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अंग॥
समवायाङ्ग सूत्र॥
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केटलाक देवोनी पांच सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकांत, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृंग, वातशिष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सुसूर, सूरावर्त, सूरप्रभ, सूरकांत, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृंग, सूरशिष्ट, सूरकूट अने सूरोतरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपमनी कही छे (६)॥
ते देवो पांच अर्ध मासे (पांच पखवाडीयाने छेडे) आन ले छे, प्राण ले छे,एटले उच्छासले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने पांच हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे. (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ पांच भव ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे यावत सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ .. टीकार्थ-पांच स्थानतुं सूत्र पण सुगम छे. विशेप ए के-क्रिया, महाव्रत, कामगुण, आश्रव, संवर, निर्जरास्थान, समिति अने अस्तिकायना अर्थवाळा आठ सूत्रो छे, नक्षत्रना अर्थवाळा पांच सूत्रो छे, स्थितिना अर्थवाळा छ सूत्रो छे अने उकासादिकना अर्थवाळा त्रण सूत्रो छे. तेमा क्रिया एटले विशेष प्रकारना व्यापार, तेमां कायावडे जे क्रिया नीपजे ते कायिकी एटले कायनी चेष्टा कहेवाय छे. जेनावडे आत्मा नरकादिकने विष अधिकार कराय (नरकादिमां जाय) ते अधिकरण कहेवाय छे. ते अधिकरणबडे जे क्रिया नीपजे ते आधिकरणिकी एटले खङ्गादिक बनाववा विगेरेनी क्रिया. प्रद्वेष एटले मत्सर, तेनावडे जे क्रिया नीपजे ते प्राद्वेषिकी कहेवाय छे. परितापन एटले ताडनादिक विशेष प्रकारनुं दुःख, तेनावडे जे नीपजेली क्रिया ते पारितापनिकी कहेवाय छे, अने पांचमी प्राणातिपातिकी क्रिया प्रसिद्ध
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