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IA छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रम्-६ ॥
- मूलार्थः-छ लेश्याओ कही छे, ते आ प्रमाणे-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या, शुक्ल-1 लेश्या (१)। छ जीवनिकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय (२)। छ प्रकारनो बाह्य तप कह्यो छे ते आ प्रमाणे-अनशन, ऊनोदरिका, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, संलीनता (३)।छ प्रकारे आभ्यंतर तप कह्यो छे, ते आप्रमाणे-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, उत्सर्ग (कायोत्सर्ग)
(४)। छाझस्थिक-छ समुद्घातो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-वेदनासमुद्घात, कपायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, ला वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात (५) छ प्रकारनो अर्थावग्रह कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-श्रोत्रंद्रियअर्थावग्रह, चक्षुइंद्रियअर्थावग्रह, घ्राणेंद्रियअर्थावग्रह, जिवेंद्रियअर्थावग्रह, स्पर्शेद्रियअर्थावग्रह, नोइंद्रियअर्थावग्रह (६)
कृत्तिका नक्षत्रना छ तारा कह्या छ (१)। अश्लेषा नक्षत्रना छ तारा कह्या छे (२)।
आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)त्रीजी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी छ सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) केटलाक असुरकुमार देवोनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)। सौधर्म अने ईशान कल्पने विषे केटलाक देवोनी छ पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) सनत्कुमार अने माहेंद्र कल्पने विषे केटलाक देवानी छ सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) त्यां जे देवो स्वयंभू, स्वयंभूरमण, घोष, सुघोप, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावत, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरशृंग, वीरशिष्ट, वीरकूड अने