॥ ४६ ॥ चक्रवर्तीना मातापिताना नामी ॥ ॥ २९६॥ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थः-जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां वार चक्रवर्ती थया छ तेना पिताना नामो आ लप्रमाणे-ऋषभ १, सुमित्रविजय २, समुद्रविजय ३, अश्वसेन ४, विश्वसेन ५, सूर ६, सुदर्शन ७, कार्तवीर्य ८, (४५), पद्मो. त्तर ९, महाहरि १०, विजयराजा ११ अने ब्रह्म १२ बारमा. आ चक्रवर्तीना पिताना नाम कह्या (४६)॥ ___ हवे चक्रवर्तीनी माताना नामो कहे छ__ मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चकवट्टिमायरो होत्था, तं जहा-सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवी अइरा सिरि देवी । तारा जाला (जाला तारा) मेरा वप्पा चुलणि अपच्छिमा ॥ __ मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां बार चक्रवर्ती थया छे तेनी माताओना नामो आ प्रमाणे--सुमंगला १, यशोमती २, भद्रा ३, सहदेवी ४, अचिरा ५, श्री ६, देवी ७, तारा ८, ज्वाळा ९, मेरा १०, वमा ११ अने छेल्ली चुलणी १२ ॥ I हवे वार चक्रवर्तीना तथा तेना स्त्रीरत्नना नामो कहे छेल, मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए वारस चकवट्टी होत्था, तं जहा भरहो सगरो मघवं [ सणंकुमारो य रायसदलो । संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरवो मामाकामा Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्त्यादिना . नामो॥ समवायाङ्ग सत्र॥ चोधू अंग ॥२९७ ॥ ४७ ॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसद्दलो । जयनामो य नरवई, बारसमो बंभ- दत्तो य ॥४८॥ ] एएसिं बारसण्हं चकवट्ठीणं बारस इत्थिरयणा होत्था, तं जहा-पढमा होइ सुभद्दा भद्द सुणंदा जया य विजया य । किण्हसिरी सूरसिरी पउमसिरी वसुंधरा देवी ॥ ४९ ॥ लंच्छिमई कुरुमई इत्थिरयणाण नामाई ॥ मूलार्थ:-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमा भरतक्षेत्रमा आ अवसर्पिणीमां बार चक्रवर्ती थया हता, ते आ प्रमाणेभरत १, सगर २, मघवा ३, राजाने विपे सिंह समान सनत्कुमार ४, शांति ५, कुंथु ६, अर ७, कुरुवंशना सुभूम ८, नवमा महापद्म ९, राजाने विष सिंह समान हरिषेण १०, जय नामना राजा ११ अने बारमा ब्रह्मदत १२ (४८)॥ N आ बार चक्रवर्तीओने चार स्त्रीरत्नो हता, तेना नामो आ प्रमाणे-पहेली सुभद्रा १, भद्रा २, सुनंदा ३, जया ४, -विजया ५, कृष्णश्री ६, सूर्यश्री ७, पद्मश्री ८, वसुंधरा ९, देवी १० (४९). लक्ष्मीवती ११ अने कुरुमती १२. आ स्त्रीरत्नोनां नाम हतां ॥ - हवे बळदेव वासुदेवना पितादिकना नामो कहे छे मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए नवबलदेवनववासुदेवपियरो होत्था ॥२९७॥ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहा - पावई भो [ सोमो रुद्दो सिवो महसिवो य । अग्गिसिहो य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो ॥ ५० ॥ ] जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए णव वासुदेवमायरो हत्था, तं जहा - मियावई उमा चेव पुहवी सीया य अम्मया । लच्छिमई सेसमई कई देवता ॥ ५१ ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए णवबलदेवमायरो होत्था, तं जहा - भद्दा तह सुभद्दा य सुप्पभा य सुदंसणा । विजया वेजयंती य जयंती अपराजिया ॥ ५२ ॥ णवमीया रोहिणी य बलदेवाण मायरो || मूलार्थ:-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमां भरतक्षेत्रमां आ अवसर्पिणीमां नव वळदेवना अने नव वासुदेवना पिता हता, तेना नामो आ प्रमाणे - प्रजापति १, ब्रह्म २, सोम ३, रुद्र ४, शिव ५, महाशिव ६, अग्निसिंह ७, दशरथ ८ अने नवमा वसुदेव ९ का छे ( ५० ) || आ जंबुद्वीप नामना द्वीपमां आ भरतक्षेत्रमां आ अवसर्पिणीमां नव वासुदेवनी माताओ हती, तेनानामो आ प्रमाणे - मृगावती १, उमा २, पृथ्वी ३, सीता ४, अंबिका ५, लक्ष्मीवती ६, शेषवती ७, केकी ८ तथा देवकी ९ (५१) ॥ आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमां भरतक्षेत्रमां आ अवसर्पिणीमां नव वरदेवनी माताओ हती, तेनानामो आ प्रमाणे - भद्रा १, सुभद्रा २, सुप्रभा ३, सुदर्शना ४, विजया ५, वैजयंती ६, जयंती ७, अपरा Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥२९८॥ जिता ८ (५२) अने नवमी रोहिणी ९. आ वळदेवनी माताओ हती | हवे वळदेव अने वासुदेवना नामो ( तेमना गुणोना विशिष्ट वर्णन साथै ) कहे छे मू० - जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था, तं जहाउत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी वच्चसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूआ सुहसीलसुहाभिगमसवजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अनिता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमहणा साणुकोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुलपलावहसियगंभीरमधुरपडिपुण्णसच्चवयणा अब्भुवगयवच्छला सरण्णा लक्खणवंजणगुणोववे माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजाय सवंगसुंदरंगा ससिसोमागार कंतपियदंसणा अमरिसण पडदंड प्यारा (र) गंभीरदर (रि) सणिजा तालद्धओविद्धगरुल केऊ महाधणुविकल्या महासत्तसारा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्तिपुरिसा विउलकुलसमुब्भवा महारयणविहाडगा अभहामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा हलमुसलकणकपाणी संखचक्कग बलदेव वासुदेव गुणवर्णन ॥ ॥२९८॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यसत्तिनंदगधरा पवरुज्जलसुकंतविमलगोत्थुभतिरीडधारी कुंडलउज्जोइयाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकंठलइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सवोउयसुरभिकुसुमरचितपलंब सोमंतकंतविकसंतविचित्तवरमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुंदरविरइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई सारयनवथणियमहुरगंभीरकुंचनिग्घोसदुंदुभिसरा कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलगपीयगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो होत्था, तं जहा - तिविट्ठू जाव कहे अले जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥ ५३ ॥ मूलार्थ:: -आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमां भरतक्षेत्रमां आ अवसर्पिणीमां नव दशार मंडळ ( वासुदेव अने वळदेवना समुदाय ) थयेला छे ते ( ना गुणो ) आ प्रमाणे - उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष, प्रधानपुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, कांतिवाळा, कांत, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, सुखशीळ, सुखे सेववा लायक, सर्व जनना नेत्रने प्रिय, ओघ वळवाळा, अति वळवाळा, महा वळवाळा, अनिहत ( नहीं हणायेला ), पराजय नहीं पामेला, शत्रुने मर्दन करनारा, • हजारो शत्रुना मानने मथन करनारा, अनुक्रोश (दया) सहित, मत्सर रहित, चपळता रहित, अप्रचंड ( क्रोध रहित ), Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव वासुदेव गुणवर्णन। | परिमित अने कोमळ वचन बोलनारा अने हसमुखा, गंभीर, मधुर, संपूर्ण अने सत्य वचनने बोलनारा, शरणे आवेलाना समवायाङ्गवत्सल, शरण करवा योग्य, लक्षण अने व्यंजनना गुणे करीने सहित, मान, उन्मान अने प्रमाणे करीने संपूर्ण अने सुजात मन्त्र॥ एवा सर्वांगे करीने सुंदर अंगवाळा, चंद्रनी जेवा सौम्य आकारवाळ, कांत अने प्रिय छे दर्शन जेनुं एवा, आळस रहित, चोधं अंग प्रचंड दंडना प्रकार (आज्ञा) वाळा, गंभीर दर्शनवाळा, तालध्वजावाळा (बळदेव) अने ऊंची गरुडध्वजावाळा (वासुदेव), K मोटा धनुपने खेंचवावाळा, मोटा सचना सागररूप, दुर्धर, धनुपधारी, धीरोने विपे पुरुपाकारवाळा, युद्धमा कीर्तिवाळा ॥२९॥ पुरुप, मोटा कुळमां जन्मेला, मोटा रत्नने चूर्ण करनारा, अर्धभरतना स्वामी, सौम्य ( रोग रहित ), राजकुळवंशमां तिलकसमान, अजित, अजित रथवाळा, हळ अने मुशळने तथा कनक( वाण )ने हाथमां धारण करनारा, (वळदेव) शंख, चक्र, गदा, शक्ति अने नंदक नामना खड्गने धारण करनारा (वासुदेव ) प्रवर, उज्ज्वळ, शुक्लांत अने निर्मक कौस्तुभ नामना मणिने तथा मुकुटने धारण करनारा (वासुदेव ), कुंडळवडे प्रकाशित मुखवाळा, कमळ सरखा नेत्रवाळा, कंठमा पहेरेली एकावळी( हार )ने हृदय उपर धारण करनारा (वासुदेव ), श्रीवत्सना लांछनवाळा, (वासुदेव ) श्रेष्ठ यशवाळा, सर्व ऋतु संबंधी सुगंधी पुष्पोवडे बनावेली, लांची, शोभती, मनोहर, विकस्वर, विचित्र वर्णवाळी अने उत्तम एवी (वन) माळा जेमना वक्षःस्थळमां रची छे-स्थापन करी छे एवा (वासुदेव ), प्रगट एवा एक सो ने आठ लक्षणोवडे प्रशस्त अने मनोहर रच्या छ अंगोपांग जेमना एवा, मदोन्मत्त श्रेष्ठ गजेंद्रनी गति जेवी विलासवाळी छे गति जेमनी एवा, शरद ऋतुना नवा गर्जारव जेवो अने मधुर एवा क्रौंचपक्षीना निर्घोष जेवो तथा दुदुभिना नाद जेवो जेमनो ॥२९९॥ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मधुर) स्वर (नाद) छे एवा, कटीसूत्र (कंदोरा) तथा नील ( वासुदेव ) अने पीत (बळदेव) कौशेय वस्त्रवाळा, श्रेष्ठ देदीप्यमान तेजवाळा, नरने विपे सिंह समान, नरना पति, नरना इंद्रो, नरने विषे वृषभ समान, इंद्रनी उपमावाळा, अधिक राजतेजनी लक्ष्मीवडे देदीप्यमान अने नील-पीत वस्त्रवाना वे वे राम अने केशव भाइओ. हता, ते आ प्रमाणे-त्रिपृष्ठथी कृष्ण सुधी अने अचळथी छेल्ला ( बळ ) राम सुधी ( नव नव जाणवा )॥५३॥ टीकार्थः-दशारना एटले वासुदेवना मंडळ एटले बळदेव अने वासदेव ए बवेना जे समुदाय ते दशारमंडळ कहीए. आथी करीने ज 'दो दो रामकेसवा' एम आगळ कहेशे. वळी वळदेव अने वासुदेव दशारमंडळनी बहार नहीं होवा छतां दशारमंडलानि' एम प्रथम कहीने एण दशारमंडळमां प्रगटरूप एवा तेमना विशेपणो आपवा माटे 'तद्यथा एम कहे छे–' तद्यथा' ए शब्द वळदेव अने वासुदेवना स्वरूपने जणाववा माटे कह्यो छे. कोइक आचार्य दशारमंडळनो अर्थ आ प्रमाणे करे छे-दशारना एटले वासुदेवना कुळमां थयेली प्रजाना मंडन एटले शोभावनारा, उत्तम पुरुषो एटले तीर्थंकरादिक चोपन उत्तम पुरुषोनी मध्ये वर्तता होवाथी उत्तम, मध्यम पुरुपो एटले तीर्थंकर चक्रवर्तीना तथा प्रतिवासुदेवादिकना बळादिकनी अपेक्षाए वच्चे वर्तनार होवाथी, प्रधानपुरुषो एटले ते ते काळना पुरुषोने मध्ये शौर्यादिकवडे प्रधान-मुख्य होवाथी, मनना बळवाळा होवाथी ओजस्वी, दीप्तिमान शरीर होवाथी तेजस्वी, शरीरे बळवान होवाथी वर्चस्वी, पराक्रम बतावीने प्रसिद्धि पामेला होवाथी यशस्वी, छायावान एटले शोभायमान शरीरवाळा, एज कारण माटे कांतिना योगथी कांत, अरौद्र आकार होवाथी सौम्य, लोकोने वल्लभ होवाथी सुभग, चक्षुने प्रिय रूपवाळा होवाथी प्रियदर्शन Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव वासुदेव गुणवर्णन। श्री - समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथु अंग ॥३०॥ वाळा, समचतुरस्र संस्थान होवाथी सुरूप, सुखकारक होवाथी सुखशील जेमनो स्वभाव शुभ अथवा सुखकारक होय छे ते शुभशीळ अथवा सुखशीळ कहेवाय छे, अने शुभशीळ होवाथी सखे करीने सेवी शकाय ते सुखाभिगम्य कहेवाय छ, सर्व लोकना नेत्रोने कांत एटले अभिलाप करवा लायक जे होय ते सर्वजननयनकांत कहेवाय छे. त्यारपछी आ ण पदनो कर्मधारय समास करयो ( शुभशीलसुखाभिगम्यसर्वलोकनयनकान्ताः), ओघवल एटले व्यवच्छेद रहित (निरंतर) वळवानपणुं होवाथी प्रवाहबळवाळा, अतिबल एटले शेष सर्वजनोना बळने उल्लंघन करनारा होवाथी अतिवळवान, महावळ एटले प्रशस्त बळवाळा, अनिहत एटले निरुपक्रम आयुष्य होवाथी अथवा मोटा युद्धमां पण पृथ्वी परतेमने पाडनार कोइ नहीं होवाथी कोइना बडे नहीं हणायेला, पोते ज शत्रुओनो पराजय करनार होवाथी अपराजित-पराजय नहीं पामेला, ते ज बात कहे छशत्रुना शरीर अने सैन्यनी कदर्थना करनारा होवाथी