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________________ मूलार्थ:- तिगिच्छि अने केसरी ए वे द्रहनी लंबाई चार चार हजार योजननी कही छे (१) ॥ ४००० ॥ टीकार्थ :- तिगिच्छि अने केसरी द्रहो निषध अने नीलवंत वर्षधरनी उपर रहेला छे अने ते धृति अने कीर्ति देवीना निवासस्थान छे ( १ ) ||४००० | सूत्र - ११७ ॥ हवे पांच हजारमुं स्थान कहे छे मू० — धरणितले मंदरस्स णं पवयस्य बहुमज्झसभाए रुयगनाभीओ चउदिसिं पंच पंच जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे मंदरपवर पत्रत्ते |१| ५००० ॥ सूत्रम् - ११८ ॥ मूलार्थ:- पृथ्वीतळने विषे मेरुपर्वतना बहु मध्य देशभागमां रहेला रुचक प्रदेशना मध्य भागथी चारे दिशामां मेरु पर्वतना छेडा सुधी पांच पांच हजार योजननुं अबाधाए आंतरं करूं छे (१) ॥ ५००० ॥ टीकार्थ :- धरणितळे एटले पृथ्वीना समभागने विपे, रुचकनाभिथी एटले - " तिरछा लोकना मध्य भागे आठ प्रदेशवाळो रुचक कह्यो छे, ते ज रुचक दिशाओनुं अने विदिशाओनुं उत्पत्तिस्थान छे. " आ रुचक ज नाभि एटले पैडाना मध्यभाग जेवो होवाथी रुचकनाभि कहेवाय छे, मेरु पर्वतनो विष्कंभ दश हजार योजननो छे तेथी ते मेरु रुचकथी चारे दिशामां पांच पांच हजार योजन सुधी रहेलो छे (१) ॥ ५००० | सूत्र - ११८ ॥ हवे छ हजार स्थान कहे छे
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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