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________________ गेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकतीसं सागरोवमाइंठिई पन्नत्ता॥६॥ ते णं देवा एकतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससति वा नीससंति वा। १ । तेसि णं देवाणं एकतीसं(स)वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ । २। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कतीसेहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ ३॥ सूत्रम्-३१॥ ___मूलार्थ-सिद्धोने प्रथमथी ज एकत्रीश गुणो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-आभिनिवोधिकज्ञानावरण( मतिज्ञानावरण )नो | क्षय १,'श्रुतज्ञानावरणनो क्षय २, अवधिज्ञानावरणनो क्षय ३, मनःपर्यवज्ञानावरणनो क्षय ४, केवळज्ञानावरणनो क्षय ५, चक्षुदर्शनावरणनो क्षय ६, अचक्षुदर्शनावरणनो क्षय ७, अवधिदर्शनावरणनो क्षय ८, केवळदर्शनावरणनो क्षय ९, निद्रानो क्षय १०, निद्रानिद्रानो क्षय ११, प्रचलानो क्षय १२, प्रचलाप्रचलानो क्षय १३, स्त्यानर्द्धिनो क्षय १४, सातावेदनीयनो क्षय १५, असातावेदनीयनो क्षय १६, दर्शनमोहनीयनो क्षय १७, चारित्रमोहनीयनो क्षय १८, नरकायुनो क्षय १९, तिर्यगायुनो क्षय २०, मनुष्यायुनो क्षय २१, देवायुनो क्षय २२, उच्चगोत्रनो क्षय २३, नीचगोत्रनो क्षय २४, शुभनामनो क्षय २५, अशुभ नामनो क्षय २६, दानांतरायनो क्षय २७, लाभांतरायनो क्षय २८, भोगांतरायनो क्षय २९, उपभोगांतरायनो क्षय ३०, वीर्यांतरायनो क्षय ३१ (१)।
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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