शत्रुमर्दन-शत्रुनु मर्दन करनारा, शत्रुना इच्छित कार्यने विखेरी नांखनार होवाथी हजारो शत्रुना मानतुं मर्दन करनारा, सानुक्रोश ( दयावाळा ) एटले नमेलाने विपे द्रोह नहीं करनारा, अमत्सर एटले परना लेश पण गुणने ग्रहण करनार होवाथी मत्सर ( इर्ष्या) रहित, अचपल एटले मन, वचन अने कायानी स्थिरता होवाथी चपळता रहित, अचंड एटले कारण विना प्रवळ कोप रहित होवाथी प्रचंडता रहित, जेनुं वचन (बोलवू ) अने हास्य ए बन्ने परिमित अने कोमळ होय ते मितमंजुलप्रलापहसित एवा, तथा गंभीर एटले रोप, संतोप, शोक विगेरे विकारने नहीं देखाडनारं अथवा मेघना शब्द जेवु गंभीर, मधुर एटले कर्णने सुख आपनाएं, प्रतिपूर्ण एटले अर्थनी प्रतीति उत्पन्न करनारुं अने सत्य एवं जेमनुं वचन-वाक्य छे एवा, त्यारपछी आ वे पदनो कर्मधारय समास - Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवो (प्रियमंजुलप्रलापहसितगंभीरमधुरप्रतिपूर्णसत्यवचनाः), शरणे आवेलाने वत्सल एटले तेमन रक्षण करनारा, शरण्य एटले रक्षण करवामां श्रेष्ठ होवाथी शरण करवा लायक, लक्षण एटले मान (प्रमाण)विगेरे अथवा वज्र, स्वस्तिक, चक्र विगेरे चिह्नो तथा व्यंजन एटले तल, मसा विगेरे, तेना गुणो एटले मोटी ऋद्धिनी प्राप्ति विगेरे, तेणे करीने उपपेत एटले शकन्ध्वादिगणमां आ शब्द होवाथी उपपेत-सहित ते लक्षण अने व्यंजनना गुणे करीने सहित एवा, मान एटले एक द्रोण पाणीना परिमाणवाल्लं शरीर, ते केवी रीते ? ते कहे छे-पाणीनी भरेली द्रोणी( पात्र )मां पुरुष बेसे त्यारे तेमांथी जे पाणी बहार नीकळे ते जो एक द्रोण प्रमाण थाय तो ते पुरुष मानने पामेलो कहेवाय छे, उन्मान एटले M अर्धभार प्रमाणपणुं, ते केवी रीते ? ते कहे छे-बाजवामा राखेला पुरुपनो जो अर्ध भार जेटलो तोल थाय तो ते उन्मानने sil पामेलो कहेवाय छे, अने प्रमाण एटले एक सो ने आठ अंगुल ऊंचाइ होय ते. आ प्रमाणे मान, उन्मान अने प्र करीने परिपूर्ण एटले न्यूनता रहित अने गर्भाधानथी आरंभीने पालन-पोषणनी विधिवडे सुजात (सारी रीते उत्पन्न थयेलु) तथा सर्वांगसुंदर एटले समग्र अवयवनी प्रधानतावाल्लं शरीर छ जेमनुं एवा, चंद्रनी जेम सौम्य (सुंदर ) आकारवालं अर्थात् रौद्र के बीभत्स नहीं एवं, कांत एटले दीप्तिवालं, प्रिय एटले लोकोने प्रमोद उत्पन्न करनारुं छे दर्शन एटले रूप जेमनुं एवा, 'अमरिसण त्ति' अमसृण एटले काम करवामां आळस रहित अथवा अमर्पण एटले अपराध छतां पण। क्षमा करनारा, प्रकांड एटले उत्कट छे दंडप्रकार एटले आज्ञाविशेष अथवा नीतिनो भेदविशेष जेमनो एवा, अथवा दुःसाध्य कार्यने पण साधनार होवाथी प्रचंड छे दंडप्रचार एटले सैन्यनो प्रचार जेमनो एवा, अंदरनो अभिप्राय जाणी Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव वासुदेव सूत्र । श्रीन शकाय एवो होवाथी जेओ गंभीर देखाय छे ते गंभीरदर्शनीय कहेवाय छे, त्यारपछी आबे पदनो कर्मधारय समास अमवायाङ्ग करवो अथवा तो प्रचंड दंडना प्रचारे करीने जे गंभीर देखाय छ (एम तृतीया तत्पुरुप समास करवो-प्रचंडदंडप्रचार गंभीरदर्शनीयाः) एवा, ताल अथवा तल नामना वृक्ष छे वज (मां चिह्न) जेमने ते तालध्वज बळदेव होय छे अने घोषं अंग N|उद्विद्ध एटले ऊंचो गरुडना चिह्नवाळो केतु-ध्वज छ जेमनो ते उद्विद्धगरुडकेतु वासुदेव होय छे, त्यारपछी तालध्वज वाळा अने उद्विद्धगरुडकेतुवाळा (ए वेनो द्वंद्व समास करवाथी) तालध्वजोद्विद्धगरुडकेतु एवा, मोटा वळवान होवाथी ॥३०१॥ मोटा धनुपने खेंचनारा, महासत्व( पराक्रम )रूप जळना आश्रयरूप होवाथी समुद्र जेवा समुद्ररूप ते महासत्त्वसागर एवा, तेओ ज्यारे रणांगणमा प्रहार करे छे त्यारे कोइ पण धनुर्धारी तेमने धारण करी शकनार न होवाथी दुर्धर एवा, धनुर्धर एटले जेमनुं शस्त्र धनुष छे एवा, धीर पुरुपोने विषे ज तेओ पुरुष एटले पराक्रमी छे पण कातरने विपे पराक्रमी नथी तेथी धीरपुरुष एवा, युद्धमा प्राप्त थयेली जे कीर्ति ते ज जेमने प्रधान-मुख्य छे एवा पुरुप ते युद्धकीर्तिपुरुष कहे| वाय छे, विपुल कुळमां उत्पन्न थयेला एनो अर्थ प्रसिद्ध छे, महा वळवानपणाए करीने महारत्नने एटले वज्ररत्नने अंगुष्ठ अने तर्जनी आंगळीवडे जेओ विघटन करनार एटले चूर्ण करनार ते महारत्नविघटक कहेवाय छे, केम के वज्ररत्नने अधिकरणी ( एरण ) उपर मूकी तेने अयोधन( हथोडा )वडे टीपे तोपण ते भेदातुं नथी ( एरणमां पेशी जाय छे), तेवा वज्ररत्नने तेओ भेदे छे तेथी ते दुर्भेद छ, अथवा संग्राम करवानी इच्छावाळा महासैन्यनी सागरव्यूह, शकटव्यूह विगेरे प्रकारवडे जे मोटी रचना तेने तरी जवाना रंगना रसिकपणाए करीने अने महा वळवानपणाए करीने जेओ विध मां माता धीर पुरुषलाइ पण धरूप होवा ॥३०॥ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - MOI टन करे-बीखेरी नांखे ते महारचनाविघटक कहेवाय छे, पाठांतरमा 'महारणविघटका' एटले मोटा रणसंग्रामने वीखेरी नांखनारा एवा, अर्ध भरतक्षेत्रना स्वामी, सौम्य एटले नीरुज ( रोग रहित), राजकुळवंशने विषे तिलक समान, अजितकोइथी जीताय नहीं एवा, अजित स्थवाळा, 'हलमुशलकणकपाणयः'-तेमां हळ अने मुशक एनो अर्थ प्रसिद्ध छे, आ बे हथियाररूपे जेना हाथमा छे एवा बळदेव अने जेमना हाथमां कणक एटले बाण छे एवा शाङ्ग धनुपवाळा वासुदेव होय छे, पांचजन्य नामनो शंख, सुदर्शन नामर्नु चक्र, कौमोदकी नामनी गदा-लकुटविशेष ( लाकडी), शक्ति एटले त्रिशूळ विशेष अने नंदक नामर्नु खड्ग, आ सर्वने जे धारण करे ते शंखचक्रगदाशक्तिनंदकधर वासुदेवो होय छे, मोटा प्रभाववाळो होवाथी प्रवर, श्वेत अथवा स्वच्छ होवाथी उज्ज्वळ, कांतिवाळो होवाथी शुक्लांत अथवा पाठांतरे सारं परिकर्म करेलु होवाथी सुकृत तथा मळ रहित होवाथी निर्मळ एवा कौस्तुभ नामना मणिने अने किरीट एटले मुकुटने जेओ धारण करे छे तेवा, कुंडळवडे देदीप्यमान छे मुख जेना एवा, कमळ जेवा छे नेत्र जेमना एवा, एकावळी नामर्नु भूपण (हार) कंठने विपे लाग्युं सतुं-लटक्युं सतुं जेओने वक्षःस्थळमां वर्त छे ते एकावलीकंठलगितवक्ष एवा, श्रीवत्स नामनुं सारुं महापुरुषत्वने सूचवनाएं लांछन छे जेमने ते श्रीवत्सलांछन एवा, सर्वत्र विख्यात होवाथी श्रेष्ठ यशवाळा, सर्व ऋतुमां संभवता अने सुगंधी एवा जे पुष्पो ते बडे सारी रीते रचेली-करेली जे प्रलंब एटले पग सुधी पहोंचे तेवी लांबी, शोभायमान, कांत-मनोहर, विकस्वर-फुलेली, चित्र-पांच वर्णनी अने वर-प्रधान एवी माळा रची छे एटले स्थापन करी छे अथवा रतिदा एटले सुख करनारी छे वक्षस्थळमां जेमना ते सर्वत भकुसुमरचितप्रलंबशोभमानकांत - SE Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदेव वासुदेव गुणवर्णन। ॥