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समवायाङ्ग
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वीरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छ सागरोपमनी कही छे ( ६ ) ॥ ते देवो छ अर्धमासे ( छ पखवाडियाने अंते ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उक्लास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने छ हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा कोइक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ छ भने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) ॥
टीकार्थ:- हवे छ स्थाननुं सूत्र कहे छे, ते सुगम छे. विशेष ए के अहीं लेश्या, जीवनिकाय, बाह्य तप, आभ्यंतर तप, | समुद्घात अने अवग्रह्ना अर्थवाळा छ सूत्रो, नक्षत्रने अर्थ वे सूत्रो, स्थितिने अर्थ छ अने उच्छ्वासादिकने अर्थे त्रण सूत्रो छे.
मां लेश्यानुं स्वरूप आ प्रमाणे कहे छे-" कृष्णादिक द्रव्यना समीपपणाथी ( काळा विगेरे पुद्गळो आत्मानी पासे रहेला होवाथी ) स्फटिकनी जेवा निर्मळ आत्मानो जे परिणाम - अध्यवसाय थाय ते परिणामने विषे आ लेश्या शब्द प्रवर्त छे ॥ १ ॥ " इति (१) । तथा वाह्य शरीरना शोषण वडे जे कर्मना क्षयनुं कारण थाय छे ते बाह्य तप कहेवाय छे (३) । चित्तनिरोधनी मुख्यतावडे जे कर्मना क्षयनुं कारण थाय ते आभ्यंतर तप कहेवाय छे (४) । तथा छाद्मस्थिक एटले केवळीपणा विनानी अवस्थामा जे थाय ते समुद्धात छ छे. समुद्घात शब्दनो अर्थ कहे छे-' सम् ' - ऐक्यपणाए करीने तथा उत् ' - प्रवळपणाए करीने ( अत्यंत ) जे 'घात' - निर्जरण एटले खेवी नांखनुं ते समुद्घात कहेवाय छे; कारण के वेदनादिक परिणामवाळो जीव वेदनीयादिक कर्मना घणा प्रदेशो के जे काळांतरे अनुभव करवा लायक होय तेने उदीरणा वडे खेंचीने उदयमां नांखी तेनो अनुभव करीने निर्जरण (क्षय) करे छे अर्थात् आत्मप्रदेशो साथै
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चोथुं अंग ॥
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