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________________ AUDI ॥११६॥ all समवाय मेरुपर्वतनो पृथ्वीतळ उपर परिक्षेप ( परिधि.) कांइक ओछा एकत्रीश हजार छसो ने त्रेवीश (३१६२३) योजननो समवायाङ्गको छे (२)। ज्यारे सूर्य सर्व वाह्य मंडळने पामीने चार चरे छे (चाले छे) त्यारे अहीं ( भरतक्षेत्रमा) रहेला मनुष्यने - १ पत्र॥ एकत्रीश हजार आठसो ने एकत्रीश योजन तथा एक योजननासाठीया त्रीश भाग (३१८३१३) एटला दूरथी चक्षुना चोधू अंग स्पर्शने शीघ्र पामे छे (जोवामां आवे छे) (३)| अभिवार्धित (अधिक) मास कांइक अधिक एकत्रीश रात्रिदिवसनो रात्रिदिवसना कुलपणाए करीने कहेलो छ (४)। सूर्यमास कांइक विशेष न्युन एवा एकत्रीश रात्रिदिवसनो रात्रिदिवसना कुलपणाए करीने कहेलो छे (५)। आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। नीचेनी सातमी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी एकत्रीश सांगरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी एकत्रीश पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित विमानना देवोनी जघन्य स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी कही छे (५)। जे देवो उपरिमउवरिम ग्रैवेयक विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति एकत्रीश सागरोपमनी कही छे (६)। ते देवो एकत्रीश अर्धमासे ( पखवाडिये) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे निःश्वास ले छे (१)। ते । देवोने एकत्रीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छे के जेओ एकत्रीश भव ग्रहणवडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥ ला॥१६॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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