३०२॥ श्री विकसच्चित्रवरमालारचितवक्ष एवा, (अहीं सुधीना बधा विशेपणो वासुदेवना जाणवा) तथा विभक्त एटले स्पष्ट रीते छूटा छूटा समवायाङ्ग देखाताजे एक सो ने आठ चक्र विगेरे लक्षणो तेणे करीने प्रशस्त एटले मांगलिक अने सुंदर एटले मनोहर स्थापन कराया छे सूत्र ॥ मस्तक अने आंगळी विगेरे अंगोपांग जेमना ते अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचितांगोपांग एवा, तथा मदोन्मत्त चोधुं अंग 1. श्रेष्ठ हाथीनो जे ललित-मनोहर विक्रम-संचार तेना जेवी विलासवाळी छे गति जेमनी ते मत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमवि लासितगति एवा, शरदऋतुने विषे थयेलो एवो अने नवं स्तनित (गर्जारव ) जे नि?पने विपे छे एवो तथा मधुर अने गंभीर एवो जे क्रौंच पक्षीनो निर्घोष एटले नाद तेनी जेवो तथा दुंदुभिना स्वर जेवो छ नाद (स्वर) जेमनो ते शारदनवस्तनितमधुरगंभीरक्रौंचनिर्घोषदुन्दुभिस्वर एवा, अहीं शरदऋतुमा क्रौंच पक्षी मत्त अने मधुर स्वरवाळा होय छे तेथी शरदनुं ग्रहण कर्यु छ, तथा वारंवार शब्दनी प्रवृत्ति थवाथी ते (शब्द)नो भंग (विच्छेद) थाय त्यारे तेनी अमनोहरता थइ जाय छे तेथी नवस्तनित शब्दनुं ग्रहण कयुं छे, अने स्वरूप देखाडवाने माटे (स्वरूप विशेषण तरीके ) मधुर अने गंभीर ए वे शब्दनुं ग्रहण कयु छे, तथा कटीसूत्र एटले आभरण विशेप ( कंदोरो), ते जेमा प्रधान छे एवा बळदेवने नीलरंगना अने वासुदेवने पीतरंगना कौशेयवस्त्रो जेमने छे ते कटीसूत्रनीलपीतकौशेयवास एवा, श्रेष्ठ प्रभाव अने श्रेष्ठ कांतिपणाए करीने श्रेष्ठ अने देदीप्यमान तेजवाळा, विक्रमना योगथी नरसिंह (नरने विपे सिंह जेवा), मनुष्योना नायक होवाथी नरपति, परम ऐश्वर्यनो योग होवाथी नरेंद्र, उठावेला कार्यना भारनो निर्वाह करनार होवाथी नरने विपे वृषभ समान, मरुवृषभ जेवा एटले देवराज( इंद्र )नी उपमावाळा, राजतेजनी लक्ष्मीए करीने बीजा राजाओथी अत्यंत देदी ०२॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A P - प्यमान, तथा नील अने पीत वस्त्रवाळा, अहीं आ 'नीलपीतवसनाः ' ए शब्द फरीथी लख्यो छे ते निगमन( समाप्ति )ने माटे लख्यो छे. केवी रीते ते नव थया? ते कहे छे-दवे दवे' इत्यादि. आ प्रमाणे नव वासुदेव अने नव बळदेव जाणचा. 'तिविढे ' अहीं ' यावत् ' शब्द लख्यो छे तेथी ते गाथाओ आ प्रमाणे जाणवी-"तिविढे य दुविढे य, सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे ।। ५२ ॥ त्ति ।। अयले विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आनंदे णंदणे पउमे रामे यावि अपच्छिमे ॥५३॥ त्ति ॥”॥(त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त, नारायण अने कृष्ण ॥ ५२ ॥ अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनंद, नंदन, पद्म अने छेल्ला राम ॥ ५३ ॥ ) . ..मू०-एएसि णं णवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुवभविया नव नामधेज्जा होत्था, तं जहा-विस्सभूई पव्वयए धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले । पियमित्त ललियमित्ते पुणव्वसू गंगदत्ते य ॥ ५४ ॥ एयाइं नामाइं पुत्वभवे आसि वासुदेवाणं । एत्तो बलदेवाणं जहक्कम कित्तइस्सामि ॥५५॥ विसनंदी य सुबंधू सागरदत्ते असोगललिए य । वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य ॥ ५६ ॥ मूलार्थः-आ नव बळदेव अने वासुदेवना पूर्व भवे आ नव नाम हता, ते आ प्रमाणे-विश्वभूति, पर्वतक, धनदत्त, समुद्रदत्त, ऋषिपाल, प्रियमित्र, ललितमित्र, पुनर्वसु अने गंगदत्त. (५४) आ वासुदेवोना पूर्वभवना नाम हता. हवे बळदे - నాకు ఆ ఆ ఆ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ बोधुं अंग ॥३०३ ॥ चोना अनुक्रमे पूर्वभवना नाम कहुं हुं ( ५५ ) -- विश्वनंदी, सुबंधु, सागरदत्त, अशोक, ललित, वाराह, धर्मसेन, अपराजित अने राजललित ( ५६ ) ॥ मू० - सिं नवहं बलदेववासुदेवाणं पुवभविया नव धम्मायरिया होत्या, तं जहा - संभूय सुदंससेस कण्ह गंगदत्ते अ । सागरसमुद्दनामे दुमसेणे य णवमए ॥ ५७ ॥ er धम्मायरिया कित्ती पुरिसाण वासुदेवाणं । पुवभवे एआसिं जत्थ नियाणाई कासी य ॥५८॥ मूलार्थ:- नव वळदेव अने वासुदेवोना पूर्वभवे नव धर्माचार्यो हता, ते आ प्रमाणे- संभूति, सुभद्र, सुदर्शन, श्रेयांस, कृष्ण, गंगदत्त, सागर, समुद्र अने नवमा दुमसेन. (५७), आ पुरुपोमां प्रधान कीर्तिवाळा वासुदेवोना पूर्व भवे धर्माचार्यो हता, के ज्यां (जेमनी पासे ) तेओए ( चारित्र लइने ) नियाणां कर्या हतां ॥ ५८ ॥ मू०-एएसं नवहं वासुदेवाणं पुत्रभवे नव नियाणभूमिओ होत्था, तं जहा - महुरा य० हथिणारं च ॥ ५९ ॥ मूलार्थ:--- आ नव वासुदेवोनी पूर्वभवे नव नियाणा करवानी भूमि हती, ते आ प्रमाणे- मथुरा यावत् हस्तिनापुर ॥५९॥ टीकार्थ :- महुरा य कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायगिहं । कायंदी कोसंबी मिहिलपुरी हत्यिणपुरं च ॥ ५९ ॥ मथुरा, कनकवस्तू, श्रावस्ति, पोतनपुर, राजगृह, काकंदी, कौशांबी, मिथिलापुरी अने हस्तिनापुर || ५९ ॥ वासुदेव चळदेवना पूर्वभव नामादि । ॥३०३ ॥ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० - एएसि णं नवहं वासुदेवाणं नव नियाणकारणा होत्था, तं जहा - गावी जुवे जाव माउआ ॥ ६० ॥ मूलार्थ:- आ नव वासुदेवोना नव नियाणाना कारणो हता, तें आ प्रमाणे - गाय, यूप, यावत् मातृका ॥ ६० ॥ 'टीकार्थ :- गावि जुएं संगामे तह इत्थी पराइओ रंगे । भज्जाणुराग गोट्ठी परइड्डी माउया इय ॥ ६० ॥ गाय, यूप-स्तंभ, संग्राम, स्त्रीपराभव, रंग, स्त्रीराग, गोष्ठी, परनी ऋद्धि अने मातापराभव ॥ ६० ॥ मू० - एएसिं नवहं वासुदेवाणं नव पडिसत्थू होत्था, तं जहा - अस्सग्गीवे जाव जरासंधे ॥ ६१ ॥ एए खलु पाडसत्तू जाव सचक्कहिं ॥ ६२ ॥ एक्को य सत्तमीए पंचय छट्ठीए पंचमी एको । एको उत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीए || ६३ || अणिदाणकडा रामा [ सवे विय hear नियाणकडा । उडुंगामी रामा केसव सबे अहोगामी ॥ ६४ ॥ ] अट्टंतकडा रामा एगो पुण बंभलोयकप्पम्मि । एक्का से गन्भवसही सिज्झिस्सइ आगमिस्सेणं ॥६५॥ (सूत्रम् - १५८॥) मूलार्थ:-आ नव वासुदेवोना नव प्रतिशत्रु हता, ते आ प्रमाणे - अवग्रीव यावत् जरासंध ( ६१ ). आ प्रतिशत्रुओ यावत् पोताना चक्रवडे हणाया (६२), नव वासुदेवमांथी एक वासुदेव सातमी नरकपृथ्वीमां गया, पांच वासु Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन ऐवतमा थयेला. तीर्थंकरो। ॥३०॥ देवो छट्ठी नरके गया, एक पांचमीए गया, एक चोथीए गया अने कृष्ण त्रीजी पृथ्वीमां गया (६३). सर्वे राम-वळ- समवायाङ्ग देव नियाणा रहित होय छे [ अने सर्व वासुदेवो नियाणा सहित होय छे, सर्वे राम ऊर्ध्वगामी होय छे अने सर्व वासुदेवो Mama अधोगामी होय छे (६४).] आठ बळदेवो अंतकृत-मोक्षगामी थया अने एक राम (बळभद्र ) ब्रह्मलोक कल्पमां गया ते आगामी काळे एक गर्भवसति (भव ) करी सिद्ध थशे (आवती चोवीशीमा चौदमा तीर्थकरना चारामां सिद्ध थशे) (अहीं पाठांतरे 'आगमेस्साणं' एवो पाठ छ एटले भावी तीर्थकरोना समये सिद्ध थशे ) ॥ ६५) ॥ सूत्र-१५८ ॥ मू-जंबुद्दीवेणं दीवे एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थयरा होत्था, तं जहाचंदाणणं सुचंदं अग्गीसेणं च नंदिसेणं च । इसिदिणं वइहारिं वंदिमो सोमचंदं च ॥ ६६ ॥ वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तहेव सिवसेणं । बुद्धं च देवसम्म सययं निक्खित्तसत्थं च ॥६७॥ असंजलं जिणवसहं वंदे य अणंतयं अमियणाणिं । उवसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥ ६८ ॥ अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेवं । निवाणगयं च धरं खीणदुहं सामकोटुं च ॥ ६९ ॥ जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरायमग्गिउत्तं च । वोकसियपिज्जदोसं वारिसेणं गयं सिद्धिं ॥ ७० ॥ ma ॥३०॥ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार्थः-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपमां औरवत क्षेत्रने विषे आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरो थयाहता, ते आप्रमाणेचंद्रानन १, सुचंद्र २, अग्निसेन ३, नंदीसेन ( कोइ ग्रंथमां आत्मसेन एव॒ नाम पण देखाय छे ) ४, ऋपिदिन्न ५, व्रतधारी ६, श्यामचंद्र ७ ने हुं वांदु छ (६६). युक्तिसेन ( कोइ ठेकाणे दीर्घबाहु के दीर्घसेन एवा पण नाम देखाय छ) ८, अजितसेन ( कोइ ठेकाणे शतायु एवं पण नाम छे) ९, शिवसेन ( कोइ ठेकाणे आ सत्यसेन अने सत्यकि पण कहेवाय छे ) १०, बुद्ध-तत्त्वने जाणनार देवशर्मा ( बीजुं नाम देवसेन ) ११, निक्षिप्तशस्त्र (वीजुं नाम श्रेयांस ) १२, तेमने हुँ सदा नमुंटुं (६७), असंज्वल १३, जिनवृपभ (बीजुं नाम स्वयंजल ) १४, अमित-केवळ ज्ञानवाळा अनंतक (बीजुं नाम सिंहसेन) १५, धूत रजवाळा-जेणे कर्मरजनो नाश कर्यो छे एवा उपशांत नामना जिनेश्वर १६, गुप्तिसेन १७, आ सर्वने हुं वांदुं छु. ( ६८.). अतिपार्थ १८, सुपार्श्व १९, देवेश्वरोए वांदेला मरुदेव २०, मोक्षने पामेला, दुःखनो क्षय करनार अने श्याम कोष्ठवाला धर नामना जिनेश्वर २१, ए सर्वने हुं वांदु छु, (६९). रागने जितनार अग्निसेन (बीजुं नाम महासेन) २२, क्षीण रागवाळा अग्निपुत्र २३, रागद्वेषनो नाश करनार अने सिद्धिमां गयेला एवा वारिपेण २४, आ सर्वने हुं वांदु छु (७०). ( अन्य स्थाने आ नामोनी आनुपूर्वी ( अनुक्रम ) अन्यथा प्रकारे पण जोवामां आवे छे.)। ___मू०--जंबूद्दीवे णं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए भारहे वासे सत्त कुलगरा भविस्सति, | तं जहा-मियवाहणे सुभूमे य सुप्पभेय सयंपभे। दत्ते सुहुमे सुबंधू य आगमिस्साण होक्खति ॥७१॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री • जंबूद्दीवे णं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए एरवए वासे दस कुलगरा भविस्संति, तं जहा-- भरत विमलवाहणे सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दढधणू दसधणू सयधणू पडिसूई सुमइ ति ॥ ऐखतमां ऐर सूत्र ॥ भावी मूलार्थ:-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे आवती उत्सर्पिणीने विपे भरतखंडमां सात कुलकरो थशे, ते आ प्रमाणे पोथु अंग कुलकरो। मितवाहन, सुभूम, सुप्रभ, स्वयंप्रभ, दत्त, सूक्ष्म अने सुबंधु. (७१).॥ ॥३०५॥N आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे आवती उत्सर्पिणीने विपे औरवत क्षेत्रमा दश कुलकरो थशे, ते आ प्रमाणे-विमल वाहन, सीमंकर, सीमंधर, क्षेमंकर, क्षेमंधर, दृढधनु, दशधनु, शतधनु, प्रतिश्रुति अने सुमति ॥ : मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा भविस्संति, तं जहा-महापउमे सूरदेवे, सुपासे य सयंपभे । सव्वाणुभूई अरहा, देवस्सुए य होक्खई ॥ ७२ ॥ उदए पेढालपुत्ते य, पोहिले सतकित्ति य । मुणिसुवए य अरहा, सवभावविऊ जिणे ॥ ७३ ॥ अममे णिकसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे । चित्तउत्ते समाही य, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ७४ ॥ संबरे अणियही य, विजए विमलेति य । देवोववाए अरहा, अणंतविजए इय ॥ ७५ ॥ एए वुत्ता चउव्वीसं, भरहे वासम्मि केवली । आगमिस्सेण होक्खति, धम्मतित्थस्स । ॥