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श्री समवायाङ्ग
समवाय ४०००॥
, चोधु अंग
॥२०५॥
हीदेवी तथा बुद्धिदेवीना निवासरूप छे (१) २००० ॥सूत्र-११५॥
हवे त्रण हजारमुं स्थान कहे छे. मू०-इमीसे णंरयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ लोहियक्खकंडस्स हेटिल्ले चरमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते ।१॥३०००॥ सूत्रम्-११६॥
मूलार्थः-आ रत्नप्रभा पृथ्वीना वज्रकांडनी उपरना छेडाथी लोहिताक्ष कांडना नीचेना छेडा सुधी त्रण हजार योजननु अबाधाए आंतरं कयुं छे (१) ।। ३०००॥
टीकार्थः- इमीसे णं रयणेत्यादि-आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-रत्नप्रभा पृथ्वीना सोळ विभाग छ, तेमां खरकांड नामना पहेला कांड(विभाग)नो पहेलो रत्नकांड छ, वनकांड नामनो बीजो कांड छ, वैडूर्यकांड नामनो त्रीजो अने लोहिताक्ष नामनो चोथो छे. ते दरेक कांड हजार हजार योजनना छे तेथी आ वणर्नु आंतरं सूत्रमा कह्या प्रमाणे एकंदर व्रण हजार योजननु थाय छे (१) ॥ ३०००॥ सूत्र-११६ ॥ __ हवे चार हजारनुं स्थान कहे छे
मू-तिगिच्छिकेसरिदहाणं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं पन्नत्ताई।१॥४०००॥ सूत्रम्--११७ ॥
॥२०५॥