३०५॥ AMI Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tamanaमा देसगा ॥ ७६ ॥ मूलार्थ:-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे भरतक्षेत्रने विपे आवती उत्सर्पिणीमां चोवीश तीर्थंकरो थशे, तेना नाम आ प्रमाणे-महापद्म १, सूर्यदेव २, सुपार्श्व ३, स्वयंप्रभ ४, सर्वानुभूति अरिहंत ५, अने देवश्रुत ६ नामना थशे. (७२). उदय ७, पेढालपुत्र ८, पोट्टिल ९, शतकीर्ति १०, मुनिसुव्रत अरिहंत ११, सर्वभावविद् जिनेश्वर १२, (७३) निष्कषाय १३, अमम १४, निष्पुलाक १५, निर्मम १६, चित्रगुप्त १७ अने समाधि १८ आगामी काळे थशे (७४), संवर १९, अनियट्टी २०, विजय २१, विमल २२, देवोपपात अरिहंत २३ अने अनंतविजय २४ (७५), आ चोवीश तीर्थकरो आगामी काळे भरतक्षेत्रमा धर्मतीर्थना उपदेशक थशे एम कयुं छे. (७६)॥ टीकार्थ-महापद्मने आरंभीने अनंतविजय सुधीना चोवीश नाम जाणवा (७५) ॥ मू-एएसि णं चउबीसाए तित्थकराणं पुबभविया चउबीसं नामधेज्जा भविस्तंति, तं जहा--सेणिय सुपास उदए पोटिल्ल अणगार तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा नंद सुनंदे य सतए य ॥ ७७ ॥ बोद्धबा देवई य सञ्चइ तह वासुदेव बलदेवे। रोहिणि सुलसा चेव तत्तो खलु रेवई चेव ॥ ७८ ॥ ततो हवइ सयाली बोद्धवे खलु तहा भयाली य । दीवायणे य कण्हे Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ॥३०६॥ श्री तत्तो खलु नारए चेव ॥ ७९ ॥ अंबड दारुमडे य साईबुद्धे य होइ बोद्धये । भावीतित्थगराणं भावी समवायाङ्ग । णामाइं पुवभवियाई ॥ ८॥ तीर्थंकरोना सूत्र ॥ I पूर्वभवना एएसि णं चउब्बीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पियरो भविस्सति, चउव्वीसं मायरो भवि-ING चोधुं अंग संति, चउव्वीसं पढमसीसा भविस्संति, चउव्वीसं पढमसिस्सणीओ भविस्संति, चउव्वीसं पढम- विगेरे । भिक्खादायगा भविस्सति, चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति ॥ - मूलार्थः-आ चोवीश तीर्थंकरोना पूर्व भव संबंधी चोवीश नाम आ प्रमाणे छे--श्रेणिक १, सुपार्श्व २, उदय ३, पोट्टिल्ल अनगार (साधु ) ४, दृढायु ५, कार्तिक ६, शंख ७, नंद ८, सुनंद ९, शतक १० (७७) देवकी ११, सत्यकि १२, कृष्ण वासुदेव १३, वळदेव १४, रोहिणी १५, सुलसा १६, त्यारपछी रेवती १७ ए नाम जाणवा (७८). त्यार7 पछी सयाल १८ छे, त्यारपछी भयाल १९ जाणवा, कृष्णद्वीपायन २०, त्यारपछी नारद २१, (७९). अंबड २२, दारुमृत २३ अने स्वातिबुद्ध २४ जाणवा. भावी तीर्थकरोना आ पूर्वभवना नाम जाणवा (८०)॥ आ चोवीश तीर्थंकरोना चोवीश पिताओ थशे, चोवीश माताओ थशे, चोवीश प्रथम शिष्यो थशे, चोवीश प्रथम शिष्या का थशे, चोवीश प्रथम भिक्षा आपनारा थशे अने चोवीश चैत्यवृक्षो थशे.॥ (तेना नामो अन्यस्थळेथी जाणी लेवा) ... ॥३०६॥ : ख Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मू--जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए बारस चकवहिणो भविस्सति, तं जहा--भरहे य दीहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य । सिरिउत्ते सिरिभूई सिरिसोमे य सत्तमे ॥ ८१ ॥ पउमे य महापउमे विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव । वरिट्टे बारसमे वुत्ते आगमिसा भरहाहिवा ॥ ८२ ॥ एएसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस पियरो भविस्संति बारस मायरो भविस्संति बारस इत्थीरयणा भविस्संति ॥ मूलार्थः-आ जंबूद्वीप नामना द्वीपने विषे भरतक्षेत्रने विषे आवती उत्सर्पिणीमां बार चक्रवर्तीओ थशे, तेना नामो आ प्रमाणे-भरत १, दीर्घदंत २, गूढदंत ३, शुद्धदंत ४, श्रीपुत्र ५, श्रीभूति ६, सातमा श्रीसोम ७, (८१).. पद्म महापद्म ९, विमलवाहन १०, विपुलवाहन ११ अने बारमा वरिष्ट १२-आ बार भरतना अधिपति आगामी काळे थशे एम कहुं छे. (८२) ॥ आ बार चक्रवर्तीना बार पिता. थशे, बार माता थशे अने बार स्त्रीरत्न थशे ॥ - मू०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति, नव वासुदेवमायरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति, नव दसारमंडला भविस्संति, तं जहा-उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी एवं सो चेव %ERB Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग ..सूत्र॥ पोएं अंग ॥३०७|| वण्णओ भाणियव्यो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, तं जहा- भरतमां भावी नंदे य नंदमित्ते दीहबाहू तहा महावाहू । अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे ॥ ८३ ॥ दुविट्ठ चक्रवय तिविटु य आगमिस्साण विण्हुणो । जयंते विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आणंदे नंदणे यादि। पउमे संकरिसणे य अपच्छिमे ॥ ८४॥ - एएसि णं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वभविया णव नामधेज्जा भविस्संति, नव धम्मायरिया भविस्संति, नव नियाणभूमीओ भविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्संति, तं जहा-तिलए य लोहजंघे वइरजंघे य केसरी पहराए । अपराइए य भीमे महाभीमे य सुग्गीवे ॥ ८५ ॥ एए खल्लु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे वि चक्कजोही हम्मिहिंति सचक्केहि ॥ ८६ ॥.. मूलार्थ:--जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे भरतक्षेत्रने विषे आवती उत्सर्पिणीमां नव बळदेव अने नव वासुदेवना नव पिता थशे, नव वासुदेवनी नव माता थशे, नव बळदेवनी नव माता थशे, नव दशारमंडळो थशे, ते आ प्रमाणे--उत्तम पुरुष, Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यम पुरुष, प्रधान पुरुष, ओजस्वी, तेजस्वी, ए ज प्रमाणे ते ज एटले पूर्वे विस्तारथी कह्या प्रमाणे वर्णन कहेतुं यावत् नीळ अने पीत वस्त्रवाळा वे वे राम अने केशव नामना भाइओ थशे. ते आ प्रमाणे -- नंद १, नंदमित्र २, दीर्घबाहु ३, तथा महाबाहु ४, अतिबळ ५, महाबळ ६, सातमा वळभद्र ७, ( ८३ ), द्विपृष्ठ ८ अने त्रिपृष्ठ ९, आ आवती उत्सर्पिणीमां थनार वासुदेवना नाम जाणवा. जयंत १, विजय २, भद्र ३, सुप्रभ ४, सुदर्शन ५, आनंद ६, नंदन ७, पद्म ८ अने छेला संकर्षण ९, ( नव वळदेवना आ नाम जाणवा. ) ( ८४ ) ॥ आ. नव वळदेव अने वासुदेवना पूर्वभवना नव नाम होशे, नव धर्माचार्यो थशे, नव नियाणानी भूमि थशे, नव नियाणाना कारणो थशे, नव प्रतिशत्रु थशे, ते आ प्रमाणे -- तिलक १, लोहजंघ २, वज्रजंघ ३, केसरी ४, प्रहलाद ५, अपराजित ६, भीम ७, महाभीम ८ अने सुग्रीव ९ (८५) आ पुरुषने विषे उत्तम कीर्तिवाळा वासुदेवोंना प्रतिशत्रु (प्रतिवासुदेव ) थशे. ते सर्वे चक्रवडे युद्ध करशे अने पोताना ज चक्रवडे हणाशे ( ८६ ) ॥ मू० - जंबुद्दीवे णं दीवे एरखए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउव्वीसं तित्थगरा भवि - स्संति, तं जहा - सुमंगले अ सिद्धत्थे, निव्वाणे य महाजसे । धम्मज्झए य अरहा, आगमि - स्साण होक्खई ॥ ८७ ॥ सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा, मिस्साण होक्खई ॥ ८८ ॥ सिद्धत्थे पुण्णघोसे य, महाघासे य केवली । सच्चसेणे य अरहा, आग Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATI... 'श्री ऐवतमा थनारा सूत्र॥ भावी तीर्थकरो। चोथु अंग। ॥३०८॥ आगमिस्साण होक्खई ॥ ८९ ॥ सूरसेणे य अरहा, महासेणे य केवली । सव्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खई ॥ ९० ॥ सुपासे सुव्वए अरहा, अरहे य सुकोसले । अरहा अणंतविजए, आगमिस्साण होक्खई ॥ ९१ ॥ विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महाबले। देवाणंदे य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥ ९२ ॥ एए वुत्ता चउव्वीसं, एरवयामि केवली। आगमिस्साण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥ ९३ ॥ - मूलार्थ:--जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे ऐरवत नामना क्षेत्रने विपे आवती उत्सर्पिणीमां चोवीश तीर्थंकरो थशे, तेना नामो आ प्रमाणे-सुमंगल १, सिद्धार्थ २, निर्वाण ३, महायश ४, धर्मध्वज ५, एआगामीकाळे थशे (८७) श्रीचंद्र ६, पुष्पकेतु ७, महाचंद्र केवळी ८, श्रुतसागर अरिहंत ९, ए आगामी काळे थशे (८८) सिद्धार्थ १०, पूर्णघोष ११, महाघोष केवळी १२, सत्यसेन अरिहंत १३, ए आगामी काळे थशे (८९). सूरसेन अरिहंत १४, महासेन केवळी १५, सर्वानंद अरिहंत १६ देवपणे होशे (९०) सुपार्श्व १७, सुव्रत अरिहंत १८, सुकोसल अरिहंत १९, अनंतविजय अरिहंत २०, ए आगामी काळे थशे (९१). विमल २१, उत्तर अरिहंत २२, महावळ अरिहंत २३ अने देवानंद अरिहंत २४. ए आगामी काळे थशे (९२) आ कहेला चोवीश केवळी ऐवतने विपे आगामीकाळे धर्मतीर्थने देखाडनार थशे (९३)॥ मू०-बारस चकवाट्टिणो भविस्संति, वारस चक्कवद्दिपियरो भविस्संति, बारस चक्कवट्टिमा ॥३०८॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यरो भविस्संति, वारस इत्थीरयणा भविस्संति ॥ नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्संति, णव वासुदेवमायरो भविस्संति, णव बलदेवमायरो भविस्संति, णव दसारमंडला भविस्संति, जहा - उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा जाव दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, नव पूव्वभवणामधेज्जा, नव धम्मायरिया, णव णियाणभूमीओ, णव णियाणकारणा, आयाए एवए आगमिस्साए भाणियव्वा । एवं दोसु वि आगमिस्साए भाणियव्वा ॥ (सूत्रम्--१५९ ) ॥ मूलार्थः -- चार चक्रवर्तीओ थशे, बार चक्रवर्तीना पिताओ थशे, बार चक्रवर्तीनी माताओ थशे, बार स्त्रीरत्नो थशे । नव वळदेव अने वासुदेवना पिताओ थशे, नव वासुदेवनी माता थशे, नव बळदेवनी माता थशे, नव दशारमंडळ थशे, प्रमाणे उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, प्रधान पुरुष, यावत् राम अने केशव ए बवे भाइओ थशे, तेमना नव प्रतिशत्रु थशे, नव पूर्वभवना नाम थशे, नव धर्माचार्य हशे, नव नियाणानी भूमि थशे, नव नियाणाना कारण वशे, आ प्रमाणे जेम भरतक्षेत्र संबंधी कह्युं छे तेम ऐवतमां पण आवती उत्सर्पिणीमां कहेतुं । ए ज प्रमाणे आगामी काळने आश्रीने बन्ने क्षेत्रमां कहेतुं ॥ सूत्र- १५९ ॥ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार । समवाय शब्दना यथार्थनामा टीकार्थ:-एज प्रमाणे आ सर्व सूत्र ग्रंथनी समाप्ति सुधी सुगम जाणवू. विशेप ए के--' आयाए ति'---वळ- समनायाग देवादिकथी आवेलं आ सूत्र एटले के देवलोकादिकथी चवेला एवा रामनी जे प्रकारे मनुष्यमा उत्पत्ति अने सिद्धि थइ .. सूत्र ॥ विगेरे सर्व कहेवू. एज प्रमाणे 'दोसु वित्ति'--भरत अने ऐवत क्षेत्रने विपे थवानावासुदेवादिक कहेवा ॥ सूत्र-१५९॥ पोथं अंग आ रीते अनेक प्रकारना अर्थों ( पदार्थों ) देखाडीने हवे अधिकार करेला आ ग्रंथना यथार्थ नामोने देखाडवा 10 माटे कहे छे-- ॥३.९॥ मू०--इच्चेयं एवमाहिज्जति, तं जहा--कुलगरवंसेइ य एवं तित्थगरवंसेइ य चकवहिवंसेइ य दसारवंसेइ य गणधरवंसेइ य इसिवंसेइ य जइवंसेइ य मुणिवंसेइ य । सुएइ वा सुअंगेइ वा सुयसमासेइ वा सुयखंधेइ वा समवाएइ वा संखेइ वा सम्मत्तमंगमक्खायं अज्झयणं ति बेमि ॥ (सूत्रम्--१६०)॥. ॥ इति समवायं चउत्थमंगं समत्तं ॥ मूलार्वः--ए रीते आ शास्त्र कहेवाय छे--ते आप्रमाणे--कुलकरना वंश, तीर्थकरना वंश, चक्रवर्तीना वंश, दशार(चळदेव-चासुदेव )ना वंश, गणधरना वंश, ऋपिवंश, यतिवंश अने मुनिवंश ॥ तथा श्रुत, श्रुतांग, श्रुतसमास, श्रुतस्कंध, समवाय (समूह), संख्या, समस्त अंग कयुं छे तथा समस्त अध्ययन कयु छे. एम हुं कहुं छु. ॥ सूत्र-१६०॥ ॥३०९॥ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . टीकार्थ:--' इति एतत् '--आ अधिकार करेलं शास्त्र ' एवं ' एटले आ कहेवाना प्रकारवडे 'आख्यायते एटले कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे--कुलकरवंशनुं एटले कुलकरोना प्रचाहनु कहेवापणुं होवाथी कुलकरवंश कहेवाय छे. अहीं सर्वत्र ' इति' शब्द उपदर्शनने विष छे अने 'च' शब्द समुच्चय अर्थने विष छे. ' एवं '--एज प्रमाणे 'तित्थगरवंसेइ यत्ति'--जेम देशथी कुलकरवंशनुं प्रतिपादन करेलु होवाथी कुलकरवंश एम कहेवाय छे, तेम देशथी तीर्थंकरवंशनुं प्रतिपादन करेलु होवाथी तीर्थकरवंश एम कहेवाय छे. ए ज प्रमाणे ते ते वंशनुं प्रतिपादन करेलु होवाथी चक्रवर्तीवंश, दशारवंश, गणधरवंश, गणधर सिवायना जे शेप जिनशिष्यो ते ऋषि कहेवाय छे, तेना वंश कहेला होवाथी ऋषिवंश एम कहेवाय छ कारणके अहीं तेनुं प्रतिपादन (कथन) समवसरणना अधिकारे करीने ऋषिवंश सुधी पर्युषणा कल्प कहेवामां आव्यो छे, तेथी करीने ज यतिवंश अने मुनिवंश पण आ कहेवाय छे; केमके यति अने मुनि ए बन्ने शब्दो ऋषिना ज पर्याय छे. तथा आ श्रुत पण कहेवाय छे, केमके आ श्रुत त्रण काळना अर्थनो बोध करवामां समर्थ छ, तथा । श्रुतांग पण आ कहेवाय छे एटले के प्रवचनरूप पुरुषनुं अंग-अवयव छे तेथी, तथा श्रुतसमास एटले समग्र सूत्रार्थोने अहीं संक्षेपथी कह्या छे तेथी श्रुतनो संक्षेप एम कहेवाय छे. तथा श्रुतना समुदायरूप होवाथी आ श्रुतस्कंध एम कहेवाय छे. तथा 'समाए वत्ति'-समवाय एम कहेवाय छे एटले के समग्र जीवादि पदार्थों अभिधेयपणाए करीने अहीं मळेला होवाथी आ समवाय कहेवाय छे. तथा एक विगेरे संख्याना प्रधानपणाए करीने आमां पदार्थोनुं प्रतिपादन कर्यु छे तेथी संख्या एम पण कहेवाय छे. तथा भगवाने समग्र आ अंग का छे, पण आचारांगादिकनी जेम वे श्रुतस्कंध विगेरे खंड-विभागोवडे आ - - Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसमाप्ति क समवाया सूत्र ॥ चोथु अंग ॥३१०॥ का नथी तेथी आ समस्तांग एम कहेवाय छे. तथा ' अज्झयणं ति त्ति'-आ समग्र अध्ययन एम कयुं छे, पण का छ, पण आमां शस्त्रपरिज्ञादिकनी जेम उद्देश विगेरे खंड-विभाग छे नहीं. छेवटनो 'इति' शब्द समाप्तिना अर्थमा प्रवर्ते छे. 'ब्रवीमीति'-हुँ कहुं छु एम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने कयु. श्रीमान महावीर वर्धमानस्वामीनी पासे जे धार्यु हतुं ते कयु. आ कहेवाथी अर्थ जाणवामां गुरुनी परंपरा जणावी, एम थवाथी ग्रंथने विषे शिष्यनी गौरवबुद्धि उपजावी कहेवाय छ अने गुरुने विषे पोतानुं बहुमान देखाडयु तथा उद्धृतपणुं दूर कयु. आ ज अर्थ शिष्यने प्राप्त थयेलो थाय छे अने आ ज मुमुक्षुनो मार्ग छे एम जणाव्यु. ॥ सूत्र--१६० ॥ SRIDESHEERESSESSETTER ॥ इति समवाय नामना चोथा अंगनी टीकानो अर्थ समाप्त.॥ SIRSINESHISINESSURESHEIGRIHSH ॥३१०॥ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ प्रशस्ति. श्री महावीरस्वामीने नमस्कार थाओ, श्रेष्ठथी पण श्रेष्ठ एवा श्रीपार्श्वनाथस्वामीने नमस्कार थाओ, श्रीसरस्वती देवीने नमस्कार थाओ, उत्तम कविओनी सभाने पण नमस्कार थाओ, श्रीसंघने नमस्कार थाओ, प्रगट गुणवाळा गुरुने पण नमस्कार थाओ, तथा आ प्रकृत विधिमा सहाय करनार सर्वने नमस्कार थाओ ॥ १ ॥ . अहो ! वचनना समुद्ररूप जे उत्तम ग्रंथनुं प्रमाण प्रथम एक लाख ने चुमाळीश हजार पदोनुं हतुं, ते कालादिकना दोपथी चुलुकनी आकृतिने पामेल तथा दुर्लेखने लीधे क्षीणताने पामेल आ ग्रंथ नानो थइ गयो छे तेमां मारी जेवा अल्पबुद्धिवाळा शुं करी शके ? ॥ २ ॥ तोपण पोताना आत्माने अति कष्टमां नांखीने मने कोइक दिवस अधिक कष्ट न थाओ अने आनुं विवेचन करनारा वीजा अल्पज्ञानवाळाने आना व्याख्यानमां अधिक कष्ट न थाओ, एम विचारीने में आमां कांइक व्याख्यान कयुं छे. तेमां कांड दोषवाळु व्याख्यान थयुं होय तो तेनी परोपकारमां उद्यमवाळा डाला पुरुषोए शुद्धि करवी ॥ ३ ॥ सर्वज्ञनुं वचन होवाथी आ वचन ( सूत्र ) मां कांइपण विरोध छे ज नहीं, तो पण कोइ ठेकाणे कांइ पण ते ( विरोध ) नो • आभास थाय तो ते मनुष्यनी बुद्धिनी मंदताने लीधे, उत्तम गुरुना विरहने लीधे, अथवा अतीत काळे मुनीश्वरोए गणधरना वचनोना समूहनो फेरफार करेलो होवाथी जाणवो ॥ ४ ॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चो अंग ॥३११॥ जो के आ व्याख्यान ( टीका ) उत्तम कविओना वचननी परतंत्रतावडे में कयुं छे, तोपण आमां कोइ ठेकाणे मन(मति ) ना मोहने लीघे अर्थादिकनो भेद ( दोष ) संभवे छे, परंतु श्रीसंघनी बुद्धिने अनुसरवानी विधिथी अने भावनी शुद्धी मारो अल्प दोप पण न हो, आ वावतमां श्रुतदेवता मारा पर प्रसन्न मनवाळा हो ॥ ५ ॥ free farararat मनोहर चारित्रवाळा श्रीवर्धमान नामना सूरितुं ध्यान करता, अति तीव्र तप करनार अने ग्रंथनी रचना करवामां प्रभु जेवा श्रीमान् जिनेश्वरसूरि तथा तेना बंधु, दर्पवाळा वाचाळ जनोने जीतनारा अने पृथ्वी पर प्रसिद्धिने पामेला श्रीबुद्धिसागर नामना सूरि थया हता ॥ ६ ॥ तेमना शिष्य श्री अभयदेव सूरिए श्रीसमवाय नामना आ चोथा अंगनी संक्षेपथी टीका करी छे ॥ ७ ॥ आ समवायांगनी टीका विक्रम संवत अग्यार सो ने वीश ( ११२० )नी सालमां अणहिलंपादक नामना नगरमां रची छे ॥ ८ ॥ • आ टीकाना दरेक अक्षर गणीने एनुं प्रमाण त्रण हजार अने पोणा छ सो ( ३५७५) श्लोक जेटलुं निश्चय कर्यु छे ॥९॥ | सूत्र संख्या श्लोक १६६७ अने टीका ३५७५ । बन्ने मळीने ५२४२ श्लोक छे. ॥ प्रशस्ति। ॥३१९॥ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति चंद्रकुळरूपी आकाशमा सूर्यसमान श्रीअभयदेव आचार्ये रचेली समवायांग सूत्रनी टीका, टीकानो अर्थ, मूळ ने मूळनो अर्थ - समाप्त ॥ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा तरफथी प्रगट थयेला (११) सूत्रो... (नथी) रुः १. श्री उत्तराध्ययन सूत्र मूळ-मूळार्थ-टीकार्थः.. . १२. श्री ज्ञातासूत्र-मूळ-मूळार्थ-टीकार्थ वे विभाग.... ३. श्री अंतगडदशांग ने अनुत्तरोववाइसूत्र-मूळ-मूळाथ-टीकार्थ...... ४. श्री निरयावली सूत्र ( पांच उपांग भेळा )... ५ श्री विपाकसूत्र ६. श्री समवायांग सूत्र मूळ-मूळार्थ-टीकाथ. तैयारः छ. ... रु. १॥ (नथी) ॥३१२॥ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- _